Monday, September 16, 2019

दलित आत्मकथाएँ: यातनाओं व संघर्षों में घुटती जिंदगी का यथार्थ


डॉ. राम भरोसे
असि. प्रोफेसर, (हिन्दी-विभाग),
शहीद वेलमती चौहान राजकीय महाविद्यालय पोखरी (क्वीली) टिहरी-गढ़वाल
$919045602061,
                                                                                                                        

साहित्य जगत में आत्मकथा लेखन एक प्राचीन विधा है। आत्मकथा लेखक की सच्ची कथा होती है। विश्व साहित्य चाहे वह किसी भी भाषा में लिखा जा रहा हो आत्मकथाओं का महत्व हमेशा ही रहा है। हिन्दी साहित्य में भी आत्मकथा लेखन हमेशा से ही नवीन प्रयास होते रहे हैं। हिन्दी साहित्य में बनारसी दास जैन, हरिवंश राय बच्चन, बैचेन शर्मा ‘उग्र‘ आदि तथा राजनीति में महात्मा गांधी आदि ने अपनी आत्मकथाएँ लिखी, जिनकी अभिव्यक्ति में प्रमाणिकता, स्पष्टता, निर्ममता और बेबाकी की जरूरत महसूस होती है। यह जरूरत आज दलित साहित्यकार अपनी आत्मकथाएँ लिखकर पूर्ण करने का प्रयास कर रहे हैं और काफी हद तक यह प्रयास सफल भी रहा है। हजारों वर्षों से समाज में दलितों के साथ हुए घोर अमानवीय अत्याचारों पर गैर दलित लेखक केवल अनुमान मात्र लगाते रहे हैं। दलितों पर हुए अत्याचार और अमानवीय व्यवहार का पूर्णरूपेण चित्रण दलित आत्मकथाओं में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यह कहना कोई अतिश्योक्ति न होगा कि दलित जीवन की यथार्थता सत्यता के साथ वास्तविक रूप में दलित आत्मकथाओं से ही उभरती है।
दलित साहित्यकारों की रचनाएँ और विशेषकर आत्मकथाएँ भारतीय साहित्य को नयी दिशा प्रदान कर रहे हैं। इन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से समाज के उस वर्ग का दुःख-दर्द, पीड़ा, हंसी-खुशी तथा जीवन के सभी पहलुओं को अभिव्यक्त किया जो साहित्य की दुनिया से हजारों वर्षों से बहिष्कृत रखे गये। ब्राह्मणवादी मानसिकता की भूमिका मात्र ‘सेवक-दास‘ तक ही सीमित नहीं थी बल्कि जीवन जीने के सभी रास्तें एवं अवसर उनके (दलित वर्ग) लिए बंद कद दिए गये। समाज के इस शोषित वर्ग के श्रम का सीमा के पार जाकर घोर शोषण किया गया तथा इन्हें ‘जूठन‘ खिलाकर इनके अस्तित्व को जिन्दा रखा गया। साथ ही साहित्य और संस्कृति से बहिष्कृत करके दलितों की अपेक्षाओं एवं आकांक्षओं को भी मृत करने का कुकर्म किया गया। इन्हें ‘पाप की संतान‘ कहकर सदा ही अपमानित किया गया तथा इन्हंे दया के लायक भी नहीं समझा गया। साहित्य की अगर बात करें तो इनके लिए साहित्य के इतिहास में केवल अभिशाप ही दर्ज है। वैसे तो साहित्य के पंडित साहित्य के सिद्धान्तों को पुनः पुनः दोहराते हैं कि ‘साहित्य समाज का दर्पण है‘, ‘समाज के दुख दर्द को अभिव्यक्त करता है‘, ‘साहित्य मानवतावादी होता है‘, इत्यादि। परन्तु साहित्य शास्त्रियों के यह सिद्धान्त दलितों के परिपेक्ष्य में एकदम झूठे साबित हुए है। बडे़ खेद की बात है कि भारतीय समाज की लगभग आधी आबादी होने पर भी उनको इस लायक ही नहीं समझा गया कि उनकी वास्तविकता को सही प्रकार से साहित्य के माध्यम से प्रस्तुत किया जाएं। भारतीय साहित्य के पश्चात् अगर बात करें फिल्म जगत की तो हिन्दी फिल्मों में भी इस वर्ग की पीड़ा-अभिव्यक्ति से परहेज ही रखा गया। हिन्दी फिल्मों के उद्भव से आज तक समाज के सभी महत्वपूर्ण मुद्दों पर फिल्म या डॉक्यूमेन्ट्री बनी और बन रही है, लेकिन ‘जाति-प्रथा‘, ‘अस्पृश्यता‘, ‘सवर्णों के मन में व्याप्त दलितों के प्रति पूर्वाग्रहों व धारणाओं का‘, श्रेष्ठता दंभ से खत्म होती मानवता को केन्द्रित करने वाली फिल्मों को हमेशा से ही अभाव रहा है। यह तो कदापि संभव ही नहीं हो सकता कि संवेदनशील कलाकारों/निर्देशकों का इस ओर ध्यान न गया हो। ब्राह्मणवाद घोषित असमानता की व्यवस्था को समर्थन देने के साथ मजबूत करने का एक ढंग यह भी हो सकता है कि उक्त वर्ग के मुद्दे पर चुप्पी ही साध ली जाएं। कुछ फिल्में इसका अपवाद हो सकती हैं, परन्तु वह भी अपनी कहानी के अंत तक आते-आते मार्ग से भटकती हुई प्रतीत होती है।
ध्यातव्य है कि साहित्य के माध्यम से अपनी पीड़ा प्रस्तुत करने का कार्य स्वयं दलित साहित्यकार ही कर रहे हैं। यह प्रस्तुतीकरण साहित्य की विभिन्न विधाओं (कहानी, कविता, उपन्यास, लघु कथाएँ आदि) के माध्यम से हो रहा है। जिसे सभी ‘दलित साहित्य‘ के नाम से बखूबी पहचानते हैं। वर्तमान समय में दलित साहित्य ने एक क्रांति का रूप ले लिया है। परन्तु बहुत अफसोस की बात है कि अभी भी साहित्य जगत स्वयं को सवर्णवादी मानसिकता से पूर्ण रूप में अलग कर पाने में असमर्थ लग रहा है। जिसका प्रमाण सुभाष चन्द्र अपनी पुस्तक में देते हुए लिखते हैं ‘‘जब दलितों ने स्वयं अपनी रचनाओं में विशेषकर अपनी आत्मकथाओं में अपनी पीड़ा को, सवर्णों की दलितों के प्रति घृणा व पूर्वाग्रहों को तथा उनके विकास में बाधक बनी इस विचारधारा को अभिव्यक्त करना शुरू किया तो उन पर कभी जातिवाद को बढ़ावा देने का, कभी अति यथार्थ प्रस्तुत करने का, कभी बने-बनाये साहित्यिक मानदण्डों पर खरा न उतरने का तो कभी अश्लीलता का आरोप लगार खारिज किया जाता रहा।‘‘‘1 इसके साथ ही सवर्ण मानसिकता रखने वाले साहित्यकारों ने दलित साहित्य को पूर्णतः नकारने का प्रयास किया गया। हालांकि वर्तमान में दलित साहित्य को किसी की स्वीकारोक्ति की कोई आवश्यकता नहीं है। दलित साहित्य में आत्मकथाओं पर जितनी चर्चाएं हुई है या हो रही है अन्य किसी विधा के साथ ऐसा नहीं है।
