Friday, May 8, 2020

उत्तराखण्ड के लोकगीतों में समाहित क्रांतिकारी भावना


मानव आदिकाल से ही अपनी रागात्मक भावनाओं की भाषागत अभिव्यक्ति गीतों, कहानियों, उक्तियों आदि के माध्यम से करता आया है।
जन साधारण की यह स्वभाविक भाषागत अभिव्यक्ति ही लोक साहित्य कहलाता है। मूलतः लोकगीत सामुदायिक व जातीय रचनाएं हैं। इनका
सर्जन पूरा लोक समाज करता है। समूची जाति ही लोकगीतों की उद्भावना और पोषण का आधार होती है। एक विशिष्ट व्यक्ति या व्यक्तियों
की वाणी ही धीरे-धीरे लोकवाणी बन जाती है। समय के साथ-साथ लोकगीतों में कुछ नये अंष जुड़ जाते हैं और उसमें यदि कोई
असामाजिक तत्व होता है, तो उसका परिष्कार कर दिया जाता है। अतः लोकगीत अंतवोगत्वा एक निर्वैयक्तिक, सामुहिक और सामाजिक
रचना है, जो इसका एक विषिष्ट गुण है।
लोकगीत हमारे राष्ट्रीय लोक साहित्य की अमूल्य निधि है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि देश की स्वतंत्रता संघर्ष में राष्ट्रीय व्यवहारिक
साहित्य की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। क्योंकि व्यवहारिक साहित्य कुछ पढ़े-लिखे लोगों तक ही पहंुच सका था। लेकिन
इन राष्ट्रीय लोकगीतों ने लाखों लागों को प्रभावित एवं प्रोत्साहित किया है। राष्ट्रीय लोकगीतों एवं शिष्ट राष्ट्रीय गीतों ने एक-दूसरे हेतु पूर्णता
का कार्य किया है। लोकगीतकारों ने व्यवहारिक साहित्यकारों की अपेक्षा क्रांतिकारियों और गांधीजी की प्रतिभा व शक्ति को अधिक गहराई
से तथा शीघ्र लिया। निःसन्देह ही राष्ट्रीय लोककवि, राष्ट्रीय साहित्यिक कवियों की अपेक्षा अधिक निर्भीक व क्रांतिकारी थे। राष्ट्रीय लोकगीतों
ने परांपरा से हटकर राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष को एक नया आयाम दिया। लोककवियों ने लोक साहित्य का विकास किया और स्वाधीनता
आंदोलन को अत्यधिक व्यापक व शक्तिशाली बनाने में मदद की। यह भी प्रमाणित है कि राष्ट्रीय लोकगीत और राष्ट्रीय व्यवहारिक गीत
एक-दूसरे के पूरक रहे हैं। लोकगीत चाहे वे किसी भी प्रांत से संबंधित क्यों न हो सदियों से जनता का शोषण करने वाले वर्गों के विरुद्ध
जनता की क्रांतिकारी भावना व विद्रोही प्रवृत्ति की हुंकार सुनाई देती है।
उत्तराखण्ड राज्य में कई देशभक्त पैदा हुए और अपनी जन्मभूमि के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिये। उन्हें अपने देश की पवित्र भूमि,
पर्वत, नदियों, आमजन, तथा उसकी विकसित संस्कृति के गौरवमय इतिहास से बड़ा प्यार था। चंूकि उत्तराखण्ड का भू-भाग दो भागों
गढ़वाल और कुमाउं में बटा है इसलिए यहां के लोकगीत भी दोनों (गढ़वाली व कुमाऊनी) ही क्षेत्रीय भाषा में प्राप्त होते हैं। यहां
उत्तराखण्ड के कुछ मुख्य लोकगीतों के विषय में जानकारी है जिन्होंने देश की क्रांति में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।

