वर्तमान सामाजिक परिप्रेक्ष्य में दलित साहित्य की प्रमाणिकता एवं प्रासंगिकता
डाॅ. राम भरोसे
हिन्दी विभागाध्यक्ष
असिस्टेंट प्रोफेसर
शहीद बेलमती चैहान राजकीय महाविद्यालय पोखरी (क्वीली) टिहरी-गढ़वाल
$919045602061,
‘‘जन्म लेने से पहले ही
व्यवस्था की भंेट चढ़ जाते हैं
क्या हम कभी
जन्म भेद से होने वाली
देष की क्षति का
आकलन करते हैं
हिसाब लगाते हैं।‘‘
(ष्योराज सिंह ‘बैचेन‘)
बीसवीं शताब्दी में दलितों-वंचितों की सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक एवं आर्थिक स्थिति में परिवर्तन लाने हेतु कई दलित आंदोलन चलाये गये। दलित आंदोलन की षुरूआत उन्नीसवीं शती में ही हो चुकी थी, जब सामाजिक अस्पृश्यता/छुआछूत, दलितों की शिक्षा एवं मंदिर-प्रवेश आदि समस्याओं के समाधान की ओर कदम बढ़ाए गये।वस्तुतः दलित आन्दोलन जातिविहीन समाज की रचना के लिए प्रतिबद्ध सांस्कृतिक, सामाजिक एवं राजनीतिक आन्दोलन रहा है। इस आन्दोलन का वैचारिक आधार महात्मा बुद्ध, ज्योतिबा फुले दर्शन एवं बाबा साहेब डाॅ. अम्बेडकर का जीवन संघर्श है। शाहू जी महाराज द्वारा सामाजिक समानता के खातिर किये गये प्रयास भी महत्वपूर्ण एवं सराहनीय रहे हैं। आगे यह वैचारिकता बुद्ध के दर्शन से सिद्ध एवं नाथ पंथियों ने प्रेरणा ग्रहण की और इसी परंपरा में मध्ययुगका संत साहित्य आता है। कबीरदास, रविदास, चोखामेला आदि संतों ने अपने काव्य और वाणी द्वारा धार्मिक आडम्बरों को छोड़कर सामाजिक समानता पर बल दिया। बाबा साहेब अम्बेडकर ने बुद्ध, कबीर एवं फुले विचारधारा को आत्मसात् किया। उन्होंने अपने चिंतन में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व तथा लोकतांत्रिक मूल्यों का समावेश किया और सामाजिक लोकतंत्र की अवधारणा सशक्त करने की बात की। बाबा साहेब ने भारतीय संविधान में न केवल दलितों के अधिकारों को स्थान दिलाया बल्कि संविधान में मौलिक अधिकारों के द्वारा भी दलितों, वंचितों, पिछड़ों व स्त्रियों के अधिकारों की लड़ाई की जिम्मेदारी भी निभायी। ज्योतिबा फुले ने जहाँ भारतीय दलित-वंचित समाज में अपने अधिकारों की प्राप्ति हेतु चेतना जगायी, वहीं बाबा साहेब ने उन्हें अपने अधिकारों की प्राप्ति हेतु संघर्श का मार्ग दिखाया और समाज की मुख्य धारा के साथ चलने पर बल दिया। उन्होंने ही सबसे पहले राजनीति में दलितों के प्रत्यक्ष हस्तक्षेप की मांग की। जिस हिन्दू धर्म और जाति व्यवस्था ने दलितों को हमेशा अमानवीय जीवन जीने को विवश किया, प्रत्येक प्रकार के अधिकारों से वंचित रखा, उसी के खिलाफ उन्होंने दलितों को जाग्रत किया। अपने भाशणों में व्यक्त विचारों द्वारा दलितों से जाति मुक्त होकर स्वाभिमान के साथ जीने के लिए प्रेरित किया। जाति के नाम पर सवर्ण जातियों द्वारा दलितों के साथ जो अमानवीय व्यवहार किया जा रहा था,उनसे मुक्ति प्राप्त कर सामाजिक हैसियत पाने के स्वप्न के साथ दलित संघर्श के लिए आगे बढ़े। इस चेतना ने दलितों को वैचारिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कतिक, आर्थिक एवं साहित्यिक सभी स्तरों पर समृद्ध किया।
हमारी भारत की प्राचीन संस्कृति में समाज के सभी वर्गों को सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक व आर्थिक विकास के समान अवसर प्राप्त नहीं हो सके, यह सर्वमान्य और कटु सत्य है। जिसके फलस्वरूप आज समाज के दलित, शोशित एवं उत्पीड़ित वर्गों के संघर्शाें ने ही दलित साहित्य की पृश्ठभूमि को तैयार किया है। आज भारतीय साहित्य में दलित विमर्श की अनिवार्यता व प्रासंगिकता निरन्तर बढ़ती जा रही है। साहित्य के आगे ‘दलित‘ विशेशण जुड़ने पर निर्मित शब्द ‘दलित साहित्य‘ एक विशेश अर्थ की अभिव्यंजना करता है। संक्षेप में बता दें कि‘दलित‘ षब्द उन्नीसवीं षताब्दी के सुधारवादी आन्दोलन काल की उपज है। जिसका प्रयोग विवेकानंद, एनी बेसेंट तथा रानाडे जैसे समाजसुधारकों ने, जो अपने आप में विस्तृत अर्थ लिये था, किया था। परन्तु वर्तमान में ‘दलित‘ षब्द का प्रयोग उन जाति विषेश के लिए प्रयोग करना ‘रूढ़‘ और प्रासंगिक हो गया है, जिनको महात्मा गांधी ने ‘हरिजन‘ कहकर पुकारा था। लेकिन दलितों ने ‘हरिजन‘ षब्द का उपहास किया और स्वयं को ‘दलित‘ कहना प्रारम्भ किया। हालांकि षुरुआत में ‘दलित‘ षब्द स्वीकार करने में भी विद्वानों, चिंतकों और साहित्यकारों में मतभेद अवष्य हुए, परन्तु आज ‘दलित‘ षब्द पर सभी मतएक्य हैं। क्योंकि यह षब्द निष्चय ही दलितों में नयी सोच-विचार, क्रांति और जागृति का संचार करता है। सरल और सीधे षब्दों में दलित वर्ग में वे सभी जातियां आती हंै, जो निम्न स्तर पर हैं, जिन्हें सदियों से सताया गया है,जिनको मानवीय अधिकारों से वंचित रखा गया ओर सामाजिक तौर पर जिनको नकारा गया है। खैर, साहित्य की बात करें तो दलित साहित्य के विशय में प्रबुद्ध प्रोफेसर-साहित्यकार डाॅ. श्यौराज सिंह ‘बैचेन‘ लिखते हैं,‘‘दलित साहित्य एक उद्देष्यपूर्ण लेखन है। सामाजिक विषमता, सांस्कृतिक-साहित्यिक पराधीनता दलितों की सामाजिक गुलामी को स्थाईयित्व देती रही है। ऐसे में दलित साहित्यकार लूथरकिंग, नेल्षन मंडेला और बराक ओबामा के रंग और नस्ल के खिलाफ किये गये संघर्षों को स्वदेष के गंाधी-अम्बेडकर विवाद, अछूतानंद-प्रेमचंद अलगाव, रैदास-कबीर-तुलसीदास का पंथ भेद के अंतरद्वन्द्वों को समझते हुए अपने मौलिक और अलग पहचान के ऐतिहासिक रास्ते पर आगे बढ़ रहा है।‘‘1महान संपादक और समाजसेवी डाॅ. रमणिका गुप्ता के शब्दों में ‘‘दलित साहितय दलित की पीड़ा, उत्पीड़न, शोषण और उसके विरूद्ध उनके आक्रोष तथा परिवर्तन के संकल्प का साहित्य है, जो जातिविहीन समाज का सपना पालता है।‘‘2प्रबुद्ध विचारक-आलोचक ओमप्रकाश वाल्मीकि ने दलित साहित्य को ‘आन्दोलन‘ की संज्ञा दी है।
यह बताना भी वांछनीय होगा कि सन् 1927 में प्रकाशित ‘चाँद‘ के अछूत अंक में पंडित रामभरोसे दीक्षित की कविता ‘अछूतों का उद्धार हो‘ शीर्शक से प्रकाशित हुई, जो इस तथ्य को सिद्ध करती है कि ‘दलित‘ शब्द का हिन्दी में मराठी भाशा से पूर्व हुआ था। यह विचार संक्षेप रूप से बताना अनिवार्य था, क्योंकि कुछ साहित्यिक विद्वान व विचारक यह मानते हैं कि ‘दलित‘ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग मराठी भाशा में हुआ। हांलाकि इसमें कोई दो राय नहीं है कि दलित विद्रोह और चेतना का संचार का केन्द्र मराठी दलित साहित्य ही रहा है। जिसके मार्गदर्षन में ही हिन्दी दलित साहित्य आज पल्लवित और पुश्पित हो रहा है।
