Friday, May 8, 2020

उत्तराखण्ड के लोकगीतों में समाहित क्रांतिकारी भावना


मानव आदिकाल से ही अपनी रागात्मक भावनाओं की भाषागत अभिव्यक्ति गीतों, कहानियों, उक्तियों आदि के माध्यम से करता आया है।
जन साधारण की यह स्वभाविक भाषागत अभिव्यक्ति ही लोक साहित्य कहलाता है। मूलतः लोकगीत सामुदायिक व जातीय रचनाएं हैं। इनका
सर्जन पूरा लोक समाज करता है। समूची जाति ही लोकगीतों की उद्भावना और पोषण का आधार होती है। एक विशिष्ट व्यक्ति या व्यक्तियों
की वाणी ही धीरे-धीरे लोकवाणी बन जाती है। समय के साथ-साथ लोकगीतों में कुछ नये अंष जुड़ जाते हैं और उसमें यदि कोई
असामाजिक तत्व होता है, तो उसका परिष्कार कर दिया जाता है। अतः लोकगीत अंतवोगत्वा एक निर्वैयक्तिक, सामुहिक और सामाजिक
रचना है, जो इसका एक विषिष्ट गुण है।
लोकगीत हमारे राष्ट्रीय लोक साहित्य की अमूल्य निधि है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि देश की स्वतंत्रता संघर्ष में राष्ट्रीय व्यवहारिक
साहित्य की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। क्योंकि व्यवहारिक साहित्य कुछ पढ़े-लिखे लोगों तक ही पहंुच सका था। लेकिन
इन राष्ट्रीय लोकगीतों ने लाखों लागों को प्रभावित एवं प्रोत्साहित किया है। राष्ट्रीय लोकगीतों एवं शिष्ट राष्ट्रीय गीतों ने एक-दूसरे हेतु पूर्णता
का कार्य किया है। लोकगीतकारों ने व्यवहारिक साहित्यकारों की अपेक्षा क्रांतिकारियों और गांधीजी की प्रतिभा व शक्ति को अधिक गहराई
से तथा शीघ्र लिया। निःसन्देह ही राष्ट्रीय लोककवि, राष्ट्रीय साहित्यिक कवियों की अपेक्षा अधिक निर्भीक व क्रांतिकारी थे। राष्ट्रीय लोकगीतों
ने परांपरा से हटकर राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष को एक नया आयाम दिया। लोककवियों ने लोक साहित्य का विकास किया और स्वाधीनता
आंदोलन को अत्यधिक व्यापक व शक्तिशाली बनाने में मदद की। यह भी प्रमाणित है कि राष्ट्रीय लोकगीत और राष्ट्रीय व्यवहारिक गीत
एक-दूसरे के पूरक रहे हैं। लोकगीत चाहे वे किसी भी प्रांत से संबंधित क्यों न हो सदियों से जनता का शोषण करने वाले वर्गों के विरुद्ध
जनता की क्रांतिकारी भावना व विद्रोही प्रवृत्ति की हुंकार सुनाई देती है।
उत्तराखण्ड राज्य में कई देशभक्त पैदा हुए और अपनी जन्मभूमि के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिये। उन्हें अपने देश की पवित्र भूमि,
पर्वत, नदियों, आमजन, तथा उसकी विकसित संस्कृति के गौरवमय इतिहास से बड़ा प्यार था। चंूकि उत्तराखण्ड का भू-भाग दो भागों
गढ़वाल और कुमाउं में बटा है इसलिए यहां के लोकगीत भी दोनों (गढ़वाली व कुमाऊनी) ही क्षेत्रीय भाषा में प्राप्त होते हैं। यहां
उत्तराखण्ड के कुछ मुख्य लोकगीतों के विषय में जानकारी है जिन्होंने देश की क्रांति में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।

जब टिहरी नरेश ने अपने कर्मचारियों को यह आदेश दिया कि जिस गांव के मेले में क्रांतिकारी चेतना जगाने वाले गीत गाये जाते हो, उन
पर सामूहिक जुर्माना किया जाए। इस बात का प्रभाव लोगों पर विपरीत प्रभाव पड़ने लगा, स्थानीय लोगों के मन में लोकगीतों के प्रति
लगाव और भी बढ़ गया। रंवाई में शहीद भगत सिंह के संबंध में एक लोकगीत प्रचलित है-
थाली छाटी बल हींग,
आमार देशू मा जरमी गई वीर भगत सींग।
माच्छू मारी बल गाव,
तू भगत सींग ह्वेगै अंगरेजू कू काव।
सोलिया कु बल पेणु,
दिन कु हरची खाणु त्यंूकू रात कु हरची संेणु।
(अर्थात- सुना है कि हमारे देश में भगतसिंह नाम का एक वीर पैदा हो गया है, जो अंगे्रजों के लिए मौत बनकर आया है। उसके भय से
अंगे्रजों का दिन का खाना तथा रातों की नींद उड़ गयी हैं)

