Friday, July 31, 2020

प्रेमचन्द साहित्य में सन्निहित दलित चेतना सम्पन्नता-असम्पन्नता सम्बद्ध विमर्ष : एक अध्ययन



वर्तमान हिन्दी साहित्य जगत की बात करें और प्रेमचन्द साहित्य का जिक्र ना हो, यह एक असम्भव बात है। उपन्यास सम्राट् प्रेमचन्द के बिना वर्तमान हिन्दी कथा साहित्य की कल्पना नहीं की जा सकती, विषेषकर जब से (कुछ वर्ष पूर्व) प्रेमचन्द के साहित्य के साथ दलित विमर्ष जुड़ गया है, तब से प्रेमचन्द-साहित्य और भी प्रांसगिक हो गया है। बल्कि, यह कहना अतिष्योक्ति न होगा कि वर्तमान साहित्य जगत् में जितने प्रांसगिक साहित्यकार प्रेमचन्द हैं, उतना अन्य कोई साहित्यकार नहीं हैं। कान्तिमोहन इस बात को पुष्ट करते हुए लिखते हैं कि ‘‘दलित विमर्ष के सन्दर्भ प्रेमचन्द और हिन्दी कथाकारों में से सिर्फ प्रेमचन्द ही आज भी न केवल प्रांसगिक बने हुए है, बल्कि चर्चा के केन्द्र में हैं।‘‘1 चूंकि इस बात में कोई दो राय नहीं है कि वर्तमान साहित्य जगत् में दलित साहित्य एक क्रांति का पर्याय बन चुका है और इस क्रांति का हिन्दी साहित्य में अभी प्रारम्भ मात्र है। यहाँ यह कहना भी उचित होगा कि मार्क्सवाद-प्रगतिवादके पष्चात् समकालीन साहित्य में दलितवाद या दलित विमर्षएक बड़ा विक्षोभ है, जिसने साहित्य एवं संस्कृति को एक परिवर्ततनकारी मोड़ दिया है। इतिहास साक्षी है कि जब-जब क्रांति होती है, परम्परा का नये सिरे से मूल्यांकन होता है, कुछ पुराने प्रतिमान की जगह नये मूल्यों का निर्माण होता है। प्रेमचन्द ऐसे ही सौभाग्यषाली लेखक हैं, जिनकी चर्चा मार्क्सवाद के समय में भी उतनी  नहीं हुयी, जितनी आज दलित उभार के जमाने में हो रही है। यह चर्चा कुछ वैसे ही है, जैसे जब  देष में कोई सामाजिक और राजनीतिक क्रांति की बात की जाती ह,ै तो डॉ. अम्बेडकर व गांधी के बिना पूर्ण नहीं हो सकती है, यह उनकी वर्तमान समय में भी प्रासंगिकता का प्रमाण है। डॉ. अम्बेडकर व गांधी के साथ ही प्रेमचन्द ने हमेषा अपने आपको तत्कालीन समाज और राजनीति से जोड़कर देखा। इस विषय में ठाकुर हरिनारायण कहते हैं कि ‘‘गांधी  ने धर्म को राजनीति से जोड़ा, डॉ. अम्बेडकर ने समाज को और प्रेमचन्द ने साहित्य को।2‘‘ अगर दलित चेतना/विमर्ष की बात की जाए, जो प्रेमचन्द विगत कुछ वर्षा से खासे विवादस्पद हुए हैं। दलित विमर्ष के सन्दर्भ में पिछले कई वर्षो में प्रेमचन्द पर जितना चर्चाएं हुई है, तर्क-वितर्क, आलोचना एवं प्रतिवाद हुए है, उतने किसी अन्य भारतीय लेखक के सम्बन्ध में नहीं हुए हैं। प्रेमचन्द हिन्दी साहित्यकारों में खासकर दलित लेखकों में शुरु से ही विवाद का कारण बने रहे हैं, बल्कि प्रेमचंद के जीवन काल के दौरान भी उनके साहित्य को सन्देहात्मक दृष्टि से देखा जा रहा था। वास्तव में हिन्दी साहित्य, विषेषकर दलित साहित्य में, यह आज भी यक्ष प्रष्न बना हुआ है कि प्रेमचन्द को दलित साहित्यकार की श्रेणी में रखा जाए या नहीं?

वर्तमान समय की यह माँग बन चुकी है कि प्रेमचन्द का पुनःपाठ अथवा दलित पाठ किया जाना चाहिए, क्योंकि जिस प्रकार प्रेमचन्द को दलित-विरोधी, सामन्तों का मुंषी (डॉ. धर्मवीर), विदेषी साहित्य का नकलची इत्यादि नामों से पुकारा जा रहा है, जो कि साहित्य की दृष्टि से न्यायसंगत प्रतीत नहीं होता है। इस प्रकार की चर्चाओं से साहित्य का हित भी हुआ है और अहित भी। प्रेमचन्द की इस प्रकार की आलोचनाओं से साहित्य का हित इस रूप में हुआ है कि दलित लेखकों ने प्रेमचन्द का पुनर्पाठ किया है, जिसके फलस्वरूप आलोचना में एक नयी दृष्टि के साथ-साथ दलित दृष्टि भी समृद्ध हुई है। साहित्य के अहित के विषय में हरिनारायण जी कहते हैं कि ‘‘सृजनात्मक लेखन बाधित हुआ है और कई ऊर्जावान लेखकों की बहुत सारी रचनात्मक ऊर्जा इस उठा-पटक की भेंट चढ़ गयी है।’‘3 प्रेमचन्द साहित्य सम्बंधी विरोध को दो रूपों में देखा जा सकता है। एक तो विरोध केवल विरोध के लिए किया जाए, तो अधिक समय तक नहीं चलता और व्यर्थ ही होता ह,ै किन्तु दूसरी तरफ सकरात्मक और रचनात्मक विरोध सार्थक उपलब्धियों से भरा होता है। दलित लेखकों द्वारा प्रेमचन्द के विरोध के मूल्यांकन को इसी दृष्टि से देखे जाने की जरूरत है। अब यहाँ प्रष्न यह भी उठता है कि ‘‘ क्या दलितों का प्रेमचन्द-विरोध केवल विरोध के लिए है या कि वह रचनात्मक के लिए है? क्या उनका विरोध निराधार या तर्कहीन है या उसके पीछे कोई ठोस आधार है?‘‘4 इस पर गम्भीरता से चर्चा करना अनिवार्य हो गया है। साथ ही प्रेमचन्द साहित्य को लेकर एक मुद्दा और भी कि प्रेमचन्द-साहित्य को किस श्रेणी में स्थान दिया जाए? जबकि इसके उत्तर में दलित और गैर-दलित साहित्यकारों दोनों का ही दृष्टिकोण अलग-अलग है। एक वर्ग जहाँं प्रेमचन्द-साहित्य को दलित साहित्य के अन्तर्गत रखता है और दूसरा इसका पूर्ण रूप से विरोध करता है। जयप्रकाष कर्दम जी (दलित लेखक) ने इस सन्दर्भ में प्रेमचन्द विरोध और समर्थन के दो उदाहरण दिये हैं, पहला सी.बी.एस.ई. पाठ्यक्रम से प्रेमचन्द के निर्मलाउपन्यास की जगह मृदुला सिंह के ज्यों मेहंदी को रंगको लगाए जाने का तथा दूसरा रंगभूमिको जलाये जाने पर राष्ट्रव्यापी विरोध का मुद्दा। दोनों ही स्थितियों में प्रेमचन्द को राष्ट्रव्यापी समर्थन मिला।

