भारतीय सिनेमा के निर्माण को एक
शताब्दी से अधिक का समय हो चला है। बावजूद इसके महिलाओं,
औरतों, नारियों की स्थिति में आशानुकूल परिवर्तन नहीं हो पाया है। सिनेमा के पितामह दादा साहब
फाल्के ने जब इस दिशा में पहला कदम बढ़ाया तो निसंदेह उन्होंने यह नहीं सोचा होगा
कि आगे जाकर समाज को मनोरंजित
करने वाला, जगाने वाला, विभिन्न रसों से परिपाक करने वाला माध्यम इन स्थितियों,
परिस्थितियों का भी सामना करेगा। इतने दशक गुजर जाने के बाद
भी सिनेमा के विभिन्न रूपों (भाषाओं) में महिला निर्देशकों, कैमरामैन, म्यूजिक
डायरेक्टर की संख्याओं को उंगलियों पर गिना जा सकता है। सिनेमाई दुनिया में लैंगिक
असमानताएँ शुरुआत से ही रही हैं। भारतीय सिनेमा के नाम पर कुछ ही महिलाओं के नाम
हमारे ज़ेहन में उठते हैं। और वो हैं देविका रानी, माधवी
मुखर्जी, नरगिस, मधुबाला, स्मिता पाटिल, दीप्ति नवल जयललिता
से लेकर आलिया भट्ट, दीपिका पादुकोण तक यात्रा। इन सारी महिलाओं और सिनेमा में
उनके चरित्रों तथा इनकी चार फुटिया अदायगी के आस-पास घूमता, भटकता आदर्श भारतीय
समाज और उसके खाके में फिट तथा मर्द जात के खाके में अनफिट हो जाने वाले चरित्रों की
रचना हमारे सिनेमा में लगातार देखने को मिलती रही है। सिनेमा के इस अध्ववसाय में टैक्निकली
और व्यवहारिक काम अपवाद स्वरूप ही महिला फिल्मकारों के हिस्से आया पाया है।
साल 1943 में शुरू हुए भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के
आंदोलन की वजह से जरुर सिनेमा में महिलाओं को लेकर इस विधा में प्रवेश करने के
बारे में धारणा बदली। इसके पहले तक महिलाओं का फिल्मों में आना अच्छा नहीं माना
जाता था। और आज 21वीं सदी में हर कोई इस ओर कदम बढ़ा रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण
पैसा और रुतबा है। बावजूद इसके निर्देशन एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ आज भी पुरुष सत्ता
काबिज है। कई फिल्म स्कूल खुल जाने के बाद भी और उनसे शिक्षित होने पर भी
फिल्मकारों में लैंगिक असमानताएँ जन्म लेती रहती हैं। जबकि यह शश्वत सत्य है कि
बिना महिलाओं के सिनेमा पूरा हो ही नहीं सकता। बड़े बजट वाली फिल्मों के हाल फिलहाल
में फ्लॉप होने और छोटे बजट की किन्तु महिलाओं से सजी सुपरहिट फ़िल्में इसका एक
उदाहरण है कि महिलाएँ इस क्षेत्र में कहीं आगे जाएंगी। 1970-1980 के बीच जब सेटेलाइट
आए और टीवी का उद्भव हुआ तब उसकी वजह से देश में सिनेमा का विस्तार होना शुरू हुआ।
इस विस्तार के फलस्वरूप कई नई प्रतिभाओं को प्रोत्साहन और सिनेमा में स्पेस मिलना
शुरू हुआ। दूरदर्शन के अलावा इस क्षेत्र के शिक्षण संस्थान खुलने से यह हौसला बढ़ा
कि हर वर्ग के लोगों में अपेक्षाएँ जन्म लेने लगीं। इस वजह से पढ़े-लिखे घरों से भी
सिनेमा के बहाने सिनेमा में युवा लड़के ही नहीं लड़कियों की दिलचस्पी बढ़नी शुरू हुई।
