Friday, August 24, 2018

हिंजडें : कविता

***आज फिर एक बार दिल से उपजी ये कुछ पंक्तियां. न स्त्री को, न ही पुरुष को बल्कि ये समर्पित उनको जो इन दोनों से ऊपर हैं... (स्त्रोत- अभी हाल के दिनों में ही में रेलवे स्टेशन पर देखकर 'उनको'...)


'हिजड़ें'
कुछ ऐसे भी
लोग रहते हैं यहाँ,
जाति,धर्म, लिंग से परें,
हम सबसे इतर,

पर
सबसे तिरस्कृत, सबसे दुत्कारित,
न उनकी जिज्ञासा,
न चाहत किसी को,
न उनका सम्मान न ही प्रेम.

निश्चय ही
यहाँ घृणित व्यवहार होता
'दलितों' से,
'महिलाओं' से

पर
हाय रे! नियति देखो इनकी,
ये भी करते उनसे घृणा.

इस ' सभ्य' भारत में
सबसे निचले पायदान पर
माने जाते 'दलित' हैं,

पर
आपको पता है
दलितों से भी नीचे
एक सीढ़ी और उतरती है,
जो जाती उन तक.
कैसा वो समाज होगा?
कैसे वो लोग होंगे?

दर्द उन्हें भी है
पीड़ा भी खूब होती है.
कौन सुने उनकी
कोई नहीं सुनता,
क्योंकि
जब इंसानों की कोई
सुनवाई कही नहीं होती
इस देश में
तो भला
वे तो न आदमी, न औरत हैं.

मिलेंगे आपको
घरों में,
सड़कों पर,
सिग्नल पर,
ट्रेन में,
रोटी का जुगाड़ करते,
ताली बजाते, नाचते-गाते,
वे 'हिजड़ें' हैं...



3 comments:

  1. क्या बात है..! करता खूब लिखा है.!!
    "दुनिया में कितना ग़म है, मेरा ग़म कितना कम है
    दुनिया का ग़म देखा तो मैं अपना ग़म भूल गया..."

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  2. दुनिया में कितना ग़म है, मेरा ग़म कितना कम है
    दुनिया का देखा तो, मैं अपना ग़म भूल गया...

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  3. आपकी संवेदनशील दृष्टि ने समाज के उपेक्षित तबके के प्रति दुनिया का ध्यान आकृष्ट किया है । आपका प्रयास और कविता दोनों ही सराहनीय है।साधुवाद मित्र

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