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Saturday, October 24, 2020
वेब सीरीज रिव्यू : राजनीति, हिंसा से भरपूर कहानी मिर्जापुर
Tuesday, October 20, 2020
रिव्यू : मातृभाषा से प्रेम करना सिखाती है 'उड़ा ऐड़ा'
स्टारकास्ट: तरसेम जस्सर, नीरू बाजवा, पोपी जब्बाल, बीएन शर्मा, गुरप्रीत घुग्गी, करमजीत अनमोल, और अन्य
निर्मित : क्षितिज चौधरी, नरेश कथूरिया, दीपक गुप्ता, ररूपाली गुप्ता
निर्देशित: क्षितिज चौधरी
विदेशी भाषाओं को लेकर उन पर हमारी ऐसी एकाग्रता है कि यह आशंका है कि पंजाबी 50 वर्षों के भीतर इस्तेमाल होना बन्द हो जाएगी। पंजाबी भाषा को बचाने के लिए भी यह फ़िल्म सिनेमा शैदाइयों के दिलों में जगह बनाने में कामयाब हुई है। क्या आप जानते हैं शहरी भारत में, 44% लोग द्विभाषी हैं और 15% त्रिभाषी हैं - हालांकि, ग्रामीण क्षेत्रों में आंकड़े 22% और 5% हैं। और जिस तरह से हमारा मोह अपनी माँ बोली को छोड़कर विदेशी भाषाओं को अपनाने का हो रहा है उस लिहाज से एक दिन जरूर हम अपनी माँ बोली को भूल जाएंगे। खैर
उड़ा ऐड़ा फिल्म एक ऐसी महिला की कहानी है जो अपने बेटे को अंग्रेजी स्कूल में दाखिला दिलाना चाहती है, ताकि उसके बच्चे को उज्ज्वल भविष्य मिले लेकिन मुख्य रूप से उसका मकसद उसे धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलना सिखाना है। फिल्म एक सिनेमाई बंडल है जहां सब कुछ एक साथ ढेर किया गया है और इसके लिए वे दर्शकों को बांधें रखने में कामयाब हुए हैं। यह फिल्म एक सपने के नोट पर शुरू होती है जिसमें तरसेम और नीरू का रोमांस भी है।
10 साल के बच्चे की माँ के रूप में नीरू का अभिनय आपको चकरा देता है। गुरप्रीत घुग्गी हर बार की तरह लाजवाब रहे। और उन्होंने फौजी ताया का किरदार निभाया है। बीएन शर्मा का कहना ही क्या। बी ए शर्मा पंजाबी फिल्मों के सुपरस्टार हैं। जो इस फ़िल्म में तरसेम के पिता का किरदार निभाते हैं, जो घर पर बहुत कुछ नहीं करता है।
करमजीत अनमोल फिल्म में एक सुरक्षा गार्ड की भूमिका निभाते हैं और उनका चरित्र इतना नया नहीं है। पोपी जब्बाल ने स्कूल समन्वयक की भूमिका निभाई है और वह अच्छा काम करती है। कम से कम यह लड़की अपनी भूमिका में अच्छी तरह से फिट बैठती है और इसने अच्छा प्रदर्शन भी किया है।
फिल्म का पहला भाग अंग्रेजी सीखने और अंग्रेजी स्कूल में प्रवेश करने के बारे में है और दूसरा भाग एक पहेली के रूप में सामने आता है। संभवतः फ़िल्म की पूरी टीम ने लाजवाब काम किया है।
फिल्म का डायरेक्शन ठीक रहा लेकिन उसे और बेहतर किया जा सकता था। स्क्रीनप्ले में भी कसावट की कमी नजर आई।
एक कैदा ले दे बेबे मैनु उड़े ऐड़ा दा गाना दिल को छू जाता है।
अपनी रेटिंग - 3 स्टार
Monday, October 19, 2020
रिव्यू : दिलो दिमाग पर छाई 'भूरी'
