Thursday, March 26, 2020

मशहूर अदाकारा निम्मी

50-60 के दशक की मशहूर अभिनेत्री का निधन। सबसे पहले निम्मी को अपनी फिल्म बरसात में ब्रेक दिया राजकपूर ने। इस फिल्म के हिट होने के बाद निम्मी ने कई फिल्मों में काम किया था।

मशहूर एक्ट्रेस निम्मी का 88 साल की उम्र में मुंबई में निधन हो गया। वे पिछले कई महीनों से बीमार चल रही थीं। मुंबई के सरला नर्सिंग होम में उन्होंने अंतिम सांस ली। निम्मी के निधन से बॉलीवुड में भी शोक की लहर है। स्टार्स निम्मी के निधन पर दुख जाहिर कर रहे है।

एक्टर ऋषि कपूर ने ट्वीट कर लिखा- RIP प्यार और आशीर्वाद के लिए निम्मी आंटी आपका धन्यवाद। आप राज कपूर फैमिली का हिस्सा थीं। बरसात आपकी पहली फिल्म थी। अल्लाह आपको जन्नत नसीब करें, आमीन।

महेश भट्ट ने ट्वीट कर लिखा- आप अपने दिल की इच्छा को जीत सकते हैं, लेकिन अंत में आप मौत से धोखा खा जाते हैं. Goodbye Nimmiji

प्रोड्यूसर नावेद जाफरी ने भी निम्मी की मौत पर शोक व्यक्त किया। उन्होंने लिखा- एक खूबसूरत आत्मा का आज निधन हो गया। भगवान उनके परिवार को ताकत प्रदान करें। #nimmi #ripnimmi #actress

एक्टर जावेद जाफरी ने ट्वीट कर लिखा- मुझे कुछ सालों पहले 4 क्लासिक बॉलीवुड ब्यूटीज के साथ फ्रेम में आने का एक अवसर मिला था। #Azra #Nimmi #Kumkum #Ameet
1950-60 में हिट फिल्में देने के लिए जानी जाती थीं। आन, बरसात, अमर, दाग, दीदार, मेरे महबूब, कुंदन जैसी फिल्में उन्होंने दीं। निम्मी ने 16 साल से फिल्मों में काम करना शुरु किया था। साल 1949 से लेकर 1965 तक वे फिल्मों में सक्रिय रहीं। उन्हें अपने दौर की बेहतरीन एक्ट्रेस के तौर पर शुमार किया जाता था। उनका असली नाम 'नवाब बानो' था। निम्‍मी ने एस अली राजा से शादी की थी जिनका 2007 में देहांत हो गया था। निम्मी ने कई फ़िल्म पुरुस्कार भी अपने नाम किए।
Tejas Poonia

Tuesday, March 24, 2020

बुक रिव्यू : लियोरा, तुम अकेली नहीं हो!



गैबरियल गार्सिया मार्खेज की एक किताब है, 'एकांत के सौ बरस'। यह उपन्यास है, जो मनुष्य की संभावना और उसके कल्पना लोक की अद्भुत प्रस्तुति है। कहानी का विस्तार पूरी मानवता के सामने एक चुनौती पैदा करता है और साथ ही उम्मीद भी जगाता है। एक और किताब है, सिंक्लेयर लुईस की 'एरोस्मिथ'। यह युवा डॉक्टर की कहानी है, जो अमेरिका में प्लेग की महामारी के दौरान अपने वजूद को तलाशता है और व्यवस्था से संघर्ष करता है।
यूं तो दोनों उपन्यासों में बाहरी तौर पर कोई समानता नहीं है, लेकिन दोनों का एक अंतर-कथ्य इस रूप में समान है कि मनुष्य अपने सर्वाधिक संकट के समय में नितांत अकेला होता है। यह बात अलग है कि बहुत सारे अकेले लोग मिलकर एक बड़े समूह का निर्माण कर लेते हैं। उनके बीच में डर एक साझा संपत्ति की तरह होता है। यह डर उन्हें जोड़े रखता है और यही डर उनके वजूद का निर्धारण भी करता है।
बीते दो-तीन दिन के वक्त पर निगाह डाल कर देखिए तो हम में से ज्यादातर लोग इस डर को अपने भीतर और अपने आसपास महसूस कर सकते हैं। एक बहुत बड़ा सवाल हमारे सामने है कि आखिर हम किस को बचाना चाहते हैं ? आदर्शवादी दृष्टि से देखें तो कह सकते हैं कि हम मानवता को, अपने समाज और अपने देश को बचाना चाहते हैं। थोड़ा यथार्थ के धरातल पर आये तो हम अपने परिवार, अपने दोस्तों और परिचितों को बचाना चाहते हैं, लेकिन कटु यथार्थ इसके दूसरी तरफ इशारा करता है। शायद हम खुद को ही बचाना चाहते हैं या ज्यादा से ज्यादा उनको बचाना चाहते हैं, जिनकी मौजूदगी में अपने वजूद को महसूस कर पाते हैं।
एक लोककथा है, जिसमें किसी राक्षस को संतुष्ट करने के लिए गांव के लोगों को हर रोज एक इंसान को भेजना होता है। वहां दो तरह के विचार या धारा मौजूद हैं। पहला विचार जोर देता है कि सबसे अनुपयोगी और उम्रदराज लोगों से शुरुआत की जाए ताकि उपयोगी, सक्रिय और योग्य लोग समाज में बचे रहें, लेकिन एक दूसरी धारा भी मौजूद है जो लोगों को उनकी उपयोगिता, सक्रियता और ऊर्जा के आधार पर नहीं देखती। इस धारा के लिए किसी बुजुर्ग का जीवन भी उतना ही उपयोगी है, जितना कि किसी युवा का।
विश्व के संदर्भ में देखें तो कोरोना के संकट ने हम में से ज्यादातर लोगों को पहली धारा या विचार के साथ खड़ा कर दिया है, राक्षस को यदि बलि देनी है तो फिर उन लोगों की दी जाए जो कथित तौर पर समाज के लिए उपयोगी नहीं रह गए हैं। पश्चिम के देशों ने लगभग यही पद्धति अपनाई और ज्यादा दिन नहीं लगे जब कोरोना रूपी राक्षस ने कथित अनुपयोगी बुजुर्गों के साथ-साथ उपयोगी युवाओं की भी बलि लेनी शुरू कर दी। एक तरफ हम मानवता को बचाने की बात करते हैं और दूसरी तरफ इतने आत्मकेंद्रित हो जाते हैं कि खुद को और अपने दायरे को ही बचाने में सिमट जाते हैं। वास्तव में, आज मानवता पर बड़ा संकट है और इस महामारी ने हमारे भीतर के उस हिस्से को उधेड़ कर रख दिया है, जिसे हमेशा छिपाए रहते हैं।

ऐसे में, अचानक महसूस करते हैं कि आप एकांत के सौ बरस उपन्यास के किसी पात्र में परिवर्तित हो गए हैं या फिर एरोस्मिथ के किसी मरीज में बदल गए हैं, जिसके ठीक होने की अब कोई संभावना नहीं बची है। तब आप मृत्यु से ज्यादा इस बात से डरे होते हैं कि एक-एक कर आपके अपने लोग दूर हो जा रहे हैं क्योंकि वे खुद को आसानी से मृत्यु को नहीं सौंपना चाहते। सबकी किस्मत डॉक्टर ऐरोस्मिथ की प्रेमिका लिओरा जैसी नहीं होती, जिसकी मृत्यु एकाकी नहीं है और ना ही वो मानवता द्वारा त्यागी गई। अपने आसपास के माहौल को महसूस करके देखिए, लगेगा जैसे किसी अनजान दुश्मन ने घेरा हुआ है, जो हमें दिख नहीं रहा लेकिन जिसके आने और मौजूद होने का शोर चारों तरफ सुनाई पड़ रहा है।
आपने कभी किसी मरते हुए आदमी को प्रलाप करते हुए देखा हो तो आप आज के माहौल को बहुत गहरे तक महसूस कर पाएंगे। मृत्यु का सामना कर रहा है व्यक्ति अचानक ऐसी बातें कहने लगता है जो न तो तार्किक होती हैं और न ही उनमें कोई कथा-सूत्र मौजूद होता है। यह असंबद्ध प्रलाप जीवित जागृत मनुष्यों की रूह तक पहुंच जाता है और उनके तमाम छिपे हुए भय सामने आ खड़े होते हैं। सच में, कोरोना यही सब कर रहा है कि वह हमारे छिपे हुए भयों को नंगा करके सामने ला दे रहा है।
आज सोशल मीडिया के रूप में हमारे सामने एक ऐसा मंच मौजूद है, जहां अपने द्वंद्वों को आसानी से कह और लिख पाते हैं इसलिए कथार्सिस की प्रक्रिया सहज रूप से घतित हो पाती है। उस वक्त के बारे में सोचकर ही कंपकंपी होती है, जब मनुष्य के पास ये सारे संसाधन नहीं थे और वह अपने डर के साथ निपट अकेला खड़ा हुआ था। आज तकनीक ने सभी को यह सामर्थ्य दिया है कि लोग अपनी आज की परिस्थितियों को  चुनौती दे सकें। चुनौती देने के इसी प्रोसेस से मैं भी रूबरू हूं और आप भी। ऐसे हालात में एकांत के सौ बरस का हिस्सा बन जाने में कोई बुराई नहीं है।

