Wednesday, October 10, 2018

हिजड़ा समुदाय के घुटते जीवन का यथार्थ : एक सामाजिक एवं साहित्यिक अध्ययन : भाग 2


बड़ी ही विरोधाभासों से भरी हमारी दुनिया है कि लिंग पूजने वाले इस समाज में लिंगविहीनों का कोई स्थान ही नहीं है और न हमारा समाज इन्हें बर्दाश्त ही नहीं कर पाता है । आखिर कब तक 

चलिए देखते हैं आगे भाग - 2 में 




इस अन्याय को वे जीवन भर ढोते हुए जीवन भर अपने अस्तित्व की तलाश में भटकते हुए मर जाते हैदुर्भाग्यवश उन्हें कभी अपनी वास्तविक पहचान प्राप्त नहीं हो पाती है। वे हमारे बीच नगण्य होकर रहते हैंकोई उन्हें समाज के हिस्से के रूप में नोटिस तक नहीं करता है। यह भी बताना समीचीन है कि


हिजड़ा समुदाय के अपने कुछ सिद्धान्त होते हैंनियम-कायदे होते हैं। अक्सर जिन्हें हम नजरअंदाज कर देते हैं और उन पर नाना प्रकार के आरोप लगाते हैं। पहला इस समाज में पूर्ण स्त्री और पुरुष के साथ सम्बंध रखना व उन्हें अपने समाज में शामिल करना। दूसरा समलैंगिक सम्बंधों को विषमलिंगी विवाह की मान्यताओं से बाहर स्थापित करना। तीसरा इस समुदाय के लोगों का सिग्नलरेलवे स्टेशन अन्य सार्वजनिक स्थलों पर भिक्षावृत्ति व वैश्यावृत्ति में संलिप्तता। साथ ही भी हमारे समाज में गलत धारणा ही है कि ये चौरी और हिंसा करते है। जानकारी के लिए बता दें कि ये सब गलत कार्य हिजड़ा समुदाय में अपराध माने जाते हैं। इस समुदाय के भीख मांगने और वैश्यावृत्ति को पेशे के रूप में अपनाने वाले लोगों को दंड तक दिया जाता है। क्योंकि उनके समुदाय में भीख मांगनाचोरी या हिंसा करना भयंकर पाप माना जाता है। यह समुदाय अपनी इस योनि में पुनः पैदाइश से डरता है। इसी कारण वह किसी का भी दिल दुखाने व जीव हत्या को पाप मानता है। लेखिका नीरता माधव कृत ‘यमदीप‘ में महताब गुरु कहते हैं ‘‘अरेहम तो खुद ही डरते हैं कि कहीं हमसे किसी का दिन न दुःख जाए। एक चींटी भी पैर के नीचे पड़ जाती तो सोचते हैं कि इसके अंडे होंगे...."7 

 


किसी मर्द को ‘हिजड़ा‘ कहे जाना अच्छा नहीं लगतासुनकर ऐसा लगता है मानो पिघला शीशा कानों में डाल दिया होपरन्तु हिजड़ा को हिजड़ा कहो तो भले ही उसको गाली सी न लगती होलेकिन कहीं उसके अंतस तक उसके मन में कचोट जरूर होती है कि आखिर ईश्वर ने उसके साथ अन्याय क्यों कियाक्यों हम उन्हें अपने से दूर सामाजिक दायरे से बाहर हाशिए पर धकलते चले आ रहे हैमहेन्द्र भीष्म इस विषय में अति संवेदनशील बात लिखते हैं, ‘‘किसी किलर के साथ बेहिचक घूमनेटहलने या उसे अपने ड्राइंग रूम में बैठाकर उसके साथ जलपान करने से हम नहीं हिचकते हैं फिर हिजड़ा तो ऐसा कोई काम नहीं करता जो कि किलर करता हैतो हम हिजड़ों से क्यों हिचकते हैंआखिर क्यों?‘‘8 यह मुद्दा गंभीर ही नहीं अपितु अति विचारणीय भी है कि इस समुदाय को अपने साथ समाज की मुख्यधारा से अवश्य जोड़ना होगाउनका पूरा आदर करना होगा। उनके अनुसार उन्हें रोजगार देने में उनकी हर संभव मदद की जाये। इतना ही सरकार की ओर से इनके रोजगार और पुनर्वास की संपूर्ण व्यवस्था होनी ही चाहिए। वे भी हमारे जैसे ही किसी मां-बाप की संतान हैं। उनकी मांग भी मुख्तसर सी है कि उन्हें हिजड़ा नहीं इंसान समझा जाए। इन्हें हिकारत की नजर से न देखा जाएजो भी बोला जाए अच्छा या बुरा वो प्यार से। जब हम जानवरों के प्रति दयालुता दिखा सकते हैंतो इनके प्रति क्यों नहींजबकि ये तो हमारे-तुम्हारे जैसे इंसान ही है। 






