क्या करना होगा?
कई बार कह चुका हूँ कि उत्तराखंड दलितों के लिये सबसे खतरनाक जगह बन गयी है, क्योंकि यहाँ दलित उत्पीड़न एक सामाजिक सांस्कृतिक फेब्रिक की स्वाभाविक पैदाइश और आवृत्ति तो है ही साथ ही सरकारें खुले तौर पर सवर्ण वर्चस्व के साथ खड़ी होती हैं उसे और गहरा सांस्थानिक बनाती हैं
दलित भोजन माता सुनीता देवी दोहरे उत्पीड़न का शिकार हुई, सामाजिक अपमान और जातीय घृणा के साथ साथ सरकार द्वारा उनकी नौकरी छीन ली गई
लेकिन
"असाधारण समय में असाधारण कदम उठाये जाते हैं"
इंसाफपसंद और आत्मसम्मानी दलित समुदाय के बच्चों ने सुनीता देवी के पक्ष में असाधारण प्रतिरोध किया और भारत के इतिहास में पहली बार दलित बच्चों ने सवर्णों का बहिष्कार किया
सवर्ण राज्य और समाज सकते में आ गये देश ही नहीं दुनिया से दलित बच्चों और सुनीता देवी पक्ष में इंसाफ पसंद लोग खड़े हो रहे हैं
मामले को 'सैटल' करने की कोशिश की गई लेकिन सुनीता देवी ने साफ़ कहा हैकि उनकी बहाली के बिना कुछ सैटल नहीं होगा और वो संघर्षरत रहेंगी
चम्पावत के सूखीडांग के दलित बच्चे और सुनीता देवी हमारे आइकन हैं, उन्होंने हमें बताया है कि अपने मानवीय अधिकारों के लिये लड़ना ही इस समाज को लोकतान्त्रिक बनायेगा।
एक बार फिर समझते हैं कि उत्तराखंड में जो हो रहा है उसकी जड़ें कहाँ हैं और इसे वास्तव में कैसे बदला जा सकता है
सबसे पहले "बरछी की तरह हड्डियों में चुभते सालों को उम्र कहना" छोड़ना होगा इसलिए मैं निजी तौर पर कुछ चीजों को दांव पर लगाकर भी इसे लिख रहा हूँ -
उत्तराखंड क्यों दलितों के लिए सबसे खतरनाक राज्य बन गया है ?
इसके क्या कारण हैं ?
क्या है समाधान का रास्ता ?
क्या करना चाहिए ?
उत्तराखंड के चंपावत में दलित भोजनमाता के साथ हुई अपमानजनक घटना से कुछ ही दिन पहले इसी जिले में विवाह समारोह में खाना छूने पर रमेश राम की हत्या कर दी गयी ,भतरोजखान के पास दलित मां बेटी के साथ अभद्रता और हमला हुआ बेटों को पीटा गया,टिहरी में कुर्सी में बैठकर खाना खाने पर दलित युवक को पीट पीट कर मार डाला गया,
कुछ अरसा हुआ चकराता में मंदिर प्रवेश की कोशिश कर रहे दलितों पर जानलेवा हमला हुआ। उसके बाद आटा चक्की छूने पर बागेश्वर में सोहन राम का गला काट दिया गया।
टिहरी में दलितों को जान बचाने के लिये अपने घरों से भागना पड़ा।
ना तो चकराता पहली घटना थी ना ही टिहरी अंतिम थी न ही चंपावत आखिरी होगी ...उत्पीड़न हत्या छेड़छाड़ बलात्कार जैसे बड़े जाति आधारित हाल के ही अपराधों की लिस्ट बनाऊं तो पूरा फेसबुक इसी से भर जाएगा .