उपन्यास रंगभूमिका दहन हंसके वर्तमान सम्पादक राजेन्द्र यादव के तथाकथित दलित विरोधी तेवर का परिणाम था। इस बात का प्रमाण देते हुए हरिनारायण ठाकुर लिखते है कि ‘‘वस्तुतः रंगभूमिका दहन हंसके संपादक राजेन्द्र यादव और भारतीय दलित साहित्य अकादमीके अध्यक्ष डॉ. सोहनपाल सुमनाक्षर के बीच द्वन्द्व का परिणाम था।‘‘5 हांलाकि उपरोक्त मुद्दा साहित्य की राजनीति से सम्बंध रखता है परन्तु फिर भी यहाँं इसका जिक्र किया जाना बेहद आवष्यक है। दलित लेखकों में जिसने प्रेमचन्द का खुलकर और पूर्ण रूप से विरोध किया वह हैं डॉ. धर्मवीर भारती। अब तक का प्रेमचन्द पर सबसे बड़ा प्रष्न इन्होंने ने ही उठाया है कि ‘‘दलितों का लिखा हुआ साहित्य प्रेमचन्द के साहित्य की काट हैय उस पर रोक है, उसका क्रमिक विकास नहीं। दलित साहित्य जिस जगह पर जन्म लेता है, द्विज साहित्य उस जगह पर मरने तक भी नहीं पहुँच सकता।‘‘6  पर यहाँं ध्यान देने वाली बात है कि धर्मवीर जी के प्रेमचन्द विरोध की कसौटी साहित्यषास्त्र न होकर समाजषास्त्र है। डॉ. धर्मवीर ने यहाँ पितृसत्ताऔर मातृ सत्ताके पष्चात् इस नयी सत्ता पर दृष्टि डाली ह,ै वह है जारसत्ता। उन्होंने प्रेमचन्द का सम्पूर्ण मूल्यांकन इसी आधार पर किया है, जिसके फलस्वरूप इन्होंने प्रेमचन्द को सामन्त का मुंषीकहा है, लेकिन यह तथ्य भी द्रष्टव्य है कि धर्मवीर जी प्रेमचन्द का मूल्यांकन किया है, वह साहित्य कम व्यक्तिगत ज्यादा है, जबकि कोई भी साहित्यकार हो उसके व्यक्तित्व और कृतित्व में अन्तर पाया जाता है। इसी आधार पर दलित लेखिका अनिता भारती ने डॉ. धर्मवीर की आलोचना भी की है। इसके साथ ही देष निर्मोही के अनुसार, ‘‘डॉ. धर्मवीर ने प्रेमचन्द के निजी जीवन और लेखन पर जो आरोप लगाये हैं, वे बेबुनियाद हैं।‘‘7 धर्मवीर जी के पक्ष में मोहनदास नैमिषराय जी कहते हैं कि ‘‘बड़े लेखकों से भी चूक होती है। ऐसी ही चूक प्रेमचन्द ने भी की है, जिसे धर्मवीर ने दर्षाया हैं।‘‘8 जबकि मैनेजर पांडे ने धर्मवीर को पैदाइषी स्त्री विरोधी बतलाया है।

साधारणतः किसी भी लेखक को समझने के लिए कुछ आधार बिन्दु हैं- सबसे पहला तो यह कि उसका लेखन, सृजनात्मक है या चिंतनपरक या दोनों, परन्तु मुख्य रूप से सृजनात्मक। दूसरा जो आधार है, लेखक का अपना जीवन व्यवहार और जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि जीवन-व्यवहार के स्तर पर भारत ही नहीं, वरन् विष्व के समस्त साहित्यकारों के जीवन में भी अन्तर्विरोध होता है और साथ किसी भी लेखक के अपने व्यक्तिगत जीवन और उसके लेखन में जमीन-आसमान का अन्तर देखा जा सकता है। उदारणार्थ यदि लेखक की आयु 100 वर्ष की है, तो भी उसका लेखन का जीवन दषकों, सदियों तक भी चल सकता है। इसी प्रकार प्रेमचन्द का लेखन उनके व्यक्तिगत जीवन के प्रति तमाम तरह के प्रतिक्रियाओं के बावजूद भी दीर्घकालीन रहा है और दीर्घाकालीन रहेगा। यहाँ यह भी तथ्य ध्यान में दिया जाना चाहिए कि लेखक के व्यक्तिगत जीवन संबधी प्रामाणिकता की तलाष की जानी ह,ै तो वह लेखक के जीवनकाल में ही अधिक सार्थक होती है। लेखक के मृत्यु के पष्चात् उसके जीवन की घटनाओं पर प्रतिक्रियाएं एक सीमा के बाद निरर्थक प्रतीत होने लगती है या हद से हद उनका महत्व पाठ्यक्रम तक सीमित रह जाता है। अब यदि प्रेमचन्द पर बार-बार जारकर्म के आरोप लगते भी हैं, तो वह अपने आप में निरर्थक ही कहलायेंगे। इसी सन्दर्भ में प्रो. चमनलाल लिखते है कि ‘‘वस्तुगत स्तर पर प्रेमचन्द के किसी भी विमर्ष को उनके जीवन से नहीं, उनके लेखन से व्याख्यायित किया जाना जरूरी भी है और सही तथा वस्तुगत भी। उनके जीवन में बार-बार झांकना कई बार अपनी ही दृष्टि की सीमाओं को जगजाहिर करना सिद्ध हो जाता है।‘‘9 इसी आधार पर प्रेमचन्द को लेकर बार-बार उनके व्यक्तिगत जीवन में झांकना बिल्कुल उचित नहीं है।

