Tuesday, February 12, 2019

भारतीय सिनेमा में नारी - दशा व दिशा

 भारतीय सिनेमा के निर्माण को एक शताब्दी से अधिक का समय हो चला है। बावजूद इसके महिलाओं, औरतों, नारियों की स्थिति में आशानुकूल परिवर्तन नहीं हो पाया है। सिनेमा के पितामह दादा साहब फाल्के ने जब इस दिशा में पहला कदम बढ़ाया तो निसंदेह उन्होंने यह नहीं सोचा होगा कि आगे जाकर समाज को मनोरंजित करने वाला, जगाने वाला, विभिन्न रसों से परिपाक करने वाला माध्यम इन स्थितियों, परिस्थितियों का भी सामना करेगा। इतने दशक गुजर जाने के बाद भी सिनेमा के विभिन्न रूपों (भाषाओं) में महिला निर्देशकों, कैमरामैन, म्यूजिक डायरेक्टर की संख्याओं को उंगलियों पर गिना जा सकता है। सिनेमाई दुनिया में लैंगिक असमानताएँ शुरुआत से ही रही हैं। भारतीय सिनेमा के नाम पर कुछ ही महिलाओं के नाम हमारे ज़ेहन में उठते हैं। और वो हैं देविका रानी, माधवी मुखर्जी, नरगिस, मधुबाला, स्मिता पाटिल, दीप्ति नवल जयललिता से लेकर आलिया भट्ट, दीपिका पादुकोण तक यात्रा। इन सारी महिलाओं और सिनेमा में उनके चरित्रों तथा इनकी चार फुटिया अदायगी के आस-पास घूमता, भटकता आदर्श भारतीय समाज और उसके खाके में फिट तथा मर्द जात के खाके में अनफिट हो जाने वाले चरित्रों की रचना हमारे सिनेमा में लगातार देखने को मिलती रही है। सिनेमा के इस अध्ववसाय में टैक्निकली और व्यवहारिक काम अपवाद स्वरूप ही महिला फिल्मकारों के हिस्से आया पाया है। 
 साल 1943 में शुरू हुए भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के आंदोलन की वजह से जरुर सिनेमा में महिलाओं को लेकर इस विधा में प्रवेश करने के बारे में धारणा बदली। इसके पहले तक महिलाओं का फिल्मों में आना अच्छा नहीं माना जाता था। और आज 21वीं सदी में हर कोई इस ओर कदम बढ़ा रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण पैसा और रुतबा है। बावजूद इसके निर्देशन एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ आज भी पुरुष सत्ता काबिज है। कई फिल्म स्कूल खुल जाने के बाद भी और उनसे शिक्षित होने पर भी फिल्मकारों में लैंगिक असमानताएँ जन्म लेती रहती हैं। जबकि यह शश्वत सत्य है कि बिना महिलाओं के सिनेमा पूरा हो ही नहीं सकता। बड़े बजट वाली फिल्मों के हाल फिलहाल में फ्लॉप होने और छोटे बजट की किन्तु महिलाओं से सजी सुपरहिट फ़िल्में इसका एक उदाहरण है कि महिलाएँ इस क्षेत्र में कहीं आगे जाएंगी। 1970-1980 के बीच जब सेटेलाइट आए और टीवी का उद्भव हुआ तब उसकी वजह से देश में सिनेमा का विस्तार होना शुरू हुआ। इस विस्तार के फलस्वरूप कई नई प्रतिभाओं को प्रोत्साहन और सिनेमा में स्पेस मिलना शुरू हुआ। दूरदर्शन के अलावा इस क्षेत्र के शिक्षण संस्थान खुलने से यह हौसला बढ़ा कि हर वर्ग के लोगों में अपेक्षाएँ जन्म लेने लगीं। इस वजह से पढ़े-लिखे घरों से भी सिनेमा के बहाने सिनेमा में युवा लड़के ही नहीं लड़कियों की दिलचस्पी बढ़नी शुरू हुई। उन्हें भी कैमरा पकड़ने और उसके सामने अपनी प्रतिभा दिखाने के मौके मिलने लगे। लघु फ़िल्में जन्म लेने लगी और उन लघु फिल्मों से प्रोत्साहित होती हुई लड़कियाँ नए-नए विषयों पर बनने वाली फिल्मों में काम करने लगी। शिक्षण संस्थान खुलने और टीवी के आ जाने के बाद इस नए पन ने 80 का दशक महिलाओं के हकों के लिए खड़ा कर दिया।