उल्लेखनीय है कि संत साहित्य और नाथ साहित्य में धार्मिक आडम्बरों से उठकर मानवीय संवेदना का संचार करने का प्रयास किया, जो दलित चेतना की वैचारिकता से सम्बंधित है, परन्तु इसके बीच लगभग 500 वर्शाें का लम्बा अन्तराल है। या कह सकते हैं कि दलित चेतना का उद्भव व संचरण मध्यकाल के निर्गुण संत कबीर व रविदास से होती हुई ‘हीरा डोम‘ और ‘अछूतानंद‘ तक हुआ है। इस मध्य कुछ कवित रहे होंगे, जिन्होंने वर्चस्ववादी हिन्दू धर्म और संस्कृति के विरूद्ध आवाज उठायी होगी। सन् 1914 के बाद भी दलित कविता कभी लोकगीतों के रूप में, तो कभी रविदास और कभी अम्बेडकर के जीवन और विचारों के काव्यात्मक आख्यानों के रूप में लगातार विकास करती ही। परन्तु साठ के दशक में मराठी के दलित कवियों ने अपनी विद्रोही चेतना से सम्पूर्ण मराठी साहित्य की नींव हिला दी। जिनमें नामदेव ढसाल का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। इसी कारण उसे देश में ही नहीं, अन्तर्राश्ट्रीय स्तर पर भी मान्यता प्राप्त हुई। वही से प्रेरणा लेकर हिन्दी के दलित कवियों ने भी कविता का सृजन प्रारम्भ किया, जो अब प्रतिश्ठित होकर ‘दलित साहित्य‘ नाम से स्थापित हो गया है।
दलित साहित्य और दलित आन्दोलन का गहरा सम्बंध है। स्वतंत्रता से पूर्व भारत के विभिन्नहिस्सों में वर्ण-व्यवस्था और जातिभेद के विरूद्ध आन्दोलन हुए महाराश्ट्र, पंजाब में आदि धर्म आन्दोलन, उत्तर प्रदेश में आदि हिन्दू आन्दोलन, तमिलनाडु में आदि-द्रविड आन्दोलन, बंगाल में नामशूद्र-आन्दोलन, केरल में नारायण स्वामी गुरु आन्दोलन, तटीय आन्ध्र प्रदेश में आदि आन्ध्र आन्दोलन, हैदराबाद में आदि हिन्दू आन्दोलन शामिल था। लेकिन 1972 में दलित पैंथर की स्थापना के साथ ही दलित आन्दोलन को नया स्वरूप व ऊर्जा मिली। जिसने आन्दोलन को सक्रियता प्रदान करने के साथ-साथ उसे एक ऐसी तीव्रता भी प्रदान की जिसने दलित चेतना को विकसित किया। दलित साहित्य को गहरी आन्तरिक ऊर्जा से भी परिपूर्ण किया।
आज दलित साहित्य सवर्णों की आंखों की किरकिरी बनता जा रहा है, क्योंकि उनके हिसाब से दलित व्यक्ति कभी रचनाकार हो ही नहीं सकता और वे किसी भी रूप में दलित साहित्य के अस्तित्व और प्रासंगिकता को न समझते हुए उसको नकारने का प्रयास करते रहते हैं। मूर्धन्य साहित्यकार डाॅ. एन. सिंह अपनी पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं, ‘‘हिन्दी साहित्य में दलित विमर्ष जैसे-जैसे एक अनिवार्यता बनती गयी, वैसे-वैसे सवर्ण साहित्यकार इस बात पर केन्द्रित होते गये कि कैसे दलित साहित्यकारों में विघटन उत्पन्न किया जाए।‘‘3 विघटन की बात इसलिए कि अपने सवैंधानिक अधिकारों के प्रति ये लोग लामबंद न हो सके। दलित साहित्य पर बातचीन के दौरान यह प्रतिक्रिया आम हो चुकी है कि बस्स बहुत हो गया, जहाँ देखो दलित साहित्य की बात हो रही है, शोध में, पाठ्यक्रम में, रेडियों पर, टी.वी. पर, पत्र-पत्रिकाओं में, संगोश्ठियों में, कौन है दलित, कहाँ है दलित, अब कहाँ होता है भेदभाव। इस प्रतिक्रिया पर डाॅ. बैचन अपनी सटीक बात लिखते हैं, ‘‘अभी तक जो काम दलित साहित्य के प्रसंग में हो रहा है वह अभी नाकाफी है। दलित भारत की अभिव्यक्ति-रचनाषीलता समुद्री लहरों और उसमें छिपे रत्नों की भांति है, जो सामने है वह बूँद-दो बूँद भर है। जो व्यक्त होने-सृजित होने को बाकी है, वह महासिंधु है।‘‘4ओमप्रकाश वाल्मीकि इस व्यथा को इस प्रकार अभिव्यक्त करते हैं, ‘‘हिन्दी दलित साहित्य ने साहित्य और समाज सापेक्ष और वस्तुनिष्ठ बनने की प्रक्रिया से जोड़ने की पहल की है। हिन्दी के अनेक आलोचक, विद्वान आज भी दलित साहित्य की आन्तरिकता और उसकी चेतना को समझने के बजाय दलित रचनाकारों को कविता के शास्त्रीय तत्व सिखाने की कोषिष करते हैं, ऐसे आलोचक दलित साहित्य का, सामन्तवादी, ब्राह्मणवादी दृष्टि और मानसिकता के साथ, विष्लेषण करने की चेष्टा करते हैं।‘‘5प्रबुद्ध साहित्यकार आदरणीय डाॅ. जयप्रकाष कर्दम दलित साहित्य की स्वीकारोक्ति के विशय में लिखते हैं, ‘‘साहित्यकारों के एक बड़े वर्ग द्वारा दलित साहित्य को, चाहे मजबूरी में ही सही, स्वीकार कर लिया गया है।‘‘6बावजूद इसके दलित साहित्य के विरोध का स्वर अभी भी मुखरित हैं। दलित साहित्य के इन झंडाबरदारों में कोई इसे ‘कास्ट काम्पलेक्स‘ अर्थात जातीय चेतना से युक्त मानकर इसे उन्माद की संज्ञा देता है, तो कोई इसे साहित्यिक दुकानदारी घोशित करता है। यह कहने में कोई बुराई नहीं है कि दलित साहित्य उनको हज़म नहीं हो रहा है।
दलित साहित्य पर विभाजन का एक गंभीर आरोप लगाकर इसका विरोध किया जाता है। हिन्दी साहित्य के जाने-माने साहित्यकार-आलोचकों का मानना है कि दलित साहित्य से साहित्य जगत में विभाजन हुआ है, जो उचित नहीं है। चलो यदि मान भी लें कि साहित्य में विभाजन नहीं होना चाहिए। परन्तु क्या यह बात सिर्फ साहित्य पर ही लागू होनी चाहिए? डाॅ. जयप्रकाश कदर्म इस विशय में बड़ी सटीक और कड़वी टिप्पणी करते हुए कहते हैं, ‘‘समाज, धर्म, राजनीति, दर्षन, भाषा कौन सा ऐसा क्षेत्र है जहाँ विभाजन नहीं है। सारे धर्मों को मिटाकर एक धर्म की ही स्थापना हो, सारे दार्षनिक सिद्धान्तों को खत्म कर एक ही दर्षन हो, एक ही भाषा हो, जाति का नाष हो अर्थात् पूरा समाज संगठित और इकाई बनकर रहे इसके लिए आवाज क्यों नहीं उठती? क्या यह विभाजन उचित है? यदि यह विभाजन उचित है तो साहित्य का विभाजन भी उचित क्यों नहीं होना चाहिए? .......दलितों की संस्कृति न हिन्दू संस्कृति है, न इस्लाम संस्कृति, उनकी संस्कृति अलग है। उनकी परम्पराएँ, विष्वास और मान्यताएँ अलग हैं। जब संस्कृति साहित्य का आधार है तब पृथक सांस्कृतिक पहचान रखने वाले दलितों का भी अलग साहित्य होना आपत्तिजनक क्यों लगना चाहिए। फिर दलित साहित्य को लेकर इतनी हाय-तौबा क्यों है?‘‘7