सुशील सर की फेसबुक से
Tejas Poonia

Monday, March 23, 2020

रिव्यू : उफ़ ये शेखुलर मोहब्बत


अगर आपको पता चले कि
2013 में उत्तराखंड के केदारनाथ में आई उस प्रलयकारी बाढ़ के पीछे एक बड़ा कारण यह भी था कि उस रात मोहब्बत के दुश्मनों ने सच्चा प्यार करने वाले एक जोड़े को अलग कर दिया था, तो कैसा लगेगा? बात फिल्मी है लेकिन अगर ‘कायदे से’ कही जाए तो आपके भीतर छुपे प्रेमी-मन को झंझोड़ सकती है, भावुक कर सकती है कि उस रात उनके बिछड़ने पर बादल भी कुछ इस तरह रोए थे कि हज़ारों को लील गए थे। लेकिन ‘कायदे से’ कही जाए तब न! इस फिल्म में और सब कुछ है, वो ‘कायदा’, वो ‘सलीका’ ही नहीं है जो किसी कहानी को आपके दिल की गहराइयों तक कुछ इस तरह से ले जाता है कि आप उस के साथ बहने लगते हैं।


दिक्कत इस फिल्म की कहानी के साथ है। आपको केदारनाथ की पृष्ठभूमि में एक लव-स्टोरी दिखानी है। लेकिन आपको लड़की अमीर और लड़का गरीब दिखाना है ताकि कहानी में टकराव दिखे। चलिए ठीक है। लेकिन उसके लिए आप को लड़की वहां के पंडित की बेटी और लड़का अपने खच्चर और पीठ पर तीर्थ-यात्रियों को ढोने वाला मुसलमान क्यों दिखाना है भई? ओह, हो... सेकुलर दिखना चाहते हैं आप। चलिए यह भी ठीक है। लेकिन लड़की आपको बागी दिखानी है, अपने परिवार और पूरी दुनिया से भिड़ने वाली, उनसे बदतमीज़ी से बात करने वाली दिखानी है। पर लड़का... माशाल्लाह, दूध से धुला, शहद से नहाया, यात्रियों से पूरी मज़दूरी तक न लेने वाला, भोले बाबा के मंदिर का घंटा बजा कर शुक्राना करने वाला, हर किसी की मदद को तैयार, किसी पर हाथ तो छोड़िए, ऊंची आवाज़ तक न उठाने वाला, और यहां तक कि जब वहां पर लालची ‘हिन्दू’ पंडितों ने होटल बनाने चाहे तो कुदरत का ख्याल रखने वाला पूरे शहर में एक अकेला यही ‘मुसलमान’ लड़का ही निकला। अब लड़का इतना ‘अच्छा’ होगा तो लड़की को तो उससे मोहब्बत होगी ही न। लेकिन ये मोहब्बत महसूस किसे हो रही है? पर्दे से उतर कर इस मोहब्बत की आंच अगर देखने वाले के दिल तक न पहुंचे, अगर इस प्रेमी-जोड़े की जुदाई पर दर्शक का दिल न पसीजे, अगर इनकी मोहब्बत की रुसवाई पर ऑडियंस की आंखें न भीगें, तो समझिए, ये मोहब्बत नहीं, मोहब्बत का ढोंग भर है, बस। अरे ‘उस रात’ नायक-नायिका के बीच कोई ‘भूल’ ही दिखा देते और अंत में इनकी मोहब्बत की निशानी के तौर पर नायिका का ‘केदार’ नाम का एक बच्चा ही दिखा देते तो इनकी मोहब्बत का कुछ अंजाम तो नज़र आता।


मात्र दो घंटे की यह फिल्म इंटरवल के बाद तक भी सिर्फ भूमिका ही बांधती रहती है। आप इंतज़ार ही करते रह जाते हैं कि कब इनकी मोहब्बत जवां होगी, कब प्रलय आएगी, और कहानी अपने क्लाइमैक्स तक पहुंच भी जाती है। हालांकि इसमें शक नहीं कि, आखिरी के बाढ़ के सीन लाजवाब हैं और दहलाते हैं। सुशांत सिंह राजपूत, नीतिश भारद्वाज, पूजा गौड़, अलका अमीन आदि का काम बुरा नहीं। लेकिन गुल्लू के किरदार में दिखे निशांत दहिया इन सब पर भारी पड़ते हैं। सैफ अली खान और अमृता सिंह की बेटी सारा अली खान अपनी इस पहली फिल्म से उम्मीदें जगाती हैं। उनके अंदर की ललक उनकी अदाओं और संवाद-अदायगी में दिखती है। गीत-संगीत साधारण है।


यह फिल्म न तो सलीके की लव-स्टोरी दिखाती है, न यह मोहब्बत के आड़े आने वाले समाज और उसकी बेड़ियों को खरी-खरी सुनाती है, और न ही तरक्की के नाम पर केदारनाथ जैसी जगहों के अति-व्यवसायीकरण पर खुल कर बात करती है। हां, एक बात यह साफ कहती है कि ऐसे तीर्थस्थानों पर हिन्दुओं का वर्चस्व, गुंडागर्दी, दादागिरी होती है और वे लोग मुसलमानों पर अत्याचार करते हैं जिसे वे लोग चुपचाप सहते भी रहते हैं। इस किस्म की फिल्में दरअसल प्रपंच रचती हैं, ‘सेकुलर’ दिखने की आड़ में ये असल में हमारे समाज में दरार डालने का ही काम करती हैं। इनसे बचना चाहिए।

अपनी रेटिंग-दो स्टार

दीपक दुआ

Saturday, March 14, 2020

मेहनतकश मेहनतकशी


यह है श्री सिमरू सिंह (मूल निवासी कनखल, हरिद्वार) कड़ी मेहनत और ईमानदारी से अपना गुजारा करने वाले 96 वर्ष के इस फुर्तीले बुजुर्ग से भेंट हुई। 15 वर्षों से गोपेश्वर (उत्तराखंड) नगर पालिका परिषद के पास सड़क किनारे बूट-पॉलिश करते हैं। एक समय जूता बनाने में महारथ हासिल रखने वाले इस मेहनती ने व्यापार में बड़ा घाटा हुआ, जिसके फलस्वरूप सड़क किनारे बूट-पॉलिश करने पर मजबूर होना पड़ा।
इनसे मिलकर और इनकी काम करने की फुर्ती देखकर किसी भी आलसी युवा को शर्म आनी लाज़मी है।
ऐसे कर्मठ और ईमानदारी लोग ही समाज मे मिशाल बनते हैं। प्रायः जहाँ आजकल सड़को पर युवा माथे पर त्रिपुंड लगाए, चोटी बढ़ाएं, हाथ में कटोरा रखकर भीख मांगते मिल जाते हैं, वहीं सिमरू सिंह जैसे व्यक्ति समाज में निठल्लों और आलसियों के समक्ष सशक्त उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। मैं इन्हें देखकर बहुत प्रभावित हुआ। हम स्वस्थ और युवा होने के बावजूद अक्सर अपने कामों में आलस कर ही जाते हैं, परन्तु यह आदमी जिस सिद्दत से अपने काम को अंजाम दे रहा है, वो निश्चय ही काबिले तारीफ है।

इन्होंने बूट-पॉलिश करने के मुझसे 30/- मांगे, मैंने इनकी मेहनत और स्वाभिमान को महसूस कर 30/- से कहीं ज्यादा (उसे गुप्त दान समझा जाए) पैसों की पेशकश की तो उन्होंने यह कहकर मना कर दिया कि बाबू जी मेहनत से ज्यादा रुपये नहीं लूंगा, बिल्कुल नहीं। मेरे समझाने और आग्रह करने पर बड़ी मिन्नत के बाद अनन्त दुवाएँ देते हुए उन्होंने आखिर वो रुपये ले लिये। जिससे मुझे इतना सुकून मिला, जिसको बयां नहीं किया जा सकता।

मैं लाखों सलाम करता हूँ आपको सिमरू सिंह जी, आपने भिक्षावृत्ति या वृद्धाश्रम में आश्रय को न अपनाकर, मेहनतकश और मेहनतकशी का बेजोड़ उदाहरण हमारे सामने रखा, जिसको आज पुनः सबसे साझा कर रहा हूँ।
ये भावनाएं आप तक पहुँचेगी, इस आशा के साथ।
🙏🙏🙏

Friday, March 13, 2020

एक प्रसिद्ध युवा लेखक के जाने के बाद

मित्रों,
आपको यह बताते हुए हर्ष भी हो रहा है और आज मन भारी भी है।
गत 11.01.2019 को कुदरत ने कभी न भुला देने वाला दुःख दिया था। मेरा अज़ीज मित्रवत विद्यार्थी डॉ० अजीत सिंह एक सड़क दुर्घटना में हमें सबको छोड़कर चले गये, पीछे दे गये कभी न भूलने वाली यादें और अपना ऐसा व्यवहार जिसका कोई भी दीवाना हो जाये।

चित्र में आपको जो यह पुस्तक दिख रही है यह आज ही प्राप्त हुई है। अजीत का सपना था कि सर, जब मेरा यह शोध कार्य पूर्ण हो जाएगा, उसके बाद हम एक पुस्तक का सम्पादन करेंगे। अब वो तो चले गये, पर उनके इस सपने ने मुझे चैन से कभी सोने नहीं दिया। उसके निर्वाण के बाद से ही उनके सपने को पूर्ण करने के लिए उनकी धर्मपत्नी श्रीमती रचना अजीत सिंह जी के विशेष सहयोग से यत्र-तत्र भिखरे उसके किये गए कार्य को एकत्रित किया और अब यह सपना पूर्ण होने से एक कदम दूर है। मन बहुत भारी है आज और हर्ष भी है पर आंखें भरी हैं।
समझ नहीं आ रहा कि अब क्या कहूँ, शब्द जैसे साथ छोड़ने से लगे हैं। कल इस पुस्तक का विमोचन उनकी धर्मपत्नी के हाथों उन्ही के स्कूल (रतन दीप पब्लिक स्कूल, ग्राम-अकबरपुर कालसो भगवानपुर रुड़की, हरिद्वार) यानी जिस स्कूल की स्थापना स्वयं अजीत जी के द्वारा की गयी थी। उनके इसी विद्यालय के प्रांगण में कल यानी 13.03.2020 उनके जन्मदिन के अवसर पर अजीत जी की मूर्ति स्थापना व उसका अनावरण किया जाना है, वही इस पुस्तक के विमोचन की योजना भी है जो अभी तक गोपनीय रखी गयी है। इस पुस्तक का रहस्योद्घाटन कल उक्त कार्यक्रम में होगा। स्वास्थ बिल्कुल ठीक नहीं फिलहाल, लेकिन उससे वादा जो किया था।