इस बात में कोई अतिष्योक्ति नहीं है कि प्रेमचन्द ने करीब साढ़े तीन दषक के अपने लेखन काल में हिन्दी साहित्य को विपुल साहित्य प्रदान किया है। इनके लेखन में सृजनात्मक और चितंनपरक, दोनों प्रकार का साहित्य शामिल है। अगर संख्या की दृष्टि से देंखे, तो उनकी रचनाओं का आंकड़ा हजार के पार पहुँच चुका है, लेकिन यहाँ यह बताना आवष्यक है कि वर्तमान हिन्दी साहित्य में प्रेमचन्द की प्रसिद्धि का एक मात्र कारण उनके साहित्य में दलित-विमर्ष पर अर्न्तद्वन्द्व ही है। इस दलित विमर्ष को प्रेमचन्द साहित्य से निकाल दिया दें, तो शायद प्रेमचन्द उतने साहित्यक चर्चा के विषय नहीं रहेंगे जितना कि अब हैं। ओमप्रकाष वाल्मिकी ने इस बात को प्रामाणिक ढंग से प्रस्तुत करते हुए अपने लेख में लिखते हैं कि ‘‘आज भी प्रेमचन्द जीवित हैं, तो उन निरंतर और नये-नये आयामों से होने वाली चर्चा के कारण। बिना चर्चा के किसी रचनाकार की श्रेष्ठ रचनाएं भी समय के गर्त में खो जाती हैं, उन्हें भुला दिया जाता है। किसी आलोचक ने कोई स्थापना दी, तो क्या आने वाली पीढ़ी को भी उस स्थापना को आँख मूँद कर मानते रहना चाहिए? ‘‘10 जैसा कि दलित साहित्य लिखे जाने से पूर्व प्रेमचन्द-साहित्य के साथ किया जा रहा था। प्रो. चमनलाल भी इसी पक्ष में लिखते हैं कि ‘‘प्रेमचन्द के इस विपुल साहित्य में से उनके सृजनात्मक साहित्य में अभिव्यक्त दलित विमर्ष से ही हिन्दी में अधिकांष विवाद पैदा हुए हैं।.................दलित साहित्य पर पिछले एक दषक से शुरु हुई चर्चा में कफनको दलित विरोधी कहानी कहा गया।‘‘11

ओमप्रकाष वाल्मिकी ने प्रेमचन्द साहित्य को लेकर और भी कई प्रष्न खड़े किये हैं, जिनका उत्तर देना शायद ही गैर दलित लेखकों के वष में हो। उन्होंने कहा है कि ‘‘दलित लेखकों ने प्रेमचन्द के सम्बन्ध में जो सवाल उठाए हैं, उन्हें अतिवादी  दृष्टिकोण कह कर खारिज कर देना, क्या साहित्य की मूल भावना और उसके सामाजिक उत्तरदायित्व के पक्ष में जाता है? क्या दलित रचनाकारों का अपना स्वतंत्र मत निर्मित करना साहित्य-विमर्ष में गैर-जरूरी है? क्या प्रेमचन्द का साहित्य भी धार्मिक साहित्य की श्रेणी में स्थापित कर दिया गया है कि उसकी आलोचना नहीं की जा सकती?‘‘12 गैर-दलित लेखकों ने जब यह तक कहने में संकोच नहीं किया कि दलित लेखक प्रेमचन्द से अच्छा लिख कर दिखाएं तो ओमप्रकाष वाल्मिकी इसका करारा जवाब देते हुए कहा कि ‘‘प्रेमचन्द रूपी लाठी से दलित लेखकों को डराया-धमकाया जाने लगा। जैसे दलित लेखक उनके महत्व को खंडित करने, उनके आरक्षित क्षेत्र में घुसने की कोषिष कर रहे थे, लेकिन इस विद्वानों ने दलित पक्ष को जानने-समझने का प्रयास ही नहीं किया, क्योंकि यह उनके संस्कारों के विरूद्ध हैं। उन्हें सिखाने की आदत है, सीखने की नहीं।‘‘13

