Tuesday, August 27, 2019

स्वतंत्रता दिवस और बाबा साहेब अम्बेडकर की प्रासंगिकता


जय भीम साथियों,
यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रूमा सब मिट गए जहाँ से,
अब तक मगर है बाक़ी नाम-ओ-निशाँ हमारा.
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी,
सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-ज़माँ हमारा.

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोसिताँ हमारा!!
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोसिताँ हमारा!!

७२ साल पहले आज ही के दिन हम अंग्रेज़ी हुकूमत की जंजीरों से आजाद हुए थे. अपनी आज़ादी को पाने के लिए देश के न जाने कितने लोगों ने अपनी जान न्योछावर कर दी. धर्म-जाति से ऊपर उठकर आज़ादी की लड़ाई लड़ी गयी और कामयाबी भी मिली. देश को आज़ादी दिलाने वाले अधिकांश वीरों के नामों से हम भले ही परिचित हों, परन्तु असंख्य नाम ऐसे भी हैं, जिनको हम आज तक भी नहीं जा पाए. उन सभी देश के सच्चे वीर सपूतों को भी हम सब सलाम करते है. 
आज़ादी तो बहुत संघर्षों के बाद हमे मिली, लेकिन एक बात जो आज़ादी के बाद सबको परेशान किये हुए थी, कि अंग्रेजी राज से तो हम मुक्त हो गये, मगर अब  इस आज़ादी को कैसे सहज और संवार का रखा जाये? क्योंकि आज़ादी के सही मायने तभी है जब हम बरक़रार रख सकें. 
    आज़ादी का यह दिन हम बड़े जोश-खरोश से मनाते आ हैं, परन्तु आज़ादी का यह जश्न देश की एक महानतम हस्ती के जिक्र के बैगेर अधूरा होगा. वह शख्सियत है बाबा साहेब डॉ. भीम राव अम्बेडकर. जिन्होंने सही मायनों में देश की आज़ादी को ‘संविधान’ निर्माण कर संरक्षण प्रदान किया. आज भी बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर एक विश्व प्रसिद्ध न्यायविद, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ, संविधान शिल्पी, राष्ट्रभक्त, समाजसेवी, बुद्धिवादी, समता, स्वतंत्रता, बंधुता के पहरेदार तथा चिंतक के रूप में अपने कृतित्व के माध्यम से हमारे बीच मौजूद हैं. सभी तरह से उपेक्षित तथा वंचित लोगों के साथ-साथ सम्पूर्ण मानव मात्र के लिए बंधुता, समता एवं स्वतंत्रता का अजीवन एवं अहर्निश (लगातार) शंखनाद करनेवाले बाबा साहेब अम्बेडकर मात्र दलितों के ही मसीहा नहीं हैं, अपितु सभी तरह की असमानताओं तथा उपेक्षाओं से पीड़ित मानव महाकुम्भ के झंडाबरदार हैं. 
    आज़ादी का मतलब तभी है जब देश-समाज में सभी को समान रूप से मानव समझा जाए. बाबा साहेब ने सदियों से सभी तरह के अधिकार और सुविधा से वंचित जन समुदायों में चेतना का संचार किया और उन्हें शिक्षित, संगठित होकर संघर्ष करने का रास्ता दिखाया, तो यह उनका दलित प्रेम नहीं; बल्कि सभी मूल, कूल, वंश, जाति, गोत्र, नस्ल, सम्प्रदाय, वर्ग, वर्ण, लिंग के अधिकार वंचितों की सच्ची सेवा का दुर्लभ उदाहरण है. सुविधा तथा अधिकार वंचित केवल दलित ही नहीं हैं, वे भी हैं जिनकी उन्नति तथा समृद्धि के सभी मुहानों को उद्धारक कहलाने वाले मायावी मानवों ने अवरुद्ध कर रखा है. इस पुस्तक का प्रणयन बाबा साहेब के इन्हीं अवदानों को रेखांकित करने के लिए किया गया. 
    आज स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर देश में हो रही तमाम घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में बाबा साहेब अम्बेडकर के विचारों पर चिन्तन करना समयानुकूल और अति प्रासंगिक है. क्योंकि अम्बेडकर एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि एक मिशन का नाम है, जिसका लक्ष्य है- समानता मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है. इसे प्राप्त करना सभी मनुष्यों का प्रथम कर्तव्य है. 

    इतना ही नहीं स्वतंत्रत भारत के संदर्भ में हमारी वर्तमान मौद्रिक, राजकोषीय, श्रम-समस्या, नारी-प्रगति, धर्म, सामाजिक न्याय, उद्योग, कृषि, मानव संसाधन, जल-संसाधन, बीमा उद्योग, मद्यनिषेध, शिक्षा, लोकतंत्र, कार्यपालिका, न्यायपालिका, व्यवस्थापिका, संघीय शासन प्रणाली, भाषायी प्रान्त, राष्ट्रभाषा विषयक चिन्तन तथा सिद्धांत, संविधान के माध्यम से ये सभी मात्र बाबा साहेब अम्बेडकर की ही देन हैं. बाबा साहेब मात्र दलितों के देवता नहीं, बल्कि सम्पूर्ण मानवजाति के रक्षक और मसीहा हैं. आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षणिक तथा धार्मिक रूप से पिछड़े एवं शोषित तमाम मनुष्यों के अधिकारों के वकालत करने वाले अधिवक्ता हैं. उनका स्पष्ट मानना है कि जिस समाज में अशिक्षा तथा नारी शोषण अधिक हो, मानना चाहिए वह समाज सदियों तक अवश्य ही शोषकों का गुलाम रहा है. और यह बात आज कितनी समीचीन है आप भलीभांति समझ सकते हैं. 
    बाबा साहेब राष्ट्रीय स्वतंत्रता से अधिक सामाजिक स्वतंत्रता के पक्षधर हैं. उनका स्पष्ट विचार है कि सामाजिक समानता वाला राष्ट्र कभी गुलाम नहीं होता है, जबकि असमानता पर टिका समाज लम्बे समय तक आजाद नहीं रह सकता. भारत मात्र दो हज़ार वर्ष में यदि एक हज़ार वर्ष से अधिक समय तक परतंत्र रहा है, तो यह इसका प्रमाण है कि इस देश में सभी तरह की समानता का घोर अभाव रहा है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सभी तरह की सामाजिक असमानता को अपने चरित्र में धारित करनेवाला राष्ट्र बहुत दिनों तक स्वतंत्र नहीं रह सकता. और आज हमारा देश किस ओर जा रहा है? यह मंथन भी करें.
    आप या हम या कोई भी आज़ादी का सही अर्थ तभी समझ सकते हैं जब हम शिक्षित होंगे. बाबा साहेब शिक्षा को जीवन के लिए मशाल मानते हैं. शिक्षा के मार्ग से ही स्वतंत्रता की मंजिल को प्राप्त किया जा सकता है. वे कहते हैं- शिक्षा एक ऐसी ज़रूरत है जो सबको प्राप्त होनी चाहिए. जिस देश में अनपढ़ों की संख्या जितनी अधिक हो, मानना चाहिए, वह देश उतना ही ज्यादा विपन्न तथा विषम है.
    यह विडंबना ही है कि आज भी समाज जातपात, धर्म, वर्ग, वर्ण, लिंग के आधार पर भेदभाव में संलिप्त है. भेदभाव का यह कोढ़ ज्यों-का-त्यों विद्यमान है. आदमी जितना एक-दूसरे से भेदभाव व्यवहार करता है, उतना अन्य कोई प्राणी नहीं करता. जब तक आदमी, आदमी को आदमी का दर्जा नहीं देगा, दुनिया में दिन-रात बहुकोणीय संघर्ष जारी रहेंगे. आदमी को आदमी का दर्जा दिलवाना ही बाबा साहेब का जीवन का एकमात्र लक्ष्य था, तो क्या यह अपराध या पक्षपात है? 