पुस्तक के बारे में-
आपको यह बताते हुए गर्व हो रहा है कि इस पुस्तक की भूमिका मशहूर दलित साहित्यकार व आधार स्तम्भ डॉ० जयप्रकाश कर्दम जी ने लिखी है। इसके लिए उनका हृदय से हमेशा आभारी रहूंगा। साथ ही पुस्तक प्रकाशन के क्षेत्र में संजय प्रकाशन, दिल्ली के श्री प्रवीण जी का अभी दिल से आभार व्यक्त करता हूँ कि उन्होंने इस योजना को पूर्ण करने में अपना सकारात्मक सहयोग दिया।
दलित साहित्य की वैचारिकता को समझने और दलित साहित्य के मजबूत आधार स्तम्भ ओम प्रकाश वाल्मीकि के दलित व साहित्यिक अवदान को बखूबी से पुस्तक में दर्शाया गया है। निश्चय ही यह पुस्तक भावी शोधार्थियों हेतु एक मील का पत्थर साबित होगी। जयप्रकाश कर्दम जी के भूमिका लिखने के फलस्वरूप इस पुस्तक का साहित्यिक मोल और बढ़ गया है।
काश अजीत आज आप हमारे बीच होते तो बात कुछ और होती।
अपने तन-मन-धन-समय के बाद भी यदि पुस्तक में कोई त्रुटि रही हो तो माफ करना अजीत भाई। अपने स्तर से बखूबी प्रयास किया है मैंने। आप जहाँ भी होंगे यह देखकर आप प्रसन्न अवश्य होंगे। और हाँ यह कोई एहसान नहीं भाई, यह एक वादा है जो आपसे किया था और उसे पूर्ण करने की जिम्मेदारी आप अकेले मुझपर छोड़ चले।
इस पुस्तक के पीछे एक मुख्य कारण यह भी है कि मैं नहीं चाहता था अजीत जैसा व्यक्तित्व अपने ग्राम या जन्मभूमि तक सीमित रहे, मेरी दिली इच्छा है कि इस पुस्तक के माध्यम से अजीत भाई कम से कम अपनी लेखनी के माध्यम से भारत के कोने कोने तक ज़रूर पहचाने जाएं।
बाकी कल विमोचन के बाद आगे लिखूंगा...

मन भारी ज़रूर है अजीत पर हिम्मत ज्यो की त्यों बनी है, कमी है तो बस आपकी...


धन्यवाद

Saturday, March 7, 2020

रिव्यू-उम्मीदों की किश्ती पर सवार ‘हामिद’


‘अगर बच्चों के उसूलों पर चले, तो दुनिया कब की जन्नत हो गई होती...।
इस फिल्म का यह संवाद फिल्म खत्म होने के बाद भी याद रह जाता है। दिल के किसी कोने में यह अहसास भी जगता है कि क्यों नहीं यह दुनिया बच्चों के हिसाब से चलती? क्यों नहीं सब मासूम हो जाते? क्यों नहीं हम बीते ज़ख्मों को भुला कर आगे बढ़ जाते?


कहने को इस फिल्म में धरती के जन्नत कहे जाने वाले कश्मीर की मौजूदा तस्वीर के सारे रंग हैं। सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकते युवा, आज़ादी की मांग करते लोग, उनके लिखे आज़ादी के नारे पर मूतते सुरक्षा बल, बेहद तनाव में अपनी ड्यूटी बजाते सिपाही, लापता हो गए कश्मीरी मर्दों को तलाशती उनकी ‘अधूरी बेवाएं’ (हाफ विडो), कश्मीरियों नौनिहालों का ब्रेनवॉश करने में जुटे लोग, और इन सबके बीच में रोज़मर्रा की ज़िंदगी जीते आम कश्मीरी। लेकिन यह कहानी इनकी नहीं है। यह हामिद की कहानी है। उसकी मां इशरत की कहानी है। उसके गायब हो चुके पिता रहमत की कहानी है। रहमत, जो नाव बनाने का काम करता था। शायरी भी लिखता था। एक रात वह घर से निकला और लापता हो गया। अब इशरत पुलिस-स्टेशन के चक्कर काटती है और किसी तरह से हामिद को पालती है। मासूम हामिद को उसके पिता का यूं चले जाना बहुत खलता है। उसके पिता ने उसे कहा था कि 786 अल्लाह का नंबर होता है। वह इन अंकों वाला एक फोन नंबर डायल करता है जो वहीं के एक सिपाही के फोन में जा बजता है। हामिद को पूरा यकीन है कि उसकी बात अल्लाह से हो रही है। फिल्म का अंत मार्मिक है और सुखद भी। हामिद के पिता ने ही उसे बताया था कि जब कोई अल्लाह को प्यारा हो जाता है तो उसे इसलिए दफनाते हैं ताकि उसे भुलाया जा सके। जब हामिद को अहसास हो जाता है कि उसके पिता अब वापस नहीं आएंगे तो वह उनसे जुड़ी चीज़ें ज़मीन में दफना देता है और उस किश्ती को पूरा करने में जुट जाता है जो उसके पिता अधूरी छोड़ कर अल्लाह के पास जन्नत की मरम्मत करने के लिए चले गए थे।
हामिद के रोल में अरशद रेशी अपनी मासूमियत और संवाद अदायगी से दिल जीतते हैं। इशरत बनी रसिका दुग्गल बेहद प्रभावी रही हैं और रहमत के छोटे-से किरदार में सुमित कौल अपना असर छोड़ते हैं। सिपाही बने विकास कुमार अपने किरदार में समाए दिखते हैं। फिल्म के संगीत में मिठास है और कैमरा कश्मीर की खूबसूरती के साथ-साथ वहां के तनाव और वहां की उदासियों को भी बखूबी उकेरता है। ऐजाज़ खान का निर्देशन परिपक्वता लिए हुए है।
फिल्म की रफ्तार धीमी है। कई जगह यह खलने भी लगती है। लेकिन फिर अहसास होता है कि शायद इस तरह की कहानी के लिए यही रफ्तार सही है। मसाला मनोरंजन के मुरीदों के लिए नहीं है यह फिल्म। फिल्म में कुछ सीन गैरज़रूरी और लंबे हैं। इसका नाम भी अपने-आप में अधूरा-सा लगता है। लेकिन फिल्म एक साफ संदेश दे जाती है कि बिना बीती बातों को दफनाए आगे के सफर पर नहीं निकला जा सकता। उम्मीदों की किश्ती को पानी में तैराना है तो अतीत का बोझा उतार फेंकना होगा।
अपनी रेटिंग-साढ़े तीन स्टार

Review By Deepak Dua 

Friday, March 6, 2020

हिंदी उपन्यासों में देह व्यापार


निर्मला पुतूल स्त्री अस्तित्व पर एक सवाल करती हुई कहती हैं-

धरती के इस छोर से उस छोर तक
मुठ्ठी भर सवाल लिए मैं,
दौडती रही हूँ, सदियों से निरन्तर
अपनी जमीन, अपना घर अपने होने का अर्थ।।

बीसवीं सदी में प्रबुद्ध वर्ग के साथ-साथ स्त्रियों ने अपनी आन्तरिक शक्ति को पहचानना शुरू कर दिया था। अतः सामाजिक उत्थान और प्रगति के दृष्टिकोण से उन्हें बराबरी के अधिकार मिले। स्त्री शक्ति इस विकास को देखकर जहाँ यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमंते तत्र देवता की उक्ति चरितार्थ होनी चाहिए थी, वहाँ हुआ इसके घोर विपरीत। नारी स्त्री शोषण में प्रायः द्विगुणित वृद्धि होती गई। प्रभा खेतान के शब्दों में औरत के आर्थिक अवदान को नकारने की परम्परा रही है। पहले गृहस्थी में उसके श्रम को नकारा जाता है फिर मुख्यधारा में उसे स्थान दिया जाता है तब उस स्त्री को या तो अपवाद मानकर पुरुष वर्ग अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेता है या फिर उसे परे धकेल दिया जाता हैं।1

लेकिन घर, परिवार, समाज से परे पुरुष ने अपने सुख, तृप्ति, वासना के लिए एक ऐसे संसार की रचना की है जहाँ स्त्री सिर्फ उसके सुख का माध्यम है। उस सुख की भागीदार नहीं। यह है जिस्म के खरीद-फरोख्त का बाजार। देहवृत्ति के इस धंधे में औरत के शरीर का इस्तेमाल बडे ही अमानवीय तरीके से किया जाता है। आदिकाल से आज तक औरत की देह पुरुष की तुष्टि के लिए और अपनी जरूरतों के लिए, उनकी पूर्ति के दूसरे साधनों के अभाव में बिकाऊ रही है, लेकिन अब सुविधाओं और साधनों के लिए यह बिकाऊ हो रही है। बडा जटिल सवाल है आज 21वीं सदी में, और वहीं खडी है। फिर से बिकाऊ बनी।2

