Tuesday, October 23, 2018

हिजड़ा समुदाय के घुटते जीवन का यथार्थ : एक सामाजिक एवं साहित्यिक अध्ययन : निष्कर्ष : भाग 4



हिजड़ा समुदाय के घुटते जीवन का यथार्थ : एक सामाजिक एवं साहित्यिक अध्ययन की यात्रा का अंतिम लेख और निष्कर्ष स्वरूप कुछ बातें पढिए भाग 4 में –



अपवाद रूप से थर्ड जेंडरसमुदाय से कुछ नाम अवश्य जहन में आते हैं, जिन्होंने तृतीय लिंगी होने के बावजूद अपने जीवन में संघर्षरत रहे और भारत में ही वरन् विश्व में अपना विशेष स्थान प्राप्त किया- लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी‘ (एक टी.वी. कलाकर, भरतनाट्यम नर्तिका और सामाजिक कार्यकर्ता), ‘पद्मिनी प्रकाश‘ (भारत की पहली ट्रांसजेंडर न्यूज एंकर), ‘रोज वेंकटेश्वर‘ (पहली ट्रांसजेंडर टीवी होस्ट), ‘विद्या‘ (पहली पूर्णकालिक थियेटर कलाकार, सामाजिक कार्यकर्ता, ब्लागर, फिल्म निर्माता), ‘शबनम मौसी‘ (पहली किन्नर विधायक), दिवंगत आशा देवी‘ (उ0प्र0 के गोरखपुर से 2001 में चुनी गयी देश की पहली किन्नर महापौर), ‘मधु किन्नर‘ (छत्तीसगढ़ के रायगढ़ में महापौर), ‘कल्कि सुब्रह्मण्यम‘ (सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक, कलाकार और अभिनेत्री), ‘मानवी बंदोपाध्याय‘ (देश की पहली किन्नर प्रिंसिपल, पश्चिम बंगाल से), ‘ए. रेवती‘ (सेक्सुअल माइनॉरिटी के लिए कार्य करने वाली संस्थ संगमासे जुड़कर थर्ड जेंडरों के लिए काम कर रही हैं), ‘पायल सिंह‘ (2010 में पायल फाउण्डेशनकी स्थापना की), ‘बिशेष हुइरेम‘ (मणिपुरी फिल्मों की जानी-मानी अभिनेत्री)। जब ये सभी अपनी पसंद का काम करते हुए अपनी शर्तों पर जी सकती हैं, तो क्यों न उनके साथ होने वाले भेदभाव को मिटाकर, उनके जीवन को बेहतर बनाने के लिए प्रयास किये जाएं, जिसके फलस्वरूप थर्ड जेंडर/ट्रांसजेंडर प्रत्येक क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करा पाएंगे।

सामान्यतः हिजड़ाऔर किन्नरएक ही समझे जाते हैं, परन्तु इनमें शाब्दिक ही नहीं अपितु अर्थ भेद भी है। जिसको लेकर काफी विवाद भी है। किन्नरहिमाचल प्रदेश में बसने वाली एक जनजाति है, जो सामान्य स्त्री-पुरुष की भांति व्यवहार करते हैं, जबकि हिजड़ामतलब जो न पूर्ण स्त्री है न पुरुष। हिजड़ा सुनना हिजड़ों को ही पसंद नहीं है, इसलिए उनका भी मानना है कि उन्हें हिजड़ाकहकर न पुकारा जाए बल्कि किन्नरकहा जाए। अब साहित्यिक रूप से भले ही दोनों शब्दों में विवाद हो, परन्तु यदि किन्नरसुनना उनको अच्छा लगता है, तो इसमें कोई बुराई नहीं।



चंडीगढ़ से धनंजय चौहान जो अपने समुदाय की वस्तुस्थिति बताने और किन्नर समुदाय को सामान्य समाज मे बराबर का हक़ मिले इसके लिए संघर्षरत है। हाल ही में इनको मुख्य भूमिका में रखते हुए एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म 'एडमिटटेड' रिलीज़ हुई है जो देश विदेश में खूब सराही जा रही है। बलिया से सिमरन का नाम भी उल्लेखनीय है। सिमरन जी न केवल अपने समुदायों के हितों के संरक्षण हेतु समाज मे संघर्षरत है अपितु सामान्य समाज से आयें गरीब बच्चों को शिक्षित करने का महती कार्य भी कर रही हैं। जो अपने आप में अनुकरणीय भी है और सराहनीय भी। हमे गर्व करना चाहिए ऐसी हस्तियों पर जो अपनी अस्तित्व की लड़ाई के साथ हमारे उस समाज के हितों हेतु भी निस्वार्थ भाव से कार्य कर रही हैं, जो समाज उनके अस्तित्व को नकारता है।

तमिलनाडु के डॉ. श्रीदेवी (अण्णा आदर्श महिला महाविद्यालय, चेन्नई) ने करीब 120 किन्नरों से संबंधित अलग-अलग पहलुओं पर शोध किया जो उल्लेखनीय है-

उपर्युक्त तालिकाओं से हम किन्नरों की सामान्य समस्याओं से अवगत हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त हमस ब इनके प्रति सौहार्दपूर्ण तथा सहानुभुतिपूर्ण व्यवहार करें, हमारे समाज में इन्हें सादर स्थान दे।   

निष्कर्षतः हमें यह समझना होगा कि लैंगिकता का तात्पर्य स्त्री या पुरुष से नहीं है। हमें लोगों को लैंगिक धरातल पर अपने समान ही जीवन जीने की छूट देनी होगी। साथ ही हमें एक ऐसी भाषा को खोजना होगा, जिसमें हिजड़ा समाज के अस्तित्व एवं उसकी अस्मिता के लिए पूर्णरूपेण स्थान हो। एक ऐसी भाषा जो लैंगिक धरातल पर प्रचलित सामाजिक अतिवादिता के बरअक्श प्रतिरोध की संस्कृति का विकास कर सके, जिससे समाज सही दिशा में आगे बढ़ सके। यह वक्त की मांग है कि सामाजिक धरातल पर हिजड़ा समुदाय के साथ-साथ हम खुद भी इस बात की जागरूकता फैलाएं कि आलोच्य समाज भी मानवों के समाज का ही एक हिस्सा है, जिसे किसी भी अन्य मानव प्रजाति से संबन्धित समाज के व्यक्तियों के जैसे ही सम्मानूपर्वक जीवन जीने का अधिकार है। यही वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा हम उन्हें स्वास्थ्यगत, विधिगत, भावनागत, मनोगत इत्यादि स्तरों पर मात्र सुदृढ़ ही नहीं बनाएंगे बल्कि अपने समाज को भी सही अर्थों में मानवीय मूल्यों से परिपूर्ण कर कहीं अधिक बेहतरीन एवं वासोपयोगी बनाएंगे।

‘‘उनकी गालियों और तालियों से भी उड़ते है, खून के छीटें,
और यह जो गाते बजाते उधम मचाते,
हर चौक चौराहे पर,
वे उठा देते हैं अपने कपड़े ऊपर,
दरअसल उनकी अभ्रदता नहीं,
उस ईष्वर से प्रतिशोध लेने का उनका एक तरीका है,
जिसने उन्हें बनाया है, या फिर नहीं बनाया है।‘‘ (कृष्ण मोहन झा)