 इस दौर में सिनेमा में विभिन्न क्षेत्रों से आई महिलाओं ने निर्देशन की बागडोर भी बखूबी सम्भालने की कोशिश की जिसमें “मीरा दीवान की ससुराल’, मंजीरा दत्ता की बाबूलाल भुइया की कुर्बानी’, निलिता वाछानी की आइज़ ऑफ स्टोन’, दीपा धनराज की क्या हुआ इस शहर को’, मधुश्री दत्ता की आई लिव इन बेहरमपाड़ा’, वसुधा जोशी की वॉयसेज़ फ्रॉम बलियापालऔर सुहासिनी मुले की ऐन इंडियन स्टोरीऔर भोपाल: बियॉन्ड जेनोसाइडइस दशक की सर्वाधिक महत्वपूर्ण फिल्में हैं, जिन्हें महिला फिल्मकारों ने ख़ुद बनाया।”हालांकि यह आँकड़ा हिंदी फिल्म उद्योग में बनने वाली फिल्मों की तुलना में बहुत कम था किन्तु हौसलाअफजाई और प्रोत्साहन के लिए दखल काबिलेतारीफ था। भिन्न विषयवस्तु और भिन्न सिनेमाई ट्रीटमेंट के लिहाज से ये फ़िल्में इस कला के विस्तार में महत्वपूर्ण माध्यम साबित हुई।  80 के दशक में ‘सई परांजपे’ को छोड़ दिया जाए तो कोई मजबूत या यादगार नाम सिनेमा में सुनाई नहीं देता। परांजपे ने स्पर्श, कथा और ‘चश्म-ए-बद्दूर’ जैसी फिल्मों का निर्माण किया। 80 के दशक के ठीक बाद से 90 के दशक क्रांतिकारी बदलाव आए। किन्तु इन बदलावों ने महिलाओं को मात्र दिखावे की वस्तु बनाकर रख दिया।  इस दौर का प्रभाव आज भी भारतीय सिनेमा में देखने को मिल रहा है कि आज आइटम नंबर, सेक्स सीन, किसिंग के अलावा महिलाएँ लुप्त प्राय हो रही हैं। 2017-2018 के साल में जरुर आलिया भट्ट अभिनीत ‘राजी’ और नंदिता दास निर्देशित ‘मंटों’ ने महिलाओं के लिए फिर से उम्मीदें जगाई हैं। किन्तु साल भर में बनने वाली सौ-दो सौ फिल्मों के बीच आज भी अँगुलियों पर गिनने लायक फ़िल्में ही सामने आ पा रही हैं। ‘मैरिकॉम’ पर बनने वाली बायोपिक जरुर उम्मीद जगाती है कि लता मंगेशकर, जद्दनबाई, सरोजनी नायडू, मदर टेरेसा जैसी महिलाओं पर फ़िल्में भी बनाई जा सकती हैं। खाली पीली संजू जैसी फिल्में कमाई का जरिया जरुर हो सकती हैं किन्तु समाज को सही मार्गदर्शन देने में वे फ़िल्में कामयाब नहीं हो सकती। सई परांजपे, दीपा धनराज और नीलिता वाछानी, मंजीरा दत्ता, वसुधा जोशी और झरना झावेरी के द्वारा निर्मित फिल्मों की लागत कम होने से एक तो सिनेमा अन्य तकनीकी मुद्दों से मुक्त हुआ तो दूसरी ओर अभिव्यक्ति की संभावनाएँ बढ़ा गया।
 एक ओर नए फिल्मकारों का जन्म हुआ तो दूसरी ओर नए विषयों का भी सृजन हुआ। इसका सबसे बड़ा प्रभाव यह पड़ा कि रचनाशील, प्रगतिशील फिल्मकारों ने अनकही और हाशिये पर पड़ी कहानियों को कह पाए। जहाँ समथिंग लाइक अ वार फिल्म से ‘दीपा धनराज’ ने भारत सरकार की परिवार नियोजन योजना को चुनौती दी और स्त्री यौनिकता के सवाल को सिनेमा के दायरे में ला खड़ा किया। वहीं ‘निलिता वाछानी’ ने आइज़ ऑफ स्टोनके माध्यम से राजस्थान राज्य में फैली चुड़ैल की झूठी कहानियों के बहाने औरतों के दुख-दर्द को स्वर दिया। तीसरी महत्वपूर्ण फिल्मकार ‘मंजीरा दत्ता’ ने मज़दूर आंदोलन के हवाले से ‘बाबूलाल भुइयां’ के बलिदान को अपनी फ़िल्म बाबूलाल भुइयां की कुर्बानी के माध्यम से प्रदर्शित किया। इसी तरह ‘वसुधा जोशी’ ने वॉयसेज़ फ्रॉम बलियापालके माध्यम से उड़ीसा के तटीय इलाके बलियापाल के लोगों का अहिंसक आंदोलन जगजाहिर किया। तो वहीं ‘झरना झावेरी’ नर्मदा बचाओ आंदोलन से आम जनमानस का ज़रूरी हिस्सा बन जाती है। इस दौर में कई अन्य महिला फिल्मकारों रीना मोहन, सबा दीवान, श्रेरना दस्तूर ने लैंगिक मुद्दों से जुड़े सवालों को केंद्र में रखकर फिल्में बनाईं। इसमें ‘रीना मोहन’ की कमलाबाईके कारण हिंदुस्तान के लोग और सिनेमा प्रेमी पहली फिल्म अभिनेत्री ‘कमलाबाई गोखले’ की कहानी से रूबरू हुआ। तो ‘सबा दीवान’ द अदर सॉन्गके माध्यम से उत्तर भारत की तवायफ़ों की असलियत की लकीर अपनी कहानी से खींचती है। हाल ही में ‘निष्ठा जैन’ ने गुलाबी गैंग के माध्यम से स्त्री आंदोलन के नए आयाम और विस्तार ठीक से समझने का मौका दिया।