Tuesday, September 24, 2019

दिनकर काव्य साहित्य में सन्निहित राष्ट्रीय अस्मिता-चेतना सम्बद्ध विमर्श: एक अध्ययन

                               

अपनी मातृभूमि के प्रति हमारा प्रेम स्वाभाविक है। देष प्रेम को क्रियाषील व विकसित करने का श्रेय जितना राष्ट्रीय नेताओं व क्रांतिकारियों का है उतना ही राष्ट्रीयता के लिए समर्पित साहित्यकारों का भी है। तत्कालीन परिस्थितियां भी देष प्रेम को गति प्रदान करती है। हमारा देष भी राष्ट्रप्रेम की भावना से ओत-प्रोत रहा है। क्रांति की कई किस्से-कहानियां विष्वभर में मषहूर है। अंग्रेजी शासनकाल में अपने दासत्व की दयनीय दषा के प्रति देषवासियों में देष प्रेम का उद्वेलन तीव्र रूप लेने लगा था। इस आंदोलन में हिन्दी साहित्यकारांे, विषेषकर कवियों ने भी अपना दायित्व पूर्ण किया। उन्होंने राष्ट्रीय भावों से मुक्त कविताओं का सृजन करते हुए जनसामान्य की राष्ट्रीय चेतना को जागृत एवं परिपुष्ट करने का महान् कार्य किया। काव्य में राष्ट्रीयता या राष्ट्रीय भावना के सन्दर्भ में यह आवष्यक है कि राष्ट्रीय काव्य के तात्पर्य को समझा जाएं। डॉ. द्वारका प्रसाद सक्सैना ने राष्ट्रीय काव्य को सरल व सुस्पष्ट शब्दों में व्यक्त करते हुए कहते हैं, ‘‘राष्ट्रीय काव्य से हमारा तात्पर्य उस काव्य से है, जिसमें किसी राष्ट्र की महिमा का गुणगान किया जाता है, उसके अतीत गौरव के चित्र अंकित किये जाते हैं। जिसमें समूचे राष्ट्र को स्वाधीनता एवं स्वतंत्रता के लिए आत्मोत्सर्ग करने के हेतु प्रेरित किया जाता है, जिसमें राष्ट्र प्रेम के साथ-साथ सम्ूपर्ण राष्ट्र की एकता एवं अखंडता को स्थिर रखने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, जिसमें अपनी मातृभूमि एवं मातृभाषा के प्रति अटूट श्रद्धा एवं विष्वास प्रकट किया जाता है, जिसमें राष्ट्र-विरोधी पुरातन रूढ़ियों एवं परम्पराओं के प्रति जन-जन के हृदय में विद्रोह उत्पन्न करने की क्षमता होती है, जिसमें राष्ट्र-विरोधी श्क्तियों एवं शत्रुओं के प्रति तीव्र घृणा एवं क्षोभ जागृत करने की शक्ति होती है और जो राष्ट्र की सामूहिक उन्नति, सामूहिक प्रगति एवं सामूहिक समृद्धि के हेतु सर्वसाधारण के हृदय में तीव्र ज्वाला प्रज्वलित करने में समर्थ होता है।‘‘1
हिन्दी काव्य साहित्य में राष्ट्रीय चेतना की चर्चा ‘रामधारी सिंह दिनकर जी‘ के बिना अपूर्ण है। इस धारा के सबसे सषक्त कवि दिनकर ही है। दिनकर जी राष्ट्रवादी काव्य चेतना के प्रतिनिधि कवि है। दिनकर जी प्रगतिषील चेतना से ओत-प्रोत, राष्ट्रीय भावनाओं के प्रचारक एवं क्रांतिकारी चेतना के दृष्टा है। इनका जन्म 23 सितम्बर, 1908 में सिमरिया (जिला मुंगेर, बिहार) में एक किसान के परिवार में हुआ था। इनका बचपन निर्धनता एवं अभावों में व्यतीत हुआ। लेकिन इन्होंने कभी अपनी गरीबी और मजबूरी को सफलता के मार्ग में बाधा नहीं बनने दिया। डॉ. निधि भार्गव दिनकर के विषय में लिखती है, ‘‘दिनकरजी का जीवन बड़ी ही विषम स्थितियों से गुजरा था। इसी विषमता ने उन्हें निर्भीक साहित्यकार बना दिया। प्रारम्भ काल से ही विद्यार्जन दिनकर के लिए साधना के रूप में आया। यह साधना यद्यपि परिस्थितिजन्य थी परन्तु उसने उनको एक कर्मठ जीवन-दर्षन प्रदान किया जिसके परिणामस्वरूप आज वह इतने निर्भीक साहित्यकार बन सके हैं।‘‘2 पारिवारिक विषम परिस्थितियों के बावजूद भी इन्होंने पटना में इतिहास में ऑनर्स लेकर बी.ए. (1932) की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद ये क्रमषः एक हाईस्कूल के प्रधानाध्यापक, बिहार-सरकार के अधीन सब-रजिस्ट्रार, बिहार-सरकार के प्रचार विभाग के उपनिदेषक, मुजफ्फरपुर के कॉलेज में हिन्दी-विभागाध्यक्ष, राज्यसभा के सदस्य, भागलपुर विष्वविद्यालय के उपकुलपति तथा भारत-सरकार के हिन्दी-सलाहकार रहे।
    दिनकर जी बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न कवि है। वे भारतीय जीवन-मूल्यों के प्रति आस्थावान् है। उनका कविता काल लगभग चार दषक तक फैला है। उनका काव्य बहुरूपी होने के साथ ही बहुरंगी है। डॉ. षिवकांत गोस्वामी उनकी प्रतिभा विषयक कहते हैं, ‘‘अपने काव्य के विस्तृत कैन्वास पर दिनकर जी ने स्वयुग के विविध चित्रों को यथार्थ रूप में चित्रित करके युग को बहुमुखी चेतना के प्रति अपनी सजगता का अच्छा परिचय दिया है।