Sunday, November 15, 2020

रिव्यू : जज्बे और बुलंद हौसलों की कहानी 'छलाँग'



फिल्म:छलांग


कलाकार : राजकुमार राव, नुसरत भरुचा, मोहम्मद जीशान अयूब, सौरभ शुक्ला, सतीश कौशिक, बलजिंदर कौर 

निर्देशक :हंसल मेहता


राजकुमार राव और नुसरत भरुचा स्टारर फिल्म छलांग अमेजन प्राइम वीडियो पर रिलीज हो चुकी है। इस फ़िल्म का मुझे विशेष रूप से इंतजार था।  जिंदगी में हिम्मत ना हारना जैसी सीख बहुत सी जगह से मिलती रहती है। लेकिन बात तब बनती है जब हम उस सीख को अपने जीवन में धारण कर पाएं। क्योंकि जब तक हम खुद अपने   लिए कुछ नहीं करते तब तक दूसरों का बोलना जाया ही जाता है। अपने हालातों को बेहतर बनाने, आगे बढ़ने, की सीख यह फ़िल्म देती है। 

इधर बॉलीवुड में खेलों पर आधारित कई फिल्में आई हैं। और अमूमन हर खेल से जुड़ी फ़िल्म में जज्बा विशेष रूप से देखने को मिलता है। 

फिल्म की कहानी  हरियाणा के एक गाँव से शुरू होती है जहां  महेंद्र हुड्डा उर्फ मोन्टू यानी राजकुमार राव एक सरकारी स्कूल का पीटीआई  टीचर है। मोन्टू की जिंदगी बड़े आराम से कट रही है। वो स्कूल के बच्चों को कभी-कभी कुछ सिखा देता है अन्यथा खेल के मैदान में बैठा बस टाइमपास करता रहता है। मोन्टू ने अपनी जिंदगी में अभी तक कुछ बड़ा नहीं किया है। वह हर चीज को अधूरा छोड़ देता है। और तो और उसकी नौकरी भी उसे अपने पिता के कहने पर उसी स्कूल में मिली है, जिसमें वो बचपन में पढ़ा था। 


मोन्टू की दोस्ती उसी के स्कूल टीचर वेंकट यानी सौरभ शुक्ला से है। सब सही चल रहा है लेकिन उसकी जिंदगी स्कूल में नीलिमी मैडम यानी नुसरत भरुचा के आते ही बदलने लगती है। नीलिमा जो एक कंप्यूटर टीचर है, को  पटाने के लिए मोन्टू कोशिशें करने लगता है। लेकिन अब प्रेमी कहानी शुरू हुई है तो विलेन भी होगा ही। यहां आते  हैं नये पीटी टीचर मिस्टर सिंह यानी मोहम्मद जीशान अयूब। मिस्टर सिंह के आने से मोन्टू की नौकरी, छोकरी और इज्जत सब छिनने की कगार पर आ जाती है। ऐसे में अपना हीरो क्या फैसला लेता। और वह स्पोर्ट्स के कौन-कौन से कम्पटीशन लड़ने का फैसला करता है जानने के लिए आपको फ़िल्म देखनी होगी। इसके अलावा खेल देखते हुए आपके मनोभाव भी उसी दिशा में गोते खाने लगते हैं। और आप भी चाहते हैं कि अपना हीरो जीते।

 

ख़ैर परफॉरमेंस की बात करें तो राजकुमार राव बॉलीवुड के उन एक्टर्स में से हैं, जो आपको कभी निराश नहीं करते। उन्हें कोई भी रोल दे दिया जाए वो उसे बहुत आराम से निभा जाते हैं। छलांग में भी उन्होंने ऐसा ही किया है। इसके अलावा नीलिमा के रोल में नुसरत भरुचा ने अच्छा काम किया है। उनका रोल भले ही छोटा रहा हो लेकिन उनका काम और अंदाज देखने लायक है। 


बात सपोर्टिंग किरदारों की हो तो मोन्टू के पिता के रोल में सतीश कौशल, दोस्त और टीचर के रोल में सौरभ शुक्ला, मां के रोल में पंजाबी सिनेमा की बेहतरीन अदाकारा बलजिंदर कौर और स्कूल की प्रिंसिपल के रोल में ईला अरुण ने कमाल का काम किया है। किसी भी सीन में ये मंझे हुए एक्टर्स आपको निराश नहीं करते। फिल्म के 'विलेन' मिस्टर सिंह के रोल में मोहम्मद जीशान अयूब ने भी बढ़िया काम किया है।  स्कूल के बच्चों की तारीफ विशेष रूप से करनी होगी वे सभी कमाल के थे। यदि कहूँ कि उन्होंने ही इस फिल्म में जान डाली है तो कोई बड़ी बात नहीं होगी। 



डायरेक्टर हंसल मेहता जानते हैं कि इतनी बढ़िया स्टारकास्ट के लिए उन्हें अच्छी कहानी चाहिए और उन्होंने वही दर्शकों को दी भी है। फ़िल्म की कहानी लव रंजन ने लिखी है और बहुत समय बाद लव रंजन की लिखी कहानी में कोई लड़की लड़के को ठगने का काम नहीं कर रही है।  स्कूल और पीटी टीचर की जिंदगी, हरियाणा के गांव और अन्य सेट को हंसल मेहता ने करीने से दिखाया है। फिल्म का म्यूजिक बढ़िया है। बैकग्राउंड स्कोर खास करके खेल के समय लाजवाब बन पड़ा है। फ़िल्म में कुछ कमियां भी नजर आती हैं। लेकिन उन्हें नजरअंदाज करके इसे देखा जाए तो एक एंटरटेनिंग है और जीवन की सीख देकर जाती है। 