इस लेख का प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय भाग पढ़ने के लिए लिंक देखें - 

भाग 2 के लिए यहाँ जाएँ - https://teesritaali.blogspot.com/2018/10/2.html

भाग 3 के लिए यह देखें - https://teesritaali.blogspot.com/2018/10/3.html

--सन्दर्भ सूची--

1.         थर्ड जेंडर-एक रहस्यलोक, ले. डॉ. भारती अग्रवाल, ‘किन्नर विमर्शः साहित्य के आइने मेंवाङ्मय बुक्स, अलीगढ़, वर्ष 2017, पृ0-60

2.         हिन्दी उपन्यासों के आइने में थर्ड जेंडर, ले. डॉ. विजेन्द्र प्रताप सिंह, अमन प्रकाशन, कानपुर, वर्ष 2017, पृ0-66

3.         वही पृ0-66

4.         भूमिका से, ‘थर्ड जेन्डरः हिन्दी कहानियांसं.-डॉ. एम. फिरोज खान‘, अनुसंधान प. एण्ड डि., कानपुर, वर्ष 2018, पृ0-05

5.         वही पृ0-05

6.         वही पृ0-06

7.         हिन्दी उपन्यासों के आइने में थर्ड जेंडर, ले. डॉ. विजेन्द्र प्रताप सिंह, अमन प्रकाशन, कानपुर, वर्ष 2017, पृ0-73 से उद्धत

8.         हम भी इंसान है, ले. महेन्द्र भीष्म, ‘भारतीय साहित्य एवं समाज में तृतीय लिंगी विमर्शसं.- डॉ. विजेन्द्र प्रताप सिंह, अमन प्रकाशन कानपुर, वर्ष 2016, पृ0-13

9.         अधूरी देह, ले. महेन्द्र भीष्म, ‘भारतीय साहित्य एवं समाज में तृतीय लिंगी विमर्शसं.- डॉ. विजेन्द्र प्रताप सिंह, अमन प्रकाशन कानपुर, वर्ष 2016, पृ0-09

10.       वही पृ0-09

11.       वही पृ0-17

12.       वही पृ0-17

13.       हिन्दी साहित्य का लगभग अछूता परिदृश्यः तृतीय लिंगी समाज, ले. अभिलाषा सिंह, ‘भारतीय साहित्य एवं समाज में तृतीय लिंगी विमर्शसं.- डॉ. विजेन्द्र प्रताप सिंह, अमन प्रकाशन कानपुर, वर्ष 2016, पृ0-93

14.       मनीषा महंत (थर्ड जेंडर) से डॉ. फिरोज और डॉ. शमीम की बातचीत, वाङ्मय त्रैमासिक पत्रिका, जुलाई-सितम्बर 2017, पृ0-245-246

15.       भूमिका से, ‘हम भी इंसान हैं‘, सं.-डॉ. फिरोज खान, वाङ्मय बुक्स, अलीगढ़, वर्ष 2018

16.       भारतीय वाङ्मय और हिजड़ा समुदाय, ले. डॉ. सुनील कुमार द्विवेदी भारतीय साहित्य एवं समाज में तृतीय लिंगी विमर्शसं.- डॉ. विजेन्द्र प्रताप सिंह, अमन प्रकाशन कानपुर, वर्ष 2016, पृ0-83

17.       सिनेमा और साहित्य में हिजड़ेःएक समीक्षा, ले. डॉ. चन्द्रेश्वर यादव, ‘भारतीय साहित्य एवं समाज में तृतीय लिंगी विमर्शसं.- डॉ. विजेन्द्र प्रताप सिंह, अमन प्रकाशन कानपुर, वर्ष 2016, पृ0-125

18.       मैं क्यो नहीं : अस्तित्व की नये सिरे से पहचान, ले.-आनन्दप्रकाश त्रिपाठी, वाङ्मय त्रैमासिक पत्रिका, जुलाई-सितम्बर 2017, पृ0-106

19.       थर्ड जेंडर-एक रहस्यलोक, ले. डॉ. कर्मानन्द आर्य, ‘किन्नर विमर्शः साहित्य के आइने में‘, सं.-डॉ. इकरार अहमद, वाङ्मय बुक्स, अलीगढ़, वर्ष 2017, पृ0-52




Thursday, October 18, 2018

हिजड़ा समुदाय के घुटते जीवन का यथार्थ : एक सामाजिक एवं साहित्यिक अध्ययन : भाग 3


भाग 3 में आगे पढिए कुछ पौराणिक सन्दर्भों और आधुनिक संदर्भों के साथ किन्नरों की जीवन यात्रा पर आधारित इस लेख को - 

पौराणिक धर्म ग्रंथों में हिजड़ों की उपस्थिति स्पष्ट देखी जा सकती है। वाङ्मय द्विरूपी होता है। इसका एक काव्य तथा दूसरा शास्त्र है। हिजडा समुदाय से संयुक्त काव्य तो यहां-वहां मिल ही जाता है, परन्तु उसके शास्त्र का बनना शेष है। दूसरी ओर, हमारे वाङ्मय में अर्द्धनारीश्वर की अवधारणा का स्पष्ट उल्लेख है। शिव-शक्ति का युगल रूप अर्द्धनारीश्वर की परिकल्पना को आकार देता है। उपर्युक्त परिकल्पना सृष्टि के निर्माण में नर-नारी के समन्वित प्रयास का प्रतीक है। यदि हिजड़ा समाज की बात की जाए तो वे स्वयं ही अर्द्धनारीश्वरता को साकार कते हैं। रामायण में हिजड़ों में जो समर्पण और त्याग राम के प्रति दिखाया उसी का प्रतिफल आज भी उन्हें कुछ धार्मिक कार्यां में शकुन रूप में स्वीकारा जाता है। राम वनवास जाने के समय लोग जब उन्हें मनाने के लिए एकत्रित हो उनके पीछे चल दिये तो उन्होंने पुत्र, धर्म और पिता के आदेश का पालन करने को पवित्र कार्य कहकर वापस अयोध्या जाने को कहा। समस्त जनता वापस हो गयी लेकिन वहां उपस्थित हिजड़ें राम बनवास के 14 वर्ष तक यथास्थान राम के आने का इंतजार करते रहे। 14 वर्ष बनवास पूर्ण करके राम जब वापस लौटे तो उन्हें उसी स्थिति में पाकर उनके त्याग-समर्पण और आस्था पर प्रसन्न होकर कुद शुभ कार्यां का सदा साक्षी बनने का आशीर्वाद दिया और बधाई की उत्पत्तिकी संख्या दी जो वर्तमान में भी कायम है। डॉ. सुनील कुमार द्विवेदी इस पौराणिक घटना का आलोचनात्मक पक्ष इस प्रकार रखते हैं, ‘‘कि राम के पितृशासित समाज के लिए हिजड़ा समाज नगण्य ही था। लोग उसको लक्षित ही नहीं करते थे। कहना न होगा कि इन मिथको के आविर्भाव काल में भी सामाजिक लैंगिक विभाजन बड़ा ही स्थूल-सा था।‘‘16