    डॉ. अम्बेडकर सभी तरह के विभेद का समूल नाश करने वाले महामानव का नाम है. समस्त शिक्षा तथा अनुभव के आधार पर इन्होने मानव कल्याण के लिए जिन नीतियों एवं सिद्धांतों का सृजन किया, वे अश्रुतपूर्व हैं. तभी तो आज भी मानवता के शिप्लकर बाबा साहेब पूर्ण रुप से प्रांसगिक हैं और उनकी सीख आज मानवजाति के लिए अति महती हैं. 
    इसमें कोई दो राय नहीं है कि बाबा साहेब अम्बेडकर दलितों के मसीहा नहीं, सभी तरह के मानवाधिकारों से वंचित जनसमूह के झंडेबदार हैं. हम सबके बाबा साहेब तब तक प्रासंगिक रहेंगे, जब तक महावाधिकारों का हनन पूर्णत: रुक नहीं जाता और चारो और बंधुता, समता और स्वतंत्रता का साम्राज्य स्थापित नहीं हो जाता है. 
सबके हक में सब होता पर, अपने हक में क्या होता,
सबके हक में रब होता पर, अपने हक में क्या होता.
सोच सोच कर दिल घबराये, दशा दिशा कैसी होती,
होते ना बाबा साहेब तो, अपने हक में क्या होता.
धन्यवाद



  जय भीम!                                            जय भारत!! 

सहायक प्राध्यापक (हिन्दी साहित्य एवं भाषा विज्ञान) "हिन्दी विभागाध्यक्ष" शहीद बेलमती चौहान राजकीय महाविद्यालय पोखरी (क्वीली) टिहरी गढ़वाल उत्तराखंड

Thursday, August 22, 2019

वर्तमान परिवेश में अनुवाद



भारत एक बहुभाषी विभिन्न संस्कृतियों का देश है। सभी भाषाओं में आपस में आदान-प्रदान प्राचीनकाल से ही हो रहा है। इन भाषाओं-संस्कृतियों के मध्य ‘अनुवाद‘ संवाद-सेतु के रूप में अपनी अपरिहार्य भूमिका निभा रहा है। भूमण्डलीकरण के इस युग में आज पूरा विश्व एक नजर आता है। इस हेतु अनुवाद की महती भूमिका है। आज विश्व के देश एक-दूसरे से सम्पर्क कर अपना ज्ञान-विज्ञान, तकनीक-प्रोद्यौगिकी, साहित्य-विचार सांझा कर रहे हैं। जिसमें अनुवाद की भूमिका असंदिग्ध है। ज्ञान-विज्ञान का कोई क्षेत्र शेष नहीं है, जो किसी न किसी रूप में अनुवाद से संबंधित न हो। बल्कि यह कहना ज्यादा उचित होगा कि अनुवाद ही एक ऐसा माध्यम है, जो आज सम्पूर्ण विश्व को एकसाथ जोड़ने का कार्य कर रहा है। साहित्य हो या गैरसाहित्यिक अनुवाद का मुख्य कार्य ही है कि विश्व में बिखरे सम्पूर्ण ज्ञान को एकत्रित कर उससे सभी लाभान्वित हो सके। साहित्यिक, वैज्ञानिक या तकनीकी संसार की कोई भी भाषा अनुवाद से अछूती नहीं है। विश्व साहित्य की अनुवाद प्रक्रिया प्राचीन काल से ही अनवरत् चली आ रहा है।
वैश्विक परिदृश्य पर अनुवाद का मूलरूप तो वही है, परन्तु आधुनिक रूप में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन अवश्य हुए हैं। डॉ. कृष्ण कुमार गोस्वामी के शब्दों में ‘‘वास्तव में शताब्दियों के सांस्कृतिक समन्वय की प्रक्रिया के चलते देष में सांस्कृतिक एकीकरण में दृढ़ता आई। देष के विभिन्न भाषाओं, आचार-विचारों और मत-मतांतरों के होने के बावजूद हमारी अखंडता और एकता पर कोई आंच नहीं आई। विविध भाषा-परिवारों की भाषाओं को बोलने वालों में परस्पर सद्भाव बनाए रखने में अनुवाद का बहुत बड़ा योगदान रहा है। आज भी अनुवाद एक सामाजिक आवष्यकता है।‘‘1
    मानव सभ्यता के विकास के साथ ही मनुष्य ने भौगोलिक सीमाओं का पार करना शुरू किया, जिससे अन्य समुदायों से युद्ध, मित्रता, व्यापार, धर्म-प्रचार आदि के संबंध में एक-दूसरे से मिलने के फलस्वरूप संप्रेषण का व्यापार बढ़ता गया, जिसका आधार अनुवाद है। प्राचीन समय में संस्कृत और यूनानी ही क्रमषः पूर्व व पष्चिमी की प्राचीनतम क्लासिक भाषाएँ थीं, जिनके पास प्रचुर मात्रा में ज्ञान का भंडार था। अन्य समकालीन भाषाएँ उनके समक्ष बोलियों के रूप में विद्यमान थीं। चूंकि उनके पास इन क्लासिक भाषाओं को देने के लिए कुछ विषेष नहीं था, अतः अन्य भाषाओं से इन भाषाओं मंे अनुवाद का कोई क्रम स्पष्टतः नहीं दिखायी देता। उपरोक्त दो क्लासिक भाषाओं के आधार पर विश्व अनुवाद परंपरा को दो भागों पूर्व अर्थात् भारत में अनुवाद तथा पष्चिम में अनुवाद में विभाजित किया जा सकता है। तथापि विश्व के प्राचीनतम अनुवाद की बात करे तो, इसका वर्णन प्रो. कृष्णकुमार गोस्वामी जी अपनी पुस्तक में करते हैं, ‘‘विष्व का प्राचीनतम अनुवाद रोज़ेटा प्रस्तर पर मिला है, जो लगभग 200 ई.पू. का है और उसमें मिó की दो प्राचीन लिपियों ‘हीरोग्लाइफिक‘ तथा ‘देमांतिक‘ में इतिहास तथा संस्कृति का वृत्तांत है और उसका अनुवाद प्राचीन मिóी भाषा में भी है।‘‘2
    अनुवाद परम्परा के सन्दर्भ में प्राचीन भारतीय साहित्य में अनुदित साहित्य प्रायः उपलब्ध नहीं है। जिसका प्रमुख कारण तत्कालीन साहित्य और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में भारत विष्व का सर्वाधिक विकसित देष था। प्राचीन भारतीय साहित्य में लौकिक संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभं्रष आदि भाषाओं के साहित्य को किसी अन्य भाषा में प्रस्तुत/अनुवाद करने का कोई प्रचलन ही नहीं था। सम्भवतः इसकी जरुरत भी नहीं पड़ी होगी। लेकिन काव्यषास्त्र और नाट्यषास्त्र गं्रथों में गाहा सत्सई, वड्डकहा, कर्पूर मंजरी आदि प्राकृत गं्रथों में संकलित अनेक स्थानों का संस्कृत अनुवाद अवष्य किया गया। इसके साथ तत्कालीन नाटकों में पुरुष पात्रों का संवाद संस्कृत में होता होगा। चूंकि स्त्रियां तथा अन्य निम्न वर्ग के पात्रों की बोली प्राकृत थी, तो ऐसे पात्रों के प्राकृत संवादों का संस्कृत पाठ भी साथ-साथ दिया जाता था, जिसे ‘छाया‘ कहा गया। यह एक प्रकार का अंतरभाषिक अनुवाद ही था।