आत्मकथा लिखना जोखिम का काम है। बेेईमान या झूठा व्यक्ति कभी भी आत्मकथा नहीं लिख सकता। क्योंकि आत्मकथा में जीवन के प्रारम्भ से अन्त तक की सभी घटनाओं को बेबाकी से चित्रण करना अनिवार्य होता है। इसलिए जयप्रकाश कर्दम ने आत्मकथा के विषय में लिखा है कि ‘‘आत्मकथा लिखना निस्संदेह एक हिम्मत और जोखिम का काम है, बल्कि यूं कहिए कि तलवार की धार पर नंगे पैर चलना है। यदि लेखक सच्चाई पर टिका रहेगा तो उसका लहुलूहान होना लगभग निश्चित हैं क्योंकि आत्मकथ नंगी सच्चाई की मांग करती है और इतना साहस बहुत कम लोगों में होता है जो सामाजिक यथार्थ के साथ-साथ अपने जीवन के  नंगे यथार्थ को सार्वजनिक प्रदर्शन कर सकें। ।‘‘2 इसी बात को डॉ. शरण कुमार लिबांले कुछ ऐसे कहते हैं कि ‘‘आत्मकथा का अर्थ जो जीवन जीया है, भोगा है और देखा है, इतने तक ही सीमित नहीं है, अपितु जो जीवन यादों में समाया हुआ है, वही आत्मकथा है। ये यादें सच्ची घटनाओं से जुड़ी रहती हैं।‘‘3 अतः कहा जा सकता है कि आत्मकथा लिखने की पहली शर्त है हिम्मत और दूसरी सच्चाई।
यह कहना अतिश्योक्ति न होगा कि दलित आत्मकथाओं ने भारतीय साहित्य जगत में एक भुचाल पैदा करने के साथ ही अपने अस्तित्व की मुहर लगा दी है। सवर्ण मानसिकता रखने वाले साहित्यकारों के साथ एक विडम्बना है कि जिस तरह वह दलित साहित्य की अन्य सभी विधाओं को कवि-लेखकों की कल्पना मानकर उसमें व्यक्त सच्चाई को स्वीकारने से इंकार कर दिया, ऐसे ही आत्मकथाओं में व्यक्त घटनाओं को अस्वीकार कर पाना सम्भव नहीं है। क्योंकि ‘‘आत्मकथा तो एक तरह के शपथ-पत्र की तरह है। जिसमें पूरी ईमानदारी से घटित घटनाएं व्यक्त की जाती हैं। दलित आत्मकथाओं में जो अनुभव व घटनाएं प्रस्तुत हुई हैं, उन्होंने समाज के संवेदनशील लोगों में एक बेचैनी अवश्य पैदा की है। बहुत से मिथक व भ्रम टूटे हैं जिन मूल्यों-मान्यताओं को बिल्कुल पवित्र व अनालोच्य मानकर बड़ी शान से व्यवहार में प्रयोग ला रहे थे, उसमें छिपी अमानवीयता को उद्घाटित किया है ..............................न तो दलित आत्मकथाओं में व्यक्त सच्चाईयों को व ब्राह्मणवादी विचारधारा में मौजूद अमानवीयता को झुठलाया जा सकता है और न ही इसे संस्कारगत विवशताओं के कारण स्वीकार ही किया जा सकता है।‘‘4 इसी सन्दर्भ में एक अन्य लेखक डॉ हितेन्द्र पटेल लिखते है कि ‘‘आमतौर पर आत्मकथा लिखना ‘नोस्टेल्जिया‘ का अनुभव होता है। बीते दिनों की यादों में दहकना होता है। अक्सर यह एक महिमामंडित रूमानी अन्तर्यात्रा होती है। परन्तु दलित आत्मकथा लिखना अपने हाथों अपने जख्मों को कुरेदना होता हे। पल-पल दोबारा मरना होता है। यहाँ वह बीते दिनों की खुशनुमाँ जुगाली नहीं है, वरन् वेदना का विस्तार है।‘‘5 
इसमें कोई दो राय नहीं है कि दलित आत्मकथाएँ वेदना का विस्तार है। यह बात सुभाषचन्द के एक वक्तव्य से पुष्ट होती है कि ‘‘दलित आत्मकथाएँ केवल उनके लेखकों के जीवन के तथ्यों-सत्यों, घटनाओं को ब्यौरा देने वाली रचना नहीं हैं, बल्कि यह भारतीय समाज और विशेषकर हिन्दी-भाषी क्षेत्र के हिन्दू समाज में व्याप्त ऊँच-नीच, जातिगत पूर्वाग्रह एवं घृणा-हिंसा को उद्घाटित करने वाली रचनाएँ हैं। अपने जीवन की घटनाओं व अनुभवों के माध्यम से समाज की निचली-ऊपरी परतों में व्याप्त सामाजिक हिंसा को उघाड़ा है।‘‘6 इसी क्रम आगे दलित आत्मकथाओं और उनकी महत्ता के विषय में शरणकुमार लिंबाले लिखते हैं ‘‘दलित-आत्मकथा एक बहुचर्चित साहित्य-विधा है। दलित कविता तथा समीक्षा के कारण दलित साहित्य का विकास हुआ, तो दलित आत्मकथा के कारण यह साहित्य समृद्ध हुआ। पिछले कुछ दषकों से दलित-आत्मकथा ने कुछ साहित्यिक और कुछ असाहित्यक प्रष्न उपस्थित किये हैं। दलित-आत्मकथा के कारण साहित्यिक अभिरूचि की सम्पूर्ण परम्परा अंतर्मुख हो गयी है, इसे कोई भी नकार नहीं सकता।‘‘7 जैसा कि पहले बताया गया है कि दलित साहित्य स्वयं की पहचान बनाने में संघर्षरत है क्योंकि कुछ साहित्य के ठेकेदारों ने न केवल दलित साहित्य पर प्रश्न चिन्ह लगाया है, बल्कि दलित आत्मकथाओं को तो यह कहकर नकार दिया कि ‘दलित साहित्यकार जो अपनी आत्मकथा लिख रहे हैं वो सभी काल्पनिक है तथा पुरस्कार प्राप्त करने के लिए लिख रहे हैं क्योंकि जितनी उनकी आत्मकथाओं में लिखा है, इतनी अमानवीयता तो समाज में हो ही नहीं सकती है। इसका एक उदाहरण लिंबाले की आत्मकथा ‘अक्करमाशी‘ है। मराठी में अक्करमाशी एक आत्मकथा के रूप में प्रकाशित हुई परन्तु जब इसका प्रकाशन हिन्दी में हुआ तो इसे उपन्यास का नाम दिया गया। क्यो? ताकि इसकी प्रमाणिता को झुठलाया जा सके। परन्तु ऐसा हो नहीं सका। इस विषय में स्वयं लिंबाले एक साक्षात्कार में कहते हैं कि ‘‘हिन्दी में मेरी आत्मकथा अक्करमाशी ह,ै जिसे उपन्यास कहा गया है‘। यह एक अजीब चीज है। ऐसा क्यों होता है? इसका मतलब यह है कि जो मैंने भोगा है, दोगलेपन की जो बात उसमें आई है, वैसा हिन्दी लेखक जी ही नहीं सकता? वह लब्धप्रतिष्ठ है इसलिए? उसमें (अक्करमाशी के अनुवाद में) भी लिखा है कि मराठी के लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार शरणकुमार लिंबाले का उपन्यास है। मैं न कभी लब्धप्रतिष्ठ था, न हूँ। मैं दलित हूँ और दलितों के लिए संघर्ष करता हूँ।