हिजड़ा समुदाय के भारतीय वाङ्मय के सन्दर्भ में एक अन्य पौराणिक घटना, जो महाभारत से संबन्धित है इस प्रकार है महाभारत के अति महत्वपूर्ण पात्र गंगा पुत्र भीष्म अकेले कुरुक्षेत्र के घमासान युद्ध की दशा-दिशा तय करने की माद्दा रखते थे। उनके धनुष की टंकार पाण्डवों पर भारी पड़ रही थी। जिसे रोकना किसी के लिए आसान नहीं था। भीष्म पितामह को युद्ध से अलग किये बगैर सत्य के साक्षी पाण्डव भी अपनी जीत सुनिश्चित नहीं मान रहे थे। चुंकि भीष्म बहुत ही आदर्शवादी और धर्मपरायण योद्धा थे। उन्हें न्याय-अन्यास का सर्वथा ज्ञान था और हस्तिनापुर की रक्षा मात्र उनके जीवन का लक्ष्य न्याय पथ पर चलकर युद्ध कर रहे पांडव के प्रति भीष्म की आस्था से दुर्यांधन भी काफी नाराज था और अशोभनीय टिप्पणी करने से नहीं चूकता था। भीष्म पितामह महिलाओं का हृदय से सम्मान करते थे। स्त्रियों तथा स्त्री जैसे दिखने वाले लोगों पर अस्त्र नहीं चलाते थे। इस बात का ज्ञान पांडवों को था। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर शिखंडी जो हिजड़ा था, को ढाल के रूप में प्रयुक्त करके अर्जुन ने भीष्म पितामह को सर सैय्या पर लेटने के लिए मजबूर कर दिया। इसके अतिरिक्त पांडवों के अज्ञातवास काल में राजा विराट के साम्राज्य में अर्जुन का बृहन्नला के रूप में स्त्रैण व्यवहार, वस्तुतः उसके द्वारा आलोच्य समाज का प्रतिनिधित्व करता दर्शाता है। उसे उर्वशी नामक एक अप्सरा के प्रणय निवेदन को ठुकराने के एवज में कुछ काल के लिए स्त्रैण पुरुष बन जाने का यह अभिशाप मिला था जो उस अप्सरा ने ही दिया था। वैसे यह अभिशाप हिजड़ो की दोयम दर्जे की नागरिकता को समझाने के लिए पर्याप्त है। साथ ही यह समाज की उनके प्रति व्यवहारिक असहिष्णुता का भी परिचायक है।

काव्य के अतिरिक्त कथा साहित्य में, फिर चाह वह कहानी हो या उपन्यास दोनों में कहीं-कहीं आलोच्य समाज का जिक्र आता है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने संभवतः सन् 1891 में गिन्नीअर्थात् गृहिणी जैसी कहानी लिखी थी। इस कहानी में किशोर लड़के आशू की कथा है, जिससे मात्र यह भूल हो गयी है कि वह अपनी सगी बहनों के साथ घर-घर खेलता रहा है, तो उस पर स्त्रैणता का आरोपण कर सारा समाज उस सलज्ज और संकोची लड़के को चिढ़ाता है। उसका गुरु शिवनाथ अपने प्रवृत्ति को देखकर व्यंग्य करने हेतु एक नाम दे देता है। यह नाम उस विद्यार्थी की किसी प्रवृत्ति को देखकर व्यंग्य करने हेतु दिया जाता है। शिवनाथ राष्ट्रीय आंदोलन हेतु युवा पीढ़ी तैयार करना चाहता है। उसके भीतर पुरुषोचित दंभ और अक्खड़ता है। वह स्वयं को नैतिक पहरेदारी का ठेकेदार समझता है। आशू को वह गिनी नाम दे देता है। ऐसे में सारे लड़के उस पर व्यंग्य करने लगते हैं और उसे गिन्नी कहकर पुकारने लगते हैं। वह स्वयं को अपने दोस्तों से दूर महसूस करता है तथा उनके साथ खेलने नहीं जाता है। वह स्वयं के लिए अपने दोस्तों में कोई स्थान नहीं ढूंढ पाता। यह प्रमाण है हमारे समाज की लैंगिक पहरेदारी। इस समाज अपनी लैंगिकता या यौनिकता को वैयक्तिक धरातल पर परिभाषित करने की स्वतंत्रा किसी को नहीं देता। ऐसे में हिजड़ा समुदाय की स्थिति सहज ही अनुमेय है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर की ही एक अन्य कहानी है व्यवधान। इसकी कथावस्तु भी समाज के लैंगिक अस्मिता के परिप्रेक्ष्य में नये सिरे से सोचने-विचारने के लिए बाध्य करती है।

साहित्य जगत में हिजड़ों के विषय में कुछ प्रसिद्ध पुस्तकों की रचना हुई। प्रसिद्ध साहित्यकार स्तम्भकार, लेखक-आलोचक खुशवंत सिंह ने अपने अंग्रेजी में प्रकाशित उपन्यास देहलीमें भागमती नाम हिजड़े को केन्द्र में रखकर वेश्यावृत्ति की समस्या को उकेरा है। तमिलनाडु के उपन्यासकार सु. समुथीराम का अरावनी समुदाय पर तमिल में पहला उपन्यास वादामल्ली1994 में प्रकाशित हुआ। इसके बाद में ट्रांसजेण्डर कार्यकर्ता ए. रेवती पहले ट्रांसजेण्डर हुए जिन्होंने हिजड़ा समुदाय के विषय में लिखा। इनकी पुस्तक का नाम ^Life in Trans Activism^ ¼2011½ है जिसका आठ भाषाओं में रूपान्तरण हुआ और इसे एशिया में ट्रांसजेण्डर से संबन्धित प्राथमिक तथ्य के रूप में स्वीकार किया जाता है। इनकी अन्य पुस्तक ^The Truth About Me^ जिसमें एक अन्य ट्रांसजेण्डर वी. गीता के जीवन की सच्ची कहानी को उकेरा गया है। ए. रेवती की अन्य पुस्तक का नाम ^Our Lives Our Words Telling Aravani Lifestories^  है। इसके साथ ‘‘नान सारावानन द्वारा 2001 में लिखित अल्ला और विद्या रचित आई एम विद्याजो कि 2008 में प्रकाशित हुई हिजड़ों की प्रथम आत्मकथा है। इसके अलावा लेजली फोर्वस लिखित उपन्यास बाम्बे आइसकुछ हिजड़ा सेक्स वर्कस के मौत पर आधारित हिजड़ों पर है। जॉन इरविंग का उपन्यास ए सन ऑफ द सर्कसभी हिजड़ों पर केंद्रित है। क्रेग थॉम्पसन के ग्रॉफिक उपन्यास हबीबीअनगिनत कृतियों की रचना हुई जिनके अध्ययन से उनके जीवन अध्यायों को बेहतर ढंग से जाना जा सकता है।‘‘17


