Saturday, October 24, 2020

वेब सीरीज रिव्यू : राजनीति, हिंसा से भरपूर कहानी मिर्जापुर


 


कलाकार : पंकज त्रिपाठी, अली फजल, दिव्येंदु शर्मा, विक्रांत मैसी, कुलभूषण खरबंदा, राजेश तैलंग, श्रिया पिलगांवकर, रसिका दुग्गल, शीबा चड्ढा, शुभ्रज्योति भारत और अन्य.

निर्देशक : गुरमीत सिंह, करण अंशुमान 
प्लेटफॉर्म - अमेजन प्राइम 

मिर्जापुर 2  का बेसब्री से इंतजार करने वालों का इंतजार  समय से पहले ही खत्म हो गया। 'मिर्जापुर 2' कहानी में पहले सीजन की तरह घात-प्रतिघात खूब है और दिवाली से पहले ही इसमें गोली, बारूद और तमंचों की आतिशबाजी भी जमकर दिखाई गई है। बावजूद इसके  पहले दो एपिसोड की कहानी थोड़ी स्लो है। दूसरा इसमें पहले सीजन की भांति महिलाएं सिर्फ सेक्स ऑब्जेक्ट के तौर पर नहीं है। बल्कि  इसमें महिलाओं का कैरेक्टर मजबूत है। कालीन भैया यानी पंकज त्रिपाठी एक बार फिर अपने किरदार में कमाल किया है। कालीन भैया के बेटे मुन्ना त्रिपाठी का किरदार निभा रहे दिव्येंदु शर्मा ने पिछले सीजन की तरह ही बिगड़ैल युवक को जिंदा रखा है।

इस बार कहानी पिछली बार से ज्यादा ट्विस्ट लिए हुए है। 'मिर्जापुर 2' की कहानी केवल राजा के बारे में नहीं है बल्कि उनके सिपाहियों, रानियों और उनकी वफादारी की भी है।  कुछ ऐसे सीन भी इसमें  हैं, जिन्हें देखते हुए धैर्य की जरूरत होगी है तो कुछ ऐसे सीन भी हैं जिन्हें देखते हुए आपका मुंह खुला का खुला रह जाएगा। गुड्डू पंडित और गोलू गुप्ता, मुन्ना त्रिपाठी, कालीन भैया की बीवी बीना त्रिपाठी और शरद शुक्ला सभी मिर्जापुर की गद्दी पाने के लिए किसी पर भी हमलावर होते हुए दिखाई दे जाते हैं।


अली फजल उर्फ गुड्डू पंडित  'मिर्जापुर की गद्दी' के साथ भाई (विक्रांत मैसी) और पत्नी की मौत का बदला लेने आए हैं और इसमें उनका साथ देती है श्वेता त्रिपाठी यानी गोलू। गुड्डू पूरी सीरीज में घायल हैं और कदम-कदम पर गोलू उनका साथ दे रही हैं। जहां ये दोनों अपने बदले की तैयारी में लगे हैं, वहीं पिछली बार की ही तरह दिव्येंदु शर्मा यानी मुन्ना त्रिपाठी खुद को साबित करने में जुटे हुए हैं। सीरीज में जान डालने वाले कालीन भैया (पंकज त्रिपाठी) एक मजबूर पिता और पति के रूप में ही नजर आए हैं।  'मिर्जापुर 1' की कहानी मिर्जापुर और जौनपुर तक सीमित थी, लेकिन इस बार उसका विस्तार लखनऊ और बिहार के सिवान तक हुआ है। पॉलिटिक्स के तगड़े मसालों के साथ कहानी में कुछ ऐसे नए ट्विस्ट और टर्न्स हैं जिन्हें देखकर आप कहानी को रीयल लाइफ से जोड़ने पर मजबूर हो जाएंगे।


'मिर्जापुर 2' की एक चीज, जो इसे पिछली बार से अलग बनाती है, वह है 'स्त्री शक्ति'। पिछली बार जहां दर्शकों को स्ट्रॉन्ग फीमेल कैरेक्टर्स की कमी खली थी, वहीं इस बार शो के मेकर्स ने इस बात का पूरी तरह से ख्याल रखा है। फीमेल कैरेक्टर्स के साथ खूब स्क्रीनटाइम शेयर किया गया है। कहानी में सभी महिलाएं फिर चाहे वह गोलू गुप्ता का किरदार निभा रहीं श्वेता त्रिपाठी हों, बीना के किरदार में रसिका दुग्गल हों, डिंपी के किरदार में हर्षिता गौर हों या माधुरी के किरदार में ईशा तलवार, सभी पिछली बार से ज्यादा सशक्त दिखाई दी है। 