वैसे हिजड़ा कहा जाना हिजड़ों को ही पसंद नहीं आताअब प्रश्न उठता है कि इस समुदाय के लोगों को क्या कहकर संबोधित किया जाए। (हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने इन्हें थर्ड जेंडर‘ नाम की संज्ञा दी है) समाज में मुख्यतः इन्हें हिजड़ा‘ एवं किन्नर‘ शब्दों से संबोधित किया जाता हैपरन्तु इन दोनों शब्दों में पर्याप्त अंतर है और साहित्य जगत में इन शब्दों को लेकर काफी विवाद भी हुआ है। एक पक्ष जहां हिजड़े‘ को किन्नर‘ शब्द से संबोधित करता है क्योंकि वे किन्नर‘ शब्द का उनके प्रति प्रयुक्त होने वाला एक सम्मानित शब्द मानते हैं और उस शब्द प्रयोग करते हैं। या कहे तो हिजड़ों के लिए किन्नर‘ शब्द रूढ़ हो गया है। इस पक्ष में प्रबुद्ध बुद्धिजीवी लेखक-विचारक महेन्द्र भीष्म (किन्नर कथा के लेखक) किन्नर‘ शब्द के इस्तेमाल पर जबरदस्त तर्क देते हुए लिखते हैं, ‘‘‘अछूत‘ से हरिजन‘, ‘हरिजन‘ से दलित शब्दविकलांग को अब दिव्यांग शब्द सम्मान के लिए मिला। वे अपने को दूसरों से कमतर या हीन न समझेंइसलिए न। फिर क्यों किन्नोर वासियों कोकुछ बुद्धिजीवी लेखकों को हाषिए से दूर कर समाज में सम्मान दिखाने की गरज से हिजड़ा‘ को किन्नर‘ शब्द दिये जाने पर आपत्ति हो जाती है।‘‘9 आगे अपनी बात पर जोर देते हुए कहते हैं, ‘‘मैं किसी हिजड़ा‘ को हिजड़ा‘ सम्बोधन नहीं देता न अनावष्यक लिखता हूँउन्हें किन्नर‘ कहता हूँ और किन्नर‘ ही लिखता हूँ ठीक उसी तरह जैसे विकलांग‘ को दिव्यांग‘ और हरिजन‘ को दलित‘ कहतालिखता हूँ।‘‘10 वही प्रबुद्ध साहित्यकार एस.आर. हरनोट इसके बिल्कुल विपरीत सोच रखते हैं। उनका तर्क इस प्रकार हैं, ‘‘हिमाचल के जनजातीय जिला किन्नौर को कालान्तर में किन्नर देष‘ के नाम से जाना जाता था। इसके निवासी किन्नर‘ कहलाते थे।...............यहां रहने वाली जनजाति आज भी किन्नर‘ और किन्नौरा‘ से जानी जाती है जिसे 1956 में भारतीय संविधान की अनुसूची में शामिल किया गया।‘‘11 अपनी बात के पक्ष में लिखते हैं, ‘‘आश्चर्य तो तब होता है जब हमारा वह वर्ग जिसे हमारा देष बुद्धिजीवी वर्ग कहता है जिसमें लेखक सबसे समझदार और सजग माना जाता हैवहीं किन्नर शब्द का प्रयोग हिजड़ा समुदाय के लिए करने लग जाए तो उसे क्या माना जाएअज्ञानता या बेवकूफी?‘‘12 असल में हिमाचल में इन दोनों शब्दों में विवाद की शुरूआत तब हुई जब शबनम मौसी को मीडिया ने किन्नर‘ शब्द से संबोधित किया। मधुर भंडारकर ने अपनी फिल्म ट्रैफिक सिग्नल‘ में भी परेश रावल द्वारा तृतीय प्रकृति मनुष्य की भूमिका को प्रमुखता से जनता के समक्ष प्रस्तुत करने के उद्देश्य से पहले मीडिया में अपने साक्षात्कार के दौरान कहा कि उन्होंने फिल्म में किन्नरों से भी काम करवाया है। मीडिया ने भी बिना शब्द को जांचे इसे प्रसारित करवाया और दर्शक के रूप में करोड़ो की संख्या में जुड़े लोगो ने भी किन्नर शब्द को हिजड़े शब्द का पर्याय समझ उसे मान लिया।

