Thursday, September 24, 2020

बुक रिव्यू : थ्रिल और सस्पेंस से भरपूर है 'समप्रीत'


दो सिटिंग में बैठकर उपन्यास समप्रीत को पढ़ गया। पिछले करीबन एक साल से भी ज्यादा लम्बा वक्फा गुज़र गया इस उपन्यास की समीक्ष्य प्रति प्राप्त हुए को और एक बात इस उपन्यास को शेल्फ़ में ही पड़ा रहने दिया। कुछ व्यक्तिगत कारणों से पढ़ नहीं पाया। ख़ैर कल रात जब इसे हाथ में उठाया तो मन ही नहीं किया कि इसे बीच में छोड़कर सो जाऊं। आधा उपन्यास अगले दिन के लिए छोड़ना पड़ा। अब जब इसे पढ़ कर खत्म किया है तो कुछ बातें हैं इस उपन्यास को लेकर। कोई भी भारतीय नारी इस बात को कभी स्वीकार नहीं कर पायेगी कि उसका पति अपने लिए ही पति ढूंढता फिरे। यानी वह समलैंगिक हो। किसी भी भारतीय पत्नी के लिए यह कष्टदायक ही होगा। ऐसी स्थिति में या तो वह उस पति से तलाक लेना पसंद करेगी या मरना। हालांकि अब समय बदल रहा है और सुप्रीम कोर्ट ने भी समलैंगिकों को अपनी मर्जी से संबंध बनाने के अधिकार दे दिए हैं तो इस बात को समझते हुए अवश्य कुछ लड़कियां अपने पति के समलैंगिक होने पर शायद आवाज ना उठाए। लेकिन प्रकृति के साथ छेड़छाड़ और सामाजिक स्वीकृति ना प्राप्त हो पाने के सवाल भी उठाए जा सकते हैं। हालांकि समलैंगिक सम्बन्धों को कानूनी मान्यता मिल चुकी है। 


यह दुनिया बहुत बुरी है - यहाँ कोई किसी की भावनाओं की कद्र नहीं करता - कोई किसी को नहीं समझना चाहता - सब ख़ुद में गुम हैं। 


कांटों भरे बिस्तर पर मखमल की चादर बिछी हो और दुनिया उस चादर को सम्मान दे रही हो तो भले वह सम्मान झूठा हो मगर जीवन के लिए ऑक्सीजन की मानिंद साबित होता है। उसके बनिस्पत सच्ची जिंदगी जिसको दुनिया का तिरस्कार प्राप्त होता है, वो जिंदगी गले की फांस बनकर हलक में अटकी रहती है। 


औरत एक अजीब चीज है, जब निबाह करने पर आती है तो बड़ी विषम परिस्थितियाँ भी उसके लिए कोई अर्थ नहीं रखतीं, यूँ समझो कि कांटों को निगल जाने की कला भी प्रकृति ने औरत को दी है और ज़ख्मों को नुमाया भी नहीं करेगी लेकिन जब वह अपने तेवर बदल ले तो ईश्वर भी उसको नहीं थाम सकता। 


पूरे उपन्यास में ये तीन वाक्यात प्रभावित करने वाले हैं। यूँ तो लगभग पूरा उपन्यास ही आपको अपनी गिरफ्त में ज़ब्त रखता है और आप तब तक उसकी गिरफ्त में कैद रहते हैं जब तक उपन्यास पूरा खत्म ना हो जाए। 

