Friday, January 22, 2021

फ़िल्म रिव्यू : रंगों में डूबती उतराती द लास्ट कलर


 साल 2019 में एक फ़िल्म खूब तारीफें बटोरती है और ऑस्कर तक के लिए नामित होती है लेकिन जब साल 2020 में वह रिलीज की जाती है तो उसकी टीम से जुड़े निर्देशक कहते हैं कि उनसे रुपए मांगे गए हैं अच्छे रिव्यू या अच्छी समीक्षा और चार स्टार रेटिंग देने के लिए। मैं इस फ़िल्म को मात्र 2 स्टार दूँगा। मेरी इस फ़िल्म से जुड़े किसी भी टीम से कोई दुश्मनी या मित्रता नहीं है। लेकिन फ़िल्म की थीम अच्छी होने के बावजूद इसमें काफी झोल है जो आप देखेंगे तो खुद समझ जाएंगे। 


खैर फ़िल्म की कहानी की बात करें तो एक छोटी सी लड़की है 6-7 साल की जो बनारस में गंगा तट पर रहती है। छोटी सी लड़की है इसलिए नाम भी छोटी ही है। उसी तट पर एक उसका मानस भाई है चिंटू। छोटी पढ़ाई कर रही है पर कहाँ यह नहीं बताया गया है बस उसे तीन सौ रुपए स्कूल की फीस भरनी है। वे दोनों फूल बेचते हैं और छोटी रस्सी पर भी चलती है यानी खेल तमाशा भी दिखाती है। चिंटू जुए में रुपए हार जाता है उसके पास फिर से जमा किए हुए साठ रुपए ही हैं उसका भी वह जुआ खेलना चाहता है। इसी चक्कर में चार महीने हवालात में बंद हो जाता है। छोटी उसकी तलाश में है। इसी तलाश में वह एक किन्नर और एक विधवा से मिलती है। विधवा बनी नीना गुप्ता जिसका नूर नाम है के साथ छोटी का रिश्ता अच्छा बन जाता है। एक दिन अनारकली यानी किन्नर का मर्डर कर दिया जाता है राजा नाम के दरोगा द्वारा। छोटी ये सब देख लेती है और वह डर जाती है। नूर उसकी खोज करती है। उसे अपने विधवा आश्रम लेकर आती है। लेकिन वहां राजा आ जाता है छोटी को ले जाकर जेल में बंद कर देता है। यहां छोटी और चिंटू एक साथ दिखाई देते हैं लेकिन उनको मिलते हुए नहीं दिखाया गया है। खैर आश्रम वाले नूर को छत से फेंक कर मार देते हैं अब जबकि एक दिन छोटी ने नूर से कहा था कि वह उसे रंग लगाएगी उसका पसंदीदा रंग गहरा गुलाबी तो वह उसकी जा रही मृत्यु की डोली पर ही रंग फेंक देती है और इसके बाद कहानी घूमती है एक बार फिर से उसी आश्रम में होली बनाने को लेकर। दरअसल वह छोटी अब सुप्रीम कोर्ट में सीनियर वकील है उसी ने लड़ाई करके किन्नरों के लिए और विधवाओं के हकों में फैसले लिखवाए हैं। जाहिर है कहानी अच्छी है। इसके कुछ एक संवाद लाजवाब हैं। 

लेकिन इस फ़िल्म में झोल भी है मसलन छोटी किस स्कूल में पढ़ रही है? आगे की पढ़ाई उसने कैसे मुक्कमल की? उसे रास्ता किसने दिखाया? चिंटू का अंत में क्या हुआ? अनारकली के मामले का क्या हुआ? इस तरह के कई सारे सवाल यह फ़िल्म छोड़कर जाती है। कभी कभी इस फ़िल्म का  अतिशय लम्बा होना भी अखरने लगता है। फ़िल्म के एक दो संवाद दिल जीत लेते हैं मसलन