कहानी की बात करें तो गुड्डू पंडित और गोलू अपने कनेक्शन से बिहार के सिवान के दद्दा त्यागी के बेटे भरत त्यागी से अफीम के बिजनेस के लिए बात करते हैं और उसे मना लेते हैं। दूसरी तरफ, रतिशंकर शुक्ला का बेटा शरद शुक्ला अपने पिता की मौत का बदला लेने के लिए कालीन भैया और मुन्ना त्रिपाठी के साथ आ जाता है। शरद को गुड्डू से अपनी पिता की मौत का बदला तो लेना ही है, लेकिन त्रिपाठियों से मिर्जापुर भी छीनना है। कालीन भैया व्यापारी और बाहुबली से आगे बढ़ते हुए राजनेता बनने की चाह में अपने बेटे मुन्ना त्रिपाठी की शादी मुख्यमंत्री की विधवा बेटी माधुरी से शादी करा देते हैं। कालीन भैया की पत्नी बीना त्रिपाठी एक लड़के को जन्म देती है। उस बच्चे का पिता कौन है, यह सस्पेंस है।

गुड्डू के पिता अपराध की आंच में सुलगते और बर्बाद होते मिर्जापुर को बचाने तथा अपने बेटे बाबलू और बहू स्वीटी को न्याय दिलवाने की जद्दोजहद में लगे रहते हैं। इसमें उनका साथ देते हैं आईपीएस अधिकारी मौर्या। अंत आते-आते एक बार फिर मिर्जापुर की गद्दी की लड़ाई कालीन भैया और गुड्डू पंडित के बीच में सिमट जाती है। बीना अपने पति और सौतेले बेटे मुन्ना के खिलाफ गुड्डू और गोलू का चुपके-चुपके साथ देती हैं। इसमें उनका क्या स्वार्थ है और मुन्ना त्रिपाठी और शरद शुक्ला का क्या होता है, इन सवालों का जवाब जानने के लिए आपको मिर्जापुर 2 देखना पड़ेगा।


सीरीज का सबसे शानदार कैरेक्टर रॉबिन उर्फ राधेश्याम अग्रवाल हैं। राधेश्याम यूं तो ऑलराउंडर हैं, लेकिन पेशे से इन्वेस्टमेंट का बिजनेस देखते हैं जो गुड्डू पंडित की बहन डिंपी से प्यार करते हैं और उनसे शादी करना चाहते है। रॉबिन का किरदार निभा रहे प्रियांशु पैन्यूली अपने किरदार के साथ न्याय करते हुए नजर आते हैं। 

 भाषा के लिहाज से देखा जाए तो मिर्जापुर-1 की तरह ही इसमें भी भरपूर गालियां हैं। शुरुआती दो एपिसोड की कहानी इतनी स्लो चलती है यह आपको बोर करती है। परन्तु  इसके बाद जैसे जैसे कहानी में जैसे-जैसे नए कैरेक्टर आते जाते हैं, तो कहानी उतनी ही पावरफुल नजर आने लगती है।

मिर्जापुर उत्तर प्रदेश के उस शहर की कहानी है, जो अभी तक कायदे का शहर नहीं बन सका है। जो देखने में भी कस्बा सा ज्यादा नजर आता है। हकीकत में भी मिर्जापुर बहुत कुछ आज भी ऐसा ही है। 

अभिनय के लिहाज से मिर्जापुर अच्छी वेब सीरीज है। कई कलाकारों का काम तो चौंकाने वाला है। खासकर अली फजल और दिव्येंदु शर्मा का अभिनय। वहीं गुड्डू पंडित के रूप में अली फजल का लुक किरदार के मुताबिक ढला हुआ है। बबलू पंडित के किरदार में विक्रांत मैसी जंचे हैं। उनकी आंखों में संकोच, डर और गुस्सा किरदार के मुताबिक ही है। 


