इस वर्ष हम अपनी आज़ादी की 71वीं वर्षगांठ मनाने जा रहे है. देश को स्वतंत्र कराने में कई आंदोलनों की भूमिका रही है, जिनमे से एक था ‘असहयोग आन्दोलन’. 1 अगस्त 2018 को इस आन्दोलन के 98 बरस पुरे हो चुके हैं. असहयोग आंदोलन की शुरुआत महात्मा गाँधी जी द्वारा 1 अगस्त, 1920 को की गयी। इस आन्दोलन की वजह बने 1918 में लागू रोलट एक्ट, 13 अप्रैल 1919 में हुआ जलियांवाला बाग हत्याकांड, और पंजाब में मार्शल लॉ, जिसके अंतर्गत एक खास सड़क से गुजरते हुए लोगों को घुटने के बल रेंगते हुए चलने के लिए कहा जाता था. अंग्रेज अधिकारी जिसको दोषी मानते थे, उन्हें कोड़े लगाना एक बात हो गयी थी. इस काम के लिए कुछ स्थानों को निर्धारित कर दिया गया था. यह सभी 289 लोगों को सजा देने से अलग की कार्यवाही थी. सजा पाने वालों में 51 को फांसी और 46 को उम्रकेद दी गयी थी. साथ ही 1913 से 1918 के मध्य सभी वस्तुओं का दाम दोगुना हो गया था, जिसके चलते देश में भुखमरी और गरीबी चरम पर पहुँच गयी और जिसके कारण महामारी में कई लोगों की जानें गयी. परन्तु इस क्षेत्र में भी ब्रिटिश हुकुमत ने कोई भी सकारात्मक कार्य नहीं किया. इन सब घटनाओं से गाँधी जी समझ गए थे कि ब्रिटिश हुकूमत भारतीयों के प्रति नरमी नहीं बरतेगी बल्कि उनका दमन ही करेगी.
अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों की विरोध में 1 अगस्त 1920 में ‘असहयोग आन्दोलन’ के कार्यक्रम पर विचार करने के लिए कोलकाता में एक विशेष अधिवेशन बुलाया. जिसकी अध्यक्षता लाला लाजपत राय ने की. इसी अधिवेशन में महात्मा गाँधी ने असहयोग का प्रस्ताव पेश किया था. शुरू में इस प्रस्ताव का विरोध एनी बेसेंट, मदन मोहन मालवीय, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, विपिनचंद्र पाल, देशबंधु चितरंजन दास, मोहम्मद अली जिन्ना, शंकरन नायर तथा सर नारायण चन्द्रावरकर ने किया, किंतु अली बंधुओं तथा मोतीलाल नेहरू के समर्थन से यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया। यहीं से गांधी युग की शुरुआत भी मानी जाती है।
गाँधी जी ने अलीबंधुओं के साथ पुरे देश का भ्रमण किया एवं लोगों को असहयोग आन्दोलन में भाग लेने का आह्वान किया. अप्रैल में आयोजित अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के विजयवाड़ा अधिवेशन में तिलक कोष में एक करोड़ राशि एकत्रित करने का निर्णय लिया गया था. इसी अधिवेशन में 20 लाख चरखे लगाये जाने का भी फैसला लिया. साथ ही गाँधी जी ने भारतीयों से विनती की कि वह अंग्रेजों द्वारा दी गयी सभी उपाधियाँ एवं सरकारी पदों का त्याग करे दें और उन्होंने कहा कि अपने बच्चों को अंग्रेजी विद्यालय और विश्वविद्यालयों में पढने के लिए न भेजें. उन्होंने भारतीय जनता से अपील की अंग्रेजी संस्थाओं का त्याग करें और विदेशी वस्तुओं तथा न्यायालयों का बहिष्कार करें.
