Thursday, October 18, 2018

हिजड़ा समुदाय के घुटते जीवन का यथार्थ : एक सामाजिक एवं साहित्यिक अध्ययन : भाग 3


भाग 3 में आगे पढिए कुछ पौराणिक सन्दर्भों और आधुनिक संदर्भों के साथ किन्नरों की जीवन यात्रा पर आधारित इस लेख को - 

पौराणिक धर्म ग्रंथों में हिजड़ों की उपस्थिति स्पष्ट देखी जा सकती है। वाङ्मय द्विरूपी होता है। इसका एक काव्य तथा दूसरा शास्त्र है। हिजडा समुदाय से संयुक्त काव्य तो यहां-वहां मिल ही जाता है, परन्तु उसके शास्त्र का बनना शेष है। दूसरी ओर, हमारे वाङ्मय में अर्द्धनारीश्वर की अवधारणा का स्पष्ट उल्लेख है। शिव-शक्ति का युगल रूप अर्द्धनारीश्वर की परिकल्पना को आकार देता है। उपर्युक्त परिकल्पना सृष्टि के निर्माण में नर-नारी के समन्वित प्रयास का प्रतीक है। यदि हिजड़ा समाज की बात की जाए तो वे स्वयं ही अर्द्धनारीश्वरता को साकार कते हैं। रामायण में हिजड़ों में जो समर्पण और त्याग राम के प्रति दिखाया उसी का प्रतिफल आज भी उन्हें कुछ धार्मिक कार्यां में शकुन रूप में स्वीकारा जाता है। राम वनवास जाने के समय लोग जब उन्हें मनाने के लिए एकत्रित हो उनके पीछे चल दिये तो उन्होंने पुत्र, धर्म और पिता के आदेश का पालन करने को पवित्र कार्य कहकर वापस अयोध्या जाने को कहा। समस्त जनता वापस हो गयी लेकिन वहां उपस्थित हिजड़ें राम बनवास के 14 वर्ष तक यथास्थान राम के आने का इंतजार करते रहे। 14 वर्ष बनवास पूर्ण करके राम जब वापस लौटे तो उन्हें उसी स्थिति में पाकर उनके त्याग-समर्पण और आस्था पर प्रसन्न होकर कुद शुभ कार्यां का सदा साक्षी बनने का आशीर्वाद दिया और बधाई की उत्पत्तिकी संख्या दी जो वर्तमान में भी कायम है। डॉ. सुनील कुमार द्विवेदी इस पौराणिक घटना का आलोचनात्मक पक्ष इस प्रकार रखते हैं, ‘‘कि राम के पितृशासित समाज के लिए हिजड़ा समाज नगण्य ही था। लोग उसको लक्षित ही नहीं करते थे। कहना न होगा कि इन मिथको के आविर्भाव काल में भी सामाजिक लैंगिक विभाजन बड़ा ही स्थूल-सा था।‘‘16

हिजड़ा समुदाय के भारतीय वाङ्मय के सन्दर्भ में एक अन्य पौराणिक घटना, जो महाभारत से संबन्धित है इस प्रकार है महाभारत के अति महत्वपूर्ण पात्र गंगा पुत्र भीष्म अकेले कुरुक्षेत्र के घमासान युद्ध की दशा-दिशा तय करने की माद्दा रखते थे। उनके धनुष की टंकार पाण्डवों पर भारी पड़ रही थी। जिसे रोकना किसी के लिए आसान नहीं था। भीष्म पितामह को युद्ध से अलग किये बगैर सत्य के साक्षी पाण्डव भी अपनी जीत सुनिश्चित नहीं मान रहे थे। चुंकि भीष्म बहुत ही आदर्शवादी और धर्मपरायण योद्धा थे। उन्हें न्याय-अन्यास का सर्वथा ज्ञान था और हस्तिनापुर की रक्षा मात्र उनके जीवन का लक्ष्य न्याय पथ पर चलकर युद्ध कर रहे पांडव के प्रति भीष्म की आस्था से दुर्यांधन भी काफी नाराज था और अशोभनीय टिप्पणी करने से नहीं चूकता था। भीष्म पितामह महिलाओं का हृदय से सम्मान करते थे। स्त्रियों तथा स्त्री जैसे दिखने वाले लोगों पर अस्त्र नहीं चलाते थे। इस बात का ज्ञान पांडवों को था। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर शिखंडी जो हिजड़ा था, को ढाल के रूप में प्रयुक्त करके अर्जुन ने भीष्म पितामह को सर सैय्या पर लेटने के लिए मजबूर कर दिया। इसके अतिरिक्त पांडवों के अज्ञातवास काल में राजा विराट के साम्राज्य में अर्जुन का बृहन्नला के रूप में स्त्रैण व्यवहार, वस्तुतः उसके द्वारा आलोच्य समाज का प्रतिनिधित्व करता दर्शाता है। उसे उर्वशी नामक एक अप्सरा के प्रणय निवेदन को ठुकराने के एवज में कुछ काल के लिए स्त्रैण पुरुष बन जाने का यह अभिशाप मिला था जो उस अप्सरा ने ही दिया था। वैसे यह अभिशाप हिजड़ो की दोयम दर्जे की नागरिकता को समझाने के लिए पर्याप्त है। साथ ही यह समाज की उनके प्रति व्यवहारिक असहिष्णुता का भी परिचायक है।