"छोटी तेरे को ना जीवन में कई बार ऐसे लोग मिलेंगे जो तुझे गिराना चाहेंगे, हराना चाहेंगे, दबाना चाहेंगे तो बिल्कुल मत डरना, बिल्कुल पीछे मत हटना समझ गई। ये तेरे को अछूत कहते हैं ना तू इतना ऊपर उठना ऐसी ऊंचाइयों को छूना कि ये तुझे छू भी न सके।"


"मेरे दादा जी चाहते थे मैं पढूं। तब देश नया नया आजाद हुआ था। दादा जी कहते थे अगर देश को आगे बढ़ना है तो देश की बेटियों को पढ़ाना जरूरी है।"


लेकिन खाली एक दो संवाद से पूरी फिल्म को नहीं चलाया या ढोया जा सकता। अभिनय की बात करें तो नीना गुप्ता सबसे उत्तम रहीं हैं। उनकी पिछली कुछ फिल्में भी लाजवाब थीं। इसके अलावा दरोगा भी अपने अभिनय की छाप छोड़ते हैं। गीत संगीत फ़िल्म के अनुसार औसत ही है। इसमें भी काफी सुधार की गुंजाइश नजर आती है। गंगे गंगे जो थीम सांग है वह जरूर तेज आवाज में सुना जाए तो प्रभावित करता है और रोंगटे से खड़े होने लगते हैं। रेटिंग 2 स्टार  इस फ़िल्म की समीक्षा और इस फ़िल्म को अच्छी स्टार रेटिंग देने के भी आरोप इसके निर्देशक विकास खन्ना ने लगाए थे। जब फ़िल्म बोस्टन फ़िल्म फेस्टिवल में दो अवार्ड एक बेहतरीन अभिनय के लिए और एक बेहतरीन फीचर फिल्म के लिए जीत चुकी है तो उस फिल्म को स्टार रेटिंग की जरूरत क्यों आन पड़ी यह बात भी समझ से परे है। दूसरा विधवाओं पर आधारित कई बेहतरीन फिल्में इससे पहले आ चुकी हैं।


हमारे लिए समीक्षा लिखी तेजस पूनियां ने 

Tuesday, January 19, 2021

धर्म गुरु या सेक्स गुरु 'ओशो रजनीश' पुण्यतिथि विशेष

 


ओशो अपने क्रांतिकारी और सुलगते विचारों से हमेशा विवादों में रहे. ओशो के विचारों से प्रभावित होकर लोग सब कुछ त्याग कर उनके पीछे चलने को तैयार थे. रजनीश ओशो के भक्त उन्हें भगवान ओशो कहकर संबोधित करते थे लेकिन कुछ लोगों के लिए ओशो एक 'सेक्स गुरु' का नाम है. ओशो ने लोगों को मोक्ष का नया रास्ता बताया जिसे सुनकर स्थापित मान्यताएं हिल गई थीं. ओशो के स्वतंत्र विचार कई और प्रतिष्ठानों के लिए खतरा बन चुके थे. आइए ओशो की 31वीं पुण्यतिथि (Osho Death Anniversary) के मौके पर जानते हैं उनके विवादित सफर और मौत से जुड़े रहस्य के बारे में...



11 दिसंबर, 1931 को मध्य प्रदेश के कुचवाड़ा में उनका जन्म हुआ था. जन्म के वक्त उनका नाम चंद्रमोहन जैन था. उन्होंने अपनी पढ़ाई जबलपुर में पूरी की और बाद में वो जबलपुर यूनिवर्सिटी में लेक्चरर के तौर पर काम करने लगे. उन्होंने अलग-अलग धर्म और विचारधारा पर देश भर में प्रवचन देना शुरू किया. उनका व्यक्तित्व का आकर्षण ऐसा था कि कोई भी आसानी से प्रभावित हो जाए. प्रवचन के साथ ध्यान शिविर भी आयोजित करना शुरू कर दिया. शुरुआती दौर में उन्हें आचार्य रजनीश के तौर पर जाना जाता था. नौकरी छोड़ने के बाद उन्होंने नवसंन्यास आंदोलन की शुरुआत की. इसके बाद उन्होंने खुद को ओशो कहना शुरू कर दिया.