    प्रामाणिक रूप से प्राकृत भाषा के अनेक गं्रथों के संस्कृत में छायावाद हुए हैं, जिनमें प्रमुख गुणाढ्य की पैशाची प्राकृत में रचित ‘बडडकहा (बृहत्कथा) के तीन रूपांतर मौजूद हैं- पहला बुध स्वामी कृत ‘बृहत्कथा-श्लोक-संग्रह‘, दूसरा क्षेमेंद्र कृत ‘बृहत्कथा मंूजरी‘ व तीसरा सोमदेव का ‘कथा सरित्सार‘। इनके बाद भारतीय पाली साहित्य में अनुदित गं्रथ नगण्य है। इसी प्रकार प्राकृत अपभ्रंशों में भी अनुदित गं्रथ न के बराबर ही है। अनुवाद की क्रमबद्ध परंपरा भारतीय साहित्य में वैसे तो नगण्य ही है, परन्तु भारतीय साहित्य का विश्व की अन्य भाषाओं में अनुवाद और रूपांतरण होते रहे हैं। सबसे पहले संस्कृत के प्राचीनतम अनुवाद चीनी भाषा में हुए हैं। बौद्ध-धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु एशिया के विभिन्न देशों के साथ ही चीन, जापान, लंका, बर्मा, बाली, बोर्नियों आदि देशों में बौद्ध साहित्य का उन देशों की भाषाओं में अनुवाद हुआ। इसके साथ रामायण और महाभारत की बहुत सी कथाएं एशियाई देशों में पहुंची। अनुवाद की दृष्टि से पंचतंत्र का प्रथम स्थान है। मूलभाषा संस्कृत से इसके अनुवाद अरबी, ग्रीक, इटालियन, स्लाव, हिब्रू, डैनिस, आइसलैंडिक, डच, फ्रांसीसी, अंग्रेजी, फारसी, लेटिन, जर्मन, स्पेनिष आदि अनेक भाषाओं में हुए हैं।3 पंचतंत्र को अरबी में ‘कलील-दमना‘ नाम से जाना जाता है।
    अनुवाद के विकास मेें मुगल काल का अपना महत्व है। सम्राट् अकबर ने प्राचीन ग्रंथों के फारसी-अरबी में अनुवाद कराने के लिए एक स्वतंत्र विभाग की स्थापना करायी, जिसमें रामायण, महाभारत व गीता जैसे महान हिन्दू धर्मग्रंथों के फारसी में अनुवाद कराये गये। इसी कड़ी में सन् 1656-1657 में मुगल सम्राट् शाहजहाँ के बड़े पुत्र शहज़ादा दारा शिकोह ने एक महायज्ञ के रूप में 52 उपनिषदों का अनुवाद फारसी में किया। महाभारत के महत्वपूर्ण भाग श्रीमद्भगवद् गीता का अनुवाद विश्व की लगभग सभी प्रमुख भाषओं मंे हो चुका है। इसी प्रकार संस्कृत-तमिल, तमिल-संस्कृत, अंग्रेजी-तमिल-अंग्रेजी, संस्कृत-अंग्रेजी, तेलुगु-संस्कृत, बंगला-संस्कृत, गुजराती-संस्कृत, मराठी व सिंधी अनुवाद भी विश्व साहित्य के परिप्रेक्ष्य में उल्लेखनीय है, जो स्वयं में विशेष अध्ययन की संभावना रखते है।
    वैदिक साहित्य के अनुवाद के पश्चात्, आधुनिक काल में हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं से अनुवाद का क्रम ईस्ट इंछिया कम्पनी के शासनकाल तथा अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार-प्रसार से प्रारम्भ होती है। गोस्वामी के अनुसार हिन्दी में अनुवाद की व्यवस्थित परंपरा सोलहवीं शताब्दी से मिलती हैं। अट्ठारहवीं शताब्दी तक प्राचीन साहित्य का अनुवाद होता रहा।.................वषिष्ट कृत संस्कृत वेदांत ग्रंथ ‘योग वषिष्ट‘ का अनुवाद रामप्रसाद निरंजनी की भाषायोग वषिष्ट (1741) को खड़ीबोली हिन्दी गद्य की प्राचीनतम पुस्तक माना जाता है।‘‘4 खड़ीबोली काव्य की प्रथम कृति श्रीधर पाठक की ‘एकांतवासी योगी‘ (1886) ऑलिवर गोल्डस्मिथ की ‘द हरमिट‘ का काव्यानुवाद ही है।
    अनुवाद के माध्यम से ईरान में कई शताब्दियों तक गुमनामी के अंधकार में खोये रहे एक फारसी कवि उमर खैय्यमी अचानक 19वीं शताब्दी में विश्व में प्रसिद्ध हो गया। उनकी रूबाइयों का अंग्रेजी में सबसे पहले अनुवाद 1859 में फिट्ज़्ाजेराल्ड ने किया। भारतीय नवजागरण के उदय के साथ ही खड़ी बोली हिन्दी का उद्भव और विकास हुआ। इस सन्दर्भ में अनुवाद की महत्ता और भी बढ़ जाती है। ‘‘यदि नवजागरण दो जातीय संस्कृतियों की टकराहट से उत्पन्न रचनात्मक ऊर्जा है, तो अनुवाद ही वह माध्यम है जो संस्कृतियों में संपर्क और टकराहट लाने में अपनी भूमिका निभाता है।‘‘5 इसमें कोई दो राय नहीं है कि नवजागरण की चेतना के पार्श्व में अनुवाद की अति महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। खड़ी बोली के विकास में अपनो अद्वितीय योगदान देने वाले भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अनुवाद के माध्यम से खड़ी बोली को परिष्कृत करने का महत्वपूर्ण कार्य किया। भारतेन्दु ने श्री हर्ष कृत ‘रत्नावती‘, कृष्ण मिश्र के ‘प्रबोध चन्द्रोदय‘ नाटक का ‘पाखण्ड विडम्बन‘ (1873), कंचन पंछित के ‘धनंजय विजय‘ (1873), महाकवि विशाखदत्त के ‘मुद्राराक्षस‘ (1875), जैसे संस्कृत गं्रथों के साथ ही शेक्सपीयर के ‘मर्चेंट ऑफ वेनिस‘ का भी ‘दुर्लभ बन्धु‘ नाम से खड़ी बोली में अनुवाद किया। हिन्दी भाषा-साहित्य न केवल संस्कृत से समृद्ध हुआ, अपितु अंग्रेजी साहित्य के अनुवाद से भी हुआ। अंग्रेजी साहित्य के संपर्क में आने पर भारतीय साहित्यकारों ने अंग्रेजी नाटकों के अनुवाद भी आरंभ करत दिये गये। वास्तव में हिन्दी साहित्य को उपन्यास की जिस नयी विधा का परिचय हुआ, वह डेनियल डेफो के अंग्रेजी उपन्यास ‘द लाइफ एंड स्टेंªज एंड सरप्राइजिंग एडवेंचर्स ऑफ रोबिन्सन क्रूसो‘ (1719) के हिन्दी अनुवाद 1860 से हुआ। इस उपन्यास का अनुवाद काशी के पंडित बद्रीलाल ने बंगला से किया था। इसके बाद यह सिलसिला आज तक भी चल रहा है। कई महत्वपूर्ण कृतियां अनुवाद के माध्यम से ही विश्व पटल पर अपना स्थान बना पायी हैं। भारतीय भाषाओं में जो परस्पर अनुवाद हुए हैं, उनमें सर्वाधिक अनुवाद हिन्दी और अंगला के मध्य ही हुए हैं। क्योंकि हमारे देश में मुद्रण एवं पत्रकारिता के आरंभिक काल से ही बंगला व हिन्दी के बीच अनुवाद प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी थी। परन्तु बंगला व हिन्दी अनुवाद के विषय में यह पहलू भी महत्वपूर्ण है कि जहां बंगला से हिन्दी में अनुवाद करने की प्रवृति अधिक रही है, वहीं हिन्दी से बंगला में अनुवाद की स्थिति संतोषजनक नहीं रही है। अपवाद के रूप में कुछ उल्लेखनीय अनुवाद अवश्य हुए हैं। तुलसीदास कृत ‘रामचरितमानस‘ का अनुवाद विजयकाली भट्टाचार्य ने और प्रेमचंद कृत ‘गोदान‘ और ‘निर्मला‘ का अनुवाद चित्रा देव ने किया।