काव्य के अतिरिक्त कथा साहित्य में, फिर चाह वह कहानी हो या उपन्यास दोनों में कहीं-कहीं आलोच्य समाज का जिक्र आता है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने संभवतः सन् 1891 में गिन्नीअर्थात् गृहिणी जैसी कहानी लिखी थी। इस कहानी में किशोर लड़के आशू की कथा है, जिससे मात्र यह भूल हो गयी है कि वह अपनी सगी बहनों के साथ घर-घर खेलता रहा है, तो उस पर स्त्रैणता का आरोपण कर सारा समाज उस सलज्ज और संकोची लड़के को चिढ़ाता है। उसका गुरु शिवनाथ अपने प्रवृत्ति को देखकर व्यंग्य करने हेतु एक नाम दे देता है। यह नाम उस विद्यार्थी की किसी प्रवृत्ति को देखकर व्यंग्य करने हेतु दिया जाता है। शिवनाथ राष्ट्रीय आंदोलन हेतु युवा पीढ़ी तैयार करना चाहता है। उसके भीतर पुरुषोचित दंभ और अक्खड़ता है। वह स्वयं को नैतिक पहरेदारी का ठेकेदार समझता है। आशू को वह गिनी नाम दे देता है। ऐसे में सारे लड़के उस पर व्यंग्य करने लगते हैं और उसे गिन्नी कहकर पुकारने लगते हैं। वह स्वयं को अपने दोस्तों से दूर महसूस करता है तथा उनके साथ खेलने नहीं जाता है। वह स्वयं के लिए अपने दोस्तों में कोई स्थान नहीं ढूंढ पाता। यह प्रमाण है हमारे समाज की लैंगिक पहरेदारी। इस समाज अपनी लैंगिकता या यौनिकता को वैयक्तिक धरातल पर परिभाषित करने की स्वतंत्रा किसी को नहीं देता। ऐसे में हिजड़ा समुदाय की स्थिति सहज ही अनुमेय है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर की ही एक अन्य कहानी है व्यवधान। इसकी कथावस्तु भी समाज के लैंगिक अस्मिता के परिप्रेक्ष्य में नये सिरे से सोचने-विचारने के लिए बाध्य करती है।

साहित्य जगत में हिजड़ों के विषय में कुछ प्रसिद्ध पुस्तकों की रचना हुई। प्रसिद्ध साहित्यकार स्तम्भकार, लेखक-आलोचक खुशवंत सिंह ने अपने अंग्रेजी में प्रकाशित उपन्यास देहलीमें भागमती नाम हिजड़े को केन्द्र में रखकर वेश्यावृत्ति की समस्या को उकेरा है। तमिलनाडु के उपन्यासकार सु. समुथीराम का अरावनी समुदाय पर तमिल में पहला उपन्यास वादामल्ली1994 में प्रकाशित हुआ। इसके बाद में ट्रांसजेण्डर कार्यकर्ता ए. रेवती पहले ट्रांसजेण्डर हुए जिन्होंने हिजड़ा समुदाय के विषय में लिखा। इनकी पुस्तक का नाम ^Life in Trans Activism^ ¼2011½ है जिसका आठ भाषाओं में रूपान्तरण हुआ और इसे एशिया में ट्रांसजेण्डर से संबन्धित प्राथमिक तथ्य के रूप में स्वीकार किया जाता है। इनकी अन्य पुस्तक ^The Truth About Me^ जिसमें एक अन्य ट्रांसजेण्डर वी. गीता के जीवन की सच्ची कहानी को उकेरा गया है। ए. रेवती की अन्य पुस्तक का नाम ^Our Lives Our Words Telling Aravani Lifestories^  है। इसके साथ ‘‘नान सारावानन द्वारा 2001 में लिखित अल्ला और विद्या रचित आई एम विद्याजो कि 2008 में प्रकाशित हुई हिजड़ों की प्रथम आत्मकथा है। इसके अलावा लेजली फोर्वस लिखित उपन्यास बाम्बे आइसकुछ हिजड़ा सेक्स वर्कस के मौत पर आधारित हिजड़ों पर है। जॉन इरविंग का उपन्यास ए सन ऑफ द सर्कसभी हिजड़ों पर केंद्रित है। क्रेग थॉम्पसन के ग्रॉफिक उपन्यास हबीबीअनगिनत कृतियों की रचना हुई जिनके अध्ययन से उनके जीवन अध्यायों को बेहतर ढंग से जाना जा सकता है।‘‘17