                   सर्वप्रथम प्रेमचन्द की जो कहानी दलित-विरोधी घेरे में आयी वह थी- कफन। इस कहानी के सन्दर्भ में नैमिषराय जी प्रेमचंद पर दलित पात्रों की अवमानना का आरोप लगाते है- ‘‘क्या प्रेमचन्द दलित चेतना के सूत्रधार थे? दलित चेतना की अवधारणा इतनी सुपरिभाषित है कि इससे प्रेमचन्द को जोड़ पाना सम्भव नहीं है। वह जन्मना कायस्थ थे और दलित इसकी अनदेखी नहीं कर सकता है।‘‘14 प्रारम्भ से ही दलित लेखकों का कहना है कि प्रेमचन्द ने अपने साहित्य में अधिकतर स्थान पर दलित पात्रों के लिए जातिसूचक शब्दों जैसे- चमार, भंगी आदि का प्रयोग बहुतयात से किया है, जो कि उस जाति विषेष को चोट पहुंचाती है। उनका यह भी कहना है कि प्रेमचन्द उक्त जातिसूचक शब्दों के स्थान पर दलितशब्द का प्रयोग भी कर सकते थे, कांतिमोहन इसके जवाब में कहते हैं कि ‘‘प्रेमचन्द के जमाने में दलित शब्द वजूद में होते हुए भी प्रचलन में नहीं था। तत्कालीन साहित्य में अंग्रेजी के शब्द डिप्रेस्ड क्लासेजके लिए कहीं-कहीं दलितया दमित तबकेशब्द का प्रयोग मिलता है। यहाँ तक कि 80 के दषक के आरम्भ में, जब हमने इस विषय का अध्ययन आरम्भ किया था, तब भी इन तबकों के लिए अछूत ही चलता था।‘‘15 इसके साथ आज यह भी प्रष्न उठाया जाना अनिवार्य हो गया है कि सन् 1916-1936 के मध्य जब प्रेमचन्द अपने साहित्य में जातिसूचक शब्दों का उल्लेख कर रहे थे, तो आज साहित्य जगत् में इतना हंगामा मच रहा है, जबकि उस समय जातिसूचक के स्थान पर अछूतशब्द का प्रचलन था, जो कि स्वयं में एक सम्मानजनक शब्द तो कतई नहीं है। वहीं दूसरी ओर, आज 21वीं सदी में दलित लेखकों के माध्यम से साहित्य में जातिसूचक शब्दों का प्रयोग धडल्ले से हो रहा है, तो इसे सकारात्मक दृष्टिकोण से देखा जा रहा है, आखिर क्यों?

                   प्रेमचन्द-साहित्य से सम्बद्ध दलित विरोध को लेकर आज दलित साहित्य में कई तथ्य मौजूद हैं। डॉ. धर्मवीर लिखते हैं कि ‘‘दलित की समस्याओं का वर्णन करने से दलित साहित्य का सृजन नहीं हो जाता। दलित की भूख, पीड़ा और त्रासदी के बखान में उसकी इतिश्री नहीं होती। दलित साहित्य का असली सृजन तब होता है, जब उसमें दलित का चिन्तन आता है। सारे गैर-दलित लेखक उसके इसी चिन्तन से घबराते हैं। एक प्रेमचन्द की अलग से क्या कही जाये, कोई भी अन्य गैर-दलित लेखक इसका अपवाद नहीं हो सकता।.......................................................प्रेमचन्द समेत कौन-सा गैर-दलित हिन्दू लेखक है, जो इन बातों को सपनें में भी सोच सकता है?16 जहाँ एक ओर डॉ. धर्मवीर प्रेमचन्द-साहित्य को दलित रचना स्वीकार नहीं करते, वहीं ओमप्रकाष वाल्मिकी को उनकी रचनाओं में दलित चेतना दिखायी पड़ती है और भगवानदास कहते है कि ‘‘यह सच है कि प्रेमचन्द के उर्दू और हिन्दी में लिखे कुछ अफसाने अछूत जीवन की तस्वीर पेष करते हैं, परन्तु यह दलित साहित्य नहीं, दलित लेखकों से प्रभावित साहित्य है।‘‘17 उपरोक्त तीनों लेखकों (धर्मवीर, वाल्मिकी एवं भगवानदास) की बातों को गम्भीरता से लेते हुए यह कहना उचित होगा कि ‘‘डॉ. धर्मवीर जैसे लेखक प्रेमचन्द की किसी भी रचना को दलित रचना नहीं मान रहे हैं, किन्तु वाल्मिकी को उनकी कुछ कहानियों में दलित चेतना दिखायी पड़ रही है, परन्तु भगवानदास की उक्त टिप्पणी को क्या कहा जाए, जिसमें प्रेमचन्द की रचनाओं में तो वे दलित चेतना स्वीकार करते हैं, किन्तु उन्हें दलित लेखकों से प्रभावित बताते हैं। अब इस बात का जवाब तो स्वयं भगवानदास जी दे सकते हैं कि प्रेमचन्द काल में कौन-सा दलित लेखक साहित्य लिख रहा था जिसका प्रभाव प्रेमचन्द पर था? यह बात सच में समझ से बाहर की प्रतीत हो रही है।

                   प्रेमचन्द-साहित्य के सन्दर्भ में इस बात में कोई दूसरी राय नहीं है कि प्रेमचन्द का साहित्य गांधीवाद से प्रभावित था, परन्तु साथ ही कहीं ना वह डॉ. अम्बेडकरवाद, मार्क्सवाद, स्त्रीवाद से भी प्रभावित दिखता है। इनका रचना काल 1916-1936 के मध्य रहा है। यह समय राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्तर पर काफी उथल-पुथल भरा समय था। वह इतिहास का वह समय था, जिसमें उत्तर नवजागरणकालीन समाज-सुधार एवं स्वतंत्रता आन्दोलन चल रहे थे। इस समयान्तराल में ब्रह्य समाज, आर्य समाज, हिन्दू समाज, मुस्लिमलीग, डॉ. अम्बेडकर, गांधी आदि के आन्दोलन भी चरम पर थे। साथ ही किसान आन्दोलन, मार्क्सवाद आन्दोलन का प्रारम्भ भी इसी काल में हुआ। हिन्दी साहित्य के काल विभाजन के अनुसार यह समय छायावादकहलाया। यह वही समय था जिसमें दलित समस्या ने एक राष्ट्रीय समस्या का रूप लिया और इसी समय डॉ. अम्बेडकर और गांधी दोनां के आन्दोलन चल रहे थे। डॉ. अम्बेडकर की क्रांति में जहाँ दलित मुक्ति शामिल थी, वही गांधी और कांग्रेस का आन्दोलन मात्र अस्पृष्यता निवारण तक ही सीमित था। दक्षिण में जहाँ दलित सुधारक के रूप में डॉ. अम्बेडकर सक्रिय थे, वहीं उत्तर में स्वामी अछूतानंद।