    द्विवेदी युग और उसके बाद अर्थात् देश के स्वाधीनता आन्दोलन ने सारी भारतीय भाषाओं और हिन्दी को आपस में जोड़ दिया, उसके फलस्वरूप अन्य भाषाओं से हिन्दी में तथा हिन्दी से अन्य भाषाओं में अनुवाद का कार्य शीघ्रता से होने लगा।
तेलुगु, मलयालम, कन्नड, तमिल, पंजाबी, कश्मीरी आदि भारतीय भाषाओं और साहित्य में परस्पर अनुवाद व विदेशी भाषाओं से हिन्दी अनुवाद की एक सशक्त और सुदीर्घ परम्परा विद्यमान है। किसी ने स्वेच्छा से और स्वांतः सुखाय से, तो किसी ने व्यावसायिक दृष्टि से अनुवाद किया। भारतीय अनूदित साहित्य को सीमित कर पाना असंभव है। भारत में अनुवाद प्रक्रिया उतनी ही पुरानी है, जितनी मूल लेखन की। अतः अनुवाद का इतिहास-लेखन बड़ा कठिन तथा चुनौती भरा काम है। वास्तव में अनुवाद की इतिहास की संस्कृत के वैदिक-औपनिवेशिक युग में प्रारंभ हो जाता है। ये अनुवाद भारतीयों तथा विदेशियों द्वारा पूरे मन से किय गये हैं। उल्लेखनीय है कि प्रत्येक रचना के अनेक अनुवाद कई अनुवादकों द्वारा किये गये हैं। परन्तु दुःखद है कि भारतीय स्वतंत्रता से पहले हिन्दी भाषी में साहित्यकारों ने संस्कृत, अंग्रेजी, बंगला, मराठी आदि भारतीय भाषाओं के साहित्यों का अनुवाद किया गया, लेकिन स्वतंत्रता के बाद हिन्दी भाषी साहित्यकारों  और अनुवादकों ने भारतीय भाषाओं से नाममात्र के अनुवाद किया, जबकि हिन्दीतर साहित्यकारों-अनुवादकों ने अपनी भाषाओं के साहित्य का अनुवाद स्वयं किया है। वास्तव में लक्ष्य भाषा अनुवादक की मातृभाषा/प्रथम भाषा हो तो उसे अनुवाद करने में अधिक सुविधा होती है और अनुवाद में सहजता और स्वाभाविकता आने की अधिक संभावना रहती है। इस ओर ध्यान देने की अत्यंत आवश्यकता है। इसकी चर्चा आगे करेंगे।
अनुवाद के संक्षिप्त इतिहास को जान लेने के बाद जरूरत है कि क्यों न इसके वर्तमान पक्ष पर नजर डाली जाए। साथ ही अनुवाद के वर्तमान भारतीय भाषाओं के सन्दर्भ में विभिन्न भारतीय साहित्यकारों के विचारों पर प्रकाश डालें।
निश्चित ही यह युग अनुवाद का युग है। इस युग में अनुवाद तथा अनुवादकों की महत्ता व प्रासंगिकता बढ़ रही है। डॉ. सुरेश सिंघल का मानना है कि ‘‘आज अनुवाद मौलिक विधा एवं अनुषासन के समतुल्य ही नहीं उससे भी आगे निकल रहा है। अनुवादकों तथा अनुवाद से जुड़े साधकों की साधना अब रंग ला रही है। प्रकाषन् संस्थाएं, अकादमियां, विष्वविद्यालय, शोध-संस्थान, भाषा एवं साहित्य सेवी जगत् सभी जगह अनुवाद एक अनिवार्यता बनकर प्रवेष कर चुका है।‘‘6 इसमें कोई दो राय नहीं है कि आज अनुवाद उपेक्षित, दोयम दर्जे का कार्य का न रहकर मौलिक सृजन के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका है। अनुवादकों ने राष्ट्र के समक्ष यह सिद्ध कर दिया है कि राष्ट्र का बहुमुखी विकास अनुवाद के बिना असम्भव था और है।
उल्लेखनीय है कि एक समय था जब अनुवाद को एक निकृष्ट कार्य समझा जाता था। अनुवाद को स्वीकृति अथवा मान्यता प्राप्त करने के लिए बड़ा लंबा संघर्ष करना पड़ा। आरम्भ में लगभग सभी अनुवादकों की तीव्र आलोचना की जाती थी और यह माना जाता था कि अनुवाद असंभव था। अनुवाद मात्र का उपहास उड़ाते हुए उस समय यह कहा गया कि अनुवाद से अभिप्राय है ‘‘किसी मरे हुए पक्षी की खाल में भूसा भर कर उसे सजावट के लिए टाँग देना या नई बोतल में पुरानी शराब डाल देना अथवा किसी सरस फल को उबालकर उसका सत्व निकाल लेना।‘‘7 अनुवाद को प्रत्येक साहित्य, प्रतिबंधित सामग्री मानता था और अवैध वस्तु के रूप में देखता था। अनूदित सामग्री तस्कर की हुई वस्तु समझी जाती थी। अतः उस समय अनुवाद को निस्सार और निरर्थक माना जाता था। एक इतालवी कहावत के अनुसार ‘अनुवादक वंचक होते हैं।‘ एफ गंुथर ने अनुवाद को अर्थ विज्ञान के साथ जोड़ा है। अनुवाद हेतु एक इतालवी कहावत और है कि ‘निष्ठायुक्त कुरूपता अच्छी है, निष्ठायुक्त संुदरता नहीं। यानि यदि अनुवाद संुदर होगा तो मूलनिष्ठ नहीं होगा और मूलनिष्ठ होगा तो सुंदर नहीं होगा। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि मूल पाठ में अंतर्निहित सौन्दर्य को हम दूसरी भाषा में उतना ही सौन्दर्ययुक्त बनाकर प्रस्तुत नहीं कर सकते। सौंदर्यविहीन अनुवाद साधारणतः टीकाएं मात्र बनकर रह जाते हैं। अनुवादक अपनी रचना से मूल की समानर्थी अभिव्यक्त्यिों की पुनर्रचना तो कर सकता है, परन्तु यथातथ्य प्रतिरूप नहीं। इसी आधार पर ‘मे‘ जैसे विद्वानों ने तो यहां तक मान लिया कि‘‘अनुवाद जैसी कोई वस्तु होती ही नहीं।‘‘ इसी प्रकार अन्य पाश्चात्य साहित्यकारों-आलाचकों के साथ भारतीय साहित्यकारों के अनुवाद संबंधित विचार उसे हीन बनाते नजर आते हैं- उदाहरणार्थ-
सिडनी, ‘‘विचार अनूदित हो सकते हैं लेकिन शब्द और उनकी अर्थ-छायाएँ अनूदित नहीं हो सकती‘‘
जॉएटे, ‘‘अनुवाद में कुछ कमी अवष्य रह जाती है। प्रायः हर भाषा के शब्दों की अपनी ध्वनियां होती हैं, जिन्हें दूसरी भाषा में ला पाना संभव नहीं होता।‘‘
राबर्ट गेब्ज, ‘‘अनुवाद असत्य या विनम्र असत्य है। वह सत्य हो नहीं सकता ऐसी स्थिति में अनुवादक वंचक हो जाएगा।‘‘
रवीन्द्रनाथ टैगोर, ‘‘अनुवाद पूर्ण संतोष देने वाला नहीं होता।‘‘
मामा वरेरकर, ‘‘लेखक होना आसान है, अनुवादक होना अत्यंत कठिन है।‘‘
खुशवंत सिंह, ‘‘हर एक कृति अनुवाद योग्य है, पर हर कृति का अनुवाद नहीं किया जा सकता।‘‘ (उक्त परिभाषाएं ‘अनुवाद सूक्त्यिां‘ नामक पुस्तक से ली गयी हैं, संपादक- कुसुम अग्रवाल व डॉ. गार्गी गुप्त, वर्ष 1984)