आन्दोलन शुरू करने से पहले ही गांधी जी ने ‘कैसर-ए-हिन्द’ पुरस्कार को लौटा दिया, अन्य सैकड़ों लोगों ने भी गांधी जी के पदचिह्नों पर चलते हुए अपनी पदवियों एवं उपाधियों को त्याग दिया। ‘राय बहादुर’ की उपाधि से सम्मानित जमनालाल बजाज ने भी यह उपाधि वापस कर दी। गाँधी जी इन विचारों का बहुत ही गहरा प्रभाव भारतीय जनता पर पड़ा और असहयोग आन्दोलन का अच्छा परिणाम निकला. प्राप्त तथ्यों के अनुसार पहले ही महीने में 90 हज़ार विद्यार्थियों ने स्कूल-कॉलेज छोड़ दिए. भारी संख्या में विद्यार्थियों ने कलकत्ता, लाहौर में हड़तालें कीं. इसी समय देश में कई राष्ट्रीय विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई जिनमें मुख्य- काशी विद्यापीठ, बिहार विद्यापीठ, गुजरात विद्यापीठ तिलक महाराष्ट्र विद्यापीठ, राष्ट्रीय कॉलेज लाहौर, जामिया मिलिया इस्लामिया, दिल्ली तथा अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय.
संस्थाओं के बहिष्कार में बंगाल के बाद पंजाब का स्थान था. बंगाल में चितरंजनदास और पंजाब में लाला लाजपत राय ने इस आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे. वकालत छोड़ने वाले चोटी के वकीलों में सी.आर. दास टी. प्रकाशन, एम.आर. जयकर, मोतीलाल नेहरू, किचलू, राजेन्द्र प्रसाद, राजगोपालाचारी, जवाहरलाल नेहरू, आसफ अली, विठ्ठलभाई पटेल, वल्लभ भाई पटेल आदि शामिल थे.
असहयोग आन्दोलन का सबसे महत्वपूर्ण अस्त्र साबित हुआ ‘विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार’. देश के हर क्षेत्र में इसका व्यापक असर हुआ. विदेशी वस्त्रों की होली जलाई गयी, महिलाओं ने विदेशों में बनी साड़ियों एवं दुपट्टों को आग के हवाले कर दिया. लोग विदेशों में बने कपड़ों का त्याग कर खादी और स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग दैनिक जीवन में करने लगे. कांग्रेस और खिलाफत स्वयंसेवकों ने विदेशी कपड़ों की दूकानों पर पिकेटिंग की और हड़ताले संगठित की. इतिहासकार ए.आर. देसाई ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि’ में जिक्र किया है “उनकी संख्या गैर क़ानूनी करार दी गयी फिर भी वे अपना काम करते रहे और बड़ी तादाद में गिरफ्तार होते रहे. सरकार ने आन्दोलन के सभी प्रमुख नेताओं को साल के खत्म होने से पहले गिरफ्तार कर उन्हें जेल भेज दिया.” इस आन्दोलन के चलते लगभग 30 हज़ार लोग गिरफ्तार हुए. विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार का परिणाम यह हुआ कि 1920-21 में जहाँ एक अरब दो करोड़ रुपये दाम के विदेशी कपड़ों का आयात हुआ था, वहीँ 1921-22 में यह घटकर 57 करोड़ पर ठहर गया. विदेशी कपड़ों के बहिष्कार के परिणाम स्वरूप स्थानीय कपड़ा उद्योग को प्रोत्साहन मिला.