निःसन्देह दलित साहित्य का विरोध करने वाली यह मानसिकता वही है, जो एक ओर दलितों को अछूत-अस्पृष्य घोशित कर वर्ण-व्यवस्था से बाहर अंत्यज बनाए रखती है और दूसरी ओर उनके द्वारा हिन्दू धर्म से इतर धर्म ग्रहण करने पर उनको अपना भाई कहकर गला फाड़कर चीख़ती है। आप दलितों को अपने घर में रखंेगे नहीं, उनका घर बनने नहीं देंगे, जो बने है उन्हें उजाड़ेंगे-जलाएंगें, यह तो सरासर दादागिरी है। कहने की जरूरत नहीं मित्रों कि इस दादागिरी में आकर दलित साहित्य अपने अस्तित्व के संघर्श को छोड़ ब्राह्मणवाद की चरण वन्दना करने लगेगा, यह सोच दलित साहित्य के विरोधियों को छोड़ देनी होगी।
शोशण चाहे मानसिक हो या सामाजिक, धार्मिक हो या आर्थिक, या फिर राजनैतिक, उसकी खिलाफत लाज़मी है। भले ही उसमें समय कितना भी लगे। भारत में हजारों वर्श बीत गये, धर्म के नाम पर एक वर्ग को सामाजिक, मानसिक और आर्थिक शोशण-अत्याचार सहते हुए, लेकिन जैसे ही इस वर्ग में थोड़ी चेतना आयी, उसके विद्रोह का विस्फोट हुआ। उस विस्फोट का ही परिणाम है दलित साहित्य। दलित साहित्य के विशय में डाॅ. एन. सिंह लिखते हैं, ‘‘दलित साहित्य दलित लेखकों द्वारा लिखित वह साहित्य है, जो सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और मानसिक रूप से उत्पीड़ित लोगों की बेहतरी के लिए लिखा गया हो, जो सच्चे अनुभवों पर आधारित हो और जीवन्त भाषा में लिखा गया हो।‘‘8दलित साहित्य की अवधारणा समझने हेतु कुछ अन्य दलित साहित्यकारों की परिभाशाएं देना भी यहाँ समीचीन होगा।
‘‘दलित साहित्य वर्ण-व्यवस्था से पीड़ित समाज की वेदना का शब्द रूप है।‘‘9(कंवल भारती)
‘‘दलित साहित्य दलितोत्थान साहित्य, यानि दलितोत्थान हेतु लिखा गया, यह एक ऐसा साहित्य है, जो भोगे हुए सच पर आधारित है। जमीन से जुड़े दलित, शोशित, उपेक्षित, सर्वहारा वर्ग से सम्बंधित है जो दशा और दिशा को इंगित करता है और जिसमें विद्रोह और उद्बोधन के साथ संवेदना जागृत करने की ऊर्जा है।‘‘10(डाॅ. सोहनलाल ‘सुमनाक्षर‘)
‘‘दलित साहित्य वह है जिसे दलित लेखक लिखता है।‘‘11(डाॅ. धर्मवीर)
‘‘दलित साहित्य दलितों का, दलितों द्वारा, दलितों की भाशा में लिखा गया जीवन्त साहित्य है जो अपने सच्चे अनुभवों से सोए हुए साथियों को जगाकर उसकी गरिमा, गौरव, अस्मिता, आत्मभिमान तथा अस्तित्व के प्रति विश्वास करने का साहित्य है।‘‘12(डाॅ. प्रेमशंकर)
‘‘दलित साहित्य वह साहित्य है, जो सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनैतिक क्षेत्रों में पिछड़े हुए उत्पीड़ित, अपमानित शोशित जनों की पीड़ा को व्यक्त करता है। दलित साहित्य कठोर अनुभवों पर आधारित साहित्य है। दलित साहित्य में आक्रोश और विद्रोह की भावना प्रमुख है।‘‘13(माताप्रसाद)
‘‘दलित साहित्य यानि बहुजन समाज के सभी मानवीय अधिकारों और मूल्यों की प्राप्ति के उद्देश्यों से लिखा गया साहित्य है, जो संघर्श से उपजा है, जिसमें समता और बन्धुता का भाव है और वर्ण व्यवस्था से उपजे जातिभेद का विरोध है।‘‘14(मोहनदास नैमिशराय)
उपर्युक्त सभी परिभाशाओं पर देखने पर स्पश्ट हो जाता है कि दलित जातियों में उत्पन्न लेखकों द्वारा दलित जीवन की विसंगतियों पर लिखा गया साहित्य ही दलित साहित्य है, जो दलितों में परम्परागत शोशण परक मान्यताओं के विरूद्ध विद्रोह की भावना जागृत करता है, जिसमें आक्रोश का भाव है, जो विभेद के प्रति संघर्श करता है और शोशण से मुक्ति प्राप्त कर समतापूर्ण जीवन जीने के सूत्र सौंपता है, जो जातपाँत का विरोधी है और सबकों समान मानता है। वरिश्ठ दलित साहित्यकार आलोचक ओमप्रकाश वाल्मीकि के शब्दों में, ‘‘दलित साहित्य भाषावाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद को नकारता है तथा पूरे देष को एक सूत्र में पिरोने का कार्य करता है। दलित शब्द उन्हें सामाजिक पहचान देता है, जिनकी पहचान इतिहास के पृष्ठों से सदा के लिए मिटा दी गयी, जिनकी गौरवपूर्ण संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहर कालचक्र में खो गयी।‘‘15
निश्चय ही दलित साहित्य सामाजिक न्याय की दृश्टि से भारतीय मुख्यधारा का साहित्य है। दलित साहित्य समता का साहित्य है, जो भारतीय सन्दर्भों में निश्चय ही एक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रहा हे। यह अपनी तीक्ष्णता, तीव्रता और जीवनान्मुख उपादेयता के कारण मुख्य स्थान रखता है। दलित सृजन की वेदना-विद्रोह और भविश्य निर्माण की व्यवस्थित रूपरेखा ने संसार भर के साहित्य प्रेमियों को आकर्शित किया है। वे जो साहित्य के जरिए भारत की जाति व्यवस्था, ऊँच-नीच, छुआछूत, सामाजिक बहिश्कार जैसी अमानवीय व्यवस्थाओं को समझना चाह रहे हैं, वे दलित साहित्य को अपने साहित्यिक ज्ञान का माध्यम बना रहे हैं। दलित साहित्यकारों हेतु कविता, कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, निबंध आदि विधाएं अपनी संवेदनाओं, पीड़ा, भोगा हुआ कटु यथार्थ और व्यवथाओं को कहने का अच्छा माध्यम सिद्ध हुई हैं। अपनी रचनाओं के माध्यम से उन्होंने अतीत की रोशनी में वर्तमान को जाँचा-परखा है और एक स्वस्थ, समतामूलक भविश्य की कल्पना की है। जो साहित्य का मूल ध्येय होना चाहिए।
दलित साहित्य का मूल्यांकन करते वक्तेअक्सर एक अन्य प्रश्न सामने आता है कि क्या कोई गैर-दलित साहित्यकार भी दलित साहित्य लिख सकता है या क्या गैर-दलित साहित्यकारों द्वारा दलित समस्याओं पर लिखा गया साहित्य भी दलित साहित्य के अन्तर्गत आता है?साहित्य जगत में इस प्रश्न पर काफी चर्चा भी हो चुकी है और विवाद भी। परन्तु अब इस बात में कोई सन्देह शेश नहीं कि दलितों द्वारा दलितों के लिए लिखा गया साहित्य ही दलित साहित्य है, क्योंकि यदि कोई गैर-दलित लेखक दलित समस्याओं पर लिखता है तो उसमें सहानुभूति होती है, आक्रोश व संघर्श नहीं। इस सन्दर्भ में वरिश्ठ दलित साहित्यकार-पत्रकार मोहनदास नैमिशराय का व्यतव्य दृश्टव्य है, ‘‘दूर बैठकर कल्पना के आधार पर दलितों की पीड़ा के वर्णन को दलित साहित्य कहना न्यायसंगत नहीं है। यह बिल्कुल ऐसे ही होगा जैसे दलित, शोषितों को दूर से फेंकरकर रोटी दान करना। जबकि दलित वर्ग से आये लेखकों ने जो लिखा है उनकी रचनाओं में अथाह पीड़ा रही, आक्रोष का ज्वार बार-बार उफनता रहा, इसलिए कि वह सामाजिक विषमता के भुक्तभोगी थे।