70 और 80 के दशक में यह आंदोलन खूब विवादों में रहा. भारतीय पारंपरिक मूल्यों के खिलाफ अपने विचारों से पहले भारत में और फिर अमेरिका में भी ओशो को विरोध का सामना करना पड़ा. सोवियत रूस में भी ओशो रजनीश के आंदोलन को बैन कर दिया गया. भारतीय संस्कृति की सकारात्मक छवि का विरोधी होने के कारण सोवियत सरकार ने ओशो और उनकी विचारधारा दोनों को खारिज कर दिया.




साल 1970 में ओशो मुंबई में रहने के लिए आ गए. भौतिकतावादी जीवन से ऊब चुके पश्चिम के लोग भी उन तक पहुंचने लगे. इसी वर्ष सितंबर में मनाली में आयोजित अपने एक शिविर में ओशो ने नव-संन्यास में दीक्षा देना प्रारंभ किया. सन 1974 में वे अपने बहुत से संन्यासियों के साथ पूना आ गए जहां श्री रजनीश आश्रम की स्थापना हुई. पूना आने के बाद उनकी प्रसिद्धि विश्व भर में फैलने लगी.



ओशो कोई पारंपरिक संतों की तरह कोई रामायण या महाभारत आदि का पाठ नहीं कर रहे थे, न ही व्रत-पूजा या धार्मिक कर्मकांड करवाते थे. वह स्वर्ग-नर्क और अन्य अंधविश्वासों से परे उन विषयों पर बोल रहे थे जिन पर लोगों ने अब तक चुप्पी साधी थी. ओशो के विषय बिल्कुल अलग थे. ऐसा ही एक विषय था- सम्भोग से समाधि की ओर जो आज भी विवाद का विषय बना हुआ है. ओशो के जीवन और उनके आश्रम पर नेटफ्लिक्स पर 'वाइल्ड वाइल्ड कंट्री' नाम से एक सीरीज भी आई थी.



ओशो का अमेरिका प्रवास- 1981 में स्वास्थ्य खराब होने की वजह से चिकित्सकों के परामर्श पर ओशो अमेरिका चले गए. साल 1981 से 1985 के बीच वो अमेरिका रहे. ओशो के यहां बड़ी संख्या में अनुयायी थे. उनके अमेरिकी शिष्यों ने ओरेगॉन राज्य में 64000 एकड़ जमीन खरीदकर उन्हें वहां रहने के लिए आमंत्रित किया. इस रेगिस्तानी जगह में ओशो कम्यून खूब फलने-फूलने लगा. यहां करीब 5000 लोग रह रहे थे. ओशो का अमेरिका प्रवास बेहद विवादास्पद रहा. महंगी घड़ियां, रोल्स रॉयस कारें, डिजाइनर कपड़ों की वजह से वे हमेशा चर्चा में रहे. ओरेगॉन में ओशो के शिष्यों ने उनके आश्रम को रजनीशपुरम नाम से एक शहर के तौर पर रजिस्टर्ड कराना चाहा लेकिन स्थानीय लोगों ने इसका विरोध किया.



उनकी शिष्या रहीं ब्रिटिश मनोवैज्ञानिक गैरेट ने बीबीसी से बताया था, "हम एक सपने में जी रहे थे. हंसी, आजादी, स्वार्थहीनता, सेक्सुअल आजादी, प्रेम और दूसरी तमाम चीजें यहां मौजूद थीं. "शिष्यों से कहा जाता था कि वे यहां सिर्फ अपने मन का करें. वे हर तरह की वर्जना को त्याग दें, वो जो चाहें करें. गैरेट कहती हैं, "हम एक साथ समूह बना कर बैठते थे, बात करते थे, ठहाके लगाते थे, कई बार नग्न रहते थे. हम यहां वो सब कुछ करते थे जो सामान्य समाज में नहीं किया जाता है."