  • मुख्यतः यहां हिजड़ा समुदाय पर लिखी गयी कुछ कहानियों और उपन्यासों की परोक्ष चर्चा करना साहित्यिक रूप से अनिवार्य भी और प्रासंगिक है। हिन्दी साहित्य में हिजड़ा समुदाय पर सबसे पहला उपन्यास लिखने का श्रेय उपन्यास यमदीप नीरजा माधव लिखित है इसके पश्चात महेन्द्र भीष्म का उपन्यास किन्नर कथासन् 2010-11 में सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था। जिसमें हिजड़ों की कई समस्याओं को भखूबी दर्शाया गया है। साथ ही इस उपन्यास में उनके जीवन के विविध अनछुएं पहलुओं की ओर भी इशारा किया है।


 हाल के कुछ वर्षां में कतिपय उपन्यासकारों और कहानीकारों ने कुछ उपन्यास और कहानियां अवश्य लिखी हैं। इस विषय में उल्लेखनीय कार्य किया है पत्रिका वाङ्मयने, जिसमें हिजड़ा समुदाय पर आधारित विशेषांकों के माध्यम से हिन्दी भाषा में इनके जीवन पर आधारित कहानियों को संकलित कर महती कार्य किया। लेखिक आनन्द प्रकाश त्रिपाठी अपने एक आलोचनात्मक लेख में लिखते हैं, ‘‘एक नयी सामाजिक चेतना से प्रेरित होकर साहित्यकारों ने हिजड़ों के जीवन यथार्थ को नये सिरे से पहचाना और उनके जीवन में आये परिवर्तन को बड़ी संजीदगी से अपनी रचनाओं में उभारा है। बड़ी निर्भीकता और बेबाकी से कई रचनाकारों ने कविताएं और कथाकृतियां रची हैं।‘‘18 स्वतंत्रता पूर्व अपवाद रूप ही रचनाएँ हिजड़ो पर केन्द्रित थीं। जिनमें मौलिक रचनाएँ मुख्यतः शिवप्रसाद सिंह कृत बिन्दा महाराज‘, राही मासूम रजा कृत खलीक अहमद बुआ‘, एस.आर. हरनोट द्वारा रचित किन्नरकुसुम अंसल कृत ई मुरदन का गाँव‘, सलाम बिन रज्जाक कृत बीच के लोग‘, अंजना वर्मा कृत बीनी चदरियाआदि हैं। अनुदित कहानियों में प्रमुख करतार सिंह दुग्गल द्वारा रचित हमजिनस‘, नवतेज पुआधी कृत ऊँचा बुर्ज लाहौर का‘, मोहन भण्डारी कृम मटकनलाल खोजा‘, रामसरूप अणखी द्वारा रचित उसका बाप‘, वीना वर्मा कृत सती‘, हरजीत कौर कृत मलका‘, बलजीत सिंह रैना कृत पेड़ से टूटा पत्ता‘, एस. बलवंत कृत मृगतृष्णाआदि। कहानियों के शीर्षकों का सामान्य परिचय दिया है, वैसे तो हिजड़ा समुदाय से जुड़ी प्रत्येक कहानी या उपन्यास पृथक रूप से एक शोध की मांग करता है।

