Tuesday, June 22, 2021

भारतीय सिनेमा का चुनिया यानी 'लवेबल-विलेन'

फिल्‍मों में खलनायक का पर्याय बने अभिनेता अमरीश पुरी ने कई यादगार किरदार निभाए हैं। और आज उनकी 89 वीं जयंती है। जन्म हुआ नवांशहर जलंधर पंजाब की धरती पर साल था 1932 लेकिन फिल्मों की तरह ही जीवन से जुड़े किस्से भी रोचक रहे। 40 साल की उम्र में बॉलीवुड में फिल्म 'रेशमा और शेरा' से डेब्यू किया। जिसके बाद अपने पूरे करियर में 450 से ज्यादा फिल्में की। पिछले दिनों एक फ़िल्म देखी थी 'कामयाब... उम्मीदों के किस्से' हालांकि उस फिल्म की कहानी जैसा जीवन तो नहीं रहा अमरीश का लेकिन उस फ़िल्म की कहानी की तरह ही वे हमें डायलॉग जरूर दे गए फिर वो 'दिलजले' हो या 'मोगैंबो'। 


अमरीश पुरी ने फिल्मों में हीरो बनने के लिए जो स्क्रीन टेस्ट दिया था वे उसे पास नहीं कर पाए थे। इस बात से निराश हो उन्होंने मिनिस्ट्री ऑफ लेबर में काम किया। इसी दौरान उन्होंने स्टेज पर एक्टिंग और फिल्मी पर्दे पर विलेन के रुप में काम करना भी शुुरू किया। कुछ फिल्‍मों में सकारात्मक भूमिकाएं भी अदा की। दमदार और रौबदार आवाज के मालिक अमरीश पुरी के शानदार अभिनय को कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। 12 जनवरी 2005 को दुनिया को अलविदा कहने वाले इस शानदार अभिनेता ने इंडस्ट्री में एक लंबा समय बिताया। 



उनके कुछ किरदार अमर हो गए जैसे फिल्‍म 'नागिन' में तांत्रिक बाबा भैरोनाथ का किरदार फिल्‍म की जान बन गया। नागमणि में उनके गेटअप ने एक अलग ही मैनरिज्‍म क्रिएट किया। इसके अलावा मिस्‍टर इंडिया में मोगैंबो का किरदार बच्‍चे से लेकर बूढ़े तक को याद है आज भी। ‘मोगैबो खुश हुआ' डायलॉग हर किसी की जुबान पर आज भी चढ़ा हुआ है। आज भी लोग इस डायलॉग को बोलते हुए सुने जाते हैं। यह किरदार अमरीश को हमेशा के लिए लोगों के दिलों में जिंदा तथा सिनेमा के इतिहास में अमर कर गया। 



फिल्‍म तहलका में अपने एक अलग देश 'डांगरीला' बसाकर जुल्‍म और अत्‍याचार की इंतहा करने वाला संगीत प्रेमी जनरल डॉग के किरदार को कौन भूल सकता है। एक अन्य फ़िल्म जो दो दोस्‍तों की कहानी पर आधारित थी और नाम था 'सौदागर' , में दोस्‍त वीर और राजेश्‍वर के बीच झगड़ा कराने वाले चुनिया मामा के किरदार को भी शायद ही कोई भूल पाया हो। शकुनी मामा जैसे इस किरदार में अपने अभिनय से जान डालने वाले इस विलेन ने फिल्‍म 'दामिनी' में गुस्‍सैल और चीखने-चिल्‍लाने वाले बैरिस्‍टर इंद्रजीत चड्ढा का किरदार  निभाया जो उस जमाने के हर सिने फैन को अभी तक याद होगा। इस किरदार में अमरीश लीड एक्‍टर सनी देओल से कहीं भी कमतर नजर नहीं आए थे।