भीम आर्मी के सक्रिय साथी बताते हैं कि पिछले छः महीनों में ही वो सौ से अधिक मामलों में गए हैं
उत्तराखण्ड में दलित उत्पीडन रोजमर्रा की बात है कुछ ही खबरें सुर्खियोंमें आती हैं, उत्तराखंड के गाँवों में दलितों का अलगाव और उत्पीड़न सबसे बुरे रूप में मौजूद है और शहरों की कहानी भी बहुत बुरी है जहाँ किराए के कमरे की दिक्कत से दलितों के घेट्टोवाईजेशन की हद तक जातिभेद मौजूद है,
दलित उत्पीड़न यूँ तो पूरे देश में होता है लेकिन उत्तराखण्ड में यह एक अलग विशिष्ट सबसे बेशर्म और वीभत्स रूप में दिखता है,कुछ ख़ास बातें इस राज्य को दलितों के लिए सबसे खतरनाक बनाती है
1-राजनीतिक कारण-
इसका सबसे बड़ा कारण है कि आरक्षण विरोधी और दलित विरोधी आंदोलन के फलस्वरूप अस्तित्व में आया यह राज्य, हिमांचल और जम्मू के अलावा एक मात्र ऐसा राज्य है जहाँ सवर्ण बहुसंख्यक हैं, भू सम्पदा और संसाधनों पर उनका कब्जा है ही साथ राजनीतिक रूप से भी वो देश के अन्य राज्यों के विपरीत यहाँ निर्णायक स्थिति में हैं,यहाँ दलित स्थायी अल्पसंख्यक है .यहां बहुजन आइडेंटिटी का कोई महत्वपूर्ण आकार नहीं है
ये पहला ऐसा राज्य है जहाँ पिछले साल एक चुनी हुई सरकार नेअभूतपूर्व रूप से संविधान और सामाजिक न्याय के खिलाफ महंगे वकीलों और सार्वजनिक वित्त के सहारे यह सुप्रीम कोर्ट में यह पोजीशन ली कि वो scst को आरक्षण नहीं देगी ,उत्तराखंड में दलितों और आरक्षण के खिलाफ बात करना राजनीतिक रूप से फायदेमंद माना जाता है ,जो दलित विरोधी बयानबाजी करता है उसे ज्यादा पोलिटिकल वेटेज मिलता है और सभी दल ऐसा करते हैं ,
दलितों और आदिवासियों के हितों की बात करने में राजनेता वैसे ही घबराते हैं जैसे देश मे मुस्लिम हितों की बात करने पर ,उत्तराखंड का दलित आदिवासी समुदाय आज ऐसी असहाय स्थिति में है जिसकी आज़ाद भारत के इतिहास में कोई भी मिसाल नहीं है।
दलित विरोधी राज्य आंदोलन के बाद बने उत्तराखंड में कुछ क्षेत्रीय आधार पर जनजातीय इलाके घोषित हैं.....
बाहर से देखने पर यह क्षेत्रीय स्वायत्तता का लोकतान्त्रिक उपाय मालूम पड़ता है लेकिन इन इलाकों में सभी सवर्ण भी st माने जाते हैं, st का लाभ लेते हैं और इन इलाकों में scst (poa) act लागू नहीं.... अगर दलित उत्पीड़न और सवर्ण वर्चस्व का नंगा नाच देखना हो तो इन इलाकों का भ्रमण करें.
यहां स्थिति अभी ऐसी है कि मानो ये ऐसे गांव हैं जहाँ सारे पुरुष कानूनन स्त्री घोषित कर दिये गये हैं और कोई वास्तविक स्त्री अगर अपने यौन शोषण की शिकायत करे तो जाँच अधिकारी और मजिस्ट्रेट यह कह कर उसे डपट देंगे कि तुम्हारे गांव में तो कानूनन कोई पुरुष है ही नहीं तो तुम्हारा यौन उत्पीड़न कैसे हो सकता है।
तथाकथित स्वायत्तता का आंदोलन किस तरह वंचित तबकों की vulnerability को एक खतरनाक हद तक बढ़ा सकता है उत्तराखंड उसका सबसे बड़ा उदाहरण है
कुछ साल पहले ऐसे ही एक इलाके में दलितों के मंदिर प्रवेश के आंदोलन का समर्थन करने के कारण पूर्व राज्यसभा सांसद समेत कई दलित कार्यकर्ता मरते मरते बचे थे .