वैदिक कालीन समाज से प्रारम्भ करें तो ऋग्वैदिक काल में स्त्रियों को समाज में बडा महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। उन्हें पुरुषों के बराबर सामाजिक और धार्मिक अधिकार प्राप्त थे। घोषा, लोपामुद्रा और अपाला आदि विदुषियों ने ऋग्वेद के मंत्रों की रचना की थी। गार्गी ने याज्ञवल्क्य से शास्त्रार्थ किया था। उत्तर वैदिककाल में स्त्रियों के सम्मान में थोडी कमी आ गई। इसी युग में नारी के इतने सम्मान के बावजूद वेश्याएँ भी समाज का हिस्सा थीं। गर्भवती गांधारी की सेवा में वेश्याएँ नियुक्त थीं। बहुसंख्यक वेश्याएँ सेवा-शुश्रषा, परिचर्या, संगीत, नृत्य आदि कलाओं में निपुण होती थीं और इन कार्यों के लिए उन्हें विशेष अवसरों पर नियोजित किया जाता था।
महाभारत में वेश्याओं का वर्गीकरण राज वेश्या, नगर वेश्या, गुप्त वेश्या, देव वेश्या व ब्रह्म वेश्या के रूप में किया गया है। अप्सरा, किन्नरी, हूर, परी, स्वर्ग की गणिकाएँ थी। स्वर्ग के निवासियों का मनोरंजन एवं यौन सुख प्रदान करना इनका कर्तव्य था। स्वर्ग के राजा इन्द्र को जब-जब धरती पर से किसी ऋषि, मुनि और तपस्वी के स्वर्ग में आने का डर हुआ उसने उनकी तपस्या भंग करने के लिए अप्सराओं को धरती पर भेजा। मेनका, उर्वशी, रँभा इसी श्रेणी की गणिकाएँ थीं।

पुरातत्त्ववेत्ताओं एवं इतिहासकारों को उत्तर-पाषाणकालीन सिंधु घाटी की सभ्यता में भी वेश्यावृत्ति के विकसित चिह्न प्राप्त हुए हैं। सिंधु घाटी सभ्यता, मिश्र एवं बेबीलोन, असीरिया, स्लाम आदि की सभ्यताओं की समकालीन थी। इन देशों में भी उस समय वेश्यावृत्ति का चलन था। हडप्पा और मोहनजोदडो से नर्तकी की कुछ सुन्दर मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। संभवतः उस समय भी मंदिरों में देवदासियाँ होती थीं। मंदिरों में ही नहीं राजाओं ने भी वेश्यावृत्ति को प्रश्रय दिया। विजेता राजा को हारे हुए राजा की ओर से अपनी बेटी और विभिन्न दास-दासियाँ देने की परम्परा थी। युद्ध में जीते गाँव, कस्बों व नगरों की नारियों का यौन-शोषण होना स्वाभाविक था। युद्ध की विभीषिका का खमियाजा स्त्री व बच्चों को ही ज्यादा भुगतना पडता है। संसार के हर कोने में आज भी युद्धों के बाद सैनिकों द्वारा अत्याचार की यही कहानी दोहराई जाती है।

बाईबिल में केडेशोथ वेश्याओं का वर्णन आता है। अर्मीनिया देश में पुराने समय में यह आम प्रथा थी कि लोग अपनी बेटियों को देवदासी बना देते थे। प्राचीन बेबिलोनिया में इन देवदासियों का बडा रुतबा था। प्राचीन ऐथेन्स में भी वेश्याओं को सम्मान की दष्टि से देखा जाता था।3
देवदासियों की प्रथा लगभग 1700 वर्ष पुरानी है- देवदासियों को मंदिर में सेवा के एवज में नियमित आय, वार्षिक आधार पर नगद या भूमि उपहार के रूप में दी जाती थी। प्रौढ होने पर वह मंदिर से सेवानिवृत्त हो सकती थी। न केवल भारत में, विश्व के हर कोने में वेश्यावृत्ति का एक धार्मिक स्वरूप किसी न किसी रूप में विद्यमान रहा है। राजस्थान में राजनट, मध्यप्रदेश के बडिया और राजस्थान, मध्यप्रदेश के बार्डर में बछडा समुदायों में सामाजिक स्वीकृति से स्त्रियों का शोषण पीढी-दर-पीढी चलता आ रहा है, जिसके लिए कहीं कोई अपराध-बोध नहीं।

गीता में देवदासी भाविन है। आन्ध्र प्रदेश में कुडिकर, बोगम या जोगिन, तमिलनाडु में थेवरडियर, महाराष्ट्र में जोगलीन मुराली और अर्धनी, कर्नाटक में जोगनी या बासवी, उडीसा में गणिका और असम में नटी है। हर क्षेत्र व प्रांत की भाषा के अनुसार देवता को समर्पित ये देवदासियाँ हैं। लेकिन उनकी आय को मंदिर के पुजारी इकट्ठा करते थे। महाराष्ट्र और गोवा में अधिकांश गरीब परिवारों की लडकियाँ ही देवदासी बनाई जाती हैं। चूँकि एक बार देवता से ब्याह दी जाने के बाद किसी साधारण पुरुष से ब्याह नहीं हो सकता इसलिए वे दूसरे शहरों या नगरों में जाकर यौन-कर्मी बन जाती हैं।
जगन्नाथ पुरी के मंदिर के अलावा वहाँ के छोटे-बडे सभी मंदिरों में देवदासियाँ विद्यमान थी, जिनका शोषण मंदिर के पुजारी, तीर्थयात्रियों व साधुओं के द्वारा होता रहता था। ग्राहक किन स्थानों पर अधिक होते हैं उनमें से एक स्थान ये धार्मिक स्थल हैं और इन धार्मिक स्थलों में भी जब वर्ष में मेले व बडे कार्यऋम होते हैं तब उनकी आमदनी बढ जाती है।