इसके बाद 30 मई, 1930 को तिलाड़ी के मैदान में एक बर्बर कांड हो गया। टिहरी नरेश ने तिलाड़ी मैदान में हो रही जनसभा में
गोलियां चलवां दी, जिसमें कई निहत्थे किसान मारे गये और सैकड़ो गंभीर रूप से घायल हो गये। इस बर्बर काण्ड पर रवांई का एक और
लोकगीत इस प्रकार हैः
तिलाड़ी मैदान तीस कु साल,
जरमी गई तेख राजा कु काल।
ऊंद बोलों गंगाडू गंजेलू कु गांज,
तेरु पापी राज पड़लू बांज।
ऊंद बोलो गंगाडू सुप झाड़ी पीठी,
सबी ज्वानू ली लेखी द्यो न चीठी।
अंगे्रज-राजा दुया जन भाई,
गांवू-गांवू मा त्यून वसूली लाई।
उठो मेरा भायो यूं पाप्यों मारो,
अपण नौनू तु फंड तारो।
(अर्थात- सन् 1930 में तिलाड़ी मैदान में राजा ने निहत्थे आदमियों पर गोलियां चलवायी जिसमें कई लोग मारे गये तथा सैकड़ों घायल हो
गये। हे! राजा, तेरा इस प्रकार का अत्याचारी शासन नष्ट हो जाएगा। अत्याचारी अंग्रेज व राजा-दोनों भाई-भाई से लगते हैं। दोनों जुल्मी हैं।
सभी लोगों को पत्र लिख दो कि इनके शासन को मिटाने के लिए काम करें। भाइयों! उठो और इन पापियों को मारकर अपनी आने वाली
पीढ़ी/बच्चों को इन अत्याचारों से मुक्त करो।)

एक अन्य गढ़वाली लोकगीत में भारत को स्वतंत्र कराने में महात्मा गांधी के योगदान तथा उनके त्यागमय साधारण जीवन के विषय में
बताया गया है-
मातमा गांधी बड़ो भागी छ,
देश मुलक को अनुरागी छ!
बकरी को दूद वो खांदू छ,
खादी को लाणू वा लांदू छ!
पंद्र अगस्त हमू दिलैगी वो,
अंगरेजू सणी भगैगी वो!
आजादी हयू दिलैगी वो,
राज किसाणू दिलैगी वो!
मातमा गांधी बडू त्यागी छ,
देश मुलक को अनुरागी छ!
(अर्थात- महात्मा गांधी बड़े भाग्यशाली हैं, देष के प्रेमी हैं। वे बकरी का दूध पीते हैं, खादी के वस्त्र पहनते हैं। वे हमे पन्द्रह अगस्त दे
गये, वे अंगे्रजों को भगा गये, वे हमें स्वतंत्रता दिला गये, वे किसानों को राज दे गये। महात्मा बड़े त्यागी हैं। देश के अनुरागी हैं।)

उत्तराखण्ड का नाम शहीद श्रीदेव सुमन के बगैर अधुरा है। श्रीदेव सुमन गढ़वाल के प्रमुख राष्ट्रीय नेता थे। वह टिहरी नरेख की सामंतषाही
के विरुद्ध 84 दिनों तक अनशन करने के बाद देष की बलिवेदी पर शहीद हुए थे। श्रीदेव सुमन आज भी गढ़वाली के लोग-मानस को
आंदोलित करते हैं। एक गढ़वाली लोकगीत में श्रीदेव सुमन के संघर्ष का गौरवमय बखान इस प्रकार किया गया है-
सड़की को सूत सुमन सड़की को सूत ले,
टीरी मां पैदा ह्वैगे सुमन, सुमन सपूल ले।
गढ़ माता को प्यारो सुमन, सुमन सपूत ले!
अखोडू को कीच सुमन, अखोडू को कीच,
ढंडक शुरू ह्वैगे सुमन, रवांई का बीच,
घाघरी को फेर सुमन, घाघरी को फेर!
× × × × × × × × × × × ×
सुफल होइगे सुमन, तेरो त्यो बलिदान!
गढ़माता की वीर सुमन, तेरो त्यो बलिदान!!