सामान्यतः हिजड़ा‘ और किन्नर‘ एक ही समझे जाते हैंपरन्तु इनमें शाब्दिक ही नहीं अपितु अर्थ भेद भी है। जिसको लेकर काफी विवाद भी है। किन्नर‘ हिमाचल प्रदेश में बसने वाली एक जनजाति हैजो सामान्य स्त्री-पुरुष की भांति व्यवहार करते हैंजबकि हिजड़ा‘ मतलब जो न पूर्ण स्त्री है न पुरुष। हिजड़ा सुनना हिजड़ों को ही पसंद नहीं हैइसलिए उनका भी मानना है कि उन्हें हिजड़ा‘ कहकर न पुकारा जाए बल्कि किन्नर‘ कहा जाए। अब साहित्यिक रूप से भले ही दोनों शब्दों में विवाद होपरन्तु यदि किन्नर‘ सुनना उनको बुरा नहीं लगतातो इसमें कोई बुराई नहीं। और वैसे भी जिस प्रकार दलितों को हरिजन‘ शब्द से घृणा है उसी प्रकार किन्नर भी हिजड़ा‘ शब्द से आहत होते हैं।



दोनों शब्दों में भेद जानने के साथ उनके अर्थ पर संक्षेप दृष्टि डालना अपरिहार्य है, जिससे और भी स्पष्ट हो सके कि आखिर मूल अंतर क्या है? किन्नर को हिजड़ा मानने का जो बड़ा भारी भ्रम अधिकांशतः भारतीय जनता द्वारा पाल लिया गया है और जो बुद्धिजीवी वर्ग और मीडिया द्वारा पोषित भी हो रहा है, उसे तोड़ते हुए दोनों शब्दों में भेद बताना आवश्यक है। लेखिका अभिलाषा सिंह अपने आलोचनात्मक लेख में इन दोनों शब्दों के अंतर स्पष्ट करते हुए लिखती हैं, ‘‘सबसे पहली बात कि किन्नर हिजड़े होते ही नहीं। वह सामान्य व्यक्ति ही हैं जिन्हें ईश्वर ने लैंगिक स्तर पर पूर्णता बख्शी है। जिसके आधार पर वह स्वयं को स्त्री या पुरुष के किसी एक क्षेत्र में स्थापित कर सकता है। वास्तव में किन्नर हिमांचल प्रदेश की एक जनजाति है जो किन्नौर नाम जनजातीय जिले के निवासी हैं इन्हें किन्नौरभी कहते हैं।‘‘13

नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा 12 खंडो में प्रकाशित हिन्दी विश्वकोश (1963) के तृतीय खण्ड में पृष्ठ सं. 8 पर किन्नर की परिभाषा दी गयी है जिसमें स्पष्ट लिखा है कि यह हिमांचल के क्षेत्र में बसने वाली एक मनुष्य जाति हैसंभवत इसी संदर्भ में नागार्जुन ने भी देवदारू कानन कहा होगा। इससे भी अधिक प्रमाण के लिए महापंडित राहुल सांकृत्यानन ने किन्नौर जिसे वे प्रमाण के साथ प्राचीन किन्नर देशमानते हैं, इस क्षेत्र की अनेक यात्राएँ की हैं और कई पुस्तकें भी प्रकाशित की है। उनकी पुस्तकें किन्नर देशहिमांचलइस विषय में पठनीय है। संस्कृत साहित्य के भारवि के किरातार्जुनियमके हिमालय वर्णन खंड में, बाणभट्ट की कादम्बरी‘, ‘वायुपुराण‘, ‘मत्स्य पुराण‘, ‘हरिवंस पुराण, महाभारत के शांतिपर्व, दिग्विजय पर्व, सुत्तपिटक और विशेषकर कालिदास के कुमार संभवके प्रथम सर्ग में ही किन्नरों का मनोहारी वर्णन है। शतपथ ब्राह्मण (7.5.2.32) में अश्वमुखी पक्षी वाले किन्नर का वर्णन है। बौद्ध साहित्य में किन्नर की कल्पना मानमुखी पक्षी के रूप में की गयी है। मानसार में किन्नर के गरुड़मुखी, मानव शरीरी और पुशुपदी रूप का उल्लेख मिलता है।  अतः स्पष्टतः कह सकते हैं कि संस्कृत-हिन्दी साहित्य में जिस किन्नर की चर्चा हुई है वह वास्तव में हिजड़ा समुदाय नहीं है, बल्कि वह एक अलग जाति है। ‘‘किन्नर हिमालय में आधुनिक कन्नोर प्रदेश के पहाड़ी लोग, जिनकल भाषा कन्नौरी, गलचा, लाहौली आदि बोलियों के परिवार की है" https://hi.wikipedia.org (विकिपीडिया से) 

समाजशास्त्रीय रूप से अक्सर हम जिस लोक साहित्य का जिक्र करते हैं, जो अधिकांशतः लोक के बीच है, न कि लिखित रूप में और जहां हम इस वर्ग की एक खास अवसर पर मांग भी करते हैं वहाँ देखा जाए तो हम इन्हें लोक में गिनते तक नहीं। गिने-चुने अवसरों पर शुभ मानने के अतिरिक्त हम इनके लिए करते ही क्या है? ये कहाँ से आते हैं, कहाँ जाते हैं, कहाँ और कैसे जीते हैं और कैसे मर जाते हैं, कुछ भान ही नहीं और ये भी पता नहीं चलता कि जन्म किस सभ्य के घर लिया था। बस आये, गाया-बजाया, नेग लिया और निकल गये। यह वह उपेक्षित वर्ग है, जिनके अस्तित्व के बारे में हम मानते तो हैं, पर जानते कुछ नहीं।