Sunday, October 18, 2020
बुक रिव्यू : आशा की किरण है 'तिनका तिनका मध्यप्रदेश'
मरजानी, तिनका तिनका की श्रृंखला, तिनका तिनका तिहाड़, तिनका तिनका मध्यप्रदेश, तिनका तिनका डासना, रानियाँ सब जानती है आदि जैसी प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय किताबें लिखने वाली लेखिका एवं लेडी श्री राम कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ वर्तिका नन्दा आज अपनी एक अलग पहचान बना चुकी हैं। देश के विभिन्न जेलों का अध्ययन करके वहाँ से कविताएं और कहानियां निकालने का अनूठा काम इन्होंने किया है। यूं तो मैंने लेखिका वर्तिका नन्दा को हमारे महाविद्यालय किरोड़ीमल में एक सेमिनार के दौरान सुन चुका हूँ। बेहद सुरीली, सुमधुर आवाज और बहुमुखी प्रतिभा की धनी इस लेखिका के द्वारा जेलों पर किए गए कार्य के लिए राष्ट्रपति से सम्मान भी प्राप्त हो चुका है। तिनका तिनका फाउंडेशन की शुरुआत करके जेलों के भीतर एक बेहतर माहौल इन्होंने तैयार किया है। पुस्तक समीक्षा की कड़ी में वर्तिका नन्दा की लिखी पुस्तक तिनका तिनका मध्यप्रदेश पर बात करूं उससे पहले तिनका तिनका तिहाड़ पुस्तक में एक महिला कैदी कि कविता है।
सुबह लिखती हूँ शाम लिखती हूँ।
इस चारदीवारी में बैठी जब से, तेरा नाम लिखती हूं
इन फासलों में जो गम की जुदाई है
उसी को हर बार लिखती हूं
यह मात्र कविता ही नहीं अपितु जेल के भीतर मौजूद उस महिला कैदी की अंतर्व्यथा भी प्रकट करती है। लेखिका वर्तिका नन्दा उस पार के संसार की बातें करती हैं जो 10 बाई 10 के अंधेरे कमरे में अपनी जिंदगी काट रहे हैं। लेखिका जेल और उस संसार को चुनती है जिसके बारे में हम कभी बात नहीं करना चाहते। इन जेलों में फूलों की क्यारी नहीं है, खुला आसमान नहीं है। और तो और पेड़ की छांव भी उन्हें मयस्सर नहीं है। है तो बस एक खिड़की जिसमें छोटे-छोटे से सुराख हैं उनमें भी दरवाजा नहीं है। लोहे का गेट है और उस गेट पर है एक बड़ा ताला जड़ा। रात का एलान शाम 5 बजे ही हो जाता है। तब बचे-खुचे ख्वाब भी उसी बड़े कमरे में बंद हो जाते हैं और करवट बदलने तक की इजाजत लेते हैं। यहां सिर के नीचे कोई तकिया नहीं, एक छोटा-सा कपड़ा है।
खैर इसी श्रृंखला में समीक्षार्थ हेतु किताब है तिनका तिनका मध्यप्रदेश। 'जेल’ शब्द सुनते ही ऊंची दीवारों से घिरे एक परिसर, तंग कोठरियां, लोहे के गेट की सलाखों के पीछे पकड़े गए लोगों के अनजाने चेहरों का दृश्य आंखों के आगे आ जाता है। जेल का यह स्याह पक्ष है तो उसमें अपनी सजा काट रहे लोगों में कला और रचनात्मकता एवं सृजनात्मकता का एक उजला पक्ष भी मौजूद है और उसी पक्ष से दो चार करवाती है किताब ‘तिनका तिनका मध्यप्रदेश’। यह पुस्तक 19 लोगों के जरिए जेल की कहानी कहती है- मध्य प्रदेश की जेलों में बंद बारह पुरुषों, दो महिलाओं, चार बच्चों और एक प्रहरी के जरिए जेल के हर पक्ष को इसमें सुंदर तस्वीरों के साथ सँजोया गया है। बच्चों की उम्र छह साल से कम हैं और उनमें से तीन का तो जन्म ही जेल में हुआ है।