  • मुख्यतः यहां हिजड़ा समुदाय पर लिखी गयी कुछ कहानियों और उपन्यासों की परोक्ष चर्चा करना साहित्यिक रूप से अनिवार्य भी और प्रासंगिक है। हिन्दी साहित्य में हिजड़ा समुदाय पर सबसे पहला उपन्यास लिखने का श्रेय उपन्यास यमदीप नीरजा माधव लिखित है इसके पश्चात महेन्द्र भीष्म का उपन्यास किन्नर कथासन् 2010-11 में सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था। जिसमें हिजड़ों की कई समस्याओं को भखूबी दर्शाया गया है। साथ ही इस उपन्यास में उनके जीवन के विविध अनछुएं पहलुओं की ओर भी इशारा किया है।


 हाल के कुछ वर्षां में कतिपय उपन्यासकारों और कहानीकारों ने कुछ उपन्यास और कहानियां अवश्य लिखी हैं। इस विषय में उल्लेखनीय कार्य किया है पत्रिका वाङ्मयने, जिसमें हिजड़ा समुदाय पर आधारित विशेषांकों के माध्यम से हिन्दी भाषा में इनके जीवन पर आधारित कहानियों को संकलित कर महती कार्य किया। लेखिक आनन्द प्रकाश त्रिपाठी अपने एक आलोचनात्मक लेख में लिखते हैं, ‘‘एक नयी सामाजिक चेतना से प्रेरित होकर साहित्यकारों ने हिजड़ों के जीवन यथार्थ को नये सिरे से पहचाना और उनके जीवन में आये परिवर्तन को बड़ी संजीदगी से अपनी रचनाओं में उभारा है। बड़ी निर्भीकता और बेबाकी से कई रचनाकारों ने कविताएं और कथाकृतियां रची हैं।‘‘18 स्वतंत्रता पूर्व अपवाद रूप ही रचनाएँ हिजड़ो पर केन्द्रित थीं। जिनमें मौलिक रचनाएँ मुख्यतः शिवप्रसाद सिंह कृत बिन्दा महाराज‘, राही मासूम रजा कृत खलीक अहमद बुआ‘, एस.आर. हरनोट द्वारा रचित किन्नरकुसुम अंसल कृत ई मुरदन का गाँव‘, सलाम बिन रज्जाक कृत बीच के लोग‘, अंजना वर्मा कृत बीनी चदरियाआदि हैं। अनुदित कहानियों में प्रमुख करतार सिंह दुग्गल द्वारा रचित हमजिनस‘, नवतेज पुआधी कृत ऊँचा बुर्ज लाहौर का‘, मोहन भण्डारी कृम मटकनलाल खोजा‘, रामसरूप अणखी द्वारा रचित उसका बाप‘, वीना वर्मा कृत सती‘, हरजीत कौर कृत मलका‘, बलजीत सिंह रैना कृत पेड़ से टूटा पत्ता‘, एस. बलवंत कृत मृगतृष्णाआदि। कहानियों के शीर्षकों का सामान्य परिचय दिया है, वैसे तो हिजड़ा समुदाय से जुड़ी प्रत्येक कहानी या उपन्यास पृथक रूप से एक शोध की मांग करता है।

हिजड़ा समुदाय का सामाजिक-साहित्यिक विश्लेषण करते हुए मित्र युवा लेखक-कवि डॉ. कर्मानन्द आर्य का वक्तव्य दृष्टव्य है, ‘‘थर्ड जेंडर का सम्बन्ध कुछ लोग अवैध यौन शोषण से जोड़ते रहते हैं। ब्रह्मचर्य और सेक्स को निषेधात्म मानने वाले इस देष में सबसे ज्यादा अगर कोई चीज बिकती है तो वह है यौनिकता। यह यौनिकता अगर स्त्री के लिए हो तो पुरुष किसी भी हद तक जा सकता है। जैविक बनावट और संस्कृति के अंतरसंबंधों को समझ को अगर हम जेंडर पर लागू करें तो निष्कर्ष यही निकलता है कि महिलाओं के शरीर की बनावट भी सामाजिक बंधनों और सौन्दर्य के मानकों द्वारा निर्धारित की गयी है। शरीर का स्वरूप जितना प्रकृतिसे निर्धारित हुआ है उतना ही सस्कृतिसे भी। थर्ड जेंडर भी इसी सोच का शिकार है। इस प्रकार उसी अधीनता, जैविक असमानता से नहीं पैदा होती है बल्कि यह ऐसे सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों और संस्थाओं की देन है। पुरुष थर्ड जेंडर में स्त्री के उन्हीं गुणों को खोजने का भरसक प्रयास करता है।‘‘19

सहित्यिक दृष्टिकोण के हिजड़ा समुदाय पर कुछ अन्य महत्वपूर्ण कृतियां भी हमारे समक्ष हैं, जिन्हें पढ़कर उनकी अधूरी और यातनाओं युक्त जिंदगियों का करीब से जानने का अवसर मिलता है। जैसे हमारी कहानियां, हमारी बातेंए. रेवती द्वारा संकलित हिजड़ा समाजका मार्मिक दस्तावेज है। यह पुस्तक मूल रूप में तमिल में लिखी गयी थी और वहीं से इसे ए.मंगई द्वारा हिन्दी में अनुदित किया गया। यह 7 अध्यायों (बचनपन और शिक्षा, माता-पिता और समाज, काम, हिजड़ा माँएँ, सांस्कृतिक प्रथाएँ, निरवाणम एवं सक्रियता) का संकलन में जिसमें दिखाया गया है कि हमारे मध्य रहने वाले ये मानव जिस विषम त्रासद परिस्थितियों में मात्र जीवन जीने के लिए जूझ रहे हैं, उसी कल्पना ही रोंगटे खड़े करने वाली है। इसके अतिरिक्त हरीश बी, शर्मा का अप्रकाशित लघु नाट्य हरारतमानवीय संवेदनाओं को छूता हुआ नाटक है, जिसमें विशुद्ध थर्ड जेंडर की समस्याओं के प्रति संवेदना व्यक्त की गयी है। इसी प्रकार हिजड़ा समुदायपर डॉ. फखरे आलम खान विद्यासागरद्वारा लिखी एक मात्र एकांकी किन्नरभी एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। लक्ष्मीनाराण त्रिपाठी द्वारा लिखित आत्मकथा मैं हिजड़ा....मैं लक्ष्मीभी एक पठनीय दस्तावेज है। हिन्दी उपन्यास की यदि बात करें तो जैसा कि ऊपर लिखा गया कि नीरजा माधव द्वारा रचित हिन्दी का प्रथम उपन्यास ‘यमदीप' है। इसके इतर हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं में भी उपन्यास लिखे गए- तीसरी ताली-2010‘ (प्रदीप सौरभ), ‘मैं भी औरत हूँ-2005 (डॉ. अनुसूइया त्यागी), ‘पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा-2016‘ (चित्रा मुद्गल), ‘गुलाम मंडी-2013‘ (निर्मला भुराडिया), ‘मैं पायल-2016‘ (महेन्द्र भीष्म), ‘मैं क्यों नहीं‘ (मराठी  उपन्यास, पारू मदन नाइक), ‘वाडामल्लि‘ (तमिल उपन्यास, सु. समुद्रम) आदि। अन्य संपादित कृतियां हम भी इंसान हैं‘ (कहानी संग्रह, सं. डॉ. फीरोज़ खान), ‘थर्ड जेन्डरः हिन्दी कहानियां‘ (सं. डॉ. फीरोज़ खान), ‘थर्ड जेन्डरः अनुदित कहानियां‘ (सं. डॉ. फीरोज़ खान), ‘किन्नर विमर्शः साहित्य के आइने में‘ (आलोचना, सं. डॉ. इकरार अहमद), ‘हिन्दी उपन्यासों के आइने में थर्ड जेंडर‘ (सं. डॉ. विजेंन्द्र प्रताप सिंह), ‘थर्ड जेंडर के संघर्ष का यथार्थ‘ (सं. डॉ. शगुफ्ता नियाज़), ‘भारतीय साहित्य एवं समाज में तृतीय लिंगी विमर्श‘ (सं. डॉ. विजेन्द्र प्रताप सिंह व रवि कुमार), ‘सिनेमा की निगाह में थर्ड जेण्डर‘ (सं. डॉ. फीरोज़ खान) आदि। समय-समय पर हिजड़ा समुदायविषय पर अपने-अपने विशेषांक भी प्रकाशित किये हैं, उदाहणार्थ- त्रैमासिक हिन्दी पत्रिका वाङ्मयजो कि डॉ. फीरोज़ खान के संपादाकत्व में निकलता है, ‘थर्ड जेंडरविषयक तीन अंकों का संपादन किया। कुमार गौरव मिश्रा का अगस्त 2016जनकृतिका थर्ड जेंडर विशेषांक भी उल्लेखनीय है। यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि सदियां से ही हिजड़ा समाज को अन्यकी नजर से देखा जाता रहा है, भारतीय समाज नयी सदी में अचानक इस समाज के प्रति संवेदनशी और जागरूक नहीं हुआ है। साहित्यकारों एवं संस्कृतियकर्मियों तथा सामाजिक संस्थाओं ने इनके प्रति लोगों की पारम्परिक सोच को बदलने का सार्थक प्रयास किया है।