‘‘3 हिन्दी काव्य-जगत् में जब छायावादीता का जोर-षोर समाप्त हो रहा था तब दिनकर जी अपनी प्रवाहमयी और ओजस्वी वाणी को कविता के रूप में लेकर प्रकट हुए। इस प्रकार वे छायावादोत्तर काल के कवि हैं और इस काल के कवियों में इनका विषेष स्थान है। छायावादी युग की समस्त काव्योपलब्धियां उन्हें विरासत में मिली थीं। काव्य-प्रवृत्तियों की दृष्टि से दिनकर जी कविताओं पर द्विवेदी युगीन से प्रभावित है, परन्तु आधुनिक युग की ओजस्विता ने उन्हें प्रगतिषील चिंतन प्रदान किया। ये सामाजिक चेतना के चारण हैं। वैसे तो इन्होंने विविध विषयों के लेकन काव्य-सजृन किया, परन्तु मुख्यतः उनकी कविताओं में राष्ट्रीय चेतना का क्रांतिमय स्वर ही मुखरित होता है। इसलिए ये हिन्दी साहित्य में राष्ट्रीय कवि के रूप में ख्यातमान है। इनसे पूर्व भी राष्ट्रीय भावना/चेतना को मुख्य विषय में रखकर तत्कालीन अनेक कवियों (जैसे- मैथिलीषरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, रामनरेष त्रिपाठाी, सुभद्राकुमारी चौहान, सोहनलाल द्विवेदी आदि) ने काव्य-सजृन किया। परन्तु इन सबसे अलग दिनकर ने राष्ट्रीय चेतना के कवि के रूप में अपना विषिष्ट स्थान बनाया। ये उक्त कवियों की धारा के अग्रणी कवि कहे जाएंगे। छायावादी युग में रहकर भी इनकी छायावादी प्रभावों से अलिप्त रहकर जो उदात्त राष्ट्रीय काव्य की सृष्टि की है, निष्चय ही वह स्पृहणी है। इसका जिक्र डॉ. षिवकांत गोस्वामी इस प्रकार करते हैं कि ‘‘उन्होंने अपने क्रांतिपरक विचारों में बौद्धिकता का पुट देकर उन्हें जनमानस में संप्रेषित करते हुए राष्ट्रीयता को एक विषिष्ट व्यापकता एवं उदात्तता प्रदान की।‘‘4 काव्य संबद्ध उनकी विषेषता के विषय में डॉ. रवेलचंद आनंद लिखते हैं कि ‘‘राग और आग के कवि दिनकर में स्वछन्दवादी सांस्कृतिक राष्ट्रीय भावना का नवीन विकास मिलता है। इनका व्यक्तित्व ओज और माधुर्य के दो तन्तुओं से बना है। ‘रसवंती‘ तथा ‘उर्वषी‘ में दिनकर रसीला युवक है तथा ‘हुंकार‘, ‘कुरूक्षेत्र‘ में वह आग बरसाता है।‘‘5 इसमें कोई अतिष्योक्ति नहीं है कि इनके काव्य में भाव, चिंतन व कला तीनों का सामंजस्य बखूबी देखा जा सकता है।
दिनकर जी की सबसे पहली रचना सन् 1924 में जबलपुर से प्रकाषित एक पाक्षिक पत्र ‘छात्र सहोदर‘ में छपी थी। मात्र 11 वर्ष से प्रारम्भ हुई इनकी साहित्यिक यात्रा जीवन पर्यन्त चलती रही। देष की तत्कालीन अनेक विख्यात पत्र-पत्रिकाओं में ये अनवरत अपने ओजमय काव्य की छाप छोड़ते रहे। दिनकर जी का रचना संसार अति व्यापक है। इनकी रचनाएँ इस प्रकार हैं- प्रबन्ध काव्य- ‘प्रणभंग‘ 1929, ‘कुरूक्षेत्र‘ 1946, ‘रष्मिरथी‘ 1952, मुक्तक काव्य- ‘रेणुका‘ 1935, ‘हुंकार‘ 1938, ‘रसवंती‘ 1939, ‘सामधेनी‘ 1947, ‘इतिहास के आँसू‘ 1951, ‘धूप और धुआँ‘ 1951, ‘दिल्ली‘ 1954, ‘नीम के पत्ते‘ 1954, ‘नील कुसुम‘ 1955, ‘नये सुभाषित‘ 1957, ‘परषुराम की प्रतीक्षा‘ 1963, ‘कोयल और कवित्व‘ 1964, ‘मृत्ति-तिलक‘ 1964, ‘हारे को हरिनाम‘ 1970, रष्मिलोक, 1973 गीतिनाट्य/महाकाव्य- ‘उर्वषी‘ 1961, बालोपयोगी रचनाएं- ‘धूप छाँह‘ 1947, ‘चित्तोड़ का साका‘ 1949, ‘मिर्च का मजा‘ 1951, ‘सूरज का ब्याह‘ 1955, ‘भारत की सांस्कृतिक कहानी‘ 1955, अनुवादित रचनाएं- ‘सीपी और शंख‘ 1957 (44 कविताओं का संग्रह, चीनी कवियों लारेन्स, गुमिलेव, रिल्के व पषेन की कविताओं का अनुवाद), ‘आत्मा की आंखे‘ 1964, इसके अतिरिक्त ‘द्वन्द्वगीत‘ (रूवाइयंा) 1940, ‘बापू‘ (षोक-काव्य) 1947, एक मात्र कहानी- ‘उजली आग‘ 1956, संस्मरण- ‘लोक देव नेहरू‘ 1965, ‘संस्मरण एवं श्रद्धांजलियां‘, 1970 यात्रा साहित्य-‘देष-विदेष‘ 1957, ‘मेरी यात्राएं‘ 1971, निबन्ध संग्रह-‘मिट्टी की ओर‘ 1946, ‘अर्द्धनारीष्वर‘ 1952, ‘रेती के फूल‘ 1954, ‘काव्य की भूमिका‘ 1958, ‘पंत, प्रसाद और मैथिलीषरण‘ 1958, ‘वेणुवन‘ 1958, ‘षुद्ध कविता की खोज‘ 1966, ‘साहित्यमुखी‘, 1968 ‘वट-पीपल‘ 1961,  डायरी-‘दिनकर की डायरी‘ 1973, ‘विवाह की मुसीबतें‘ 1974 (यह दिनकर जी की अंतिम कृति है), इतिहास-संस्कृति- ‘संस्कृति के चार अध्याय‘ 1956, हे राम‘, 1968 (रेडियो रूपक) तथा ‘चक्रवाल‘ 1956, ‘कविश्री‘, ‘लोकप्रिय कवि दिनकर‘, ‘दिनकर की सूक्तियां‘, ‘दिनकर के गीत‘ शीर्षकों से काव्य संग्रह प्रकाषित हुए हैं, जिनमें इनकी अन्यान्य कृतियों से चुनी हुई कविताएं अन्तर्भूत है।
दिनकर जी का पहला काव्य संग्रह ‘रेणूका‘ था। ये छायावादोत्तर हिन्दी काव्य की राष्ट्रीय सांस्कृतिक कविता के एक सषक्त कवि है। राष्ट्रीयता, मानवतावाद, प्रगतिषीलता तथा रोमांस उनकी कविताओं की प्रमुख विषेषताएं हैं। ये सांस्कृतिक चेतना एवं ‘युद्ध‘ व ‘प्रेम‘ के समर्थ कवि है। इसकी पुष्टि डॉ. सावित्री सिंह इस प्रकार करती हैं, ‘‘दिनकर की काव्य-चेतना में व्यष्टि और समष्टि, सुन्दर और सत्य, औज और प्रेम, प्रवृत्ति और निवृत्ति साथ-साथ चले हैं।‘‘6 इनके विद्यार्थी जीवन में ब्रिटिष साम्राज्य का स्वदेष पर बोलबाला था। इन्होंने जब देष की जनता को पीड़ित और शोषित देखा तो समाज की विषम स्थिति उन्हें पुकारने लगी। उनके इसी संस्कार का परिचय इनके काव्य संग्रह ‘हुँकार‘ में संकलित कविताओं में मिलता है-
‘‘युगों से हम अनय का भार ढोते आ रहे हैं,
न बोली तू मगर, हम रोज मिटते जा रहे हैं।
पिलाने को कहाँ से रक्त लायें दानवों को?
नहीं क्या स्वत्व है प्रतिषोध का हम मानवों को?‘‘7

