Saturday, August 29, 2020

रिव्यू : सड़क 2 झेल सको तो झेल लो

 



 कास्ट: संजय दत्त, आलिया भट्ट, आदित्य रॉय कपूर, जीशु सेनगुप्ता, प्रियंका बोस, मकरंद देशपांडे, गुलशन ग्रोवर
  निर्देशक: महेश भट्ट
अपनी रेटिंग: एक स्टार

 हो सकता है कि किसी दिन महेश भट्ट इस पीढ़ी के सबसे रोमांचक अभिनेताओं में से एक, आलिया भट्ट के साथ कुछ कर रहे हों। लेकिन अफसोस की बात है कि सड़क 2 वह फिल्म नहीं है। सड़क 2 को पसंद करने की हिम्मत रखने वाले सभी लोगों पर मेहरबान होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं।  फिल्म को अगर एक शब्द में कहना हो तो कहा जा सकता है कि यह भयानक है। कोई भी इस दिन और उम्र में इतना थकाऊ क्यों बनना चाहेगा? यह तो ऊपर वाला ही जाने।

 

 1991 की सड़क को देखें तो पता चलता है एक हँसते हुए टैक्सी-ड्राइवर और पटरियों के गलत साइड से एक लड़की के बीच एक उच्चस्तरीय रोमांस, एक समय की यादें वापस लाता है जब बॉलीवुड कहानियों को बताना जानता था।  उस संजय दत्त-पूजा भट्ट अभिनीत फिल्म के बारे में कुछ भी मौलिक नहीं था, लेकिन अतुलनीय सदाशिव अमरापुरकर द्वारा बुरी महारानी के रूप में प्रस्तुत किए गए खस्ता कथानक और प्रदर्शन के मिश्रण के बारे में कुछ ने इसे उस युग की सबसे यादगार फिल्मों में से एक बना दिया।

 

 लगभग तीस साल बाद यह ’सीक्वल’ आया है, और सीधे ही आपको पता चलता है कि यह एक खोया हुआ कारण जानने के लिए है।  ऐसा नहीं है कि संजय दत्त, अब उचित रूप से पुराने और आकर्षक रूप से जकड़े हुए हैं, उनकी भूमिका को मजबूत करने वाले टैक्सी-चालक रवि के रूप में, कुछ भी खो दिया है।  और ऐसा नहीं है कि आलिया भट्ट, जिनकी उत्तराधिकारी आर्या को सड़क पर आने के लिए सख्त जरूरत है, एक ठोस कलाकार नहीं है।

 

 फ़िल्म के सहायक कलाकार तो जर्जर है हीं साथ ही  जिशु सेनगुप्ता, जो हिंदी सिनेमा में लगातार अतिक्रमण कर रहे हैं, यहां प्रियंका बोस के साथ उनकी पापी मां के रूप में हैं और आर्या के पिता हैं।  आम तौर पर विश्वसनीय मकरंद देशपांडे को  ढोंगी बाबा के रूप में पागलपन करने का मौका मिलता है।  और 80 के दशक के अंत में, 90 के दशक की शुरुआत में, गुलशन ग्रोवर, संक्षेप में पॉप अप होते दिखाई देते हैं।

 लेकिन इनमें से किसी भी अभिनेता को ऐसा करने के लिए कुछ भी विश्वसनीय नहीं दिया गया है।  इस हरे-भरे दिमाग वाले प्लॉट का सपना किसने देखा था?  निश्चित रूप से, यह दुष्ट माँ और भिखारी दादा और लालची स्वामियों के लिए पूरी तरह से स्वीकार्य है जो निर्दोषों का शिकार करते हैं।  यहाँ और बहादुर लड़कियां हो सकती हैं, उनके वफादार स्वैन्स (रॉय कपूर) के साथ, जो अनैतिक रूप से ऊपर जाना चाहते हैं।  'और' श्वर के खिलाफ लड़ने के लिए, जैसा कि सड़क 2 वर्तमान में चाहती  है, एक अच्छी बात है, लेकिन इस तरह से?  एक विश्वसनीय दृश्य, या चरित्र, या ट्विस्ट के साथ नहीं?