यहाँ क्षेत्रीय स्वायत्तता दलितों पर आफ़त है क्योंकि स्थानीय सत्ता संरचनाओं पर सवर्णों का कब्जा इस स्वायत्तता के चलते अधिक बुनियादी गहरा और स्थायी हो गया है,
2-विचारधारात्मक धार्मिक सामाजिक और सांस्कृतिक कारण-
चार धाम और देवभूमि जैसी बातें यहाँ ब्राह्मणवाद के लिये एक अनुकूल वातावरण बनाती हैं,
उत्तराखण्ड में ब्राह्मणवाद का विचारधारात्मक प्रभाव बेहद ताकतवर है ,हिमांचल की तरह यहाँ की सांस्कृतिक फिजा में सिख बौद्ध जनजातीय ,आर्य पूर्व खस और ईसाई प्रभाव कोई असर डालने की स्थिति में नही है ।दलितों की संस्कृतिविहीनता उन्हें निरीह हथियार रहित और समझौता परस्त बनाती है
3 - दलित आंदोलन का अभाव और ब्राह्मणीकरण
उत्तराखंड में तमाम सम्भावनाओं के बावजूद संगठित दलित आंदोलन का नितांत अभाव है .जबकि अन्य राज्यों में स्थिति ऐसी नहीं है .मसलन उत्तर प्रदेश में दलित राजनीतिक रूप से भले ही अभी पराजित हों लेकिन वो एक स्पष्ट मजबूत पक्ष हैँ जिसका सामाजिक आंदोलन और विचारधारात्मक प्रभाव बेहद शक्तिशाली है .महाराष्ट्र में दलित आंदोलन की समृद्ध परम्परा है .
बिहार में तीव्र सामंती अंतरविरोध के कारण कम्युनिस्ट नेतृत्व में और उसके इतर भी दलित आंदोलन रहा है .मात्र सात फीसदी दलित आबादी वाला गुजरात हाल में सबसे तीव्र और संभावनाशील आंदोलन का गवाह बना है .दक्षिण भारत में समय समय पर दलित आंदोलन उभरता रहा है .लेकिन उत्तराखण्ड में दलित आंदोलन का ऐसा अभाव क्यों है .इसका सटीक जवाब इतिहास में मिलता है .
ऐसा नहीं है उत्तराखण्ड में दलित आंदोलन कभी रहा ही नहीं .डोला पालकी आंदोलन और शिल्पकार नाम धारण करने के आंदोलन आजादी से पहले के मजबूत दलित आंदोलन थे .
दलित आंदोलन के चार महत्वपूर्ण नायक थे -डोला पालकी आंदोलन के प्रणेता बलदेव सिंह आर्य ,ख़ुशी राम जी ,जयानंद भारती .ये तीन मोटे तौर पर इनमे से पहले तीन एक विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते थे और चौथे मुंशी हरि प्रसाद दूसरी धारा का .
असल में 1911 तक कुंमाऊं और गढवाल दोनो ही क्षेत्रो में इसाई मिशनरियों के कारण अच्छी खासी संख्या में दलित ईसाई बन चुके थे .
आशंकित हिंदू नेताओं ने 1913 में लाला लाजपत राय के नेतृत्व में मुक्तेश्वर के पास एक समारोह किया जिसे शुद्धिकरण कहा गया इसमें दलितों को जनेऊ पहनाया गया और उन्हे आर्य कहा गया .इससे कई दलित नेता आर्यसमाजी हो गये पहले तीन नेता और उनके अनुयायी भी इस जाल में फंस कर गये थे .
मुंशी हरि प्रसाद टम्टा ने हमेशा जनेऊ का विरोध किया उन्होंने कम्यूनल अवार्ड के पक्ष में बाबासाहेब को पत्र भी लिखा था वे गाँधी जी का भी विरोध करते थे कई विचारधारात्मक कमियो और सीमाओं के बावजूद उन्हे उत्तराखण्ड का पहला स्वायत्त दलित आंदोलनकारी कहा जा सकता है .लेकिन आजादी के बाद ये धारा कमजोर पड़ती गई और आर्यसमाजी धारा अपने मूल उद्देश्य यानि दलितों को जनेऊ में टांगकर हिन्दू बनाये रखने में सफल रही .