साथ ही उस समय देष की वर्ग वैषम्य का चित्रण जिसमें भूख से तड़पते और एक-एक बूँद दूध के लिए तरसे हुए बालक की छटपटाहट का वर्णन उन्होंने इस प्रकार किया है-

‘‘वे भी यहीं, दूध से जो अपने श्वानों को नहलाते हैं!
ये बच्चे भी यही, कब्र में ‘‘दूध-दूध‘‘! जो चिल्लाते हैं!‘‘8
×     ×     ×      ×      ×      ×      ×      ×      ×     ×
इसी कविता में आगे वह वर्ग वैषम्य की इस स्थिति से निपटने के लिए स्वयं का आह्वान कुछ इस प्रकार करते हैं-
‘‘दूध, दूध!‘‘ फिर सदा कब्र की, आज दूध लाना ही होगा,
जहाँ दूध के घड़े मिलें, उस मंजिल पर जाना ही होगा।
×     ×     ×      ×      ×      ×      ×      ×      ×     ×
हटो व्योम में मेघ, पंथ से, स्वर्ग लूटने हम आते हैं,
‘‘दूध, दूध‘‘ ओ वत्स! तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं।‘‘9

 दिनकर जी राष्ट्रीय चेतना को प्रेरित करने वाली तत्कालीन परिस्थितियां उत्तरदायी थी। कांग्रेस दो दलों (गरम व नरम) में बंट चुका था। एक ओर भारतीय कांग्रेस के नेतृत्व में भारतीय स्वतंत्रता का आन्दोलन पूरे वेग पर था और दूसरी ओर जनमानस में क्रांति का बीज बोने वाले- चंद्रषेखर आजाद, खुदीराम बोस, भगतसिंह व बिस्मिल। एक ओर थे सुभाषचंद्र बोस व तिलक तो दूसरी ओर शांति दूत गांधी और उनका दल। नजरूल इस्लाम व मैथिलीषरण गुप्त की क्रांतिकारिता तथा ओजस्वी वाणी से प्रभावित होकर दिनकर जी शांति के विरोधी बन गये जिसके फलस्वरूप उनके काव्य में विद्रोह की ज्वाला धधक उठी। उनका विद्रोही हृदय बोल उठा-
‘‘शृंग छोड़ मिट्टी पर आया, किन्तु, कहो क्या गाऊँ मैं?
जहाँ बोलना पाप, वहाँ क्या गीतों से समझाऊँ मैं?
विधि का शाप, सुरभि-सांसों पर लिखूं चरित मैं क्यारी का,
चौराहे पर बंधी जीभ से मोल करूँ चिनगारी का?‘‘10

अपनी कविता ‘हिमालय‘ में कवि ने हिमालय का मानवीकरण किया है और इस कविता में हिमालय का आह्वान भारत के गौरवमयी अतीत की ओर संकेत करता है-
‘‘युग-युग अजेय, निर्बन्ध, मुक्त,
युग-युग गर्वोन्नत, नित, महान,
निस्सीम व्याम में तान रहा
युग से किस महिमा का वितान?‘‘11
इन पंक्तियों में कवि ने विराट्, गौरव, पौरुष की ज्वाला तथा जननी के हिमकिरीट की महिमा का गान किया है। इस कविता के विषय में डॉ. जितराम पाठक कहते हैं, ‘‘दिनकर ने भी मातृभूमि के किरीट हिमालय का वर्णन बड़े मनोयोग से किया और उसके अतुल बल एवं पौरुष को जगाया। मौन तोड़ने का आग्रह भी कवि ने हिमालय से किया है।‘‘12 निष्चिय ही उनके स्वर में देष की तत्कालीन राष्ट्रीय भावना का उत्कर्ष ध्वनित हो उठा है।
आधुनिक युग की प्रमुख विष्व की महान क्रांतियों जैसे अमरीकी क्रांति, इंग्लैण्ड की औद्योगिक क्रांति, फ्रांसीसी क्रांति, रूसी क्रांति, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, दलित आंदोलन, रंगभेद के खिलाफ आंदोलन आदि क्रांतियांे को आरम्भ करने का श्रेय- हॉब्स, जॉन, लॉक, रूसो, बेकन, न्यूटन, कार्ल मार्क्स, टॉलस्टाय और गांधी जी, अम्बेडकर, नेल्सन मंडेला आदि चिंतकों को जाता है। साथ ही धार्मिक जागरण की प्रेरणा भी दिनकर जी पर परिलक्षित होती है। अपनी कविताओं के माध्यम से यह स्पष्ट किया है कि विष्व में उपस्थित सभी धर्मों से सर्वोपरि विष्व भाइचारा है। दिनकर जी का मानना था कि ‘‘आज हिन्दू, बौद्ध, जैन, ईसाई, यहूदी, इस्लाम आदि धर्मांे का महत्व नहीं जितना कि विष्व-एकता में है।‘‘13 लॉक की सम्राज्यवादी विचारधारा के विरूद्ध क्रांति से प्रभावित होकर कवि दिनकर जी कहते हैं-
‘‘है कौन जगत् में, जो स्वतंत्र जनसत्ता का अवरोध करें
रह सकता सत्तारूढ़ कौन, जनता जब उस पर क्रोध करे‘‘14

दिनकर जी का साहित्य जगत् में प्रार्दुभाव तक हुआ जब ब्रिटिष शासन से त्राहि-त्राहि कर रहा था। उनका मानना है कि अतीत के वीर-चरित्रों की स्मृति वर्तमान को संजीवनी दे सकती है। इसलिए भारत को स्वतंत्र देखने हेतु कवि भारत के महान वीरात्माओं का स्मरण करता हैं-
‘‘पूछे, सिकताकण से हिमपति, तेरा वह राजस्थान कहाँ?
वन-वन स्वतंत्रता-दीप लिए, फिरने वाला बलवान कहाँ?
तू पूछ, अवध से राम कहाँ?, वृन्दा! बेला, घनष्याम कहाँ?
ओ मगध! कहाँ मेरे अषोक?, वह चन्द्रगुप्त बलधाम कहाँ?
पैरों पर ही है पड़ी हुई, मिथिला भिखारिणी सुकुमारी,
तू पूछ, कहाँ इसने खोई, अपनी अनन्त निधियां सारी?‘‘15

 सम्राज्यवाद के विरूद्ध आवाज उठान वाले हॉब्स, लॉक तथा रूसो का प्रभाव कवि दिनकर के काव्य पर भी पड़ा-
‘‘बन्ध, विषमता के विरूद्ध सारा संसार उठा है,
अपना बल पहचान, लहर कर पारावार उठा है।
छिन्न-भिन्न हा रहीं मनुजता के बंधन की कड़ियां,
देष-देष में बरस रहीं आजादी की फुलझड़ियां।‘‘16

क्रूर शासकों के विरूद्ध आवाज बुलंद करने की स्वीकृति ‘कार्ल मार्क्स‘ ने ही दी थी। मार्क्सवाद के जनक ‘कार्ल मार्क्स‘ का पर्याप्त प्रभाव दिनकर जी पर भी पड़ा। मार्क्स के सिद्धान्तों का प्रभाव ‘कुरूक्षेत्र‘ के छन्दों में स्पष्ट देखा जा सकता है। दिनकर जी को मार्क्स के ‘प्रारम्भिक साम्यवाद (प्रिमिटिव कम्यूनिज्म)‘ का सिद्धान्त मान्यता देते हुए में वे कहते हैं-
‘‘बिना विघ्न जल, अनिल सलभ हैं,
आज सभी को जैसे;
कहते हैं, थी सुलभ भूमि भी
कभी सभी को वैसे।‘‘17

अपनी कविता ‘वैभव की समाधि‘ में कवि दिनकर जी पूंजीपति वर्ग द्वारा शोषण के विरूद्ध क्रांति का समर्थन करते हुए लिखते हैं-
‘‘वैभव की मुस्कानों में थी
छिपी प्रलय की रेखा;‘‘18

साथ ही श्रम की महत्ता को स्वीकारते हुए दिनकर जी अपनी कविता ‘नीम के पत्तें‘ में कहते हैं-
‘‘रोटी उसकी जिसका अनाज जिसकी जमीन जिसका श्रम है,
आजादी है अधिकारी परिश्रम का पुनीत फल पाने का।‘‘19