कुलमिलाकर मिर्जापुर एक अच्छी कहानी हो सकती थी। लेकिन रियलिटी के नाम पर सेक्स, वायलेंस और कई बेसिर पैर की बातें निराश करती हैं। स्थानीयता पर भी  बहुत ध्यान नहीं दिया गया है। कई जगह लगता है कि सीरीज को मसालेदार बनाने के लिए सेक्स और हिंसा के सीन जबरदस्ती ठूंस दिए गए है।   सबसे बड़ी बात मिर्जापुर की पहचान विंध्याचल से है वो सीरीज के 9 एपिसोड में कहीं दिखता ही नहीं। 

अपनी रेटिंग - ढाई स्टार

Tuesday, October 20, 2020

रिव्यू : मातृभाषा से प्रेम करना सिखाती है 'उड़ा ऐड़ा'

 

स्टारकास्ट: तरसेम जस्सर, नीरू बाजवा, पोपी जब्बाल, बीएन शर्मा, गुरप्रीत घुग्गी, करमजीत अनमोल, और अन्य


 निर्मित : क्षितिज चौधरी, नरेश कथूरिया, दीपक गुप्ता, ररूपाली गुप्ता


 निर्देशित: क्षितिज चौधरी



विदेशी भाषाओं को लेकर उन पर हमारी ऐसी एकाग्रता है कि यह आशंका है कि पंजाबी 50 वर्षों के भीतर इस्तेमाल होना बन्द हो जाएगी। पंजाबी भाषा को बचाने के लिए भी यह फ़िल्म सिनेमा शैदाइयों के दिलों में जगह बनाने में कामयाब हुई है। क्या आप जानते हैं शहरी भारत में, 44% लोग द्विभाषी हैं और 15% त्रिभाषी हैं - हालांकि, ग्रामीण क्षेत्रों में आंकड़े 22% और 5% हैं। और जिस तरह से हमारा मोह अपनी माँ बोली को छोड़कर विदेशी भाषाओं को अपनाने का हो रहा है उस लिहाज से एक दिन जरूर हम अपनी माँ बोली को भूल जाएंगे। खैर


उड़ा ऐड़ा फिल्म एक ऐसी महिला की कहानी है जो अपने बेटे को अंग्रेजी स्कूल में दाखिला दिलाना चाहती है, ताकि उसके बच्चे को उज्ज्वल भविष्य मिले लेकिन मुख्य रूप से उसका मकसद उसे धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलना सिखाना है।    फिल्म एक सिनेमाई बंडल है जहां सब कुछ एक साथ ढेर किया गया है और इसके लिए वे दर्शकों को बांधें रखने में कामयाब हुए हैं।  यह फिल्म एक सपने के नोट पर शुरू होती है जिसमें तरसेम और नीरू का रोमांस भी है। 


 10 साल के बच्चे की माँ के रूप में नीरू का अभिनय आपको चकरा देता है। गुरप्रीत घुग्गी हर बार की तरह लाजवाब रहे। और उन्होंने फौजी ताया का किरदार निभाया है। बीएन शर्मा का कहना ही क्या। बी ए शर्मा पंजाबी फिल्मों के सुपरस्टार हैं। जो इस फ़िल्म में तरसेम के पिता का किरदार निभाते हैं, जो घर पर बहुत कुछ नहीं करता है। 

 करमजीत अनमोल फिल्म में एक सुरक्षा गार्ड की भूमिका निभाते हैं और उनका चरित्र इतना नया नहीं है। पोपी जब्बाल ने स्कूल समन्वयक की भूमिका निभाई है और वह अच्छा काम करती है।  कम से कम यह लड़की अपनी भूमिका में अच्छी तरह से फिट बैठती है और इसने अच्छा प्रदर्शन भी किया है।  


 फिल्म का पहला भाग अंग्रेजी सीखने और अंग्रेजी स्कूल में प्रवेश करने के बारे में है और दूसरा भाग एक पहेली के रूप में सामने आता है।  संभवतः फ़िल्म की पूरी टीम ने लाजवाब काम किया है। 

 फिल्म का डायरेक्शन ठीक रहा लेकिन उसे और बेहतर किया जा सकता था। स्क्रीनप्ले में भी कसावट की कमी नजर आई।  

 एक कैदा ले दे बेबे मैनु उड़े ऐड़ा दा गाना दिल को छू जाता है। 

 अपनी रेटिंग - 3 स्टार


 

Monday, October 19, 2020

रिव्यू : दिलो दिमाग पर छाई 'भूरी'