गढ़वाली लोकगीतों के समानान्तर ही उत्तराखण्ड के कुमाऊनी क्षेत्र में भी सुप्रसिद्ध राष्ट्रवादी कवि गुमानी पंत भी निरन्तर अंग्रेजों के
अत्याचारी शासन का घोर विरोध कर रहे थे। उन्होंने अंगे्रजी राज की बुराइयां करते हुए नये राज्य के साथ आयी नयी बातों की ओर ध्यान
आकर्षित कराया। फिरंगियों के आगमन से अल्मोड़ा की स्थिति का वर्णन कुछ इस प्रकार करते हैं-
विष्णु का देवाल उखाड़ा ऊपर बंगला बना खरा,
महाराज का महल ढहाया बेड़ी खाना तहां धरा।
मल्ले महल लड़ाई नंदा बंगलों से भी तहां भरा,
अंगे्रजों न अल्मोडे़ का नक्षा और ही और करा।
(अर्थात- अंगे्रजों ने अल्मोड़े में आकर विष्णु भगवान का मंदिन उजाड़ दिया और पहाड़ी के ऊपर अपना सुंदर बंगला बनवा दिया।
महाराजा का महल उजाड़ कर वहां कारागार बनवा दिया। उन्होंने महल उड़ाकर बंगले बनवा दिये। वास्तव में अंग्रेजों ने तो अल्मोड़े का
नक्षा ही बदल दिया है।)

आगे राष्ट्रवादी कवि गुमानी पंत ने गोरखों के अत्याचारी शासन का वर्णन करते हुए करारा व्यंग्य किया-
दिन दिन खजाना का भार का बोकनाले,
षिव षिव चुलि में का बाल नैं एक कै का।
तदपि मुल्क तेरो छोड़ि नै कोई भाजा,
इतवदति गुमानी धन्य गोरखालि राजा।
(अर्थात- प्रतिदिन खजाना ढोते-ढोते प्रजा के सिर के बाल उड़ गये, पर एकाधिपत्य गोरखों का ही रहा। कोई भी उनका राज्य छोड़कर
नहीं गया। अतः है गोरखाली राजा, तुम धन्य हो।)

कवि गुमानी पंत ने अपनी जनवादी कविता ‘फिरंगी वर्णन‘ में अंगे्रजी शासन पर कुछ इस प्रकार कटाक्ष किया है-
दूर विलायत जल का रास्ता करा जहाज सवारी है,
सारे हिन्दुस्तान भरे की धरती वष कर डारी है।
और बड़े शाहों में सबसे धाक बड़ी कुछ भारी है,
कहे गुमानी धन्य फिरंगी तेरी किस्मत न्यारी है।
× × × × × × × × × × × × × × × ×
अपने घर से चला फिरंगी पहुंचा पहले कलकत्ते,
अजब टोप बन्नाती कुर्ती ना कपड़े ना कुछ लत्ते।
सारा हिन्दुस्तान किया सर बिना लड़ाई कर फत्ते,
कहत गुमानी कलयुग ने याँ सुबजा भेजा अलबत्ते।

कुमाऊनी जनता ने भी 1857 की क्रांति के समय अंग्रेजों के विरुद्ध आवाज उठाकर अपनी क्रांतिकारी चेतना को अभिव्यक्त किया।
लोककवि खिमानंद लिखते हैं-
कंपनी का भारत में देख अत्याचार,
भारत का लोग उठा हैगे मारामार।

कुमाऊं में कुली-बेगार प्रथा के विरुद्ध चले आंदोलन के समय ये लोकगीत गूंज उठा-

अब है गईं गांधी अवतार, झन दिय मंेसो कुली बेगार,
घर घर खादी का कर परचार, अब है गईं गंाधी अवतार।

सुप्रसिद्ध कुमाऊनी जनकवि गौरीदत्त पांडे ‘गोरी‘ ने एक कविता के माध्यम से गांधी जी का सिपाही बनने का संकल्प लिया-
बण गांधी सिपाई रहटा कातुला,
देष का लिजिया हम मरि मिटुला।
× × × × × × × × × × × ×
मेरा मुल्कीया यारो जै गांधी की बोल
झल चूकिया मौका छ जुगति अमोल।

राष्ट्रीय कवि हीरावल्लभ शर्मा ने एक कुमाऊनी गीत में भारत की स्वतंत्रता पर खुषी व्यक्त करते हुए लिखते हैं-
सफल हैगो तिरंगी, हिंदुस्तान बै भाज फिरंगी।
महात्मा सुभाष जवारलाल, लैरोई ख्याल जस गोपाल।

भारतीय लोकमानस में सदा ही लोक कल्याण की भावना व्याप्त रही है। विभिन्न संस्कारों तथा पर्वों के अवसर पर गाए जाने वाले
गीतों में परिवार व समाज के सभी सदस्यों की मंगलकामना की गयी है। कुमाऊं में होली की समाप्ति पर लोगों के घर जाकर सब मंगल
गीत गाये जाते हैं-
हो हो होलक रे, आज को बसंत कैका वर,
आज का बसंत नाम का घर हो हो हो लकर।
यनरो पूर परीवार जी रौ लोख बरीस, हो हो लकरे,
यनरो भरो रौ अन धन लै कुछान, हो हो लकरे।

