हिजड़ा समुदाय के घुटते जीवन का यथार्थ : एक सामाजिक एवं
साहित्यिक अध्ययन की यात्रा का अंतिम लेख और निष्कर्ष स्वरूप कुछ बातें पढिए भाग 4
में –
अपवाद रूप से ‘थर्ड जेंडर‘
समुदाय से कुछ नाम अवश्य जहन में आते हैं, जिन्होंने
तृतीय लिंगी होने के बावजूद अपने जीवन में संघर्षरत रहे और भारत में ही वरन् विश्व
में अपना विशेष स्थान प्राप्त किया- ‘लक्ष्मी नारायण
त्रिपाठी‘ (एक टी.वी. कलाकर, भरतनाट्यम
नर्तिका और सामाजिक कार्यकर्ता), ‘पद्मिनी प्रकाश‘ (भारत की पहली ट्रांसजेंडर न्यूज एंकर), ‘रोज
वेंकटेश्वर‘ (पहली ट्रांसजेंडर टीवी होस्ट), ‘विद्या‘ (पहली पूर्णकालिक थियेटर कलाकार, सामाजिक कार्यकर्ता, ब्लागर, फिल्म
निर्माता), ‘शबनम मौसी‘ (पहली किन्नर
विधायक), दिवंगत ‘आशा देवी‘ (उ0प्र0 के गोरखपुर से 2001 में चुनी गयी देश की पहली किन्नर महापौर),
‘मधु किन्नर‘ (छत्तीसगढ़ के रायगढ़ में महापौर),
‘कल्कि सुब्रह्मण्यम‘ (सामाजिक कार्यकर्ता,
लेखक, कलाकार और अभिनेत्री), ‘मानवी बंदोपाध्याय‘ (देश की पहली किन्नर प्रिंसिपल,
पश्चिम बंगाल से), ‘ए. रेवती‘ (सेक्सुअल माइनॉरिटी के लिए कार्य करने वाली संस्थ ‘संगमा‘
से जुड़कर थर्ड जेंडरों के लिए काम कर रही हैं), ‘पायल सिंह‘ (2010 में ‘पायल
फाउण्डेशन‘ की स्थापना की), ‘बिशेष
हुइरेम‘ (मणिपुरी फिल्मों की जानी-मानी अभिनेत्री)। जब ये
सभी अपनी पसंद का काम करते हुए अपनी शर्तों पर जी सकती हैं, तो
क्यों न उनके साथ होने वाले भेदभाव को मिटाकर, उनके जीवन को
बेहतर बनाने के लिए प्रयास किये जाएं, जिसके फलस्वरूप थर्ड
जेंडर/ट्रांसजेंडर प्रत्येक क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करा पाएंगे।
सामान्यतः ‘हिजड़ा‘ और ‘किन्नर‘ एक ही समझे जाते हैं, परन्तु इनमें शाब्दिक ही नहीं
अपितु अर्थ भेद भी है। जिसको लेकर काफी विवाद भी है। ‘किन्नर‘
हिमाचल प्रदेश में बसने वाली एक जनजाति है, जो
सामान्य स्त्री-पुरुष की भांति व्यवहार करते हैं, जबकि ‘हिजड़ा‘ मतलब जो न पूर्ण स्त्री है न पुरुष। हिजड़ा
सुनना हिजड़ों को ही पसंद नहीं है, इसलिए उनका भी मानना है कि
उन्हें ‘हिजड़ा‘ कहकर न पुकारा जाए
बल्कि ‘किन्नर‘ कहा जाए। अब साहित्यिक
रूप से भले ही दोनों शब्दों में विवाद हो, परन्तु यदि ‘किन्नर‘ सुनना उनको अच्छा लगता है, तो इसमें कोई बुराई नहीं।
चंडीगढ़ से धनंजय चौहान जो अपने समुदाय की वस्तुस्थिति
बताने और किन्नर समुदाय को सामान्य समाज मे बराबर का हक़ मिले इसके लिए संघर्षरत
है। हाल ही में इनको मुख्य भूमिका में रखते हुए एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म 'एडमिटटेड' रिलीज़ हुई है जो देश विदेश में खूब सराही
जा रही है। बलिया से सिमरन का नाम भी उल्लेखनीय है। सिमरन जी न केवल अपने समुदायों