अपनी रेटिंग 3.5



Review By Tejas Poonia


Sunday, November 8, 2020

बुक रिव्यू : दलित आंदोलन से गुजरते हुए हिन्दी दलित आत्मकथाएं - एक मूल्यांकन : पुनीता जैन

 



पुस्तक : हिन्दी दलित आत्मकथाएँ, एक मूल्यांकन

लेखक : पुनीता जैन

प्रकाशक : सामयिक पेपरबैक्स, नई दिल्ली

संस्करण : 2018

मूल्य : रु. 300

हिन्दी साहित्य में अवतरित हुए तमाम आंदोलनों-विमर्शों में स्त्री विमर्श, आदिवासी विमर्श, दलित विमर्श आदि ने हिन्दी साहित्य की चिंतन प्रक्रिया को एक नवीन मोड़ प्रदान किया है । इन विमर्शों ने साहित्य की परंपरागत गति को आम जन के दर्द से जोड़कर जो नवीनता उत्पन्न की है, उससे साहित्य में विमर्श के मायने बदले हैं । हिन्दी में दलित आत्मकथाओं के मूल्यांकन के माध्यम से लेखिका पुनीता जैन ने इन मान्यताओं को एक नवीन दृष्टि प्रदान करते हुए दलित आत्मकथाओं के चिंतन को सर्वग्राह्यता प्रदान की है ।

हिन्दी के नवजागरण काल से ही दलित-विमर्श ने साहित्य में अपना स्थान निर्धारित किया । दलितों के साथ-साथ गैर-दलित लेखकों ने भी इस आंदोलन का समर्थन किया । साहित्य में मुख्यधारा की विभिन्न प्रतिष्ठित पत्रिकाओं ने इस विषय पर विशेषांक निकालकर दलित आंदोलन को तीव्रता प्रदान की । पिछले दशकों में दलितों के बीच से कई अच्छे लेखक सामने आए, जिन्होंने दलितों की पीड़ा को ‘भोगे हुए यथार्थ’ के रूप में सामने रखा । इन लेखकों ने कविता, कहानी, उपन्यास, लेख तथा आत्मकथाओं के माध्यम से दलितों के सदियों पुराने दर्द को समाज से रूबरू करवाया । इन विधाओं में आत्मकथाओं का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा । दलित विमर्श को ‘हंस’ के वर्ष दो हजार चार में निकले विशेषांक ने एक विशेष गति प्रदान की । 

वास्तव में देखा जाए तो दलित लेखन में जो ‘भोगा हुआ यथार्थ’ था, वह दलित आत्मकथाओं में विशेष रूप से उजागर हुआ । इन आत्मकथाओं में दलित लेखकों ने अपने समय और समाज को स्वयं की आंखों से देखा, परखा और भूतकाल से तुलना करते हुए उस यथार्थ को अपने लेखन में उतारा । समीक्ष्य पुस्तक ‘हिन्दी दलित आत्मकथाएं, एक मूल्यांकन’ में लेखिका पुनीता जैन ने दलित लेखकों द्वारा लिखी गईं लगभग सभी आत्मकथाओं को बड़ी ही सूक्ष्मता के साथ कुछ ऐसे प्रस्तुत किया कि इनआत्मकथाओं से अन्जान पाठक भी लेखक और उसके समाज के सच से परिचित हो सके । खालिस परिचित ही नहीं बल्कि गहराई से परिचय प्राप्त कर सके । 

पुस्तक के ‘फ्लैप’ पर डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे लिखते हैं “सृजनात्मक साहित्य के निर्माण के मूल में लेखक की अकुलाहट, बेचैनी-यही एकमात्र बड़ा कारण होती है । लेखक अपनी अनुभूति के बोझ से मुक्त होने हेतु लिखने लगता है । सृजनात्मक समीक्षक की भी यही स्थिति होती है । एक मनुष्य होने के नाते पुनीता जैन, धर्म, जाति, पन्थ के परे जाकर दलितों की संवेदनाओं से, उनकी व्यथाओं से उनकी मर्मांतक पीड़ाओं से इस कदर प्रभावित, प्रेरित हो जाती हैं कि वह उनकी सहयात्री ही बन जाती हैं ।  इस सहयात्रा में एक ओर वे उस पीड़ा को भोगती भी हैं तथा उसी समय उस पीड़ा को, उसके भोगनेवाले को पूरी तटस्थता से देखती भी हैं ।” 

वास्तव में मूल पुस्तकों पर किए गए लेखन की पहली शर्त होती है कि लेखक मूल के अंतर्मन में पहुँचकर उस मूल संवेदना को निकालकर सामने लाए जिसको पढ़ते हुए ही मूल को पढ़ने और समझने की जिज्ञासा बढ़ जाए । उक्त पुस्तक में लेखिका ने मूल रचनाओं की उस मूल जड़ को बखूबी पकड़ा है । 


(सुनील मानव)

पुस्तक का आरंभ भूमिका के परिचय के साथ दलित साहित्य और उसमें भी दलित आत्मकथाओं की पृष्ठभूमि के परिचय से होता है जो इस पुस्तक की मूल विषय वस्तु का आधार बनी है । 