मनोज (manoj) नाम का एक लड़का है जिसकी अंकिता नाम की लड़की से शादी हुई है। शादी के कुछ समय बाद ही अंकिता को पता चलता है कि मनोज यानी उसका पति समलैंगिक यानी गे (gay) है। तो वह भीतर तक टूट जाती है। यह पता भी उसे तब चलता है जब मनोज का बचपन का दोस्त उसके ही शहर में यस (yes bank) बैंक में जॉब लगता है और वे मिलते हैं। कुछ दिन सन्नी यानी मनोज का बचपन का दोस्त उसके घर रहने आता है। मनोज उसके आने से बेहद खुश होता है। रोजाना स्त्री वेश धारण करता है। सुर्खी, लाली, लिपस्टिक और चूड़ियां आदि तमाम सौंदर्य प्रसाधन इस्तेमाल करता है। एकदम खूबसूरत लड़की के रूप में वह सजधज कर सन्नी के साथ शारीरिक संबंध बनाता है। इधर उसकी पत्नी अंकिता को यह सब नागवार गुजरता है। एक दिन अंकिता को उसकी सहेली का फोन आता है और वह सुसाइड करने की बात उससे करती है। अंकिता का मनोज से शादी करने से पहले ऋषभ से प्रेम सम्बन्ध थे। वे दोनों एक दूसरे को बहुत चाहते थे। लेकिन अंकिता की माँ शीतल उन दोनों की शादी नहीं होने देना चाहती क्योंकि ऋषभ नीची जाति का है। अब ऋषभ को अंकिता की सहेली से मालूम होता है वह अपनी शादी से मुतमइन नहीं है, खुश नहीं है। इसलिए वह अंकिता से बात करता है। कहानी कुछ मोड़ लेती है और मनोज की हत्या (मर्डर) की अंकिता और ऋषभ साजिश रचते हैं और उसकी हत्या कर देते हैं। मनोज को अपने लिए संगीता नाम से उच्चारण करवाना अच्छा लगता है। ऋषभ और सन्नी इसी नाम से बुलाते हैं उसे। कभी कभी सन्नी उसे मंजू कहकर भी बुलाता है। लेकिन मनोज को संगीता नाम सुनकर (अपने लिए) सुकून मिलता है। अब चूंकि मनोज की हत्या हो चुकी है तो पुलिस उसकी जांच पड़ताल करती है। कहानी एकदम से हत्या, मिस्ट्री, उत्सुकता से मुड़ती है। कभी कभी यह बोझिल सा भी प्रतीत होता है। लेकिन किसी भी उपन्यास को पूर्ण करने के लिए कुछ कहानियां समानांतर भी चलानी होती हैं। 

उपन्यास के अंत में एक सवाल जेहन में उठता है कि अंकिता के अलावा उसकी माँ शीतल, उसके पिता और भाई मनोज को क्यों नहीं पहचानते? अंकिता तो चलो मान लिया इस हत्या में शामिल है। लेकिन इस हत्याकांड में उसकी मां , भाई, पिता तो नहीं शामिल है फिर वे क्यों पुलिस से झूठ बोलते हैं? यह सवाल लगातार बना रहता है। ये बात तो लेखक एम इकराम फरीदी ही ज्यादा बेहतर तरीके से बता सकते हैं। 

खैर उपन्यास की कहानी अच्छी है और किसी फिल्मी कहानी सी प्रतीत होती है। कभी कभी यह भी लगता है कि इस तरह के उपन्यास लिखने के दिन अब लद चुके हैं। क्योंकि ऐसे उपन्यास 60,70 के दशक में लिखे जाते थे। बस एक अच्छी बात है वह है उपन्यास का समलैंगिक विमर्श पर आधारित होना। 

उपन्यास शैली, कथ्य, कथा विस्तार, बिम्ब , शिल्प के आधार पर बेहतर बन पड़ा है। लेकिन इस तरह के उपन्यासों का ऐसा अंत होना कुछ खास अच्छा नहीं लगता। लगता है इसकी कहानी कुछ और होनी चाहिए थी। वैसे इस उपन्यास को आधार बनाकर अगर फ़िल्म बनती है तो वह अवश्य रोचक होगी। लेकिन इस तरह की फिल्में भी बी ग्रेड की फिल्मों की श्रेणी में ही शामिल की जाएंगी। 

किताबों की समीक्षा करते हुए मैंने उन्हें फ़िल्म समीक्षा की तरह कभी कोई रेटिंग नहीं दी है। क्योंकि किसी भी किताब, उपन्यास, कहानी को लिखते हुए लेखक अपना दिमाग, ऊर्जा, कल्पना शक्ति और न जाने क्या क्या दांव पर लगाकर लिखता है। लेकिन इस उपन्यास के लिए 