    उक्त इन सभी धारणाओं/विचारों के बावजूद भी अनुवाद होता रहा और उसका मूल्यांकन भी साथ-साथ किया जाता रहा। सुख और दुख की भांति मनुष्य ज्ञान को भी दूसरों के साथ बाँट लेना चाहता है। जो वह स्वयं जानता है उसे दूसरों तक पहुंँचाना चाहता है और जो दूसरे जानते हैं, उसे स्वयं जानना चाहता है। इस प्रक्रिया में भाषा की सीमाएं उसके आड़े आती हैं। इसलिए अनुवाद आज ज्ञान-विज्ञान के विकास और प्रसार का अनिवार्य साधन बन चुका है। सामान्यतः एक भाषा की किसी सामग्री के दूसरी भाषा में रूपांतर को ही अनुवाद कहते हैं। यहां ‘अनुवाद‘ शब्द या उसकी परिभाषाओं पर विस्तार से विचार करने के अपेक्षा उसकी वर्तमान प्रासंगिकता और भावी संभावना पर गहन दृष्टि डालना मुख्य उद्देश्य है।
आज के ‘विश्व-कुटुम्बकम‘ युग पुनीत भावना को साक्षात् करने का महान समय है। प्राचीन अथाह अभाव वाले युग को भूलकर हम नवीन सूचना-प्रौद्योगिकी के युग में प्रवेश कर चुके हैं। तो निश्चय ही निःसंदेह सूचनाओं-आंकड़ों से भरे इस दुनिया में एक ऐसे माध्यम की महती आवश्यकता है, जो सूचनाओं को एकरूपता से विश्व में प्रचारित-प्रसारित किया जाए। यह महान कार्य भाषाओं के परस्पर ‘अनुवाद‘ के अलावा कोई अन्य माध्यम नहीं कर सकता।आज हम सच में बहुत आगे निकल चुके हैं। विदेशी-बहुद्देशीय व्यापार तंत्र हमारे देश में प्रविष्ट हो चुका है। हमारा व्यापार भी विश्व के अनेक देशों में अपने पैर पसार चुका है। वित्तीय निवेश के साथ हमारे वैचारिक प्रवेश भी विश्व के हर कोने में हो चुका है।निःसंदेह ही हमारी राजभाषा हिन्दी का प्रचार-प्रसार भी अब वैश्विक स्तर पर हो रहा है। इन सभी कार्यांे के लिए आज सर्वाधिक कारगर माध्यम ‘अनुवाद‘ ही है। भारत के प्रसिद्ध अनुवाद विद् तथा भाषा के स्थापित विशेषज्ञ डॉ. पूरनचन्द टण्डन ने अनुवाद के महत्ता के विषय में यहां तक कह चुके हैं, ‘‘यदि विष्व की कोई एक भाषा तलाषी जाए तो वह ‘अनुवाद‘ ही है।........अनुवाद एक ‘तकनीक‘ भी है,‘कला‘ भी है, ‘विज्ञान‘ भी है और ‘षिल्प‘ भी है।‘‘8 अपने एक अन्य साक्षात्कार में उन्होंने कहा, ‘‘अनुवाद आज विष्व की भाषा बन गया है। पूरे विष्व को एक सेतु बनकर जोड़ रहा है। ऐसा सेतु जो बहु-दिषागामी है और निर्बाध आवागमन के रास्ते खोलता है। अनुवाद राजगारोन्मुख विधा तो है ही, सामाजिक, सांस्कृतिक स्तर पर प्रतिष्ठित करने का शस्त्र भी है। आज भूमण्डलीकरण की अवधारणा को साकार करने वाला संलल्प कोई है तो वह है अनुवाद।‘‘9 प्रख्यात भाषाविद् डॉ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार, ‘‘कुछ लोग अनुवाद को केवल षिल्प मानते हैं, तो कुछ लोग केवल कला। अनुवाद को विज्ञान प्रायः लोग बिल्कुल नहीं मानते। मेरे विचार में अनुवाद षिल्प भी है, कला भी और विज्ञान भी।‘‘10साहित्य की अनेक विधाओं की तरह ‘अनुवाद‘ भी एक विधा के रूप में पहचान बना चुका है। आज के प्रगतिशील युग में अनुवाद की महती आवश्यकता है। ‘‘अनुवाद के कारण आपसी सम्बन्धों में बढ़ोतरी हुई है। इसीलिए तो बीसवीं सदी को अनुवाद या पुनस्सृजन का युग कहा जाता है।‘‘11 बिल्कुल सही है क्योंकि आज अनुवाद की उपयोगिता मात्र भाषा और साहित्य तक ही सीमित नहीं है, वह हमारी सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और राष्ट्रीय भावना और साहित्य की सर्जनात्मक चेतना की समरूपता के साथ-साथ, वर्तमान तकनीकी और वैज्ञानिक युग की पूति कर हमारे ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न आयामों को देश-विदेश मंें सयुंक्त करता है। इससे आगे की बात करें तो आधुनिक विज्ञान के विकास की नींव भी अनुवाद के माध्यम से डाली गयी है।
अनुवादों के कारण ही विश्वसाहित्य की अवधारणा अस्तित्व में आयी। साधारणतः व संक्षिप्त रूप से अनुवाद की उपयोगिता कई रूपों में हमारे समक्ष है। इस आधार पर डॉ. पूरनचंद टंडन का व्यक्तव्य बिल्कुल सटीक व समीचीन है, ‘‘किसी भी समाज-देष का विकास अनुवाद के बिना सम्भव नहीं है।‘‘12 अनुवाद क्यों? या इसकी महत्ता के विषय को प्रसिद्ध अनुवाद शास्त्री डॉ. रीतारानी पालीवाल अनुवाद-अनुवादक संबंधी प्रासंगिक बात लिखती हैं, ‘‘मानव के पास आयु, समय और साधन की एक सीमा रहती है। हर व्यक्ति संसार की प्रत्येक भाषा नहीं सीख सकता। ऐसी स्थिति में अनुवादक की वह माध्यम है, जिसके द्वारा हम सभी भाषाओं से सम्पर्क स्थापित कर सकते हैं।‘‘13 आज अनुवाद का क्षेत्र इतना विस्तारित हो चुका है कि कोई भी क्षेत्र अनुवाद से अछूता नहीं है। महान् अनुवाद शास्त्री जिन्होंने भारत में भारतीय अनुवाद परिषद का गठन किया और अनुवाद कार्य को पुनीत बनाने का अद्वितीय कार्य किया। अनुवाद की उपयोगिता के क्षेत्र में उनका मानना है, ‘‘अब अनुवाद लगभग एक स्वतंत्र शास्त्र बन गया है। उसके सिद्धान्त निर्धारित हो गये हैं। उसकी समस्याएं भी रेखांकित हो गई हैं। उसकी प्रक्रिया भी स्पष्ट है। इन सभी का अध्ययन शैक्षिक पाठ्यक्रम का एक रोचक अंग बन चुका है। इसलिए इसका निरन्तर विस्तार ही होगा। अनुवाद शास्त्र के इन प्रष्नों की गहरी छानबीन कर सकते हैं और इसके फलस्वरूप काफी सामग्री अध्येता सामने आ सकती है।‘‘14  ज्ञान-विज्ञान की जानकारी के लिए अनुवाद, व्यवहारोपयोगी रूप में अनुवाद, सांस्कृतिक विनिमय की दृष्टि से अनुवाद आवश्यक है, राजनीतिक आदान-प्रदान की जरूरत हेतु अनुवाद, विभिन्न भाषाओं का सम्पर्क स्थापित करने के लिए अनुवाद की आवश्यकता, विदेशी भाषा के अध्ययन हेतु अनुवाद, अर्जित-उपार्जित ज्ञान की निरंतरता स्थापित करने वाला माध्यम, मानव जाति के विकास में अनुवाद की महती भूमिका, भाषा की अभिव्यक्ति क्षमता का विस्तार, वर्तमान विभिन्न भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन में सहायक, अनुप्रयुक्त भाषा विज्ञान का अभिन्न अंग, आमजन के मेल-मिलाप का महत्वपूर्ण साधन, विश्व के महान् साहित्य/गं्रथों का परिचय, सरकारी कामकाज में अनुवाद या कार्यालयी द्विभाषिकता, वैज्ञानिक-प्रौद्योगिकी-विधि साहित्य में अनुवाद की उपयोगिता, विभिन्न देशों द्वारा किया जा रहा शोध कार्यों में अनुवाद, व्यापार-पर्यटन के क्षेत्र में आदान-प्रदान में अनुवाद का उपयोग, पत्रकारिता, अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में अनुवाद की उपादेयता, वर्तमान समस्त विमर्शों के अध्ययन-अध्यापन में अनुवाद की उपयोगिता। डॉ. रामचन्द्र वर्मा के अनुसार, ‘‘आज विष्व बन्धुत्व की भावना बल पकड़ रही है। एक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र के निकट लाने और एक-दूसरे को समझने-समझाने के निरन्तर प्रयास हो रहे हैं। यहां भाषा ही सबसे बड़ी बाधा है। अनुवाद कार्य ही इस बाधा को दूर करने को एकमात्र साधन है।‘‘15