हिन्दी साहित्य की पृष्ठभूमि पर यदि दृष्टि डालें तो इस साहित्य की रचना में कुछ सामाजिकताओं के साथ स्वान्त:सुखाय एवं वाग्विलाश का भाव अधिक रहा है लेकिन दलित साहित्य दलितों के साथ सदियों से चले आ रहे अन्याय एवं अत्याचार, समाज में उनकी दयनीय स्थित अथवा कहा जाए कि वर्णव्यवस्था के अत्याचारों के प्रति स्वर उठाने की प्रक्रिया में हुआ । लेखिका पुनीता जैन ने प्रथम अध्याय ‘हिन्दी दलित साहित्य की पृष्ठभूमि’ में इन पूरी प्रकिया की पृष्ठभूमि को स्पर्श करते हुए वेदकाल से लेकर अंबेडकर के आंदोलन तक अपनी सूक्ष्म दृष्टि दौड़ाई है । इस संदर्भ में आपने इस बात को प्रमुखता से इंगित किया है कि वर्तमान में यदि कहा जाए कि अब से पहले दलितों को लेकर कोई आंदोलन नहीं हुए अथवा साहित्यिक रूप में कुछ लिखा नहीं गया तो यह बात पूरी तरह सही नहीं है । आप लिखती हैं “वर्तमान दलित लेखन, साहित्य पर यह आरोप नहीं लगा सकता कि उसके पक्ष में कभी आवाज नहीं उठी । वर्णव्यवस्था के विरोध में चार्वाक् से कबीर तक और कबीर से प्रेमचंद तक की लम्बी परम्परा दिखाई देती है ।” आपका यह निष्कर्ष पुस्तक के प्रति तटस्थता को मज़बूती प्रदान करता है । 

पुस्तक के द्वितीय अध्याय ‘हिन्दी दलित आत्मकथन का परिदृश्य’ में लेखिका ने वर्तमान दलित लेखन की प्रेरणा के बिन्दुओं के साथ-साथ मराठी के दलित लेखन को हिन्दी दलित साहित्य लेखन की पृष्ठभूमि के रूप में प्रस्तुत किया है । आपने हिन्दी साहित्य के आदिकाल के सिद्ध और नाथ साहित्य से लेकर मध्यकाल के संत कवियों की वाणियों को दलित साहित्य की नींव के रूप में इंगित किया है । इसके आगे लेखिका कहती हैं कि “आधुनिक काल में महाराष्ट्र में ज्योतिबा फुले व अंबेडकर के प्रभाव ने कथित शूद्र को ‘दलित’ नाम दिया तथा अन्याय के विरुद्ध खड़े होने की प्रेरणा दी । इसके प्रभाव से हुए सामाजिक, शैक्षिक जागरण ने उनके उत्पीड़न के दीर्घ इतिहास को वाणी देना आरम्भ किया । हिन्दी में दलित लेखन का प्रादुर्भाव इसी पृष्ठभूमि में मराठी साहित्य के प्रभाव से हुआ ।” अपने इस निष्कर्ष को सिद्ध करते हुए पुनीता जी तमाम संदर्भ भी प्रस्तुत करती हैं जो उनकी शोध दृष्टि की भी परिचायक है । 

तृतीय अध्याय ‘हिन्दी दलित आत्मकथाएं और उनका सौन्दर्य-मूल्य’ के संदर्भ में लेखिका ने दलित आत्मकथाकारों की उस दृष्टि को समझने का प्रयास किया है जिसके तहत कोई लेखक लिख पाता है । अपने परिवेश की सुन्दरता को संपूर्णता में देखना और उसके सार्वभौम स्वरूप को शब्दों में बाँधना, किसी भी लेखक के लिए बहुत सहज नहीं होता है । कोई भी लेखक उस सत्य को तभी शब्दों में पिरो पाता है जब वह उस परिवेश का ‘भोक्ता’ हो । ‘भोक्ता’ होने से सत्य को समझना थोड़ा आसान हो जाता है और यहीं से आत्मकथ्य के सूत्रों का सूत्रपात हो जाता है । लेखिका ने इन अध्याय में दलित लेखकों को उनकी आत्मकथाओं के संदर्भ में इसी स्वरूप में समझने का प्रयास किया है । सौंदर्यशास्त्र और कुछ आगे बढ़ते हुए दलित सौंदर्यशास्त्र को और स्पष्टता प्रदान करते हुए लेखिका ने डॉ. तुलसीराम के शब्दों को सौंदर्यशास्त्र की स्थापना के रूप में प्रस्तुत किया है कि “सौंदर्यशास्त्र का उद्देश्य साहित्य के माध्यम से व्यक्ति की सामाजिकता को परिष्कृत करना और उसके जीवन को उच्च स्तरीय बनाना है । इस प्रकार सौंदर्यबोध वैयक्तिक जीवन को उसकी संदर्भवत्ता देने और सामाजिक सम्बद्धता को सुदॄढ़ करने व गहनता प्रदान करने का दायित्त्व निभाता है ।”