 

 यह विश्वास करना कठिन है कि यह महेश भट्ट की और से आती है, जिसने हमें र्थ, नाम और 1999 ज़ख्म जैसे क्लासिक्स दिए हैं, जो धर्मों और लोगों के बीच बढ़ती दरार के लिए इतनी भव्यता और भावनात्मक रूप से बोलते थे।  यह एक ऐतिहासिक फिल्म थी।  अपने सबसे अच्छे काम में, भट्ट ने क्षण के स्वाद को पकड़ने और उस स्मार्ट मुख्यधारा में अनुवाद करने की क्षमता थी, और जब उन्होंने निर्देशन को रोकने का फैसला किया तो यह एक खाई थी।


 मुख्य कहानी के खिलाफ संघर्ष करने वाले एकमात्र व्यक्ति दत्त हैं।  लंबे समय तक याद रखने वालों को याद हो सकता है कि दत्त, एक महान अभिनेता, कभी भी स्क्रीन पर मौजूद नहीं थे, और कैसे उन्होंने और पूजा भट्ट (जिन्हें हम अगली कड़ी में अक्सर फ्लैशबैक में देखते हैं) ने एक जोड़ी बनाई जिसकी हमने देखभाल की।  इन हस्तक्षेप के वर्षों में, जिसके दौरान उन्होंने व्यक्तिगत और व्यावसायिक अशांति का अनुभव किया, दत्त ने सीखा कि कैसे एक भूमिका को भरना है, और हमें विश्वास करना है।  सड़क 2 में, सभी आलस्य के बावजूद, वह आखिरी आदमी खड़ा है।  लेकिन यह इस फिल्म को अविश्वसनीय रूप से कम से कम अच्छे से अच्छा नहीं करता है।

 हो सकता है कि किसी दिन महेश भट्ट इस पीढ़ी के सबसे रोमांचक अभिनेताओं में से एक, आलिया के साथ कुछ कर रहे हों।  अफसोस की बात है कि सड़क 2 वह फिल्म नहीं है।
 फ़िल्म के गाने कुछ खास और याद रखने लायक नहीं है। निर्देशन, एक्टिंग सब चरमराई सी दिखाई देती है। 