अपनी रेटिंग - 3 स्टार


उपन्यासकार एम इकराम फरीदी के अन्य उपन्यास निम्न हैं। 


मनोरोग के नए सूत्र (समस्या और समाधान)

द ओल्ड फोर्ट

ट्रेजेडी गर्ल

गुलाबी अपराध

ए टेरेरिस्ट 

रिवेंज

चैलेंज होटल : द हॉन्टेड प्लेस

Review By Tejas Poonia

Tuesday, September 22, 2020

बुक रिव्यू : आशा की किरण जगाती 'तिनका तिनका मध्यप्रदेश


 मरजानी, तिनका तिनका की श्रृंखला, तिनका तिनका तिहाड़, तिनका तिनका मध्यप्रदेश, तिनका तिनका डासना, रानियाँ सब जानती है आदि जैसी प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय किताबें लिखने वाली लेखिका एवं लेडी श्री राम कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ वर्तिका नन्दा आज अपनी एक अलग  पहचान बना चुकी हैं। देश के विभिन्न जेलों का अध्ययन करके वहाँ से कविताएं और कहानियां निकालने का अनूठा काम इन्होंने किया है। यूं तो मैंने लेखिका वर्तिका नन्दा को हमारे महाविद्यालय किरोड़ीमल में एक सेमिनार के दौरान सुन चुका हूँ। बेहद सुरीली, सुमधुर आवाज और बहुमुखी प्रतिभा की धनी इस लेखिका के द्वारा जेलों पर किए गए कार्य के लिए राष्ट्रपति से सम्मान भी प्राप्त हो चुका है। तिनका तिनका फाउंडेशन की शुरुआत करके जेलों के भीतर एक बेहतर माहौल इन्होंने तैयार किया है। पुस्तक समीक्षा की कड़ी में वर्तिका नन्दा की लिखी पुस्तक तिनका तिनका मध्यप्रदेश पर बात करूं उससे पहले तिनका तिनका तिहाड़ पुस्तक में एक महिला कैदी कि कविता है।

सुबह लिखती हूँ शाम लिखती हूँ।
इस चारदीवारी में बैठी जब से, तेरा नाम लिखती हूं
इन फासलों में जो गम की जुदाई है
उसी को हर बार लिखती हूं

यह मात्र कविता ही नहीं अपितु जेल के भीतर मौजूद उस महिला कैदी की अंतर्व्यथा भी प्रकट करती है। लेखिका वर्तिका नन्दा उस पार के संसार की बातें करती हैं जो 10 बाई 10 के अंधेरे कमरे में  अपनी जिंदगी काट रहे हैं। लेखिका जेल और उस संसार को चुनती है जिसके बारे में हम कभी बात नहीं करना चाहते। इन जेलों में फूलों की क्यारी नहीं है, खुला आसमान नहीं है। और तो और पेड़ की छांव भी उन्हें मयस्सर नहीं है। है तो बस एक खिड़की  जिसमें छोटे-छोटे से सुराख हैं उनमें भी दरवाजा नहीं है। लोहे का गेट है और उस गेट पर है एक बड़ा ताला जड़ा।  रात का एलान शाम 5 बजे ही हो जाता है। तब बचे-खुचे ख्वाब भी उसी बड़े कमरे में बंद हो जाते हैं और करवट बदलने तक की इजाजत लेते हैं। यहां सिर के नीचे कोई तकिया नहीं, एक छोटा-सा कपड़ा है।