‘‘8 लिंबाले जी के इस वक्तव्य से पुष्ट होता है कि किस प्रकार हिन्दी साहित्य जगत में दलित साहित्य विशेषकर दलित आत्मकथाओं के साथ कैसे नकाराने का प्रयास किया जाता रहा है। इस प्रश्न का उत्तर ओमप्रकाश वाल्मीकी बड़ी बेबाकी से देते हुए कहते हैं ‘कि दलित साहित्य को किसी की स्वीकारोक्ति की कोई जरूरत नहीं है, उसका अस्तित्व है और रहेगा।‘
हिन्दी में पुस्तक के रूप में पहली दलित आत्मकथा मोहनदास नैमिशराय की अपने-अपने पिंजरे थी। जिसका प्रकाशन सन् 1995 में हुआ था। यह आत्मकथा दो भागों में प्रकाशित हुई थी। इसके बाद ओमप्रकाश वाल्मीकी की ‘जूठन‘ (1997), सूरजपाल चौहान की ‘तिरस्कृत‘ एवं दूसरा भाग ‘संतप्त‘, कौसल्य बैसंत्री की ‘दोहरा अभिशाप‘, डॉ. श्यौरोज सिंह ‘बैचेन‘ की ‘मेरा बचपन मेरे कंधो पर‘, डॉ. तुलसीराम की ‘मुर्दहिया‘ (2010), डॉ. सुशीला टॉकभौंरे की ‘शिंकजे का दर्द‘ (2011), रमाशंकर आर्य की ‘घुटन‘ इत्यादि प्रकाशित हो चुकी है और भविष्य में भी आत्मकथा लिखने का क्रम जारी है। जैसा कि सभी को ज्ञात है कि ‘दलित साहित्य‘, मराठी भाषा की देन है और सबसे पहले मराठी में दलित साहित्य प्रकाश में आया। स्वाभाविक है कि हिन्दी दलित आत्मकथाओं से पूर्व मराठी दलित आत्मकथाओं आ चुकी थी जिनमें प्रमुख दया पवार की ‘बलुत‘ (अछूत), सोनकांबले की ‘आठवणीचे पक्षी‘ (यादों के पंछी), लक्ष्मण माने की ‘उपरा‘, लक्ष्मण गायगवाड़ की ‘उचल्या‘ (उठाईगीर), शंकरराव खरात की ‘तराल-अन्तराल‘, शरणकुमार लिंबाले की ‘अक्करमाशी‘, माधव कोंडविलकर की ‘मुक्काम पोस्ट गोठणे‘ आदि। उक्त आत्मकथाओं को दलित साहित्य का आधार बिन्दु कहा जाएं जो अतिश्योक्ति न होगी। दलित साहित्य के आधार बिन्दु डॉ. अम्बेडकर जी ने भी ‘मी कसा झालो‘ (मैं कैसे बना) नाम से अपनी आत्मकथा लिखी। यह आत्मकथा पुस्तक के रूप में प्रकाशित नहीं हो सकी बल्कि इसके कुछ अंशो का ही प्रकाशन हो सका। मराठी और हिन्दी से पूर्व अंग्रेजी में भी मुख्य ‘दो दलित आत्मकथाएँ प्रकाशित हो चुकी थी। पहली ‘आइ वाज इन आउट कास्ट‘ (हजारी, सन् 1951), तथा दूसरी ‘अनटोल्ड ए स्टोरी ऑफ भंगी वाइस चान्सलर‘ (श्यामल)।‘ (ीजजचरूध्ध्ूूूण्तंबींदंांतण्वतहध्2009ध्07ध्इसवह.चवेजऋ9278ण्ीजउस से साभार)
दलित आत्मकथा जीवन के हर स्तर पर निषेध की कथा है। अपनी खोई हुई अस्मिता की खोज यात्रा है। इस बात को पुष्ट करने हेतु कुछ आत्मकथाओं के मुख्य अंशो पर चर्चा करना अनिवार्य होगा। जिसके फलस्वरूप ही दलित आत्मकथा में छिपे दर्द और संवेदना को भली प्रकार से समझने में सरलता होगी। सभी दलित आत्मकथाओं में दलित जीवन का यथार्थ बड़ी मार्मिकता के साथ दर्ज है। 
सबसे पहले बात करते हैं ओमप्रकाश वाल्मीकी की जिनकी रचनाओं में एक ऐसी दुनिया से हमारा परिचय होता है, जहाँ लोग अन्य समाजों की नजरों में पवित्र और उत्कृष्ट न होने के कारण हाशिये का जीवन जीने को मजबूर हैं तथा जब यह लोग अक्षर की दुनिया मेें प्रवेश करते हैं तो इनके अतीत की स्मृतियाँ, इनके समाज और उसकी समस्याएँ एक शक्तिशाली ऊर्जा के साथ हमारे सामने उपस्थित होती हैं। जब कोई भी उन्हें पढ़ता है तो हतप्रभ रह जाता है और स्वतः ही उस पाठक का मन कह उठता है, ‘क्या कहीं ऐसा भी होता है या हुआ होगा?‘ उदाहरण हेतु ‘जूठन‘ का यह अंश- ‘‘जोहड़ी के किनारे पर चूडड़ो के मकान थे, जिनके पीछे गाँव भर की औरतें, जवान लड़कियां, बड़ी-बूढ़ी यहाँ तक कि नयी नवेली दुल्हने भी इसी डब्बो वाली के किनारे खुल में टट्टी फरागत के लिए बैठ जाती थीं। रात के अंधेरे मे ही नहीं, दिन के उजाले में भी पर्दों में त्यागी महिलाएं घूंघट कोढ़े दुशाले ओढ़े इस सार्वजनिक खुले शौचालय में निवृत्ति पाती थीं। तमाम शर्म लिहाज छोड़कर वे डब्बोवाली के किनारे गोपनीय जिस्म उघाड़कर बैठ जाती थीं। इसी जगह गाँव घर के लड़ाई-झगड़े गोलमेज कॉन्फ्रेंस की शक्ल में चर्चित होते थे। चारांे तरफ गंदगी होती थी। ऐसी दुर्गंध कि मिनट भर में साँस घुट जाए। तंग गलियों में घूमते सूअर, नंग-धडंग बच्चे, कुत्ते, रोजमर्रा के झगड़े बस यह था वह वातावरण जिसमें बचपन बीता। इस माहौल में यदि वर्ण व्यवस्था कहने वालों को दो-चार दिन रहना पड़ जाए तो उनकी राय बदल जाएगी।‘‘9 