उन्हें भी कैमरा पकड़ने और उसके सामने अपनी प्रतिभा दिखाने के मौके मिलने लगे। लघु
फ़िल्में जन्म लेने लगी और उन लघु फिल्मों से प्रोत्साहित होती हुई लड़कियाँ नए-नए विषयों
पर बनने वाली फिल्मों में काम करने लगी। शिक्षण संस्थान खुलने और टीवी के आ जाने
के बाद इस नए पन ने 80 का दशक महिलाओं के हकों के लिए खड़ा कर दिया।
इस दौर में सिनेमा में विभिन्न क्षेत्रों से आई महिलाओं ने
निर्देशन की बागडोर भी बखूबी सम्भालने की कोशिश की जिसमें “मीरा दीवान की ‘ससुराल’, मंजीरा दत्ता की ‘बाबूलाल
भुइया की कुर्बानी’, निलिता वाछानी की ‘आइज़ ऑफ स्टोन’, दीपा धनराज की ‘क्या हुआ इस शहर को’, मधुश्री दत्ता की ‘आई लिव इन बेहरमपाड़ा’, वसुधा जोशी की ‘वॉयसेज़ फ्रॉम बलियापाल’ और सुहासिनी मुले की ‘ऐन इंडियन स्टोरी’ और ‘भोपाल:
बियॉन्ड जेनोसाइड’ इस दशक की सर्वाधिक महत्वपूर्ण फिल्में
हैं, जिन्हें महिला फिल्मकारों ने ख़ुद बनाया।”हालांकि यह आँकड़ा हिंदी फिल्म उद्योग में बनने वाली
फिल्मों की तुलना में बहुत कम था किन्तु हौसलाअफजाई और प्रोत्साहन के लिए दखल
काबिलेतारीफ था। भिन्न विषयवस्तु और भिन्न सिनेमाई ट्रीटमेंट के लिहाज से ये फ़िल्में
इस कला के विस्तार में महत्वपूर्ण माध्यम साबित हुई। 80 के दशक में ‘सई परांजपे’ को छोड़ दिया जाए तो
कोई मजबूत या यादगार नाम सिनेमा में सुनाई नहीं देता। परांजपे ने स्पर्श, कथा और ‘चश्म-ए-बद्दूर’ जैसी फिल्मों का निर्माण किया। 80 के दशक के ठीक
बाद से 90 के दशक क्रांतिकारी बदलाव आए। किन्तु इन बदलावों ने महिलाओं को मात्र
दिखावे की वस्तु बनाकर रख दिया। इस दौर का
प्रभाव आज भी भारतीय सिनेमा में देखने को मिल रहा है कि आज आइटम नंबर, सेक्स सीन,
किसिंग के अलावा महिलाएँ लुप्त प्राय हो रही हैं। 2017-2018 के साल में जरुर आलिया
भट्ट अभिनीत ‘राजी’ और नंदिता दास निर्देशित ‘मंटों’ ने महिलाओं के लिए फिर से
उम्मीदें जगाई हैं। किन्तु साल भर में बनने वाली सौ-दो सौ फिल्मों के बीच आज भी
अँगुलियों पर गिनने लायक फ़िल्में ही सामने आ पा रही हैं। ‘मैरिकॉम’ पर बनने वाली
बायोपिक जरुर उम्मीद जगाती है कि लता मंगेशकर, जद्दनबाई, सरोजनी नायडू, मदर टेरेसा
जैसी महिलाओं पर फ़िल्में भी बनाई जा सकती हैं। खाली पीली संजू जैसी फिल्में कमाई
का जरिया जरुर हो सकती हैं किन्तु समाज को सही मार्गदर्शन देने में वे फ़िल्में
कामयाब नहीं हो सकती। सई परांजपे, दीपा धनराज और नीलिता
वाछानी, मंजीरा दत्ता, वसुधा जोशी और झरना झावेरी के द्वारा
निर्मित फिल्मों की लागत कम होने से एक तो सिनेमा अन्य तकनीकी मुद्दों से मुक्त
हुआ तो दूसरी ओर अभिव्यक्ति की संभावनाएँ बढ़ा गया।