अमरीश ने पॉजिटिव यानी सकारात्मक किरदार भी निभाए। फिल्‍म 'दिलवाले दुल्‍हनिया ले जाएंगे' जो करीबन 20 साल तक मुंबई के मराठा मंदिर सिनेमा में चलती रही, में एक कड़क पिता चौधरी बलदेव सिंह के किरदार में उनके अभिनय को खूब सराहना मिली। इस किरदार में उनका ‘जा सिमरन जा, जी ले अपनी जिंदगी’ डायलॉग आज तक लोगों की जुबान पर चढ़ा हुआ है। हालांकि इस फ़िल्म को मैंने कई बार टीवी पर आते हुए देखा था। लेकिन हर बार रिमोट से चैनल बदल देता या कमरे से बाहर चला जाता था। कारण बस एक था किसी दिन मुंबई जाना होगा तो ट्रेन से ही सफ़र किया जाएगा। उसी समय यह फ़िल्म देखूँगा नहीं तो नहीं और यह छोटी सी ख्वाहिश पूरी हुई थी साल 2017 के मध्य में। 




ख़ैर इसी तरह फिल्‍म 'परदेस' में किशोरी लाल का किरदार भी कुछ ऐसा ही था। किशोरी लाल अपने बेटे की गलतियों पर पर्दा जरूर डालता है, लेकिन किसी की खुशियों की कीमत पर नहीं। इस किरदार को भी काफी सराहा गया था।

फिल्‍म 'कोयला' के राजा साहब भी बॉलीवुड के खतरनाक खलनायकों में आज भी गिने जाते हैं। 'ग़दर' आह इस फिल्‍म को भी शायद ही कोई भूल पाया होगा। फिल्‍म गदर में जितनी सराहना सनी देओल के दमदार डायलॉग्‍स को मिली, उससे कम सराहना अशरफ अली के किरदार में अमरीश पुरी को भी नहीं मिली। और इन दोनों के चलते ही मुक्कमल फ़िल्म बनी 'ग़दर एक प्रेम कथा'। साल 2001 में आई फिल्‍म 'नायक' सोशल-पॉलिटिकल फिल्‍म थी। इसमें भी अमरीश नेगेटिव रोल में थे और मुख्‍यमंत्री बलराज चौहान का किरदार निभाया था। इस किरदार में भी उन्होंने खूब तारीफ बटोरी। 



फिल्मों में आने से पहले अमरीश की दिली ख्वाहिश थी कि वे एक हीरो बने। इसके लिए उन्होंने एक  ऑडिशन भी दिया लेकिन साल 1954 में तब उन्हें एक प्रोड्यूसर ने उनको ये कहते हुए बाहर का रास्ता दिखा दिया कि उनका चेहरा बड़ा पथरीला सा है। वे निराश जरूर हुए लेकिन हार नहीं माने और रुख किया रंगमंच का। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के निदेशक के रूप में हिंदी रंगमंच को जिंदा करने वाले इब्राहीम अल्क़ाज़ी 1961 में उनको थिएटर में लाए।  कभी बंबई में कर्मचारी राज्य बीमा निगम में नौकरी कर रहा यह शख़्स थिएटर में सक्रिय हो गया। रंगकर्मी सत्यदेव दुबे के सहायक बने लेकिन छोटे कद के इस आदमी से सीखना उन्हें अजीब लगता  लेकिन बाद में वही उनका गुरु बना और अमरीश ने भी उन्हें पूरा सम्मान दिया। 




कर्मचारी राज्य बीमा निगम की अपनी करीब बीस साल से ज़्यादा की सरकारी नौकरी छोड़ देने वाला शख़्स उस वक़्त ए ग्रेड के अफसर थे। हालांकि वे नौकरी बहुत पहले छोड़ देना चाहते थे लेकिन गुरु सत्यदेव दुबे के कहने पर उन्होंने 