खैर इसी श्रृंखला में समीक्षार्थ हेतु किताब है तिनका तिनका मध्यप्रदेश। 'जेल’ शब्द सुनते ही ऊंची दीवारों से घिरे एक परिसर, तंग कोठरियां, लोहे के गेट की सलाखों के पीछे पकड़े गए लोगों के अनजाने चेहरों का दृश्य आंखों के आगे आ जाता है। जेल का यह स्याह पक्ष है तो उसमें अपनी सजा काट रहे लोगों में कला और रचनात्मकता एवं सृजनात्मकता का एक उजला पक्ष भी मौजूद है और उसी पक्ष से दो चार करवाती है किताब ‘तिनका तिनका मध्यप्रदेश’। यह पुस्तक 19 लोगों के जरिए जेल की कहानी कहती है- मध्य प्रदेश की जेलों में बंद बारह पुरुषों, दो महिलाओं, चार बच्चों और एक प्रहरी के जरिए जेल के हर पक्ष को इसमें सुंदर तस्वीरों के साथ सँजोया गया है। बच्चों की उम्र छह साल से कम हैं और उनमें से तीन का तो जन्म ही जेल में हुआ है।

जेल में बाहर से न कोई रसोइया आता है, न हज्जाम।
जेलें सब कुछ नए सिरे से शुरू करने और जिंदगी के अस्थायी होने के भाव को समझने में माहिर होती हैं। जो आया है , वो लौटेगा।

कविता से तिनका तिनका मध्यप्रदेश की शुरुआत होती है। कुछ जेल के भीतर की तस्वीरें भी इस किताब में मौजूद हैं। और येतस्वीरें हमें जेल के भीतर के माहौल से रूबरू करवाती हैं।

थोड़ी और जेलें
थोड़ी और सिकुड़ती जगह
थोड़ी कम हवा
सब कुछ थोड़ा
पर इंतजार बड़ा।।

कविता अपने आप में एक अनूठा प्रयोग लगती है।
जेलों के बिना समाज नहीं पर जेलें अपराध के हर सवाल का जवाब भी नहीं। जेलों की मौजूदगी से अपराधों का खात्मा हुआ हो, ऐसा नहीं है और जो जेलों में हैं, वे सभी अपराधी ही हों, ऐसा भी कोई प्रमाण नहीं है। इसलिए दुनिया की हर जेल समाज से कटा एक टापू है जहां से सवाल झांकते हैं।

किताब कि ये मात्र पंक्तियां ही नहीं है अपितु ये हमें सोचने पर मजबूर करती हैं। कि क्या जेल में सिर्फ कोई अपराध करके ही जाया जा सकता है। कभी कभी तो बेकसूर होने के बाद भी लोग जेलों में ठूंस दिए जाते हैं। और ऐसा अभी से नहीं मुगलों, अंग्रेजों के राज में भी होता था। भारत देश मे चार लाख उन्नीस हजार से भी अधिक कैदी बन्द हैं। जिनमें से करीबन तीन लाख विचाराधीन केस के मामले में फंसे हुए हैं। तिनका तिनका मध्यप्रदेश बताती है कि अकेले मध्यप्रदेश मब करीबन चालीस हजार कैदी मौजूद हैं।
जेल हमें यह बताती है कि यहां ऊंची आवाज में बोलना मना है। जेलें रंगों का बायोस्कोप हैं तो ये लिखती भी हैं। सुभद्रा कुमारी चौहान से लेकर माखन लाल चतुर्वेदी भवानी प्रसाद मिश्र, गांधी, भगतसिंह आदि जैसे हजारों लाखों नाम हैं जिन्होंने जेल के भीतर सृजन का काम किया है। तिनका के इतिहास कि बात करें तो यह 2013 में सामने आया। यूं तो लेखिका कहती हैं कि उन्होंने ने प्रयास 1993 से ही शुरू कर दिया था। परंतु मुक्कमल हुआ 2013 में आकर। लता मंगेशकर सरीखी आवाज की धनी लेखिका जेल का नुमाइंदा नहीं करती बल्कि जेल के भीतर से कला और सृजन को भी बाहर लेकर आती है।

जेलों पर किया गया यह काम अपने आप में मौलिक और काबिले तारीफ है। तिनका तिनका तिहाड़ पुस्तक तो गिनीज बुक रिकॉर्ड तक में दर्ज हो चुकी है। तिनका तिनका की सभी श्रृंखला में जेल के भीतर की प्रतिभाओं के साथ साथ वहां का मुआयना करती तस्वीरें भी इसमें साझा की गई हैं। ये तस्वीरें किसी भी संवेदनशील हृदय के व्यक्ति में दया भाव पैदा करने के लिए काफी है।