    यहाँ यह बताना भी समीचीन होगा कि दिनकर जी पर मार्क्सवाद का सषक्त प्रभाव सिर्फ उनके प्रबन्ध काव्य ‘कुरूक्षेत्र‘ (मार्क्सवादी प्रभाव के चतुर्थ उत्कर्ष काल (1937-42)) में ही मिलता है। इससे पूर्व उनकी रचनाओं में मार्क्सवाद की छलक नहीं मिलती है। पर हाँ कही-कही उन्होंने मार्क्स के विचारों का समर्थन जरूर किया है। उनके मार्क्सवादी विचार के विषय में डॉ. जनेष्वर में लिखते हैं ‘‘दिनकर एक अच्छे कलाकार होते हुए भी अच्छे विचारक नहीं है।....उन्होंने मार्क्सवाद का अध्ययन किया है और गांधीवादी सिद्धान्तों से भी परिचित हैं परन्तु वह निर्णय करने में असमर्थ हैं कि इन दोनों में किस मार्ग को अपनाया जाय। कभी वे मार्क्सवाद का समर्थन करते हैं तो कभी गांधीवाद का और कभी दोनों के समन्वय का विचित्र प्रयास करते हुए दिखाई देते हैं।‘‘20 आगे वे यह भी कहते हैं कि ‘‘विचारों से दिनकर मार्क्सवादी नहीं हैं और कहीं भी उसने स्पष्ट शब्दों में साम्यवाद की स्थापना को अपना उद्देष्य नहीं कहा है।‘‘21 इस सन्दर्भ में डॉ. मुरारीलाल शर्मा कहते हैं-‘‘दिनकर जी को मार्क्सवादी परंपरा का ‘प्रगतिवादी‘ कहना उचित नहीं है, वास्तव वे जन-जीवन के प्रति जागरूक प्रगतिषील कवि है।‘‘22 परन्तु फिर भी मार्क्सवादी प्रभाव के तृतीय उत्कर्ष काल (1931-36) में उनके काव्य संग्रह ‘हुंकार‘ में शोषितों के प्रति सहानुभूति, वर्ग-वैषम्य का चित्रण, पूंजीवाद का प्रबल विरोध किया है। इस बात का समर्थन करते हुए डॉ. जनेष्वर कहते हैं- ‘‘इनके काव्य संग्रह ‘हुंकार‘ में सामाजिक व्यवस्था को बदलने के लिए सषस्त्र क्रांति आह्वान के रूप में मार्क्सवादी चेतना की तीव्र अभिव्यक्ति हुई है।‘‘23
सामाजिक विषमता का नग्न चित्रण दिनकर जी ने अपनी कविताओं में किया है। गरीबी में पिसते लोगों के श्रम की कमाई पूंजीपतियों के खजाने में एकत्र होती है। गरीबी के कारण जनता को दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं होती है जबकि पंूजीपति अपने पालतू जानवरों को भी अधिक से अधिक सुख-सुविधा देते हैं। उनके काव्य संग्रह ‘हुंकार‘ (1938) में क्रांति का आह्वान है। इस हुंकार का उदय उनकी हृदय की गहरी व्यथा से हुआ है। इसमें इन्होंने दीनता और विपन्नता का भावुक और संवेदनषील चित्रण प्रस्तुत किया है-
‘‘वे भी यहीं, दूध से जो अपने श्वानों को नहलाते हैं!
ये बच्चे भी यहीं, कब्र में ‘‘दूध-दूध‘‘! जो चिल्लाते हें!‘‘24
    शोषितों की दयनीय स्थिति का अत्यन्त कारुण्यपूर्ण वर्णन अपनी कविता ‘विपथगा‘ में कुछ इस प्रकार किया है-
‘‘ष्वानों को मिलते दूध-वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं,
मँ की हड्डी से चिपक, ठिठुर जाड़ों की रात बितात हैं।
युवती के लज्जा-वसन बेच जब ब्याज चुकाए जाते हैं,
मलिक जब तेल-फुलेलों पर पानी-सा द्रव्य बहाते हैं।‘‘25

    कवि दिनकर जी की राष्ट्रीय भावना समष्टिपरक है, जो भारतीयता के प्राचीन आदर्ष, विष्व प्रेम की उदात्त भावना की कसौटी पर खरी उतरती है। वे मानते थे कि जातीयता की संकुचित विचारधारा से समाज अस्वस्थ रहता है। स्वस्थ एवं सषक्त समाज का निर्माण जाति से चिपके रहने वाले व्यक्तियों से नहीं, बल्कि अपने कर्म, शक्ति व शौर्य से अपना मार्ग प्रषस्त करने वाले व्यक्तियों द्वारा होता है। यही विचार ‘रष्मिरथी‘ में सूत-पूत्र कर्ण के माध्यम से इस प्रकार अभिव्यक्त हुआ है-
‘‘ ‘जाति! हाय री जाति!‘ कर्ण का हृदय क्षोभ से डोला,
कुपित सूर्य की ओर देख वह वीर क्रोध से बोला-
‘‘जाति-जाति रटते, जिनकी पूंजी केवल पाषण्ड,
मैं क्या जानूं जाति? जाति हैं ये मेरे भुजदण्ड
×     ×     ×      ×      ×      ×      ×      ×      ×     ×
×     ×     ×      ×      ×      ×      ×      ×      ×     ×
‘‘पूछो मेरी जाति, शक्ति हो तो, मेरे भुजबल से,
रवि-समान दीपित ललाट से, और कवच-कुण्डल से।
पढ़ो उसे जो झलक रहा है मुझमें तेज-प्रकाष,
मेरे रोम-रोम में अंकित है मेरा इतिहास।‘‘ ‘‘26
    दिनकर जी का स्पष्ट मानना था कि जातिवाद की संकीर्णता एवं विषम भावना के कारण ही भारत जैसा बड़ा और मजबूत देष अंग्रेजों द्वारा पदाक्रांत हुआ है। वे कहते हैं-
‘‘धँस जाये वह देष अतल में, गुण की जहाँ नहीं पहचान
जाति-गोत्र के बल से ही, आदर पाते जहाँ सुजान।‘‘27
साथ ही वे मनुष्य के कर्म में विष्वास रखते हैं न कि धर्म या वंष परम्परा में-
‘‘बड़े वंष से क्या होता है, खोते हों यदि काम?
नर का गुण उज्ज्वल चरित्र है, नहीं, वंष, धन, धान।‘‘28
उन्होंने अपने प्रबन्ध काव्य ‘रष्मिरथी‘ में जातिगत वैषम्य की समस्या को उठाकर मानवता का सन्देष दिया है।  इसके काव्यनायक ‘कर्ण‘ के माध्यम से जो जातिगत भेदभाव के विरूद्ध आक्रोषित स्वर उठाया गया है वह अवष्य ही साहित्य में दलित आन्दोलन को एक नये आयाम तक पहुंचा सकता है तथा निष्चय ही इस कृति ने दलितों/षोषितों के लिए मार्गदर्षक का कार्य किया है। ‘कर्ण‘ के चरित्र की प्रतिष्ठा करके निष्चय ही दलितों और उपेक्षितों को आत्म विष्वास की वाणी दी है, जिन्हें समाज जाति और कुल से हीन होने के कारण अपमानित करता है। ‘रष्मिरथी‘ के विषय में यह कहना उचित होगा कि दिनकर जी ने इसमें एक ओर परम्परा-पोषित एवं जर्जरित रूढ़िवादी मान्यताओं का खण्डन किया गया है, तो दूसरी ओर युगसापेक्ष, प्रगतिषील जीवन-मूल्यों की प्रस्थापना पर बल दिया है। इसमें सामाजिक अन्याय के कारण उच्च कुल की झूठी मान-मर्यादा और जातिवाद के दंभ की जोरदार व आक्रोष से भर्त्सना करते हुए उन्होंने जाति-कुल के अहंकार को गलत साबित कर दानषीलता, गुरु-भक्ति एवं त्याग की भावना को महत्व दिया है।
छायावाद-युग की बलिदान भावना उग्र होकर क्रांति की रण-भेरी बन बज उठी। वर्तमान के प्रति क्षोभ एवं असंतोष क्रांति की कोपल बनकर फूटा। दिनकर जी ने अपनी कविताओं के माध्यम से आम सोयी जनता को यह बताया कि परिवर्तन ही क्रांति है। वर्तमान शासन की क्रूरता से ऊबकर ही उनके भावों ने उग्र रूप ले लिया। मूक प्राणों को हुंकार कर जाग उठने की प्रेरणा देते हुए दिनकर जी अपने युग के मूक शैल का आह्वान करते हैं-
‘‘नए प्रात के अरूण! तिमिर-उर में मरीचि-संधान करो,
युग के मूक शैल! उठ जागों, हुंकारों, कुछ गान करो।,
किसकी आहट? कौन पधारा? पहचानों, टुक ध्यान करो,
जगो भूमि! अति निकट अनागत का स्वागत-सम्मान करो।‘‘29
दिनकर जी एक ओर राष्ट्र चेतना की बात करते हैं तो दूसरी ओर देष के दलित-षोषित समुदाय के मर्दन से रोमांचित हंे उठते हैं और दलितों के हृदयों में सदियों से सोयी चिंगारी को, युग मर्दिन यौवन की ज्वाला को क्रांति कुमारी के रूप में अवतरित होने की पुकार कुछ इस प्रकार करते हैं-
‘‘उठ वीरों की भाव तरंगिणी
दलितों के दिल की चिनगारी
युग-मर्दित यौवन की ज्वाला
जग-जाग री क्रांति कुमारी!‘‘30 (‘क्रांति‘ का मानवीकरण)
कवि दिनकर जी सभी मनुष्यों से यह आग्रह करते हैं कि दलितों को भी सम्मानपूर्वक जीवन जीने दो और उन्हें भी मानव होने का एहसास कराओं। वे लिखते हैं-
‘‘दलित मनुष्य में मनुष्यता के भाव भरो‘‘31