उडीसा और बंगाल में कसबी जाति भी है जो अपनी किशोरी लडकियों को किसी अमीर पुरुष के पास भेजते हैं। एक अच्छी खासी मोटी रकम लेकर पाँच दिन पहले से विभिन्न रीति-रिवाज रस्में निभाई जाती हैं।
आदमी हमेशा से नारी की स्वतंत्र सत्ता से डरता रहा है और उसे ही उसने बाकायदा अपने आक्रमण का केन्द्र बनाया है। अपनी अखंडता और संपूर्णता में नारी दुर्जेय और अजेय है। वह एक ऐसी शक्ति है जो स्वतंत्र और स्वछन्द है, इसीलिए आदमी ने उसे ही तोडा है। आदमी ने लगातार और हर तरह कोशिश की है कि उसे परतन्त्र और निष्क्रिय बनाया जा सके। सिमोन कहती है कि औरत पैदा नहीं होती, बनाई जाती है। (सिमोन, 1949)
इसलिए वेश्याएँ भी आदिकाल से समाज का हिस्सा हैं। इतिहास के पन्नों पर आम्रपाली के साध्वी बनने, वसंतसेना के उपपत्नी बनने और कई तवायफों के गीत, गजल, ठुमरी की मल्लिका बनने की कहानियाँ दर्ज हैं। कुछ यौनकर्मी इस व्यवसाय में बनी रहना चाहती हैं, तो कुछ चाह कर भी निकल नहीं पाई और कुछ ब्याहकर घर परिवार वाली बनती रही हैं।
हिन्दी कथा साहित्य में स्त्री के वेश्या रूप को लेकर काफी लिखा गया है। कभी उसके बहाने किसी गृहिणी की विपत गाथा, तो कभी उसके नारकीय जीवन की त्रासदी को बयां करती कृतियाँ हर युग में इस समस्या को रेखांकित करती आ रही हैं। ईसापूर्व दूसरी सदी में लिखी गई संस्कृत की कहानी मृच्छकटिकम में वैशाली की नगरवधू इसी काम के लिए जानी जाती है। चतुरसेन शास्त्री की वैशाली की नगरवधू हो या अमृतलाल नागर की ये कोठेवालियाँ, या फिर मुंशी प्रेमचन्द का सेवासदन- सभी में इस समस्या का गंभीरतापूर्वक चिंतन कर समाज को प्रबुद्ध करने के प्रयास किए गए हैं। मुंशी प्रेमचन्द के सेवासदन की नायिका सुमन द्वारा दहेज की समस्या का गंभीरतापूर्वक चिन्तन कर समाज को प्रबुद्ध करने के प्रयास किए गए हैं। मुंशी प्रेमचन्द के सेवासदन की नायिका सुमन दहेज की समस्या के कारण इस धंधे में आने के लिए विवश हो जाती है। दहेज के अभाव में अनमेल विवाह, पति का शंकालु स्वभाव, धर्म-परायण लोगों का वेश्या को सम्मान देना आदि कई कारण मिलकर भले घर की स्त्रियों को पथभ्रष्ट करने की भूमिका तैयार करते हैं। अकेली स्त्री समाज से लड नहीं पाती है जबकि समाज उसे तोडने की कोशिश करता है।
निराला अपने पहले उपन्यास अप्सरा में एक अलग अवलोकन बिन्दु से वेश्या जीवन को देखते हैं। गंधर्व जाति और अप्सरा के रूपक का समावेश करते हुए लेखक ने रूपजीवा कनक की इस विवशता को उभारा है कि उसे प्रेम करने का अधिकार नहीं है। सर्वेश्वरी अपनी पुत्री कनक का पालन-पोषण इस प्रकार करती है कि उसके मन में पुरुष के प्रति प्रेम नहीं बल्कि उसकी स्वभावगत कमजोरियों का लाभ उठाने की भावना दृढ होती जाती है। इस वृत्ति द्वारा उसे अपार संपत्ति की प्राप्ति तो होती है, लेकिन प्रेम से प्राप्त होने वाले आत्मतोष का परिचय उसे नहीं मिल पाता। माता सर्वेश्वरी ने कनक को सिखलाया था, किसी को प्यार मत करना। हमारे लिए प्यार करना आत्मा की कमजोरी है। यह हमारा नहीं।4
आचार्य चतुरसेन का बहुचर्चित उपन्यास वयं रक्षामः स्त्री देह पर पुरुष की एकाधिकारवादी मनोवृत्ति पर सीधी चोट करता है। नायिका, नायक से सीधा सवाल पूछती है, तू दाता है या याचक-नायक उत्तर देता है, प्यार का याचक हूँ। इस पर नायिका जवाब देती है, तो याचक की तरह ही रह, दाता का दंभ मत भर। नायक अपनी भावनाओं को स्पष्ट तौर पर रखता हुआ कहता है, मैं तुमसे प्यार करता हूँ। नायिका तुरन्त पूछती है, प्यार क्या होता है। जवाब मिलता है-जो प्राणों को विलय करता है। इस पर नायिका पूरे दंभ के साथ कहती है, तो तू प्यार कर, अनुमति देती हूँ। किन्तु तू ही पहला पुरुष नहीं है। तुझसे पहले बहुत आ चुके हैं। तू अंतिम भी नहीं है और अनेक आएँगे।
सोनागाछी में देह व्यापार से जुडी औरतों में ऐसा ही गर्व देखा जाता है। वहाँ तक पहुँचने की और पारिवारिक और व्यक्तिगत मजबूरियों की दुखभरी दास्तान इनकी जिन्दगियों में भी है, पर शायद स्पष्ट तौर पर दिख रही पुरुषों की इनकी ओर आसक्ति इन्हें मानसिक मजबूती दिये हुए है। सोनागाछी का देह बाजार देहकर्मियों से पटा रहता है। ये न सिर्फ एच.आई.वी. एड्स के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करती हैं बल्कि सरकार से अपने लिए कामगार (वर्कर) के दर्जे की माँग भी कर रही हैं।5
जगदम्बा प्रसाद दीक्षित का प्रचलित उपन्यास मुर्दाघर संभवतः बडे फलक पर वेश्याजीवन को प्रतिबिंबित करने वाला पहला मौलिक उपन्यास है। इस उपन्यास की नायिका मैना को वेश्या व्यवसाय करते हुए पुलिस पकड कर ले जाती है और हवालात में बंद कर देती है। उसका पति उससे जाकर मिलता है और उसे घर की औरत बताकर छुडाकर ले जाने की बात करता है। तब मैना उसका विरोध करती हुई कहती है- तेरे बोलने से क्या होता। मैं रंडी हूँ : सब लोग कू मालूम। मैं खुद बोलती.... मैं रंडी हूँ। ... और तू .... मेरा मरद होके मेरे से अईसा काम करवाता .... मेरी कमाई खाता... मैं। स्पष्ट है कि मैना मजबूर करने वाले पुरुष पति के खिलाफ बोलने लगी है।
नारी अपनी देह मजबूरी में बेचती है। मोहनदास नैमिशराय का आज बाजार बंद है वेश्याओं के जीवन पर केन्द्रित एक यथार्थवादी उपन्यास है। इस उपन्यास की प्रमुख नायिका पार्वती है, किन्तु मुख्य नायिका के अलावा शबनम, हसीना, मुमताज, बीना, सलमा, पायल, चम्पा, चमेली, गुलाब, रुखसाना, शम्मी, हमीदा, जीनत, जरीना, हाजरा, कुसुम, फूल, सुमन, गुमरन आदि अनेक वेश्याएँ हैं, जिनमें से अधिकांश दलित वर्ग की या मुस्लिम हैं और धोखे से या मजबूरी में यह जीवन जी रही हैं। मोहनदास नैमिशराय की दृष्टि बहुत पैनी है। उन्होंने बहुत बारीकी से इस संसार का वर्णन किया है। वेश्याओं की सीलन भरी कोठरियाँ, सौन्दर्य प्रसाधन, अंग भंगिमा, ग्राहकों की हरकत, पुलिस की परेशानियाँ, ब्राह्मण देवता की कामलीला, लोगों की अंधश्रद्धा, अज्ञानता, वेश्याओं के उत्सव व उनकी मान्यताओं आदि का ऐसा जीवन्त चित्रण किया है मानो ये सारे चित्र चलचित्र की तरह आँखों के सामने घूम रहे हों- सावधान होकर जाओ, ऊपर रंडियाँ रहती हैं। जो जिस्म से जिस्म की भाषा की तब्दीली में विश्वास करती हैं। केवल एक मंजिल की सीढियाँ चढने में वे सभी हाँफने लगे थे। दिन का समय होने पर भी सीढियों के आस-पास अंधेरा था जैसे किसी तहखाने की सीढियों से जा रहे हों वे। सीढियों के स्टैप ऊँचे तथा खुरदरे थे। जिनका पत्थर कहीं-कहीं से उखड गया था। दीवारें बदरंग थीं। पुराना मकान होने के कारण स्टैप की संख्या काफी थी।6
समाज चाहे किसी भी देश या जाति का हो स्त्री सदैव पिछले पन्नों पर ही रही है। पिछले पन्ने की औरतें उपन्यास में शरदसिंह ने बेडिया समुदाय के इतिहास, संस्मरणों, लोक कथाओं एवं किंवदन्तियों के माध्यम से बेडनियों (बेडिया स्त्रियाँ) के जीवन के नंगे यथार्थ को उपन्यास में चित्रित किया है। वर्तमान समय में बेडिया समुदाय मध्य-प्रदेश के सागर जिले और उसके आस-पास और विशेषतः पथरिया बेडनी नाम के गाँव में बसा हुआ है जिसका नाम इसके समुदाय के नाम पर पडा है। बेडनियाँ समाज में परम्परानुमोदित नृत्य के माध्यम से अपने परिवार का भरण-पोषण करती हैं। छोटी उम्र में बेडनियाँ राई नाचना शुरू कर देती हैं और अपने परिवार की आर्थिक मदद करने लगती हैं। बेडनियों में विवाह संबंध तो प्रचलित हैं, लेकिन राई नृत्य करने वाली स्त्री विवाह नहीं करती, वह चाहे तो किसी भी पुरुष के साथ अपना शारीरिक संबंध रख सकती है अथवा पुरुष की रखैल रह सकती है। ऊपर से देखने पर बेडनियों का जीवन काफी उन्मुक्त और स्वतंत्र दिखता है, लेकिन सच्चाई का यह केवल एक पक्ष है।
दरअस्ल राई एक लोक-नृत्य कला है। लेकिन आधुनिक समय में भी बेडिया समुदाय की स्त्रियों को नृत्य करने और मजबूरी में देह-व्यापार जैसे अवैध कृत्य करने को बाध्य होना पडता है, जो अब उनके समाज में परम्परा से स्वीकृत हो चुका है। उपन्यास में उल्लिखित है कि इन स्त्रियों ने यह जीवन स्वेच्छा से नहीं चुना था। बेडिया समुदाय का इतिहास यह बतलाता है कि कभी इस समुदाय के पूर्वज पृथ्वीराज चौहान और उनके जमींदारों से संबंध रखते थे। युद्ध में हार के बाद जब इनके पुरुष मारे गये तब कुछ औरतों ने तो जौहर कर लिया, लेकिन कुछ औरतों ने किसी तरह जीवन जीने की हिम्मत दिखाई, समाज में उन स्त्रियों की जीवन जीने की महत्त्वाकांक्षा की कीमत उनकी अस्मत थी। अतः उन्होंने इसके बल पर धनवान पुरुषों को रिझाना आरम्भ कर दिया। धीरे-धीरे यही उनका पेशा बन गया।
बेडिया समाज की औरतों की समस्याएँ उनके दैहिक शोषण से जुडी हुई हैं। चूँकि अपने समाज में आय का प्रमुख स्रोत उनका नृत्य और देह ही है। अतः समस्याओं के मूल में भी वही मौजूद है। रजस्वला होने के बाद ही वह इस धंधे के लायक समझी जाती है और सिर ढकना की प्रथा के बाद उसे किसी ठाकुर अथवा रईस पुरुष की रखैल बनना पडता है। वह पुरुष उसका इस्तेमाल अपनी सम्पत्ति की तरह करता है। उसकी माँग पर प्राकृतिक अथवा अप्राकृतिक तरीके से यौन-इच्छाओं को उन्हें पूरा करना पडता है। उस पुरुष के पारिवारिक उत्सवों में जाकर नाचना और वहाँ उपस्थित रिश्तेदारों का मनोरंजन करना बेडनी के लिए अनिवार्य है और उसकी इच्छा-अनिच्छा का कोई प्रश्न नहीं उठता। उपन्यास की एक पात्र नचनारी ठाकुर के बच्चे को जन्म देती है। जन्म के एक महीने के बाद ही ठाकुर के घर से राई नृत्य के लिए बुलावा आ जाता है। अभी उसका शरीर कमजोर है, परन्तु ठाकुर की आज्ञा को वह टाल नहीं सकती और नृत्य करने जाती है। ठाकुर की क्रूरता उसके गर्भावस्था के दौरान भी देखने को मिलती है जब वह गर्भ के सातवें-आठवें महीने में भी उसके साथ यौन-संबंध बनाता है और एक बार जब नचनारी बिल्कुल ही इसके लिए राजी नहीं होती, तब वह अपना लिंग जबरन उसके मुँह में डाल उसे मुख-मैथुन के लिए बाध्य करता है। नचनारी मन ही मन बहुत ऋोधित होती है, लेकिन प्रत्यक्ष रूप से कुछ कह नहीं पाती क्योंकि वह जानती है कि ठाकुर अपनी इच्छा पूरी न होने पर उसे और उसके बच्चे को मौत के घाट उतारने से भी नहीं हिचकेगा।
अविवाहित मातृत्व इनकी एक अन्य प्रमुख समस्या है। इनके बच्चे अवैध कहलाते हैं। लेखिका यह सुनकर स्तब्ध रह जाती है कि बेडनियाँ स्कूल में बच्चे के पिता का नाम पूछे जाने पर रुपया, पैसा कुछ भी लिखवा देती हैं। यह सही भी है क्योंकि रुपये, पैसे के लिए ही वो माँ बनने पर मजबूर हैं। देह व्यापार की लगातार आवश्यकता ने बेडिया औरतों के जीवन में कभी स्थायित्व नहीं आने दिया। सभ्य समाज का कोई पुरुष उन्हें पत्नी के रूप में स्वीकार करना पसंद नहीं करता और यदि वे अपने समाज के पुरुष से विवाह रचाती भी हैं तब भी धंधे पर उन्हें लौटना ही पडता है। उपन्यास में एक बेडनी धंधा नहीं करना चाहती है और सामूहिक विवाह आयोजन में उसका विवाह तथाकथित सभ्य घर के लडके से होता है। विवाह के कुछ समय पश्चात् ही घर की सभ्यता सामने आ जाती है, क्योंकि पति अपने ही दोस्तों के साथ शारीरिक संबंध बनाने के लिए मजबूर करने लगता है। वह उससे कहता है- तू क्या समझती है तुझे अपनी बीवी बनाए रखने को तुझसे शादी किया मैंने। अरे, चल हट। तुझे तो मैं इसलिए ब्याह कर लाया हूँ कि तुझसे धंधा करा सकूँ। उसका यह वाक्य उसकी तमाम सभ्यता के ढकोसले को सामने रख देता है जिसके लिए बीवी पहले बेडनी है और बाद में पत्नी या शायद वह भी नहीं, महज यौन-इच्छाओं की पूर्ति का साधन-मात्र।
देह के व्यापार का जन्म भूख और बेरोजगारी के गर्भ में से ही नहीं हुआ है, इसकी जिम्मेदार पुरुष लिप्सा की अनियंत्रित आकांक्षा भी है। मधु कांकरिया अपने उपन्यास सलाम आखिरी में भारतीय पुरुषों का स्त्री-पक्ष प्रस्तुत करती लिखती हैं, पुरुषों का आज भी वेश्याओं के पास जाने को किसी भी प्रकार की अनहोनी घटना न समझने वाला विजय बडे गर्व से अपने युवा मित्र के द्वारा अडतालीस स्त्रियों के साथ शारीरिक संफ की बात करता है और जब सुकीर्ति उसे पुरुष वेश्या कहलाना अधिक उपयुक्त समझती है, तब भी विजय के पुरुषों के पक्ष में अपने तर्क हैं- जहाँ तक मैं जानता हूँ, वेश्यावृत्ति हमारी संस्कृति के हर कालखंड में किसी न किसी रूप में जीवित रही है, चाहे वह महाभारत काल रहा हो, मौर्यकाल या वैदिक काल। बस यूं समझ लो कि जगन्नाथपुरी के रथ की तरह वेश्यावृत्ति के रथ को खींचने के लिए युग में पुरुष आते रहे।...