                   यहाँ ध्यानाकर्षण की बात यह भी है कि समाज में उपरोक्त ढेर सारी समस्याएं होने के बावजूद भी प्रेमचन्द के जमाने के साहित्यकार विषेषकर कविता कोलाहल कलहसे दूर कहीं नौका विहारकर रही थी, तो कहीं-कहीं राम की शक्ति पूजा‘, तो कहीं इस घोर भौतिक युग में भी शाष्वत और चिरन्तन सुख की लड़ियां गिनी जा रही थीं, परन्तु कहीं दूर निराला चतुरी-चमारजैसी कहानी के माध्यम से गरीब-तबकों की पीठ सहला रहे थी, तो महादेवी घर-बाहरमें महिलाओं की समस्याओं का निदान तलाष रही थीं। इसके विपरीत प्रेमचन्द साहित्य पर नजर डालें तो ‘‘प्रेमचन्द ने अपने पूरे साहित्य को भारतीय जनजीवन का गीत बनाकर उसे सामाजिक सरोकारों से सीधा जोड़ दिया। उन्होंने भारत की आत्मा किसान-मजदूरों के दुख-दर्द को अपने साहित्य का विषय बनाया, कथा साहित्य में पहली बार यथार्थ को स्वीकार्य बनाया। प्रेमचन्द के दर्जनों उपन्यास और सैकड़ो कहानियों में शायद ही कहीं किसी राजा-महाराजा या सामन्त वर्ग का कोई नायक मिल जाये। सवर्णो में बहुत हुआ तो कहीं-कहीं कायस्थनायक आये हैं, जिन्हें बकौल डॉ. धर्मवीर ब्राह्यणों ने शूद्रही माना है। ब्राह्यण तो उनके कथा साहित्य के खास खलनायक हैं। प्रेमचन्द का यदि सबसे अधिक विरोध किसी से है, तो वह है ब्राह्यणी व्यवस्था और हिन्दू धर्म के पाखंड।‘‘18    प्रेमचन्द के पक्ष में देवेन्द्र चौबे लिखते हैं कि ‘‘गैर-दलित रचनाकारों में प्रेमचन्द को छोड़कर कोई भी लेखक सवर्ण संस्कार से मुक्त दिखायी नहीं पड़ता है।.........................‘19 इसी समय की बात है 1932 में जब डॉ. अम्बेडकर एवं गांधी के मध्य पूना पैक्ट पारित हुआ। देखा जाए तो इसमें डॉ. अम्बेडकर की हार ही हुई थी, क्योंकि गांधीजी ने डॉ. अम्बेडकर पर दबाव बनाया कि वह इसे वापस ले लें। गांधी जी इसमें सफल रहे और पूना पैक्ट के रूप में डॉ अम्बेडकर को झुकना पड़ा। ओमप्रकाष वाल्मिकी इसी सन्दर्भ में कहते हैं कि ‘‘ऐसे वक्त में प्रेमचन्द की भूमिका को भी जान लेना जरूरी है। पूना पैक्ट के बाद जहां अम्बेडकर और दलितों में घोर निराषा थी, वहीं प्रेमचन्द इसे राष्ट्रीयता की विजयकहा था। निर्णाकयक मोड़ आते ही प्रेमचन्द की अछूत-सहानुभूति अपना पक्ष बदल लेती है। अम्बेडकर को प्रेमचन्द हमेषा शंका की दृष्टि से ही देखते रहे। स्वयं चमनलाल ने इस तथ्य को स्वीकार किया है।‘‘20 चमनलाल जी ने इस तथ्य को स्वीकार करते हुए मानते हैं कि प्रेमचन्द जितना गांधी से प्रभावित थे, उतना डॉ. अम्बेडकर से नहीं, लेकिन फिर भी दलित लेखिका अनिता भारती अपने हाल ही में प्रभात पोर्टलपर प्रकाषित लेख (प्रेमचन्द और दलित मत, कुमत) में प्रेमचन्द के पूर्णतः पक्ष में खड़ी हैं- ‘‘दलित चेतना की दृष्टि से प्रेमचन्द की जिन कहानियों पर सर्वाधिक चर्चा रहती है, उनमें मुख्य रूप से सद्गति‘, ‘ठाकुर का कुआँ‘, ‘दूध का दाम‘, ‘कफन‘, ‘मंदिरऔर पूस की रातहै। दलित चेतना के सन्दर्भ में यदि इन कहानियों पर बात की जाए तो ये सारी कहानियां दलित चेतना की सषक्त कहानियां हैं। प्रेमचन्द यर्थाथवादी लेखक थे, उन्होंने समाज में दलितां, शोषितों, वंचितों और स्त्रियों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार का मार्मिक चित्रण किया है।‘‘21

                   अब बात करें ठाकुर का कुआँ‘ (1932) और दूध का दाम (1934)‘ की तो, ये दोनां कहानियां पूना-पैक्ट के बाद में लिखी गयीं। इन पर डॉ. अम्बेडकर के महाड़ और कालाराम मन्दिर प्रवेष आन्दोलन की वैचारिक छाप स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है, बल्कि सद्गतिकहानी पर तो ब्राह्मणों द्वारा प्रेमचन्द को घृणा का प्रचारकतक कह दिया गया। हालांकि ‘‘‘सद्गतिकहानी में प्रत्यक्ष रूप से कोई दलित संघर्ष नहीं है, लेकिन परोक्ष रूप से इसमें एक बड़ा विद्रोह समाया हुआ है। दलित पीढ़ा की ऐसी मर्मान्तक त्रासदी और व्यवस्था से ऐसी असहमति शायद ही किसी साहित्य में उपलब्ध हो।‘‘22  इन्हीं कहानियां को आधार मानकर अनिता भारती आगे अपने लेख में लिखती हैं ‘‘वहीं  अमूर्त रूप में सद्गति‘, ‘ठाकुर का कुआँ‘, ‘दूध का दाम‘, ‘कफन‘, ‘मंदिरऔर पूस की रातमें सवर्ण वर्गीय जातिगत मानसिकता पर प्रहार करती हैं।‘‘23 मंदिर कहानी आप देख सकते हैं कि सुखिया अपने पल-पल मरते हुए बच्चे को देखने की मार्मिक स्थिति से जूझते हुए अपने मौलिक अधिकार मंदिर प्रवेष को लेकर समाज के समक्ष एक कटु प्रष्न खड़ा करती हुयी कहती है कि क्या भगवान ने चमारों को नहीं सिरजा?‘ इसी प्रकार दूध का दामकहानी में गरीब दलित बच्चा मंगल, जिसकी माँ गंगी ने अपने बच्चे मंगल के हिस्से का दूध भी बाबू साहेब के बच्चे को पिलाया, जिसका दाम बाबू साहेब की जाति ने कुछ इस तरह चुकाया है कि जिसे पढ़कर या सुनकर पाठक या श्रोता सवर्ण जाति की असंवेदनषीलता तथा हैवानियत देख किसी के भी रौंगटे खड़े हो जाएं।