आज भी उत्तराखण्ड में दलित शिल्पकार समुदाय जनेऊ से बंधा है .हाँलाकि उनके जनेऊ सहित विवाह और अन्य संस्कार में पुरोहित का कार्य हिन्दुओं की तरह ब्राह्मण के द्वारा नहीं किया जाता .वरन कोई दलित ही पुरोहित का कार्य करता है .और इस दलित पुरोहित की सेवायें सवर्ण जातियां नहीं लेती हैँ और इसे भी दूसरे दलित की तरह अछूत ही समझा जाता है .
जनेऊ से बंधा हुआ सांस्कृतिक गुलाम समाज कभी भी आंदोलन नहीं कर सकता इसलिये उत्तराखण्ड में दलित आंदोलन बेहद कमजोर हैऔर दलित आंदोलन के कमजोर होने से ब्राह्मणवाद नग्न नाच करता है जिसकी एक बानगी यह हालिया घटना है
जनेऊ के इकलौते धागे ने उत्तराखंड के सामाजिक रूपांतरण को रोकने में अहम भूमिका निभाई है।यहाँ दलितो आदिवासी समुदायों का जो हालिया आंदोलन था वो पदोन्नति में आरक्षण को लेकर था ,सरकारी कर्मियों के आंदोलन यूँ भी बहुत सीमित प्रभाव के होते हैं और ये आंदोलन तो नेतृत्व कार्यक्रम टैक्टिस हर लिहाज से असफल था इसके बरक्स अपर कास्ट का आरक्षण विरोध और scst act विरोधी आंदोलन केवल कार्मिको तक सीमित नहीं था वो पूरे अपर कास्ट समाज की सोलिडेरिटी का आंदोलन था इसलिए वो सफल हुआ। सरकार ने डंके की चोट पर संविधान के खिलाफ जाकर पदोन्नति में आरक्षण समाप्त किया, sc st (poa )एक्ट की क्या निष्प्राण स्थिति है वो ताज़ा मामले सहित सभी मामलों में देखा जा सकता है.
4-उत्तराखंड के प्रगतिशील/ वामपंथी / लिबरल लोगो और सिविल सोसाइटी की प्रतिगामी भूमिका
यूँ तो बौद्धिक लिहाज़ से उत्तराखंड काफ़ी उर्वर रहा है लेकिन यहाँ का अपर कास्ट प्रगतिशील / लिबरल तबका कुंवर प्रसून जैसे गिने चुने सम्माननीय उदाहरणों को छोड़कर बहुत बेईमान और लिजलिजा है ,राज्य आंदोलन में इनकी भूमिका पूरी तरह दलित विरोधी रही है ,वामपंथी लोगों ने अपने राष्ट्रीय नेतृत्व के खिलाफ जाकर भी सवर्ण आंदोलन को जनांदोलन बताया और आज भी उत्पीड़न सहित किसी भी दलित मुद्दे पर जबानी खर्च के अलावा उनके पास कुछ नही
उन्होंने इस राज्य में संघर्ष को 'कम्युनिटी बनाम स्टेट' का संघर्ष बनाने की कोशिश की है जबकि 'कम्युनिटी' में वर्ग जाति और जेंडर तीनो अंतर्विरोध मौजूद हैं और बहुत गहराई से मौजूद हैं ।
स्टेट हवा में पैदा नहीं होता वो इस कथित कम्युनिटी के ही वर्चस्वशाली तबकों से बना होता है ,ये बात पानी की तरह साफ़ है ,इसे देखते जानते हुए भी छिपाना बेईमानी है
साहित्य अकेडेमिया, पत्रकारिता ,संस्कृति ,शिक्षण सब जगहों पर काबिज़ अपर कास्ट बौद्धिकों और कार्यकर्ताओं की पोजीशन और बेईमानी कई बार ज़ाहिर हो चुकी है
हिमालयी मेघा के स्तम्भ माने जाने वाले प्रो शेखर पाठक का पूरा ज़ोर इस बात पर रहता है किस तरह बाहरी दुनिया के सामने उत्तराखंड की कम्युनिटी आधारित समाज वाली अंतर्विरोध रहित तस्वीर पेश की जाय,वो अक्सर कहते हैं -