अतः भारत के स्वाधीनता संग्राम पर उत्तराखण्ड के लोकगीतों का व्यापक प्रभाव को भली-भांति देखा जा सकता है। हमारे
लोककवियों/गीतकारों ने भी स्वतंत्रता सेनानियों का यशोगान किया। शहीद भगतसिंह और अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी आदि महापुरुषों
का खुलकर गुणगान किया है। इसमें कोई अतिष्योक्ति नहीं है कि लोकगीतों के माध्यम से क्रांतिकारी भावना जगाने में उत्तराखण्ड का
योगदान प्रमुख रहा है।



’’’ प्रस्तुत लेख में संकलित गढ़वाली लोकगीतों के संग्रहण में निम्न पुस्तकों से सहायता ली गयी है-
1. गढ़वाली लोकगीतः एक सांस्कृतिक अध्ययन, गोविन्द चातक, राधाकृष्ण प्रकाषन-1968, दरियागंज नयी दिल्ली।
2. गढ़वाली लोकमानस, षिवानन्द नौटियाल, अमित प्रकाषन, गाजियाबाद, 1975 ।
3. लोकगीतों में क्रांतिकारी चेतना, विष्वमित्र उपाध्याय, प्रकाषन विभाग, भारत सरकार, 1997।




डॉ० राम भरोसे

Thursday, May 7, 2020

उच्च शिक्षा में बढ़ता जातीय भेदभाव और हमारा उत्तरदायित्व



डॉ. राम भरोसे
असिस्टेंट प्रोफेसर (हिंदी विभागाध्यक्ष)
श.बे.चौ. राजकीय महाविद्यालय पोखरी (क्वीली)
टिहरी-गढ़वाल-249146, उत्तराखंड
9045602061

इसमें कोई दो राय नहीं है कि आज हमारी उच्च शिक्षा-व्यवस्था पर गंभीरता से पुर्विचार करने की ज़रूरत है. देश के लगभग
अधिकांश महाविद्यालय-विश्वविद्यालयों की वर्तमान हालत को देखकर दुःख भी होता है और रोष भी. स्वयं भी उच्च शिक्षा से जुड़े होने के
कारण यह दुःख-रोष और भी बढ़ जाता है. जिस प्रकार हमारे उच्च शिक्षण संस्थानों में दलित वर्ग से छात्रों के उत्पीड़न की खबरें आम हो
गयी हैं, यह भावी भारत (डिजिटल इंडिया) के लिए कम से कम शिक्षा के क्षेत्र में कतई भी शुभ सन्देश लेकर नहीं लाने वाले हैं. केवल
गिनती कि बात की जाए, तो भारत शिक्षा-तंत्र की उपलब्धियों किसी को आश्चर्य करने के लिए पर्याप्त हैं. संख्यात्मक दृष्टि से तो देश में
स्कूल, कॉलेजों, यूनिवर्सिटिओं में बढ़ोतरी हुई है, परन्तु गुणवत्ता उस अनुपात में नगण्य ही है. इसका प्रमाण इस बात से मिल जाता है-
देश में प्रत्येक वर्ष लाखों की संख्या में बच्चे ग्रेजुएट-पोस्ट ग्रेजुएट होते हैं, लेकिन जब बात रोजगार की आती है, तो अधिकांश संख्या
पढ़े-लिखे बेरोजगारों की ही मिलेगी.
स्पष्ट है कि हमारे देश में मात्र उच्च शिक्षा के नाम पर डिग्री बांटी जा रही है. मूल में स्थिति आज भी संतोषजनक नहीं है. उस पर बड़े
खेद की बात है कि हमारे उच्च शिक्षण संस्थान जातिवाद के गढ़ बन रहे हैं. कही दलित छात्रों को उत्पीडित व अपमानित कर उन्हें
आत्महत्या के लिए मजबूर किया जा रहा है तो कही दलित प्राध्यापक को झूठी शिकायतों को आधार बनाकर उनका निलंबन किया जा रहा
है. यह सब इस बात को प्रमाणित करने हेतु पर्याप्त है कि आज भी दलितों के लिए उच्च शिक्षा कि राह में मनुवादी रोड़े भरपूर हैं. उच्च
शिक्षा में ही क्यों दलित बच्चों को तो उनके प्राथमिक स्तर से अपमान का घूंट पीना पड़ता है. कहीं उनके लिए भोजनमाता भोजन बनाने
के लिए मना कर देती है, तो कहीं उनकों अन्य बच्चों के साथ बैठकर भोजन नहीं कराया जाता आदि. जब भी कभी जातीय उत्पीड़न के
कारण कोई दलित छात्र आत्महत्या करता है, तो लगता है जैसे जातिवाद की बाँहों में शिक्षा अपना दम तोड़ रही है. दलित छात्रों में उच्च
शिक्षण संस्थानों में दाखिले से लेकर नियुक्ति तक की प्रक्रिया में घोर जातिवाद झलकता है. एक ओर जहाँ वर्तमान सरकार नयी शैक्षणिक
नीति बनाने की कोशिश कर रही है, वहीँ उच्च शिक्षण संस्थानों में जातिवादिता को बढ़ावा देने में सरकार के नुमाइंदों की भी भूमिका कम
प्रतीत नहीं होती.