कुछ ऐसा ही वर्णन मोहनदास नैमिशराय ने अपनी आत्मकथा में किया है- ‘‘हमारी बस्ती भी शहर की अन्य बस्तियों की तरह थी। बस्ती का नाम चमार गेट था, फिर चमार दरवाजा हुआ। जिसे लोग चमार दरवज्जा ही अधिक बोलते थे। बस्ती के सिरे पर एक बड़ा गेट था।............शाम होते-होते दरवाजे बंद कर दिए जाते थे। इसी कारण बस्ती का नाम चमार गेट पड़ा।............ कुछ लोग इसे चमारों का मौहल्ला भी कहकर पुकारते थे। आज भी रिक्शे-तांगेवाले सवारी लेने के लिए जोर-जोर से चमार दरवज्जा कहकर पुकारते हैं।‘‘10 बचपन के अपने ऐसे ही परिवेश के बारे में कौसल्या बैसंत्री अपनी आत्मकथा में लिखती हैं- ‘‘बस्ती में चालीस पचास घरों के लिए एक नल होता था। बस्ती काफी बड़ी थी। नल सवेरे पाँच बजे खुलता था और आठ बजे बंद हो जाता था। शाम को फिर साढ़े पाँच बजे खुलता और सिर्फ दो घंटे ही खुला रहता था। गरमी के दिनों में तो सिर्फ एक-डेढ़ घंटे ही पानी आता था। सबको सवेरे ही काम पर जाना होता था। लोग रात में तीन बजे से ही अपनी बारी के लिए बरतन रखते थे। नल के आगे बर्तनों, घड़ो की लाइन लगी रहती थी। ................ सवेरे से ही नल पर लोगों का शोर शुरू हो जाता था। कभी झगड़ा-फसाद, मारपीट भी हो जाती थी। झगड़ा औरतों में शुरू होता और बाद में घर के पुरुष भी उस झगड़े में उतर आते थे। औरतें एक दूसरे के बाल नोचती थी, और गंदी-गंदी गालियां एक दूसरे को देती थी।............ माँ हम बहनों को नल पर ज्यादा नहीं जाने देती थी।‘‘11 
जाहिर है कि विभिन्न आत्मकथाओं के यह पंक्तियां दलित समाज की वास्तविक जिदंगी और उनकी समस्याओं के माध्यम से एक ऐसे समय और समाज को हमारे समक्ष प्रदर्शित करती हैं जिसकी साहित्यिक वास्तविकता से हम सभी लगभग अछूते थे या जो दलितों की जिदंगी से परिचित भी थे तो उनमें इससे टकराने को साहस नहीं था। डॉ. देवेन्द्र चौबे इसकी पुष्टि करते हुए लिखते हैं कि ‘‘हम डरते थे कि कहीं हमने उन सच्चाइयों से टकराने का साहस किया भी तो खत्म हो जाएंगे हम और खत्म हो जाएगी हमारी वह दुनिया जो अब तक पवित्र, उत्कृष्ट और सुरक्षित थी।‘‘12 
आत्मकथा ‘जूठन‘ पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है कि जाति को लेकर ओमप्रकाश वाल्मीकी में कोई हीनता बोध नहीं है, कहीं यह एहसास तक भी नहीं हुआ है कि कथित निम्न जाति में पैदा होने से उनकी मानवता, सम्मान व गरिमा में कोई कमी आयी है। ओमप्रकाश वाल्मीकी का आग्रह है कि दलितों को भी मानव के रूप में स्वीकार किया जाए, न कि जाति की पहचान पर। विशेष बात यह है इस प्रकार का आग्रह प्रत्येक दलित साहित्यकार ने अपनी-अपनी रचनाओं के माध्यम से किया है। आत्मकथा ‘जूठन‘ में एक दृष्टान्त को लेखक ने बहुत मार्मिक ढंग से बताया है, जिसमें उन्हांेने इस बात पर प्रश्न चिन्ह लगाया है कि क्या सच में शिक्षक/गुरू भगवान का स्वरूप होते हैं? ओमप्रकाश वाल्मीकी लिखते हैं- 
‘‘तीसरे दिन मैं कक्षा में जाकर चुपचाप बैठ गया। थोड़ी देर बाद उनकी दहाड़ सुनाई पड़ी ‘अबे, ओ चूहड़े के, .............(गाली) कहाँ घुस गया अपनी माँ............ (गाली)  
उनकी दहाड़ सुनकर मैं थर-थर कांपने लगा था। एक त्यागी लड़के ने चिल्लाकर कहा ‘मास्साब, वो बेट्ठा है कोणे में।‘
हेडमास्टर ने लपककर मेरी गर्दन दबोच ली थी। उनकी उंगलियों का दबाव मेरी गर्दन पर बढ़ रहा था। जैसे कोई भेड़िया बकरी के बच्चे को दबोचकर उठा लेता है। कक्षा से बाहर खींच कर उसने मुझे बरामदे में ला पटका। चीखकर बोले ‘जा लगा पूरे मैदान में झाडू...... नहीं तो ......(शरीर का एक गोपनीय अंग) में मिर्ची डालके स्कूल के बाहर काढ़ (निकाल) दूंगा।‘‘13 इन पंक्तियों में जो अमानवीयता छिपी है देवेंद्र चौबे इस पर अपनी प्रतिक्रिया कुछ इस प्रकार देते हैं- ‘‘यह एक ‘‘गुरू‘‘ का अपने ‘‘दलित छात्र‘‘ के साथ किया गया दुर्व्यवहार है जो शिक्षण संस्थाओं में दलित समाज की वास्तविक स्थिति की ओर संकेत करता है।‘‘14 इस प्रकार के कडुवें और दिल दहला देने वाले अनेक प्रसंग आप हर दलित आत्मकथा में देख सकते हैं। लेकिन ‘जूठन‘ के इस उपर्युक्त उदाहरण के जरिए लेखक ने दलित समाज की इस चुप्पी को भी तोड़ने का प्रयास किया है जो दलितों को दोराहे पर लाकर खड़ी कर देती है। ‘‘इस आत्मकथा का नायक अपने समाज की चुप्पी तोड़ने के साथ ही उसे भयमुक्त बनाने का प्रयास भी करता है और इस क्रम में इस राजनीति से भी टकराने की कोशिश करता है जो उसके ग्रामीण समाज को सदियों से हाशिये पर डाले हुए है। यही कारण है जो उसके ग्रामीण समाज को सदियों से हाशिये पर डाले हुए है। यही कारण है कि जूठन  में लेखक अपने पिता के माध्यम से ‘शिक्षा‘ को सर्वाधिक महत्व देता है।‘‘15 आत्मकथा ‘जूठन‘ के महत्व पर प्रकाश डालते हुए डॉ. ललिता कौशल अपने एक शोध ग्रन्थ में लिखती हैं ‘‘यह आत्मकथा सामाजिक सड़ांध को उजागर करती है। इसमें हिन्दू समाज की विकृतियों का प्रामणिक पर्दाफाश हुआ है। यह लेखक की व्यक्तिगत पीड़ा के साथ पूरे दलित समाज का भी साकार कराती है। जाति के कारण एक बड़े समुदाय को मानवीय मूल्यों से वंचित रखा जाता है।‘‘16 जातीय उत्पीडन की व्यथा को शब्दों में व्यक्त करते हुए स्वयं लेखक ने लिख है ‘‘दलित जीवन की पीड़ाएं असहनीय ओर अनुभव-दग्ध हैं। ऐसे अनुभव जो साहित्यिक अभिव्यक्तियों में स्थान नहीं पा सके। एक ऐसी समाज-व्यवस्था में हमने सांसे ली हैं, जो बेहद क्रूर और अमानवीय है। दलितों के प्रति असंवेदनशील भी।‘‘17 यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि आत्मकथा ‘जूठन‘ एक ऐसा दस्तावेज है जो दलित उत्पीड़न की प्रक्रियाओं को उद्घाटित तो करती ही है साथ ही सामाजिक रीति-रिवाजों, प्रथाओं एवं कथित परम्पराओं में छिपे दलित उत्पीड़न की ब्राह्मणवादी मोर्चाबन्दी या मानसिकता से बचकर अपने रास्ते भी तैयार करती है।