जब टिहरी नरेश ने अपने कर्मचारियों को यह आदेश दिया कि जिस गांव के मेले में क्रांतिकारी चेतना जगाने वाले गीत गाये जाते हो, उन
पर सामूहिक जुर्माना किया जाए। इस बात का प्रभाव लोगों पर विपरीत प्रभाव पड़ने लगा, स्थानीय लोगों के मन में लोकगीतों के प्रति
लगाव और भी बढ़ गया। रंवाई में शहीद भगत सिंह के संबंध में एक लोकगीत प्रचलित है-
थाली छाटी बल हींग,
आमार देशू मा जरमी गई वीर भगत सींग।
माच्छू मारी बल गाव,
तू भगत सींग ह्वेगै अंगरेजू कू काव।
सोलिया कु बल पेणु,
दिन कु हरची खाणु त्यंूकू रात कु हरची संेणु।
(अर्थात- सुना है कि हमारे देश में भगतसिंह नाम का एक वीर पैदा हो गया है, जो अंगे्रजों के लिए मौत बनकर आया है। उसके भय से
अंगे्रजों का दिन का खाना तथा रातों की नींद उड़ गयी हैं)

इसके बाद 30 मई, 1930 को तिलाड़ी के मैदान में एक बर्बर कांड हो गया। टिहरी नरेश ने तिलाड़ी मैदान में हो रही जनसभा में
गोलियां चलवां दी, जिसमें कई निहत्थे किसान मारे गये और सैकड़ो गंभीर रूप से घायल हो गये। इस बर्बर काण्ड पर रवांई का एक और
लोकगीत इस प्रकार हैः
तिलाड़ी मैदान तीस कु साल,
जरमी गई तेख राजा कु काल।
ऊंद बोलों गंगाडू गंजेलू कु गांज,
तेरु पापी राज पड़लू बांज।
ऊंद बोलो गंगाडू सुप झाड़ी पीठी,
सबी ज्वानू ली लेखी द्यो न चीठी।
अंगे्रज-राजा दुया जन भाई,
गांवू-गांवू मा त्यून वसूली लाई।
उठो मेरा भायो यूं पाप्यों मारो,
अपण नौनू तु फंड तारो।
(अर्थात- सन् 1930 में तिलाड़ी मैदान में राजा ने निहत्थे आदमियों पर गोलियां चलवायी जिसमें कई लोग मारे गये तथा सैकड़ों घायल हो
गये। हे! राजा, तेरा इस प्रकार का अत्याचारी शासन नष्ट हो जाएगा। अत्याचारी अंग्रेज व राजा-दोनों भाई-भाई से लगते हैं। दोनों जुल्मी हैं।
सभी लोगों को पत्र लिख दो कि इनके शासन को मिटाने के लिए काम करें। भाइयों! उठो और इन पापियों को मारकर अपनी आने वाली
पीढ़ी/बच्चों को इन अत्याचारों से मुक्त करो।)

एक अन्य गढ़वाली लोकगीत में भारत को स्वतंत्र कराने में महात्मा गांधी के योगदान तथा उनके त्यागमय साधारण जीवन के विषय में
बताया गया है-
मातमा गांधी बड़ो भागी छ,
देश मुलक को अनुरागी छ!
बकरी को दूद वो खांदू छ,
खादी को लाणू वा लांदू छ!
पंद्र अगस्त हमू दिलैगी वो,
अंगरेजू सणी भगैगी वो!
आजादी हयू दिलैगी वो,
राज किसाणू दिलैगी वो!
मातमा गांधी बडू त्यागी छ,
देश मुलक को अनुरागी छ!
(अर्थात- महात्मा गांधी बड़े भाग्यशाली हैं, देष के प्रेमी हैं। वे बकरी का दूध पीते हैं, खादी के वस्त्र पहनते हैं। वे हमे पन्द्रह अगस्त दे
गये, वे अंगे्रजों को भगा गये, वे हमें स्वतंत्रता दिला गये, वे किसानों को राज दे गये। महात्मा बड़े त्यागी हैं। देश के अनुरागी हैं।)