हिन्दी साहित्य के आरम्भ से लेकर वर्तमान परिवेश और उसकी केन्द्र की विषय वस्तु पर दृष्टि दौड़ाई जाए तो आदिकाल के नाथ, जैन और रासो साहित्य में आम आदमी नहीं दिखता; मध्यकालीन साहित्य में ईश्वर और ईश्वर बनने की ललक के साथ ही बुर्जुवा वर्ग का चित्रण मिलता है । 1857के बाद परिस्थितियाँ कुछ बदलीं । धीरे-धीरे ही सही, साहित्य के मूल में आम आदमी की स्थिति मज़बूती पकड़ने लगी । और दलित साहित्य तक आते आते आम आदमी ने स्वयं अपनी स्थितियों को साहित्य के मूल में प्रस्तुत करना आरम्भ कर दिया । पुस्तक के चौथे अध्याय ‘दलित आत्मकथन और उसका समाज वैज्ञानिक पक्ष’ में लेखिका ने उक्त वस्तुस्थिति को गहराई से स्पष्ट किया है । लेखिका लिखती हैं कि “हिन्दी साहित्य में लम्बे समय तक ‘आम आदमी’ विषय के केन्द्र में नहीं था । जातिभेद के कारण उत्पन्न वास्तविक सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति का न्यूनतम उल्लेख हिन्दी में दिखाई देता है, जबकि साहित्य में वर्णित पात्र और परिवेश के द्वारा पाठक समाज की पृष्ठभूमि में कार्यशील स्थितियों से परिचित होता है ।”आपने इस अध्याय में लेखक और पाठक के बीच स्थापित तादात्म्य को भी स्पष्ट करने का प्रयास किया है । दलित लेखकों की आत्मकथाओं के माध्यम से पाठक को दलित वर्ग की सामाजिक परिस्थितियों का परिचय स्थापित करने का भी प्रयास है यह अध्याय । 

उक्त से आगे बढ़ते हुए पुनीता जैन ने ‘हिन्दी की दलित आत्मकथाएँ और स्त्री’ के संदर्भों को भी व्याख्यायित किया है । स्त्री की स्थिति प्रत्येक स्तर पर दयनीय रही है । वह मनुष्य कम ‘भोग्या’ अधिक मानी गई है । इस अध्याय में लेखिका ने दलित आत्मकथाओं में स्त्री की स्थिति को भी सूक्ष्मता से स्पष्ट किया है । ऐसा करते हुए लेखिका ने उन सभी आत्मकथाओं का जिक्र किया है जिनमें दलित स्त्री की वेदना को स्वर प्रदान किया गया हो । इसके साथ ही उक्त आत्मकथाओं में स्त्री की सामाजिकता को विशेष रूप में स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है । 

यहाँ तक आते आते पुस्तक का प्रथम खण्ड समाप्त हो जाता है और अगले खण्ड ‘अन्तर्पाठ’ के माध्यम से दलित आत्मालापों के आख्यानों का अन्तर्पाठ आरम्भ होता है । इन अन्तर्पाठों के माध्यम से लेखिका एक-एक कर हिन्दी की तमाम आत्मकथाओं का उनके मूल स्वर के साथ विवेचन-विश्लेषण करना आरम्भ करती है । लेखिका ने समस्त दलित आत्मकथाओं को उनकी विषय वस्तु के साथ स्पष्ट रूप से प्रकट करने का प्रयोग किया है । इन आत्मकथाओं की विषय वस्तु के साथ आत्मकथा लेखन से गुजरते हुए लेखक की मनोदशा और मूल लेखक के आस-पास को लेखिका पुनीता जैन ने बड़ी ही स्पष्टता से प्रस्तुत किया है । 

वर्ष 1995 में प्रकाशितमोहनदास नैमिशराय की ‘अपने अपने पिंजरे’ से आरम्भ हुए सफर को लेखिकावर्ष 2017में प्रकाशित हुई रजनी तिलक की आत्मकथा ‘अपनी ज़मीं अपना आसमां’तक पूरी ईमानदारी से लेकर आई हैं । इतिहास की विसंगतियों से लेकर समय के बदलाव को लेखिका ने इन आत्मकथाओं में बखूबी इंगित किया है । 

दलित आत्मकथाओं से पहले की जो आत्मकथाएँ थीं, उनमें उपदेश और सीख देने की प्रधानता के साथ-साथ लेखक के अभिजातीय दंभ भी देखने को मिलता रहा था । दलित आत्मकथाओं ने इस अभिजातीय दंभ, उपदेशात्मकता और मनोरंजकता के स्थान पर अपनी विषय वस्तु में एक आम आदमी के दर्द को, उसकी व्यथा को, उसके वातावरण को पूरी सच्चाई व आत्मनिष्ठा से उकेरने का प्रयास किया । वास्तव में यही वह विषय वस्तु थी जो लेखक की अपनी सच्चाई थी । पुनीता जैन ने आत्मकथा लेखकों की समीक्ष्य कृतियों के माध्यम से ‘एक आम जन की व्यथा’ को उसकी संपूर्णता प्रदान की है । पुनीता जैन ने इन अलग-अलग आत्मकथाओं के बिखरे सूत्रों को एक माला में पिरोते हुए संवेदना के सूत्र को एक साथ स्थापित किया है । 

अपने अपने पिंजरे, जूठन, दोहरा अभिशाप, झोपड़ी से राजभवन, घुटन, नागफनी, मेरा बचपन मेरे कंधों पर, मुर्दहिया, मणिकर्णिका, शिकंजे का दर्द, दु:ख-सुख के सफर में आदि आत्मकथाओं का जो विवेचन-विश्लेषण लेखिका पुनीता जैन ने किया है, बड़ा ही स्तुत्य है । आपने अपनी इस कृति को दलित लेखन का आख्यान बना दिया है । लेखिका ने प्रस्तुत आत्मकथाओं का एक-एक कर सिलसिलेबार कुछ ऐसा सूक्ष्म विश्लेषण किया है कि सामान्य से सामान्य पाठक भी मूल रचनाओं से अपना सहज संवाद स्थापित कर सके । 