Book review by tejas poonia

Monday, September 14, 2020

रिव्यू : उरी हमले की याद ताजा करती 'द हिडन स्ट्राइक'

 द हिडन स्ट्राइक फ़िल्म उरी हमले के बाद भारत की ओर से पाकिस्तान में कई गई सर्जिकल स्ट्राइक पर आधारित है। जी हाँ वही स्ट्राइक जिसे तथाकथित वामियों ने फर्जीकल स्ट्राइक कहा और इसके सबूत भी भारत सरकार से मांगे थे। सबूत मांगना एक अलग प्रतिक्रिया है और उस पर फ़िल्म बनाना अलग। फ़िल्म  आर्मी ऑफिसर की कहानी बयां करती है, जो अपने आलाकमान की अनुमति से सीमा पार अपने सबसे अच्छे लोगों के साथ एक गुप्त मिशन पर जाता है और अंततः सफल होता है।  कहानी काउंटर अटैक पर एक व्यंग्य है हालांकि उनके पास सभी नवीनतम संसाधन और गोला-बारूद हैं।  फिल्म एक भारतीय के रूप में आपके गुस्से को भड़का सकती है कि कैसे हमारे सैनिक हमलों में अपनी जान गंवाते हैं। 

लोकेशन वार फील्ड का वास्तविक एहसास देते हैं।  संगीत, ग्राफिक्स, स्टोरीलाइन और स्टार कास्ट कुलमिलाकर औसत हैं। यह फ़िल्म नेपोटिज्म को एक गंभीर झटका देती है क्योंकि इसमें नए कलाकारों को लिया गया है।  फिल्म कलाकार दीपराज राणा, मीर सरवर, जिमी शर्मा, संजय सिंह, लाखा लखविंदर, वेदिता प्रताप सिंह और दिल्ली बिहार गुजरात, पंजाब, हरियाणा, जम्मू और कश्मीर के थिएटर कलाकारों ने अपने किरदारों के साथ न्याय किया है।  इस फिल्म में दिखाई गई गहरी पीड़ा हमारे वास्तविक नायकों के जीवन के नुकसान के खिलाफ हमारे दिलों को आगे बढ़ाती है और यह भारतीयों के लिए एक मस्ट वॉच फिल्म है।

 संगीत हमारे दिलों में एक गूँज समान है। लेकिन इस फ़िल्म का गीत संगीत निम्न स्तर का है। कहानी और स्क्रीनप्ले भी कसे हुए नहीं लगते।  निर्देशक सुजाद इकबाल खान ने कहानी के साथ-साथ लेखक अभिनाश सिंह चिब और सागर झा को भी कहानी पटकथा और संवादों के साथ उनका साथ लिया है। क्रिस्टल मूवीज के बैनर तले निर्मित की गई इस फ़िल्म में अभिनेता जिमी शर्मा ने अपने अभिनय कौशल से साबित करते हैं कि उन्होंने अपने पावर पैक के प्रदर्शन के माध्यम से सभी के दिलों को और आंखों को भावुक कर दिया।

 एक आर्मी मैन के वास्तविक जीवन को 'द हिडन स्ट्राइक' में चित्रित किया गया है, जहां देश स्वयं से पहले आता है, परिवार से पहले कर्तव्य आता है।  उनकी प्रतिबद्धता, निष्ठा और वीरता वे तत्व हैं जो आपको अंत तक स्क्रीन पर चिपकाए तो रखते हैं लेकिन नाकाम कोशिश के साथ। इस तरह की फ़िल्म को देखने के लिए अंदर जोश आना चाहिए और मुठियाँ भींच जानी चाहिए हथेलियों में पसीना आ जाना चाहिए लेकिन अफसोस ऐसा कुछ नहीं हो पाता। और देशभक्ति के नाम पर आप ठगे जाते हैं। इससे बेहतर तो ये हो कि इस फ़िल्म को न देखकर साल 2016 की खबरें ही एक बार पुनः देख ली जाएं तो कुछ देशभक्ति तो पैदा होगी। सहयोगी कलाकारों के लिए करने लायक कुछ ज्यादा है नहीं। इस फ़िल्म को देखने से बेहतर है उरी फ़िल्म को देख लिया जाए। 