हांलाकि हिन्दी में पहली आत्मकथा का दर्जा अपने-अपने पिंजरे (1995) को प्राप्त है परन्तु राज किशोर के संपादकत्व में ‘हरिजन के दलित‘ (वाणी प्रकाशन, 1994) नामक पुस्तक का प्रकाशन हुआ। इस पुस्तक में ओमप्रकाश वाल्मीकी के आत्मकथा को लगभग 20 पृष्ठों में प्रकाशित किया गया। मोहनदास नैमिशराय दलित साहित्य के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर है, जिन्होंने दलित साहित्य के विभिन्न पक्षो पर कार्य किया है और कर रहे हैं। अपनी आत्मकथा ‘अपने-अपने पिंजरे (भाग- 1,2)‘ में अपने दलित वर्ग की पीड़ा, उनकी आर्थिक व सामाजिक शोषण के विभिन्न रूपों को उद्घाटित किया है। यह आत्मकथा पढ़कर यह धारणा तथ्यपरक नहीं रहती है कि शहर दलितों के शोषण को कम या नहीं करता है। नैमिशराय ने अपनी इस आत्मकथा में दलितों के परिवेश, धार्मिक व सामाजिक क्रिया-कलाप, मेरठ शहर के त्यागियों द्वारा शारीरिक, मानसिक, व आर्थिक शोषण, बेगारी, अशिक्षा, स्कूल-कॉलेजों में जातिगत राजनीति, प्रेम-प्रसंग आदि के साथ इस शहर का यथार्थ चित्रण किया है जहाँ से देश में 1857 की पहले संग्राम का शंखनाद हुआ था। यह आत्मकथा समाजशास्त्रीय दृष्टि से महत्वपूर्ण कृति है। इस पुस्तक की भूमिका में डॉ. महीप सिंह लिखते हैं ‘‘मोहनदास नैमिशराय ने अपने जीवन की उन तल्ख और निर्मम सच्चाइयों को इसमें उकेरा है जिनमें मानवीय पीड़ा अपनी पूरी सघनता से व्यक्त हुई है। इसका सबसे बड़ा कारण व्यक्ति के ऊपर सड़ी-गली व्यवस्था का वह आरोपण है जिसके प्रति वह विवश होकर सब कुछ सहते जाने के लिए अभिशप्त हैं।‘‘18 उक्त यह आत्मकथा दलित समाज की जिन्दगी और उनकी समस्याओं के माध्यम से ऐसे समय और समाज से हमारा परिचय करवाती है, जिसकी वास्तविकता से हम लगभग अपरिचित थे। लेखक ने अपनी इस आत्मकथा में अपने जीवन की कहानी को चित्रित करके इस व्यवस्था के प्रति अपना आक्रोश भी प्रकट किया है।
जहाँ एक ओर ‘जूठन‘ में ओमप्रकाश वाल्मीकी ने अपने गांव में फैली जातिवादी कुरीरितियों का वर्णन किया है वही ‘अपने-अपने पिंजरे‘ में नैमिशराय ने मेरठ जैसे शहर के चमारों की स्थिति एवं उनके जीवन को अंकित किया है। भारतीय समाज गरीबी, दरिद्रता, बेरोजगारी, अशिक्षा से ग्रस्त था और लगभग आज भी है। हमारी सामाजिक व्यवस्था में सबसे अधिक तकलीफदेह था निम्न जातीयता के नाम पर दलितों के साथ क्रूरतापूर्ण बेइज्जती का व्यवहार। ब्राह्मणवाद की विचारधारा का इस सामाजजिक व्यवस्था पर गहरा प्रतिकूल प्रभाव रहा है। इसने ही समाज को ऊँच-नीच जातियों में बांटा हुआ है। अपनी आत्मकथा में नैमिशराय लिखते हैं ‘‘हर जाति और वर्ग के लोग अपनी-अपनी पहचान में सिमटे हुए। शहर धड़कता था, पर अलग-अलग स्वर में। बस्तियां थिरकती-नाचती थीं अलग-अलग बोलियों में। उन सबसे मिलकर बना यह शहर।‘‘19 गाँव हो या शहर समाज में व्यक्ति का दर्जा और हैसियत उस की जाति से तय की जाती है। जाति को आदमी की मुख्य पहचान बनाकर उच्च वर्ण द्वारा निम्न जातियों के लोग घृणा और अमानवीय व्यवहार का शिकार होते हैं। जो दलितों में हीन भावना पैदा करती है। समाज में दलितों की पहचान ना बराबर ही थी और आज भी सामाजिक स्थिति में कोई खासा परिवर्तन देखने को नहीं मिलता है। इस बात की पुष्टि लेखक स्वयं अपनी आत्मकथा में करते हुए कहते हैं ‘‘हिन्दू समाज में आदमी की कीमत उसकी जात से ही आंकी जाती थी। हमें विशेषतौर पर चमार-चूड़े नाम से संबोधित किया जाता था। पर उनके संबोधन के तौर-तरीके और भी घृणास्पद हुआ करते थे। उनके द्वारा कहे गये एक-एक शब्द हमारे शरीर को छीलते थे। बीच-बीच मे वे गांलियां भी देते थे। हिन्दू धर्म तथा संस्कृति की अमाननयी परम्परा से जुड़ी अजीबोगरी अश्लील गालियां। जिन्हें हमें सुनना ही पड़ता था।.......... जैसे गाँव या शहर के हाशिये पर रहना भी हमारी नियति थी। वैसे ही इस तरह के नाम हमें विरासत में मिले थे।‘‘20 
अस्पृश्यता ही ब्राह्मणवादी विचारधारा की सबसे घृणापद बात है। ज्योतिबा फुले और बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर के इसके विरूद्ध इतना संघर्ष करने के बावजूद भी समाज में इस सामाजिक बुराई की जड़े और गहरी होती गयी। दलितों के प्रति सवर्णों का व्यवहार ऐसा होता है कि किसी प्यासे व्यक्ति को पानी पिलाने में भी उनकी जाति आड़े आती है और एक ही रास्ते पर साथ चलने से उनका धर्म भ्रष्ट हो जाता है। नैमिशराय जी ने इसका स्पष्ट उल्लेख अपनी आत्मकथा में किया है। जिसको पढ़कर मानवता भी शर्मशार हो जाती है। यह घटना उस समय की है जब वह (मोहनदास नैमिशराय) अपने बड़े भाई के साथ बहन के घर जा रहे थे तब रास्तें में उन्हें प्यास लगती है वह दोनों एक सवर्ण के घर से पानी मांगते है तो सवर्ण पहले उनकी जाति पूछते हैं। जाति पता चलते ही अचानक उनके तेवर बदल जाते हैं और कहते हैं- 
‘‘तो म्हारे घर अग्गे कियांे खड़े हो? जाओ सिद्दे-सिद्दे, आगे चमारों के ही घर पड़ेंगे पैले। वे सांप की तरह फुंफकार रहे थे।