एक ओर नए फिल्मकारों का जन्म हुआ तो दूसरी ओर नए विषयों का भी सृजन हुआ। इसका सबसे बड़ा प्रभाव यह पड़ा कि रचनाशील, प्रगतिशील फिल्मकारों ने अनकही और हाशिये पर पड़ी कहानियों को कह पाए। जहाँ ‘समथिंग लाइक अ वार’ फिल्म से ‘दीपा धनराज’ ने भारत सरकार की परिवार नियोजन योजना को चुनौती दी और स्त्री यौनिकता के सवाल को सिनेमा के दायरे में ला खड़ा किया। वहीं ‘निलिता वाछानी’ ने ‘आइज़ ऑफ स्टोन’ के माध्यम से राजस्थान राज्य में फैली चुड़ैल की झूठी कहानियों के बहाने औरतों के दुख-दर्द को स्वर दिया। तीसरी महत्वपूर्ण फिल्मकार ‘मंजीरा दत्ता’ ने मज़दूर आंदोलन के हवाले से ‘बाबूलाल भुइयां’ के बलिदान को अपनी फ़िल्म ‘बाबूलाल भुइयां की कुर्बानी’ के माध्यम से प्रदर्शित किया। इसी तरह ‘वसुधा जोशी’ ने ‘वॉयसेज़ फ्रॉम बलियापाल’ के माध्यम से उड़ीसा के तटीय इलाके बलियापाल के लोगों का अहिंसक आंदोलन जगजाहिर किया। तो वहीं ‘झरना झावेरी’ नर्मदा बचाओ आंदोलन से आम जनमानस का ज़रूरी हिस्सा बन जाती है। इस दौर में कई अन्य महिला फिल्मकारों रीना मोहन, सबा दीवान, श्रेरना दस्तूर ने लैंगिक मुद्दों से जुड़े सवालों को केंद्र में रखकर फिल्में बनाईं। इसमें ‘रीना मोहन’ की ‘कमलाबाई’ के कारण हिंदुस्तान के लोग और सिनेमा प्रेमी पहली फिल्म अभिनेत्री ‘कमलाबाई गोखले’ की कहानी से रूबरू हुआ। तो ‘सबा दीवान’ ‘द अदर सॉन्ग’ के माध्यम से उत्तर भारत की तवायफ़ों की असलियत की लकीर अपनी कहानी से खींचती है। हाल ही में ‘निष्ठा जैन’ ने ‘गुलाबी गैंग’ के माध्यम से स्त्री आंदोलन के नए आयाम और विस्तार ठीक से समझने का मौका दिया।
हिंदी सिनेमा में समानांतर सिनेमा के जनक ‘मृणाल सेन’ ने जो अलख जगाई उसकी चिंगारी महिलाओं तक भी पहुँची और ‘मधुश्री दत्ता’ ने ‘आई लिव इन बेहरमपाड़ा’ और ‘दीपा धनराज’ ने ‘क्या हुआ इस शहर को’, ‘निष्ठा जैन’ ‘सिटी ऑफ फ़ोटोज़’ फिल्म के माध्यम से सांप्रदायिकता की आड़ में छिपी परतों, षड्यंत्रों को उभारा। तो एक नजर नर्सों की हड़ताल पर सहजो सिंह की भी पड़ी और फिल्म ‘माय नेम इज़ सिस्टर’ के माध्यम से तथा समीरा जैन ने ‘मेरा अपना शहर’ में महानगर में रहने वाली एक लड़की के स्पेस की खोज करती कहानी कही है। ये सभी कहानियाँ हमें एक अलग माहौल और परिस्थितयाँ देखने और सोचने के लिए प्रस्तुत करती है।
महिला स्वरों के माध्यम से सिनेमा की अभिव्यक्ति की यह
सूची ज्यादा लंबी नहीं है किन्तु इनमें अधिकतर नारीवादी ही दिखाई देती हैं। सिनेमा
का चर्चित नाम सुहासिनी मुले ने कई डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण किया। करीब
60 फिल्में बना चुकी, सुहासिनी की 4 फ़िल्में राष्ट्रीय
पुरस्कार से सम्मानित हैं।