बहुत कम फ़िल्में हैं जो आपको पलक झपकने तक नहीं देतीं।  भूरी निश्चित रूप से उनमें से एक है।  यह वासना, प्रभुत्व और अंधविश्वास की खोज करती हुई फ़िल्म है।  ग्रामीण मानसिकता की पृष्ठभूमि पर निर्मित, भूरी एक महिला का संघर्ष है, जो सत्ता में रहने वालों और अंधविश्वासों पर टिके रहने वालों के बीच की कहानी कहती  है।

 प्लॉट 
 फ़िल्म एक लड़की, भूरी की कहानी है, जो अपने बिसवां दशा में है और यह बेहद आकर्षक है।  उसे अपने गाँव के लोगों द्वारा मनहूस (अशुभ) माना जाता है।  भूरी ने तीन बार शादी की, और उसके सभी पति मर गए।  ग्रामीणों का मानना ​​है कि वह किसी भी शादी में एक अभिशाप है, और इसकी वजह यह है कि तीनों पतियों की मृत्यु हो गई।  इस सब के कारण उसे गाली दी जाती है और प्रताड़ित किया जाता है।  उसकी शादी अब एक 54 वर्षीय ईंट भट्ठा मजदूर, धनवा से हुई है। ग्रामीणों का मानना ​​है कि उसकी वजह से धनवा की भी मौत हो जाएगी।  सत्ता में रहने वाले सभी लोग- राजनेता, पुलिस और पुरुष उसके साथ सोना चाहते हैं और ऐसा करने के लिए वे धनवा पर दबाव डालते हैं और उसे परेशान करते हैं। धनवा जब तक बीमार नहीं पड़ता तब तक वह भूरि को सभी शातिरों के चंगुल से बचाने की कोशिश करता है।  तब जब भूरी सभी के बीच खुद को नीलाम करती है और फिर उसके साथ कुछ अविश्वसनीय होने लगता है जो पूरे गांव को सदमे की स्थिति में छोड़ देता है।

 फिल्म एक स्टनर है और इसमें भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों की जमीनी हकीकत को दर्शाया गया है।  फिल्म कुछ दिलचस्प मोड़ हैं। जो आपकी आंतरिक आत्मा तक को हिला देती है।  फिल्म वास्तव में समाज का स्कैन करती है और हमारे समाज की सच्चाई को दर्शाती है।  फिल्म में केवल एक खलनायक है, और वह इसकी ईमानदारी है।  इस फ़िल्म के माध्यम से ग्रामीण स्तर पर हमारे समाज में महिलाओं की स्थिति को आसानी से महसूस किया जा सकता है।

 स्टार परफॉरमेंस फिल्म में कोई बड़ी स्टार कास्ट नहीं है, लेकिन भारतीय सिनेमा के कई जाने माने चेहरे हैं।  पीपली लाइव फेम रघुवीर यादव, धनवा की भूमिका निभा रहे हैं, जिन्होंने शानदार ढंग से भूमिका निभाई है।  जबकि मार्श पौर ने वास्तव में अपने अभिनय और संवाद के साथ अपनी भूमिका साबित की है, क्योंकि उन्होंने भूरी को चित्रित किया था।  आदित्य पंचोली, कुनिका सदानंद, शक्ति कपूर, मोहन जोशी, मुकेश तिवारी, मनोज जोशी और सीताराम पांचाल ने भी महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाई हैं और अपने अपने किरदारों के साथ न्याय किया है।

 फ़िल्म में क्या है?

 1. नाटक और वास्तविकता का एक बहुत ही सही और सटीक चित्रण। साथ ही  फिल्म में ग्रामीण क्षेत्रों की विकट स्थितियों को बिना किसी दोष के साथ प्रदर्शित किया गया है और यह दिखाया गया है कि किस तरह पुरुषवाद और अंधविश्वासों ने तर्क और मानवता पर नियंत्रण किया है।

 2. कुछ गहन संवाद डिलीवरी जो कि खुरदरी, गंदा और आम तौर पर ग्रामीण होती है।

 3. दर्शकों को एक मजबूत और सीधा संदेश।

 4. कुछ व्यंग्यात्मक टैपिंग गाने।

 फ़िल्म में क्या नहीं है?