हिजड़ा समुदाय का सामाजिक-साहित्यिक विश्लेषण करते हुए मित्र युवा लेखक-कवि डॉ. कर्मानन्द आर्य का वक्तव्य दृष्टव्य है, ‘‘थर्ड जेंडर का सम्बन्ध कुछ लोग अवैध यौन शोषण से जोड़ते रहते हैं। ब्रह्मचर्य और सेक्स को निषेधात्म मानने वाले इस देष में सबसे ज्यादा अगर कोई चीज बिकती है तो वह है यौनिकता। यह यौनिकता अगर स्त्री के लिए हो तो पुरुष किसी भी हद तक जा सकता है। जैविक बनावट और संस्कृति के अंतरसंबंधों को समझ को अगर हम जेंडर पर लागू करें तो निष्कर्ष यही निकलता है कि महिलाओं के शरीर की बनावट भी सामाजिक बंधनों और सौन्दर्य के मानकों द्वारा निर्धारित की गयी है। शरीर का स्वरूप जितना प्रकृतिसे निर्धारित हुआ है उतना ही सस्कृतिसे भी। थर्ड जेंडर भी इसी सोच का शिकार है। इस प्रकार उसी अधीनता, जैविक असमानता से नहीं पैदा होती है बल्कि यह ऐसे सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों और संस्थाओं की देन है। पुरुष थर्ड जेंडर में स्त्री के उन्हीं गुणों को खोजने का भरसक प्रयास करता है।‘‘19

सहित्यिक दृष्टिकोण के हिजड़ा समुदाय पर कुछ अन्य महत्वपूर्ण कृतियां भी हमारे समक्ष हैं, जिन्हें पढ़कर उनकी अधूरी और यातनाओं युक्त जिंदगियों का करीब से जानने का अवसर मिलता है। जैसे हमारी कहानियां, हमारी बातेंए. रेवती द्वारा संकलित हिजड़ा समाजका मार्मिक दस्तावेज है। यह पुस्तक मूल रूप में तमिल में लिखी गयी थी और वहीं से इसे ए.मंगई द्वारा हिन्दी में अनुदित किया गया। यह 7 अध्यायों (बचनपन और शिक्षा, माता-पिता और समाज, काम, हिजड़ा माँएँ, सांस्कृतिक प्रथाएँ, निरवाणम एवं सक्रियता) का संकलन में जिसमें दिखाया गया है कि हमारे मध्य रहने वाले ये मानव जिस विषम त्रासद परिस्थितियों में मात्र जीवन जीने के लिए जूझ रहे हैं, उसी कल्पना ही रोंगटे खड़े करने वाली है। इसके अतिरिक्त हरीश बी, शर्मा का अप्रकाशित लघु नाट्य हरारतमानवीय संवेदनाओं को छूता हुआ नाटक है, जिसमें विशुद्ध थर्ड जेंडर की समस्याओं के प्रति संवेदना व्यक्त की गयी है। इसी प्रकार हिजड़ा समुदायपर डॉ. फखरे आलम खान विद्यासागरद्वारा लिखी एक मात्र एकांकी किन्नरभी एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। लक्ष्मीनाराण त्रिपाठी द्वारा लिखित आत्मकथा मैं हिजड़ा....मैं लक्ष्मीभी एक पठनीय दस्तावेज है। हिन्दी उपन्यास की यदि बात करें तो जैसा कि ऊपर लिखा गया कि नीरजा माधव द्वारा रचित हिन्दी का प्रथम उपन्यास ‘यमदीप' है। इसके इतर हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं में भी उपन्यास लिखे गए- तीसरी ताली-2010‘ (प्रदीप सौरभ), ‘मैं भी औरत हूँ-2005 (डॉ. अनुसूइया त्यागी), ‘पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा-2016‘ (चित्रा मुद्गल), ‘गुलाम मंडी-2013‘ (निर्मला भुराडिया), ‘मैं पायल-2016‘ (महेन्द्र भीष्म), ‘मैं क्यों नहीं‘ (मराठी  उपन्यास, पारू मदन नाइक), ‘वाडामल्लि‘ (तमिल उपन्यास, सु. समुद्रम) आदि। अन्य संपादित कृतियां हम भी इंसान हैं‘ (कहानी संग्रह, सं. डॉ. फीरोज़ खान), ‘थर्ड जेन्डरः हिन्दी कहानियां‘ (सं. डॉ. फीरोज़ खान), ‘थर्ड जेन्डरः अनुदित कहानियां‘ (सं. डॉ. फीरोज़ खान), ‘किन्नर विमर्शः साहित्य के आइने में‘ (आलोचना, सं. डॉ. इकरार अहमद), ‘हिन्दी उपन्यासों के आइने में थर्ड जेंडर‘ (सं. डॉ. विजेंन्द्र प्रताप सिंह), ‘थर्ड जेंडर के संघर्ष का यथार्थ‘ (सं. डॉ. शगुफ्ता नियाज़), ‘भारतीय साहित्य एवं समाज में तृतीय लिंगी विमर्श‘ (सं. डॉ. विजेन्द्र प्रताप सिंह व रवि कुमार), ‘सिनेमा की निगाह में थर्ड जेण्डर‘ (सं. डॉ. फीरोज़ खान) आदि। समय-समय पर हिजड़ा समुदायविषय पर अपने-अपने विशेषांक भी प्रकाशित किये हैं, उदाहणार्थ- त्रैमासिक हिन्दी पत्रिका वाङ्मयजो कि डॉ. फीरोज़ खान के संपादाकत्व में निकलता है, ‘थर्ड जेंडरविषयक तीन अंकों का संपादन किया। कुमार गौरव मिश्रा का अगस्त 2016जनकृतिका थर्ड जेंडर विशेषांक भी उल्लेखनीय है। यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि सदियां से ही हिजड़ा समाज को अन्यकी नजर से देखा जाता रहा है, भारतीय समाज नयी सदी में अचानक इस समाज के प्रति संवेदनशी और जागरूक नहीं हुआ है। साहित्यकारों एवं संस्कृतियकर्मियों तथा सामाजिक संस्थाओं ने इनके प्रति लोगों की पारम्परिक सोच को बदलने का सार्थक प्रयास किया है।