 सदाक 2 डिज्नी प्लस हॉटस्टार पर चल रही है।
रिव्यू by तेजस पूनिया

Monday, August 10, 2020

एक किन्नर की प्रेम कहानी

 इस लॉक डाउन में कठिनाइयां और परेशानियां तो बहुत हुई लेकिन मेरी जिन्दगी में आश्चर्यचकित कर देने वाली कुछ घटनाएं भी हुई उनमें से दो घटनाएं ऐसी थी जिनके बारे में मैं कभी सोचती भी नहीं थी । 
लेकिन परमात्मा बहुत दयालु है उसको पता है कि हमें किसकी किस वक्त ज़रूरत है । बिना मांगे वह दे देता है । 
लॉक डाउन शुरू होते ही मेरे हमेशा बुरा सोचने वाले अपने ही समाज के कुछ लोगों से मुझे हमेशा से मुक्ति मिल गई । मैं उनके चंगुल से निकल गई ।
दूसरी घटना जिसके बारे में मैंने सोचना तकरीबन छोड़ ही दिया था  वह थी जीवन साथी की ।
जीवन साथी हमारे जीवन का एक अहम हिस्सा होता है जीवन में बहुत लोग आते हैं जो शारीरिक रूप से साथी होते हैं लेकिन एक ऐसा भी होता है जो हमारी आत्मा का साथी बन जाता है । इस दुनियां से जाने के बाद तो सभी को छोड़ना है लेकिन आत्म स्वरूप प्रियतम के लिए रूहें भटकती हैं । 
लॉक डाउन में मुझे ईश्वर ने बहुत ही प्यारा साथी प्रदान किया । वह  ट्रांस पुरुष है । महिला से पुरुष ट्रांस जेंडर को ट्रांस मैन बोलते हैं जैसे मैं पुरुष शरीर से महिला हुई ।
सभी हिजड़ा ट्रांस जेंडर ही होते हैं लेकिन सभी ट्रांस जेंडर हिजड़ा नहीं होते । हिजड़ा एक परंपरा है । 
आने वाले समय में हम दोनो इसकी जानकारी सब को दे देंगे ।
तीसरी घटना जो कि एक ट्रांस जेंडर की जिन्दगी में बहुत महत्वपूर्ण होती है वह है उसका गुरु ।
मैंने आज तक किसी से शास्त्र अनुसार किसी से दीक्षा नहीं ली थी । खाली मुंह से ही सभी को गुरु जी बोल देती थी । और कुछ लोगों ने बिना चेला किए ही मेरे ऊपर रौब और हक जमाना शुरू कर दिया था । दीक्षा संस्कार एक परंपरा है जो सभी धर्मों में और सभी जातियों में लोग निभाते हैं । 
अभी कुछ दिन पहले ही मुझे 
किन्नर अखाड़ा की महामंडलेश्वर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी जी ने मुझे शिष्य स्वीकार किया और सभी बड़े किन्नर लोगों के सामने मुझे शिष्य स्वीकार किया । अभी यह सब फोन और वीडियो कॉल पर हुआ बहुत जल्द इसकी विधिवत रूप से परंपरागत रूप से दीक्षा होगी । 
यह सब बातें मेरे जीवन को नई दिशा की ओर ले जा रही है । इसमें परमात्मा की पूर्ण मर्जी होगी । नहीं तो बिन मांगे कुछ नहीं मिलता था । मुझे सब बिन मांगे ही मिल गया जिसकी मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी । 
एक और अहम घटना मेरे जीवन की हिस्सा बनी वह थी मेरे जीवन पर आधारती फिल्म Admitted का यूट्यूब चैनल पर प्रसारित होना । यह मेरे जीवन में मील का पत्थर साबित हुई। फिल्म का निर्देशन Ojaswwee Sharma जी ने किया है ।
मैं हरदम प्रयास करूंगी कि किन्नर समाज में शिक्षा को बढ़ावा दूं और  गुरु का नाम रौशन करूं ।

Monday, August 3, 2020

रिव्यू : आंखों से पर्दा मिलाती फ़िल्म प्रथा


दीपक को लीला से प्यार है और दोनों जल्द ही अपने गांव में एक पारंपरिक समारोह में शादी कर लेते हैं।  नवविवाहित जोड़े के लिए जीवन अच्छा लगता है, लेकिन दीपक एक बेहतर भुगतान वाली नौकरी हासिल करने की अपनी क्षमता को व्यापक बनाने का फैसला करता है और इस तरह खुद को 


शिक्षित करने के लिए शहर जाता है।  कुछ दिनों के बाद, परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु की खबर उसके पास पहुँचती है और वह वापस घर लौट आता है।  पहुंचने पर, दीपक यह जानकर चौंक गया कि उसकी पत्नी लीला को गाँव की देवी ठहराया गया है।  सच्चाई का पता लगाने और अपनी पत्नी से मिलने की उसकी सारी कोशिश नाकाम कर दी जाती है।  वह बाद में लोगों को लगता है कि लोगों को लगता है कि लीला हिंदू देवी का पुनर्जन्म है।  वह तब लीला को उसके साथ मंदिर से भागने में मदद करता है।



 जल्द ही उसे गाँव के अधिकारियों ने पकड़ लिया।  इस बार दीपक निराश है और गांव के पुजारी निमी का अपहरण कर लीला की रिहाई की मांग करता है।  जब दीपक के खिलाफ पुलिस की रिपोर्ट बनती है और उसके लिए दृष्टि संबंधी आदेश दिए जाते हैं तो चीजें और अधिक जटिल हो जाती हैं।  चीजों को अधिक बदसूरत होने से पहले उसे जल्द ही अपने कार्य को पूरा करना होगा।  फिल्म का निर्देशन और निर्माण रजा बुंदेला ने किया है।  संगीत अमोद भट्ट और पल्लव पंड्या द्वारा रचित है।  सिनेमैटोग्राफी के यू मोहनन की है और कोरियोग्राफी भूषण लखंदरी ने की है। 
https://youtu.be/rnFBGdmXvMs