के हितों के संरक्षण हेतु समाज मे संघर्षरत है अपितु सामान्य समाज से आयें गरीब
बच्चों को शिक्षित करने का महती कार्य भी कर रही हैं। जो अपने आप में अनुकरणीय भी
है और सराहनीय भी। हमे गर्व करना चाहिए ऐसी हस्तियों पर जो अपनी अस्तित्व की लड़ाई
के साथ हमारे उस समाज के हितों हेतु भी निस्वार्थ भाव से कार्य कर रही हैं,
जो समाज उनके अस्तित्व को नकारता है।
तमिलनाडु के डॉ. श्रीदेवी (अण्णा आदर्श महिला महाविद्यालय, चेन्नई) ने करीब 120 किन्नरों से संबंधित अलग-अलग पहलुओं पर शोध किया जो
उल्लेखनीय है-
उपर्युक्त तालिकाओं से हम किन्नरों की सामान्य समस्याओं से
अवगत हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त हमस ब इनके प्रति सौहार्दपूर्ण तथा
सहानुभुतिपूर्ण व्यवहार करें, हमारे समाज में इन्हें
सादर स्थान दे।
‘निष्कर्षतः हमें यह समझना होगा कि लैंगिकता का तात्पर्य स्त्री या पुरुष
से नहीं है। हमें लोगों को लैंगिक धरातल पर अपने समान ही जीवन जीने की छूट देनी
होगी। साथ ही हमें एक ऐसी भाषा को खोजना होगा, जिसमें हिजड़ा
समाज के अस्तित्व एवं उसकी अस्मिता के लिए पूर्णरूपेण स्थान हो। एक ऐसी भाषा जो
लैंगिक धरातल पर प्रचलित सामाजिक अतिवादिता के बरअक्श प्रतिरोध की संस्कृति का
विकास कर सके, जिससे समाज सही दिशा में आगे बढ़ सके। यह वक्त
की मांग है कि सामाजिक धरातल पर हिजड़ा समुदाय के साथ-साथ हम खुद भी इस बात की
जागरूकता फैलाएं कि आलोच्य समाज भी मानवों के समाज का ही एक हिस्सा है, जिसे किसी भी अन्य मानव प्रजाति से संबन्धित समाज के व्यक्तियों के जैसे
ही सम्मानूपर्वक जीवन जीने का अधिकार है। यही वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा हम उन्हें स्वास्थ्यगत, विधिगत,
भावनागत, मनोगत इत्यादि स्तरों पर मात्र सुदृढ़
ही नहीं बनाएंगे बल्कि अपने समाज को भी सही अर्थों में मानवीय मूल्यों से परिपूर्ण
कर कहीं अधिक बेहतरीन एवं वासोपयोगी बनाएंगे।
‘‘उनकी गालियों और तालियों से भी उड़ते है,
खून के छीटें,
और यह जो गाते बजाते उधम मचाते,
हर चौक चौराहे पर,
वे उठा देते हैं अपने कपड़े ऊपर,
दरअसल उनकी अभ्रदता नहीं,
उस ईष्वर से प्रतिशोध लेने का उनका एक तरीका
है,
जिसने उन्हें बनाया है, या फिर नहीं बनाया है।‘‘ (कृष्ण मोहन झा)
इस लेख का प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय भाग पढ़ने के लिए लिंक देखें -
भाग 2 के लिए यहाँ जाएँ - https://teesritaali.blogspot.com/2018/10/2.html
--सन्दर्भ सूची--
1. थर्ड
जेंडर-एक रहस्यलोक, ले. डॉ. भारती अग्रवाल,
‘किन्नर विमर्शः साहित्य के आइने में‘ वाङ्मय
बुक्स, अलीगढ़, वर्ष 2017, पृ0-60
2. हिन्दी
उपन्यासों के आइने में थर्ड जेंडर, ले. डॉ.