 1. फिल्म में ग्रामीण सेटअप, पंचायत, जातिवाद, आदि के कुछ महत्वपूर्ण हिस्से याद हैं। किंतु उन्हें खूबसूरती से नहीं फिल्माया जा सका।

 2. अंधविश्वास और पुरुषवाद पर अंकुश लगाने की समस्या का कोई हल नहीं है।

 3. कहानी में कुछ-कुछ गायब हैं। या कहें झोल हैं।

 4. फ़िल्म का चरमोत्कर्ष बेहतर हो सकता था।

  यह देखना दिलचस्प होगा कि वास्तविकता और नाटक के साथ फिल्माई गई यह कहानी जो कुछ मूर्त गीतों से सराबोर है। वह दर्शकों को कब तक याद रह पाती है।  एक आउट-ऑफ-द-बॉक्स फिल्म भूरी आपको ऐसी उत्कृष्ट कृतियों के लिए तरसा जरूर जाएगी।
  अपनी रेटिंग - 4 स्टार 
Review By Tejas Poonia

Sunday, October 18, 2020

बुक रिव्यू : आशा की किरण है 'तिनका तिनका मध्यप्रदेश'

 

मरजानी, तिनका तिनका की श्रृंखला, तिनका तिनका तिहाड़, तिनका तिनका मध्यप्रदेश, तिनका तिनका डासना, रानियाँ सब जानती है आदि जैसी प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय किताबें लिखने वाली लेखिका एवं लेडी श्री राम कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ वर्तिका नन्दा आज अपनी एक अलग  पहचान बना चुकी हैं। देश के विभिन्न जेलों का अध्ययन करके वहाँ से कविताएं और कहानियां निकालने का अनूठा काम इन्होंने किया है। यूं तो मैंने लेखिका वर्तिका नन्दा को हमारे महाविद्यालय किरोड़ीमल में एक सेमिनार के दौरान सुन चुका हूँ। बेहद सुरीली, सुमधुर आवाज और बहुमुखी प्रतिभा की धनी इस लेखिका के द्वारा जेलों पर किए गए कार्य के लिए राष्ट्रपति से सम्मान भी प्राप्त हो चुका है। तिनका तिनका फाउंडेशन की शुरुआत करके जेलों के भीतर एक बेहतर माहौल इन्होंने तैयार किया है। पुस्तक समीक्षा की कड़ी में वर्तिका नन्दा की लिखी पुस्तक तिनका तिनका मध्यप्रदेश पर बात करूं उससे पहले तिनका तिनका तिहाड़ पुस्तक में एक महिला कैदी कि कविता है।

सुबह लिखती हूँ शाम लिखती हूँ।
इस चारदीवारी में बैठी जब से, तेरा नाम लिखती हूं
इन फासलों में जो गम की जुदाई है
उसी को हर बार लिखती हूं

यह मात्र कविता ही नहीं अपितु जेल के भीतर मौजूद उस महिला कैदी की अंतर्व्यथा भी प्रकट करती है। लेखिका वर्तिका नन्दा उस पार के संसार की बातें करती हैं जो 10 बाई 10 के अंधेरे कमरे में  अपनी जिंदगी काट रहे हैं। लेखिका जेल और उस संसार को चुनती है जिसके बारे में हम कभी बात नहीं करना चाहते। इन जेलों में फूलों की क्यारी नहीं है, खुला आसमान नहीं है। और तो और पेड़ की छांव भी उन्हें मयस्सर नहीं है। है तो बस एक खिड़की  जिसमें छोटे-छोटे से सुराख हैं उनमें भी दरवाजा नहीं है। लोहे का गेट है और उस गेट पर है एक बड़ा ताला जड़ा।  रात का एलान शाम 5 बजे ही हो जाता है। तब बचे-खुचे ख्वाब भी उसी बड़े कमरे में बंद हो जाते हैं और करवट बदलने तक की इजाजत लेते हैं। यहां सिर के नीचे कोई तकिया नहीं, एक छोटा-सा कपड़ा है।