जिस प्रकार हिजड़ो के जन्म के विषय में नहीं जानते, उसी प्रकार इनकी मृत्यु के बारे में कई गलत धारणाएं प्रचलित है। आम लोगों की अवधारणा है कि हिजड़ों का अन्तिम संस्कार के लिए ले जाते हैं, तो उसको मारते हुए ले जाते हैं। लेकिन डॉ. फिरोज की मनीषा महंत (थर्ड जेंडर) से हुई बातचीत से यह स्पष्ट हो जाता है कि इनके अंतिम संस्कार के विषय में मनीषा महंत कहते हैं, ‘‘हा हा हा हा, नहीं ऐसा कुछ नहीं है, ये धारणा आम लोगों द्वारा बनायी हुई है, ये सिर्फ एक अफवाह मात्र है, किसी किन्नर की मृत्यु या इंतकाल होने पर उसको उसके परिवार और रिष्तदारों की मौजूदगी में दफनाया जाता है या अंतिम संस्कार किया जाता है, किसी किन्नर की मृत्यु होने पर उसके परिवारजनों जैसे कि माँ-बाप, भाई-बहन सबको बुलाया जाता है, भला कोई परिवार वाला अपने किसी अपने के साथ ऐसा करने देगा क्या? जहाँ किसी किन्नर का डेरा होता है, वहां भी उसके चाहने वाले या शुभचिंतक होते हैं, भला कोई अपने किसी चाहने वाले के साथ ऐसा करने देगा क्या? ये आम लोगों द्वारा बनायी हुई एक अफवाह मात्र है, सिर्फ एक धारणा है"..... हम कोई क्रिमनल या चोर डाकू थोड़े ही हैं, हमें भला किसका डर है। हम रात के अंधेरे में किसी का संस्कार करेंगे । किसी भी किन्नर का संस्कार दिन के उजाले में और उसके परिवारजनों और शुभचिंतको की मौजूदगी में होता है"14  एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह भी है कि किन्नरों के गुरु की मृत्यु पर एक महासम्मेलन का आयोजन किया जाता है, जिसमें देश-विदेश से कई किन्नर एकत्रित होते है। इस महासम्मेलन को बुजुर्गों का घड़ाके नाम से जाना जाता है। सब एक स्थान पर एकत्रित होकर साथ-साथ शोक मनाते हैं, एक महाभोज का आयोजन भी होता है।


भारतीय समाज अनेकता में एकता का प्रतीक कहा जाता है, परन्तु मेरे विचार से हमारा समाज विविधताओं और विषमताओं का विश्व में सबसे बड़ा उदाहरण कहा जा सकता है। हमारे समज की संरचना में वर्णभेद, जातिभेद, पूंजीवाद, ब्राह्मणवाद सदा से ही इतना प्रभावी रहा है कि इसमें कुछ समुदायों को छोड़कर किसी इंसान को इंसान के रूप में मान्यता ही नहीं दी गयी। समाज को कभी कर्म के नाम पर बाँटा गया तो कभी जाति, वर्ण भेद, जन्म के आधार बाँटा गया तो कभी किसी अन्य आधार पर और किसी न किसी प्रकार एकीकृत समाज की परिकल्पना को कभी साकार नहीं होने दिया। भले ही साहित्य को समाज का दर्पण कहा जा हो, परन्तु लगभग डेढ़ दशक के साहित्य के विषय में यह रूढ़ धारणा टूटी है। दलित-आदिवासी समाज हो या स्त्री या अल्पसंख्यक साहित्य जगत में ये सभी समाज उपेक्षित ही रहे हैं, जब तक कि इन्होंने अपना इतिहास स्वयं न लिखना शुरु कर दिया हो। हिजड़ा समुदाय के विषय में गंभीर अध्ययन करने पर पाया कि यह समाज तो अछूतों में  अछूत, पीड़ितो में पीड़ित है। अन्यों कि भांति साहित्य-कला में भी हिजड़ा समुदाय उपेक्षित ही रहा है। प्रो मेराज अहमद कहते हैं, ‘‘चलचित्रों में किन्नरों के प्रसंग अवश्य आते है, परन्तु किसी संजीदा किस्म के चरित्र के बजाय कतिपय अपवादों को छोड़ दिया जाये तो हास्य-व्यंग्य के लिए ही इनका चित्रण होता है। साहित्य की स्थिति तो और भी निराशाजनक है। स्थिति अधिकांश भाषाओं की एक ही जैसी ही है। आन्दोलनों को हथियार बनाकर सृजक और आलोचक दोनों ही अपनी लेखनी को धार दे रहे हैं, लेकिन किन्नर समाज आज भी लगभग अनछुआ है।‘‘15

 इस अनछुए पहलू को अगले भाग में व्याख्यायित किया जाएगा । तब तक साथ बने रहें ... क्रमश:

3 comments:

  1. मार्मिक और तथ्यपरक चित्रण

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  2. भाई जी, संदर्भों में एक दो जगह आप नाम का उल्लेख करना भूल गए हैं। कृपया चेक कर लें। वैसे अच्छा लिख रहे हैं

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