अपवाद रूप से थर्ड जेंडरसमुदाय से कुछ नाम अवश्य जहन में आते हैं, जिन्होंने तृतीय लिंगी होने के बावजूद अपने जीवन में संघर्षरत रहे और भारत में ही वरन् विश्व में अपना विशेष स्थान प्राप्त किया- लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी‘ (एक टी.वी. कलाकर, भरतनाट्यम नर्तिका और सामाजिक कार्यकर्ता), ‘पद्मिनी प्रकाश‘ (भारत की पहली ट्रांसजेंडर न्यूज एंकर), ‘रोज वेंकटेश्वर‘ (पहली ट्रांसजेंडर टीवी होस्ट), ‘विद्या‘ (पहली पूर्णकालिक थियेटर कलाकार, सामाजिक कार्यकर्ता, ब्लागर, फिल्म निर्माता), ‘शबनम मौसी‘ (पहली किन्नर विधायक), दिवंगत आशा देवी‘ (उ0प्र0 के गोरखपुर से 2001 में चुनी गयी देश की पहली किन्नर महापौर), ‘मधु किन्नर‘ (छत्तीसगढ़ के रायगढ़ में महापौर), ‘कल्कि सुब्रह्मण्यम‘ (सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक, कलाकार और अभिनेत्री), ‘मानवी बंदोपाध्याय‘ (देश की पहली किन्नर प्रिंसिपल, पश्चिम बंगाल से), ‘ए. रेवती‘ (सेक्सुअल माइनॉरिटी के लिए कार्य करने वाली संस्थ संगमासे जुड़कर थर्ड जेंडरों के लिए काम कर रही हैं), ‘पायल सिंह‘ (2010 में पायल फाउण्डेशनकी स्थापना की), ‘बिशेष हुइरेम‘ (मणिपुरी फिल्मों की जानी-मानी अभिनेत्री)। जब ये सभी अपनी पसंद का काम करते हुए अपनी शर्तों पर जी सकती हैं, तो क्यों न उनके साथ होने वाले भेदभाव को मिटाकर, उनके जीवन को बेहतर बनाने के लिए प्रयास किये जाएं, जिसके फलस्वरूप थर्ड जेंडर/ट्रांसजेंडर प्रत्येक क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करा पाएंगे।

Wednesday, October 10, 2018

हिजड़ा समुदाय के घुटते जीवन का यथार्थ : एक सामाजिक एवं साहित्यिक अध्ययन : भाग 2


बड़ी ही विरोधाभासों से भरी हमारी दुनिया है कि लिंग पूजने वाले इस समाज में लिंगविहीनों का कोई स्थान ही नहीं है और न हमारा समाज इन्हें बर्दाश्त ही नहीं कर पाता है । आखिर कब तक 

चलिए देखते हैं आगे भाग - 2 में 




इस अन्याय को वे जीवन भर ढोते हुए जीवन भर अपने अस्तित्व की तलाश में भटकते हुए मर जाते हैदुर्भाग्यवश उन्हें कभी अपनी वास्तविक पहचान प्राप्त नहीं हो पाती है। वे हमारे बीच नगण्य होकर रहते हैंकोई उन्हें समाज के हिस्से के रूप में नोटिस तक नहीं करता है। यह भी बताना समीचीन है कि

Wednesday, October 3, 2018

हिजड़ा समुदाय के घुटते जीवन का यथार्थ : एक सामाजिक एवं साहित्यिक अध्ययन


“लोग हमसे नफरत करते हैं, लोगों को यह समझना चाहिए कि हमें भी आशियाने की जरूरत है, हमें भी प्यास लगती है, हमें भी भूख लगती है । हमारे पास भी दिमाग है । हम भी अच्छे काम कर सकते हैं ।” (एक तृतीय लिंगी की जुबान से...)

आज का समय वंचित वर्गों के लिए अत्यन्त चुनौतियों से भरा है । रोज ही अखबारों में दलित, स्त्री, आदिवासी समाज पर हो रहे अमानवीय अत्याचारों की खबरें सुर्खियों में रहती हैं । दलित, आदिवासी तथा स्त्री तीनों ही अपने-अपने स्तरों पर अपने अस्तित्व को बचाये रखने हेतु संघर्षरत हैं । इनके संघर्षों से उत्पन्न छटपटाहट दिल्ली से लेकर देश के आम गांव तक में देखी जा सकती है । परन्तु वहीं वर्चस्ववादी इन्हें अपने नियंत्रण से बाहर न जाने के लिए मिथ्या हठ ठाने हुए हैं । इसके लिए वर्चस्वादी किसी भी सीमा तक जाने के लिए तैयार है । इसी कारण प्रायः देखे तो किसी गाँव, कस्बे या शहर में किसी दलित ने जरा सा सिर उठाया उसे कुचलने के लिए साम, दाम, दंड तीनों का प्रयोग करने से कभी नहीं हिचकते हैं । प्रत्येक दिन ही दलितों को मारना, पीटना, घर जला देने की खबरें अखबारों में आम है । यही स्थिति है स्त्रियों की भी है, उनका तो सुन्दर होना, ठीक से कपड़े पहनना या खुलकर बाहर निकलना की अभिशाप बन गया है । गाँव की युवती घर से बाहर निकलकर खेत पर गयी, दुराचार कर डाला, शिक्षा के लिए निकली तो छेड़छाड़ और दुराचार का शिकार बना डाला और कुछ नहीं कर सके तो बदनाम कर उसे अपमानित कर दिया । वंचित, शोषित, कुचले समुदायों में से ही एक हिजड़ा समुदायभी है, जो आज भी स्वयं को इंसान कहे जाने के लिए संघर्षरत है । डॉ. भारती अग्रवाल इस तथ्य को पुष्ट करते हुए अपने के एक लेख में लिखती हैं, ‘‘आज का दौर अस्तित्व की पड़ताल का दौर है । हाशिए पर धकेले गये स्त्री और पुरुष अपनी अस्मिता के लिए संघर्षरत है । ऐसे समय में समाज के एक वर्ग को निरंतर अनदेखा किया गया है, वह है थर्ड जेंडर ।”1