समाज में दलित क्रांति ने जो रूप लिया है उसका आभास दिनकर जी को पहले ही हंे गया था। इसलिए वे समाज/षासन/प्रषासन को सजग करते हैं कि न जाने दलित कब फुंकार उठे और अपने हक के लिए संघर्ष करें। वे कहते हैं-
‘‘अब की अगस्त की बारी है, पापों के पारावार! सजग,
बैठे-बिसूवियस के मुख पर भोले अबोध संसार! सजग।
रेषों का रक्त कृषान हुआ, औ जुल्मी का तलवार! सजग,
दुनिया के वीरों सावधान, दुनिया के पापी जार! सजग।
जाने, किस दिन फुंकार उठें पद-दलित काल-सर्पों के फन।‘‘32
कवि दिनकर का हृदय दलितों की दयनीय दषा देखकर अत्यन्त उद्विग्न था। उनके प्रति उनके दिल में अपार सहृदयता, संवेदनषीलता एवं सहानुभूति थी। दलितों के उन्नयन हेतु वे सदा तड़पते थे। उनकी कृति ‘रष्मिरथी‘ इसका प्रमाण है जिसमें उन्होंने दलित-उपेक्षित कर्ण के चरित्र को ऊपर उठाने की कोषिष की है। इसकी पुष्टि ‘रष्मिरथी‘ की इन पंक्तियों से हो जाती है-
‘‘मैं उनका आदर्ष, कहीं जो व्यथा न खोल सकंेगें,
पूछेगा जग; किन्तु, पिता का नाम न बोल सकेंगे।
×     ×     ×      ×      ×      ×      ×      ×      ×     ×
मैं उनका आदर्ष, किन्तु, जो तनिक न घबरायेंगे,
निज चरित्रबल से समाज में पद विषिष्ट पायेंगे।‘‘33
×     ×     ×      ×      ×      ×      ×      ×      ×     ×
‘‘जग में जो भी निर्दलित, प्रताड़ित जन हैं,
जो भी निहीन हैं, निन्दित हैं, निर्धन हैं,
यह कर्ण उन्हीं का सखा, बन्धु, सहचर है,
विधि के विरूद्ध ही उसका रहा समर है।‘‘34

दिनकर जी तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों से आहत होकर राष्ट्रीयता की ओजस्वी वीणा हाथ में लेकर वैताली के समान क्रांति का स्वर मुखरित करता है। साथ ही दिनकर जी क्रांति की वह ज्वाला सुलगाना चाहता है, जो शोषण और अत्याचार को भस्मसात् कर विनिष्ट कर सके-
‘‘क्रांति-धात्रि कविते! जाग, उठ
आडम्बर में आग लगा दे
पतन, पाप पाखंड जले
जग मंे ऐसी ज्वाला सुलगा दे।‘‘35
इसमें कोई अतिष्योक्ति नहीं है कि कवि दिनकर भारतीय साहित्य इतिहास के एक ऐसे अग्निपुत्र है जिसने देष के सीने में धधकती हुई अग्नि को ऐसे व्यक्त किया जैसे ज्वालामुखी पर्वत में प्रज्वलित लावा उद्गीर्ण होता है। दिनकर जी के क्रांतिगीतों ने सम्पूर्ण राष्ट्र की सुप्तावस्था से जगाते हुए उसे युग-धर्म के प्रति सचेत किया है-
‘‘दो आदेष, फूंक दूं श्रृंगी,
उठें प्रभाती-राम महान,
तीनों काल ध्वनित हो स्वर में,
जागें सुप्त भुवन के प्राण।
गत विभूति, भावी की आषा,
ले युग धर्म पुकार उठे,
सिंहों की धनअंध गुहा में
जागृत की हुंकार उठे।‘‘36

क्रौंच पक्षी की कराह से प्रथम कविता का जन्म आदि कवि की संवेदना से हुआ। आज भी विपन्नता के कारण लाखों क्रौच कराह रहे हैं। इसी आक्रोष से ही भारतीय हिन्दी साहित्य के क्रांतिकारी कवि दिनकर जी का जन्म हुआ। आदि कवि की यही संवेदना दिनकर जी के क्रांतिपरक गीतों में क्रन्दन करती देखी जा सकती है-
‘‘लाखों क्रौंच कराह रहे हैं,
जाग, आदि कवि की कल्याणी?
फूटकंठो से फूट तू कवि-
बन व्यापक निज युग की वाणी।‘‘37