नौकरी नहीं छोड़ी। सत्यदेव ने कहा था कि जब तक फिल्मों में अच्छे रोल नहीं मिलते वे ऐसा न करें। आखिरकार डायरेक्टर सुखदेव ने उन्हें एक नाटक के दौरान देखा और अपनी फिल्म ‘रेशमा और शेरा’ (1971) में एक सहृदय ग्रामीण मुस्लिम किरदार के लिए कास्ट कर लिया। तब वे करीबन चालीस साल के थे। और किसने सोचा था कि एक दिन फिल्मी दुनिया में आने के लिए संघर्ष करने वाला यह इंसान खलनायिकी के लिए ही सबसे ज़्यादा रक़म वसूल करने वाला अभिनेता बनेगा तथा अपनी मनपसंद के मुताबिक फ़िल्म करेगा। उनकी आखिरी फ़िल्म साल 2005 में आई सुभाष घई की  ‘किसना- दी वरियर पोएट’ थी। 



अमरीश पुरी ने सत्तर के दशक में कई अच्छी फिल्में की।  सार्थक सिनेमा के अलावा कमर्शियल सिनेमा में भी उनका मुकाम जबरदस्त रहा। विधाता फ़िल्म के बाद घई की ही फ़िल्म ‘हीरो’ के बाद उन्हें कभी पीछे मुड़कर नहीं देखना पड़ा। हालात यहां तक हो गए कि कोई भी बड़ी कमर्शियल फिल्म बिना अमरीश पुरी को विलेन लिए नहीं बनती थी। 

सिनेमा में हर खलनायक का अपना स्टाइल, गैटअप, संवाद अदायगी का तरीका रहा है और वह उसी स्टाइल की बदौलत दर्शकों के दिलो-दिमाग पर तब तक राज करता रहा है जब तक कि नए विलेन ने आकर अपनी लम्बी लकीर न खींच दी हो।  के.एन.सिंह, प्रेमनाथ, प्राण, अमजद खान से शुरू हुआ यह सिलसिला अमरीश पुरी पर आकर ठहर सा गया था। इन हस्तियों ने खलनायक के स्तरीय एवं बहुआयामी चेहरे समाज एवं सिनेमा के सामने प्रस्तुत किए, जो आज भी हिन्दी सिनेमा में मानक माने जाते हैं।  



ऊंची कद-काठी और बुलंद आवाज के मालिक अमरीश इन सबसे आगे निकल गए और उनकी गोल घूमती आंखें सामने खड़े व्यक्ति के भीतर आज भी दहशत पैदा करने का माद्दा रखती है। यही कारण है कि उनकी फिल्में आकर चली जाती थीं, मगर उनका किरदार दर्शकों को बरसों तक याद रह जाता था। अमरीश पुरी अक्सर कहा करते थे कि वे 'लवेबल-विलेन' हैं। जब अमरीश पुरी ने अपने आप को विलेन के अवतार में ब्रांड बना लिया तो हॉलीवुड के बेताज बादशाह स्टीवन स्पीलबर्ग ने अपनी फिल्म 'इण्डियाना जोंस एंड द टेम्पल ऑफ डूम' (1984) में उन्हें मुख्य विलेन की भूमिका के लिए भी ऑफर दिया। अमरीश ने स्पीलबर्ग की अपेक्षाओं के अनुरूप काम भी किया और इससे उनकी पहचान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो गई। इसके बाद हॉलीवुड फिल्मों के कई ऑफर उन्हें मिले, मगर भारत में रहकर जो रोल मिले उन्हें करना ही उन्होंने अधिक मुनासिब समझा। 

 



अमरीश पुरी अपने समकालीन खलनायकों को अक्सर 'चॉकलेट बॉयज' कहकर बुलाते थे। उनके जैसे बहुआयामी अभिनेता को दिग्गज फिल्मकार श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, शेखर कपूर, सुभाष घई, प्रियदर्शन, राकेश रोशन, राजकुमार संतोषी मिले, जिन्होंने उनकी प्रतिभा को परखा और उन्हें संतुष्टि करते हुए उनकी पसंद के रोल उन्हें दिए। एक दौर था जब अमरीश पुरी की अभिनय क्षमता से उनके साथ काम करने वाले हीरो तक भी घबराते थे क्योंकि उनका मानना था कि फिल्म के तमाम सीन तो यह चुरा कर ले जाएगा। फिल्मी दुनिया का विलेन कैंसर की बीमारी की वजह से 12 जनवरी 2005 को यह दुनिया छोड़कर चला गया। उनके जाने के बाद सिनेमा को दूसरा वैसा दमदार खलनायक आज तक नहीं मिल पाया है।