जेल में बाहर से न कोई रसोइया आता है, न हज्जाम।
जेलें सब कुछ नए सिरे से शुरू करने और जिंदगी के अस्थायी होने के भाव को समझने में माहिर होती हैं। जो आया है , वो लौटेगा।
कविता से तिनका तिनका मध्यप्रदेश की शुरुआत होती है। कुछ जेल के भीतर की तस्वीरें भी इस किताब में मौजूद हैं। और येतस्वीरें हमें जेल के भीतर के माहौल से रूबरू करवाती हैं।
थोड़ी और जेलें
थोड़ी और सिकुड़ती जगह
थोड़ी कम हवा
सब कुछ थोड़ा
पर इंतजार बड़ा।।
कविता अपने आप में एक अनूठा प्रयोग लगती है।
जेलों के बिना समाज नहीं पर जेलें अपराध के हर सवाल का जवाब भी नहीं। जेलों की मौजूदगी से अपराधों का खात्मा हुआ हो, ऐसा नहीं है और जो जेलों में हैं, वे सभी अपराधी ही हों, ऐसा भी कोई प्रमाण नहीं है। इसलिए दुनिया की हर जेल समाज से कटा एक टापू है जहां से सवाल झांकते हैं।
किताब कि ये मात्र पंक्तियां ही नहीं है अपितु ये हमें सोचने पर मजबूर करती हैं। कि क्या जेल में सिर्फ कोई अपराध करके ही जाया जा सकता है। कभी कभी तो बेकसूर होने के बाद भी लोग जेलों में ठूंस दिए जाते हैं। और ऐसा अभी से नहीं मुगलों, अंग्रेजों के राज में भी होता था। भारत देश मे चार लाख उन्नीस हजार से भी अधिक कैदी बन्द हैं। जिनमें से करीबन तीन लाख विचाराधीन केस के मामले में फंसे हुए हैं। तिनका तिनका मध्यप्रदेश बताती है कि अकेले मध्यप्रदेश मब करीबन चालीस हजार कैदी मौजूद हैं।
जेल हमें यह बताती है कि यहां ऊंची आवाज में बोलना मना है। जेलें रंगों का बायोस्कोप हैं तो ये लिखती भी हैं। सुभद्रा कुमारी चौहान से लेकर माखन लाल चतुर्वेदी भवानी प्रसाद मिश्र, गांधी, भगतसिंह आदि जैसे हजारों लाखों नाम हैं जिन्होंने जेल के भीतर सृजन का काम किया है। तिनका के इतिहास कि बात करें तो यह 2013 में सामने आया। यूं तो लेखिका कहती हैं कि उन्होंने ने प्रयास 1993 से ही शुरू कर दिया था। परंतु मुक्कमल हुआ 2013 में आकर। लता मंगेशकर सरीखी आवाज की धनी लेखिका जेल का नुमाइंदा नहीं करती बल्कि जेल के भीतर से कला और सृजन को भी बाहर लेकर आती है।
जेलों पर किया गया यह काम अपने आप में मौलिक और काबिले तारीफ है। तिनका तिनका तिहाड़ पुस्तक तो गिनीज बुक रिकॉर्ड तक में दर्ज हो चुकी है। तिनका तिनका की सभी श्रृंखला में जेल के भीतर की प्रतिभाओं के साथ साथ वहां का मुआयना करती तस्वीरें भी इसमें साझा की गई हैं। ये तस्वीरें किसी भी संवेदनशील हृदय के व्यक्ति में दया भाव पैदा करने के लिए काफी है।
Book Review By Tejas Poonia
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