*धर्म का चश्मा उतार कर यह फ़िल्म देखेंगे तो फ़िल्म का उद्देश्य स्पष्ट देख सकेंगे* 

ऐसी फिल्म बननी चाहिए, लेकिन बनेगी नहीं। 2002 में आयी यह फ़िल्म *प्रथा* है। हाँ वही दकियानूसी प्रथाएं जिनके आधार पर हमें इंसान समझने से रोका जाता है और झोंक दिया जाता है एक प्रथा के अंतर्गत। आश्चर्य नहीं घोर आश्चर्य होता है इन प्रथाओं की बलि भारतीय नारी ही चढ़ती है और इसकी पूरी जिम्मेदारी पुरुष समुदाय अपने कंधों पर लेकर चलता है। 
गैरत यदि आपमें शेष होगी तो आपकी रूह कांप जाएगी इसे देखकर। इरफान साहब के अभिनय पर तो बात करना सूरज को दीया दिखाने के समान होंगे। यदि आज वे होते तो उनके सामने नतमस्तक होकर उन्हें प्रणाम जरूर करता। अफसोस मुझे ही नहीं आपको भी होगा जिन्होंने यह फ़िल्म अब यानी इरफान साहब के अलविदा होने पर देखी। 
*भगवा-खादी-खाकी* का दुर-संयोग कितना भयावह होता है या हो सकता इस फ़िल्म में आप देख सकते हैं। इतना ही नहीं रूढ़िवादिता और कुप्रथाओं को यदि समाज से खत्म करना है तो इसके लिए बलिदान देना पड़ता है। आप फ़िल्म देखते हुए आज के वर्तमान समय से इसकी साम्यता का मिलान करोगे तो आप हैरत में पड़ जाओगे कि लगभग 20 साल पहले बनी इस फ़िल्म की पृष्ठभूमि ऐसी लगती है मानो अभी हाल-फिलहाल ही यह फ़िल्म रिलीज़ हुई हो। 
इस फ़िल्म को देखकर *हिन्दू* होने की अकड़  कुछ देर के लिए ही सही एकदम ढीली पड़ जाएगी। हो सकता है शर्म से डूब जाओ। हालांकि इस फ़िल्म का अंत दुःखद है। परन्तु जो *भगवा-खादी-खाकी* के संयोग का अंत इसमें दिखाया है वह फिलहाल तो सम्भव नहीं, पर नामुमकिन भी नहीं। सबसे खास बात जो मुझे लगी वह यह कि *भगवा-खादी-खाकी* के आतंक का पुरजोर विरोध तत्कालीन मीडिया ने किया वह काबिले तारीफ है। आज की गोदी और बिकी हुई मीडिया को सबक लेना चाहिए। (हालांकि मीडिया के दृश्य कुछ ही मिंटो के हैं) यहां भी दो तरह की मीडिया आपको दिखेगी। कौन सी? उसके लिए आपको फ़िल्म देखनी होगी। नायक *दीपक* के संवादों को गौर से सुनिएगा और फिर आज के युवाओं के संवादों से उसकी तुलना कीजियेगा, बड़ा अंतर मिलेगा आपको। 
धर्म एक प्रपंच है जो गरीब-भोले औऱ नादान लोगों के खिलाफ जमकर प्रयोग किया जाता है और इसके लिए चयन भी बड़े सोच समझकर किया जाता है। 
एक पहलू इस फ़िल्म का नारी चरित्र भी है। एक नारी पात्र है *सुवा* जो एक बच्चे की चाह में अपना घर द्वार पति को छोड़कर घोर अंध विश्वास के चलते  *निन्नी पांडे* यानी इरफान साहब (कुख्यात बदमाश जो ग्राम प्रधान के सहयोग से गांव के चौक्सा माता मंदिर का मुख्य महंत बन जाता है) के पिछले कई वर्षों से उसके बुरे कर्मों में उसका साथ देती है। जबकि निन्नी पांडे जानता है कि सुवा कभी माँ नहीं बन सकती है फिर भी वह अपने भोग विलास हेतु हमेशा उसे अपने साथ रखता है। हालांकि अंत में नायिका *लीला* (फ़िल्म में जिसको जबरदस्ती चौक्सा माता बना दिया जाता है) का साथ देती हुई अपनी जान देती है। 
आप जब देखेंगे तो आपके सामने वर्तमान के *भगवा-खादी-खाकी* की मिली भगत करने वालों चेहरे सामने घूमने लगेंगे। धार्मिक प्रपंच का शिकार महिला ही क्यों और कैसे होती है और इसका विरोध किस प्रकार विरोध महिला को ही करना होगा। यह आप इस फ़िल्म में बखूबी देख सकते हैं। 
मंदिर की खुशी मनाने वाले और न मनाने वाले दोनों इस फ़िल्म में देखेंगे कि मंदिर निर्माण और निर्माण के बाद किस तरह के षड्यंत्र करके आम जनता को मूर्ख बनाकर उनसे उनकी जमापूंजी लूटते हैं। 
*यहां धर्म से आशय हर उस धर्म से है जिसमें इस तरह का पाखण्डवाद रचा जाता है*