                   इस सन्दर्भ में अब चर्चा का जो महत्वपूर्ण विषय है, वह है प्रेमचन्द की उत्कृष्ट उपन्यास गोदानकी। इसको लेकर भी साहित्यकारों में पर्याप्त मतभेद है। वर्तमान समय में जहाँ एक ओर गोदानके पुनर्पाठ आवष्यकता महसूस ही जा रही है, वहीं दूसरी ओर इसका पुनर्पाठ दलित एवं गैर-दलित लेखक अपने-अपने ढंग से कर रहे हैं। यह भी विचारणीय तथ्य है कि गोदानको लेकर ही दलित लेखकों के ही एक समान मत नहीं है। अगर ओमप्रकाष वाल्मिकी विपक्ष में बोलते प्रतीत होते हैं, तो अनिता भारती गोदानके पक्ष में खड़ी हैं। यहाँ बड़ी ही असमंजस की स्थिति है। जहाँ ओमप्रकाष वाल्मिकी कहते है कि गोदानमें सिलिया व मातादीन के बीच की वार्ता में प्रेमचन्द पूर्वाग्रहों पर आधारित है और इसी प्रकार के विरोधाभास प्रेमचन्द की अन्य रचनाओं में भी परिलक्षित होते रहे हैं।‘‘24 ‘गोदानके पक्ष में अनिता भारती अपने ब्लॉग में लिखती हैं कि ‘‘गोदान में उनकी दलित चेतना मूर्त रूप में दिखायी देती है जहाँ वे सीधे तौर पर गाँव के दलितों द्वारा मातादीन के मुँह में हड्डी घुसेड़कर  और जनेऊ तोड़करप्रतिकार करवाती है।‘‘25 (गोदान पृ0- 208-209) हांलाकि मातादीन को गंगा-स्नान कराकर बालू एवं गाय का गोबर आदि खिलवाकर पुनः पवित्र कर लिया जाता है, परन्तु सिलिया वही चमारिन बनी मातादीन की रखैल बनी रहती है। प्रेमचन्द ने मातादीन को अन्त तक नहीं छोड़ा और उसे चमार बनना ही पड़ा। उसके ब्राह्मण बनने की घटना पर प्रेमचन्द जी व्यंग्य करते है कि ‘‘गोबर से उसका मन पवित्र हो गया। मूत्र से उसकी आत्मा के कीटाणु में अषुचिता की कीटाणु मर गये।‘‘ (गोदान, पृ0-285). हरिनारायण जी गोदानके विषय पर अपनी राय देते हुए कहते है कि ‘‘गोदान का गलत पाठमत कीजिए। गोदानकी गाय किसी धर्म की प्रतीक नहीं है, बल्कि आम भारतीय किसान की आषा, आकांक्षा और अभिलाषा की प्रतीक है।‘‘26

                   वर्तमान साहित्य में गोदानकी गहरी अर्थ-व्यंजना को समझने की जरूरत है। इसके माध्यम से ब्राह्मणी व्यवस्था पर जोरदार व्यंग्य किया गया है। वैसे यह भी धारण साहित्य जगत् में धीरे-धीरे प्रचलित हो रही है कि गोदान का मुख्य पात्र होरीके स्थान पर धनियाऔर गोबरहैं। जहाँ होरीको ब्राह्मणवाद के समक्ष हताष दिखाया है, वहीं दूसरी ओर धनियाऔर गोबरको ब्राह्मणवादी विचारधारा का एक विरोधी दिखाया है। उपन्यास गोदानको पढ़ने के पश्चात् पाठक यह स्वयं महसूस करता है कि धनियाका कहीं भी करुणामय रूदन नहीं दिखाया है। वह आम औरतों के जैसे अपने पति की मृत्यु पर दहाड़े नहीं मारती, अपितु चुपचाप सभी विकट परिस्थितियों का वह धैर्य के साथ सामना करती है। मगर अन्त में गोदान करने के बाद उसका धैर्य टूट ही जाता है और वह पछाड़ खाकर गिर जाती है। उपन्यास गोदानके पक्षधर इसके विषय में बहुत महत्वूपर्ण बात लिखते हैं कि ‘‘गोदान विष्व साहित्य की सबसे बड़ी ट्रेजडी है। कौन ऐसा हृदयहीन होगा, जो ऐसी भीषण त्रासदी पर हिन्दू धर्म की उस व्यवस्था की प्रषंसा करेगा, जिसमें गरीब की मृत्यु पर भी गो-दान की व्यवस्था है?...................................प्रेमचन्द ने गोदान के माध्यम से हिन्दू धर्म और समाज की इस व्यवस्था पर करारा प्रहार किया है।‘‘      27 इनसे यह बात पूर्णतः पुष्ट करती है कि गोदानउपन्यास विष्व साहित्य में बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखता है और सम्पूर्ण विष्व साहित्य में इस उपन्यास का कोई दूसरा सानी नहीं है।