अपनी विषय-वस्तु से इतर भी इस पुस्तक की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता और परिलक्षित होती है । वह यह कि पुस्तक को शोधपूर्ण दृष्टि से लिखा गया है । आत्मकथाओंके साथ ही उसको पूर्णता प्रदान करने के लिए लेखिका ने संबंधित लेखकों की अन्य स्वीकारोक्तियों तथा आत्मकथाओं पर अन्य समीक्षकों / आलोचकों की टिप्पणियों को जो संदर्भ रूप में प्रस्तुत किया है, वह पुस्तक की गरिमा और गहराई को और भी बढ़ाती है । 

वह पाठक जो हिन्दी की दलित आत्मकथाओं के स्वरूप और उसकी वैचारिकी को एक साथ एक ही स्थान पर समझना चाहते हैं, यह पुस्तक उन पाठकों के लिए बड़े काम की सिद्ध हो सकती है । सामान्य पाठकों के अतिरिक्त दलित विषयों पर शोध करने वाले विद्यार्थियों के लिए तो अत्यंत महत्त्वपूर्ण है ही । 

  सुनील मानव

मानस स्थली, एन.एच.24

फरीदपुर, बरेली

पिन : 243503

मोबाइल : 9918992511

Saturday, November 7, 2020

बुक रिव्यू : सकारात्मक और सामाजिक बदलाव की मूर्धन्य कहानियां


 

एक समयान्तराल के बाद मानवीय संवेदनाओं और पारिवारिक भावनाओं को छूने वाला तीन कहानी संग्रहों का संकलन ‘मेरी प्रारंभिक कहानियां’ पढ़ने को मिला। यह कहानी संग्रह माननीय केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री डॉ० रमेश पोखरियाल 'निशंक' द्वारा लिखित औऱ डॉ० गिरिराजशरण अग्रवाल द्वारा सम्पादित इसी वर्ष 2020 में संपादित हुआ है। आज भी इस संग्रह की हर कहानी प्रासंगिक ही नहीं बल्कि समाज के कटु सत्य को बयां करती है। इस संकलन में 'निशंक' जी की प्रारंभिक तीन कहानी संग्रहों 'बस एक ही इच्छा', 'क्या नहीं हो सकता' और 'भीड़ साक्षी है' में संकलित क्रमशः दस, ग्यारह और दस कहानियों को स्थान दिया गया है।

हर कहानी मानस पटल पर एक अमिट छाप छोड़ती है। हर कहानी को पढ़कर लगता है मानो हमारे आसपास ही यह सब आज भी घटित हो रहा। साधारण और आम बोलचाल (यही उनके लेखन की उपलब्धि भी है) की भाषा-शैली में लिखे ये तीनों कहानी संग्रह हिन्दी कथा साहित्य में विशिष्ट स्थान रखते हैं। हिन्दी साहित्य जगत के सशक्त हस्ताक्षर 'निशंक' जी की प्रारंभिक कहानियों को इस प्रकार सहेजकर उनको आम पाठकों तक पहुंचाना, निश्चय ही एक महती कार्य है, जिसका सम्पूर्ण श्रेय ‘डॉ० गिरिराजशरण अग्रवाल जी’ को जाता है। इसके लिए उनका धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ कि 'निशंक' जी की प्रारंभिक 31 कहानियों को उन्होंने एक ही स्थान पर पाठकों और शोधकर्ताओं के लिए उपलब्ध करा दिया। 



राजनीति के उच्च शिखर को पा लेने के बाद भी साहित्य के क्षेत्र में सक्रिय रहना स्वयं में किसी महान उपलब्धि से कम नहीं है। साथ ही उनका लेखन इस बात का भी द्योतक है कि 'निशंक' जी राजनीति जैसे कठिन और ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चलने के बाद भी साहित्य के संवेदनशील और हृदयी मार्ग को उन्होंने नहीं छोड़ा। इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए कि उन्होंने हमेशा अपनी लेखन शैली से कइयों के जीवन के दुष्कर रास्तों को अपनी लेखन की क्षमता द्वारा सरल बनाया होगा। 

'निशंक' जी का सम्पूर्ण साहित्य पर यदि नज़र डाली जाए तो आप देखेंगे कि उनका साहित्य सपनों की ऊंची उड़ान भरता प्रतीत नहीं होता बल्कि उनकी लेखनी सत्य की भूमि पर विचरण करती महसूस होती है। उनके साहित्य को पढ़कर एक आशावादी और आदर्शवादी साहित्यकार के दर्शन होते हैं, जो इस साहित्यिक और गैर-साहित्यिक विकटकाल में सहज प्राप्य नहीं है। उनका साहित्य सच की जमीन से फुटकर फिर वृहद वृक्ष बन जाता है।

कहानियों पर संक्षेप में प्रकाश डालते हैं। सबसे पहले उनका पहला कहानी संग्रह बस एक ही इच्छा में प्रकाशित कहानियों पर चर्चा करेंगे। 



वैसे तो हर कहानी पढ़कर पाठक को लगेगा कि यह कहानी लेखक के इर्द-गिर्द घूम रही है। काफी हद तक इसमें सच्चाई भी है क्योंकि लेखक यानी स्वयं 'निशंक' जी ने जीवन को बड़ी बारीकी और संवेदनशीलता से जिया है।