आखिर हमारी शिक्षा जा किधर रही है? यह एक यक्ष प्रश्न बनता जा रहा है. सरकार चाहे जिसकी रही हो, जातिवाद से पीड़ित
छात्र हर शिक्षण संस्थान में मिल जायेगा. नयी शैक्षणिक नीति के विषय में यू.जी.सी. के पूर्व चेयरमैन व जे.एन.यू. के पूर्व प्रोफेसर
सुखदेव थोराट मानते है कि “उच्च शिक्षा में दाखिले के दर को बढ़ाये जाने की कोशिश होनी चाहिए. इनमें महिलाओं, दलितों-
आदिवासियों, मुसलमानों का प्रतिनिधित्व काफी कम है. इस विषमता को दूर करने के ज़रूरत है.” (इंडिया टुडे, 03.02.16) समाज
विज्ञानी और शिक्षाविद् शिव विश्वनाथन दलित छात्रों की आत्महत्या को लेकर अति गंभीर बात कहते हैं- “यह मामला दिखता है कि वि.वि.
छात्र-छात्राओं के ख्वाबों को किस तरह खत्म कर रहे हैं. खासकर दलितों के. उनके शिक्षकों की चुप्पी सब कुछ बयां कर रही है.”
(इंडिया टुडे, 03.02.16) प्रत्येक शिक्षण संस्थान में द्रोणाचार्य मौजूद है. ओ.पी. सोनिक कहते हैं, “द्रोणाचार्य ने गुरु दक्षिणा में एकलव्य
का अंगूठा मांग लिया था, पर आज के द्रोणाचार्य तो एकलव्यों को जान देने पर मजबूर कर रहे हैं.” (राष्ट्रीय सहारा 08.11.2011)
रोहित वेमुला जैसी न जाने कितनी ही प्रतिभाएं हमारे शिक्षण केन्द्रों में जातिवाद के कारण अपनी जान गवां चुके हैं. इसकी एक
झलक देख ही आत्मा चीत्कार करने लगती है. यहाँ उनका संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करना उल्लेखनीय भी है और समीचीन भी –
1. अगस्त 2007- आइआइएस, बंगलुरु में शोध छात्र अजय एस.चंद्रा ने आत्महत्या की.
2. जनवरी 2007- आइआइटी मुंबई में बी.टेक. अंतिम वर्ष के दलित छात्र एम.श्रीकांत की आत्महत्या.
3. जनवरी 2007- आइआइटी दिल्ली में दलित छात्र अंजनी कुमार ने आत्महत्या की.
4. फरवरी 2008- हैदराबाद विश्वविद्यालय में पीएचडी छात्र सेंथिल कुमार ने फेलोशिप बंद होने के चलते आत्महत्या का कदम उठाया.
5. जनवरी 2009- आइआइटी कानपुर एम.टेक. अंतिम वर्ष की छात्रा जी.सुमन तथा इससे पूर्व यहाँ 2008 में प्रशांत कुरील ने आत्महत्या
की.
6. मार्च 2010- एम्स, नयी दिल्ली के एमबीबीएस के अंतिम वर्ष के बाल मुकुंद भारती ने जातीय भेदभाव के चलते अपनी जान दे दी.
7. फरवरी 2011- आइआइटी रुड़की के दलित छात्र मनीष कुमार ने अपने उत्पीड़न से तंग आकर आत्महत्या की.
8. मार्च 2012- एम्स, नयी दिल्ली के आदिवासी छात्र अनिल कुमार मीणा ने फांसी लगाकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली.
9. 2013- आइआइटी दिल्ली के दलित छात्र राजविंदर सिंह ने आत्महत्या की.
10. नवम्बर 2013- हैदराबाद विश्वविद्यालय में पीएचडी छात्र एम.वेंकटेश ने कथित तौर पर भेदभाव से तंग आकर आत्महत्या कर ली.
11. सितम्बर 2014- आइआइटी मुंबई में दलित छात्र अनिकेत अम्भोरे की संधिग्ध हालात में मृत्यु (आत्महत्या)
12. जनवरी 2016- हैदराबाद विश्वविद्यालय में पीएचडी छात्र रोहित वेमुला की फेलोशिप बंद होने के चलते आत्महत्या का कदम उठाया.
जिसने पुरे देश को एक बार फिर पुनः हिलाकर रख दिया है और कई सवाल हमारे सामने खड़े कर दिये हैं. (इंडिया टुडे से साभार)