विज्ञान के विकास के साथ ही सूचना का महत्व भी बढ़ रहा है। विज्ञान के क्षेत्र में खोजों/अविष्कारों की जानकारियां वैज्ञानिक तुरंत पाना चाहते हैं। जिस भाषा में वह उपलब्ध है, उसे एकदम अपनी भाषा में पाने हेतु उन्हें अनुवादकों की जरूरत रहती है। विज्ञान व प्रौद्योगिकी के विकास के साथ आज दुनिया भर के लोगों का आपसी संपर्क काफी बढ रहा है। ज्ञान के क्षेत्र के अतिरिक्त व्यापार, उद्योग, पर्यटन आदि के क्षेत्र में विश्व सिमट गया है। भूमंडलीकरण के जमाने में जब मनुष्य एक दूसरे की आवश्यकताओं और उनकी पूर्ति में ज्यादा और निकट का साझीदार हुआ है तब अनुवाद की आवश्यकता और भी बढ़ गयी हे। आज बहुराष्ट्रीय कंपनियों का प्रसाद है और इन कंपनियों के माल के बाजार दुनियाभर में विस्तारित हैं। इस बाजारों में माल की खपत हेतु अनुवाद का महत्व अपने ढंग से और बढ़ गया है। कम्पनियों के उत्पाद भाषा की सीमाओं को लांघते हुए अब जगह पहंुच रहे हैं।
चूंकि अनुवाद के परिप्रेक्ष्य में उसकी उपयोगिता से सन्दर्भित रोजगार के प्रत्येक क्षेत्र में पृथक-पृथक शोध किया जा सकता है। इसमें कोई दो राय नहीं होनी चाहिए कि अनुवाद ही वह सशक्त माध्यम है, जिसके द्वारा भारत जैसे देश की एक सूत्रता को सही दिशा मिलती है। अनुवाद की सुविधा के अभाव में हम अपने विशाल बहुभाषी देश में ही अपरिचित जैसे रह जाते। अनुवाद ने सम्पूर्ण राष्ट्र को एकता में बांध रखा है तथा राष्ट्रीयता के सूत्रों को बिखरने से रोका हुआ है। रोजगार की दृष्टि से भी अनुवाद आज अत्यंत प्रभावी सिद्ध हो रहा है। उदाहरण के लिए वरिष्ठ/कनिष्ठ अनुवादक, हिन्दी अधिकारी, अंग्रेजी-हिन्दी अध्यापक व प्राध्यापक, भाषा निदेशक, उपनिदेशक, राजभाषा अधिकारी, संवाददाता, समाचारवाचक, संपादक, बैंक अधिकारी आदि अनेक पदों पर अनुवादकों की नियुक्तियां हो रही हैं। केन्द्र-राज्य सरकार के कार्यालयों में, अस्पतालों में, बैंक, रेलवे, संसद, पर्यटन, विधानसभा, पत्र-पत्रिकाओं के कार्यालयों में, अकादमियों में, प्रकाशन संस्थानों में, रेडियो-दूरदर्शन, विज्ञापन एजेंसियों में, बीमा क्षेत्रों में, कोश विज्ञान में, भाषा संबंधी निदेशालयों व संस्थानों में, प्रदर्शनियों में, संग्रहालयों में, पुस्तकालयों में, खेलों में, अर्थजगत में, विज्ञान-तकनीकी-प्रौद्योगिकी से संबद्ध कार्यालयों में, विभिन्न विषयों, साहित्य आदि अनेक क्षेत्रों में अनुवाद की उपादेयता एवं प्रासंगिकता पर कोई संदेह नहीं किया जा सकता। लाखों व्यक्ति इन अनेक क्षेत्रों में अनुवाद के जरिए धनार्जन कर रहे इस सन्दर्भ में अनुवाद शास्त्री डॉ. पूरनचंद के अनुसार, ‘‘सिनेमा भी आज अनुवाद का बहुत बड़ा मंच बन गया है। टेलीविजन के अनेक चैनल भी आज अनुवाद के माध्यम से ही अपने कार्यक्रम चला रहे हैं। ..............आज डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, जज, फैषन डिजाइनर, इंटीरियर डैकौरेटर, आर्किटैक्ट, मनोवैज्ञानिक, बिल्डल आदि भी अनुवाद के माध्यम से अपने व्यवसाय को व्यापक स्तर पर देष-विदेष में फैलाने-बढ़ाने का कार कर रहे हैं।‘‘16 निःसन्देह ही अनुवाद-कार्य जिज्ञासाओं का शांत करने वाली एक प्रकार की चमत्कारी विधा है। या यूं कहिए अतृप्त को तृप्ति तथा प्यासे को जल प्रदान करने वाली विधा है। अनुवाद शास्त्री डॉ. पूरनचंद के अनुसार, ‘‘ ‘न होने से कुछ होना बेहतर है‘ तथा कुछ से कुछ और‘ उपलब्ध कराते चलने का मूल मंत्र है अनुवाद। अनुवाद ‘षास्त्र‘ भी और इसी कारण अनुषासन की विधा भी है।‘‘17 भारतीय अनुवाद परिषद् की अधिष्ठात्री, महान अनुवाद शास्त्री व भाषाविद् डॉ. गार्गी गुप्त ने अनुवाद की उपोदयता, महत्व और प्रासंगिकता को अपने एक वाक्य में समेटते हुए कहा है कि ‘‘अनुवाद वस्तुतः एक ऐसा नीड़ है, जहाँ से विष्व-भर की यात्रा घर बैठे ही हो जाती है- ‘यत्र विष्वम् भवति एक नीडम्।‘‘18
भारतीय साहित्य के सन्दर्भ में अनुवाद की भावी संभावनाओं को कदापि नकारा नहीं जा सकता है। मशहूर लेखिका अमृता प्रीतम ने अपने साक्षात्कार में कहा भी है कि ‘‘ अनुवाद के लिए काफी संभावनाएं हैं। किन्तु काम बहुत ही कम हुए हैं।‘‘19 इनके इस वाक्य से यह तो स्पष्ट है कि भारत में अनुवाद का क्षेत्र तो अति विस्तृत है, लेकिन काम अभी उस स्तर पर नहीं हुआ है, जो कि होना चाहिए था। उसका कारणों पर प्रकाश डालते हुए अपने साक्षात्कार में आगे वे कहती हैं, ‘‘हमारे यहाँ अनुवाद के लिए जमीन तो है किन्तु मौके नहीं। गैर-सरकारी प्रकाषक अनुवाद छापते कहाँ है? सरकारी योजनाअें की अपनी सीमाएं हैं। अनुवाद के के चयन में सरकार का अपना दृष्टिकोण है। अच्छे अनुवादक को सेवा का मौका अक्सर नहीं मिलता है।......अनुवाद भी ज्यादातर -काण्ट्रेट के तौर पर दिया जाता है। अनुवाद पर उसका बुरा असर पड़ता है। पैसे के चक्कर में पड़ने वाला आदमी समर्पित मन से अनुवाद नहीं करेगा। कुछ प्राध्यापक लोग छात्रों से अनुवाद कराकर अपने नाम छपवाते हैं। गरीब लेखकों से अनुवाद कराकर अपना नाम रखने वाले अनुवादक भी हमारे बीच में है। निष्ठा के साथ न करें तो अनुवाद का स्तर अपने आप ही गिर जाएगा।