 Artical By Tejas Poonia

 

Saturday, June 5, 2021

पर्यावरण दिवस देखें हमारे कैमरे की नजर से

 प्रकृति हमारी संपदा है। इसे सुरक्षित रखना हमारा दायित्व है। ये नहीं तो हम नहीं। इसलिए पर्यावरण दिवस मनाएं, पहाड़ों की सैर भी करें लेकिन अपने आस पास हर साल कम से कम एक पेड़ जरूर लगाएं। मात्र 20 से 50 रुपए भी आप पेड़ लगाने में खर्च करेंगे तो भी एक पेड़ लग जाएगा। और वह लाखों, करोड़ों की ऑक्सीजन, सांसें तुम्हें देगा। अपनी साँसों को खरीदने की बजाए खुद पैद करना सीखें। पर्यावरण दिवस पर देखें 20 बेहतरीन तस्वीरें उत्तराखंड की। हमारे ब्लॉग पर हमारे मोबाईल कैमरे से। 

(फोटो क्रेडिट - डॉ० राम भरोसे) 






















Wednesday, June 2, 2021

जातिगत ग़ुलामी की छटपटाहट और मुक्ति की आवाज है 'कर्णन'

 


ज़िंदगी भीख में नहीं मिलती, 

ज़िंदगी बढ़ के छीनी जती है

अपना हक़ संगदिल ज़माने से

छीन पाओ तो कोई बात बने. 


साहिर लुधियानवी साहब द्वारा लिखे इस गीत की इन पंक्तियों को चरितार्थ करती हुई फ़िल्म है ‘कर्णन’. 

‘कर्णन’ एक भारतीय तमिल भाषा की एक्शन फिल्म है जो अप्रेल 2021 को रिलीज़ हुई. फ़िल्म का निर्देशन ‘मारी सेल्वराज’ द्वारा किया गया और इसे 'क्रिएशन्स' के बैनर तले ‘कालाईपुली एस थानु’ द्वारा निर्मित किया गया है। फिल्म में मुख्य भूमिका में धनुष, लाल, नटराजन सुब्रमण्यम, योगी बाबू, राजिशा विजयन, गौरी जी किशन और लक्ष्मी प्रिया चंद्रमौली हैं. यह फिल्म दो बार देखी पहले हिंदी में दूसरी बात ‘तमिल’ में. तमिल में इसलिए जिससे यह पता चल सकें कि हिंदी में डबिंग करते समय कुछ चीज़ छूट तो नहीं गयी. (वैसे टूटी-फूटी तमिल समझ आती है) 



जातिगत ग़ुलामी की छटपटाहट और इस छटपटाहट से उत्पन्न एकता और उस एकता से हुई क्रांति और इस क्रांति से पैदा हुआ विद्रोह और उस विद्रोह से मिली मुक्ति को साफ़गोई से दिखाया गया है इस फ़िल्म में. और साफ़ शब्दों में तो ये फ़िल्म सदियों से जातिगत आधार पर सोची समझी साज़िश के तहत ग़ुलाम बनाकर रहने को मजबूर किए गए लोगों द्वारा उस ग़ुलामी से मुक्ति तक के संघर्ष को दिखाती है. 