मधु कांकरिया आगे लिखती हैं- सैद्धांतिक तौर पर नारी पूजा की वस्तु रही है, पर व्यवहार में सदैव ही काम की वस्तु रही। कुछ आस्थावान नारी पात्रों को छोडकर यहाँ सारी मूर्तियाँ प्रायः नग्न ही रहीं। प्रसिद्ध यात्री मार्कोपोलो ने और बाद में एक अन्य यात्री हेमिल्टन ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि देवदासी यदि रूपवती होती, तो कोई-न-कोई धार्मिक सेठ उसे मंदिर से अपने भोग के लिए ले जाता, लेकिन वृद्ध देवदासियों को बिना सुरक्षा के ही मंदिरों से निकाल दिया जाता था। इन देवदासियों के प्रथम संभोग का अधिकार कई जगह उस व्यक्ति को भी मिलता था जो मंदिर को सर्वाधिक धनराशि दान देता था, और कई जगह यह सौभाग्य केवल ब्राह्मणों को मिलता था।
वेश्याओं के अवरुद्ध मानसिक विकास को देखकर सुकीर्ति को बोंसाई पद्धति की याद आती है। इन वेश्याओं में से करीब नब्बे प्रतिशत बारह-तेरह वर्ष की उम्र में ही इस माहौल में आकर बंद हो जाती हैं। किसी बाडे में बंद भेडों का- सा जीवन उनका। चकले की मालकिन एवं दलाल उन्हें किसी से मिलने-जुलने तक नहीं देते कि कहीं चिडिया उड न जाय। मुश्किल से इनकी भाषा में सत्तर-अस्सी शब्द होते हैं- अंगिया, खटिया, अंगना, जोवना, तकिया, बतिया, कंगन, चूमा, चिपटा, लिपटा जैसे सिर्फ देह की भाषा तक ही सीमित। अधिकांश का मस्तिष्क एक बच्चे के मस्तिष्क से अधिक विकसित अवस्था में नहीं रहता है।
लता शर्मा ने सही नाप के जूते उपन्यास में आधुनिक नारी के भूमंडलीय समाज में कमोडिटी के रूप में परिणत होकर खुद को बिकाऊ स्थिति में डालने की स्थितियों का चित्रण कर स्त्री के इन सबसे अलग रहने का मार्ग प्रशस्त किया है। उपन्यास प्रारम्भ में ही यह वाक्य- मुक्त अर्थव्यवस्था के सामने नाच रही है अर्द्धनग्न स्त्री देह कथाकार के उद्देश्य को स्पष्ट कर देता है कि वह इस मुक्त बाजार की उपभोक्ता संस्कृति में अभिभावकों की महत्त्वाकांक्षाओं के सामने लडकों को कितना-कितना लाचार कर देते हैं। माँ की महत्त्वाकांक्षा अपनी बेटी को विश्वसुन्दरी बनाने की है, इसलिए वह अपनी बेटी उर्मी को उर्वशी तक की यात्रा कराती है, सामान्य लडकी से विश्व-सुन्दरी। उसके शरीर की देख-भाल, रख-रखाव, वह जिस रूप में कर रही है, उसमें बेटी की खान-पान, रहन-सहन, पढने-ओढने में निज की कोई इच्छा नहीं है, जैसा माँ कराती है, वह करती चली जाती है। कुछ बनने के लिए ... उर्मी को बचपन और कैशोर्य का बहुत कुछ खोना पडता है और यौवन का बहुत कुछ खोती है वह माँ की महत्त्वाकांक्षा के लिए, अपने मालिश करने वाले को शरीर भी समर्पित करना पडता है तो माँ उसे बिजनेस हैजार्ड (व्यावसायिक जोखिम) कहकर अनदेखी में डाल देती है। वह भारत-सुन्दरी का ताज पाने में सफल हो जाती है, अब माँ उसका अगला पडाव विश्व-सुन्दरी का तय करती है। भारत सुन्दरी बनते ही तीन घटनाएँ एक साथ घटती हैं, माँ ने कफ परेड की खूबसूरत इमारत सागर रत्न में फ्लैट खरीदा, पापा सरकारी क्वार्टर में ही छूट गए, और उर्वशी का कौमार्य भंग हुआ।
माँ के लक्ष्य को पाने के लिए वह मशीनी जीवन जीने लगती है, भारत सुन्दरी बनते ही उर्वशी के चारों ओर विज्ञापनों की वर्षा होने लगी। उसके पास दो ही काम थे। माँ द्वारा बताई गई जगह पर हस्ताक्षर करना और निर्देशक द्वारा बताई गई वस्तु हाथ में लेकर विज्ञापित करना। समय बहुत कम था। एक बार विश्व सुन्दरी प्रतियोगिता की ट्रेनिंग शुरू हो गई, तो किसी काम के लिए वक्त नहीं बचेगा। आषाढ की धूप है, जितने बने, पापड बना लो। इन सबसे थक-ऊबकर उर्वशी पापा के पास घर लौट जाना चाहती है किन्तु माँ वहीं पाँच करोड रुपये का आलीशान फ्लैट ले जरा ढंग से रहना चाहती है अब। बेटी को चिन्ता है कि इसका लोन कैसे पटेगा, माँ जानती है कि यह सब बेटी के शरीर-विज्ञापन से ही आएगा। चार्ल्स रोजेरियो नामक युवक अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त शरीर वैज्ञानिक प्रशिक्षक और मालिश करने वाला उसे पूर्ण नग्न कर आपाद मस्तक निहारता है, परीक्षक की तरह और ऐसे ही किसी सेशन में ऐसे ही संगीत की लहरों पर डूबते-उतरते अचानक एक बार चार्ल्स ऊपर चढ आया। दोनों हाथों से उर्वशी के पुष्ट उरोजों को भींच उसके अन्दर उतर गया। माँ बडी शांति और धैर्य से बेटी की पूरी बात सुन पानी में डेटॉल डालकर गुप्तांग धोने और अच्छी तरह नहाने की सलाह देकर उपराम हो जाती है, सहज भाव से इसे व्यवसायगत जोखिम-आक्यूपेशनल हैजार्ड, का नाम देकर और व्यक्तिविहीन हुई उर्वशी सदा की आज्ञाकारिणी की तरह इसे भूल गई। फिर वो विश्वसुन्दरी की यात्रा तक कई बार उन ब्यूटी कांटेस्ट सेशंस में प्रख्यात व्यक्तियों की जूरी के सदस्यों को उसने तरह-तरह से अपने को परोसा और इसी की कीमत पर विश्वसुन्दरी का ताज हासिल किया। माँ की महत्त्वाकांक्षा पूरी हुई। आगे क्या है। कोई और शिखर।.... या ढलान.... सिर्फ ढलान।7
फिल्म इंडस्ट्री में सफलता और प्रसिद्धि के अनेक शिखर छूते हुए अन्ततः वह ढलान से गर्त में, और गहरे गर्त में गिरती चली जाती है। और अन्त में मिला है उसे कारुणिक दारूण अन्त। इस प्रकार उपन्यास भूमंडलीय समय के भँवर में फँसी मॉड नारी की नियति का आख्यान रचता है।
निर्मल भुराडिया का उपन्यास गुलाम मंडी महिलाओं के साथ-साथ किन्नर समाज के शारीरिक शोषण और प्रताडना को प्रस्तुत करता है। आर्थिक असमर्थता, बेरोजगारी, शिक्षा का अभाव, तकनीकी अकुशलता, परंपरागत पेशे का अज्ञान, साथ ही समाज का अमानवीय व्यवहार किन्नरों को यौन कर्म की ओर धकेलता है। जानकी के माध्यम से लेखिका दलितों के यौन शोषण और मानव-तस्करी के सत्य पर से पर्दा उठाती हैं। आर्थिक बेरोजगारी के कारण यौन-कर्म के लिए मानव तस्करी का वैश्विक बाजार बढता जा रहा है। यौनकर्मियों के साथ बर्बरतापूर्ण व्यवहार के वर्णन के साथ मायावी दुनिया का अमानवीय सत्य प्रस्तुत करती हैं,- हाँ कुछ भी तो नहीं भूली थी जानकी। लम्बे-लगडे बलशाली मैक के द्वारा बार-बार किया गया बलात्कार। शरीर पर नील के निशान देने, नोचने-काटने वाले ग्राहक। नंगा नचवाने के लिए भूखा रखने वाली मारिया। ऐनल सेक्स करके असहनीय दर्द और चोट पहुँचाने वाला गंजा टॉम। कैसे भूल सकती है वो यह सब।8 जिसके बाद वह फिर सामान्य जीवन नहीं जी पाती। जानकी कहती है- मैं तो जल रही हूँ खुद के प्रति नफरत में। कितनों ने मेरी देह को रौंदा है।9
मधु कांकरिया प्रश्न करती हुई स्वयं ही उत्तर तलाशती हुई लिखती हैं- संसार की किस फैक्टरी में ढाली जाती हैं ये वेश्याएँ। ये ढाली जाती हैं या समाज की खुशहाली अथवा परिवार की किलेबंदी के बाई-प्रोडक्ट के रूप में खुद-ब-खुद अंकुरित हो जाती हैं। शहरी औद्योगीकीकरण और आधुनिकीकरण की आँधी ने मानवी को सिर्फ देह में परिवर्तित कर दिया है। वह रह गई है मात्र शरीर.. एक स्थूल शरीर.. कलाहीन, रूपहीन, रूप की हाट में बिकता एक रुग्ण शरीर।10
उमराव जान संभवतः वेश्या जीवन को उद्घाटित करने वाली पहली लिखित गाथा है। लेखक मिर्जा हादी का यह दावा है कि यह उमराव की सच्ची आत्मकथा है। कम उम्र की लडकियों की खरीद-फरोख्त से लेकर एक वेश्या के पूरे जीवन की दर्द भरी दास्ताँ का जिऋ इसमें किया गया है। उमराव कहती है - एक मेरी फूटी तकदीर थी कि बिकी, तो कहाँ रंडी के घर में।11 वह अपनी किस्मत पर अफसोस करती हुई जीवन यात्रा के पडाव याद करती है कि कैसे वह अमीरन से उमराव बनी। उम्र की ढलान पर जब वह उन कामों को छोड किसी के घर बैठने की सोचती तब वह समाज की सोच को लिखती है- लोग कहेंगे कि आखिर रंडी थी, कफन का चोगा किया जब कोई रंडी उम्र से उतर जाने के बाद किसी के घर बैठी रहती है, तो तजुरबेकार तमाशबीन कहते हैं कि मरते-मरते कफन ले मरी, इंतजाम कर लिया कि कफन के पैसे पास से न खर्चने पडें और फरेब में फँसा के दूसरे के सर बोझ डाल दिया।12 कितना खुदगर्ज होता है पुरुष समाज, जिसके साथ रात रंगीन करता है दिन के उजाले में बसता हुआ देख बर्दास्त नहीं कर सकता और गढने लगता है तमाम बातें।
ऐसा ही कुछ गीताश्री अपने उपन्यास हसीनाबाद में वेश्याओं के प्राणहीन जीवन की एक झांकी प्रस्तुत करती हैं- हसीनाओं से आबाद इस नगर की हसीनाएँ अपने बेहिसाब दर्द में बर्बाद थी। हसीनाएँ वहाँ पर कुछ समय के लिए ही हसीन रहती थीं, फिर खण्डहर और मलबों में बदल जाती थी। उस बस्ती में, उसकी धूल, मिट्टी और हवाओं में सिर्फ देह गंध ही भरी थी। जैसे सारी औरतें देह की गठरियाँ हो, जमीन पर लुढकती हुई गठरियाँ, प्राणहीन गठरियाँ, जिनमें उभरी हुई अरमानों की कब्रें साफ नजर आती थी।13
प्रत्येक व्यक्ति स्वाभिमान से जीने की कामना करता है। जहाँ तक एक स्त्री की प्रकृति की बात है तो वह मिटने के बजाए स्वाभिमान से मरना बेहतर समझती है। लेकिन सभ्य समाज कैसे लडकियों को अगवा कर इस बाजार तक पहुँचा देते हैं जहाँ उसे किसी भी बात का अधिकार नहीं- कुछ पल के लिए वह भूल गयी थी कि वह स्वप्न नगर की नहीं हसीनाबाद की नागरिक है, जहाँ उसकी नींद तक गिरवी है।14
फिर कानून पुरुषों को वेश्याओं, कॉलगर्ल या अनैतिक चरित्र की किसी भी महिला के साथ बलात्कार तक का कानूनी अधिकार देता है। संशोधन से पहले साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 155(4) में कहा गया था कि गवाह की विश्वसनीयता खत्म करने के लिए किसी व्यक्ति पर बलात्कार का आरोप हो तो उसे यह सिद्ध करना चाहिए कि अमुक महिला आमतौर पर अनैतिक चरित्र की महिला है। मतलब महिला को अनैतिक चरित्र की स्त्री प्रमाणित करने पर बलात्कार का अपराध माफ। या फिर पुरुषों को बलात्कार का कानूनी अधिकार है वेश्याओं या कॉलगर्ल के साथ?
देह व्यापार में उँगली भले ही वेश्या की ओर उठती है, किन्तु यह पितृसत्ता के तुष्टीकरण की नीति के तहत ही तो जीवित है। पुरुष वर्ग रस्सी से बँधी स्त्री का स्वाद भी पाना चाहता है और रस्सी तुडाई हुई स्त्री का भी। लेकिन दमन और यातना के इतिहास के साथ-साथ अस्तित्व की अभिव्यक्ति भी निरन्तर चलती रहती है। गरीब पुरुष जहाँ अपनी मजबूरी से भीख माँगने का आदी बन जाता है तो स्त्री को अपनी सांसें बरकरार रखने के लिए अपनी देह का बिस्तर बिछाना ही पडता है ..... वह कहती है- मजबूरी में वह अपनी देह तो दे सकती है, रूह पर काबू तो कभी इस जन्म में तुम नहीं पाओगे। बिना रूह की मुर्दा देह चाहिए तो ले लो।15
प्रश्न यह है कि कीडे-मकोडों की तरह जीते-जी नरक की जिन्दगी जीने के लिए अभिशप्त असंख्य लोगों का यह सिलसिला तथाकथित सभ्य कहलाने वाले मानव-समाज में क्या अनवरत इसी तरह चलता रहेगा? तिनका तिनके के पास और दस द्वारे का पिंजरा दोनों ही उपन्यासों में अनामिका वेश्यावृत्ति के पारम्परिक से लेकर आधुनिक तक विविध रूपों को उजागर करती हुई वेश्याओं के पुनर्वास की समस्या को भी उठाती है। अनामिका वेश्यावृत्ति में पहुँची इन स्त्रियों को अपराधबोध से ग्रस्त नहीं बनाती। तारा और ढेलाबाई ऐसी ही स्त्रियाँ हैं जो अपनी नियति के कारण किसी प्रकार ग्लानि में नहीं डूबती। लेखिका उन्हें स्वाभिमान और मर्यादा से युक्त ऐसी उच्च सामाजिक चेतना सम्पन्न स्त्रियों के रूप में चित्रित करती हैं जो वेश्या के रूप में स्त्री के वस्तुकरण का प्रतिकार करके उसका पुनः मानुषीकरण करती है। पूरा जीवन वेश्या के रूप में जीने वाली ढेलाबाई अपनी नातिन काननबाला से पूछती है कि औरत को देह मिली है तो क्या। वह इस देह को रूह का कैदखाना बनाए रखने के लिए तनिक भी सहमत नहीं। उसके अनुसार इस समस्या का सुधारात्मक समाधान यह है कि स्त्री को अपना संसार और बडा करना होगा।