हमें पानी पिला दो, बड़ी प्यास लगी है।.......... म्हारे घर चमारों की खाŸार पानी ना है। ......... अग्गे झोड़ है, वईं मिल जागा पानी-वानी तमैं ।.........‘‘21 पानी न मिलने के कारण उनकी जो हालत खराब हुई उसका वर्णन लेखक कुछ इस प्रकार करता है- ‘‘मेरी आंखो के सामने अंधेरा छाने लगा था। पानी पीकर हम पांच मील भी आगे चल सकते थे। पर प्यासे गले से तो पांच कदम भी आगे न बढ़ा जा रहा था। उन दोनों ने पहले ही पानी पिलाने से मना कर हमारी आधी जान ले ली थी। कितनी आस से हम रूके थे उनके घर के आग। हम वहां प्यास रूके थे और प्यास ही आगे बढ़ गये थे।‘‘22 जिस पानी को जानवर भी मजबूरी में पीते होगंे वैसे जोहड़ का गंदा और बदबूवाला पानी लेखक और उनके भाई को पीना पड़ा। यह घटना दिखाती है कि सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त व्यक्ति इस तरह का अमानुष व्यवहार करते समय जरा भी असहजता अनुभव नहीं करते क्योंकि उनके मन में दलितों के प्रति घृणा बहुत ही गहरी हो गयी है। इसके साथ ही यह घटना पढ़कर स्वतः ही आंखो में पानी आ जाता है। सच में यह घटना मानवता को शर्मशार करने वाली है। ऐसी एक या दो नहीं बल्कि असंख्य अमानवीय घटनाएँ दलित आत्मकथाओं में देखी/पढ़ी जा सकती हैं। ऐसी ही एक घटना के बारे में डॉ. तुलसी राम अपनी आत्मकथा में लिखते हैं- ‘‘गर्मी के दिनों में प्यास लग जाना एक बड़ी समस्या थी। स्कूल के पास एक कुआँ था, जिसके चबूतरे तक को हम दलित छू नहीं सकते थे।.......... मुंशी जी (शिक्षक) परसूपुर गांव के मिसिर बाबा (सवर्ण छात्र) को पानी पिलाने के लिए कहते।........ और वह पानी पिलाता कम और हमारे ऊपर ज्यादा डालता था। जिससे भीग जाते थे।...............‘‘23  डॉ. सुशीला टाकभौरंे की आत्मकथा में भी स्कूल में घटित एक वृतान्त आता है जिसमें निम्न जाति के होने के कारण किस प्रकार कक्षा में उनकों अन्य बच्चों से अलग रखा जाता था वह लिखती हैं- ‘‘स्कूल में साथ पढ़ने वाले सवर्ण बच्चे मुझसे दूर-दूर रहते थे। स्कूल के घड़े का पानी चपरासी दूर से पिलाता था। कभी चपरासी न रहने पर मैं अपनी कक्षा की अन्य स्वर्ण छात्राओं से पानी पिलाने के लिए कहती थी। ऐसे समय अपनी निर्बलता और बेबसी का अनुभव होता था।‘‘24  आगे मोहनदास नैमिशराय अपनी आत्मकथा में लिखते हैं- ‘‘हजारों वर्षों से शायद यही व्यवस्था चल रही होगी। जाति और वर्गाें के अपने-अपने पिंजरों में बंद हो हम इन त्योंहारो को अपनी-अपनी बस्तियों/गांवों में मनाते आ रहे होंगे।‘‘25 इसे पढ़कर यह ज्ञात हो जाता है कि लेखक ने अपनी आत्मकथा को यह शीर्षक (अपने-अपने पिंजरे) क्यों दिया होगा।
भारतीय सामाजिक व्यवस्था में ‘दलित‘ होना ही किसी अभिशाप से कम नहीं है, साथ ही पुरुष प्रधान समाज में दलित होकर एक स्त्री होना तो उसके लिए दोहरा अभिशाप ही कहलाएगा। सर्वप्रथम ‘कौसल्या नंदेश्वर बैसंत्री‘ (24.06.2011 को परिनिर्वाण हुआ) ने हिन्दी दलित साहित्य में इस दोहरे अभिशाप की पीड़ा-दर्द को शब्दों के माध्यम से व्यक्त किया है। इसके बाद डॉ. सुशीला टाकभौंरे की आत्मकथा ‘शिकंजे का दर्द‘ (2011) का प्रकाशन हुआ। दोनों ही आत्मकथाओं में दलित महिला होने के उस दोहरे अभिशाप को बड़े मार्मिक ढंग से दर्शाया है। यहाँ यह कहना ज्यादा उचित होगा कि इन दो लेखिकाओं ने न केवल अपने जीवन के दुखों का वर्णन किया है बल्कि यह आत्मकथाएँ उन सभी दलित माहिलाओं की भी है, जिन्होंने जीवन में इस दोहरे अभिशाप को झेला। सामाजिक व पारिवारिक परिस्थितियों के चलते वह उस दर्द को शब्दबद्ध करने का साहस नहीं जुटा पायी। परन्तु यह साहस इन लेखिकाओं ने किया जिसके माध्यम से इस दोहरे अभिशाप की असहनीय पीड़ा को समझने में आसानी हुई। इन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से दलित महिलाओं के उत्पीड़न व संघर्ष से सशक्त अभिव्यक्ति की है जो पुरूषवादी मानसिकता पर गहरा प्रहार करती है। प्रो. विमल थोरात आत्मकथा ‘दोहरा अभिशाप‘के विषय में कहती है कि ‘‘कौशल्य बैसंत्री ने अपनी आत्मकथा के माध्यम से दलित स्त्री के संघर्ष को मजबूर और विकसित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उनके लेखन में दलित महिला रचनाकारों को प्रेरणा और बल दिया।‘‘26  इससे पूर्व मराठी भी में दलित महिला आत्मकथा प्रकाशित हो चुकी थी जिनमें प्रमुख बेबी कांवले की ‘जीवन हमारा‘ और सांताबाई कांवले की ‘मा ज्या जल माची चित्यूर कथा‘। 
कौसल्या बैसंत्री ने हिन्दी दलित साहित्य में दलित महिलाओं के दोहरे अभिशाप के दर्द को बड़े ही मार्मिक ढंग से दिखाया है। इनकी इस आत्मकथा को आत्मकथात्मक उपन्यास कहते हुए इसकी महत्ता के विषय में मस्तराम कपूर लिखते हैं- ‘‘यह उपन्यास लेखिका के लंबे, संघर्षपूर्ण, कड़वे-मीठे अनुभवों से भरे जीवन के एक सिंहावलोकन के रूप में लिखा गया है। अतः यह आत्मरति या आत्मपीड़न से उत्पन्न उन स्तब्धकारी प्रभावों से मुक्त है जो आम तौर पर दलित साहित्य की रचनाओं में पाये जाते हैं।.......... यह एक सीधी-सादी जीवन-कथा है जो हर प्रकार के साहित्यिक छलों से मुक्त है।