पहले यह एक आश्रम था लेकिन देखते ही देखते यह एक पूरी कॉलोनी बन गई, जहां रहने वाले ओशो के अनुयायियों को ‘रजनीशीज’ कहा जाने लगा. धीरे-धीरे ओशो रजनीश के फॉलोवर्स और रजनीशपुरम में रहने वाले लोगों की संख्या बढ़ने लगी, जो ऑरेगन सरकार के लिए भी खतरा बनता जा रहा था.



अक्टूबर 1985 में अमेरिकी सरकार ने ओशो पर अप्रवास नियमों के उल्लंघन के तहत 35 आरोप लगाए और उन्हें हिरासत में ले लिया. उन्हें 4 लाख अमेरिकी डॉलर की पेनाल्टी भुगतनी पड़ी. साथ ही, उन्हें देश छोड़ने और 5 साल तक वापस ना आने की भी सजा हुई. कुछ रिपोर्ट्स में ये दावा किया जाता है कि इसी दौरान उन्हें जेल में अधिकारियों ने थैलियम नामक धीरे असर वाला जहर दे दिया था. 14 नवंबर 1985 को अमेरिका छोड़कर ओशो भारत लौट आए. इसके बाद ओशो नेपाल चले गए.





किताब 'कौन है ओशो: दार्शनिक, विचारक या महाचेतना' में लेखक शशिकांत सदैव लिखते हैं, फरवरी 1986 में ओशो ने विश्व भ्रमण की शुरुआत की लेकिन अमेरिकी सरकार के दबाव की वजह से 21 देशों ने या तो उन्हें देश से निष्कासित किया या फिर देश में प्रवेश की अनुमति नहीं दी. इन देशों में ग्रीस, इटली, स्विटजरलैंड, स्वीडन, ग्रेट ब्रिटेन, पश्चिम जर्मनी, कनाडा और स्पेन प्रमुख थे.



ओशो 1987 में पूना के अपने आश्रम में लौट आए. वह 10 अप्रैल 1989 तक 10,000 शिष्यों को प्रवचन देते रहे. 19 जनवरी, वर्ष 1990 में ओशो रजनीश ने हार्ट अटैक की वजह से अपनी अंतिम सांस ली. कहा जाता है कि अमेरिकी जेल में रहते हुए उन्हें थैलिसियम का इंजेक्शन दिया गया और उन्हें रेडियोधर्मी तरंगों से लैस चटाई पर सुलाया गया जिसकी वजह से धीरे-धीरे ही सही वे मृत्यु के नजदीक जाते रहे. खैर इस बात का अभी तक कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं हुआ है लेकिन ओशो रजनीश के अनुयायी तत्कालीन अमेरिकी सरकार को ही उनकी मृत्यु का कारण मानते हैं.

साभार आजतक न्यूज चैनल

Saturday, January 16, 2021

देखिए एक लोक कलेण्डर में 'शौर्य गाथा' उत्तराखंड की मिट्टी की


 देवभूमि उत्तराखंड न केवल देव स्थानों के लिए विख्यात है बल्कि इस देवभूमि पर समय-समय पर ऐसे योद्धाओं ने भी जन्म लिया है जिन्होंने अपनी मातृभूमि को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। ऐसे ही योद्धाओं की छवियों और उनकी शौर्य गाथाओं को दर्शाता हुआ यह कलेण्डर आदरणीय लक्ष्मी जी के माध्यम से प्राप्त हुआ। लक्ष्मी जी और उनकी पूरी टीम नाट्य कला और थियेटर के जरिए गत कई वर्षों से उत्तराखंड की लोक संस्कृति एवं परम्पराओं को प्रसारित, प्रचारित करने का महती कार्य कर रही है।