एक ओर नए फिल्मकारों का जन्म हुआ तो दूसरी ओर नए विषयों का भी सृजन हुआ। इसका सबसे बड़ा प्रभाव यह पड़ा कि रचनाशील, प्रगतिशील फिल्मकारों ने अनकही और हाशिये पर पड़ी कहानियों को कह पाए। जहाँ ‘समथिंग लाइक अ वार’ फिल्म से ‘दीपा धनराज’ ने भारत सरकार की परिवार नियोजन योजना को चुनौती दी और स्त्री यौनिकता के सवाल को सिनेमा के दायरे में ला खड़ा किया। वहीं ‘निलिता वाछानी’ ने ‘आइज़ ऑफ स्टोन’ के माध्यम से राजस्थान राज्य में फैली चुड़ैल की झूठी कहानियों के बहाने औरतों के दुख-दर्द को स्वर दिया। तीसरी महत्वपूर्ण फिल्मकार ‘मंजीरा दत्ता’ ने मज़दूर आंदोलन के हवाले से ‘बाबूलाल भुइयां’ के बलिदान को अपनी फ़िल्म ‘बाबूलाल भुइयां की कुर्बानी’ के माध्यम से प्रदर्शित किया। इसी तरह ‘वसुधा जोशी’ ने ‘वॉयसेज़ फ्रॉम बलियापाल’ के माध्यम से उड़ीसा के तटीय इलाके बलियापाल के लोगों का अहिंसक आंदोलन जगजाहिर किया। तो वहीं ‘झरना झावेरी’ नर्मदा बचाओ आंदोलन से आम जनमानस का ज़रूरी हिस्सा बन जाती है। इस दौर में कई अन्य महिला फिल्मकारों रीना मोहन, सबा दीवान, श्रेरना दस्तूर ने लैंगिक मुद्दों से जुड़े सवालों को केंद्र में रखकर फिल्में बनाईं। इसमें ‘रीना मोहन’ की ‘कमलाबाई’ के कारण हिंदुस्तान के लोग और सिनेमा प्रेमी पहली फिल्म अभिनेत्री ‘कमलाबाई गोखले’ की कहानी से रूबरू हुआ। तो ‘सबा दीवान’ ‘द अदर सॉन्ग’ के माध्यम से उत्तर भारत की तवायफ़ों की असलियत की लकीर अपनी कहानी से खींचती है। हाल ही में ‘निष्ठा जैन’ ने ‘गुलाबी गैंग’ के माध्यम से स्त्री आंदोलन के नए आयाम और विस्तार ठीक से समझने का मौका दिया।
हिंदी सिनेमा में समानांतर सिनेमा के जनक ‘मृणाल सेन’ ने जो अलख जगाई उसकी चिंगारी महिलाओं तक भी पहुँची और ‘मधुश्री दत्ता’ ने ‘आई लिव इन बेहरमपाड़ा’ और ‘दीपा धनराज’ ने ‘क्या हुआ इस शहर को’, ‘निष्ठा जैन’ ‘सिटी ऑफ फ़ोटोज़’ फिल्म के माध्यम से सांप्रदायिकता की आड़ में छिपी परतों, षड्यंत्रों को उभारा। तो एक नजर नर्सों की हड़ताल पर सहजो सिंह की भी पड़ी और फिल्म ‘माय नेम इज़ सिस्टर’ के माध्यम से तथा समीरा जैन ने ‘मेरा अपना शहर’ में महानगर में रहने वाली एक लड़की के स्पेस की खोज करती कहानी कही है। ये सभी कहानियाँ हमें एक अलग माहौल और परिस्थितयाँ देखने और सोचने के लिए प्रस्तुत करती है।
महिलाओं को लेकर हमेशा से उदासीन रहने वाले हिंदी सिनेमा में
अब जाकर थोड़ी बहुत जागरूकता आ पाई है। यह भी सब महिलाओं के स्वयं के द्वारा किए गए
परिवर्तन और खुदमुख्तारी के कारण सम्भव हो पाया है। इतना सब होने के बाद भी सिनेमा
में महिलाओं की एक स्टीरियोटाइप छवि आज भी बनी हुई है जिसमें वे आदर्शवादी,
ममतामयी, माँ, बहन, भाभी, पुत्री, पत्नी, प्रेमिका के रूप में ही नजर आती हैं
और जो कुछ एक जगह ही विद्रोह करती है तो वह भी नामालूम किरदार। ऐसी फिल्मों में ‘चित्रलेखा’,
‘महल’, ‘दहेज’, ‘बिरज
बहू’, ‘मदर इंडिया’, ‘सुजाता’, ‘मैं चुप रहूँगी’, ‘बंदिनी’, ‘काजल’,
‘ममता’, ‘साहब बीबी और गुलाम’, ‘पाकीजा’, ‘परिणीता’, ‘गुड्डी’,
‘आँधी’, ‘जूली’, ‘मौसम’,
‘राम तेरी गंगा मैली’, ‘तवायफ’, ‘निकाह’, ‘उमराव जान’, ‘अभिमान’,
मंडी, बाजार, भूमिका, मिर्च मसाला, महायात्रा, इजाजत,
प्रतिघात, ‘रिहाई’, 'दिशा',
'तर्पण', 'बवंडर', 'गॉड
मदर', 'वाटर', 'फायर', 'अर्थ', 'कामसूत्र' 'मातृभूमि'