इस संकलन की पहली कहानी 'बस एक ही इच्छा' के नाम पर ही एक संकलन का नाम भी रखा गया है। यह कहानी उस पहाड़ी बालक विक्रम की है, जो घर की खराब आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाने के लिए नीचे मैदान के एक होटल में काम करता है। पलायन की समस्या भी इस कहानी में देखी जा सकती है। 1985 में लेखक ने जो चिंता इस कहानी के माध्यम से दर्शायी थी, वह आज भी बनी हुई है। कहानी का पात्र विक्रम को गरीबी के कारण खुद न पढ़-लिख पाने का अफसोस जरूर है, परन्तु वह इस अफसोस को अपने छोटे भाई-बहन को पढ़ाकर दूर करना चाहता है। उसकी एकमात्र इच्छा भी यही है कि उसके भाई-बहन खूब पढ़-लिखकर बड़े आदमी बने। इसके लिए वह दिन रात जीतोड़ मेहनत भी करता गया। उसके मुख से निकला वाक्य आज भी अनेकों के मुख से निकला वाक्य है, जो गरीबी और लाचारी के चलते चाहते हुए भी पढ़-लिख नहीं पाए। वह कहता है 'हम अभागों की किस्मत में कहाँ है पढ़ना-लिखना बाबू जी।' इस संग्रह की अगली कहानी 'मैं और तुम' है जो एक अधूरे प्रेम की अधूरी कहानी है। और इस अधूरेपन के कई कारण लेखक ने दिखाएं हैं, जिनमें दहेज, जातीय संकीर्णता, क्षेत्रवाद और अमीरी-गरीबी के बीच की खाई जैसी गम्भीर समस्याओं को प्रमुखता से उठाया है। दीप्ति और शशांक का प्रेम इन्ही सामाजिक कुरूतियों के चलते अधूरा रह जाता है। हालांकि शशांक अपने प्रेम को पाने के लिए संघर्षरत है। वह अपने ही क्षेत्र एवं जाति का झूठा आवरण छोड़कर, परिवार से निष्कासित हो जाता है, परन्तु दीप्ति अपने परिवार को न तो मना पाती है और न ही शशांक की भांति समाज के झूठे आदर्शों के विरुद्ध जाकर अपने प्रेम को पाने का प्रयास करती है। इतना ही नहीं इस कहानी के अंत में शशांक के एक संवाद ने कहानी का उद्देश्य प्रकट दिया वह दीप्ति से कहता है 'दीप्ति! तुम तो खुद भी पढ़ी-लिखी हो, समाज के प्रबुद्ध वर्ग में गिनी जाती हो, फिर क्या शिक्षा का वैभव व विकास इन सब बातों की पुनरावृत्ति हेतु ही है? धनलोलुप भावनाएं बनी रहें, साथ ने यह कोरे आदर्श की सजातीय अनिवार्य है।' बाद में अपने प्रेम में समाज के सामने वह उपहास का पात्र न बन जाये इसके लिए वह दीप्ति से आग्रह भी करता है। परन्तु दीप्ति अपना निर्णय पहले ही बता चुकी होती है।

तीसरी कहानी 'कितना संघर्ष और' एक मेधावी लड़की 'श्वेता' के कठिन मेहनत और संघर्षों की कथा है। श्वेता का परिवार बड़ा है और गरीबी-लाचार है ऊपर से उसका पिता शराबी है, जो दिन-रात शराब में डूबा रहता है। इतना ही नहीं उसका पिता घर में सभी के साथ मार पिटाई करता है। वह भाई-बहनों में सबसे बड़ी होने के कारण सारी जिम्मेदारी उसने अपने कंधों पर उठा ली। श्वेता जैसी नायिका होने की ज़रूरत है आज की युवतियों को। उसने इतना संघर्ष होने के बाद भी निराशा को अपने पास फटकने तक नहीं दिया। लेकिन नौकरी न मिलने कारण वह टूटती जा रही थी, उसकी हिम्मत साथ छोड़ रही थी। वह रमेश को चिट्ठी में लिखती भी है ' मैं पूछती हूँ कि आखिर कितना संघर्ष करूँ? कहीं सफलता मिलने से पहले ही यह संघर्ष हमको ही न मिटा डाले!' इतना होने पर भी श्वेता का प्रथम आना, अपने आप में बेहतरीन उदाहरण था, क्योंकि इतने संघर्षों में आदमी जीना तक छोड़ देते हैं, ऐसे में पढ़ाई करना, किसी अजूबे से कम नहीं हो सकता। श्वेता कहानी की ऐसी पात्र है जिससे है युवती प्रेरणा पाकर जीवन में एक मुकाम हासिल कर सकती है, बशर्त उसकी तरह संघर्ष करना न छोड़े। हालांकि कहानी के अंत मंय सारे परिवार की जिम्मेदारी उठाते उठाते वह चारपाई पकड़ लेती है।

संकलन की चौथी कहानी 'संकल्प' है, जो विशुद्ध देशभक्ति कैसी होनी चाहिए, उस पर आधारित है। 'निशीथ' नाम का युवक अपनी शादी के प्रस्ताव को लेकर व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठने की बात कहता हुआ अपनी माँ से कहता है ''माँ' ऐसी किसी लड़की से मेरी शादी करा सकती है जो व्यक्तिगत स्वार्थों में ना पढ़कर आम व्यक्ति के हितों की बात कर सके? शोषितों के लिए जूझ सके?’ निशीथ का यह वाक्य हमारे सामने कई सवाल खड़ा करता है। इस कहानी का प्रतिपाद्य यह है कि हमें अपने व्यक्तिगत स्वार्थों को त्याग कर जितना संभव हो आम लोगों के जन जीवन को बेहतर बनाने के लिए हमेशा प्रयासरत रहना चाहिए, साथ ही अपनी जन्मभूमि की खातिर जितना त्याग और समर्पण हो सके करना चाहिए। अपने व्यक्तिगत जीवन से इतर भी अनेक समस्याएं हैं, जिन पर हम कभी ध्यान नहीं देते हैं, ‘निशीथ’ भारत माता की फिक्र करता है, जिसे हिंसा वैमनस्य अलगाववाद और उचित राजनीति की जैसे सर्प लगातार डस रहे हैं। इस युवक की चिंता आज भी जस की तस बनी हुई है। जिसको कहानी के माध्यम से लेखक ने बखूबी बताने का प्रयास किया है।