‘‘20  उनकी इन बातों में कितना कड़वा सच छिपा है। इस सच से सामना अक्सर अनुवाद से जुड़े व्यक्ति को व्यक्तिगत रूप से हो ही जाता है। आमतौर पर अनुवादक को लेखक से नीचे पायदान पर माना जाता है। इसके अन्य पहलू पर भी प्रकाश डालना समीचीन होगा कि अनुवादक की निष्ठा अनुवाद के प्रति कमतर होने का मुख्य कारण क्या है? इस सन्दर्भ में प्रसिद्ध अनुवादक सरला जगमोहन का कहना है कि ‘‘अनुवादक को उतने पैसे नहीं मिलते हैं, लेकिन केवल पैसे की ही बात नहीं है- दाम भी नहीं मिलता और नाम भी नहीं मिलता और दुःख तो इस बात का है कि उसे जितना चाहिए उतना यष भी नहीं मिलता है। बड़ी-बड़ी पत्रिकाओं और अखबारों में भी अनुवादकों का नाम पीछे रखा जाता है। खुद कहने में अफसोस होता है कि साहित्य अकादमी जैसे संस्था को हालांकि वह अनुवादक का नाम जरूर देती है, लेकिन गौण बनकर।‘‘21  जबकि होना यह चाहिए कि मूल लेखक के नाम के साथ ही अनुवादक का नाम भी होना चाहिए। पुस्तकों-पत्रिकाओं में भी ऐसे ही अनुवादक का दर्जा नीचा हो जाता है। यह पैसे मिलने से भी ज्यादा दुर्भाग्य की बात है। इस बात की पुष्टि श्रीपाद रघुनाथ जोशी के व्यक्तव्य के होती है, ‘‘अधिकांष अनुवादकों ने उसके लिए मेहनत नहीं की और यह समझा गया कि दो भाषाओं का मामूली ज्ञान हो तो कोई भी अनुवाद कर सकता है।..... इसीलिए हमारे यहां अनुवादों का स्तर बहुत अच्छा नहीं है।‘‘22
अनुवाद की प्रासंगिकता और विलक्षणताओं के प्रकाश में विश्व की सभी भाषाओं में अनुवाद की कई शैलियां और प्रविधियां अपनायी गयी हे। यदि अनुवादक सावधानीपूर्वक शब्द और अर्थ की आत्मा का स्पर्श करते हुए स्त्रोत भाषा की प्रकृति के अनुरूप लक्ष्य भाषा में अनुवाद उपस्थित करता है, तो यही आदर्श अनुवाद होगा। ‘‘श्रेष्ठ अनुवादक को ऐसा कुषल चिकित्सक कहा गया है, जो बोतल में रखी दवा को अपनी सिरिंज के द्वारा रोगी के शरीर तक यथावत् पहुंचा देता है।‘‘23  अनुवादक ही स्त्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा की मूल कड़ी होता है, इसलिए अनुवाद के क्षेत्र में अनुवादक की भूमिका ही सबसे महत्वपूर्ण होती है। अनुवादक का चाहिए कि उसका उक्त दोनों भाषाआंे पर प्रभुत्व हो। जब तक प्रभुत्व नहीं होता तब तक अनुवाद नहीं करना चाहिए। ज्यादा से ज्यादा शब्दकोशों को प्रयोग करने की आदत डालनी चाहिए। प्रमुख अनुवाद के क्षेत्र में जाना पहचाना नाम है श्रीपाद रघुनाथ जोशी, उनके अनुसार अनुवादक की योग्यता, ‘‘अनुवादक के पास अनुवाद के लिए वैसी ही प्रतिभा होनी चाहिए, जैसी मौलिक लेखक के पास होती है। दोनों भाषाओं पर आपको ऐसा अधिकार होना चाहिए जैसे दोनों मातृभाषाएँ हों।.........मौलिक लेखन की अपेक्षा अनुवाद में अधिक परिश्रम, अधिक बुद्धि और अधिक प्रतिभा की जरूरत होती है।‘‘24 अनुवादकों के महत्व पर प्रकाश डालते हुए और उनकों उत्साहित करने के उद्देश्य से वह आगे कहते हैं, ‘‘अनुवादकों से मैं यह कहूँा कि भाई, पहले तो अपने लिए समझो कि मैं अनुवादक हूँ और साहित्यिक समाज का महत्वपूर्ण अंग हूँ। मैं कोई सामान्य व्यक्ति नहीं हूँ या दूसरे दर्जे का लेखक नहीं हँ। समझो कि मैं वेसा ही लेखक हूँ, जैसाकि कोई दूसरा लेखक होता है। मैं भी उतना ही महत्वपूर्ण हॅँू। यह अस्मिता उसमें पहले आनी चाहिए। मैं अपनी ‘टर्म्स डिक्टेट‘ कर सकता हूँ, यह स्वाभिमान उसमें आना चाहिए।‘‘25 अनुवाद कार्य कम होने का एक अन्य मुख्य कारण अनुवाद की आवश्यकतानुसार शब्दकोशों का न मिलना या अधूरा शब्दकोश मिलना है। कोश हमारी एक मुख्य समस्या है। अभी भी हमारे यहां पारिभाषिक शब्दों भारी कमी है। यह कमी वैज्ञानिक, विधि, प्रौद्योगिकी, कार्यालयी अनुवाद के क्षेत्र में विशेषकर खलती है। वैसे हमारे यहाँ सभी भाषाओं में पारिभाषिक शब्दों का अभाव बड़ी आम बात है। वैसे इस क्षेत्र में कई प्रयास हुए हैं और हो रहे हैं। सरला जगमोहन इस विषय में कहती हैं, ‘‘केन्द्रीय हिन्दी निदेषालय के पारिभाषिक शब्दकोष के दो खण्ड हैं, लेकिन वे भी पर्याप्त नहीं। उनमें जिस तरह के जिस सावधानी और चौकसी से काम होना चाहिए था और जितने उत्साह से काम होना चाहिए था, वह नहीं हो पाया है।‘‘26  परन्तु इसमें एकदम सख्त होना भी लाज़मी नहीं होगा क्योंकि जिस भाषा में अनुवाद होगा, तो उसमें जो प्रचलित शब्द प्रयोग में आते जाएंगें, उनसे अलग या हटकर भी कुछ नये प्रयोग करने को अनुवादक को तैयार रहना चाहिए।
जैसा कि कुछ लोग मानते है कि अनुवाद छल है, कपट है, प्रवन्चना है, पाप है। कुछ लोग यह तक मानते है कि अनुवाद में मौलिकता नहीं होती। अनुवादक का प्रदेय उल्लेखनीय नहीं होता। कोई भी विधा या अनुशासन छोटा या बड़ा नहीं होता। अनुवाद और मौलिक लेखन भिन्न-भिन्न दो प्रक्रियाएं हैं, लेकिन एक-दूसरे से भिन्न होते हुए भी एक का दूसरे से ऊँचा या नीचा मानने की गलती जो आज तक हम करते आ रहे हैं, वह अब बन्द होनी चाहिए। डॉ. शरद चन्द्रा इस विषय में कहते हैं कि ‘‘अनुवाद कार्य को हीन कार्य शायद वे लोग मानते हैं, जिनको अनुवाद का कोई अनुभव नहीं होता। जो लोग इसे हीन मानते हैं, उन्हें शब्दकोष लेकन बैठा दीजिए, फिर देखिए वे क्या करते हैं। जो लोग स्वयं मौलिक लेखन करते हैं और अनुवाद कार्य भी करते है, वही जानते हैं कि अनुवाद मौलिक लेखन की तुलना में कितना दुष्कर कार्य है।‘‘27