खैर इसी श्रृंखला में समीक्षार्थ हेतु किताब है तिनका तिनका मध्यप्रदेश। 'जेल’ शब्द सुनते ही ऊंची दीवारों से घिरे एक परिसर, तंग कोठरियां, लोहे के गेट की सलाखों के पीछे पकड़े गए लोगों के अनजाने चेहरों का दृश्य आंखों के आगे आ जाता है। जेल का यह स्याह पक्ष है तो उसमें अपनी सजा काट रहे लोगों में कला और रचनात्मकता एवं सृजनात्मकता का एक उजला पक्ष भी मौजूद है और उसी पक्ष से दो चार करवाती है किताब ‘तिनका तिनका मध्यप्रदेश’। यह पुस्तक 19 लोगों के जरिए जेल की कहानी कहती है- मध्य प्रदेश की जेलों में बंद बारह पुरुषों, दो महिलाओं, चार बच्चों और एक प्रहरी के जरिए जेल के हर पक्ष को इसमें सुंदर तस्वीरों के साथ सँजोया गया है। बच्चों की उम्र छह साल से कम हैं और उनमें से तीन का तो जन्म ही जेल में हुआ है।

जेल में बाहर से न कोई रसोइया आता है, न हज्जाम।
जेलें सब कुछ नए सिरे से शुरू करने और जिंदगी के अस्थायी होने के भाव को समझने में माहिर होती हैं। जो आया है , वो लौटेगा।

कविता से तिनका तिनका मध्यप्रदेश की शुरुआत होती है। कुछ जेल के भीतर की तस्वीरें भी इस किताब में मौजूद हैं। और येतस्वीरें हमें जेल के भीतर के माहौल से रूबरू करवाती हैं।

थोड़ी और जेलें
थोड़ी और सिकुड़ती जगह
थोड़ी कम हवा
सब कुछ थोड़ा
पर इंतजार बड़ा।।

कविता अपने आप में एक अनूठा प्रयोग लगती है।
जेलों के बिना समाज नहीं पर जेलें अपराध के हर सवाल का जवाब भी नहीं। जेलों की मौजूदगी से अपराधों का खात्मा हुआ हो, ऐसा नहीं है और जो जेलों में हैं, वे सभी अपराधी ही हों, ऐसा भी कोई प्रमाण नहीं है। इसलिए दुनिया की हर जेल समाज से कटा एक टापू है जहां से सवाल झांकते हैं।

किताब कि ये मात्र पंक्तियां ही नहीं है अपितु ये हमें सोचने पर मजबूर करती हैं। कि क्या जेल में सिर्फ कोई अपराध करके ही जाया जा सकता है। कभी कभी तो बेकसूर होने के बाद भी लोग जेलों में ठूंस दिए जाते हैं। और ऐसा अभी से नहीं मुगलों, अंग्रेजों के राज में भी होता था। भारत देश मे चार लाख उन्नीस हजार से भी अधिक कैदी बन्द हैं। जिनमें से करीबन तीन लाख विचाराधीन केस के मामले में फंसे हुए हैं। तिनका तिनका मध्यप्रदेश बताती है कि अकेले मध्यप्रदेश मब करीबन चालीस हजार कैदी मौजूद हैं।
जेल हमें यह बताती है कि यहां ऊंची आवाज में बोलना मना है। जेलें रंगों का बायोस्कोप हैं तो ये लिखती भी हैं। सुभद्रा कुमारी चौहान से लेकर माखन लाल चतुर्वेदी भवानी प्रसाद मिश्र, गांधी, भगतसिंह आदि जैसे हजारों लाखों नाम हैं जिन्होंने जेल के भीतर सृजन का काम किया है। तिनका के इतिहास कि बात करें तो यह 2013 में सामने आया। यूं तो लेखिका कहती हैं कि उन्होंने ने प्रयास 1993 से ही शुरू कर दिया था। परंतु मुक्कमल हुआ 2013 में आकर। लता मंगेशकर सरीखी आवाज की धनी लेखिका जेल का नुमाइंदा नहीं करती बल्कि जेल के भीतर से कला और सृजन को भी बाहर लेकर आती है।

जेलों पर किया गया यह काम अपने आप में मौलिक और काबिले तारीफ है। तिनका तिनका तिहाड़ पुस्तक तो गिनीज बुक रिकॉर्ड तक में दर्ज हो चुकी है। तिनका तिनका की सभी श्रृंखला में जेल के भीतर की प्रतिभाओं के साथ साथ वहां का मुआयना करती तस्वीरें भी इसमें साझा की गई हैं। ये तस्वीरें किसी भी संवेदनशील हृदय के व्यक्ति में दया भाव पैदा करने के लिए काफी है।

Book Review By Tejas Poonia