उत्तराखण्ड का नाम शहीद श्रीदेव सुमन के बगैर अधुरा है। श्रीदेव सुमन गढ़वाल के प्रमुख राष्ट्रीय नेता थे। वह टिहरी नरेख की सामंतषाही
के विरुद्ध 84 दिनों तक अनशन करने के बाद देष की बलिवेदी पर शहीद हुए थे। श्रीदेव सुमन आज भी गढ़वाली के लोग-मानस को
आंदोलित करते हैं। एक गढ़वाली लोकगीत में श्रीदेव सुमन के संघर्ष का गौरवमय बखान इस प्रकार किया गया है-
सड़की को सूत सुमन सड़की को सूत ले,
टीरी मां पैदा ह्वैगे सुमन, सुमन सपूल ले।
गढ़ माता को प्यारो सुमन, सुमन सपूत ले!
अखोडू को कीच सुमन, अखोडू को कीच,
ढंडक शुरू ह्वैगे सुमन, रवांई का बीच,
घाघरी को फेर सुमन, घाघरी को फेर!
× × × × × × × × × × × ×
सुफल होइगे सुमन, तेरो त्यो बलिदान!
गढ़माता की वीर सुमन, तेरो त्यो बलिदान!!

गढ़वाली लोकगीतों के समानान्तर ही उत्तराखण्ड के कुमाऊनी क्षेत्र में भी सुप्रसिद्ध राष्ट्रवादी कवि गुमानी पंत भी निरन्तर अंग्रेजों के
अत्याचारी शासन का घोर विरोध कर रहे थे। उन्होंने अंगे्रजी राज की बुराइयां करते हुए नये राज्य के साथ आयी नयी बातों की ओर ध्यान
आकर्षित कराया। फिरंगियों के आगमन से अल्मोड़ा की स्थिति का वर्णन कुछ इस प्रकार करते हैं-
विष्णु का देवाल उखाड़ा ऊपर बंगला बना खरा,
महाराज का महल ढहाया बेड़ी खाना तहां धरा।
मल्ले महल लड़ाई नंदा बंगलों से भी तहां भरा,
अंगे्रजों न अल्मोडे़ का नक्षा और ही और करा।
(अर्थात- अंगे्रजों ने अल्मोड़े में आकर विष्णु भगवान का मंदिन उजाड़ दिया और पहाड़ी के ऊपर अपना सुंदर बंगला बनवा दिया।
महाराजा का महल उजाड़ कर वहां कारागार बनवा दिया। उन्होंने महल उड़ाकर बंगले बनवा दिये। वास्तव में अंग्रेजों ने तो अल्मोड़े का
नक्षा ही बदल दिया है।)

आगे राष्ट्रवादी कवि गुमानी पंत ने गोरखों के अत्याचारी शासन का वर्णन करते हुए करारा व्यंग्य किया-
दिन दिन खजाना का भार का बोकनाले,
षिव षिव चुलि में का बाल नैं एक कै का।
तदपि मुल्क तेरो छोड़ि नै कोई भाजा,
इतवदति गुमानी धन्य गोरखालि राजा।
(अर्थात- प्रतिदिन खजाना ढोते-ढोते प्रजा के सिर के बाल उड़ गये, पर एकाधिपत्य गोरखों का ही रहा। कोई भी उनका राज्य छोड़कर
नहीं गया। अतः है गोरखाली राजा, तुम धन्य हो।)

कवि गुमानी पंत ने अपनी जनवादी कविता ‘फिरंगी वर्णन‘ में अंगे्रजी शासन पर कुछ इस प्रकार कटाक्ष किया है-
दूर विलायत जल का रास्ता करा जहाज सवारी है,
सारे हिन्दुस्तान भरे की धरती वष कर डारी है।
और बड़े शाहों में सबसे धाक बड़ी कुछ भारी है,
कहे गुमानी धन्य फिरंगी तेरी किस्मत न्यारी है।
× × × × × × × × × × × × × × × ×
अपने घर से चला फिरंगी पहुंचा पहले कलकत्ते,
अजब टोप बन्नाती कुर्ती ना कपड़े ना कुछ लत्ते।
सारा हिन्दुस्तान किया सर बिना लड़ाई कर फत्ते,
कहत गुमानी कलयुग ने याँ सुबजा भेजा अलबत्ते।

