सन् 1942 में प्रकाशित महादेवीवर्मा की कृति ‘शृंखला की कड़ियाँ’ सही अर्थों में स्त्री-विमर्श की प्रस्तावना है, जिसमें तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों में नारी की दशा, दिशा एवं संघर्षों पर महादेवी ने अपनी लेखनी चलायी है। इस निबंध संग्रह में भारतीय नारी की विषम परिस्थिति को अनेक दृष्टि-बिन्दुओं से देखने का प्रयास किया गया है। महादेवी वर्मा के निबंध ‘नारीत्व का अभिशाप’ में वे पौराणिक प्रसंगों का विवरण देते हुए आधुनिक नारी के शक्तिहीन होने के कारणों की विवेचना करती हैं।
इस निबंध के कुछ अंश यहाँ साझा कर रहा हूँ-
*हिन्दू नारी का, घर और समाज इन्हीं दो से विशेष सम्पर्क रहता है। परन्तु इन दोनों ही स्थानों में उसकी स्थिति कितनी करुण है, इसके विचारमात्र से ही किसी भी सहृदय का हृदय काँपे बिना नहीं रहता। अपने पितृगृह में उसे वैसा ही स्थान मिलता है जैसा किसी दुकान में उस वस्तु को प्राप्त होता है जिसके रखने और बेचने दोनों ही में दुकानदार को हानि की सम्भावना रहती है।*
*पतिगृह, जहाँ इस उपेक्षित प्राणी को जीवन का शेष भाग व्यतीत करना पड़ता है, अधिकार में उससे कुछ अधिक परन्तु सहानुभूति में उससे बहुत कम है, इसमें संदेह नहीं । यहाँ उसकी स्थिति पल-भर भी आशंका से रहित नहीं। यदि वह विद्वान पति की इच्छानुकूल विदुषी नहीं है तो उसका स्थान दूसरी को दिया जा सकता है, यदि वह सौन्दर्योपासक पति की कल्पना के अनुरूप अप्सरा नहीं है तो उसे अपना स्थान रिक्त कर देने का आदेश दिया जा सकता है, यदि वह पति-कामना का विचार करके सन्तान या पुत्रों की सेना नहीं दे सकती, यदि वह रुग्ण है या दोषों का नितान्त अभाव होने पर भी पति की अप्रसन्नता की दोषी है तो भी उसे उस घर में दासत्व स्वीकार करना पड़ेगा।*
महादेवी वर्मा (‘नारीत्व का अभिशाप’, निबंध से)
इसके पढ़ने के बाद आपको डॉ. आंबेडकर के 'हिंदू कोड बिल-1951' की रूपरेखा को पढ़ियेगा,आपको समझ आएगा कि बाबा साहेब ने हिंदू समाज में स्त्रियों की दुर्दशा को देखते हुए उसमें ठोस क़ानूनी सुधार करने हेतु हिंदू कोड बिल को संसद में पास कराना चाहा, जिसमें तत्कालीन सवर्णवादी मानसिकता से ग्रसित पुरुषों ने ही नहीं अपितु स्त्रियां भी अपनी पुरुषवादी मानसिकता के चलते बिना इस बिल को पढ़े-समझे इसके विरोध में सड़कों पर उतर आयी, फलस्वरूप बिल पास न हो सका और बाबा साहेब ने कानून मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया.
महादेवी वर्मा के उस निबंध की उक्त पंक्तियों को पढ़कर कोई भी हिंदू समाज की स्त्रियों की दारुण स्थिति से अवगत हो सकता है, बावजूद इसके इस बिल का पुरजोर विरोध हिंदू समाज द्वारा ही किया गया.