उच्च अध्ययन केन्द्रों में हो रहे जातिगत भेदभाव को क्या माना जाए. यही कि आज मनुवादी डरे हुए हैं कि अगर दलित पूर्ण
रूप से शिक्षित हो गये तो उनके लिए एक बड़ी चुनौती बन सकते हैं और इसमें कोई संदेह भी नहीं है. मनुवादियों का प्रयास है कि
भारत में फिर कोई ‘अम्बेडकर’ का जन्म न हो जाए. सभी जानते हैं कि आजादी के बाद आरएसएस चाहता था कि ‘मनुस्मृति’ को
आजाद भारत का नया संविधान घोषित किया जाए, परन्तु बाबा साहब डॉ भीमराव अम्बेडकर ने नये ढंग से समतावादी संविधान की रचना
कर उनके प्रयोसों पर पानी फेर दिया. इसे देश का दुर्भाग्य के कहना चाहिए कि स्वंतत्रता के 69 वर्ष बाद भी मनुस्मृति के वैचारिक
अवशेष मौजूद हैं, जो मनुवादियों को जातीय उत्पीड़न के लिए प्रेरित करते हैं.
विडम्बना है कि एक ओर जहाँ दलितों-आदिवासियों, मुस्लिमों का उच्च शिक्षा में प्रतिनिधित्व काफी कम है और दूसरी ओर
दलित-आदिवासी-मुस्लिम बच्चे उच्च शिक्षा प्राप्त कर, उच्च शिक्षा में ही अपना कैरियर बनाने के सपने संजोये हैं. डॉ. अम्बेडकर के सपने
को साकार करने के लिए दलित छात्र अपने जी-जान से जुटे हैं. अफ़सोस उनकी राह आसान नहीं है. आज यह मिथ्या सा लगता है कि
शिक्षा नये विचारों को जन्म देती है और विचारों में परिवर्तन लाती है; क्योंकि जातिवादी पूर्वाग्रहों के चलते दलित उत्पीड़कों में न तो
समतावादी नये विचार पैदा हो पाए हैं, न ही जातिवादी विचार बदले हैं और न ही शिक्षा से उनके जीवन की विषमतावादी धारा ही बदल
पायी है.
उच्च शिक्षा में दलित छात्रों के नामांकन से लेकर नियुक्ति तक के वास्तविक आंकड़े किसी से छिपे नहीं हैं. उच्च शिक्षण
संस्थानों में उच्च पदों पर दलितों-आदिवासियों व मुस्लिमों की भागीदारी न के ही बराबर है. छात्रों के नामांकन की वास्तविक स्थिति जानने
डीयू के दयाल कॉलेज के असिस्टेंट प्रोफेसर और एकेडमिक फोरम फॉर सोशल जस्टिस के अध्यक्ष केदार कुमार मंडल ने सुचनाधिकार में
प्राप्त सूचनाओं में पाया कि “2010-11 सत्र में डीयू में दाखिले के करीब 50000 अनुसूचित जाति, जनजाति और ओबीसी समुदाय की सींटे
खाली रह गयी और इनकों बाद में सामान्य वर्ग के छात्रों से भर दिया गया.” (इंडिया टुडे फरवरी 2016) बाद में उनके सुप्रीम कोर्ट में
अपील के बाद फैसला आया कि इन आरक्षित सीटों के लिए न्यूनतम कट-ऑफ जारी किया जाए. केदार कुमार मंडल के अनुसार “यहाँ
नियुक्तियों में भी विसंगतियां हैं और इसके लड़ाई मैं अदालत में लड़ रहा हूँ.” ऐसा ही एक अन्य उदाहरण है- जेएनयू में भेदभाव की
स्थिति को वही के छात्र बाल गंगाधर बताते हैं- “जेएनयू में पीएचडी कर रहे वंचित समुदाय के डेढ़ दर्जन छात्र हर साल बीच में ही पढाई
छोड़ने के लिए मजबूर हो जाते हैं.” (इंडिया टुडे फरवरी 2016, 17)
छात्रों के नामांकन हेतु प्रतिशतवार आंकड़े क्या कहते हैं – 4% अनुसूचित जनजाति, 13.5% अनुसूचित जाति, 35% ओबीसी,
85% सामान्य (राष्ट्रीय सहारा 30.01.2016)
नियुक्ति के विषय में आंकड़े-

संस्थान का नाम अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति
राष्ट्रीय सहारा 15.09.2012
आरक्षित पद वर्तमान स्थिति आरक्षित पद वर्तमान स्थिति
AMU 283 01 142 0
DU 255 44 128 14
JNU 109 24 55 09
BHU 362 115 181 30