फ़िल्म शुरू होती है एक युवा आदिवासी लड़की से जो बीमारी की अवस्था में है और वह बीच सड़क पर छटपटाते हुए दम तोड़ने से शुरू होती है. जबकि उसके आसपास से अनेक यातायात के साधन गुज़रते हुए दिखाई दे रहे हैं. असल में ये सारी कहानी की एक बस स्टॉप को केंद्र में रखकर बनी है. तमिलनाडु का दो दुर्गम आदिवासी गाँव ‘कोड़ियाँकुलम’ और ‘कन्निपीरन’ हैं, जहाँ आज़ादी के इतने वर्षों बाद तक भी कोई बस स्टॉप न होने के कारण कोई इस गाँव में कोई ड्राइवर बस नहीं रोकता और जिसके कारण कई अनहोनी इस गाँव के लोगों के साथ घटती रहती है. जबकि बस स्टॉप के लिए कई बार गाँव वाले अर्ज़ी भी दे चुके हैं, जो हमेशा निरस्त कर दी जाती हैं. बस सारी कहानी इसी के इर्दगिर्द घूमती है. नायक ‘कर्णन’ की बहन एक दिन इसी के चलते सड़क पर तड़पते हुए दम तोड़ देती है. बस रुकवाने के लिए गाँव वाले तरह तरह के जतन करते नज़र आते हैं.

कथित नीची जाति के व्यथित गांववाले, जिन्हें अत्याचार, गरीबी और दुत्कार के अलावा समाज ने कुछ और नहीं दिया. यहाँ तक जीने का अधिकार तक छीनना चाहते हैं लोग. फ़िल्म में कुछ सीन बीच बीच में आकर व्यथित भी करते हैं जैसे 

मुर्गी लेकर चील का उड़ जाना, बंधे पांव घूमने वाला एक गधा जो ग़ुलामी का प्रतीक दिखाया गया है, फिल्म की आखिर में कर्णन इस गधे की पैरों की रस्सियों को काटकर उसे आज़ाद कर देता है, जमीन पर रेंगने वाले छोटे-छोटे कीड़े, जलसे में नज़र आने वाला हाथी, खाने की थाली पर मंडराने वाली बिल्ली. फिल्म के अंत तक ये सारी चीज़ें सोचने पर मजबूर कर देती हैं. 

फिल्म का नायक कर्णन (धनुष), जो तमाम गांववालों के लाख बार समझाने के बाद भी उनके अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्षरत रहता है. कर्णन जो फ़िल्म का नायक है, अपने वंचित और दबे-कुचले समुदाय के अधिकारों के लिए लड़ रहा है। दूसरे अर्थों में यदि देखें तो, फिल्म में दिखाया संघर्ष के वर्तमान समय का प्रतीक भी है और माँग भी. ये अधिक गहरी जड़ें जमाने वाली फिल्म है। ख़ास बात यह लगी कि फ़िल्म के हीरो को लेखक व निर्देशक ने बेचारा टाइप का नहीं दिखाया है जैसा कि आम फ़िल्मों में वंचित समुदाय से आए नायक को दिखाया जाता है. फिल्म के नायक कर्णन को पहले हाथी और बाद में तलवार सहित घोड़े पर दिखाना भी एक बहुत बड़ा प्रतीक फिल्म निर्देशक दिखाना चाह रहे हैं.

निश्चय ही इस फ़िल्म के लिए यह बिल्कुल आसान समय नहीं होगा. क्योंकि यह फ़िल्म पूरी तरह से जातिगत भेदभाव से उत्पन्न हिंसा को दिखाता है. और वैसे भी बड़े तबके का हीरो या नायक किसी फ़िल्म में जितनी मर्ज़ी हिंसा करें उसका समाज स्वागत करते हैं और बड़े चाव से देखकर ताली बजाते हैं, विरोध नहीं. जबकि दलित-आदिवासी या वंचित समुदाय के व्यक्ति को जब नायक के रूप में दिखाया जाता है तो दूसरे समाज के मन में तुरंत हरीशचंद्र जाग उठता है और यदि वो नायक कर्णन जैसा हो तो आप उसके विरोध को स्वाभाविकता से समझ सकते हैं. पर्दा हो या असल जीवन दलित-आदिवासी को लोग ज़मीन पर रेंगता हुआ देखना चाहते न कि नायक के रूप में. रजनीकांत की ‘काला’ फ़िल्म भी एक उदाहरण है.