संदर्भ :
(1) प्रभा खेतान, अन्या से अनन्या, पृ. 212
(2) कमल कुमार, पासवर्ड, पृ. 20
(3) नीना लाम्बा, व्यावसायिक यौनकर्मियों का सुधार एवं पुनर्वास, पुलिस अनुसंधान एवं विकास ब्यूरो,
गृह मंत्रालय, नई दिल्ली, पृ.19
(4) निराला, अप्सरा, पृ.15
(5) गीतश्री- औरत की बोली, पृ.148
(6) मोहनदास नैमिशराय- आज बाजार बंद है, पृ.24
(7) लता शर्मा, सही नाप के जूते, पृ.9
(8) गुलाम मंडी, पृ. 235
(9) गुलाम मंडी, पृ. 239
(10) आखिरी सलाम, पृ. 59
(11) मिर्जा हादी रुस्वा- उमराव जान ‘अदा’, पृ. 88
(12) मिर्जा हादी, रुस्वा- उमराव जान ‘अदा’, पृ. 92
(13) गीताश्री, हसीनाबाद, पृ. 21
(14) गीताश्री, हसीनाबाद, पृ. 23
(15) अनामिका, दस द्वारे का पिंजरा, पृ.192

सम्पर्क : सहायक आचार्य, हिन्दी विभाग,
राजस्थान केन्द्रीय विश्वविद्यालय
बान्दरसिंदरी, किशनगढ,
अजमेर (राज.)
मो. 9413169433