एक ओर मनुष्य की मुक्ति शिक्षा प्राप्त करने पर मानी गयी है, दूसरी ओर जिस प्रकार दलित-आदिवासियों को शिक्षा से दूर
रखने का षडयंत्र किये जा रहे हैं, क्या दर्शाता है? यही कि आज भी अपने को विकसित करने के लिए दलित वर्ग जो प्रयास कर रहा है
उसकी राह बाधित है. वास्तव में अध्ययन स्थलों पर पसरा यह भेदभाव आने वाले समय में देश के लिए घातक साबित होगा, जिससे
किसी का भी भला होने वाला नहीं है. इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद जैसे देश का
दलित युवा (गैर दलित भी आंशिक रूप से शामिल हैं) इकठ्ठा होकर सड़कों पर आ रहे हैं और देश में छोटे-बड़े शहरों में न्याय के लिए
झंडा उठाये हैं.
यह तो स्पष्ट हो ही चूका है कि उच्च शैक्षणिक परिसरों में दलित छात्रों को उपेक्षा, उत्पीड़न, अपमान और भेदभाव के अंतर्धारा
को रोहित वेमुला की आत्महत्या ने एक बार पुनः सतह पर ला दिया है. साथ ही यह भी बता दिया है कि हमारे इन संस्थानों में कुछ भी
ठीक नहीं हैं, वहां सांस्थानिक भेदभाव आज भी मौजूद है. इन आत्महत्याओं की पड़ताल करते हुए राजनीतिक विश्लेषक कुमार नरेंद्र सिंह
लिखते हैं- “उच्च शिक्षण संस्थानों में भेदभाव के अनुभव, बहिष्कार और अपमान के चलते अधिकतर दलित छात्र आत्महत्या कर लेते हैं.
इनका कारण भारतीय सामाजिक संरचना है, जो ऊँच-नीच पर आधारित सामाजिक दूरी के सिद्धांत पर आधारित है. दलितों को केवल एक
पहचान में तब्दील कर देती है. उच्च शिक्षा संस्थानों में जातीय समूहों का अलग-अलग रहने की प्रवृत्ति सर्वव्यापी है. ऐसा जातीय दुराग्रह
और जातीय दंभ से चलते होता है. बहुधा यह बंटवारा लिंग, धर्म, वर्ग, जाति, राष्ट्रीयता, क्षेत्र और नस्ल के आधार पर स्पष्ट भेदभाव पैदा
होता है. परिसर का माहौल दलितों-गैर दलितों के बीच विभेद बनाये रखता है” अकादमिशियन अनूप सिंह ने आत्महत्याओं के कुछ मामलों
का विश्लेषण करने पर पाया कि “इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि जातिगत भेदभाव ही वह कारण है, जिसके चलते हाशिये पर पड़े
समूहों के छात्र आत्महत्या करने को विविश हैं. इसमें बहुत बड़ी या मुख्य भूमिका संस्थान के उच्च जाति के शिक्षक व छात्र उत्तरदायी
हैं.” शिक्षाविद् शिव विश्वनाथन दलित छात्रों की आत्महत्या को लेकर अति गंभीर बात कहते हैं- “यह मामला दिखता है कि वि.वि. छात्र-
छात्राओं के ख्वाबों को किस तरह खत्म कर रहे हैं. खासकर दलितों के. उनके शिक्षकों की चुप्पी सब कुछ बयां कर रही है.” (इंडिया
टुडे, 03.02.16) उक्त दोनों विद्वानों के कथनों यह स्पष्ट है कि उच्च जाति के शिक्षक उच्च शिक्षा में हो रहे जातीय भेदभाव के काफीहद
तक जिम्मेदार हैं. ऐसी क्रूर और दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएँ होने के बाद भी जिस प्रकार शिक्षक मौन साधे बैठे रहते हैं, सच में यह बहुत
कष्टकारी स्थिति है. जिनके हाथों में देश के भविष्य को सुरक्षित महसूस करना चाहिए उन्हीं की छत्रछाया में उनके साथ दोगला व्यव्हार
किया जा रहा है. यह अवस्था संतोषजनक तो कतई नहीं कही जा सकती. आज 21वीं सदी में भी हमारे यहाँ कक्षाओं में छात्रों से उनकी
जाति पूछा जाना आम बात है.
शिक्षक युवाओं को भविष्य के लिए तैयार करता है. भारत के पूर्व राष्ट्रपति और बच्चों के चहेते डॉ. अब्दुल कलाम का मानना है कि
“शिक्षकों का महान ध्येय युवा मस्तिष्कों को तेजस्वी बनाना है.” (अदम्य साहस, राजकमल प्रकाशन) सत्य ही है, शिक्षक पर समाज से
हर बुराई दूर करने की खास जिम्मेदारी होती है (यदि वह समझे) परन्तु जब उसके सामने इतना सब अनैतिक हो और वह चुप रहता है