कुमाऊनी जनता ने भी 1857 की क्रांति के समय अंग्रेजों के विरुद्ध आवाज उठाकर अपनी क्रांतिकारी चेतना को अभिव्यक्त किया।
लोककवि खिमानंद लिखते हैं-
कंपनी का भारत में देख अत्याचार,
भारत का लोग उठा हैगे मारामार।

कुमाऊं में कुली-बेगार प्रथा के विरुद्ध चले आंदोलन के समय ये लोकगीत गूंज उठा-

अब है गईं गांधी अवतार, झन दिय मंेसो कुली बेगार,
घर घर खादी का कर परचार, अब है गईं गंाधी अवतार।

सुप्रसिद्ध कुमाऊनी जनकवि गौरीदत्त पांडे ‘गोरी‘ ने एक कविता के माध्यम से गांधी जी का सिपाही बनने का संकल्प लिया-
बण गांधी सिपाई रहटा कातुला,
देष का लिजिया हम मरि मिटुला।
× × × × × × × × × × × ×
मेरा मुल्कीया यारो जै गांधी की बोल
झल चूकिया मौका छ जुगति अमोल।

राष्ट्रीय कवि हीरावल्लभ शर्मा ने एक कुमाऊनी गीत में भारत की स्वतंत्रता पर खुषी व्यक्त करते हुए लिखते हैं-
सफल हैगो तिरंगी, हिंदुस्तान बै भाज फिरंगी।
महात्मा सुभाष जवारलाल, लैरोई ख्याल जस गोपाल।

भारतीय लोकमानस में सदा ही लोक कल्याण की भावना व्याप्त रही है। विभिन्न संस्कारों तथा पर्वों के अवसर पर गाए जाने वाले
गीतों में परिवार व समाज के सभी सदस्यों की मंगलकामना की गयी है। कुमाऊं में होली की समाप्ति पर लोगों के घर जाकर सब मंगल
गीत गाये जाते हैं-
हो हो होलक रे, आज को बसंत कैका वर,
आज का बसंत नाम का घर हो हो हो लकर।
यनरो पूर परीवार जी रौ लोख बरीस, हो हो लकरे,
यनरो भरो रौ अन धन लै कुछान, हो हो लकरे।

अतः भारत के स्वाधीनता संग्राम पर उत्तराखण्ड के लोकगीतों का व्यापक प्रभाव को भली-भांति देखा जा सकता है। हमारे
लोककवियों/गीतकारों ने भी स्वतंत्रता सेनानियों का यशोगान किया। शहीद भगतसिंह और अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी आदि महापुरुषों
का खुलकर गुणगान किया है। इसमें कोई अतिष्योक्ति नहीं है कि लोकगीतों के माध्यम से क्रांतिकारी भावना जगाने में उत्तराखण्ड का
योगदान प्रमुख रहा है।



’’’ प्रस्तुत लेख में संकलित गढ़वाली लोकगीतों के संग्रहण में निम्न पुस्तकों से सहायता ली गयी है-
1. गढ़वाली लोकगीतः एक सांस्कृतिक अध्ययन, गोविन्द चातक, राधाकृष्ण प्रकाषन-1968, दरियागंज नयी दिल्ली।
2. गढ़वाली लोकमानस, षिवानन्द नौटियाल, अमित प्रकाषन, गाजियाबाद, 1975 ।
3. लोकगीतों में क्रांतिकारी चेतना, विष्वमित्र उपाध्याय, प्रकाषन विभाग, भारत सरकार, 1997।




डॉ० राम भरोसे

2 comments:

  1. मेरे लिए बहुत ही ज्ञानवर्धक और उपयोगी है सर

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