विचारणीय है कि हिजड़ाशब्द सुनकर या इन्हें घरों में सुअवसरों पर नाचते-गाते देखते हुए ये प्रश्न कभी न कभी हम सभी के मन में आते हैं या आये होंगे कि आखिर हिंजड़े कैसे पैदा होते हैं ? इनका समुदाय का रहन-सहन किस प्रकार का होता है ? या यह समुदाय सामान्य समाज में घुल मिलकर क्यों नहीं रहता ? आदि-आदि । इसके अतिरिक्त अन्य कई प्रश्न ऐसे हैं, जो हिजड़ा समुदाय से सम्बंधित होते हैं । हिजड़ाशब्द की उत्पत्ति या इन्हें और किन विशेष क्षेत्रों में किन-किन नामों से जाना-पुकारा जाता है या हिजड़ा समुदायके विषय में संक्षिप्त पर गंभीर चिन्तन करना समीचीन होगा ।

हिजड़ों से तात्पर्य उन लोगों से हैं, जिनके जननांग पूरी तरह विकसित न हो पाए हो या पुरुष होकर भी स्त्रैण स्वभाव के लोग, जिन्हें पुरुषों की जगह स्त्रियों के मध्य रहने में सहजता महसूस होती है । शब्द हिजड़ाउर्दू से लिया है, जो अरबी के हिज्र शब्द से आया है । जिसका अर्थ होता है अपने कबीले का छोड़ना । यानि घर-परिवार एवं समाज से अलग होना । हिन्दी या उर्दू में प्रयुक्त इस हिजड़ाशब्द को अन्य शब्दों से जैसे- हिजिरा, हिजादा, हिजदा, हिजारा और हिजराह शब्द से भी पुकारा जाता है । उर्दू का ख्वाजा सरा शब्द हिजड़ा का समानार्थी है । दूसरे अन्य शब्द खसुआ और खुसरा है । अंग्रेजी में इसे यनक अथवा हर्मा फ्रोडाइट से जोड़कर देखा जाता है । बंगाली में इन्हें हिजरा, हिजला, हिजरी से सम्बोधित किया जाता है । तेलगु में उन्हें नपुंसुकुडू, कोज्जा अथवा मादा, तमिल में अली, अरावनी, अरवन्नी, अरूवरी । पंजाबी में खुसरा, जंखा, सिंधी में खदरा, गुजराती में पवैया, मराठी में हिजड़ा, छक्का आदि नामों से जाना जाता है । लेखक-विचारक डॉ. विजेन्द्र प्रताप सिंह ने अपनी पुस्तक में लिखते हैं, ‘‘समाज में मानव प्रजाति के इन दो लिंगों के अलावा भी एक और प्रजाति का अस्तित्व है, जो न पुरुष होता है न स्त्री । जो न संभोग कर सकता है न ही गर्भ धारण कर सकता है । जिसे किन्नर, हिजड़ा या छक्का कहा जाता है ।”2 आगे वह अन्य नामों व इनकी दयनीय स्थिति से परिचय कराते हुए लिखते हैं, ‘‘थर्ड जेंडर, लौंडेबाजों, लेस्बियन्स, गे, ट्रांस जेंडर, तृतीय लिंग, किन्नर (इस शब्द का प्रयोग काफी विवादास्पद रहा), षिखंडी, बहन्नला, खोजवां/हिजरा, हिजड़ा, माद्दा, कोज्जा, नंगाई/अरूवन्नी, खुसरा, मामू, गांडु, नामर्द, मऊगा, पावैया आदि नामों से जाना जाने वाला यह समुदाय भारतीय समाज के सबसे उपेक्षित तबकों में से एक है ।”3 कुछ वर्ष पूर्व ही माननीय सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में उपरोक्त शब्दों के स्थान पर थर्ड जेन्डरके नाम से सम्बोधित किया है । इसलिए अब इस समुदाय के लोगों को थर्डजेन्डरके नाम से जाना जाता है । आज राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक दृष्टि से इसकी शिनाख्त सबसे उत्पीड़ित वर्गों के रूप में की जा रही है । वर्षां से दुत्कार, प्रताड़ना और अपमान झेलने वाला यह वर्ग अब खुली हवाओं में सांसें लेने का प्रयास कर रहा है । शिक्षा की बात हो, संगठन बनाने-सामाजिक काम करने का हो या फिर राजनीति में सक्रिय भागीदारी का, हिजड़ा समुदाय की छटपटाहट खुल कर सामने आने लगी है । हिजड़ा समुदाय वास्तविक उत्पीड़ित समुदाय है । अन्य पीडित समुदायों यहां तक की पशु-पक्षियों व पेड़-पौधों के संरक्षण व विकास हेतु कानूनी व्यवस्था है । लेकिन हिजड़ों को तो देश में मान्यता ही 2014 के बाद मिली है, जो उक्त समुदाय का दुर्भाग्य है । हालांकि इसे एक सुखद कदम में रूप में देखा जाना अनिवार्य है । हालांकि नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान आदि देशों में इनके लिए कई वर्षों पूर्व ही कानूनी अधिकार दे दिये गये थे । उल्लेखनीय है कि पश्चिम देशों में इनकी स्थिति भारत की अपेक्षा काफी बेहतर है ।

भारत की सन् 2011 की जनगणनानुसार भारत में लगभग 4.9 लाख किन्नर हैं, जिनमें 1,37000 उत्तर प्रदेश में निवास करते हैं । इसी जनगणना के अनुसार सामान्य जनसंख्या में शिक्षित लोगों की संख्या 74 प्रतिशत है, जबकि यही संख्या किन्नरों में महज 46 प्रतिशत ही है । प्रबुद्ध लेखक-विचारक डॉ. पुनीत बिसारिया के एक अध्ययन के मुताबिक ‘‘आश्चर्य की बात है कि दो लाख असली हिजड़ों में से भी सिर्फ 400 जन्मजात हिजड़े या बुचरा हैं, शेष हिजड़ें स्त्रैण स्वभाव के कारण हिजड़ों में परिगणित किए जाने वाले मनसा या हंसा हिजड़े हैं और इससे भी बड़े आश्चर्य की बात यह है कि इन दो लाख हिजड़ों में से लगभग 70,000 हिजड़े ऐसे हैं, जिन्हें एक छोटे से ऑपरेशन के बाद लिंग परिवर्तन करने के पश्चात् पुरुष या स्त्री बनाया जा सकता है लेकिन दुःख की बात है कि इस ओर किसी का ध्यान नहीं है ।