आज किसी भी देश या समाज की संस्कृति या परम्पराओं को जिंदा रखना एक चुनौती बन चुका है। एक समय था जब हर पीढ़ी के द्वारा अपनी भावी पीढ़ी तक अपनी सभ्यता-संस्कृति-परम्पराओं को हस्तांतरित करने के लिए कई प्रकार के प्रयास किये जाते रहे। परन्तु आज इस फेसबुक-सोशल मीडिया की दुनिया में किसे इतनी फुर्सत कि अपनी जड़ों को सींचने के लिए कुछ करें। बावजूद इसके वास्तव में कुछ लोग बिना हल्ला किये ऐसा महत्वपूर्ण काम कर रहे होते हैं कि उनके काम को साधारणतः शब्दों में बांधना असाधारण होता है। लक्ष्मी जी ऐसा ही कार्य कर रही हैं, जो उत्तराखंड निवासियों को अपनी संस्कृति और योद्धाओं पर गौरवान्वित होने के लिए प्रेरित करता है। कम से कम इस कलेण्डर को हर उत्तराखंड के घर में ही नहीं बल्कि सरकारी दफ्तरों में भी होना चाहिए। इस पंचांग के माध्यम से उत्तराखंड की लोक कथाओं/गाथाओं के नायक-नायिकाओं से पूर्णतः परिचय मिलता है। लक्ष्मी जी और उनकी पूरी टीम इसके लिए बधाई एवं साधुवाद के पात्र हैं। 

यह कोई सामान्य कलेण्डर नहीं जो आपको सिर्फ तारीखें बताता है बल्कि इसे मैंने नाम दिया है *लोक कलेण्डर* क्योंकि यह उत्तराखंड के उन शूरवीरों से हमारा संक्षेप में किंतु प्रभावशाली  परिचय कराता है, जिनसे आज की पीढ़ी अनभिज्ञ है।

साथ ही इस कलेण्डर में आपको उत्तराखंड के लोक संस्कृति और परम्पराओं से जुड़े त्यौहारों और मेलों के बारे में भी जानने को मिलेगा।  



इसमें जिन शूरवीरों का परिचय है जिसमें सबसे पहले माधो सिंह भंडारी हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि 400 साल पहले उत्तराखंड की धरती पर पहाड़ का सीना चीर उसमें से नदी निकालकर अपने गाँव लाए जो आज भी मलेधा गाँव को समृद्ध बनाए हुए है। 



रानी कर्णावती भारत की सबसे शक्तिशाली रानियों में गिनी जाने वाली जिन्हें नाक काटी रानी के रूप में भी जाना जाता है। 



रिलोखा लोधी शक्तिशाली उत्तराखंड का यौद्धा जिसे भीम भी कहा जाता है।



सती रानी धना जिनके बारे में कहा सुना जाता है कि उन्होंने कालीचंद के विवाह प्रस्ताव को एक शर्त के साथ स्वीकार किया जिसमें उन्होंने कहा कि वे अपने पति का संस्कार पंचेश्वर में करेंगी उसके बाद उससे विवाह करेगीं लेकिन वे कालीचंद को मार देती हैं और पति के शव के साथ सती हो जाती है। 



राजा अजयपाल सिकंदर लोदी के समकालीन व बावन गढ़ों को जीतकर एक साथ मिलाने वाले महात्मा तथा आदिनाथ कहलाए। 



माता संतला हिन्दू मंदिरों के नष्ट होने पर माँ दुर्गा का आह्वान कर मुगलिया सेना को अंधा बना देने वाली और फिर खुद पाषाण में तब्दील हो जाने वाली महिला। जिसकी इस घटना के बाद मुगलों ने किसी देवी मंदिर को नष्ट नहीं किया। 



 पंथ्या दादा


तत्कालीन राजा के रोज़ा कर के विरोध स्वरूप स्वयं आत्मदाह कर बलिदान कर दिया। बाद में राजा जो वह कर निरस्त करना पड़ा।