अपवाद रूप से थर्ड जेंडरसमुदाय से कुछ नाम अवश्य जहन में आते हैं, जिन्होंने तृतीय लिंगी होने के बावजूद अपने जीवन में संघर्षरत रहे और भारत में ही वरन् विश्व में अपना विशेष स्थान प्राप्त किया- लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी‘ (एक टी.वी. कलाकर, भरतनाट्यम नर्तिका और सामाजिक कार्यकर्ता), ‘पद्मिनी प्रकाश‘ (भारत की पहली ट्रांसजेंडर न्यूज एंकर), ‘रोज वेंकटेश्वर‘ (पहली ट्रांसजेंडर टीवी होस्ट), ‘विद्या‘ (पहली पूर्णकालिक थियेटर कलाकार, सामाजिक कार्यकर्ता, ब्लागर, फिल्म निर्माता), ‘शबनम मौसी‘ (पहली किन्नर विधायक), दिवंगत आशा देवी‘ (उ0प्र0 के गोरखपुर से 2001 में चुनी गयी देश की पहली किन्नर महापौर), ‘मधु किन्नर‘ (छत्तीसगढ़ के रायगढ़ में महापौर), ‘कल्कि सुब्रह्मण्यम‘ (सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक, कलाकार और अभिनेत्री), ‘मानवी बंदोपाध्याय‘ (देश की पहली किन्नर प्रिंसिपल, पश्चिम बंगाल से), ‘ए. रेवती‘ (सेक्सुअल माइनॉरिटी के लिए कार्य करने वाली संस्थ संगमासे जुड़कर थर्ड जेंडरों के लिए काम कर रही हैं), ‘पायल सिंह‘ (2010 में पायल फाउण्डेशनकी स्थापना की), ‘बिशेष हुइरेम‘ (मणिपुरी फिल्मों की जानी-मानी अभिनेत्री)। जब ये सभी अपनी पसंद का काम करते हुए अपनी शर्तों पर जी सकती हैं, तो क्यों न उनके साथ होने वाले भेदभाव को मिटाकर, उनके जीवन को बेहतर बनाने के लिए प्रयास किये जाएं, जिसके फलस्वरूप थर्ड जेंडर/ट्रांसजेंडर प्रत्येक क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करा पाएंगे।

5 comments:

  1. ये लेख भारतीय समाज में व्याप्त थर्ड जेंडर के प्रति दुराग्रहों के प्रति जागरूक करते हैं। हमारे समाज का रवैया इनके प्रति बेहद अफसोसजनक रहा है। अभी भी बतौर एक इंसान थर्ड जेंडर को कितना संघर्ष करना पड़ेगा, पता नहीं। लेकिन कुछ सकारात्मक शुरुआत तो हुई है। जैसे जैसे समाज में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का प्रसार होगा, लोगों का चीजों को देखने समझने का रवैया बदलेगा और उनका व्यवहार भी ज्यादा मानवीय होगा।

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  2. आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए बहुत महत्व रखती है। आप जैसे सुधी पाठकों के कारण ही लिखने की ऊर्जा मिलती है। आप ऐसे ही मेरी लेखनी पर प्रतिक्रिया भेजती रहें।
    हार्दिक धन्यवाद🙏🏻📚🙏🏻

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  3. बहुत सुंदर डॉ साहब ।लगे रहिये।बधाई

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  4. plz contect me 9837733737 main third gender pr reserch kr rh hu muje help chahiy apki

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  5. आप उल्लिखित संदर्भों का पूर्ण विवरण देते तो अन्य के लिए भी बहुत उपयोगी होता।
    समग्रत: बहुत अच्छा आलेख है।

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