                   प्रेमचन्द साहित्य का अध्ययन करने पर पाठक को एक बात अवष्य खटक रही है कि सेवासदनसे गबनऔर प्रेमाश्रमसे गोदानतक की यात्रा में जमींदार हर जगह मौजूद है, किन्तु प्रेमचन्द ने जमींदारों को शायद ही कहीं अपनी कथा या कहानी का खलनायक बनाया हो। यह बात निष्चित रूप से विचारणीय है! आखिर प्रेमचन्द जैसे साहित्यकार ने ऐसा क्यों किया? उनके विचार से यह समय की माँग थी, चूंकि स्वतंत्रता आन्दोलन अपने चरम पर था और सभी समान रूप से इस आन्दोलन में अपनी भागीदारी सुनिष्चित कर रहे थे, लेकिन इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता है कि कहींं-कहीं प्रेमचन्द की सहानुभूति जमीदारों के साथ भी प्रतीत होती है। उपन्यास गोदानमें ही देख सकते हैं कि राय साहबएक शोषक के रूप में नजर आता है। थोड़ा और आगे चले तो कफनकहानी में भी जमींदार है, जिस पर डॉ. धर्मवीर नें अंगुली उठायी है, परन्तु कुछ साहित्यकार यहाँ उनके पक्ष लेते हुएकहते है कि जमींदार को दयालु बताना उसकी उदारता से अधिक उसकी कंजूसी और कठोरता पर व्यंग्य है। यह व्यंग्य कफनकहानी में इस प्रकार दिखाया है कि जमींदार होकर भी उसने घीसू को कफन के लिए 2 रूपये फेंककर दिये। सान्त्वना का एक शब्द भी नहीं। उसकी तरफ ताका तक नहीं। उल्टे भला-बुरा भी कहा। प्रेमचन्द के उपन्यास और कहानियों के पात्रों के नाम और उनके परिवेष को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रेमचन्द दलित-पिछड़े व सर्वहारा की कथा कहते हैं, उनके पात्र चाहे जो भी हो माधव, घीसू, धनिया, गोबर, होरी, झुनिया, सिलिया, झींगुर, जोखू, बुधिया, हल्कू, आदि,। प्रेमचन्द ने हमेषा इन पात्रों के माध्यम से ही दलित वर्ग की हृदय स्पर्षी कथा/कहानियां कहीं हैं, जिनमें छिपे मर्म को झुठलाया नहीं जा सकता है।

                   साधारणतः इस आलेख का उक्त विषय अपने आप में एक अनन्त चर्चा का विषय है, जिस पर निरन्तर कुछ ना कुछ चर्चाएं होती रही हैं और भविष्य में भी होती रहेंगी, परन्तु हमें उन परिस्थितियों को नहीं भूलना चाहिए कि जिन परिस्थितियों में प्रेमचन्द जैसे गैर-दलित लेखक दलित समस्या पर लिख रहे थे। इस प्रकार हम उनके दलित बोध का किस प्रकार खारिज कर सकते है? शायद नहीं कर सकते! सत्य तो यह है कि समय के साथ हर व्यक्ति का विचार बनता-बिगड़गता है। यहाँ सवाल यह नहीं है कि प्रेमचन्द गांधी से प्रभावित है या नहीं। सवाल है कि प्रेमचन्द ने क्या और किसके लिए लिखा? उनकी रचनाओं का सन्देष समाज ने किस तरह अपनाया? इसका उत्तर हरिनारायण ठाकुर देते हुए कहते हैं कि ‘‘उनकी नजर में ब्रिटिषकालीन भारत में गुलामी और शोषण के तीन चक्र है्र। पहला चक्र है- अंग्रेजी सत्ता, दूसरा जमींदारी व्यवस्था अथवा सामन्तवाद और तीसरा चक्र है ब्राह्मणी व्यवस्था। आम जनता इन्हीं तीन चक्कों में पिस रही है। कोई राजा बनकर लूट रहा है, कोई सामन्त बनकर...........................दलित सन्दर्भों से जुड़ी प्रेमचन्द की रचनाएं इसी धार्मिक और ब्राह्मणवादी व्यवस्था पर प्रहार करती है।‘‘28           डॉ. धर्मवीर के पक्ष में हरिनारायण कहते हैं कि ‘‘डॉ. धर्मवीर का प्रेमचन्द-विरोध वस्तुतः प्रेमचन्द का नहीं, बल्कि उस जारसत्ता का विरोध है, जिसकी गिरफ्त में दलित समाज सदियों से कैद रहा है। यह शुद्ध रूप से सत्ता-विमर्ष है।‘‘29 प्रेमचन्द ने अपने एक लेख में हिन्दू धर्म और पाखण्डी ब्राह्मणों पर कड़ा प्रहार किया हैं, इस लेख के कुछ अंष प्रो. चमनलाल ने अपनी पुस्तक में प्रकाषित किये हैं-‘‘इसी काषी में हजारों मदसेवी ब्राह्मण और वह भी तितकधारी निकल आएँगें। फिर भी वे ब्राह्मण हैं। ब्राह्मणों के घरों में चमारियाँ हैं, फिर भी उनके ब्राह्मणत्व में बाधा नहीं आती, किन्तु अछूत नित्य स्नान करता हो, कितना ही आचारवान हो, वह मन्दिर में नहीं जा सकता। क्या इसी नीति पर हिन्दू धर्म स्थिर रह सकता है?‘‘30 इसी लेख के पूर्व के कुछ अंष इस प्रकार हैं-‘‘इन मन्दिरों की आड़ में आज बड़े-बड़े लज्जाजनक कृत्य हो रहे हैं। पुजारियों का, महन्तों का और धर्मगुरुओं का जीवन भयानक विलासित से भरा हुआ हैं। वे मन्दिरों की आड़ में जघन्य कर्म करते नहीं शर्माते। ईष्वर को गाना सुनाकर खुष रखने के लिए उन्हें वेष्याएँ चाहिए। इस बहाने वे अपनी राक्षसी कामना को पूरा करते हैं और अपने जीवन को विलास-वासना और पतन के गहरे गड्ढे में डाल देते हैं। तिस पर भी हिन्दू समाज के लिए वे पूज्य हैं, मानवीय हैं और देवतातुल्य हैं, क्योंकि वे पुजारी हैं, महन्त हैं और धर्मगुरु हैं।‘‘31 उक्त उद्धरण देखकर यह कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए कि जितनी तीखी भाषा में प्रेमचन्द ने पाखण्डी ब्राह्मणों के इस कटु यथार्थ को व्यक्त किया है वैसा शायद किसी दलित लेखक ने भी नहीं किया होगा।