विजेन्द्र प्रताप सिंह, अमन प्रकाशन, कानपुर,
वर्ष 2017, पृ0-66
3. वही
पृ0-66
4. भूमिका
से,
‘थर्ड जेन्डरः हिन्दी कहानियां‘ सं.-डॉ. एम.
फिरोज खान‘, अनुसंधान प. एण्ड डि., कानपुर,
वर्ष 2018, पृ0-05
5. वही
पृ0-05
6. वही
पृ0-06
7. हिन्दी
उपन्यासों के आइने में थर्ड जेंडर, ले. डॉ.
विजेन्द्र प्रताप सिंह, अमन प्रकाशन, कानपुर,
वर्ष 2017, पृ0-73 से उद्धत
8. हम भी
इंसान है,
ले. महेन्द्र भीष्म, ‘भारतीय साहित्य एवं समाज
में तृतीय लिंगी विमर्श‘ सं.- डॉ. विजेन्द्र प्रताप सिंह,
अमन प्रकाशन कानपुर, वर्ष 2016, पृ0-13
9. अधूरी
देह,
ले. महेन्द्र भीष्म, ‘भारतीय साहित्य एवं समाज
में तृतीय लिंगी विमर्श‘ सं.- डॉ. विजेन्द्र प्रताप सिंह,
अमन प्रकाशन कानपुर, वर्ष 2016, पृ0-09
10. वही
पृ0-09
11. वही
पृ0-17
12. वही पृ0-17
13. हिन्दी
साहित्य का लगभग अछूता परिदृश्यः तृतीय लिंगी समाज, ले.
अभिलाषा सिंह, ‘भारतीय साहित्य एवं समाज में तृतीय लिंगी
विमर्श‘ सं.- डॉ. विजेन्द्र प्रताप सिंह, अमन प्रकाशन कानपुर, वर्ष 2016, पृ0-93
14. मनीषा
महंत (थर्ड जेंडर) से डॉ. फिरोज और डॉ. शमीम की बातचीत, वाङ्मय त्रैमासिक पत्रिका, जुलाई-सितम्बर 2017,
पृ0-245-246
15. भूमिका
से,
‘हम भी इंसान हैं‘, सं.-डॉ. फिरोज खान,
वाङ्मय बुक्स, अलीगढ़, वर्ष
2018
16. भारतीय
वाङ्मय और हिजड़ा समुदाय, ले. डॉ. सुनील कुमार द्विवेदी
‘भारतीय साहित्य एवं समाज में तृतीय लिंगी विमर्श‘ सं.- डॉ. विजेन्द्र प्रताप सिंह, अमन प्रकाशन कानपुर,
वर्ष 2016, पृ0-83
17. सिनेमा
और साहित्य में हिजड़ेःएक समीक्षा, ले. डॉ. चन्द्रेश्वर
यादव, ‘भारतीय साहित्य एवं समाज में तृतीय लिंगी विमर्श‘
सं.- डॉ. विजेन्द्र प्रताप सिंह, अमन प्रकाशन
कानपुर, वर्ष 2016, पृ0-125
18. मैं क्यो
नहीं : अस्तित्व की नये सिरे से पहचान, ले.-आनन्दप्रकाश
त्रिपाठी, वाङ्मय त्रैमासिक पत्रिका, जुलाई-सितम्बर
2017, पृ0-106
19. थर्ड
जेंडर-एक रहस्यलोक, ले. डॉ. कर्मानन्द आर्य,
‘किन्नर विमर्शः साहित्य के आइने में‘, सं.-डॉ.
इकरार अहमद, वाङ्मय बुक्स, अलीगढ़,
वर्ष 2017, पृ0-52