‘‘27  लेखिका ने अपने जीवन की इस कथा को अपने माता-पिता को समर्पित किया है, जिन्होंने गरीबी, अंधविश्वास और जातीय प्रताड़नों से लड़ते हुए अपनी सभी लड़कियों को शिक्षित किया। यह आत्मकथा 28 प्रकरणों में विभक्त की गयी है। बैसंत्री जी ने अपनी आत्मकथा में अपनी गरीबी और लाचारी को मार्मिक ढंग से दर्शाया है। मां-बाप के अत्यन्त गरीब होने के बावजूद भी दानों सभी लड़कियों को शिक्षित करना चाहते थे। हर तरह की कठिन परिस्थितियां होने के बाद भी इनकी पढ़ाई के लिए पैसे जमा किये जाते थे। लेखिका के माँ-बाप दोनों ही शिक्षा की महत्ता जानते थे। क्यांेकि ‘‘उन्होंने बाबा साहब अंबेडकर का कस्तूरचंद पार्क में भाषण सुना था कि अपनी प्रगति करना है तो शिक्षा प्राप्त करना बहुत जरूरी है। लड़का और लड़की दोनों को पढ़ाना चाहिए। माँ के मन में इसका असर पड़ा था और उन्होंने हम सब बच्चों को पढ़ाने का निश्चय किया था, चाहे कितनी ही मुसीबतों का सामना करना पड़।‘‘28   इससे स्पष्ट हो जाता है कि दलितों ने अपने-अपने क्षेत्रों में जो भी मुकाम हासिल किये है उनके पीछे निःसन्देह रूप से उनके माता-पिता को बहुत बड़ा योगदान रहा है। अपनी इस आत्मकथा में कौशल्या बैसंत्री ने अपनी जाति की सभी समस्याओं को वर्णन किया है। इन्होंने अपने परिवार टूटने की समस्या की भी बात की है। क्योंकि कहीं भी उनके पहंुचने से पूर्व उनकी जाति पहुँच जाया करती थी। उनके अपने पति से भी कभी नहीं बनती थी। जिसका कारण था उनका गर्म मिजाज और जिद्दीपन। वह बात-बात पर गाली देते थे उनके स्वभाव पर प्रकाश डालते हुए कहती हैं कि ‘‘उसने मेरी इच्छा, भावना, खुशी की कभी कद्र नहीं की। बात-बात पर गाली, वह भी गंदी-गंदी और हाथ उठाता। मारता भी था बहुत क्रूर तरीके से।‘‘29 यह घटना पुरुषवादी मानसिकता को प्रदर्शित करती है तथा किसी भी स्त्री को अपने पति के बारे में इस तरह बेबाकी से लिखना किसी क्रांति से कम नहीं है। भविष्य में साहित्य जगत में जिस प्रकार से महिला लेखन लिखा जा रहा है वह पुरुषवादी मानसिकता के छुटकारा तथा अपने अस्तित्व की पहचान प्राप्त करने की ओर अग्रसर है। अगर दलित महिला की बात करे तो उनका लेखन उसी दोहरे अभिशाप से मुक्त होने हेतु लिखा जा रहा है।
दलित साहित्य में अभी तक जितनी भी आत्मकथाएँ लिखी जा चुकी है या लिखी जा रही है, उन सभी का एक ही उद्देश्य है कि दलितों की पीड़ा, उनके ऊपर थोपा गया अमानवीय और संघर्षपूूर्ण जीवन को इसके माध्यम से हम सबके समक्ष रखना। जिससे हमारे देश में आज भी जो सवर्णमानसिकता हावी है लोग उससे बाहर निकल कर सभी के साथ समान और मानवता का व्यवहार करें। दलित आत्मकथाओं ने समाज की खोखली और नग्न सत्य हकीकतों से परादा उठाया है। इसके साथ ही आत्मकथा लिखने का एक उद्देश्य और भी है कि समाज को सच्चाई बताना। लोग इस सच्चाई को स्वीकार करें, इनमें दिये गये तथ्यों को समझें, मंथन करें और भविष्य के समतावादी, मानवतवादी भारतीय समाज के निर्माण के लिए कदम उठाएं। दलित साहित्यकारों को कहना है कि उनके साहित्य को पढ़कर किसी से दलितों के प्रति सहानुभूति या दया नहीं चाहिए। बल्कि हमें अपना स्वाभिमान व अधिकार चाहिए। अपनी आत्मकथा की भूमिका में डॉ. सुशीला टाकभौरंे इस विषय में लिखती है- ‘‘अक्सर सवर्ण लोग दलित आत्मकथा पढ़कर दलितों के प्रति दया और सहानुभूति का भाव जताते हैं। यह उनकी समझ का फेर है। असल में उन्हें मनुवादी-वर्णवादी, जातिवादी अन्याय-शोषण की दुष्ट नीतियों पर लज्जित होना चाहिए। अपने पूर्वजों के कुचक्रों और छल-कपट पर शर्म करनी चाहिए। दलित आत्मकथाएँ मनुवादियों की कलंकित नीतियों को बताने वाली सच्ची कथाएँ हैं।‘‘30 दलित आत्मकथाओं में दलित जीवन की घनीभूत पीड़ा के अनेक चित्र हैं, अनेक प्रसंग हैं जो अपने समय के समाज की मानसिकता का साक्षात्कार कराते हैं। अभी भी समाज में यह मानसिकता है जो अब नासूर बन चुकी है। नासूर का इलाज कैसे किया जाता है, सभी जानते हैं। दलित आत्मकथा वर्चस्व की मानव-विरोधी व्यवस्था व विचारधारा की जटिलताओं को उद्घाटित करती व इसका विरोध करती व्यक्ति विशेष की आत्मकथा ना होकर समस्त समाज की दारूण कथा है।
निष्कर्षतः इस बात में कोई दो राय नहीं है कि दलित आत्मकथाएँ जीवन के अत्यन्त नजदीक और सबसे अधिक विश्वसनीय सिद्ध हो रही हैं। इनमें लेखकों ने अपनी शर्म, अपना उत्पीड़न तथा नंगी सच्चाईयों को समाज के सामने लाने का साहस किया है। हजारों वर्षों से अस्पृश्य लोगों के साथ अमानवीय व्यवहारा होता रहा है। सवर्ण वर्ग खोखली श्रेष्ठता के आडंबर होने के कारण ही मानवीय गरिमापूर्ण रहा और निम्न वर्ग को हमेशा घृणा की दृष्टि से देखता रहा है। सवर्ण मानसिकता रखने वाले लोग यह भूल रहे हैं कि ब्राह्मणवादी/सर्वणवादी समाज की मानवीयता को दीमक की तरह अन्दर-ही-अन्दर खत्म कर रही है, जिसके फलस्वरूप छुआछूत और जात-पात की क्रूरता समाज को जर्जर रहती रही। जहाँ तक दलित जीवन को सवाल है, वह भारतीय समाज में हमेशा बहिष्कृत ही रहा है, इसलिए डॉ. अम्बेडकर ने इसे बहिष्कृत भारत भी कहा है। इस जिन्दगी से दलित वर्ग मुक्ति पाना चाहता है और रूढ़िवादी परम्पराओं को नकारतें हुए जीना चाहता है। डॉ. अम्बेडकर सोच एवं दृष्किोण में परिवर्तन लाने के लिए ही यह घोषणा की थी ‘शिक्षित बनो, संगठित हो, संघर्ष करो‘। जागरूक दलित वर्ग इस नारे को अमल में लाने के लिए प्रयासरत हैं। शिक्षा चेतना व स्वाभिमान की आधारशिला है। शिक्षा वह तीसरा नेत्र है जो व्यक्ति को अपने अधिकारों के प्रति सचेत करता है।
