पुस्तक : हिन्दी दलित आत्मकथाएँ, एक मूल्यांकन
लेखक : पुनीता जैन
प्रकाशक : सामयिक पेपरबैक्स, नई दिल्ली
संस्करण : 2018
मूल्य : रु. 300
हिन्दी साहित्य में अवतरित हुए तमाम आंदोलनों-विमर्शों में स्त्री विमर्श, आदिवासी विमर्श, दलित विमर्श आदि ने हिन्दी साहित्य की चिंतन प्रक्रिया को एक नवीन मोड़ प्रदान किया है । इन विमर्शों ने साहित्य की परंपरागत गति को आम जन के दर्द से जोड़कर जो नवीनता उत्पन्न की है, उससे साहित्य में विमर्श के मायने बदले हैं । हिन्दी में दलित आत्मकथाओं के मूल्यांकन के माध्यम से लेखिका पुनीता जैन ने इन मान्यताओं को एक नवीन दृष्टि प्रदान करते हुए दलित आत्मकथाओं के चिंतन को सर्वग्राह्यता प्रदान की है ।
हिन्दी के नवजागरण काल से ही दलित-विमर्श ने साहित्य में अपना स्थान निर्धारित किया । दलितों के साथ-साथ गैर-दलित लेखकों ने भी इस आंदोलन का समर्थन किया । साहित्य में मुख्यधारा की विभिन्न प्रतिष्ठित पत्रिकाओं ने इस विषय पर विशेषांक निकालकर दलित आंदोलन को तीव्रता प्रदान की । पिछले दशकों में दलितों के बीच से कई अच्छे लेखक सामने आए, जिन्होंने दलितों की पीड़ा को ‘भोगे हुए यथार्थ’ के रूप में सामने रखा । इन लेखकों ने कविता, कहानी, उपन्यास, लेख तथा आत्मकथाओं के माध्यम से दलितों के सदियों पुराने दर्द को समाज से रूबरू करवाया । इन विधाओं में आत्मकथाओं का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा । दलित विमर्श को ‘हंस’ के वर्ष दो हजार चार में निकले विशेषांक ने एक विशेष गति प्रदान की ।
वास्तव में देखा जाए तो दलित लेखन में जो ‘भोगा हुआ यथार्थ’ था, वह दलित आत्मकथाओं में विशेष रूप से उजागर हुआ । इन आत्मकथाओं में दलित लेखकों ने अपने समय और समाज को स्वयं की आंखों से देखा, परखा और भूतकाल से तुलना करते हुए उस यथार्थ को अपने लेखन में उतारा । समीक्ष्य पुस्तक ‘हिन्दी दलित आत्मकथाएं, एक मूल्यांकन’ में लेखिका पुनीता जैन ने दलित लेखकों द्वारा लिखी गईं लगभग सभी आत्मकथाओं को बड़ी ही सूक्ष्मता के साथ कुछ ऐसे प्रस्तुत किया कि इनआत्मकथाओं से अन्जान पाठक भी लेखक और उसके समाज के सच से परिचित हो सके । खालिस परिचित ही नहीं बल्कि गहराई से परिचय प्राप्त कर सके ।
पुस्तक के ‘फ्लैप’ पर डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे लिखते हैं “सृजनात्मक साहित्य के निर्माण के मूल में लेखक की अकुलाहट, बेचैनी-यही एकमात्र बड़ा कारण होती है । लेखक अपनी अनुभूति के बोझ से मुक्त होने हेतु लिखने लगता है । सृजनात्मक समीक्षक की भी यही स्थिति होती है । एक मनुष्य होने के नाते पुनीता जैन, धर्म, जाति, पन्थ के परे जाकर दलितों की संवेदनाओं से, उनकी व्यथाओं से उनकी मर्मांतक पीड़ाओं से इस कदर प्रभावित, प्रेरित हो जाती हैं कि वह उनकी सहयात्री ही बन जाती हैं । इस सहयात्रा में एक ओर वे उस पीड़ा को भोगती भी हैं तथा उसी समय उस पीड़ा को, उसके भोगनेवाले को पूरी तटस्थता से देखती भी हैं ।”
वास्तव में मूल पुस्तकों पर किए गए लेखन की पहली शर्त होती है कि लेखक मूल के अंतर्मन में पहुँचकर उस मूल संवेदना को निकालकर सामने लाए जिसको पढ़ते हुए ही मूल को पढ़ने और समझने की जिज्ञासा बढ़ जाए । उक्त पुस्तक में लेखिका ने मूल रचनाओं की उस मूल जड़ को बखूबी पकड़ा है ।
(सुनील मानव)
पुस्तक का आरंभ भूमिका के परिचय के साथ दलित साहित्य और उसमें भी दलित आत्मकथाओं की पृष्ठभूमि के परिचय से होता है जो इस पुस्तक की मूल विषय वस्तु का आधार बनी है ।