'सत्ता', 'चमेली', 'अस्तित्व',
'जुबैदा', 'चाँदनी बार', 'फैशन', 'हीरोईन' , 'नो वन
किल्ड जेसिका', 'इश्किया और हाल फिलहाल में 'डेढ़ इश्किया', 'हाईवे', 'गुलाब
गैंग', 'क्वीन', 'कांची', 'रिवाल्वर रानी', 'मरदानी' 'हैदर',
'लक्ष्मी', 'अनुराधा', 'सुपर
नानी', 'रंगरसिया', 'मेरीकाम', ‘लस्ट स्टोरी’, ‘राजी’, ‘वीरे दी वेडिंग’, ‘पटाखा’ आदि ही महत्वपूर्ण
फ़िल्में हैं।
जिस तरह सिक्के के दो पहलू होते हैं उसी तरह सिनेमा के भी
दो पहलू हैं एक स्त्री पक्ष और दूसरा पुरुष पक्ष। और जाहिर सी बात है कि अब तक
पुरुष पक्ष ही इसमें ज्यादा हावी रहा है। किन्तु बदलते मौसम की बयार के साथ-साथ
इसकी दशा और दिशा में भी सकारात्मक परिवर्तन देखने को मिले हैं। पॉपुलर सिनेमा से
लेकर समानांतर और उपभोक्तावादी हर तरह के सिनेमा में महिलाओं ने अपनी सशक्त
उपस्थिति दर्ज कराई है। सिनेमा संस्कृति का परिचायक भी है। सिनेमा को अप्रतिम
ऊँचाइयों पर ले जाने वाली इन महिलाओं के प्रति सिनेमाजगत सदैव आभारी रहेगा।
संदर्भ सूचि –
1. हिन्दुस्तानी
सिनेमा में महिला स्वर : संजय जोशी : गूगल साभार
2.
सिनेमा साहित्य और हिंदी,
दैनिक जागरण, 22 जुलाई 2016
3.
शहर और सिनेमा : वाया
दिल्ली, मिहिर पंडया, वाणी प्रकाशन
4.
महिला विकास और सशक्तिकरण :
प्रज्ञा शर्मा
5.
सिनेमा और समाज : विजय
अग्रवाल
6.
आजकल पत्रिका : मई 2014
7.
नारी सशक्तिकरण में भारतीय
सिनेमा का योगदान : कीर्ति बैद
8. स्त्री-अस्मिता
के नाम रहा हिंदी सिनेमा का वर्ष – 2014 : रमा : गूगल साभार
बहुत अच्छा सर् आप अपनी कोशिश जारी रखो और लिखते जाओ । बहुत अच्छा लेख है सर् आपका धन्यवाद।
ReplyDeleteजी शुक्रिया, आपकी प्रतिक्रिया महत्वपूर्ण है।
DeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteबेहतरीन अभिव्यक्ति। फ़िल्म और महिला के अन्योन्याश्रित सम्बन्ध को आपने बखूबी परोसा है। हम सभी मसलों पर लोकतांत्रिक नज़रिया रखने की कोशिश करते हैं पर फ़िल्म में हो रहे अमानवीय और अव्यावहारिक एकनिष्ठता को पहचानने और उसे जगजाहिर करने से बचते हैं। कास्टिंग काउच से लेते हुए महिलाओं को तैयार माल की तरह प्रस्तुत करने की जो हिमाकत हमारी फिल्मी दुनिया द्वारा किया जा रहा है, आज उसी का प्रतिफल समाज में हो रहे महिलाओं के प्रति अन्याय में हम देख सकते हैं।
ReplyDeleteयह दुर्भाग्य है भारतीय मानसिकता का, जो टुकड़ों में सत्य को स्वीकारती है। अधकचरापन हमारी मूल वृत्ति है। हम किसी भी चेतना को उसकी पूर्णता में नहीं स्वीकारते।
खैर, बढ़िया विषय उठाया आपने।
बधाई आपको।
आपकी प्रतिक्रिया हेतु आभारी हूँ मित्र। आप मेरी प्रेरणा हूँ सर। आपसे बहुत साहस और बल मिलता है। शुक्रिया सर
Deleteधन्यवाद सर,
Deleteआप खुद में परिपूर्ण हैं।
आप जैसा शिक्षक और जनपक्षीय विचारक आज के नवीन शिक्षा-शिक्षक परम्परा में नदारत हैं।
शुक्रिया
Delete