शेमारूओ बॉक्स ऑफिस

निर्देशक: सुज़ाद इकबाल खान

कास्ट: दीपराज राणा, मीर सरवर, जिमी शर्मा, संजय सिंह, लाखा लखविंदर, वेदिता प्रताप सिंह, अमित अंतिल आदि। 

 निर्माता: विजय वल्लभानी और सोनू जैन

 बैनर: क्रिस्टल मूवीज

 शैली: एक्शन थ्रिलर

 अपनी रेटिंग: ढाई  स्टार


रिव्यू: मनुष्य और राक्षसों के संसार की कहानी 'कार्गो'

 

हिंदी में तय फार्मूलों और हकीकत से हटकर बहुत ही कम फिल्में बनी हैं। अगर कभी बनती भी हैं तो उनमें ऐसे प्रयोग किए जाते हैं कि फिल्म आम दर्शक के सर से गुजर जाती है। कार्गो लीक से अलग होने के बावजूद एक सहज फिल्म है, जो हमें एक कल्पनालोक में ले जाती है। जहां जीवन और मृत्यु के गंभीर प्रसंगों पर कभी-कभी आप मुस्करा भी देते हैं। 

पृथ्वी पर अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए इंसानों और राक्षसों की लड़ाई पौराणिक है। लेखक-निर्देशक आरती कदव अपनी डेब्यू फिल्म कार्गो में इस पौराणिक मिथक को कई ट्विस्ट एंड टर्न के साथ तोड़ती और पेश करती हुई प्रतीत होती है। वे एक नई-रोचक कहानी बुनकर इस बार हमारे सामने प्रस्तुत हुई  हैं। इसमें विज्ञान, अंतरिक्ष के साथ साथ आत्मा-परमात्मा , जीवन-मृत्यु का दर्शन भी है लेकिन इसे एक फैंटेसी के रूप  में ही सहजता से बुना गया लगता  है। वह भी एक ऐसे दौर में जबकि हिंदी सिनेमा में रियलिस्टिक पर जोर है, आरती काल्पनिक कहानी को जमीनी सच्चाई की तरह पेश करती हैं वह भी हल्के-फुल्के कॉमिक अंदाज में। 


इसमें साल 2027 का समय दिखाया गया है। जिसमें यहां ऐसा समय दिखाया गया है, जब इंसान चांद-मंगल से आगे बृहस्पति तक पहुंच गया है। लेकिन धरती पर हालात 2020 जैसे हैं। क्योंकि 2027 तो कपोल कल्पना के आधार पर दिखाया जा सकता है। साल 2020 की बात करें तो इस दौर में वही लोकल ट्रेनें, वही घरों की पलस्तर से उखड़ती दीवारें और उनमें काले पड़ते इलेक्ट्रिक सॉकेट मौजूद हैं। वहीं प्यार के झूठे वादे और रिश्तों में धोखा देने वाले इंसान पैदा हो रहे हैं। लेकिन कार्गो में इस जीवन-मरण के बीच में बड़ा बदलाव दिखता है। मरे हुए इंसान को लेने के लिए भैंसे पर सवार यमराज या उनके नुमाइंदे नहीं आते। यह काम मनुष्यों जैसे दिखने वाले राक्षस करते हैं। साथ ही यहां न स्वर्ग है, न नर्क। पृथ्वी पर मनुष्यों और राक्षसों के समझौते के बाद आकाशगंगा में मृत्यु के पश्चात अंतरिक्ष स्टेशन बनाए गए हैं, जहां आदमी  सिर्फ मर कर ही पहुंच सकता है। यहां उसे कार्गो यानी डिब्बाबंद माल कहा जाता है। स्टेशन में उसकी ‘मेमोरी इरेज’ की जाती है और फिर धरती पर नए शरीर में उसका जन्म होता है। 

