Monday, August 3, 2020

रिव्यू : आंखों से पर्दा मिलाती फ़िल्म प्रथा


दीपक को लीला से प्यार है और दोनों जल्द ही अपने गांव में एक पारंपरिक समारोह में शादी कर लेते हैं।  नवविवाहित जोड़े के लिए जीवन अच्छा लगता है, लेकिन दीपक एक बेहतर भुगतान वाली नौकरी हासिल करने की अपनी क्षमता को व्यापक बनाने का फैसला करता है और इस तरह खुद को 


शिक्षित करने के लिए शहर जाता है।  कुछ दिनों के बाद, परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु की खबर उसके पास पहुँचती है और वह वापस घर लौट आता है।  पहुंचने पर, दीपक यह जानकर चौंक गया कि उसकी पत्नी लीला को गाँव की देवी ठहराया गया है।  सच्चाई का पता लगाने और अपनी पत्नी से मिलने की उसकी सारी कोशिश नाकाम कर दी जाती है।  वह बाद में लोगों को लगता है कि लोगों को लगता है कि लीला हिंदू देवी का पुनर्जन्म है।  वह तब लीला को उसके साथ मंदिर से भागने में मदद करता है।



 जल्द ही उसे गाँव के अधिकारियों ने पकड़ लिया।  इस बार दीपक निराश है और गांव के पुजारी निमी का अपहरण कर लीला की रिहाई की मांग करता है।  जब दीपक के खिलाफ पुलिस की रिपोर्ट बनती है और उसके लिए दृष्टि संबंधी आदेश दिए जाते हैं तो चीजें और अधिक जटिल हो जाती हैं।  चीजों को अधिक बदसूरत होने से पहले उसे जल्द ही अपने कार्य को पूरा करना होगा।  फिल्म का निर्देशन और निर्माण रजा बुंदेला ने किया है।  संगीत अमोद भट्ट और पल्लव पंड्या द्वारा रचित है।  सिनेमैटोग्राफी के यू मोहनन की है और कोरियोग्राफी भूषण लखंदरी ने की है। 
https://youtu.be/rnFBGdmXvMs

*धर्म का चश्मा उतार कर यह फ़िल्म देखेंगे तो फ़िल्म का उद्देश्य स्पष्ट देख सकेंगे* 

ऐसी फिल्म बननी चाहिए, लेकिन बनेगी नहीं। 2002 में आयी यह फ़िल्म *प्रथा* है। हाँ वही दकियानूसी प्रथाएं जिनके आधार पर हमें इंसान समझने से रोका जाता है और झोंक दिया जाता है एक प्रथा के अंतर्गत। आश्चर्य नहीं घोर आश्चर्य होता है इन प्रथाओं की बलि भारतीय नारी ही चढ़ती है और इसकी पूरी जिम्मेदारी पुरुष समुदाय अपने कंधों पर लेकर चलता है। 
गैरत यदि आपमें शेष होगी तो आपकी रूह कांप जाएगी इसे देखकर। इरफान साहब के अभिनय पर तो बात करना सूरज को दीया दिखाने के समान होंगे। यदि आज वे होते तो उनके सामने नतमस्तक होकर उन्हें प्रणाम जरूर करता। अफसोस मुझे ही नहीं आपको भी होगा जिन्होंने यह फ़िल्म अब यानी इरफान साहब के अलविदा होने पर देखी। 
*भगवा-खादी-खाकी* का दुर-संयोग कितना भयावह होता है या हो सकता इस फ़िल्म में आप देख सकते हैं। इतना ही नहीं रूढ़िवादिता और कुप्रथाओं को यदि समाज से खत्म करना है तो इसके लिए बलिदान देना पड़ता है। आप फ़िल्म देखते हुए आज के वर्तमान समय से इसकी साम्यता का मिलान करोगे तो आप हैरत में पड़ जाओगे कि लगभग 20 साल पहले बनी इस फ़िल्म की पृष्ठभूमि ऐसी लगती है मानो अभी हाल-फिलहाल ही यह फ़िल्म रिलीज़ हुई हो। 
इस फ़िल्म को देखकर *हिन्दू* होने की अकड़  कुछ देर के लिए ही सही एकदम ढीली पड़ जाएगी। हो सकता है शर्म से डूब जाओ। हालांकि इस फ़िल्म का अंत दुःखद है। परन्तु जो *भगवा-खादी-खाकी* के संयोग का अंत इसमें दिखाया है वह फिलहाल तो सम्भव नहीं, पर नामुमकिन भी नहीं। सबसे खास बात जो मुझे लगी वह यह कि *भगवा-खादी-खाकी* के आतंक का पुरजोर विरोध तत्कालीन मीडिया ने किया वह काबिले तारीफ है। आज की गोदी और बिकी हुई मीडिया को सबक लेना चाहिए। (हालांकि मीडिया के दृश्य कुछ ही मिंटो के हैं) यहां भी दो तरह की मीडिया आपको दिखेगी। कौन सी? उसके लिए आपको फ़िल्म देखनी होगी। नायक *दीपक* के संवादों को गौर से सुनिएगा और फिर आज के युवाओं के संवादों से उसकी तुलना कीजियेगा, बड़ा अंतर मिलेगा आपको। 
धर्म एक प्रपंच है जो गरीब-भोले औऱ नादान लोगों के खिलाफ जमकर प्रयोग किया जाता है और इसके लिए चयन भी बड़े सोच समझकर किया जाता है। 
एक पहलू इस फ़िल्म का नारी चरित्र भी है। एक नारी पात्र है *सुवा* जो एक बच्चे की चाह में अपना घर द्वार पति को छोड़कर घोर अंध विश्वास के चलते  *निन्नी पांडे* यानी इरफान साहब (कुख्यात बदमाश जो ग्राम प्रधान के सहयोग से गांव के चौक्सा माता मंदिर का मुख्य महंत बन जाता है) के पिछले कई वर्षों से उसके बुरे कर्मों में उसका साथ देती है। जबकि निन्नी पांडे जानता है कि सुवा कभी माँ नहीं बन सकती है फिर भी वह अपने भोग विलास हेतु हमेशा उसे अपने साथ रखता है। हालांकि अंत में नायिका *लीला* (फ़िल्म में जिसको जबरदस्ती चौक्सा माता बना दिया जाता है) का साथ देती हुई अपनी जान देती है। 
आप जब देखेंगे तो आपके सामने वर्तमान के *भगवा-खादी-खाकी* की मिली भगत करने वालों चेहरे सामने घूमने लगेंगे। धार्मिक प्रपंच का शिकार महिला ही क्यों और कैसे होती है और इसका विरोध किस प्रकार विरोध महिला को ही करना होगा। यह आप इस फ़िल्म में बखूबी देख सकते हैं। 
मंदिर की खुशी मनाने वाले और न मनाने वाले दोनों इस फ़िल्म में देखेंगे कि मंदिर निर्माण और निर्माण के बाद किस तरह के षड्यंत्र करके आम जनता को मूर्ख बनाकर उनसे उनकी जमापूंजी लूटते हैं। 
*यहां धर्म से आशय हर उस धर्म से है जिसमें इस तरह का पाखण्डवाद रचा जाता है*

बाकी फ़िल्म देखकर बुद्धि के पट अवश्य खुलेंगे. नहीं खुले तो कोई बात नहीं जैसा है चलता रहेगा। 

*धन्यवाद*

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