फ़िल्म के दो सीन के बारे अवश्य लिखना चाहूँगा - एक सीन आता है जब गाँव वाले बस तोड़ देते हैं और बस मालिक उनके ख़िलाफ़ एफ़॰आई॰आर॰ कर देता है जाँच अधिकारी एक आईपीएस अधिकारी है. जब वो गाँव वालों से उनका नाम पूछता है, तो जब वे अपना नाम बताते हैं, तब वो आईपीएस अधिकारी उनको यह कहते हुए पीटना चालू कर देता कि ‘तुम छोटे लोग बड़े नाम कैसे रख सकते हो? बड़े नाम रखकर तुम हमारे सर पर कैसे बैठ सकते हो?’ उसके बाद वही पुलिस अधिकारी असंवैधानिक तरीके से गाँव के कुछ मुख्य लोगों को थाने में बुलाकर फिर उनके नाम को लेकर उन्हें पीटना शुरू कर देता है. तथाकथित एक विशेष वर्ण के लोग कभी नहीं चाहते कि उनके हिसाब से छोटे समुदाय से आने वाले लोग उनके जैसे बड़े अर्थों वालों नाम रखें. इसका प्रमाणिक उदाहारण आप खुद भी देख सकते हैं. 

दूसरा सीन इसी सीन के बाद आता है जब फिल्म के नायक को पता चलता है कि गाँव के जो लोग थाने गए थे वे अगले दिन तक भी वापस नहीं आयें हैं, वो ट्रेक्टर-ट्रोली लेकर उन साथियों को थाने से छुड़ाने के लिए गाँव वालों के साथ चल पड़ता है. थाने के भीतर से जब कर्णन को कोई सही बात पता नहीं चलती तो वह थाने के बाहर बनी चाय की गुमटी में काम करने वाले लड़के से सब पता कर लेता है. फिर शुरू होता है फिल्म का असल संघर्ष- सभी साथी थाने पर हमला बोल देते हैं और वहां से अपने घायल साथियों को छुड़ाकर गाँव वापस ले आते हैं. आज़ादी के लिए किया गया ये संघर्ष कोई मामूली संघर्ष नहीं है, बल्कि अत्याचार की जब चरम सीमा पार हो जाती है तो प्रतिकार ज़रूरी हो जाता है, फिर अंजाम जो हो. 

आप फिल्म के पात्रों के नाम सुनकर कह सकते हैं कि निर्देशक एक मायथॉलोजी रच रहे हैं,  इसका निर्णय आपके विवेक पर है.  

मगर इससे भी महत्वपूर्ण बात है कि यह फ़िल्म को दर्दनाक तरीक़े से विस्तार में दिखाया गया है कि दबे हुए समुदाय के लोग जब एकजुट होकर अपना नायक खुद चुनते हैं तो क्रांति निश्चित है. लेखक/निर्देशक मारी सेल्वराज को हार्दिक बधाई व धन्यवाद देना चाहूँगा कि वे इस पूरी फ़िल्म में एक उद्देश्य को लेकर चले और बिना भटके उस उद्देश्य की पूर्ति करते हुए फ़िल्म पूरी की.

इस फ़िल्म की सफलता आपको तब भी लगेगी जब आप इसका आखिरी सीन देखेंगे. आख़िरी सीन में फ़िल्म का घेरा आकर पूरा होता है. मतलब कहानी जहां से अंकुरित होता है वही आकर पूरा पेड़ बनता है. क्योंकि फ़िल्म की कहानी जहां से शुरू होती है, वहां से पूरे विस्तार से बिना किसी भटकाव आगे बढ़ाई जाती है. जितने भी सब-प्लॉट्स खुलते हैं, सब अपने मुकाम तक पहुंचते हैं.