सम्पूर्ण हिजड़े समुदाय को सामाजिक संरचना की दृष्टि से सात घरानों में बांटा गया है, घर घराने के मुखिया को नायक कहा जाता है । ये नायक ही अपने डेरे या आश्रम हेतु गुरु का चयन करते हैं हिजड़े जिनसे शादी करते हैं, या कहें जिन्हें अपना पति मानते हैं, उन्हें गिरियाकहते हैं । उनके नाम का करवाचौथ भी मनाते हैं । हमारे देश में इस प्रकार की मानसिक विकृति को स्वीकृति नहीं मिली है । सन् 1871 तक हिजड़ों को हमारे समाज में स्वीकार्यता प्राप्त थी । महाभारत काल से लेकर मध्यकाल तक इस समाज की स्थिति आज से अच्छी थी । तत्कालीन समय राजाओं के घरों में जनानखानों की रखवाली, हवेलियों और महलों की पहरेदारी के लिए सरकारी नौकरी पर रखा जाता था । फिर ब्रिटिश राज में इन्हें सन्देह की दृष्टि से देखा जाने लगा और 1871 में इन्हें अपराधिक जनजाति में शामिल कर लिया गया । स्वतंत्रता के बाद इस वर्ग को यथास्थिति में ही रखा गया और इनके जीवन को व्यवस्थित करने हेतु न तो कोई सरकारी प्रयास हुआ और न ही समाज सुधारकों का विशेष ध्यान इनकी ओर गया ।


थर्ड जेंडर विषयक अपनी विशिष्ट समझ रखने वाले लेखन डॉ. एम. फिरोज खान अपनी सम्पादित पुस्तक थर्ड जेन्डरः हिन्दी कहानियांमें हिजड़ा समुदाय की धार्मिक पृष्ठभूमि के विषय लिखते हैं ‘‘आज किन्नर चाहे किसी भी धर्म का हो वह अपने पूर्व धर्मों का छोड़ चुका है । अब उसकी अराध्य देवी बहुचरा माता है । वह उन्हीं की पूजा-पाठ करता दिखाई पड़ता है । इनका मन्दिर गुजरात में है ।”4 हिजड़ा समुदाय की शाखाओं के विषय में डॉ. फिराज लिखते हैं ‘‘इनकी चार शाखाएं हैं-बुचरा, नीलिमा, मनसा और हंसा ।”5 विस्तारित अध्ययन से स्पष्ट हुआ कि बुचराकी शाखा में पैदाइशी, ‘नीलिमाकी शाखा में जबरन बनाये गये, ‘मनसाशाखा में इच्छा से बने और हंसामें वो आते हैं, जो शारीरिक कमी के कारण हिजड़े बनते हैं । एक अन्य विभाजन के आधार पर नीलिमाशाखा के हिजड़े गाने-बजाने का काम करते हैं, जबकि मनसाशाखा हिजड़ा बनाने वाले व्यक्ति के लिए सामान इकट्ठा करना है । जब बुचराकिसी को हिजड़ा बना रहे होते हैं, तब हंसासाफ-सफाई का काम करता है । इसके इतर कब्र खोदने और उसमें राख डालने का काम भी केवल हंसा’ शाखा के किन्नर ही करते हैं, कब्र में पहली मिट्टी डालने का काम बुचरा शाखा के लोग ही करते हैं । एक अन्य शाखा अबुवा‘/‘अनुवाभी अस्तित्व में, जो धन कमाने के लिए बहुत सारे लोग हिजड़े का स्वांग धारण करते हैं अर्थात् नकली होते है उन्हें अबुवाकहा जाता है । इस प्रकार के हिजड़े वास्तविक हिजड़ों के लिए परेशानी का कारण बने रहते हैं । अपने इस जन्म का कोई भी हिजड़ा यह नहीं चाहता कि उसका अगला जन्म हिजड़ा ही हो । इसके बावजूद कुछ मर्दां को हिजड़ा भेष बदलकर तालियां पीटने में जरा भी हिचकिचाहट नहीं महसूस होती । परन्तु इस तरह की ताली पीटने वाले न केवल वास्तविक हिजड़ों के पेट पर लात मारने का कार्य करते हैं बल्कि आम जनता के मन-मस्तिष्क में इनसे अलग रहने की भावना को भी बल प्रदान कर रहे हैं । मान्यता यह भी है कि कभी-कभी सामान्य बच्चों को भी किसी कारणवश बलात् बधियाकरण करके हिजड़ा बना दिया जाता है, जो कि एक बहुत ही दर्दनाक प्रक्रिया है । इन्हें छिनराभी कहते हैं ।


इनके पारिवारिक पृष्ठभूमि के विषय में जानने हेतु इच्छुक तो हम सभी रहते हैं, परन्तु इस विषय में कम ही व्यक्ति जानकारी रखते हैं । डॉ. फिरोज खान इस पर कहते हैं, ‘‘किन्नरों का समाज भी आम परिवारों की तरह ही होता है। हर घर या घराने का एक मुखिया होता है, जिसे नायक कहते हैं । नायक के नीचे गुरु होते हैं फिर चेले । गुरू का दर्जा मां-बाप से कम नहीं होता । हर किन्नर का अपने गुरू का अपनी कमाई का एक हिस्सा देना होता है । उम्र दराज उस्ताद का काम हिसाब-किताब रखना होता है । गुरु के नीचे काम करने वाले सभी चेले घराने की बहुएं कहलाती हैं । हालांकि घराने के अन्दर भाई, बहन, बुआ, चाची, दादा, दादी आदि का अपना स्थान है, जो किन्नर को बहन का ओहदा दिया जाता है ।”6 इससे यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि भले ही इस पूर्ण लिंगी समाज में इन अधूरी देहों वालो के स्थान न हो, परन्तु इन्होंने अपना ही एक निश्चित समाज गढ़ लिया है, जहाँ ये सब सुरक्षित ही नहीं बल्कि एक परिवार के जैसे जीवन-यापन करते हैं । बड़ी ही विरोधाभासों से भरी हमारी दुनिया है कि लिंग पूजने वाले इस समाज में लिंगविहीनों का कोई स्थान ही नहीं है और न हमारा समाज इन्हें बर्दाश्त ही नहीं कर पाता है । आखिर कब तक ?

