कुछ ऐसे जुनूनी व्यक्ति जीवन में मिल जाते हैं, जो अपनी जन्मभूमि से इस कदर इश्क करते हैं कि लैला-मजनू की मोहब्बत भी उसके सामने फीकी लगने लगती है. ऐसे ही जन्मभूमि से प्रेम करने वाले हैं हमारे मित्र श्री महीपाल सिंह नेगी जी. हमारे उत्तराखण्ड के टिहरी गढ़वाल से सम्बन्ध रखने वाले महीपाल जी का काम पुरे जिले में ही नहीं अपितु पूरे उत्तराखंड में इनका नाम है. जब भी उत्तराखंड की सभ्यता-संस्कृति, लोक संस्कृति, संगीत, भाषा-बोली, पत्रकारिता, पहाड़ की असल समस्याओं का जिक्र कहीं आता है तो आदरणीय महीपाल जी की चर्चा होती है. यदि उत्तराखंड के Encyclopedia इनको कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. क्योंकि उत्तराखंड बनने से पूर्व के संघर्ष से लेकर आज तलक श्री महीपाल जी उत्तराखंड के जीवन को पूर्णत: स्वीकार करते हैं. मेरा परिचय सर से जब हुआ था जब जून 2020 में मैंने लोक साहित्य विषय पर एक राष्ट्रीय वेबिनार आयोजित किया था तो महीपाल सर उसमें विशेष व्याख्याता थे. उनका व्याख्यान जल्द ही आपको मेरी आगामी आने वाली पुस्तक “लोक साहित्य: विविध आयाम” में पढेंगे.
तब से आज तक महीपाल सर और मैं वर्चुअल दुनिया में लगातार एक-दूसरे को फॉलो कर रहे हैं. जल्द ही उनके साक्षात्कार हेतु उनसे समय लिया जायेगा, उसके बाद आप उनको और उनके काम को विस्तार से जान समझ-पाएंगे. चूँकि सर उत्तराखण्ड की पत्रकारिता के मूल से जुड़े हैं और अपनी कलम राष्ट्रीय और स्थानीय मुद्दों पर बेबाकी से चलाते हैं, जो उनके साहसिक होने को प्रमाणिक करता है. वास्तव में पत्रकार का अर्थ महीपाल सर को देखकर ही समझ आता है. ऐसा नहीं है कि वो केवल लिखते हैं बल्कि अपने क्षेत्र और राज्य की समस्याओं को लेकर समय-समय पर राज्य और स्थानीय प्रशासन को लिखित रूप में अवगत कराते रहते है और प्रशासन को मजबूरन उनकी बात सुननी पड़ती है और उस पर सकारात्मक कार्यवाही भी की जाती है.
कोविड के समय भी महीपाल सर लगातार अपने आस-पास के लोगों तक हर संभव खुद भी पहुंचाते रहे और अन्यों को प्रेरित करते रहे.
हालाँकि पिछले कुछ समय से महीपाल सर से सम्बन्धित जानकारियां आपसे साझा करने का प्रयास कर था पर समयाभाव के चलते संभव नहीं हो पा रहा था. आज जो विशेष महीपाल सर के विषय में जिक्र करने का उद्देश्य है वो है उनकी सम्पादित पुस्तक ‘घसियारियों के गीत बाजूबंद’ के बारे में आप लोगों से साझा करना.
यह पुस्तक समय साक्ष्य प्रकाशन, देहरादून से 2017 में प्रकाशित हुई थी, परन्तु मेरा दुर्भाग्य रहा कि यह मुझे 2022 उपलब्ध हो सकी. यह पुस्तक पहाड़ की उन सभी घसियारियों को समर्पित हैं, जिन्होंने, जंगलों व वनों में घास (चारा) काटने के दौरान ढंगारों में गिरने, वनाग्नि में जलने, गाड-गधेरों में बह जाने, नरभक्षी बाघों, भालुओं व सुअरों के हमले या ससुराल में उत्पीड़न पर फाँसी लगाने से प्राण त्यागे हैं। उत्तराखण्ड में ऐसी घटनाओं में आज भी हर वर्ष दर्जनों घसियारी महिलायें मारी जाती हैं। वे घास लेने जंगल जाती तो हैं, लेकिन जिन्दा लौटकर नहीं आती। बस बेचारी बन कर रह जाती हैं। ऐसी अनेक घटनाओं पर लोकगीतों की रचनायें भी होती रही हैं।
गढवाली 'बाजूबन्द' शैली के इन दो छन्दों में दो घसियारियों की असह्य पीड़ा का अन्त कुछ ऐसे हुआ। देखिये -
कोठारी क खाना ।
गाड पड़ी जौला दीदी, घास क बाना
कागज क तऊ ।
गाड पड़िगैन द्वीई बैणी, तिलपाड़ा रऊ ।
दो बहनों ने तय किया कि वे घास के बहाने जायेंगी और गाड में छलांग लगाकर आत्महत्या कर देंगी। फिर खबर आ गई कि दोनों बहनें एक गाड के तिलपाड़ा नाम के ताल में डूब कर मर गई।
ऐसी ही तमाम पीड़ाओ की झलक आपको इस संकलन में एहसास होगी. चूँकि आजकल हिमांचल प्रदेश में हूँ तो यहाँ के अपने साथियों को भी इस संकलन के विषय में जानकरी प्रदान की, और इसके गीत उनसे साझा किये. क्योंकि पहाड़ और वहां की अधिकांश समस्याएँ समान हैं भले ही तो उत्तराखण्ड हो या हिमांचल.
और अंत में इसी पुस्तक से अन्य बाजूबंद साझा कर रहा हूँ, जिसमें समाहित असहाय पीड़ा को आप महसूस करेंगे.
'बाजूबन्द' शुरू करने वाली घसियारी की व्यथा भी कुछ कम नहीं है। अपने उपरोक्त गीत में वह कहती है कि, माँ के प्रिय बेटे तो माँ के संग हैं। वह तो पराई थी, इसलिये व्याह दी गई।
मांजी जाला भाँडा, बै मांजी जाला भाँडा । घास काटी काटी मेरा, हाथ बैठ्या काँडा । बै हाथ बैठ्या काँडा ।।
दूसरी घसियारी भी अपनी व्यथा प्रकट करती है कि घास काट-काट कर उसके हाथों में कांटे बैठ गये हैं।
कागज की डैरी, बै कागज की डैरी । माँ का लाडा माँ म, मैं माँजी की बैरी । बै मैं माँजी की बैरी ।।
चाँदी शिशफूल, बै चाँदी शिशफूल।
बाबा कू लाड़ीक होंदी, जांदी इसकूल ।
बै जांदी इसकूल ।।
मरचू क फेरा, बै मरचू क फेरा ।
बाबा जी न पाली सैंती, जा बेटी आखीर ।
बै जा बेटी आखीर ।।
दोनों घसियारियों में दुःख दर्द व व्यथा प्रकट करने का सिलसिला जैसे चल पड़ता है। एक कहती है कि माँ के प्रिय बेटे माँ के पास हैं, मैं तो उनकी दुश्मन थी। दूसरी घसियारी का दर्द भी छलक पड़ता है। कहती है, यदि मैं पिता का बेटा होती तो स्कूल जाती। पहली घसियारी की व्यथा एक बार फिर एक और गीत में छलक पड़ती हैं। कहती है, पिता ने पहले पाला-पोसा और फिर कहा, जा बेटी आखिर ससुराल तो जाना ही है।
धन्यवाद सहित
डॉ० राम भरोसे
07.04.2022
शिमला
🙏🏻📚🙏🏻