महादेवी वर्मा द्वारा रचित इस निबंध संकलन की कुछ और पंक्तियाँ यहाँ साझा करता हूँ- *‘‘भारतीय नारी जिस दिन अपने सम्पूर्ण प्राण-आवेग से जाग सके, उस दिन उसकी गति रोकना किसी के लिए सम्भव नहीं। उसके अधिकारों के सम्बन्ध में यह सत्य है कि वे भिक्षावृत्ति से न मिले हैं, न मिलेंगे, क्योंकि उनकी स्थिति आदान-प्रदान योग्य वस्तुओं से भिन्न है। समाज में व्यक्ति का सहयोग और विकास की दिशा में उसका उपयोग ही उसके अधिकार निश्चित करता रहता है। किन्तु अधिकार के इच्छुक व्यक्ति को अधिकारी भी होना चाहिए। सामान्यतः भारतीय नारी में इसी विशेषता का अभाव मिलेगा। कहीं उसमें साधारण दयनीयता और कहीं असाधारण विद्रोह है, परंतु संतुलन से उसका जीवन परिचित नहीं।..."*
क्या इन पंक्तियों को पढ़कर आपको बाबा साहेब का स्त्रियों विषयक दृष्टिकोण नज़र नहीं आया. उन्होंने जिस प्रकार नारी चेतना और अधिकार की बात अपने भाषणों और लेखों में कही, वे तत्कालीन समय में दुर्लभ थी. वे किसी समाज की प्रगति उस समाज की नारियों की प्रगति से मानते थे.
इस निबंध संग्रह में जिन अधिकारों की बात लेखिका कर रही है, उनका मूर्त रूप संविधान लागू होने के बाद सामने आया.
मतलब यह कि महादेवी वर्मा के रूप में हिंदी साहित्य का एक मजबूत आधार स्तम्भ अपनी लेखनी के माध्यम से जब 1942 में हिंदू नारियों की दुर्दशा पर समाज का ध्यान आकर्षित करते हुए स्त्रियों के हक़-हुक़ूक़ की बातें निडर होकर डंके की चोट पर कहने का साहस कर रही थी, वही दूसरी ओर एक दशक बाद बाबा साहेब अम्बेडकर हिंदू समाज की स्त्रियों को उनके जायज अधिकार क़ानूनी रूप से देने के लिए संघर्षरत थे. कहने का मतलब साफ़ है कि महादेवी वर्मा का हिंदू नारी के अधिकारों की दूरगामी सोच और बाबा साहेब का हिंदू कोड बिल की समानता यह दर्शाती है कि हिंदू धर्म में स्त्रियों की जो दुर्दशा थी, उससे मुक्ति का मार्ग केवल और केवल क़ानूनी प्रावधानों से ही सम्भव थी.
अब यहाँ सोचनीय और विस्मय करने वाली बात है वो यह कि जब हिंदू कोड बिल संसद में पास होने के लिए लाया गया, फिर इसका विरोध हुआ, तत्कालीन साहित्यकार महादेवी वर्मा, पंत, निराला, अज्ञेय या अन्य प्रगतिशील लेखकों ने हिंदू कोड बिल के विषय पर बाबा साहेब के समर्थन में कुछ लिखा या कहा नहीं. जबकि ये सर्वज्ञ था कि क़ानून के अतिरिक्त अन्य किसी भी माध्यम से स्त्रियों को उनके अधिकार नहीं दिलाए जा सकते. जिस समय महादेवी वर्मा उक्त निबंध लिख रही थी, उस समय नारी द्वारा उनके अधिकारों की बात कह पाना अपने आप में साहसिक कदम था. फिर बाबा साहेब अम्बेडकर ने जब हिंदू कोड बिल का खाका तैयार किया जाना, किसी क्रांति से कम नहीं था.
अब आप सोचिये क्या मात्र साहित्य के माध्यम से स्त्रियों को उनके अधिकार दिलाएं जाना सम्भव था या है, कदापि नहीं.
जो तथाकथित हिंदू खुद को प्रगतिशील कहते नहीं थकते वे जरा महादेवी वर्मा के उस निबंध को पढ़ने के बाद हिंदू कोड बिल को अवश्य पढ़े, तब उन्हें समझ आएगा कि हिंदू स्त्रियों के साथ कितनी त्रासदियां हिंदू धर्म आज भी सर उठायें खड़ी हैं, जो उनसे उनके जीने तक का अधिकार अभी भी छीन रही हैं. इतने सब के बाद भी यदि आधुनिक नारी बाबा साहेब और उनके हिंदू कोड बिल का समर्थन नहीं करती तो, वे कल्पना करें यदि संविधान में उन्हें अधिकार न दिए होते तो आज उनकी क्या गत होती.
डॉ. राम भरोसे