कुदरत ने तृतीय लिंगी लोगों के साथ अन्याय किया है । जिस पर हम अगली बार विचार करेंगे ...  क्रमश: 

Saturday, August 25, 2018

अथ: श्री किन्नर कथा : धनंजय चौहान



यह है 'धनंजय चौहान', जो ट्रांसजेंडर है यानि जिन्हें आम समझ में 'किन्नर'/'हिजड़ाकहते हैं इन्हें 'दीदीकहकर पुकारता हूँअभी हाल ही में फेसबुक पर इनसे मुलाकात हुई और फिर फोन पर काफी लंबी बात हुई। गज़ब का जज़्बा है इनमें। जिस प्रकार अपने पूरे समुदाय के लिए जद्दोजेहद कर रहीं है वो काबिले तारीफ ही नहीं बल्कि हम सभी के लिए प्रेरणा है।  इनका जन्म 17071971 को उत्तराखण्ड के पौड़ी-गढ़वाल के देवप्रयाग तहसील के एक गांव में हुआ था। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि उत्तराखण्ड की इस 'बिटियाको बाहर की ठोकरे खाने को मजबूर होना पड़ापर कभी किसी ने भी इनकी सुध नहीं ली। जिस मकसद को लेकर धनंजय दीदी काम रही है वो पूरे देश के साथ-साथ विशेषकर उत्तराखण्ड के लिए गर्व करने की बात है कि उनके यहाँ जन्मी यह शख्सियत आज अंतराष्ट्रीय स्तर पर अपना नाम कमा चुकी है। वर्ष 1993 में पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ़ से बी० ए०ऑनर्स (इतिहास) में टॉप करने के बाद भीलैंगिक भेदभाव के चलते आगे नहीं पढ़ सकी। इस सभ्य समाज के लोगों ने हमेशा इनके ऊपर अत्याचार ही कियापरंतु किसी न किसी रूप से यह शिक्षा से जुड़ी ही रहीं। इन सब के चलते आज दीदी अपनी जान की परवाह किये बगैर कई सालों से अपने समुदाय के उन्नयन करने हेतु उन्हें 'शिक्षाके महत्व से रूबरू करा रही है। क्योंकि बिना शिक्षा के किसी समुदाय का उन्नयन हो ही नहीं सकतायह बात सभी पर बराबर लागू होती है। चाहे वो ट्रांसजेंडर्स ही क्यों न हो। दीदी का स्पष्ट मानना है कि बिना शिक्षा के हमारे समुदाय ले लोग हमेशा 'आम व्यक्तिबनने के लिए संघर्ष करते रहेंगे। इस बात की पूर्णतः पुष्टि इनके कार्यकलाप में झलकती है। एक समय था कब यह बिल्कुल अकेली थीकिन्नर समुदाय का कोई भी व्यक्ति इनके पास तक नहीं खड़ा था और आज की स्थिति देखेंगे तो आप हैरान हो जाएंगे कि इनके साथ आज किन्नर समुदायों से ही नहीं अपितु मुख्य धारा से भी लोग इनके उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए इनके सहयोग हेतु इनके साथ खड़े हैं। धीरे-धीरे लोग इनके प्रयासों से सही मायनों में किन्नरों/ट्रांसजेंडर्स को समझ रहे हैं। चूंकि पिछले एक साल से किन्नरों पर लिख-पढ़ रहा हूँइस बीच कइयों से मिला भी हुआपरंतु इन्होंने मेरे ज्ञान में जबरदस्त बढ़ोतरी ही नहीं कीबल्कि मेरे कई संदेहों कोजो समुदाय विशेष के संदर्भ में थेउन्हें भी स्पष्ट किया और बड़ी सहजता और बेबाकी से बात कीजिन्हें आगे लेखनी के माध्यम से आपके सामने रखूंगा।

चूंकि दीदी पंजाब विश्विद्यालय की प्रथम ट्रांसजेंडर विद्यार्थी रही है और आज इनके जीवन पर आधारित डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म 'एडमिटेडका शीघ्र ही फ़िल्म फेस्टिवल में प्रदर्शित होगी। यह फ़िल्म पूरे भारत के साथ विदेशों में दिखाई जाएगी। धनंजय जी आज पूरी निष्ठा और ईमानदारी से अपने समुदाय को मुख्य धारा के साथ लाने का निरन्तर अथक प्रयास कर रही हैं। 'सक्षमऔर 'मंगलामुखी ट्रांसजेंडर वेलफेयर सोसाइटीसंगठनों (NGO) के माध्यम से अपने समुदाय विशेष में शिक्षा की अलख जगा रही हैं। वर्ष 2014 में भारत के सर्वोत्तम न्यायालय ने ट्रांसजेंडरों के हित में जो फैसला सुनाया थाउसके लिए भी इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। इनके प्रयासों के फलस्वरूप ही पंजाब विश्विद्यालय चंडीगढ़  प्रशासन ने अपनी प्रवेश प्रक्रिया में 'स्त्री', 'पुरुषलिंग के अतिरिक्त 'थर्ड जेंडरलिंग को शामिल किया और अब ये प्रयास में है कि विश्वविद्यालय स्तर पर ट्रांसजेंडर्स/थर्ड जेंडर्स को प्रवेश प्रक्रिया में प्रतिशतों में छूट दी जाए जिससे 50-60 प्रतिशत यानी औसत स्तर के ट्रांसजेंडर विद्यार्थियों को भी विश्वविद्यालय में दाखिला मिल सकेजिससे वो अपना बौद्धिक विकास कर सके। इसके अतिरिक्त इनके द्वारा विश्वविद्यालय स्तर पर कई महत्वपूर्ण कोशिशें यह भी की जा रही हैं कि ट्रांसजेंडर्स हेतु अलग टॉयलेट की व्यवस्थाअलग हॉस्टल और फीस माफी या स्कॉलरशिप्स। ये प्रयास यदि सफल होते हैं तो मानिएगा कि यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। जिसका श्रय इनको और इनकी पूरी टीम को जाएगा। दीदी ने बताया कि उनके शिक्षा ग्रहण करने से लेकर आज तक के संघर्ष में उनकी गुरु काजल मंगलामुखी का सदैव साथ रहा। हर खुशी-गम में वो बराबर मेरे (धनंजय दीदी) साथ खड़ी रही। उनका आशीर्वाद और भौतिक साथ ने हमेशा मेरे लिए 'ढालका कार्य कियाजिसने हर बुरी चीज से मेरा बचाव किया। अपने गुरु के प्रति कृतज्ञ होते हुए उन्होंने कहा कि आज वो जो भी हैजिस मुकाम पर भी है अपनी गुरु काजल मंगलामुखी जी के बदौलत ही है। अपनी ओर से दोनों गुरु-शिष्य को मेरा नमन हैजो आज भी ईमानदारी से गुरु-शिष्य की परंपरा का निर्वहन कर रहे हैं।

'किन्नर समुदायको शिक्षा के माध्यम से मुख्य धारा में लाने का इनका प्रयास सराहनीय ही बल्कि अनुकरणीय भी है। इनके द्वारा जो अग्नि प्रज्वलित की गयी हैअब हमारा कर्तव्य है कि हम अपने प्रयासों की आहुति डालते रहेजिससे यह अग्नि हमेशा जलती रही और यह अछूत समुदाय भी मुख्य धारा में शामिल होकरदेश के विकास में बराबरी का हकदार बनें।

धन्यवाद धनंजय दीदी

(एक छोटा सा प्रयास मात्र है कि हम सभी समझ सके कि एक 'आम आदमीबनने हेतु भी कितना कड़ा संघर्ष इस समुदाय को करना पड़ता है।)

क्रमशः।।।