‘अगर बच्चों के उसूलों पर चले, तो दुनिया कब की जन्नत हो गई होती...।
इस फिल्म का यह संवाद फिल्म खत्म होने के बाद भी याद रह जाता है। दिल के किसी कोने में यह अहसास भी जगता है कि क्यों नहीं यह दुनिया बच्चों के हिसाब से चलती? क्यों नहीं सब मासूम हो जाते? क्यों नहीं हम बीते ज़ख्मों को भुला कर आगे बढ़ जाते?
कहने को इस फिल्म में धरती के जन्नत कहे जाने वाले कश्मीर की मौजूदा तस्वीर के सारे रंग हैं। सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकते युवा, आज़ादी की मांग करते लोग, उनके लिखे आज़ादी के नारे पर मूतते सुरक्षा बल, बेहद तनाव में अपनी ड्यूटी बजाते सिपाही, लापता हो गए कश्मीरी मर्दों को तलाशती उनकी ‘अधूरी बेवाएं’ (हाफ विडो), कश्मीरियों नौनिहालों का ब्रेनवॉश करने में जुटे लोग, और इन सबके बीच में रोज़मर्रा की ज़िंदगी जीते आम कश्मीरी। लेकिन यह कहानी इनकी नहीं है। यह हामिद की कहानी है। उसकी मां इशरत की कहानी है। उसके गायब हो चुके पिता रहमत की कहानी है। रहमत, जो नाव बनाने का काम करता था। शायरी भी लिखता था। एक रात वह घर से निकला और लापता हो गया। अब इशरत पुलिस-स्टेशन के चक्कर काटती है और किसी तरह से हामिद को पालती है। मासूम हामिद को उसके पिता का यूं चले जाना बहुत खलता है। उसके पिता ने उसे कहा था कि 786 अल्लाह का नंबर होता है। वह इन अंकों वाला एक फोन नंबर डायल करता है जो वहीं के एक सिपाही के फोन में जा बजता है। हामिद को पूरा यकीन है कि उसकी बात अल्लाह से हो रही है। फिल्म का अंत मार्मिक है और सुखद भी। हामिद के पिता ने ही उसे बताया था कि जब कोई अल्लाह को प्यारा हो जाता है तो उसे इसलिए दफनाते हैं ताकि उसे भुलाया जा सके। जब हामिद को अहसास हो जाता है कि उसके पिता अब वापस नहीं आएंगे तो वह उनसे जुड़ी चीज़ें ज़मीन में दफना देता है और उस किश्ती को पूरा करने में जुट जाता है जो उसके पिता अधूरी छोड़ कर अल्लाह के पास जन्नत की मरम्मत करने के लिए चले गए थे।
हामिद के रोल में अरशद रेशी अपनी मासूमियत और संवाद अदायगी से दिल जीतते हैं। इशरत बनी रसिका दुग्गल बेहद प्रभावी रही हैं और रहमत के छोटे-से किरदार में सुमित कौल अपना असर छोड़ते हैं। सिपाही बने विकास कुमार अपने किरदार में समाए दिखते हैं। फिल्म के संगीत में मिठास है और कैमरा कश्मीर की खूबसूरती के साथ-साथ वहां के तनाव और वहां की उदासियों को भी बखूबी उकेरता है। ऐजाज़ खान का निर्देशन परिपक्वता लिए हुए है।
फिल्म की रफ्तार धीमी है। कई जगह यह खलने भी लगती है। लेकिन फिर अहसास होता है कि शायद इस तरह की कहानी के लिए यही रफ्तार सही है। मसाला मनोरंजन के मुरीदों के लिए नहीं है यह फिल्म। फिल्म में कुछ सीन गैरज़रूरी और लंबे हैं। इसका नाम भी अपने-आप में अधूरा-सा लगता है। लेकिन फिल्म एक साफ संदेश दे जाती है कि बिना बीती बातों को दफनाए आगे के सफर पर नहीं निकला जा सकता। उम्मीदों की किश्ती को पानी में तैराना है तो अतीत का बोझा उतार फेंकना होगा।
अपनी रेटिंग-साढ़े तीन स्टार
Review By Deepak Dua
Superb
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