क्रांति का जन्म अन्याय, अत्याचार, शोषण, दमन जैसे दुर्व्यवहारों के विरूद्ध प्रतिक्रिया के फलस्वरूप होती है। आम जनता के संत्रास, उनकी यातनाएं, कुण्ठाएं, और बेबसी-लाचारी अति उग्र रूप धारण कर लेती है, तब उसकी परिणति क्रांति के विस्फोट में होती है। इसी क्रांति की सषक्त अभिव्यंजना में दिनकर जी की ‘तांडव‘, ‘आलोकधन्वा‘, ‘दिगंबरी‘, ‘विपथगा‘ इत्यादि रचनाओं का महत्वपूर्ण स्थान है। इनमंे दिनकर जी का उग्र रूप हमारे सामने उपस्थित होता है। दिनकर जी के प्रसिद्ध काव्य संग्रह ‘हुंकार‘ में प्रकाषित उनकी कविता ‘आलोकधन्वा‘ में इनके उग्र रूप के मूर्तिमान दर्षन कुछ इस प्रकार होते हैं-
‘‘ज्योतिर्धर कवि में ज्वलित सौर मंडल का,
मेरा षिखंड अरुणाभ किरीट अनल का।
रथ में प्रकाष के अष्व जुते हैंे मेरे,
किरणों ने उज्ज्वल गीत गंुथे हैं मेरे।‘‘38
‘रेणुका‘ से भी अधिक आक्रामक स्वरों में क्रांति की सषक्त अभिव्यक्ति के दर्षन दिनकर जी के ‘हुँकार‘ में होते हैं। उनके इस काव्य संग्रह के सन्दर्भ में प्रो. कामेष्वर शर्मा का कहना है कि ‘‘रेणूका‘ में अंगारों के ऊपर कोयले के नये टुकड़े पड़े थे ‘हुँकार‘ में वे सभी आग हो गये हैं।ं‘‘39 उदाहरणार्थ-
‘‘फेंकता हँू, लो, तोड़-मरोड़
अरी निष्ठुरे! बीन के तार;
उठा चांदी का उज्ज्वल शंख
फूँकता हूँ भैरव-हुंकार।‘‘40
आगे देखिए-
‘‘रण की घड़ी; जलन की बेला, तो मैं भी कुछ गाऊँगा,
सुलग रही यदि षिखा यज्ञ की, अपना हवन चढ़ाऊँगा।‘‘41

दिनकर जी के साहित्य के अध्ययन करने के पष्चात् यह तो स्पष्ट है कि ये हिंसात्मक क्रांति में विष्वास रखते हैं। वे मानते हैं कि हिंसात्मक क्रांति ही देष में अभीष्ट परिवर्तन ला सकती है। इसलिए वह युधिष्ठर के स्थान पर अर्जुन और भीम जैसे वीरों की आवष्यकता अनुभव करते हुए कहते हैं-
‘‘रे! रोक युधिष्ठर को न यहाँ,
जाने दे उनको स्वर्ग धीर।
पर, फिरा हमें गाण्डीव-गदा,
लौटा दे अर्जुन-भीम वीर
×     ×     ×      ×      ×   
तू मौन त्याग, कर सिंहनाद
रे तपी! आज तप का न काल,
नवयुग-षंख-ध्वनि जगा रही,
तू जाग-जाग मेरे विषाल!‘‘42

इसी प्रकार अपनी कविता ‘परषुराम की प्रतीक्षा‘ में कवि ने अपनी राष्टीय चेतना/अस्मिता के भावों को देष के स्वर्णिम अतीत से जोड़ते हैं और आने वाले समय में वैराग्य-विरक्ति का भाव छोड़कर बाहुबल हेतु प्रेरित करते हुए कहते हैं-
‘‘बांहों से हम अम्बुधि अगाध थाहेंगे,
धंस जायेगी यह धरा, अगर चाहंेगे।‘‘43

बाहुबल की महत्ता को वे कुछ इस प्रकार व्यक्त करते हैं-
‘‘वैराग्य छोड़ बांहों की विभा संभालो,
चट्टानों की छाती से दूधे निकालों।‘‘44

दिनकर जी ने जिस प्रकार उग्र हिसांत्मक क्रांति का समर्थन अपने प्रबन्ध काव्य ‘कुरूक्षेत्र‘ में की है ऐसी निर्भय व सषक्त अभिव्यक्ति विरले साहित्यकार के ही साहित्य में ही मिलती है। ‘कुरूक्षेत्र‘ के बगैर दिनकर जी चर्चा अधूरी है। यह रचना 1946 में द्वितीय विष्वयुद्ध की भूमिका पर हुई है। कवि ने इस विष्वयुद्ध को महाभारत की संज्ञा दी है। डॉ. निधि भार्गव इस कृति के विषय में कहा है कि ‘‘‘कुरूक्षेत्र‘ आधुनिक युग की गीता है।‘‘45 आगे इसके विषय में अन्य लेखक लिखते हैं ‘‘कुरुक्षेत्र में कवि ने महाभारत की कथा को लेकर भीष्म और युधिष्ठर के वार्तालाप के माध्यम से युद्ध और शान्ति, हिंसा और अहिंसा आदि अनेक समस्याओं पर विचार किया है। इन समस्याओं पर विचार करते हुए कवि ने जो निष्कर्ष निकाले हैं, उन पर मार्क्सवादी विचारधारा का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।‘‘46 अपनी इस महत्वपूर्ण कृति में कवि दिनकर जी ने स्पष्ट किया है कि सन्यास कापुरुषता है। गीता के जैसे ही ‘कुरूक्षेत्र‘ में भी अधिकार के लिए लड़ने का समर्थन किया है। इसके माध्यम से कवि ने कर्मवाद, लोक कल्याण, समाजवाद, भाग्यवाद की अनुपादेयता तथा बुद्धि और हृदय के समन्वय का सन्देष दिया है। क्रांतिकारी कवि दिनकर जी ‘कुरूक्षेत्र‘ में अहिंसावादियों का आततायियों से लोहा लेने हेतु ललकारते हुए कहते हैं-
‘‘जानता हूं किन्तु, जीने के लिए
चाहिए अंगार-जैसी वीरता,
पाप हो सकता नहीं वह युद्ध है,
जो खड़ा होता ज्वलित प्रतिषोध पर।
छीनता हो स्वत्व कोई, और तू
त्याग-तप से काम ले यह पाप है।
पुण्य है विच्छिन कर देना उसे
बढ़ रहा तेरी तरफ जो हाथ हो।‘‘47
उपर्युक्त पंक्तियों में अनाचार के विरोध हेतु वह गांधीवादी अहिंसात्मक उपायों का खण्डन करते हुए शक्ति प्रयोग का जोरदार समर्थन किया है।
आगे वे कहते हैं-
‘‘व्यक्ति का धर्म तप, करूणा, क्षमा,
व्यक्ति की शोभा विनय भी, त्याग भी,
किन्तु, उठता प्रष्न जब समुदाय का,
भूलना पड़ता हमें तप-त्याग को।‘‘48