अतः यह कहना कोई अतिश्योक्ति न होगी कि दलित आत्मकथाओं में आत्मकथाकार जीवन मंे होने वाले शोषण, अन्याय, अत्याचार, अपमान, रोटी, कपड़ा और मकान की बुनियादी समस्याओं को बखूबी दर्शाता है तथा समृद्ध एवं सवर्ण समाज का निम्न वर्ग के प्रति व्यवहार आदि को मार्मिक वर्णन करना है। साथ ही दलित आत्मकथाओं ने हमारे इतिहास की कमी को भी पूरा किया है। क्योंकि हमारे भारतीय इतिहास में दलितों के दुख-दर्द को कहीं ऐसे नहीं दर्शाया गया जैसे कि इन आत्मकथाओं में दर्शाया जा रहा है। दलित साहित्यकार या कहिए तमाम दलित वर्ग आज स्वाभिमान के साथ जीवन जीने से लिए संघर्षरत है और अपने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए प्रयत्नशील है। साहित्य की दृष्टि से देखा जाए तो वर्तमान दलित साहित्य इस बात का सशक्त प्रमाण है।



--:ः सन्दर्भ सूची:ः --

दलित आत्मकथाएँ अनुभव से चिंतन, सुभाष चन्द्र, साहित्य उपक्रम दिल्ली, पृ0-08 
हिन्दी कथा साहित्य में दलित विमर्श से उद्धृत, ले.-डॉ. खन्नाप्रसाद, सं.- दिलीप मेहरा, सी.पी. कम्पनी, नयी दिल्ली, पृ0-359
अक्करमाशी (आत्मकथा), डॉ. शरणकुमार लिंबाले, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ0-14 व 15 (लेखक की ओर से)
दलित आत्मकथाएँ अनुभव से चिंतन, सुभाष चन्द्र, साहित्य उपक्रम दिल्ली, पृ0-08 व 09
हिन्दी कथा साहित्य में दलित विमर्श से उद्धृत, सं.- दिलीप मेहरा, सी.पी. कम्पनी, नयी दिल्ली, पृ0-359
दलित आत्मकथाएँ अनुभव से चिंतन, सुभाष चन्द्र, साहित्य उपक्रम दिल्ली, पृ0-09
अक्करमाशी (आत्मकथा), डॉ. शरणकुमार लिंबाले, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ0-10 व 11 (लेखक की ओर से)
दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, डॉ. शरणकुमार लिंबाले, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ0-137
जूठन (आत्मकथा), ओमप्रकाश वाल्मीकी, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ0-11
अपने-अपने पिंजरे (आत्मकथा), मोहनदास नैमिशराय, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ0-17
दोहरा अभिशाप (आत्मकथा), कौसल्या बैसंत्री, परमेश्वरी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ0-36 व 37
आधुनिक साहित्य में दलित विमर्श, देवेंद्र चौबे, ओरियंट बलैकस्वॉन प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ0-75
जूठन (आत्मकथा), ओमप्रकाश वाल्मीकी, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ0-15
आधुनिक साहित्य में दलित विमर्श, देवेंद्र चौबे, ओरियंट बलैकस्वॉन प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ0-79
वही पृ0-79
चर्चित हिन्दी की दलित आत्मकथाएँःएक मूल्यांकन, डॉ. ललिता कौशन, साहित्य संस्थान, गाजियाबाद, पृ0-55
जूठन (आत्मकथा), ओमप्रकाश वाल्मीकी, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ0-07  (भूमिका से)
अपने-अपने पिंजरे (आत्मकथा भाग-1), मोहनदास नैमिशराय, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ0-08 (भूमिका से)
वही पृ0-19
अपने-अपने पिंजरे (आत्मकथा भाग-2), मोहनदास नैमिशराय, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ0-22 व 23
अपने-अपने पिंजरे (आत्मकथा भाग-1), मोहनदास नैमिशराय, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ0-68
वही पृ0-68
मुर्दहिया (आत्मकथा), डॉ. तुलसी राम, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ0-54
शिंकजे का दर्द, डॉ. सुशीला टाकभौरें, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ0-45
अपने-अपने पिंजरे (आत्मकथा भाग-2), मोहनदास नैमिशराय, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ0-124
ीजजचरूध्ध्ूूूण्पदजमतदंजपवदंसदमूेंदकअपमूेण्बवउध्2011ध्06ध्26ध्लेखिका-कौशल्या-बैंसत्री/
दोहरा अभिशाप (आत्मकथा), कौसल्या बैसंत्री, परमेश्वरी प्रकाशन, नयी दिल्ली, फ्लेप पृष्ठ से।
दोहरा अभिशाप (आत्मकथा), कौसल्या बैसंत्री, परमेश्वरी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ0-47
वही पृ0-104
शिंकजे का दर्द, डॉ. सुशीला टाकभौरें, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ0-08 (भूमिका से)


सहायक प्राध्यापक (हिन्दी साहित्य एवं भाषा विज्ञान)
"हिन्दी विभागाध्यक्ष"
शहीद बेलमती चौहान राजकीय महाविद्यालय पोखरी (क्वीली) टिहरी गढ़वाल
उत्तराखंड

6 comments:

  1. बिल्कुल सही है, बहुत - बहुत अच्छा लेख है ! ऐसा ही
    दलितो के साथ होता आया है ।

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  2. आपने यथार्थ का सटीक चित्रण किया है। यह सौ प्रतिशत सच है। सवर्णों की मानसिकता में अभी भी कोई फर्क नहीं आया है। इनके सोचने का तरीका अभी भी वैसा ही बर्बर है, जैसे सदियों पहले था। जो परिवर्तन दिखाई देता है, वह दलित चेतना का परिणाम है। इस चेतना के इस स्तर को और व्यापक करना होगा। व्यापक और सतत आंदोलन की जरूरत है।

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