तीलू रौतेली


अपने पिता और भाइयों का मौत का बदला लेनी वाली वीरबाला।



 कुफ़्फ़ु चौहान


राजा के जुल्मों के आगे न झुकने वाला वीर योद्धा जिसने अपनी मातृभूमि के लिए अपना सर कटना मंजूर किया।



 राजकुमारी रानी


पिता और भाइयों द्वारा देश की रक्षा में कोई कमी ना रहे, इसके लिए अपनी दोनों बहनों को मारकर स्वयं का सिर भी कलम कर दिया।



 रानी जिया


एक ऐसी राजमाता जिसने तुर्कों के आगे अपने सम्मान की रक्षा करने के लिए खुद को शीला में परिवर्तित कर दिया।




धन्यवाद




डॉ० राम भरोसे
(एम.ए. हिन्दी, यू.जी.सी. नेट, पीएचडी, एम.ए. संस्कृत)
असिस्टेंट प्रोफेसर (हिन्दी)
राजकीय महाविद्यालय पोखरी (क्वीली)
टिहरी गढ़वाल-249146 (उत्तराखण्ड)
9045602061
dr.rambharose2012@rediffmail.com
ramharidwar33@gmail.com
sabhyatakateesrapaksh.blogspot.com


Tuesday, January 12, 2021

स्वामी विवेकानंद के विचारों की प्रासंगिकता

 


आज का युवा जाग कर उठ तो चुका है, परन्तु वो उल्टी दिशा में उल्टे लक्ष्य की ओर दौड़ रहा है। 



बाकी स्वामी जी के विचार भी आज भी प्रासंगिक हैं, परन्तु खेद है कि जिस प्रकार उनके विचारों का युवाओं के बीच प्रसार प्रचार होना था, नहीं हो सकें। इसके विपरीत हमारे युवाओं को जानबूझकर धर्म-जाति-सम्प्रदाय के नाम पर उल्टे लक्ष्य की ओर भगाया जा रहा है। हमेशा के तरह राजनैतिक लोग युवाओं पर ही अपनी रोटियां सेंक रहे हैं। वर्तमान शिक्षा और रोजगार की बुरी स्थिति से सभी वाकिफ है। यह भी युवाओं के भटकाव की मुख्य वजह है। इतना ही नहीं गत वर्षों में हमारे युवाओं को जिस प्रकार धर्म और जाति के नाम पर अंधविश्वासी और कट्टर बनाया जा रहा है, इसका दुष्प्रभाव देखने भी आने लगे हैं। ऐसे में इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा, जो ये सब कर रहे हैं उनके खुद के बच्चे देश- विदेश के बड़े बड़े संस्थाओं में अपने भविष्य का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं। 

ये जिम्मेदारी हर उस कामयाब और लक्ष्य प्राप्ति कर चुके व्यक्ति को लेनी होगी, कि वह कम से कम एक युवा को उसके सही लक्ष्य की ओर अग्रसारित करें। तभी स्वामी जी कप असल रूप में हम अपनी श्रद्धांजलि अर्पित कर सकते हैं। स्वामी जी की तरह हर युवा यदि अपने लिए सद्गुरु की तलाश कर उनके प्रति पूर्णतः समर्पित हो जाए तो उसकी सभी समस्याएं यूँ ही दूर हो जाएगी। लेकिन शर्त यही है कि इसके लिए नरेंद्र बनना होगा, तभी राम कृष्ण परमहंस जैसे गुरु की उपलब्धि होगी।


स्वामी विवेकानंद जी जन्मदिवस के सुअवसर पर समस्त देशवासियों को हार्दिक बधाई व शुभकामनाएं।





धन्यवाद


डॉ० राम भरोसे
(एम.ए. हिन्दी, यू.जी.सी. नेट, पीएचडी, एम.ए. संस्कृत)
असिस्टेंट प्रोफेसर (हिन्दी)
राजकीय महाविद्यालय पोखरी (क्वीली)
टिहरी गढ़वाल-249146 (उत्तराखण्ड)
9045602061, 9719177319