साल 2019 में एक फ़िल्म खूब तारीफें बटोरती है और ऑस्कर तक के लिए नामित होती है लेकिन जब साल 2020 में वह रिलीज की जाती है तो उसकी टीम से जुड़े निर्देशक कहते हैं कि उनसे रुपए मांगे गए हैं अच्छे रिव्यू या अच्छी समीक्षा और चार स्टार रेटिंग देने के लिए। मैं इस फ़िल्म को मात्र 2 स्टार दूँगा। मेरी इस फ़िल्म से जुड़े किसी भी टीम से कोई दुश्मनी या मित्रता नहीं है। लेकिन फ़िल्म की थीम अच्छी होने के बावजूद इसमें काफी झोल है जो आप देखेंगे तो खुद समझ जाएंगे।
खैर फ़िल्म की कहानी की बात करें तो एक छोटी सी लड़की है 6-7 साल की जो बनारस में गंगा तट पर रहती है। छोटी सी लड़की है इसलिए नाम भी छोटी ही है। उसी तट पर एक उसका मानस भाई है चिंटू। छोटी पढ़ाई कर रही है पर कहाँ यह नहीं बताया गया है बस उसे तीन सौ रुपए स्कूल की फीस भरनी है। वे दोनों फूल बेचते हैं और छोटी रस्सी पर भी चलती है यानी खेल तमाशा भी दिखाती है। चिंटू जुए में रुपए हार जाता है उसके पास फिर से जमा किए हुए साठ रुपए ही हैं उसका भी वह जुआ खेलना चाहता है। इसी चक्कर में चार महीने हवालात में बंद हो जाता है। छोटी उसकी तलाश में है। इसी तलाश में वह एक किन्नर और एक विधवा से मिलती है। विधवा बनी नीना गुप्ता जिसका नूर नाम है के साथ छोटी का रिश्ता अच्छा बन जाता है। एक दिन अनारकली यानी किन्नर का मर्डर कर दिया जाता है राजा नाम के दरोगा द्वारा। छोटी ये सब देख लेती है और वह डर जाती है। नूर उसकी खोज करती है। उसे अपने विधवा आश्रम लेकर आती है। लेकिन वहां राजा आ जाता है छोटी को ले जाकर जेल में बंद कर देता है। यहां छोटी और चिंटू एक साथ दिखाई देते हैं लेकिन उनको मिलते हुए नहीं दिखाया गया है। खैर आश्रम वाले नूर को छत से फेंक कर मार देते हैं अब जबकि एक दिन छोटी ने नूर से कहा था कि वह उसे रंग लगाएगी उसका पसंदीदा रंग गहरा गुलाबी तो वह उसकी जा रही मृत्यु की डोली पर ही रंग फेंक देती है और इसके बाद कहानी घूमती है एक बार फिर से उसी आश्रम में होली बनाने को लेकर। दरअसल वह छोटी अब सुप्रीम कोर्ट में सीनियर वकील है उसी ने लड़ाई करके किन्नरों के लिए और विधवाओं के हकों में फैसले लिखवाए हैं। जाहिर है कहानी अच्छी है। इसके कुछ एक संवाद लाजवाब हैं।
लेकिन इस फ़िल्म में झोल भी है मसलन छोटी किस स्कूल में पढ़ रही है? आगे की पढ़ाई उसने कैसे मुक्कमल की? उसे रास्ता किसने दिखाया? चिंटू का अंत में क्या हुआ? अनारकली के मामले का क्या हुआ? इस तरह के कई सारे सवाल यह फ़िल्म छोड़कर जाती है। कभी कभी इस फ़िल्म का अतिशय लम्बा होना भी अखरने लगता है। फ़िल्म के एक दो संवाद दिल जीत लेते हैं मसलन
"छोटी तेरे को ना जीवन में कई बार ऐसे लोग मिलेंगे जो तुझे गिराना चाहेंगे, हराना चाहेंगे, दबाना चाहेंगे तो बिल्कुल मत डरना, बिल्कुल पीछे मत हटना समझ गई। ये तेरे को अछूत कहते हैं ना तू इतना ऊपर उठना ऐसी ऊंचाइयों को छूना कि ये तुझे छू भी न सके।"
"मेरे दादा जी चाहते थे मैं पढूं। तब देश नया नया आजाद हुआ था। दादा जी कहते थे अगर देश को आगे बढ़ना है तो देश की बेटियों को पढ़ाना जरूरी है।"
लेकिन खाली एक दो संवाद से पूरी फिल्म को नहीं चलाया या ढोया जा सकता। अभिनय की बात करें तो नीना गुप्ता सबसे उत्तम रहीं हैं। उनकी पिछली कुछ फिल्में भी लाजवाब थीं। इसके अलावा दरोगा भी अपने अभिनय की छाप छोड़ते हैं। गीत संगीत फ़िल्म के अनुसार औसत ही है। इसमें भी काफी सुधार की गुंजाइश नजर आती है। गंगे गंगे जो थीम सांग है वह जरूर तेज आवाज में सुना जाए तो प्रभावित करता है और रोंगटे से खड़े होने लगते हैं। रेटिंग 2 स्टार इस फ़िल्म की समीक्षा और इस फ़िल्म को अच्छी स्टार रेटिंग देने के भी आरोप इसके निर्देशक विकास खन्ना ने लगाए थे। जब फ़िल्म बोस्टन फ़िल्म फेस्टिवल में दो अवार्ड एक बेहतरीन अभिनय के लिए और एक बेहतरीन फीचर फिल्म के लिए जीत चुकी है तो उस फिल्म को स्टार रेटिंग की जरूरत क्यों आन पड़ी यह बात भी समझ से परे है। दूसरा विधवाओं पर आधारित कई बेहतरीन फिल्में इससे पहले आ चुकी हैं।
हमारे लिए समीक्षा लिखी तेजस पूनियां ने