‘‘16डाॅ. एन. सिंह ने स्पश्ट माना है कि ‘‘हिन्दू धर्मषास्त्रों पर आस्था रखकर दलित समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता‘‘17 इस बात के ऐतिहासिक प्रमाण हंै, जिन पर डाॅ. विमल कीर्ति लिखते हैं, ‘‘जो महात्मा गांधी और विवेकानन्द हिन्दूवाद जातिवाद से मुक्त नहीं हुए, जो हिन्दू धर्मषास्त्रों की गुलामी से मुक्त नहीं हुए, वह दलितों की, पिछड़ों की, मुक्ति के आदर्ष पुरुष कैसे हो सकते हैं।‘‘18दलित्तेर साहित्यकारों हेतु दलितों की दुःख, पीड़ा, यन्त्रणा भयावह एवं रोमांचक हो सकती है, वे उसका वर्णन किसी दलित लेखक से भी बेहतर कर सकते हैं, लेकिन उसकी प्रामाणिकता सन्देहास्पद है और उससे न किसी दलित का भला होगा और न ही साहित्य का। वरिश्ठ हिन्दी साहित्यकार-आलोचक डाॅ. मैनेजर पांडेय का इस विशय कहना है, ‘‘दलित लेखकों के पास भले ही कला न हो, लेकिन उनके मन में कुछ कहने की, अपनी भावनाएँ व्यक्त करने की बेचैनी है। उनकी आत्माभिव्यक्ति की अकांक्षा को समझे बिना, कला की माँग करना उनके साथ ज्यादती है।‘‘19दलित लेखक/कवि ही दलितों की पीड़ा कलमबद्ध कर सकता है क्योंकि ‘‘दलित लेखक बेषक कला का बाजीगर नहीं है, लेकिन दलित समाज के प्रति उसकी धारणा, जागृति और प्रेरणा की है, जिससे वह षिक्षित संगठित और समस्याओं के समाधान के लिए संघर्षषील हो सके। दलित लेखक पात्रों को घृणित और पराजित नहीं दिखते, बल्कि उनकी पूर्ण जिजीविषा के साथ संघर्ष करते हुए चित्रित करते हैं, न कि आत्महत्या करते हुए। दलित साहित्य का उद्देष्य दलितों को अपराधी, हत्यारे और बागी बनाना भी नहीं है। दलित साहित्य दलितों को अपने हक की लड़ाई लड़ना सिखाता है।‘‘20वरिश्ठ दलित चिंतक डाॅ. एन. सिंह का यह व्यतव्य गैर-दलित लेखकों द्वारा लिखी दो कहानियांे (निश्कासन और ग्रहण) की समीक्षा करने बाद लिखा गया था। दलित साहित्य के मूल्यांकन के विशय में वरिश्ठ दलित चिंतक-साहित्यकार सूरजपाल चैहान का एक महत्वपूर्ण वक्तव्य पढ़ने को मिला जिसमें उन्होंने लिखा है, ‘‘अब तक दलित साहित्य के इतिहास में पाँच पड़ाव आये हैं। पहले चरण में वेदना की अभिव्यक्ति हुई, दूसरे चरण में आक्रोष की, तीसरे चरण ब्राह्मणवादी समाज व्यवस्था का सम्पूर्ण नकार रहा, चैथे चरण में अपनी दुर्दषा की सामाजिक स्थिति का गम्भीर विष्लेषण किया गया है और वर्तमान चरण में अर्थात् पांचवें चरण में नया विजन, नयी सामाजिक दृष्टि, वैकल्पिक समाजिक संरचना की खोज अम्बेडकरवादी विचार-दर्षन के अनुसार चल रही है।‘‘21लेकिन फिर भी यहां इतना अवष्य कहना चाहूँगा कि दलित साहित्यकार प्रेमचन्द की ‘दलित दृश्टि‘ पर जो सवाल उठाते हैं और उनकी रचनाओं को सम्मान की दृश्टि से न देखते हुए उनकी विचारधारा को दलित विरोधी करार देते हैं। इस तथ्य से पूर्णतः सहमति नहीं है। क्योंकि सभी जानते है, कि पहले प्रेमचन्द डाॅ. अम्बेडकर के विरोध में अवष्य थे, परन्तु समय के साथ-साथ वे अम्बेडर के उद्देष्य को समझने लगे थे। इसीलिए प्रेमचन्द साहित्य और सामाजिक दृश्टि ‘महाड आन्दोलन‘ (1927), ‘मन्दिर प्रवेष आन्दोलन‘ (1930) से प्रभावित भी और उनकी कहानियां ‘सद्गति‘, ‘ठाकुर का कुआँ‘, ‘दूध का दाम‘, ‘आहुति‘, ‘मंदिर‘ और ‘मन्त्र‘ में इन आन्दोलनों का प्रभाव भी देखा जा सकता है। उनकी कहानियांे में दलित चेतना का दृश्टिकोण भले ही उस स्तर का न हो, परन्तु साहित्य के माध्यम से प्रेमनचन्द ने दलित जीवन की सच्ची तस्वीर अवष्य प्रस्तुत की हैं। जो तत्कालीन रूप से सराहनीय और साहसिक साहित्यिक कदम था। वर्तमान परिप्रेक्ष्य को देखते हुए उनकी रचनाओं का मूल्यांकन करना, न्याय नहीं होगा। हालांकि इसमें भी कोई सन्देह नहीं होना चाहिए कि दलित साहित्य केवल दलितों का ही साहित्य है। वही इस पर इमानदारी से सोच-विचार कर सकता है क्योंकि वे स्वयं भुक्तभोगी भी हैं।
फिर भी मेरे ख्याल से ‘दलित साहित्य‘ को मात्र दलितों तक सीमिति नहीं किया जाना चाहिए। साहित्य साहित्य होता है, जिसके सृजन का अधिकार सभी को है। लेकन हाँ, निश्ठा, संवेदना और प्रतिबद्धता आवष्यक है। केवल बाहरी सहानुभूति से चेतना की धारा में उपस्थित नहीं हुआ जा सकता। गैर-दलित लेखन में यदि दलितों के प्रति वास्तविक सहानुभूति, संवेदना और उनकी मुक्ति की चिंता, संघर्श, वेदना और चेतना है, तो ऐसे साहित्य और साहित्यकारों का दलित साहित्यकारों द्वारा स्वागत किया जाना चाहिए।आगे चलकर वरिश्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार मोहनदास नैमिषराय ने भी इस बात से सहमति प्रकट करते हुए अपने एक साक्षात्कार में कहा है कि ‘‘दलित एवं षोशित वर्ग की पीड़ा को उभारने वाला साहित्य ही दलित साहित्य कहलाता है। चाहे किसी दलित द्वारा लिखा गया हो या फिर गैर दलितों द्वारा। और जो दलितों के बारे में लिखेगा वहीं दलित साहित्यकार कहलाएगा, यह जरूरी भी नहीं है। साहित्यकार सिर्फ साहित्यकार होता है। उसके मन में इसांफ की पाने की ललक होती है। जुल्म से लड़ने के लिए जब उसकी लेखनी चलती है तब वह इंसान होता है, न दलित होता है और न गैर दलित। लेकिन षर्त यह है कि दलितों पर लिखने वाला कथाकार इमानदारी से लिखे।‘‘22
दलित साहित्य के नामकरण पर कई सवाल उठाये जाते हैं, हालांकि आज साहित्यिक दृश्टिकोण से यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगा कि आज ‘दलित साहित्य‘ को किसी की स्वीकारोक्ति की आवश्यकता नहीं है। वह अपने आप में सम्पूर्ण है और परम्परागत और समकालीन साहित्य को चुनौती दे रहा है। इन सबके बाद भी दलित साहित्य इस समय जिन समस्याओं से जूझ रहा है, उनमें एक नामकरण भी है। इसमें सिर्फ इतना कहना काफी होगा कि क्योंकि ‘दलित‘ शब्द स्वयं में व्यापक अर्थ में पीड़ित मानवता का प्रतिनिधित्व करता है। अर्थात् ‘दलित साहित्य‘ भारतीय समाज के उस ‘बहुजन‘ का साहित्य है, जो असमानता पर आधारित अभिजात्यवाद के कलात्मक झूठ का पर्दाफाश करने की क्षमता रखता है। कुछ विद्वानों का ऐसा मत भी है कि साहित्य दलित हो नहीं सकता और न ही साहित्यकार। अरे! भाई जब सन्त साहित्य हो सकता है, नाथ साहित्य हो सकता है, बौद्ध साहित्य, जैन साहित्य, आदिवासी साहित्य हो सकता है, तो फिर दलित साहित्य क्यों नहीं हो सकता? अतः यह बात निराधर व निरर्थक है, इस पर बहस करके अपनी ऊर्जा क्यों कम की जाए। वास्तव में जो इस प्रकार की बातें करते हैं उनका मन्तव्य कुछ और ही है। यह साहित्य दलितों की संवेदना, उनकी पीड़ा को, उनकी ही बोलचार में अभिव्यक्ति देता है। इसलिए इसे ‘दलित साहित्य‘ ही कहा जाने का आग्रह है। दलित साहित्य का अस्तित्व-अवधारणा को श्री रूपचन्द गौतम अपने शब्दों में इस प्रकार व्यक्त करते हैं, ‘‘दलित साहित्य से हमारा आषय सामाजिक न्याय के सन्दर्भ में संवैधानिक मूल्यों, स्वतन्त्रता एवं बन्धुता पर आधारित समता के समाज और सत्ता-व्यवस्था की निर्मित संरचना के लिए विचार से, संवेदना से, विचार के धरातल पर सचेत एवं सजग साहित्यकारों की संगठित क्रांति चेतना से सृजित अस्तिमतादर्षी साहित्य से है, जिनमें नैेतिकता, चरित्र और राष्ट्रीयता का प्राधान्य है। दलित होने की पीड़ा एवं शोषण की प्रथम अनुभूति दलित को ही हो सकती है न कि गैर-दलित को। अतः दलित साहित्य का अधिक प्रचलित अर्थ है वह साहित्य, जो दलितों का, दलितों के लिए, दलितों द्वारा चरित है।‘‘23