अन्त में यहाँ यह कहना अतिष्योक्ति न होगा कि वर्तमान में दलित साहित्य का अस्तित्व प्रेमचन्द साहित्य के बगैर अधूरा है, क्योंकि दलित साहित्यकारों द्वारा दलित साहित्य समझने के लिए प्रेमचन्द के साहित्य का आलम्बन प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से लिया जाता रहा है और रहेगा। हालांकि जार-प्रष्नएक ज्वलन्त मुद्दा है। कुछ सीमाओं के बावजूद भी प्रेमचन्द का साहित्य आज भी उतना ही प्रासंगिक है। दलितों के विषय में प्रेमचन्द ने जो भी लिखा है, अपने समकालीन साहित्यकारों से आगे बढ़कर ही लिखा है और यह बात प्रामाणिकता से कही जा सकती है। वर्तमान दलित चेतना के उभार के समय में यदि दलित साहित्यकारों की दृष्टि प्रेमचन्द से अधिक विस्तृत हुई है, तो यह समाज और समय के अनुरूप मूल्यों का विकास ही है। यह प्रेमचन्द जैसे महान साहित्यकारों को सीमित कर देता है, क्योंकि यह प्रेमचन्द की सीमा है, किन्तु इससे प्रेमचन्द खारिज कभी नहीं हो सकते। इसलिए कतिपय सीमाओं के होते हुए भी प्रेमचन्द दलित-चेतना के सन्दर्भ में भी आज भी उतने ही प्रासंगिक बने हुए हैं।

 

 

-- :ः सन्दर्भ सूची :ः --

 

1.       प्रेमचन्द और दलित विमर्ष : कान्तिमोहन, स्वराज प्रकाषन, अंसारी रोड, दरियागंज,  दिल्ली, पृ0-11

2.       दलित साहित्य का समाजषास्त्र : डॉ. हरिनारायण ठाकुर, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाषन, नयी दिल्ली, पृ0-134

3.       वही, पृ0-135

4.       वही, पृ0-135

5.       वही, पृ0-135

6.       प्रेमचन्दः सामन्त का मुंषी, डॉ. धर्मवीर भारती, वाणी प्रकाषन, पृ0-80

7.       दलित साहित्य का समाजषास्त्र : डॉ. हरिनारायण ठाकुर, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाषन, नयी दिल्ली, पृ0-138

8.       मोहनदास नैमिषराय, ‘तर्क को कुतर्क से मत काटो‘, ‘वसुधा‘, जुलाई-सितम्बर, वर्ष-2005, सम्पादकीय

9.       प्रो. चमनलाल, ‘प्रेमचन्द साहित्य में दलित विमर्ष‘, ‘कथादेष‘, फरवरी, 2011, पृ0-42

10.     समाचार-पत्र जनसत्तारायपुर, दि0- 06.03.11 ओम प्रकाष वाल्मीकि (प्रेमचन्द और दलित‘)

11.     दलित साहित्य एक मूल्यांकन : प्रो. चमनलाल, राजपाल प्रकाषन, कष्मीरी गेट नयी दिल्ली, पृ0-111

12.     समाचार-पत्र जनसत्तारायपुर, दि0- 06.03.11 ओम प्रकाष वाल्मीकि (प्रेमचन्द और दलित‘)

13.     वही।

14.     दलित साहित्य का समाजषास्त्र : डॉ. हरिनारायण ठाकुर, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाषन, नयी दिल्ली, पृ0-140

15.     प्रेमचन्द और दलित विमर्ष : कान्तिमोहन, स्वराज प्रकाषन, अंसारी रोड, दरियागंज,  दिल्ली, पृ0-13

16.     प्रेमचन्दः सामन्त का मुंषी, डॉ. धर्मवीर भारती, वाणी प्रकाषन, पृ0-63

17.     दलित साहित्य का समाजषास्त्र : डॉ. हरिनारायण ठाकुर, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाषन, नयी दिल्ली, पृ0-140

18.     वही, पृ0-141

19.     आधुनिक साहित्य में दलित विमर्ष : देवेन्द्र चौबे, ओरियंट व्लैकस्वॉन प्रकाषन, नयी दिल्ली, पृ0 -55

20.     समाचार-पत्र जनसत्तारायपुर, दि0- 06.03.11 ओम प्रकाष वाल्मीकि (प्रेमचन्द और दलित‘)

21.     प्रेमचन्द साहित्य और दलित मत, कुमत, अनिता भारती, स्त्रोत-ूूण्चतंइींजांइंतण्बवउध्दवकमध्36461घ्चंहमत्रेवूए दि0 31ण्07ण्11ण्

22.     दलित साहित्य का समाजषास्त्र : डॉ. हरिनारायण ठाकुर, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाषन, नयी दिल्ली, पृ0-150

23.     प्रेमचन्द साहित्य और दलित मत, कुमत, अनिता भारती, स्त्रोत-ूूण्चतंइींजांइंतण्बवउध्दवकमध्36461घ्चंहमत्रेवूए दि0 31ण्07ण्11ण्

24.     समाचार-पत्र जनसत्तारायपुर, दि0- 06.03.11 ओम प्रकाष वाल्मीकि (प्रेमचन्द और दलित‘)

25.     प्रेमचन्द साहित्य और दलित मत, कुमत, अनिता भारती,

स्त्रोत- ूूण्चतंइींजांइंतण्बवउध्दवकमध्36461घ्चंहमत्रेवूए दि0 31ण्07ण्11ण्

26.     दलित साहित्य का समाजषास्त्र : डॉ. हरिनारायण ठाकुर, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाषन, नयी दिल्ली, पृ0-142

27.     वही, पृ0-144

28.     वही, पृ0-150

29.     वही, पृ0-155

30.     दलित साहित्य एक मूल्यांकन : प्रो. चमनलाल, राजपाल प्रकाषन, कष्मीरी गेट नयी दिल्ली, पृ0-116

31.     वही, पृ0-114