फ़िल्म की कहानी की बात करूं तो यहां काल्पनिक काल और स्थान के बैकग्राउंड वाली यह कहानी एक अंतरिक्ष स्टेशन पुष्पक 634-ए पर 75 साल से रह रहे होमो-राक्षस प्रहस्थ (विक्रांत मैसी) की है। जिसकी उम्र कितने सौ बरस होगी, कह नहीं सकते। लेकिन चूंकि अब उसके स्टेशन में जन्म-मृत्यु के कई चक्रों से गुजर कर आते लोग कहने लगे हैं कि उसे कहीं देखा है, तो इसका मतलब है कि धरती पर कई युग बीत चुके हैं। उसके रिटायरमेंट का समय आ गया है। उसकी जगह लेने के लिए राक्षसों-मनुष्यों के इंटरप्लेनेटरी स्पेस ऑर्गनाइजेशन ने युविष्का शेखर (श्वेता त्रिपाठी) को भेजा है।  दूसरी ओर प्रहस्थ को धरती पर लौटना मुश्किल लगता है क्योंकि उसकी भावनाएं अपने काम से जुड़ी हैं। मगर यहां उसकी एक छोटी-सी प्रेम कहानी भी आरती ने दिखाई है। 


ओटीटी प्लेटफॉर्म नेटफ्लिक्स पर आई कार्गो का फिल्माई ढांचा रोचक है। हॉलीवुड या पश्चिमी देशों में बनने वाली महंगी अंतरिक्ष फिल्मों की तुलना में सीमित संसाधनों में बनी कार्गो अंतरिक्ष फैंटेसी का सुंदर नमूना पेश करती है। कहानी और स्क्रिप्ट में दम दिखाई देता है। इसी कारण यह आपको बांधे रखने में कामयाब होती  है। मृत्यु का सफर और वहां से पुनर्जन्म की राह पर लौटना क्या इतना ही सहज किंतु रोचक होता होगा। फिल्म में मर कर अंतरिक्ष स्टेशन में आने वाले किरदारों में एक बात लगभग समान दिखती है कि वे अचानक मर गए हैं और एक बार अपने किसी प्रियजन या परिवारवाले से बात करना चाहते हैं। मृत्यु यहां मशीनी रूप में है। जिसमें ना कोई दर्द, ना तकलीफ और ना ही इमोशन है। स्मृति को ‘खत्म’ कर देने वाली या मिटा देने वाली कुर्सी पर बैठने के बाद इंसान जैसे कोरी स्लेट हो जाता है और धरती पर ट्रांसपोर्ट होने के लिए रबर के गुड्डे की भांति तैयार रहता है। ऐसे तमाम दृश्य और प्रसंग यहां आकर्षक लगते हैं।  कार्गो जीवन से मोह और मृत्यु के भय को एक समान दूरी और एक नजर से देखने की कहानी मालूम पड़ती है। कई बार जैसे हमें यह पता नहीं होता कि हम जी रहे हैं, वैसे ही हमें यह भी पता नहीं चलता कि हम मर चुके है। कुछ ऐसी ही बात कहते हुए कार्गो कहीं-कहीं हल्की मुस्कान पैदा करती है। इसमें हल्का व्यंग्य भी है।

लगभग एक घंटे 50 मिनट की यह फिल्म दर्शकों को बांधे रखने में कामयाब  है। अगर आप रूटीन फिल्मों से अलग कुछ देखना पसंद करते हैं और साइंस फिक्शन में रुचि है तो कार्गो आपके लिए है। हिंदी में ऐसी फिल्में दुर्लभ है। अतः एक अलग अनुभव के लिए इस फिल्म को देखा जा सकता है। विक्रांत मैसी और श्वेता त्रिपाठी ने अपनी भूमिकाएं सहजता से निभाई हैं। फिल्म के सैट अच्छे से डिजाइन किए गए लगते हैं।  इसका आर्ट डायरेक्शन और वीएफएक्स कहानी के अनुकूल हैं। फ़िल्म के सेट, लोकेशन को छोड़ गाने ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाते। 

अपनी रेटिंग - 3 स्टार