संवैधानिक मूल्यों, आधुनिक मान्यताओं और प्रजातांत्रिक विचारधारा ही ‘दलित साहित्य‘ का आधार बिन्दु है। शिक्षा के प्रचार-प्रसार ने सदियों से शोशित, पीड़ित एवं सामाजिक अवमानना के शिकार दलितों के मन में एक चेतना जगायी है, अधिकार-प्राप्ति की चेतना, स्वाभिमान से जीन की चेतना। आजादी के बाद संवैधानिक प्रावधानों के फलस्वरूप दलितों को अपनी स्थिति मजबूत करने का अवसर मिला और आज विविध क्षेत्रों में श्रेश्ठ प्रतिभाएं सामने आ रही हैं। दलित साहित्य ने मानव-विरोधी पक्षों के चेहरे से नकाब हटाने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। यह इतना जीवंन और प्राणवान इसलिए लगता है क्योंकि इसमें रचा गया यथार्थ समाज में उपस्थित है। दलित साहित्य में दलितों के कश्ट और संताप ही नहीं वरन् सदियों के शोशण के विरूद्ध विद्रोह और कहीं-कहीं प्रतिहिंसा का स्वर भी मौजूद है। किसी भी भारतीय भाशा में लिखे गये दलित साहित्य में उनके समाज की पीड़ा, संघर्श और समतामूलक समाज की स्थापना के स्वप्न का चित्रण देखा जा सकता है।
दलित साहित्य का मूल लक्ष्य समतामूलक समाज की स्थापना ही है। शुरू से ही इसके माध्यम से ऐसे बीज बोये गये हैं, जो स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के वटवृक्ष का रूप ग्रहण करें और सामाजिक कुरीतियों का निर्मूलन करते हुए मानवाधिकारों को सुरक्षित रखें। दलित साहित्य की जरूरत को रेखांकित करते हुए साहित्यकार कमलेश्वर ने लिखते हैं, ‘‘दलित साहित्य का उन्मेष मात्र साहित्यिक पुनर्मूल्यांकन करना चाहता है। दलित साहित्य का निरपेक्षतावादियों, सौंदर्यवादियों और निराशावादियों के लिए भी एक उत्तर है, जो यह समझ बैठे हैं कि साहित्य की कोई सक्रिय भूमिका नहीं रह गयी है।‘‘24दलित साहित्य दलितोें-वंचितों हेतु एक उम्मीद की किरण बनकर उत्पन्न हुआ है। यही उम्मीद उनको ऊर्जावान और संभावनापूर्ण बनाए हुए है। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी पुस्तक ‘दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र‘ में दलित साहित्य को भविश्य का साहित्य कहा है, तो कँवल भारती ने अपने लेख ‘दलित साहित्य की अवधारणा‘ में दलित साहित्य को जीवन का और जिजीविशा का साहित्य कहा है।दलित साहित्यकारों के लिए कविता, कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, निबंध, आलोचना आदि विधाएं अपनी संवेदनाओं और व्यथाओं को कहने का अच्छा माध्यम साबित हुई है। उनकी रचनाओं में उन्होंने अतीत की रोशनी में वर्तमान की पड़ताल की है और एक स्वस्थ, समतामूलक, लोकतांत्रिक भविश्य की कल्पना की है।
दलित साहित्य की प्रासंगिकता और मूल्यांकन का अनुसंधान करते हुए पाया कि वर्तमान में दलितों पर अत्याचारों की संख्या में पिछले 6-7 वर्शाें में 25 प्रतिशत वृद्धि हुई है। इसके कई पक्ष हैं लेकिन एक पक्ष जो अत्यन्त महत्वपूर्ण है वह यह कि दलित साहित्य के माध्यम से दलितों में एक चेतना का उदय हुआ है, जो उन्हें अत्याचार के विरूद्ध आंदोलन करने का साहस देता है। यदि अपवादित घटनाओं या चर्चाओं को छोड़ देवें तो, आज से दो दशक पूर्व तक भी आरक्षण के खिलाफत इस स्तर पर नहीं थी, जो वर्तमान में देखने को मिलती है। सोशल मीडिया से लेकर प्रिंट मीडिया के साथ इलेक्ट्राॅनिक मीडिया तक में आरक्षण के विरूद्ध कैम्पेनिंग चलायी जा रही है। क्यों? क्योंकि आज दलित-पिछड़ा वर्ग अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होकर शिक्षित बन रहा है। दलित युवा वर्ग शिक्षित होकर आज अपने को स्थापित करने हेतु कड़ा संघर्श कर रहा है। यह बात सवर्णवादियों और उनके पैरोकारों का हजम नहीं हो रही है। बगैर आरक्षण के पीछे की भावना, विचार व अर्थ को समझे, अपने राजनैतिक और धार्मिक लाभ-स्वार्थ के चलते एक वर्ग देश के युवाओं को आरक्षण के नाम पर उनमें फूट डाल उन्हें आपस में एक दूसरे के खिलाफ खड़ा कर रहा है। साथियों, यदि पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर कभी चिंतन करेंगे, तो पाएंगे कि यदि बाबा साहेब अम्बेडकर ने भारतीय संविधान में दलितों-वंचितों-पिछड़ों यहाँ तक कि महिलाओं के अधिकारों का संरक्षण न किया होता, तो आज उनकी स्थिति पूर्व की भांति जानवरों से भी गयी गुजरी होती। यह हमारो दुर्भाग्य है कि स्वतंत्रता के 71 वर्श पूर्ण हो गये है, परन्तु आज भी हमारे देश में कई ऐसे क्षेत्र हैं, जहाँ जाति के नाम पर दलितों के साथ घिनौने कृत्य किये जाते हैं, जो यदि कागज पर लिखें जाये तो कलम भी रो पड़े। जिसकी कुछ झल्कियांच्च्ज्के माध्यम से दिखाने का प्रयास करूंगा। फिर ऐसे में यदि आज दलितों में षिक्षा के माध्यम से आगे बढ़ने, सम्मान से जीवन यापन करने की भावना का उदय हो रहा है, तो कुछेकलोगों को क्यों तकलीफ हो रही है। यहाँ इस प्रसंग की चर्चा इसलिए भी प्रसांगिक है, क्योंकि दलित हो या वंचित या फिर स्त्री ही क्यों न हो सभी में अपने अधिकारों व सम्मान के प्रति जागरूकता का बीज दलित साहित्य, चाहें वह किसी भी रूप या भाशा में हो, ने बोया है। यह महत कार्य षिक्षा से होता हुआ आज दलित साहित्य के रूप में हमारे सामने है। इसकी पुश्टि वरिश्ठ षिक्षाविद्, दलित विचारक व चिंतक डाॅ. विमल थोरात अपने एक संपादकीय में लिखते हैं, ‘‘दलित साहित्य की समता की चाहत और मुखर सषक्त सृजनात्मकता से ब्राह्मणवाद त्राहि-त्राहि कर उठा और इरादतन समतावादी मूल्यों की अवहेलना करके और प्रतिक्रिया में ब्राह्मणवाद आज अधिक मजबूत हुआ है।‘‘25यह कहना भी जरूरी है कि आज दलित और वंचित वर्गों में दलित अस्मिता की मेधा दलित साहित्य के फलस्वरूप ही आयी है।