अनुवाद के भविष्य के विषय में हिन्दी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. श्यामसिंह ‘शशि‘ का चिंतन कुछ प्रकार है ‘‘आज जब सारा विष्व अन्तर्राष्ट्रीय सद्भाव तथा सह-अस्तित्व की दिषा में आगे बढ़ रहा है, सैकड़ों भाषाओं में विचारों के आदान-प्रदान हो रहे हैं, तो अनुवाद का भविष्य भी उज्ज्वल दिखायी पड़ता है।...... आज आवष्यकता है अनुवाद के नये क्षेत्रों को खोजने तथा अच्छे अनुवादक तैयार करने की ताकि अनुवाद का पथ प्रषस्त हो, भविष्य और अधिक उज्ज्वल हो।‘‘28 अनुवाद आज विश्व की भाषा बन गया है। पूरे विश्व को एक सेतु बनकर जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य कर रहा है। यह सेतु बहु-दिशागामी है और निर्बाध आवागमन के रास्ते खोलता है। अनुवाद रोजगारोन्मुख विद्या तो है ही, सामाजिक तथा सांस्कृतिक स्तर पर प्रतिष्ठित करने का शस्त्र भी है। आत्मविश्वास प्रदान करने का सूत्र भी अनुवाद ही है। आज भूमण्डलीकरण की अवधारणा को साकार करने वाला संकल्प यदि कोई है तो वह है अनुवाद।आज के युग में अनुवाद को जितना महत्व मिल रहा है, वह पहले कभी नहीं मिला, क्योंकि आज अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भाषा का परस्पर सम्पर्क पहले की अपेक्षा में बढ़ गया है। आज विभिन्न देशों की संस्कृतियों की विपुल संपदा हमारे सामने है और हम उनसे सांस्कृतिक आदान-प्रदान करने हेतु उत्सुक है। इसलिए अनुवाद को सेतु बनाना हमारी विवशता भी है और जरूरत दोनों ही है। यदि अनुवाद न किये गये होते तो आज वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, कबीर आदि विदेशों में तो क्या शायद अपने ही देश में भी न जाने जाते। अनुवाद न होता तो अरस्तु, प्लेटों, सुकरात, शैली, शेक्सपियर, मोपांसा, चेखव आदि महान् लेखकों की विचार-सम्पदा से सारा विश्व कैसे लाभान्वित होता। टैगोर, बंकिम और शरतचन्द्र केवल बंगाल तक ही सीमित रह जाते। अर्थात् साहित्य और साहित्यकारों का अस्तित्व का आधार बिन्दु यदि अनुवाद को कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए।
विभिन्न साहित्यिक विमर्शों की आधारशिला भी अनुवाद के माध्यम से ही मजबूत हुई है। दलित, स्त्री, आदिवासी, पसमांदा, अल्पसंख्यक चाहे कोई भी साहित्यिक विमर्श क्यों न हो विभिन्न भाषाओं से हुए परस्पर हुए अनुवाद के कारण ही आज साहित्य जगत में उक्त विमर्शों पर चर्चा करना संभव हो पाया है। अभी हाल ही 30 सितम्बर को अंतरराष्ट्रीय अनुवाद दिवस मनाया गया। दिनांक 30.09.2016 के दैनिक हिन्दुस्तान में संपादकीय पृष्ठ पर वरिष्ठ लेखिका मधु बी जोशी का सारगर्भित लेख ‘कुछ अनुवाद जिन्होंने पूरी दूनिया ही बदल दी‘ में उन्होंने तीन अनूदित धर्मग्रन्थों रामायण, बाइबिल व रामचरितमानस की अनुवाद के सन्दर्भ में संक्षिप्त पर अनोखी चर्चा की। उनके लेख से स्पष्ट होता है कि अनुवाद मात्र एक ऐसा माध्यम है, जो पूरे विश्व को बदलने की क्षमता रखता है।
वर्तमान युग अनुवाद का युग है। सोच व व्यवहार के प्रत्येक स्तर पर हम अनुवाद पर आश्रित हैं, अनुवाद के आग्रही है। जीवन का कोई क्षेत्र शायद ही ऐसा हो, जिसमें अनुवाद की उपादेयता प्रमाणित न की जा सके। अपरिहार्य तौर पर अनुवाद एक व्यापक और प्रासंगिक स्थिति है। इसलिए यह सर्वथा स्वाभाविक ही है कि नये संसाधनों के विकास और व्यापकतर मानवीय सम्पर्कों के संदर्भ में अनुवाद के महत्व, प्रासंगिकता और भविष्य का अनुशीलन किया जाये। विश्व में प्रयुक्त पांच हजार से अधिक भाषाओं और बोलियों के बीच वैचारिक, सर्जनात्मक और कार्यात्मक सामंजस्य स्थापित रखने के लिए अनुवाद ही सर्वाधिक लोकप्रिय एवं उपयोगी माध्यम बन गया है।
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---ःसन्दर्भ सूचीः---
भारत की समसांस्कृतिक भाषाएँ और अनुवाद, ले. प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी, अनुवाद त्रैमासिक, जनवरी-मार्च 2016, अंक 166, पृ0 26
अनुवाद विज्ञान की भूमिका, कृष्ण कुमार गोस्वामी, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2008, पृ0-473
वही, पृ0-434
वही, पृ0-443
वही, पृ0-446
प्राक्कथन, अनुवाद अनुभूति एवं अनुभव, प्रधान संपादक डॉ. सुरेश सिंघल, संजय प्रकाशन, नयी दिल्ली, वर्ष 2006
अनुवाद मूल्यांकन, प्रधान संपादक डॉ. नीता गुप्ता, भारतीय अनुवाद परिषद, वर्ष 2002, पृ0-20 
अनुवाद के विविध आयाम, डॉ. पूरनचन्द टण्डन, हरीष कुमार सेठी, तक्षशिला प्रकाशन नयी दिल्ली, वर्ष 2012, भूमिका से
अनुवाद अनुभूति एवं अनुभव, प्रधान संपादक डॉ. सुरेश सिंघल, संजय प्रकाशन, नयी दिल्ली, वर्ष 2006, पृ0 321
अनुवाद विज्ञान और संप्रेषण, प्रो. हरिमोहन, तक्षशिला प्रकाशन, वर्ष 2014 से उदृधत, पृ019
अनुवादः स्वरूप और समस्याएं, डॉ. गिरीश सोलंकी, पैराडाईज पब्लिशर्स, जयपुर, वर्ष 2012, पृ0 51
राजभाषा के विकास में अनुवाद की भूमिका, मुख्य संपादक डॉ. गार्गी गुप्ता, भारतीय अनुवाद परिषद, नयी दिल्ली, पृ0163
अनुवाद प्रक्रिया एवं परिदृश्य, रीतारानी पालीपाल, वाणी प्रकाशन नयी दिल्ली, वर्ष 2010, पृ0 105
पश्चिम में अनुवाद कला के मूल स्त्रोत, पृ0 107
अनुवाद कला, डॉ. रामचन्द्र वर्मा शास्त्री, अशोक प्रकाशन, दिल्ली, वर्ष 2012, पृ0 10
राजभाषा के विकास में अनुवाद की भूमिका, मुख्य संपादक डॉ. गार्गी गुप्ता, भारतीय अनुवाद परिषद, नयी दिल्ली, पृ0168-169
अनुवाद का व्याकरण, मुख्य संपादक डॉ. गार्गी गुप्ता व भोलानाथ तिवारी, भारतीय अनुवाद परिषद, नयी दिल्ली, पृ023
वही, पृ0134
अनुवाद अनुभूति एवं अनुभव, प्रधान संपादक डॉ. सुरेश सिंघल, संजय प्रकाशन, नयी दिल्ली, वर्ष 2006, पृ0 6
वही, पृ0 6-7
वही, पृ0 59
अनुवाद अनुभूति एवं अनुभव, प्रधान संपादक डॉ. सुरेश सिंघल, संजय प्रकाशन, नयी दिल्ली, वर्ष 2006, पृ0 69
इ.ग.रा.मु.विवि के पाठ्यक्रम पी.जी.डी.टी.-01 से साभार
अनुवाद अनुभूति एवं अनुभव, प्रधान संपादक डॉ. सुरेश सिंघल, संजय प्रकाशन, नयी दिल्ली, वर्ष 2006, पृ0 78
वही, पृ0 81)
वही, पृ0 61)
वही, पृ0 210)
(अनुवाद का भविष्य, डॉ. श्यामसिंह ‘शशि‘, अनुवाद बोध, संपादक-डॉ. गार्गी गुप्ता व डॉ. पूरन चंद टंडन, भारतीय अनुवाद परिषद, नयी दिल्ली, वर्ष 2001, पृ0 147)

सहायक प्राध्यापक (हिन्दी साहित्य एवं भाषा विज्ञान)
"हिन्दी विभागाध्यक्ष"
शहीद बेलमती चौहान राजकीय महाविद्यालय पोखरी (क्वीली) टिहरी गढ़वाल उतरा