या वह स्वयं भी छात्र शोषण का जिम्मेदार हो, तो हृदय को कष्ट बड़ा कष्ट पहुचता है. क्या हो गया है शिक्षकों को? क्या जाति ही एक
व्यक्ति की पहचान है. एक विद्यार्थी मात्र विद्यार्थी होता है, उसकी कोई जाति नहीं होती. सिर्फ मोटी-मोटी तनख्वाह लेकर अपना स्टेट्स
बढ़ाना ही सब है. समाज के प्रति नैतिक जिम्मेदारी से मुख मोड़ना कहाँ की समझदारी है. परन्तु वे बड़े-बड़े सेमिनारों और संगोष्ठियों में
जोर-जोर से नैतिकता पर चिल्लाते हुए ज़रूर दिख जायेंगे और धरातल पर वही ढाक के तीन पात. कॉलेज हो या यूनिवर्सिटी शिक्षक के
हाथ में बहुत कुछ होता है. लेकिन उनकी उदासीनता का परिणाम रोहित-सेंथिल जैसे होनहार छात्रों को अपनी जान देकर चुकाना पड़ता
है. आज भी हालत हमारे नियन्त्रण में हैं. आज भी शिक्षक अपने छात्रों के आदर्श होते हैं. यदि किसी भी संस्थान के शिक्षक एकजुट
होकर सभी बच्चों के दिलों-दिमाग से जातीय वैमनस्य को दूर करने के सही अर्थों में प्रयास करें, तो किसी भी छात्र के मन में कभी भी
किसी भी विषम परिस्थिति में आत्महत्या करने का विचार नहीं आएगा. ऐसा पूर्ण विश्वास के साथ कहा जा सकता है. देश के सभी शिक्षण
संस्थानों को जातिगत, लिंग, वर्ण, वर्ग भेद के विरुद्ध समय रहते सचेत हो जाना चाहिए. नहीं तो उस भावी गंभीर स्थिति से सभी परिचित
है.
भविष्य में कोई भी दलित छात्र या किसी भी छात्र की आत्महत्या के पीछे संस्थान की भूमिका न हो, ऐसे प्रयास शीघ्र अति शीघ्र करने
होंगे. राजनीतिक लोग केवल अपना उल्लू सीधा करते हैं. अत: उनके भरोसा छोड़कर शिक्षक जगत और युवा पीढ़ी को जातिगत भेदभाव
दूर करने के लिए स्वयं ही आगे आना होगा. इस विषय पर यू.जी.सी. के पूर्व चेयरमैन डॉ. सुखदेव थोराट का महत्वपूर्ण सुझाव है, जिस
पर सरकार से लेकर तमाम अध्ययन केन्द्रों से जुड़े विद्यार्थी, शिक्षक एवं अन्य सभी कर्मचारियों को मिलकर कार्य करना होगा. उन्होंने कहा
कि “ज़रूरी है कि कॉलेजों/विश्वविद्यालयों में भेदभाव के खिलाफ अलग से प्रावधान किए जायें. इनमे दंड की व्यवस्था हो. लैंगिक भेदभाव
और रैगिंग मामले की तरह जातिगत आधार पर होने वाले भेदभाव के लिए भी दिशानिर्देश जारी किए जायें.” (राष्ट्रीय सहारा 30.01.16)
ऐसा कहना उचित नहीं होगा कि उक्त दशा में कोई सुधार नहीं हुए हैं. निश्चय ही सुधार तो हुआ है, परन्तु जाति अभी भी ज्यों की त्यों
बनी है. आप हर क्षेत्र में देख सकते हैं. दलित-वंचित समुदाय के छात्रों के अन्य छात्रों, अध्यापकों एवं अध्ययन केन्द्रों के प्रशासकों के
साथ सामान्यत: यह देखने को मिल ही जाता है. अभिप्राय है कि हाशिये पर मौजूद छात्रों की समस्याओं का निराकरण करने हेतु हर ओर
से कोशिशें करनी होगी. जातीय भेदभाव के विरुद्ध वैधानिक प्रावधान, नैतिक-सामाजिक शिक्षा के साथ शिक्षा के जरुरतमंदों की हर जरुरी
मदद की जाए और सबसे अंतिम और महत्वपूर्ण बात हमारे सभी सरकारी/गैर सरकारी उच्च शैक्षणिक संस्थानों में निर्णय लेने वाली
कमेटियों में दलितों/ओबीसी की भागीदारी सुनिश्चित होनी चाहिए तथा सभी इकाइयों में दलित छात्रों/शिक्षकों को प्रतिनिधित्व दिया जाए,
जिससे उनका संस्थान के संचालन में भागीदारी हो. दलितों की इस भागीदारी से ही भविष्य में उच्च शैक्षणिक केन्द्रों में जातीय भेदभाव को
काफहद तक खत्म किया जा सा सकता है.
इस लेख का अंत महान दार्शनिक संत ‘ओशो’ के वाक्य से करना उचित भी होगा और समीचीन भी –
“जो मित्र नहीं है, वो गुरु कैसे हो सकता है.”

धन्यवाद.....