इस संकलन की अगली कहानी 'याद रखूंगा' एक चुटीलापन  लिए हुए है। इस कहानी की व्यंग्यात्मकता में बहुत गहरा संदेश छिपा है। कहानी में एक युवक जो अपनी पत्नी की शिकायत लेकर आया है और अखबार में अपनी पत्नी के खिलाफ नोटिस छपवाना चाहता है। जिसका आग्रह वह लेखक से करता है। यही युवक अपने वक्तव्य में उसके द्वारा की जा रही है घरेलू हिंसा को सही ठहराया जाता है। लेकिन बाद में ‘साब’ उसे समझाते हैं कि यदि उसने अपने पत्नी के खिलाफ कुछ भी किया तो भविष्य में वह भी कुछ न कुछ अवश्य करेगी जिससे आपको मुश्किल उठानी पड़ सकती है। ‘साब’ की बातों को समझ कर वह युवक साहब को धन्यवाद देकर वहां से चला जाता है। एक पारिवारिक समस्या को कहानीकार ने कितनी खूबसूरती और हल्के से सरल कर दिया, यही कहानीकार की सफलता है। उस युवक को सबक भी मिलता है और ‘साब’ की बात को याद रखूंगा कहकर चला जाता है।

 संकलन की अगली कहानी ‘गंतव्य की ओर’ हमें प्रेरणा देती है कि स्थिति चाहे जो भी हो यदि मातृभूमि की रक्षा की बात हो तो जान की बाजी लगाने से भी पीछे नहीं हटना चाहिए। किस कहानी का पात्र विनय इस बात को प्रमाणित करता है  कि राष्ट्र की सुरक्षा से परे कुछ नहीं हो सकता। कहानी में आप देखेंगे की विनय को अपने देश के सामने अपने भाई का संबंध भी बोना नजर आने लगता है। इतना ही नहीं विनय को देखकर वे शराबी भी देश की फिक्र करते हैं और अंत में कहते हैं- ‘इसमें उपकार की क्या बात है यह देश भाई पैसे ने ने हमें अंधा बना दिया तो क्या! यह तो हमारा भी फर्ज बनता है। प्राणों को हथेली पर रखकर देश की रक्षा के लिए समर्पित तुम जैसे युवाओं से तो हमें सीख लेनी चाहिए’। कहकर उन्होंने तेजी से गाड़ी मोड़ी और बिना अपने गंतव्य की ओर चल दिया।

‘नई जिंदगी’ नामक कहानी इस संकलन की ऐसी कहानी प्रतीत हुई, जिसे पढ़कर क्रूर से क्रूर दंभी व्यक्ति का भी हृदय परिवर्तन हो जाए। इस कहानी का पात्र ‘दुष्यंत’ ऐसा ही एक पात्र है, जो अपने अय्याशीपन के कारण जीवन को खराब कर रहा था लेकिन एकाएक उसकी मुलाकात ‘अमीरदास’ नाम के एक दरिद्र व्यक्ति से होती है। जिसके पास पहले सब कुछ था लेकिन समय का चक्र कुछ ऐसा घूमा कि आज वह अपने दो बच्चों के साथ भीख मांगने पर मजबूर है। ‘अमीरदास’ से मिलने के बाद ‘दुष्यंत’ का हृदय परिवर्तन होता है और वह परिवर्तन कुछ ऐसा होता है कि वह अमीरदास और उसके दोनों बच्चों को अपने घर में आश्रय देता है। अमीरदास को अपने विभाग में सरकारी सेवा पर लगाता है और उसके दोनों बच्चों को अच्छे विद्यालयों में पढ़ाता है। बदले में अमीरदास भी दुष्यंत के प्रति वफादार और कर्तव्य परायण रहता है। इस कहानी से मन में यह प्रश्न भी कौंधा कि यदि किस देश का हर धनाढ्य व्यक्ति दुष्यंत की तरह किसी गरीब मजबूर का हाथ पकड़ ले, तो देश-समाज से अमीरी गरीबी का यह फासला एक दिन अवश्य कम हो जाएगा।