दलित साहित्य के नाम से अभी जो नाक भौंएं चढ़ाते हैं और इसके अस्तित्व, प्रासंगिकता और प्रामाणिकता पर सवाल खड़े करते हैं या जो दलित साहित्य को जातिवादी साहित्य बताने की अज्ञानता प्रदर्षित करते हैं,उनको यह जान लेना जरूरी है कि यह साहित्य ही मानव को मानव-प्रेम यानि मानवता की ओर ले जा रहा है, वैदिक काल से लेकर अभी 70-80 के दशकों में जो परम्परागत साहित्य लिखा गया, वह एक पक्षीय था। वह साहित्यिक दृश्टिकोण से उत्कृश्ट साहित्य भला ही रहा हो, परन्तु ‘साहित्य समाज का दर्पण होता है‘, इस तथ्य पर खरा उतरता प्रतीत नहीं होता। वरिश्ठ दलित चितंक, साहित्यकार व आलोचक सूरजपाल चैहन का दलित साहित्य की आवश्यकता व प्रासंगिता के विशय में सपश्ट मत है कि ‘‘हिन्दी के गैर-दलित साहित्य में दलितों का अपमान और हीनताबोध के अलावा कुछ नहीं है। दलित चेतना की सार्थक अभिव्यक्ति दलित रचनाकारों की रचनाओं में ही देखी जा सकती है। सैकड़ों वर्षों के बाद अब मूक क्रंदन को दलित साहित्य के माध्यम से वाणी मिल रही है। सच कहा जाए तो हिन्दी का दलित साहित्य एक जलते हुए दीपक के समान है, जिसकी रोषनी से राह से भटका हुआ पाठक सोच-समझकर अपने गन्तव्य की ओर चल पड़ता है।‘‘26दलित साहित्य के विशय में किसी की कोई भी राय क्यों न हो यह तो सर्वमान्य है कि दलित साहित्य आज की जरूरत है। दलित साहित्य आज पारम्परिक साहित्य के समानान्तर ही गतिमान है।
निष्चय ही दलित साहित्य के सौन्दर्यशास्त्र निर्धारित करना तात्विक रूप से कठिन कार्य है। क्योंकि दलित साहित्य मात्र साहित्य नहीं है बल्कि दलितों की जिंदगी, संस्कृति व राजनीति से उसका प्रत्यक्ष सम्बंध है। यह सच है कि दलित साहित्य की वस्तु में ना ताजमहल का सौन्दर्य और न ही लाल किले जैसी भव्यता। मामूली से मामूली गरीब, लाचार, अनपढ़, फटीचर, घर-बार हीन, गूंगा ही इस साहित्य के केन्द्र में होता हुआ उसका नायक है। उसे इतिहास की किसी प्रकार की कोई भी समझ नहीं है। उसका पूरा दिन दो वक्त की रोटी जुटाने में लग जाता है और फिर भी वह भूखा रहता है। इस भूखे-गूंगे आदमी की आवाज है ‘दलित साहित्य‘ और यदि आप भूखे आदमी की कराह-पीड़ा से उपजे साहित्य में साहित्य का परम्परागत सौन्दर्य ढूंढते हैं तो इसे क्या कहा जाए? यह प्रष्न आपके लिए। अपने एक लेख में सूरजपाल चैहान लिखते हैं, ‘‘यह पहली बार दलित साहित्य ने ही किया है कि अपने सौन्दर्यषास्त्रीय कसौटियां ही बदल दीं। अब सौन्दर्यषास्त्र की जगह समाजषास्त्र प्रमुख हो गया है।‘‘27इस सम्दर्भ में डाॅ. ष्यौराज बैचेन का मत उल्लेखनीय है, ‘‘ऐसा नहीं है कि दलित साहित्य में सौन्दर्यषास्त्र नहीं है। अपितु जीवंत और भारतीय मूल का सौन्दर्य केवल दलित साहित्य में ही मिल सकता है। इसके लिए हमें भाषा, शैली, भाव, बिम्बों, प्रतीकों, अलंकारों की दलित मौलिकता को मथकर सौन्दर्य देना है।‘‘28दलित साहित्य के गंभीर चिंतक प्रोफेसर टी.वी. कट्टीमनी ने ‘दलित साहित्य के सौन्दर्यशास्त्र का समाजविज्ञान‘ नामक षीर्शक में लिखा है, ‘‘क्योंकि दलित साहित्य केवल ग्रांथिक नहीं है, जो कहा नहीं गया है, वह अभी भी अपार और असीम है। दलित साहित्य एक गहरे घाव की कहानी है और घाव न भरने की कहानी है। दलित कहानी एक दर्दभरा राग है। इसी तरह अपने निजी दुःख को परिवेष की पीड़ा के रूप में देखना, दलित साहित्य के सौन्दर्यषास्त्र का अपना महत्व हैं पारम्परिक सौन्दर्यषास्त्र के मानदंड अपने मायने खो बैठे हैं, क्योंकि उन मानदंडों, का, समाज विज्ञान के साथ कोई वास्ता ही नहीं था। लेकिन आज दलित सौन्दर्यषास्त्र का यदि रूपायन हुआ है, तो उसके रूपायन में समाज विज्ञान का मेजर शेयर है, क्योंकि दलित साहित्य की मूल ऊर्जा स्वयं भारतीय समाज है।‘‘29हिन्दी साहित्य में हिन्दी दलित साहित्यकारों को जन्म देने वाले और प्रतिश्ठित करने वाले महान संपादक, साहित्यकार व आलोचक डाॅ. राजेन्द्र यादव का वक्तव्य साहित्य के नवीन सौन्दर्यशास्त्र की समझ को विकसित करता है। वे लिखते है, ‘‘जो नया सौंदर्यषास्त्र बनेगा, वह संघर्ष से शुरू होगा, उस यातना से शुरू होगा, चाहे वह उसका रिअलाइज करने अथवा उस यातना को, उसकी तकलीफ को, उसके भेदक रूप को समझने के रूप में हो और उसके बाद बदलने की मानसिकता के रूप में हो, जिसे हम संघर्ष कह सकते हैं। तीसरा-एक स्वप्न के रूप में होगा, हमें करना क्या है? हमें समानांतर सौंदर्यषास्त्र देना है, वैकल्पिक समाज बनाना है, यह सारा संघर्ष साहित्य में भी है और समाज में भी।‘‘30
दलित साहित्य में उपर्युक्त तीनों तत्व विद्यमान हैं। अंबेडकर-दर्शन एवं विचार ने दलित साहित्य में संघर्शशीलता को गति प्रदान की है। वर्ण व्यवस्था और भारतीय समाज-व्यवस्था ने दलितों पर जो अमानुशिक उत्पीड़न किया है, उस यातना की निचली तह से उठकर ऊपर आनेवाला दलित साहित्यकार अपने भीतर जिस आँच को अनुभव करता है, वह भुक्तभोगी ही समझ सकता है। दलित साहित्य की दिषा और दृश्टि उसे जीवनतता प्रदान करती है। प्रबुद्ध साहित्यकार डाॅ. कुमुद पांवड़े के अनुसार, ‘‘दलित साहित्य के सौंदर्यशास्त्र पर विचार करने हेतु किसी भी रचना के ‘आकार‘ व ‘आषय‘ को ध्यान में रखना होगा। जिस रूप में हम देखते हैं वह उस रचना का ‘आकार‘ होता है और इसमें जो सारतात्विक बोध विद्यमान होता है, वह ‘आषय‘कहलाता है। हिंदी साहित्य हो या संस्कृत साहित्य वह आकृतिनिष्ठ ही है। वहाँ आकार की प्रधानता है। शब्द की रमणीयता समीक्षकों के लिए बौद्धिक विलास का काम करती है।‘‘31
मित्रों, दलित साहित्य किसी को क्रोधित या चिढ़ाने हेतु नहीं रचा जा रहा है। दलित लेखन शब्दों का जाल नहीं बुन रहा है और नहीं शब्दों की जुगाली करता है। प्रत्येक विधा मंे, परिदृष्यों में सहजता और स्वाभविकता कायम रखना दलित साहित्य की षिल्पगत विषेशता है।दलित साहित्यकारों ने गहराई से अपने परिवेष का अनुसंधान कर अध्ययन किया है। तर्क-विवेक के आधार पर अपने परिवेष की सच्चाइयों का मूल्यांकन किया है। अपने समुदाय के निजी जीवन की स्थितियों, दशाओं और परिस्थितियों की जड़ में विद्यमान कारणों पर गहन विचार-मंथन किया है। उनके विचारों को अनुभवों ने पोशण प्रदान कर उन्हें पुश्ट किया, जिसको उन्होंने कलमबद्ध कर दलित साहित्य का निर्माण किया।
