Tuesday, March 30, 2021

रिव्यू : भावनाओं और संवेदनाओं को कुचलती 'सायना'


 


कलाकार:  परिणीति चोपड़ा, मेघना मलिक, मानव कौल, एहसान नकवी, शुभ्रज्योति, अंकुर, नायशा आदि

लेखक: अमोल गुप्ते, अमितोश नागपाल

निर्देशक: अमोल गुप्ते

अपनी रेटिंग: ढाई स्टार




एक लड़की है हरियाणा की साइना नेहवाल आज बच्चा बच्चा उसे जानता है। कारण है उसका खेल में चैंपियन होना। खेल है बैडमिंटन हमारे देश में तो क्रिकेट को ही महत्ता दी जाती है लेकिन गाहे-बगाहे कुछ लड़के-लड़कियां आते हैं दूसरे खेलों में और नाम बना लेते हैं। वैसे बैडमिंटन तो आपने खेला ही होगा गली-मोहल्ले में। लेकिन साइना खेलती है विदेशों में उससे पहले अंडर 10 सिंगल , डबल और अंडर 13 सिंगल तथा डबल में सोना जीतती है तो सबकी नजरें उस पर टिकने लगती है। सपनों को परवाज मिलते ही वे उड़ने लगते हैं। मध्यमवर्गीय परिवार से आई यह लड़की बड़ी जल्दी सबकी आँख में समा जाती है। है ना प्रेरणादायक कहानी। 


लेकिन जनाब जब इसे हम पर्दे पर देखते हैं तो कहीं से भी प्रेरणा का एक शब्द नहीं नजर आता। हर थोड़ी देर बाद उसका कोर्ट पर खेलना दिखा दिया जाता है। उसकी भाषा में तोड़ दूंगी, फोड़ दूंगी जैसे शब्द हैं और बैडमिंटन के रैकेट को तलवार बोलती है। भाई तुम खेल खेल रही हो या कोई युद्ध लड़ने की तैयारी कर रही हो। भाषा में साइना जैसी नजाकत बेहद कम जगह दिखाई दी। हाव भाव से जरूर एक आध जगह साइना लगी लेकिन कास्ट किए जाने के मामले में एकदम परले दर्जे की। बेहतर होता श्रद्धा कपूर को आजमाया जाता लेकिन उन्हें किसी कारण से फ़िल्म से हटना पड़ा। 



अब जरूरी तो नहीं कि हर बॉयोपिक 'दंगल' या 'धोनी' जैसी हो। कुछ एक 'संजू' या 'साइना' टाइप भी होती हैं।  फिल्म ‘साइना’ में निर्देशक अमोल गुप्ते के सामने चुनौतियां भी रही। लंबे समय तक अटकी पड़ी यह फ़िल्म आखिरकार फ्लोर पर आ ही गई लेकिन प्रभावित नहीं करती। फ़िल्म में जो खेल है उसे खेलने वाले गली मोहल्ले में तो बहुत हैं लेकिन असल जिंदगी में कामयाब होने वाले या उन कामयाब खिलाड़ियों के जीवन का अभिनय करने वाले इसे बहुत कम खेलते हैं। निर्देशक तकनीशियन अच्छे हैं , कैमरे के जरिए कहानी कह भी जाते हैं ठीक ठाक बस उसे पूरी तरह दिल में उतार पाने में नाकामयाब हो जाते हैं।



फ़िल्म में मेघना मलिक और मानव कौल का अभिनय छाप छोड़ता है। हकीकत तो कुछ और है लेकिन फ़िल्म में जो मां है उसे  नंबर वन से कम कुछ नहीं चाहिए। वह खुद भी इस खेल की अच्छी खिलाड़ी रही है। लेकिन जो मां बाप नहीं कर पाते वे अपने बच्चों से करवाना चाहते हैं। उषा और हरवीर सिंह नेहवाल की बेटी सानिया की ये बायोपिक कुछ कुछ वैसी ही है  फिल्म में साइना के बचपन का किरदार नायशा ने अदा किया है परिणीति को उनसे ही काफी कुछ सीखना चाहिए।  



दीपा भाटिया की एडिटिंग के मामले में चुस्ती दिखाई दी। साउंड डिजाइन और संगीत के मामले में फिल्म थोड़ा  कमजोर है। अमाल मलिक फिल्म के संगीतकार है, लेकिन कोई गाना सीधा दिल मे उतर सके ऐसा कुछ नहीं है। इसके अलावा बड़ी बात यह कि फ़िल्म में घटनाएं सहज नहीं नाटकीय लगती हैं। फ़िल्म में साइना की मां कदर व्यवहार करती है कि उसके एक मैच में रनर अप रह जाने पर बीच मैदान थप्पड़ जड़ देती है। और कोच बने मानव कौल कहते हैं।  'जो झेल पाएगा, वहीं खेल पाएगा' अरे भाई आप खिलाड़ी तैयार कर रहे हो या जंग के लिए सैनिक। खेल भावना फ़िल्म में जिस तरह निर्मम दिखाई गई है अगर वे असल में भी ऐसी ही हैं तो यह चिंता की बात है। 


फ़िल्म में सेना का संघर्ष जरा भी अपनी परिणित नहीं पाता। खाते-पीते घर की लड़की, मां के द्वारा मक्खन मार कर पराठें खिलाना कहीं से भी उनके जीवन में संघर्ष को नहीं दिखाता। फ़िल्म में भेदभाव भी नजर आता है साइना की बहन के रूप में जिसके ऊपर मां - बाप का कोई ध्यान नहीं है। वह बेचारी या तो खाना पकाती रहती है या टीवी पर छोटी बहन का खेल देखकर तालियां बजाती रहती है। साइना का जीतना फिर  हारना उसके बाद फिर जीतना और उस पर जनता द्वारा टोंट कसना, व्यंग्य करना ये सब फ़िल्म में देखना ऐसे लगता है जैसे कोई तमाशा या नाटक- नौटँकी है। जिसमें संवेदनाएं शून्य हो गई हैं और भावनाओं को रौंद कर तालियां पीटी जा रही है। इसके अलावा इसमें साइना के कोच पुलेला गोपीचंद और दूसरी बैडमिंटन स्टार पी.वी. सिंधु के साथ हुए उनके मतभेदों को दिखाने से फ़िल्म में गुरेज किया गया है।  


 

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