इसमें कोई अतिष्योक्ति नहीं कि कवि दिनकर जी के राष्ट्रीय व्यक्तित्व को बनाने में तत्कालीन परिस्थितियों एवं महापुरुषों का विषेष योगदान रहा है। साथ ही यह भी सत्य है कि कवि दिनकर की राष्ट्रीय कविताओं के प्रेरणास्त्रोत एवं उत्प्रेरक, तत्कालीन राष्ट्रीय-काव्य धारा को प्रवाहित करने वाले हिन्दी साहित्य के कवि भी रहे हैं, और उनकी प्रखर राष्ट्रीयता का स्वर दिनकर जी के रचना संसार मेें क्रमिक रूप में मुखरित हुआ है। हिंसात्मक क्रांति के समर्थक कवि दिनकर जी स्वतंत्रता को किसी दीन-हीन याचक के समान षिक्षा-रूप में नहीं बल्कि तिलक के ‘स्वतंत्रता के जन्मसिद्ध अधिकार है‘ इस तथ्य को स्वीकार करते हुए अपने पौरुष तथा क्रांति के मार्ग से करना चाहते हैं। श्री रामवृक्ष बेनीपुरी जी दिनकर जी के क्रांतिकारी उद्घोषों की प्रषंसा करते हुए कहते हैं कि ‘‘हमारे क्रांति-युग का सम्पूर्ण प्रतिनिधित्व कविता में, इस समय ‘दिनकर‘ कर रहा है। क्रांतिकारी को जिन-जिन हृदय-मंथनों से गुजरना होता है, ‘दिनकर‘ की कविता उसकी सच्ची तस्वीर है।‘‘49 इसमें कोई दो राय नहीं है कि उनकी कविताओं में जन-जागरण की विचारधारा बड़े ही तीव्र और प्रखर शब्दों में हुई है। डॉ. द्वारिका प्रसाद सक्सेना के शब्दों में- ‘‘दिनकर की कविताओं में योद्धा का-सा गंभीर घोष है, अनल का-सा तीव्र ताप है और सूर्य का-सा प्रखर तेज है। इसीलिए वे ‘अनल के कवि‘ कहलाते हैं।...................................इनका अधिकांष काव्य बलिदान और वीरता का अमर राग है, अन्याय और अत्याचार के विरूद्ध क्रांति एवं विद्रोह उत्पन्न करने वाला सिंहनाद है और अर्कमण्यता एवं आलस्य की रात्रि को नष्ट करके जन-जन में कर्मण्यता, शूरत एवं पराक्रमषीलता के प्रभात को लाने वाला दिवस-मणि का दिव्यालोक है।‘‘50
अतः सामाजिक विषमताओं, जातीय शोषण, अमानवीय व्यवहार, राष्ट्रीय भावना/चेतना के प्रति संकेत मात्र करना ही कवि दिनकर का उद्देष्य नहीं है, बल्कि ये उन समस्याओं का समाधान भी प्रस्तुत किया है। इनका स्पष्ट मानना है कि समाज में जब तक समन्वय एवं सामंजस्य की भावना नहीं तब तक स्वस्थ समाज की संरचना एवं सुख-षांति कभी स्थापित नहीं हो सकती। साथ ही इन्होंने स्पष्ट शब्दों में यह चेतावनी भी दी है कि जब तक समाज में समानता-शांति का भाव नहीं होगा तब तक यह क्रांति नहीं रूकेगी और यदि ये ‘कुरूक्षेत्र‘ की चार पंक्तियों को दिनकर काव्य का उद्देष्य माना जाएं तो कोई अतिष्योक्ति नहीं होगी।
‘‘जब तक मनुज-मनुज का,
वह सुख भाग नहीं सम होगा,
शमित न होगा कोलाहल,
संघर्ष नहीं कम होगा।‘‘51

दिनकर जी का नारी विषयक दृष्टिकोण पर चर्चा अपेक्षित है, लेकिन यह पृथक और गंभीर शोध का विषय है। संक्षेप में उनकी काव्य कृति ‘रष्मिरथी‘ में ‘कुन्ती‘ के रूप में एक माँ की ममतामयी, एवं वात्सल्यमयी करूणा मूर्ति को षिल्पीकृत करने में भी अपूर्व सफलता प्राप्त की है। इसमें समाज में नारी विवषता एवं परवष्ता को ‘कुन्ती‘ के रूप में व्यक्त किया है-
‘‘धरती पर बड़ी दीन है नारी,
अबला होती, सचमुच, योषिता कुमारी।
है कठिन बन्द करना समाज के मुख को,
सिर उठा न पा सकती पतिता निज सुख को।‘‘52

दिनकर जी की कृति ‘उर्वषी‘ में नारी का कई रूपों में चित्रण हुआ है। उनमें शक्ति, अबला, माता, आधुनिक कुल वधू आदि का विषेष रूप से प्रतिपादन हुआ है। इनके काव्य में इन सभी रूपों का पूर्ण विकास हुआ है।
दिनकर जी अतीत के गौरव को याद करके वर्तमान को उद्बोधन प्रदान करने वाले कवि है। डॉ. नगेन्द्र अपने द्वारा संकलित ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास‘ में इनके विषय में कहते हैं- ‘‘दिनकर की सबसे बड़ी विषेषता है अपने देष और युग-सत्य के प्रति जागरूकता है।.............. इन्होंने राष्ट्रीयता की पहचान को मात्र भावनात्मक प्रतिक्रिया से उबार कर चिंतन, परीक्षण तथा आत्मालोचन का स्वरूप रूप देने का प्रयत्न किया, साथ ही राष्ट्रीयता को सार्वभौम मानवता के रूप में विकसित होने का स्वप्न देखा।‘‘53 उनका सम्पूर्ण साहित्य में कई मिलन बिन्दुओं पर चेतना को झकझोरने की शक्ति है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि इनका साहित्य हिन्दी-साहित्य का गौरव है। इनकी राष्ट्रीय भावना उŸारोŸार विकसित होती गयी और युगचारण स्वीकार किये गये हैं। परन्तु उनके काव्य के मूल्यांकन से यही ध्वनित होता है कि वे वर्तमान समस्याओं का निराकरण उज्ज्वल भविष्य के परिप्रेक्ष्य में करते हैं। स्वयं रामवृक्ष बेनीपुरी ‘हुंकार‘ की भूमिका में लिखते हैं-‘‘राष्ट्रीय कविता की जो परम्परा ‘भारतेन्दु‘ से प्रारम्भ हुई; उसकी परिणति हुई है ‘दिनकर‘ में।‘‘54
निष्कर्षतः दिनकर जी के साहित्य के अनेकानेक सृजनात्मक प्रेरणा-स्त्रोत हैं। विष्व की महान् क्रांतियों, विचारकों और शीर्षस्थ साहित्यकारों के साथ इतिहास के अनुप्रेरक प्रसंगों ने उन्हें सदैव प्रभावित किया। इसके फलस्वरूप उन्होंने निरन्तर संघर्षषील और जुझारू भंगिमा अपनाकर अपने काव्य का सृजन किया। दिनकर जी युगकवि और युगचारण ही नहीं अपितु भविष्य-द्रष्टा चिन्तक कवि भी है। दिनकर जी वह दिनकर है जो अपनी स्वर्णिम रष्मियों से सम्पूर्ण जगत् को आलोकित करते रहेंगे। स्वयं दिनकर जी के शब्दों में-
‘‘मर्त्य मानक की विजय का तूर्य हूँ मैं,
उर्वषी! अपने समय का सूर्य हूँ मैं।
अन्ध तम के भाल पर पावक जलाता हूँ,
बादलों के सीस पर स्यन्दन चलाता हूँ।‘‘55