असहयोग आन्दोलन बहुत प्रभावशाली तरीके से भारत के जनमानस तक पहुँच रहा था और बहुसंख्यक रूप से लोग इससे जुड़ रहे थे. यह आन्दोलन लगभग 2 वर्षों तक बहुत ही सफ़लतापूर्वक चलता रहा और 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की क्रांति के बाद पहली बार असहयोग आंदोलन से अंग्रेजी राज की नींव हिल गयी। ब्रिटिश तंत्र द्वारा इस आन्दोलन को कुचलने के लिए कई प्रयास किये गए, परन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली. बल्कि यह प्रतिदिन बढ़ता रहा. जब ब्रिटिश हर प्रकार से आन्दोलन को रोकने में विफल रहे, तब उन्होंने कांग्रेस के कुछ सक्रिय नेताओं के साथ-साथ गाँधी जी को भी गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया. चूँकि गाँधी जी उस समय भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के सर्वाधिक प्रमुख व्यक्ति थे. यह देखकर जनता ने विरोध शुरू कर दिया. यह विरोध हिंसात्मक होने लगा. जिसके फलस्वरूप 5 फरवरी 1922 इस्वी को जनता ने गोरखपुर जिले के चौरा-चौरी नामक स्थान पर एक पुलिस चौकी में आग लगा दी गयी जिसमें 22 पुलिस वालों की जान गयी. इस हिंसक घटना से गाँधी जी बहुत आहात हुए और असहयोग आन्दोलन वापस ले लिया. 12 फरवरी, 1922 को बारदोली में हुई कांग्रेस की बैठक में इस आन्दोलन को अपने फैसले के विषय में गाँधी जी ने ‘यंग इंडिया’ में लिखा था, ‘आन्दोलन को हिंसक होने से बचाने के लिए मैं हर एक अपमान, हर एक यातनापूर्ण बहिष्कार, यहाँ तक कि मौत भी सहने को तैयार हूँ.’ गाँधी जी द्वारा असहयोग आन्दोलन के स्थगन पर मोतीलाल नेहरू ने कहा कि, "यदि कन्याकुमारी के एक गाँव ने अहिंसा का पालन नहीं किया, तो इसकी सज़ा हिमालय के एक गाँव को क्यों मिलनी चाहिए।" अपनी प्रतिक्रिया में सुभाषचन्द्र बोस ने कहा, "ठीक इस समय, जबकि जनता का उत्साह चरमोत्कर्ष पर था, वापस लौटने का आदेश देना राष्ट्रीय दुर्भाग्य से कम नहीं"। आन्दोलन के स्थगित करने का प्रभाव गांधी जी की लोकप्रियता पर पड़ा। 13 मार्च 1922 को गांधी जी को गिरफ़्तार किया गया तथा न्यायाधीश ब्रूम फ़ील्ड ने गांधी जी को असंतोष भड़काने के अपराध में 6 वर्ष की कैद की सज़ा सुनाई। स्वास्थ्य सम्बन्धी कारणों से उन्हें 5 फ़रवरी 1924 को रिहा कर दिया गया। इन आलोचनापरक वाक्यों से यह तो स्पष्ट हो ही चुका है कि असहयोग आन्दोलन देश को आजाद कराने में कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा था. इस वर्ष इस आन्दोलन के 98 वर्ष पूर्ण होने जा रहे हैं. इस प्रकार असहयोग आन्दोलन भारतीय स्वतंत्रता आंदोलनों की संघर्षमय यात्रा में मील का पत्थर साबित हुआ.
अंत में असहयोग आन्दोलन के परिणाम की चर्चा करते हैं, जिसकों कुछ बिन्दुओं में समझाने का प्रयास किया है-
- असहयोग आन्दोलन से प्रभावित होकर लगभग 2 तिहाई मतदाताओं ने विधानमंडल के चुनाव का बहिष्कार किया और इन मतदाताओं ने अपने मत का प्रयोग नहीं किया.
- अध्यापकों और विद्यार्थियों ने स्कूल जाना छोड़ दिया.
- कई भारतीयों ने जो सरकारी सेवा में थे, अपने-अपने पदों से इस्तीफा दे दिया और असहयोग आन्दोलन का हिस्सा बने गए.
- भारतीय जनता में ब्रिटिश हुकूमत में खिलाफ बहुत क्रोध था और उन्होंने विदेशी कपड़ों के जगह-जगह होली जलायी.
- जिस समय असहयोग आन्दोलन हो रहा था, उस समय ब्रिटेन के राजकुमार ‘प्रिन्स ऑफ़ वेल्स’ का 17 नवम्बर 1921 आगमन हुआ और उनका स्वागत एवं प्रदर्शनों से किया गया.
- असहयोग आन्दोलन स्वतंत्रता प्राप्ति के संघर्ष का महत्वपूर्ण अंग बन गया और भविष्य में इस आन्दोलन में भारत की स्वतंत्रता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
सहायक प्राध्यापक (हिन्दी साहित्य एवं भाषा विज्ञान)
"हिन्दी विभागाध्यक्ष"
शहीद बेलमती चौहान राजकीय महाविद्यालय पोखरी (क्वीली) टिहरी गढ़वाल
उत्तराखंड