Sunday, March 1, 2020

रिव्यू : किसानों के प्रति कृतज्ञ होने का संदेश देती 'सीरी'

पिछले 15 सालों में खेती से हुए नुकसान से लगभग 7300 किसान मजदूरों ने आत्महत्या कर ली। यह आँकड़ा कहने सुनने में छोटा लग सकता है किंतु सोचकर देखें कि जिन किसानों की बदौलत हम अनाज, फल, सब्जियां खाते हैं और जिंदा रहते हैं क्या कभी भी हम उनके प्रति कृतज्ञ हो पाए हैं। नहीं ना? आए दिन अखबारों और न्यूज चैनलों की मात्र ये सुर्खियांबनकर रह जाते हैं। कभी टिड्डी दल तो कभी सफेदा किसानों की फसलों को चौपट कर जाता है। 

एक बुजुर्ग एक लड़की को लेकर पानी की टँकी पर चढ़ा हुआ है और उसे मारने की धमकी भी देता है। इस बीच काफी सारी घटनाएं होती हैं। सीरी फ़िल्म की कहानी है ही ऐसे ही एक किसान की। किसान चंद नाम और उसका दोस्त कीटो आपस में खेती करते हैं। ढाई किले जमीन चंद की है और पाँच किले जमीन ठेके पर लेकर कीटो चंद का सीरी यानी साझेदार किसान मजदूर है। पिछली तीन फसलें बर्बाद हो चुकी हैं कीड़े लगने की वजह से और अबकी बार कीटो को अपनी बेटी की एन आर आई लड़के से शादी भी करवानी है। इस बीच वे अस्सी हजार रुपए कर्जा भी लेते हैं। लेकिन फसल में अच्छा बीज डालने के बावजूद फसल चौपट हो जाती है और कर्जे के चलते कीटो आत्महत्या कर लेता है। कुछ समय बाद खबर आती है कि सरकार किसानों को मुआवजा देगी। लेकिन यहाँ भी साढ़े सात किले जमीन की एवज में चंद के हिस्से मुआवजे के मात्र 2 हजार रुपए आते हैं। इस सबको देख वह लड़ाई लड़ने का फैसला करता है। कोर्ट केस होता है। एक पढ़ी लिखी लड़की के साथ मिलकर पानी की टँकी पर भी चढ़ जाता है। अब समझे वह पानी की टँकी पर क्यों चढ़ा? 

सबसे पहले तो धन्यवाद सुरेंद्र सर का जिन्होंने इस फ़िल्म का प्राइवेट लिंक भेज कर मुझे रिव्यू लिखने के लिए कहा। राष्ट्रीय फ़िल्म पुरुस्कार विजेता राजीव कुमार ने इस फ़िल्म का स्क्रीनप्ले काफी कसा हुआ रखा है। जिस बदौलत यह फ़िल्म दिल के काफी अंदर तक पैठ बनाती है और सोचने पर मजबूर करती है कि क्या महज किसानों की आए दिन हो रही दुर्दशा को हम यूँ ही देखते रहेंगे। 

एक बात और जो इस फ़िल्म में दिखाई गई है वह यह कि आजादी के बाद हमारे पास खाने को गेहूँ नहीं था और गेहूँ हमें अमेरिका से आयात करना पड़ता था। वह ऐसा गेहूँ होता था जिसे वे समुद्र में बहा दिया करते थे। उसके बाद उन्होंने हथियारों की खेती छोड़ ज़हरीले यूरिया और अन्य दवाईयां बनाकर अधिक फसल लेने का लालच दिखाया। जिसके कारण मौजूदा हालात यह है कि हमारे देश की मिट्टी का उपजाऊपन जाता रहा है। ना ही वैसा स्वाद अब फल, सब्जी और अनाज में रहा है और न ही वैसी पौष्टिकता। 

खैर सीरी फ़िल्म एक बेहद ही जरूरी मुद्दे को उठाती है और बेहद संवेदनशील तरीके से हर किरदार ने अपना श्रेठ प्रदर्शन किया है। फ़िल्म का गीत- संगीत फ़िल्म के स्तर को ऊँचा उठाता है। फ़िल्म की कास्टिंग, ड्रेस, लोकेशन, म्यूजिक सब एक मंझे हुए निर्देशन टीम में ही सम्भव हो सकता है। राष्ट्रीय फ़िल्म पुरुस्कार विजेता 'नाबर' फ़िल्म प्रोडक्शन के बैनर तले बनी इस फ़िल्म की बेहतरीन सिनेमेटोग्राफी के लिए रोबिन कालरा की जितनी तारीफ की जाए कम है। इसी तरह एडिटिंग के लिए दीपक गर्ग भी तालियों के हकदार है। फ़िल्म का म्यूजिक दिया है मनाश बोनहाकुर , कुणाल अग्रवाल ने। फ़िल्म का सबसे अहम और जरूरी हिस्सा उसका गीत होता है गीतकार संतराम उदासी, कर्म जीत भाटी, बलविंदर सिंह की कलम इस मामले में बेहद खूबसूरती से निखर कर सामने आई है। 

फ़िल्म चूंकि रिलीज नहीं हुई है ना ही इसका कोई ट्रेलर लॉन्च हुआ है लेकिन फिर भी अपनी और से इस फ़िल्म को साढ़े 4 स्टार

रिव्यू : जरूरी सवाल उठाती 'थप्पड़'

निर्देशक: अनुभव सिन्हा
अभिनीत: तापसी पन्नू, दीया मिर्ज़ा, माया सरराव, गीतिका विद्या, रत्ना पाठक शाह, तन्वी आज़मी, नैला ग्रेवाल, पावेल गुलाटी, कुमुद मिश्रा, मानव कौल, अंकुर राथे, सुशील दहिया

घर के  मुख्य द्वार से न्यूज पेपर और दूध की बोतलें लेने और अदरक और लेमनग्रास के साथ चाय के कप को पीते हुए, दिन की भीड़ से पहले बालकनी में शांति के चाय की चुस्कियाँ भरती हुई अमू यानी अमृता की कहानी किस कदर मोड़ लेगी यह फ़िल्म के मध्यांतर के लगभग पहले से ही तय हो जाता है। अमृता का जीवन एक सामान्य दैनिक जीवन है जो थप्पड़ के माध्यम से प्रतिच्छेदित किया गया है, 
अमृता की खुशहाल जिंदगी तब टूटती है जब उसका पति उसे पार्टी में थप्पड़ मारता है।

अमृता (तापसी पन्नू) के जीवन में प्रत्येक जंक्शन पर एक अलग अंतर्निहित अर्थ कैप्चर करने वाला एक रनिंग थ्रेड है।  घरेलू जीवन में निर्विवाद संतोष और अपने स्वयं के सपनों को शादी में लिए जाने की बेचैनी में रखती हुई अमृता एक पार्टी में एक पति द्वारा दिए गए अप्रत्याशित थप्पड़ के अपमान से एक पार्टी में सक्रिय भूमिका निभाने के बावजूद इस कदर आत्मसम्मान को ठेस पहुँचा बैठती है कि नोबत तलाक तक पहुँच जाती है।  इस फ़िल्म के बारे में  यह है कि वह बाहर की दुनिया के साथ-साथ शादी, रिश्तों, परिवार के परिणामों को कैसे नष्ट कर सकती है। 


थप्पड़ के ट्रेलर ने मुझे एक थकावट की भावना के साथ छोड़ दिया था। लेकिन फिल्म के टीज़र के मूल को प्रकट कर चुकी यह फ़िल्म दो घंटे से अधिक दर्शकों की दिलचस्पी बनाए रख सकती है? इस बारे में कहना दिलचस्प नहीं।  

 
हालाँकि, लेखक अनुभव सिन्हा और मृण्मयी लगू वीकुल एक थप्पड़ को पुरुष पात्रता के बड़े अन्वेषण में बदल देते हैं।  वे एक निंदनीय लेकिन संक्षिप्त और किफायती कथा बुनते हैं, जो एक महिला के जीवन पर ध्यान केंद्रित करते हुए भी इसे हर महिला के बारे में कहानी में बदल देती है।   यह सभी आयु समूहों और सामाजिक विभाजनों में महिलाओं के एक सुंदर प्रारंभिक क्रम में अच्छी तरह से केंद्रित है, कारों और साइकिलों में रात को सवारी करते हुए, कुछ अपने पुरुषों के साथ, एक तरफ पितृसत्ता के उल्लंघन की अपनी कहानियों के साथ सभी पर एक नारंगी रंग की तरह है यह फ़िल्म

 यह फ़िल्म उन महिलाओं के बारे में है जो रोज़मर्रा की पितृसत्ता के दबाव के चलते चुपचाप रहने के लिए मजबूर  हैं ("बर्दाशत करना" जैसा कि फ़िल्म कहती है)  लोग कहते हैं।  मानव कौल, कुमुद मिश्रा, रत्ना पाठक शाह,तन्वी आज़मी से लेकर अमृता के भाई नैला ग्रेवाल और उसके विवादित वकील माया सराओ सभी का अभिनय श्रेष्ठ तथा फ़िल्म की कहानी उसकी बुनावट के अनुकूल है। गीत- संगीत भी जरूरत के अनुसार ही है। फ़िल्म में कोई मसाला नहीं बल्कि संवेदनशीलता है और यह संवेदनशीलता केवल महसूस की जा सकती है। इस तरह यह फ़िल्म एक महिला की कहानी हर महिला, हर पुरुष और रोजमर्रा के पुरुष पात्र बन जाती है।

अपनी रेटिंग - ढाई स्टार