--:ः सन्दर्भ सूची:ः --
‘दिनकर के काव्य में राष्ट्रीय भावना‘, ‘डॉ. षिवकान्त गोस्वामी‘ से उदृधत, ‘प्रगति प्रकाषन‘, आगरा, पृ0-29
‘दिनकर के काव्य में क्रांतिमंत चेतना‘, ‘निधि भार्गव‘, ‘कविता प्रकाषन‘, बीकानेर, पृ0-14
दिनकर के काव्य में राष्ट्रीय भावना‘, ‘डॉ. षिवकान्त गोस्वामी‘, ‘प्रगति प्रकाषन‘, आगरा, पृ0-09
वही, पृ0-10
‘हिन्दी-साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास‘, ‘डॉ. रवेखचन्द आनन्द‘, ‘सूर्य प्रकाषन‘, दिल्ली, पृ0- 304-305
‘हिन्दी-साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास‘, ‘डॉ. रवेखचन्द आनन्द‘, ‘सूर्य प्रकाषन‘, दिल्ली से उदृधत पृ0- 306
‘हुँकार‘ (दिगम्बरि!), ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘लोकभारती प्रकाषन‘, इलाहाबाद, पुनर्मुद्रण-2012, पृ0-39
‘हुँकार‘ (हाहाकार), ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘लोकभारती प्रकाषन‘, इलाहाबाद, पुनर्मुद्रण-2012, पृ0-35
वही, पृ0-36
‘हुँकार‘ (आमुख), ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘लोकभारती प्रकाषन‘, इलाहाबाद, पुनर्मुद्रण-2012, पृ0-11
‘हुँकार‘ (हिमालय), ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘लोकभारती प्रकाषन‘, इलाहाबाद, पुनर्मुद्रण-2012, पृ0-70
‘आधुनिक हिन्दी काव्य में राष्ट्रीय चेतना का विकास‘, ‘डॉ. जितराम पाठक‘, राजीव प्रकाषन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण 1976, पृ0-207
‘दिनकर के काव्य में क्रांतिमंत चेतना‘, ‘निधि भार्गव‘, ‘कविता प्रकाषन‘, बीकानेर, पृ0-21
वही से ‘उदृधत‘, पृ0-21
‘हुँकार‘ (हिमालय), ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘लोकभारती प्रकाषन‘, इलाहाबाद, पुनर्मुद्रण-2012, पृ0-72
‘सामधेनी‘ (दिल्ली और मास्को), ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘अमृत प्रकाषन‘, पटना, संस्करण-2005, पृ0-56
‘कुरूक्षेत्र‘ (सप्तम् सर्ग), ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘राजपाल प्रकाषन‘, दिल्ली, संस्करण-2013, पृ0-82
ीजजचरूध्धंअपजंावेीण्वतहधाध्इतिहास आंसूः वैभव की समाधिऋध्ऋरामधारीऋसिंहऋ‘‘दिनकर‘‘रुण्न्ेमपकिश्रक्अंव
ीजजचरूध्धंअपजंावेीण्वतहधाध्नीम के पत्ते और स्वाधीनताऋध्ऋरामधारीऋसिंहऋ‘‘दिनकर‘‘ रुण्न्ेमपकिश्रक्अंव
‘हिन्दी काव्य में मार्क्सवादी चेतना‘, ‘डॉ. जनेष्वर वर्मा‘, ‘आराधना प्रेस‘, कानपुर, प्रथम संस्करण-1974, पृ0-322
वही पृ0-360
‘हिन्दी के आधुनिक प्रतिनिधि कवि‘, ‘डॉ. मुरारीलाल शर्मा ‘सुरस‘, ‘दिनमान प्रकाषन‘, दिल्ली, प्रथम संस्करण-1986, पृ0-76
‘हिन्दी काव्य में मार्क्सवादी चेतना‘, ‘डॉ. जनेष्वर वर्मा‘, ‘आराधना प्रेस‘, कानपुर, प्रथम संस्करण-1974, पृ0-360
‘हुँकार‘ (हाहाकार), ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘लोकभारती प्रकाषन‘, इलाहाबाद, पुनर्मुद्रण-2012, पृ0-35
‘हुँकार‘ (विपथगा), ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘लोकभारती प्रकाषन‘, इलाहाबाद, पुनर्मुद्रण-2012, पृ0-89
‘रष्मिरथी‘ (प्रथम सर्ग), ‘रामधारीसिंह दिनकर‘, ‘लोकभारती पेपरबैक्स‘, इलाहाबाद, छठवाँ पेपरबैक्स संस्करण-2013, पृ0-19 व 20
वही (द्वितीय सर्ग), पृ0-31
वही (प्रथम सर्ग), पृ0-22
‘हुँकार‘ (आमुख), ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘लोकभारती प्रकाषन‘, इलाहाबाद, पुनर्मुद्रण-2012, पृ0-12
ीजजचरूध्धंअपजंावेीण्वतहधाध्कस्मेऋदेवायऋध्ऋरामधारीऋसिंहऋ‘‘दिनकर‘‘रुण्न्ेमपकिश्रक्अंव
‘कुरूक्षत्र‘ (सप्तम् सर्ग), ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘राजपाल प्रकाषन‘, दिल्ली, संस्करण-2013, पृ0-76
‘आधुनिक हिन्दी काव्य में राष्ट्रीय चेतना का विकास‘, ‘डॉ. जितराम पाठक‘, राजीव प्रकाषन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण 1976, से उदृधत, पृ0-222
‘रष्मिरथी‘ (चतुर्थ सर्ग), ‘रामधारीसिंह दिनकर‘, ‘लोकभारती पेपरबैक्स‘, इलाहाबाद, छठवाँ पेपरबैक्स संस्करण-2013, पृ0-74
वही (पंचम सर्ग) पृ0-102
ीजजचरूध्धंअपजंावेीण्वतहधाध्कस्मेऋदेवायऋध्ऋरामधारीऋसिंहऋ‘‘दिनकर‘‘रुण्न्ेमपकिश्रक्अंव
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ीजजचरूध्धंअपजंावेीण्वतहधाध्कस्मेऋदेवाय ऋध्ऋरामधारीऋसिंहऋ‘‘दिनकर‘‘रुण्न्ेमपकिश्रक्अंव
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‘हुँकार‘ (असमय आह्वान), ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘लोकभारती प्रकाषन‘, इलाहाबाद, पुनर्मुद्रण-2012, पृ0-27
‘हुँकार‘ (आमुख), ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘लोकभारती प्रकाषन‘, इलाहाबाद, पुनर्मुद्रण-2012, पृ0-12
‘हुँकार‘ (हिमालय), ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘लोकभारती प्रकाषन‘, इलाहाबाद, पुनर्मुद्रण-2012, पृ0-73
‘परषुराम की प्रतीक्षा‘ (खण्ड तीन), ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘लोकभारती प्रकाषन‘-2010, पृ0-14
वही (खण्ड पांच) पृ0-23
‘दिनकर के काव्य में क्रांतिमंत चेतना‘, ‘निधि भार्गव‘, ‘कविता प्रकाषन‘, बीकानेर, पृ0-25
‘हिन्दी काव्य में मार्क्सवादी चेतना‘, ‘डॉ. जनेष्वर वर्मा‘, ‘आराधना प्रेस‘, कानपुर, प्रथम संस्करण-1974, पृ0-439
‘कुरूक्षेत्र‘ (द्वितीय सर्ग), ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘राजपाल प्रकाषन‘, दिल्ली, संस्करण-2013, पृ0-16
वही पृ0-17
‘हिन्दी के आधुनिक प्रतिनिधि कवि‘, ‘डॉ. मुरारीलाल शर्मा ‘सुरस‘, ‘दिनमान प्रकाषन‘, दिल्ली, प्रथम संस्करण-1986, से उदृधत पृ0-76
वही पृ0-76
‘कुरूक्षेत्र‘ (सप्तम सर्ग), ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘राजपाल प्रकाषन‘, दिल्ली, संस्करण-2013, पृ0-77
‘रष्मिरथी‘ (पंचम सर्ग), ‘रामधारीसिंह दिनकर‘, ‘लोकभारती पेपरबैक्स‘, इलाहाबाद, छठवाँ पेपरबैक्स संस्करण-2013, पृ0-84
‘हिन्दी साहित्य का इतिहास‘, सं.-डॉ. नगन्द्र, डॉ. हरदयाल, ‘नेषलन पब्लिषिंग हाऊस‘, नयी दिल्ली, तीसरा संस्करण-2011, पृ0-604
‘हुँकार‘ की भूमिका ‘क्रांति का कवि‘, ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘लोकभारती प्रकाषन‘, इलाहाबाद, पुनर्मुद्रण-2012, पृ0-05
‘उर्वषी‘ (तृतीयांक), ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘लोकभारती पेपरबैक्स‘, पटना, छठवाँ संस्करण, पृ0-61

डॉ. राम भरोसे
असि. प्रोफेसर, (हिन्दी-विभाग),
राजकीय महाविद्यालय पोखरी टिहरी गढ़वाल (उत्तराखण्ड)
9045602061

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