"सवर्ण तो दलितो पर निर्भर हैं उनका काम दलितों के बिना चल ही नही सकता क्योंकि श्रम से लेकर संस्कृति तक समस्त चीजें दलितो के हाथ मे है... दलितों का काम सवर्णो के बिना चल सकता है सवर्णो का काम दलितों के बिना नहीं चल सकता "
ये तस्वीर का गलत चित्रण है शोषण का कौन सा तंत्र है जहाँ संसाधनों के मालिक उत्पादक वर्ग पर निर्भर नहीं होते
जब शेखर जी जैसे विश्व विख्यात विद्वान का चिंतन ये है तो औरों की क्या बात करें ,लिखने को बहुत कुछ है लेकिन यहाँ वो विषय नहीं उस पर विस्तार से अलग से लिखूंगा
कहना यह है कि उत्तराखंड में कोई वास्तविक वाम लिबरल सिविल सोसायटी नहीं है ,जो लोग हैं या तो कम हैं या विश्वास के लायक नहीं
तो क्या है रास्ता .....सीधा साफ़ और एकमात्र रास्ता है-
-सशक्त स्वायत्त और आक्रामक दलित आंदोलन
- वैचारिक रूप से साफ़ मुखर और निर्भीक दलित
आंदोलन
- सांस्कृतिक स्वायत्तता की अनिवार्य अंतर्वस्तु वाला दलित आंदोलन
-दलितों आदिवासियों कमजोर पीड़ित तबकों और स्त्रियों के हितों के लिये संघर्षरत दलित आंदोलन
- साहित्य संस्कृति मीडिया अकेडेमिया समाज राजनीति और सार्वजनिक जीवन के सभी पहलुओं को अपनी परिधि और सक्रियता के दायरे में लेने वाला दलित आंदोलन
-ब्राह्मणीकरण की परिघटना से पूरी तरह सचेत भौतिक आधार पर खड़ा दलित आंदोलन
-भूमि सुधार के मुद्दे को शीर्ष प्राथमिकता पर रखने वाला स्पष्ट दृष्टि वाला दलित आंदोलन
- परम्परागत पेशों, लोक संस्कृति , छलिया, हलिया,हुडक्या बोल ,ढोली बाजगी ,रिंगाल ,जागर ,घटेली ,भगनौल जैसे शोषण के बारीक लेकिन स्थायी तरीकों को ठोकर मारकर इन्हें इतिहास की वस्तु बना देने को आतुर और व्यग्र दलित आंदोलन
-आंबेडकर पेरियार फुले और बुद्ध की वैचारिकी के साथ पश्चिम के सभी समतावादी विचारों का भी खुले दिल और दिमाग़ से स्वागत करने वाला प्रबुद्ध दलित आंदोलन
ये दलित आंदोलन ही रास्ता है इसी से उत्तराखंड का दलित अपना और पूरे समाज का प्रबोधन करेगा
दलित ये ना सोचें कि वो यहाँ स्थायी और असहाय अल्पसंख्यक हैं तो वो कोई आंदोलन खड़ा नहीं कर सकते ,
हम अपने चारों ओर देखें इमारतें सड़कें पुल फसलें और यहां तक कि सरकारें भी हर वो चीज जो खड़ी है वो हमारे ही दम पर खड़ी है
जो दलित पूरी दुनिया खड़ी कर सकता है वो आंदोलन भी खड़ा कर सकता है
लेकिन इंसानो पहले खुद खड़े हो जाओ
साफ और इंसाफ़पसन्द नज़र के साथ खड़े हो जाओ
एक बात जान लो अगर पूरे भारत मे किसी जगह दलित आंदोलन की सबसे अधिक ज़रूरत है तो वो जगह उत्तराखंड है
आपकी पहलकदमी पूरे देश और दुनिया के इंसाफ पसन्दों के लिये मिसाल बनेगी
जब आप ख़ुद के इंसाफ़ के लड़ रहे होते हैं तो समझिये कि आप पूरी दुनिया को इंसाफ दिला रहे होते हैं
आप एक धागा तोड़िये सैलाब ख़ुद ब ख़ुद आ जायेगा........
सूखीडांग के दलित बच्चे और सुनीता देवी धागा तोड़ चुके हैं..... आप भी तोड़िये... तोड़ डालिये.
स्वतंत्र लेखक
मोहन मुक्त
This comment has been removed by the author.
ReplyDelete