दलित साहित्य की उपलब्धि और सम्भावनाओं के विशय में इतना ही कहना उचित होगा कि आज दलित साहित्य अपनी पहचान के संकट से गुजरते हुए एक सच्चाई बन चुका है। उसके लिए भाशा का प्रष्न अति महत्वपूर्ण नहीं रह गया है, अब भारत की लगभग सभी भाशाओं में दलित साहित्य रचा जा रहा है। जहाँ तक इसके भविश्य का सवाल है, तो समस्त हिन्दी के विद्वान इसके भविश्य को लेकर आश्वस्त हैं। हिन्दी साहित्य जगत के प्रसिद्ध आलोचक डाॅ. नामवर सिंह के कहते हैं, ‘‘आज इसे स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नहीं है। दलितों द्वारा लिखा गया साहित्य, मात्रा और गुण दोनों ही में काफी आ गया है।....इसका भविष्य उज्ज्वल है।‘‘32हिन्दीसाहित्यकार कमलेष्वर मानते हैं कि ‘‘भविष्य तय है। तय इसलिए क्योंकि दलित साहित्य अब तक ठीक दिषा की ओर चला है। दलित साहित्य और साहित्यकार ने भूमण्डीकरण और अन्य सवालों का सामना किया है। दलितों की लोकधर्मिता, लोकधर्मी संस्कृति ही इन सवालों का जवाब हो सकती है। उन्हीं की संस्कृति अब बड़े रूप में हमारे सामने आएगी।‘‘33दलित साहित्य के विशय में अशोक वाजपेयी की मान्यता है कि-‘‘दलित विमर्ष ने जो नयी प्रष्नवाचकता पैदा की है वह हमारे साहित्य, समाज और राजनीति के लिए अन्ततः गुणकर है और वह ऐसी प्रवृत्ति है जो आगे काफी समय सक्रिय और उर्वर रहने वाली है।‘‘34डाॅ. रमणिका गुप्ता, जो दलित साहित्य आन्दोलन के साथ प्रारम्भ से ही जुड़ी रही हैं, की बेबाक टिप्पणी है, ‘‘दलित साहित्य का ही भविष्य उज्ज्वल है, बाकी सब कुंठाग्रस्त हैं। जो अभिजात साहित्य है, अपनी-अपनी कुंठाएँ लिखता है। दलित और आदिवासी पूरे समाज की बात लिखते हैं। परिवर्तन की बात करते है। यह गैर दलित साहित्य और अहम् को तोड़ता है। यह देवता और भगवान् नहीं, मनुष्य की बात करता है।‘‘35
दलित साहित्यकारों की रचनाओं का विश्वविद्यालय स्तर पर पाठ्यक्रमों में पढ़ाया जाना इस बात का द्योतक है कि वर्तमान सामाजिक स्तर पर इन साहित्य की अनिवार्यता है। यह अनिवार्यता इसलिए भी है क्योंकि जिन दबे-कुचलों को इतिहास के पन्नों से दूर रखा गया, आज उनकी प्रासंगिकता उतनी ही बढ़ गयी है।
हिन्दी दलित साहित्य के पुराने रचनाकारों ने जिन्होंने संघर्श करके साहित्य जगत में जमीन तलाश की और एक नयी दृश्टि व दिशा प्रदान की उनका संक्षेप में नाम लेना न्याय संगत होगा- ओमप्रकाश वाल्मीकि, मोहनदास नैमिषराय, डाॅ. जय प्रकाश कर्दम, डाॅ. एन. सिंह, डाॅ. ष्यौराज सिंह ‘बैचेन‘, कंवल भारती, डाॅ. सुशीला टाॅकभौरे, सोनकर आदि का नाम प्रमुखता से आता है। जिन्होंने लगभग सभी विधाओं दलित साहित्य को समृद्धि प्रदान की। वहीं दूसरी ओर युवा पीढ़ी के हिन्दी दलित साहित्यकार भी इस दृश्टि और दिशा को विश्वस्तर पर फलक दे रहे हैं, जिनमें मुख्य- अनीता भारती, रजतरानी ‘मीनू‘, रजनीतिलक, डाॅ. सुमित्रा मरौल, डाॅ. कौशल पंवार, सुरेश कुमार, डाॅ. सूरज बड़त्या, अमित कुमार, डाॅ. कर्मानन्द आर्य आदि के नाम आते हैं।
थोड़ी बात की करें तो, मीडिया में दलितों, पिछड़ों व महिलाओं की स्थिति और भागीदारी बड़ी निराषाजनक है। वंचित तबके के यदि न के बराबर पत्रकार होंगे तो खबरों का चयन जातिगत पूर्वाग्रहों के आधार पर ही होगा। इसका सषक्त उदाहरण है ‘आषा कोटल‘, जो अखिल भारतीय दलित महिला अधिकार मंच की संयुक्त महासचिव है। जिसने गत 1 जुलाई, 2018 को संयुक्त राश्ट्र के दलित मानवाधिकारी काउंसिल में भाशण दिया है, जो सम्पूर्ण भारत के लिए गर्व की बात है। आपको यह खबर पता थी या है? क्योंकि यह खबर न आपको प्रिंट मीडिया में दिखी होगी और न ही इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में। यह तो उपलब्धि की बात है, यहाँ की मीडिया तो इस कदर जातिगत पूर्वाग्रहों से युक्त है कि दलितों-पिछड़ों पर होने वाले अत्याचारों की खबरों को भी पचा जाता है। यदि दिखाता भी है तो सिर्फ टीआरपी बढ़ाने के लिए यानि नमक-मिर्च लगाकर। जो तिरस्कार दलितों को अपने षहर-गांव, कस्बांे, कार्य स्थलों में नहीं झेलना पड़ता वह मीडिया में झेलना पड़ता है। जितना जातिगत भेदभाव हमारे समाज, षासन-प्रषासन में है उससे कहीं ज्यादा मीडिया में देखने को मिल जाएगा।
दलित उत्पीड़न की खबरें भले ही उस अनुपात में न सही, लेकिन यदाकदा चटकारे के रूप में मीडिया में दिख ही जाती हैं। मगर दलित साहित्य के सन्दर्भ में मीडिया की भूमिका अपवाद छोड़ षून्य ही है। दलित आन्दोलन आज लेखन के माध्यम से होता हुआ ‘दलित साहित्य‘ के रूप में हमारे सामने है। लेकिन लोकतंत्र का चैथा स्तम्भ कहे जाने वाले मीडिया ने कभी भी दलित लेखन के रू-ब-रू होकर उसके सवालों से टकराने का जरा भी प्रयास नहीं किया। पत्रकार हीरालाल नागर ने लिखा है, ‘‘दलितों के अधिकारों तथा उनके साथ होने वाले अत्याचारों से प्रिंट तथा इलेक्ट्राॅनिक्स मीडिया ने कभी परहेज नहीं किया, मगर उसने दलित साहित्य को कभी गम्भीरता से नहीं लिया।‘‘35 दलितों के विशय में मीडिया का नजरिया भी सषक्त नहीं है, बल्कि मीडिया दलितों पर हो रहे अत्याचारों की खबरों के नाम पर बाजारीकरण करता है, मीडिया अतिरंजना के साथ उसे उत्पाद के रूप में बदलता है और दलितों के साथ खास कोण के साथ व्यवहार किया जा रहा है।
निश्कर्शतः यदि कहना उपयुक्त होगा किदलित साहित्य वास्तव में मुक्ति का साहित्य है। दलित जीवन अब साहित्य की वस्तु बन गया है, अतः इसमें जो उद्देश्य उभरकर आये हैं, उनमें, दलितत्व से मुक्ति, शूद्रत्व से मुक्ति, ऊँच-नीच के पदानुक्रम से मुक्ति, शोशण से मुक्ति और समतावादी समाज की दृश्टि और स्थापना भी है।साथ ही दलित साहित्य के माध्यम से यथासम्भव समस्याओं की तह में पैठ कर निरपेक्ष भाव से उन्हें प्रकाषमें आया है। इस साहित्य के माध्यम से ही दलित जातियां अपने पिछड़ेपन से अवगत हो उनमें चेतना जागृत हुई है। जिससे वे स्वयं भी अपना विकास भगवान भरोसे ने मानकर स्वयं प्रयास करें। दलित साहित्य ने भारतीय साहित्य को नये अनुभव, नयी अनुभूति, नये शब्द, नये नायक, नयी दृश्टि और वेदना-विद्रोह का रसायन दिया है। साथ ही इसने भारतीय साहित्य समीक्षा को आत्म-परीक्षण करने के लिए लगा दिया है, और पाठक समीक्षकों के मन में मूलभूत प्रश्न पैदा किये है। निःसन्देह दलित साहित्य के कारण ही भारतीय साहित्य की समीक्षा का क्षितिज विस्तृत हुआ है और यह पाठकों की अभिरूचि बदलनें में भी सहायक हुआ है।यह शोधालेख दलित साहित्य की पड़ताल करने हेतु छोटा सा प्रयास है मित्रों।