बाकी फ़िल्म देखकर बुद्धि के पट अवश्य खुलेंगे. नहीं खुले तो कोई बात नहीं जैसा है चलता रहेगा। 

*धन्यवाद*

Saturday, August 1, 2020

मूवी रिव्यू: खुद को स्वीकारें admitted


भारत के पहले ट्रांसजेंडर Mx Dhananjay Chauhan जिन्होंने पँजाब विश्वविद्यालय से पीएचडी की है उन्हीं के जीवन पर आधारित है यह डॉक्यूमेंट्री। इस डॉक्यूमेंट्री में दिखाया गया है कि किस तरह धनञ्जय चौहान को अपने जीवन में संघर्ष करना पड़ा और संघर्ष करते हुए किस तरह उन्होंने पँजाब विश्वविद्यालय में ट्रांसजेंडर के लिए अलग से टॉयलेट बनवाया, फीस माफ करवाई। किस तरह उनके साथियों ने ही उनपर अत्याचार किए। रेप तक करने की कोशिशें हुई। 
हमारे जीवन में सिनेमा, साहित्य, संगीत आदि अन्य कला रूपों का विशेष महत्व है  इनके द्वारा हमारी मानसिक जरूरतों की पूर्ति होती है, और हमारा अच्छा या बुरा मनोरंजन होता रहता है।  साहित्य की तरह सिनेमा भी वैचारिक संघर्षों की अभिव्यक्ति का एक माध्यम है। भारत में सिनेमा जीवन का अभिन्न अंग है। सिनेमा में व्यक्ति के सपने तथा अहसासत बिकते हैं और बिकते हैं नए किरदार। 
    हिंदी सिनेमा अपने आरंभिक काल से अब तक के सफर में समाज के विभिन्न पहलुओं को उजागर करता आया है। सिनेमा का इतिहास संक्षिप्त नहीं अपितु एक शताब्दी से भी अधिक लम्बे दौर का रहा है। “सिनेमा अपने विविध विषयों के चुनाव के लिए समाज पर आश्रित है। सिनेमा कितना भी व्यावसायिक हो, पर उसमें अगर सामाजिकता का सरोकार न हो तो वह चल नहीं सकता।’’ सिनेमा वस्तुतः समाज पर ही आश्रित है। इसी बात को पुरजोर शब्दों में रेखांकित करते हुए डॉ. दयाशंकर कहते हैं “साहित्य और सिनेमा कल्पना और व्यावसायिकता में विशेष आग्रह के बावजूद अपनी कच्ची सामग्री कमोबेश समाज से लेता है यहाँ तक कि दोनों अपने प्रयोजन में, वह आनंद हो चाहे मनोरंजन, सामाजिक ही होते हैं।” किन्तु समाज में आज भी कई ऐसे अनछुए पहलु विद्यमान है जो पूरे परिवेश के साथ सिनेमा में उभरकर सामने नहीं आ सके हैं। किन्नरों की आवाजें उसी का परिणाम है।