इस फ़िल्म की सबसे ख़ास बात जो इसे अन्यों से अलग करती है कि फ़िल्म निर्देशक ने इसकी कहानी पर्सनल रिवेंज (बदला) के स्थान पर सोशल जस्टिफ़िकेशन पर आधारित रखी, जो इसका बहुत महत्वपूर्ण पहलू है. और फ़िल्में अक्सर इस विषय पर मात खा जाती हैं. ये फ़िल्म अपने मुख्य मुद्दे से फिल्म रत्ती भर भी इधर-उधर होती नहीं दिखी. इन्हीं बातों से फिल्मों को बनाने वालों की नीयत पता चलती है, जो कि यहां बड़ी साफ और स्पष्ट लगती है.

अभी एक जगह पढ़ा कि फिल्म को लेकर एक विवाद भी सामने आया है जो इस प्रकार है- कि “यह 1995 के कोडियांकुलम हिंसा पर आधारित है, जहां उच्च जाति के गांव के पुरुषों के इशारे पर, लगभग 600 पुलिसकर्मियों ने तमिलनाडु के थूथुकुडी जिले के कोडियानकुलम के दलित गांव पर हमला किया था। उन्होंने संपत्ति को नष्ट कर दिया और लोगों को लूट लिया, सभी को दबे और भौतिक रूप से गरीब रखने के लिए। जबकि निर्देशक ने इस तरह के कनेक्शन से इनकार किया है, उन्होंने कहा है कि प्रेरणा हमेशा हमारे आस-पास की घटनाओं से ली जाती है, हालांकि सच्चे इतिहास को चित्रित करना सिनेमा का काम नहीं है। डीएमके पार्टी ने इस तथ्य पर नाराजगी जताई कि फिल्म को 1997 में आधारित बताया गया था जब वे सत्ता में थे, जबकि वास्तव में कोडियानकुलम की घटना 1995 में हुई थी जब सत्ताधारी पार्टी अन्नाद्रमुक थी।“ वैसे इसकी पुष्टि विकिपीडिया से भी हुई.

खैर विवाद तो हमारे देश में अलग-अलग बातों को लेकर चलते रहते हैं. पर यह फ़िल्म देखने के बाद ऐसा लगा, मानों लंबे समय बाद एक कंप्लीट फिल्म देखी. जो सामाजिकता की प्रासंगिकता से उत्पन्न जागरूकता को सिद्ध करती है यह फ़िल्म आपको देखनी ही चाहिए. बाकी और भी बहुत कुछ हैं इस फिल्म में जो आप देखेंगे और जातिगत पीड़ा के दंश के साथ उससे उत्पन्न क्रांति को मेहसूस करोगे. कोई फ़िल्म समीक्षक नहीं हूँ यदि होता तो मेरी रेटिंग होती 4 स्टार.

कर्णन के एक संवाद से ही एक लेख का अंत करना उपयुक्त होगा-

“हम वैसे ही ख़तरे में थे, फ़र्क़ क्या पड़ता है?

क्या करना था 

ये हमारी इज्जत, हमारा सम्मान हमसे छीनना चाहते हैं. तुम लोग अब भी डर रहे हो.

ऐसे कीड़े की तरह जीने का क्या मतलब है. कितनी पुश्तों से ऐसे जीते आए हैं और कितनी पुश्तों तक ये चलेगा?

शर्म नहीं आती ये कहने में कि भाग जाओगे अपने बच्चे लेकर. वो बस के लिए हमें नहीं मार रहे हैं इसलिए मार रहे हैं कि हमारा सिर ऊँचा है. कीड़े की तरह जीना पसंद है तुमको, जो भी कीड़े तरह जीना चाहता है वो ऐसा ही बना रहे, कोई नहीं रोक रहा. लेकिन हमने सिर उठाकर जीना सीखा है और अब वापस झुककर जीने को तैयार नहीं. तो अब हम लड़ेंगे. पुलिस हो आर्मी हो हम आख़िरी साँस तक लड़ेंगे.”


फ़िल्म देखने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें। 

https://youtu.be/GXFmRawZ22A


समीक्षा  

डॉ० राम भरोसे 

असिस्टेंट प्रोफेसर (हिंदी)

राजकीय महविद्यालय पोखरी (क्वीली)

टिहरी गढ़वाल (उत्तराखंड)