जो विचार अन्याय, अपराध, गुलामी, षोशण, छुआछूत और असमानता के विरूद्ध संघर्श करने की क्षमता और आक्रोष पैदा करें, वही दलित चेतना है। मेरे ख्याल से यह सभी न्यायप्रिय लोगों की भी चेतना होनी चाहिए, जिसे मानवीय चेतना भी कह सकते हैं। मानवीय चेतना हर चेतस व्यक्ति के व्यक्तित्व का अनिवार्य हिस्सा है। निःसन्देह जो व्यक्ति मानवीय चेतना और न्याय से लैस है, वह दलित चेतना या दलित साहित्य का पक्षधर आखिर क्यों नहीं होगा। समाज में न्याय पसंद और समानता का पक्षधर व्यक्ति दलित चेतना के बिल्कुल करीब है। इसलिए प्रत्येक चेतनाषील व्यक्ति को हमेषा षोशितों, दलितों, पिछड़ों की आवाज को बुलन्द करना चाहिए। यदि ऐसा नहीं किया गया तो भारतीय साहित्य में सामाजिक न्याय की अवधारणा जिसकी की अति आवष्यकता है, को प्रवाहमान कैसे बनाया जा सकेगा।
अतः आप सहमत होंगे कि आज दलित साहित्य अपनी व्यापकता में इसलिए विषेश महत्व रखता है कि इसने अब तक हाषिए पर पड़े हुए दलित समुदाय को केन्द्र में रखा। इसमें दलित समुदायों की सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक सभी स्थितियों के प्रति संवेदनषीलता जाहिर की है। दलित समाज का सर्वांगीण विकास, उसकी समृद्धि ही दलित साहित्य का प्रमुख लक्ष्य है।
अंत में डाॅ. एन. सिंह की कविता ‘आओ साथ बढ़े‘ की चंद पंक्तियां साझा करना चाहूँगा कि-
‘‘दुकान हमारी भी है
और तुम्हारी भी
ये बात और है कि
ळमारी दुकान पर बिकता है
जूता
और तुम्हारी दुकान पर
रामनामी
हमारे लिए जूते का महत्व
वही है
हमारे लिए जो है रामनामी का
आओ समानता का
ये तार पकड़ें
एकता के सूत्र गढ़ें
साथ बढ़ें।‘‘
(डाॅ. एन. सिंह)
---सन्दर्भ सूची---
सामाजिक न्याय और दलित साहित्य, सं.-डाॅ. श्यौराज सिंह चैहान, संपादकीय से, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2014, पृ.-11
हिंदी दलित साहित्य संचयिता, सं.-प्रीति सागर, भूमिका से, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2015, पृ.-6
दलित साहित्य के प्रतिमान, ले.-डाॅ. एन. सिंह, भूमिका से, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2012, पृ.-9
सामाजिक न्याय और दलित साहित्य, सं.-डाॅ श्यौराज सिंह चैहान, संपादकीय से, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ-12
दलित साहित्य ‘अनुभव, संघर्श एवं यथार्थ‘, ले.-ओम प्रकाश वाल्मीकि, राधाकृश्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2017 पृ.-33
इक्कीसवीं सदी में दलित आंदोलन (साहित्य एवं समाज-चिंतन), ले.-डाॅ. जयप्रकाश कर्दम, पंकज पुस्तक मंदिर, दिल्ली, 2010, पृ.-34
वही, पृ.-35
दलित साहित्य के प्रतिमान, ले.-डाॅ. एन. सिंह, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2012, पृ.-23
दलित कविता का अर्थ, ले. कंवल भारती, दलित साहित्यः चिंतन के विविध आयाम, सं.-डाॅ. एन. सिंह, पृ.-97
दलित साहित्य के प्रतिमान, ले.-डाॅ. एन. सिंह, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2012, पृ.-69 से उद्धृत
दलित साहित्य की परिभाशाः समग्रता और पूर्णता की ओर, ले.-डाॅ. धर्मवीर, दलित साहित्य वार्शिकी 1999, सं.-डाॅ. जयप्रकाश कर्दम, पृ.-39
दलित संघर्शः संस्कृति एवं साहित्य की सबल अभिव्यक्ति, ले.-डाॅ. प्रेमशंकर, प्रशासक, त्रैमासिक, मसूरी, जनवरी-मार्च 1997, खण्ड-11, पृ.-212-213
दलित साहित्य के प्रतिमान, ले.-डाॅ. एन. सिंह, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2012, पृ.-70 से उद्धृत
वही, पृ.-70 से उद्धृत
दलित साहित्य के प्रतिमान, ले.-डाॅ. एन. सिंह, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2012, पृ.-70
भारत में दलित लेखकों की संघर्श यात्रा, ले.- मोहनदास नैमिशराय, भीम चेतना (स्मारिका), 14.04.1994, प्र.सं. डाॅ. तारा परमार, उज्जैन, पृ.-23
दलित साहित्य के प्रतिमान, ले.-डाॅ. एन. सिंह, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2012, पृ.-73
वक्त की बात, सम्पादकीय, ले.-डाॅ. विमल कीर्ति, ‘अंगुतर‘, त्रैमासिक, नागपुर, अप्रेल-जून 1994, पृ.-5
मासिक पत्रिका ‘तद्भव‘, अंक-4, अक्टूबर, वर्श 2000, पृ.-50
दलित साहित्य के प्रतिमान, ले.-डाॅ. एन. सिंह, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2012, पृ.-15
ताकि सनद रहे- समकालीन हिन्दी दलित साहित्यः एक विचार-विमर्श, वाणी प्रकाशन, 2017 पृ.-48
दलित पत्रकारिताः सामाजिक व राजनैतिक चिंतन, ले.-मोहनदास नैमिषराय, नटराज प्रकाषन दिल्ली, 2005, पृ.-242
दलित लेखक और दलित साहित्य, शैलेष मटियानी, राश्ट्रीय सहारा, दैनिक, दिल्ली, 26.11.1992
हिंदी दलित साहित्य संचयिता, सं.-प्रीति सागर, भूमिका से, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2015, पृ.-6
जाति प्रथा के अभिशाप से त्रस्त विश्व का महान जनतंत्र, ले.-डाॅ. विमल थोरात, ‘दलित अस्मिता‘ संयुक्तांक-8,9, जुलाई-दिसंबर, 2012, पृ.-6
ताकि सनद रहे- समकालीन हिन्दी दलित साहित्यः एक विचार-विमर्श, वाणी प्रकाशन, 2017 पृ.-46
वही, पृ.-47
सामाजिक न्याय और दलित साहित्य, सं.-डाॅ श्यौराज सिंह चैहान, संपादकीय से, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2014, पृ-10
वही. पृ.-26-27
राजेन्द्र यादव, युद्धरत आम आदमी, सं.-डाॅ. रमणिका गुप्ता, अंक 41, 1998, पृ.-126
डाॅ. कुमुद पांवडे, दलित साहित्य और सौंदर्यशास्त्र, युद्धरत आम आदमी, सं.-डाॅ. रमणिका गुप्ता, अंक 41, 1998 पृ. 92-93
मासिक पत्रिका ‘हंस‘, दिल्ली, अगस्त 2004, पृ.194
वही, पृ.197
वही, पृ.223
वही, पृ.233
दलित साहित्य और मीडिया, ले.-डाॅ. हरिसंह पाल, पु.-सामाजिक न्याय और दलित साहित्य, सं.-डाॅ. श्यौराज सिंह चैहान, संपादकीय से, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2014, पृ.314
No comments:
Post a Comment