Friday, September 20, 2019

बुक रिव्यू: उत्तराखंड लोक साहित्य समझना है तो इस किताब को पढ़िए


यह पुस्तक इसी रविवार को पुस्तक मेले से लाया था, अभी पूरी हुई है। उत्तराखंड की लोक कथाओं, गीतों और लोक साहित्य पर लिखी यह पुस्तक बेहतरीन पुस्तकों में से एक है। 5 अध्यायों में लिखी इस पुस्तक के पीछे बहुत बड़ा शोध है, जिसको समेटना एक बड़ा महान कार्य है।  इसके लेखक दिनेश चंद्र बलूनी जी का धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ कि आज की पीढ़ी के समक्ष यह शोध पूर्ण कर हमारे समक्ष रखा। बड़ी बात यह है कि प्रकाशन विभाग, भारत सरकार ने इसका प्रकाशन किया, जो असामान्य बात है। उत्तराखंड के लोक साहित्य के विषय में समझ विकसित करने में यह पुस्तक निश्चय ही लाभकारी है। उत्तराखंड के लोक गीतों-साहित्य के शोधपरक अध्ययन गोविंद चातक के बाद इसमें मिला, हालांकि हरिदत्त भट्ट शैलेश ने भी बहुत काम किया है इस विषय पर। 2005 में भले ही इसका प्रकाशन हुआ हो, आज भी इसे पढ़ने के बाद लोक साहित्य के प्रति नवीन समझ विकसित होती है। इसका तीसरा अध्याय अति आवश्यक और प्रासंगिक है क्योंकि इसमें उत्तराखंड (उत्तरांचल, पुराना नाम) के लोक गीतों में सामाजिकता को प्रतिबिंबित किया है, जो नयी सामाजिक चेतना का विकास करता है।

इस अध्याय में कई रूढ़ियों को दिखाया गया है जैसे प्रेम विवाह, सतीत्व सम्बन्धी, जन्म व संतान सम्बन्धी, शकुन अपशकुन की परम्पराएँ, गुरु गोरखनाथ की परंपरा और भी बहुत कुछ समाहित है इस पुस्तक में। इस पुस्तक की एक खास बात आपसे अवश्य साझा करूँगा कि यह पुस्तक रंगीन चित्रों के साथ छापी गयी है। जिससे पाठक के मन की जिज्ञासा शांत होती रहती है कि जिस लोक परंपरा या लोक नृत्य या सांस्कृतिक वेशभूषा का जिक्र लेखक ने किया है, वो दिखती कैसी है। कुछ फोटो उसके यहाँ भी साझा कर रहा हूँ।
कई लोक कथाओं का विस्तृत और महत्वपूर्ण अंश आपको यहां मिलेगा, जैसे- शिव-गौरी कथा, नन्दा देवी कथा, लाटू की कथा, अंछरी, रमोल कथा, गोरिल देवता, बूढ़ा केदार आदि। अन्य अनसुनी पौराणिक लोक कथाओं का सटीक विवरणों से भरी है यह पुस्तक। जैसे हेरु-सैम की गाथा, सीता का बनवास, नागराजा कृष्ण की गाथा, कालीदह का कालीनाग, कृष्ण रुक्मणि प्रसंग, पांडव जन्म गाथा, द्रोपदी स्वयंवर इत्यादि।
वीरगाथाओं के जिक्र के बिना लोक साहित्य या लोक कथा का जिक्र अपूर्ण है और उत्तराखंड की बात हो और वीरों का जिक्र न हो, यह असंभव है। यहाँ की भूमि वीरों की जन्मदात्री है। इस पुस्तक में उन अनेक वीरगाथाओं का वर्णन किया गया है, जिन्हें याद नहीं रखा गया या भूला दिया गया या समय बीतने के साथ भूलते चले गए, परन्तु इस पुस्तक में सारे जिक्र विस्तार से किये गए हैं। जैसे- जगदेव पंवार, रूदी-ऊदी गाथा, गढ़, भानु भौपेला, राजा बिरमा कत्यूर, जियारानी की गाथा, रणजीत-दलजीत, नतिया की गाथा, अजूबा बफोल, माधोसिंह रिखोला, बाईस भाई गैडा, कफ्फू चौहान, कालू भंडारी, वीर बाला तीलू रौतेली, त्रिमल्चंद, सकराम कार्की, आशा और हरि हिंडवान, रणु रोत, मालूशाही इत्यादि, जमाला बोहरा, तिलोगा तडीयाली.

कुछ उदाहारण भी आपको देता हूँ-
भगवती नंदा का ससुराल जाते समय पितृगृह छोड़ने का आख्यान बड़ा ही कारुणिक और मार्मिक है-
जा ब्वे तू कैलास
त्वे तै द्युल मी मुंगरी, काखड़ी.
जख म्वारी नि रिन्ग्दी,
कन कै की रैली तू वे कैलास
जा ब्वे तू कैलास. (जा बेटी तू अपने ससुराल कैलास जा, तुझे मै चबेना, ककड़ी और मक्का दूंगी. तू वहां कैसे रहेगी? वहां तो जीव के नाम पर मधुमक्खी भी नहीं है.)
“द हो पाखड बाँधन छ कार्की सकराम,
गात मा पैरिंच क=झिलमिल वाको हो.
माथ मा बाँधन छ मखमली साही हो.
बोबली मा सुमाचछ गद्लिया कान्तो हो,
पीठी मा बाँधन छ चन्दन वाली दाल हो.
रात मा हिन्तच वाघ रातों जसो हो.” (सकराम कार्की वीरगाथा से)

“अनमातो धनमातो होलो जीवन मातो.
फूलों कू हौन्सिया होलो रान्यों कू रौन्सिया,
उद्मतो होइगे गरीबा को बेटा. (जीतू बगड़वाल से)
ऐसे अनेक उदाहरण आपको इस पुस्तक में मिलेंगे. यह कहना ज़रूरी हो जाता है कि अपनी संस्कृति और पारम्परिक विरासत को समझने हेतु उत्तराखण्ड अंचल के हर एक विद्यार्थी को इस पुस्तक को अवश्य पढ़नी ही चाहिए. और ज्यादा कुछ न कहते हुए इतना ही कहूँगा कि लोक साहित्य और लोक कथा पर शोध करने वाले शोधकर्ताओं को भी इस पुस्तक का अध्ययन अनिवार्य रूप से करना चाहिए.
धन्यवाद
समय रात्रि 1 बजे 

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