इस बात में कोई दो राय नहीं है कि यदि स्त्री परिवार को जोड़ भी सकती है और बिखेर भी सकती है। ऐसी ही कहानी है ‘राधा’। ‘राधा’ अपने पति ‘राघव’ से बहुत प्रेम करती हैं। लेकिन कुछ समय से ‘राघव’ ‘राधा’ से खिंचा-खिंचा सा और परेशान रहता है। लेकिन ‘राधा’ इसका कारण नहीं जान पाती। लेकिन एक दिन वह अपने मन की पीड़ा राधा के सामने प्रकट कर ही देता है। उसके मन की पीड़ा आज के हर उस युवक की पीड़ा है जिसका परिवार उसकी पत्नी के कारण या तो टूट गया है या बिछड़ गया है। राघव की पीड़ा है कि वह चाह कर भी अपनी विधवा मां और अपने छोटे भाई किशोर को अपने साथ शहर में नहीं रख सकता। क्योंकि राधा यह नहीं चाहती लेकिन कहानी में एक ऐसा मोड़ आता है, जब राघव की तकलीफ सुनकर राधा का हृदय परिवर्तन होता है। हालांकि ऐसा हृदय परिवर्तन बहुत कम देखने यह सुनने को मिलता है। राघव के भाव और उसकी पीड़ा को समझते हुए, वह राघव की अनुपस्थिति में बिना उसे बताएं उसके गांव पहुंच जाती है और अपनी सासू मां और किशोर को किसी तरह समझा कर, जिद और अधिकार से अपने घर शहर में ले आती है। राघव जब कई दिनों बाद घर आता है और घर पर अपनी मां और छोटे भाई को देखता है, तो उसका हृदय भर आता है। उसके लिए यह किसी दिवास्वप्न जैसा था। जब माँ ने पूरी बात राघव को बताई तो राधा के प्रति उसके हृदय में पहले से कई गुना अधिक प्यार उमड़ पड़ा वह। इतना भावुक हुआ  कि अपनी आंखों में आते हुए आंसुओं की धारा को नहीं रोक सका। उसे लगा कि कोई नई जिंदगी मिल गई है, जिसे पाने के लिए वह कब से तड़प रहा था। यदि महिलाएं घर को एकजुट रखने के लिए अपना झूठा अभिमान छोड़ दें, तो निश्चय ही प्रत्येक परिवार स्वर्ग बन जाएगा। पारिवारिक विघटन से बचने का रास्ता इस कहानी से होकर गुजरता है, ऐसा कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगा

अगली कहानी ‘सुख दु:ख’ लेखक की ऐसी कहानी है जिसे बाद में उन्होंने विस्तार प्रदान कर उपन्यास ‘मेजर निराला’ का रूप दिया। इस कहानी का पात्र भावावेश में एक ऐसा विवेक हीन कार्य कर देता है जिसके लिए वह पूरी उम्र खुद को माफ़ नहीं कर पाता। 15 वर्ष जेल में सजा काटने के बाद वह दोबारा अपना जीवन शुरु करता है। जीवन के दो पहलू हैं सुख और दु:ख, परंतु यह कभी नहीं कहा जा सकता कि आखिर सब सुख के पल बदलकर दु:ख के हो जाएं। यही इस कहानी का उद्देश्य भी है कि इस समय बहुत बलवान है कब क्या रूप इस जीवन का हमें देखने को मिले कोई नहीं जानता।

इस संकलन की अंतिम कहानी का शीर्षक है ‘अपना पराया’। कहानी के पात्र ‘मृदुला’ और उसके देवर ‘राहुल’ के इर्द-गिर्द घूमती है। एक परिवार के ताने-बाने से बनी यह कहानी ‘राहुल’ के रूप में ऐसे पात्र से पाठक का परिचय कराती है, जो हमेशा दूसरों की मदद करता है और उनकी समस्याओं को दूर करने के लिए हमेशा संघर्षरत रहता है। और   अपनों के दु:खों को दूर करने के लिए सीमा से बाहर जाकर सहयोग करता है। कहानी का एक अन्य पात्र इंजीनियर खरें हैं, जो राहुल के बोस हैं। राहुल को सहयोग के लिए हर संभव मदद करते हैं। वह कहते हैं, इस भीड़ भरी दुनिया में किसे फुर्सत है कि किसी के बारे में सोचें तक करना तो बहुत दूर की बात रही। कहानी के अंत में राहुल की एक इच्छा शेष रह जाती है कि वह ‘शरद’ जो कि उसका भतीजा है, उसे पढ़ा लिखा कर बड़ा बनाना है। इसके बाद वह सदा के लिए मुक्त हो जाएगा। यही उसका लक्ष्य है और यही है उसके जीवन की अंतिम अभिलाषा।

सत्य, करुणा, प्रेम, न्याय, सद्भाव इत्यादि अनेक जीवन मूल्यों की पक्षधरता लिए निशंक जी की इस संकलन की कहानियां हैं। इन कहानियों में सीख है कि निराशा, हताशा और संघर्ष की स्थिति में अपने भीतर एक गहन आस्था और विश्वास को बनाए रखें। अजेय बने रहने की प्रेरणा इन कहानियों से हमें मिलती है। सकारात्मक जीवन दृष्टि के मूर्धन्य साहित्यकार निशंक जी का साहित्य इस बात का प्रमाण है कि उन्होंने अपने साहित्य में उन सामाजिक जीवन मूल्यों को स्थान दिया है, जो राष्ट्र की पहचान है, शाश्वत है और हर युग में समाज की निमित्त के प्रतिमान सिद्ध होंगे। इनकी कहानियों की भाषा-शैली एकदम सहज सरल और आम बोलचाल की है। इसी कारण पाठक बड़े चाव से इन कहानियों को एक बैठक में आनंद विभोर होकर पड़ जाता है। निश्चय ही लेखक का यह शुरुआती लेखन हो, लेकिन आज भी समाज को रचनात्मक दिशा की ओर ले जाने के लिए सक्षम है। इसके अगले भाग में उनकी कहानी संकलन क्या नहीं हो सकता कि 11 कहानियों की समीक्षा आप सभी जन पाठकों के समक्ष प्रस्तुत की जाएगी।

05.11.2020

धन्यवाद

Review by Dr. Ram Bharose 

डॉ० राम भरोसे

हिन्दी विभागाध्यक्ष

राजकीय महाविद्यालय पोखरी (क्वीली)

टिहरी गढ़वाल

9045602061