हिन्दी साहित्य की पृष्ठभूमि पर यदि दृष्टि डालें तो इस साहित्य की रचना में कुछ सामाजिकताओं के साथ स्वान्त:सुखाय एवं वाग्विलाश का भाव अधिक रहा है लेकिन दलित साहित्य दलितों के साथ सदियों से चले आ रहे अन्याय एवं अत्याचार, समाज में उनकी दयनीय स्थित अथवा कहा जाए कि वर्णव्यवस्था के अत्याचारों के प्रति स्वर उठाने की प्रक्रिया में हुआ । लेखिका पुनीता जैन ने प्रथम अध्याय ‘हिन्दी दलित साहित्य की पृष्ठभूमि’ में इन पूरी प्रकिया की पृष्ठभूमि को स्पर्श करते हुए वेदकाल से लेकर अंबेडकर के आंदोलन तक अपनी सूक्ष्म दृष्टि दौड़ाई है । इस संदर्भ में आपने इस बात को प्रमुखता से इंगित किया है कि वर्तमान में यदि कहा जाए कि अब से पहले दलितों को लेकर कोई आंदोलन नहीं हुए अथवा साहित्यिक रूप में कुछ लिखा नहीं गया तो यह बात पूरी तरह सही नहीं है । आप लिखती हैं “वर्तमान दलित लेखन, साहित्य पर यह आरोप नहीं लगा सकता कि उसके पक्ष में कभी आवाज नहीं उठी । वर्णव्यवस्था के विरोध में चार्वाक् से कबीर तक और कबीर से प्रेमचंद तक की लम्बी परम्परा दिखाई देती है ।” आपका यह निष्कर्ष पुस्तक के प्रति तटस्थता को मज़बूती प्रदान करता है ।
पुस्तक के द्वितीय अध्याय ‘हिन्दी दलित आत्मकथन का परिदृश्य’ में लेखिका ने वर्तमान दलित लेखन की प्रेरणा के बिन्दुओं के साथ-साथ मराठी के दलित लेखन को हिन्दी दलित साहित्य लेखन की पृष्ठभूमि के रूप में प्रस्तुत किया है । आपने हिन्दी साहित्य के आदिकाल के सिद्ध और नाथ साहित्य से लेकर मध्यकाल के संत कवियों की वाणियों को दलित साहित्य की नींव के रूप में इंगित किया है । इसके आगे लेखिका कहती हैं कि “आधुनिक काल में महाराष्ट्र में ज्योतिबा फुले व अंबेडकर के प्रभाव ने कथित शूद्र को ‘दलित’ नाम दिया तथा अन्याय के विरुद्ध खड़े होने की प्रेरणा दी । इसके प्रभाव से हुए सामाजिक, शैक्षिक जागरण ने उनके उत्पीड़न के दीर्घ इतिहास को वाणी देना आरम्भ किया । हिन्दी में दलित लेखन का प्रादुर्भाव इसी पृष्ठभूमि में मराठी साहित्य के प्रभाव से हुआ ।” अपने इस निष्कर्ष को सिद्ध करते हुए पुनीता जी तमाम संदर्भ भी प्रस्तुत करती हैं जो उनकी शोध दृष्टि की भी परिचायक है ।
तृतीय अध्याय ‘हिन्दी दलित आत्मकथाएं और उनका सौन्दर्य-मूल्य’ के संदर्भ में लेखिका ने दलित आत्मकथाकारों की उस दृष्टि को समझने का प्रयास किया है जिसके तहत कोई लेखक लिख पाता है । अपने परिवेश की सुन्दरता को संपूर्णता में देखना और उसके सार्वभौम स्वरूप को शब्दों में बाँधना, किसी भी लेखक के लिए बहुत सहज नहीं होता है । कोई भी लेखक उस सत्य को तभी शब्दों में पिरो पाता है जब वह उस परिवेश का ‘भोक्ता’ हो । ‘भोक्ता’ होने से सत्य को समझना थोड़ा आसान हो जाता है और यहीं से आत्मकथ्य के सूत्रों का सूत्रपात हो जाता है । लेखिका ने इन अध्याय में दलित लेखकों को उनकी आत्मकथाओं के संदर्भ में इसी स्वरूप में समझने का प्रयास किया है । सौंदर्यशास्त्र और कुछ आगे बढ़ते हुए दलित सौंदर्यशास्त्र को और स्पष्टता प्रदान करते हुए लेखिका ने डॉ. तुलसीराम के शब्दों को सौंदर्यशास्त्र की स्थापना के रूप में प्रस्तुत किया है कि “सौंदर्यशास्त्र का उद्देश्य साहित्य के माध्यम से व्यक्ति की सामाजिकता को परिष्कृत करना और उसके जीवन को उच्च स्तरीय बनाना है । इस प्रकार सौंदर्यबोध वैयक्तिक जीवन को उसकी संदर्भवत्ता देने और सामाजिक सम्बद्धता को सुदॄढ़ करने व गहनता प्रदान करने का दायित्त्व निभाता है ।”
हिन्दी साहित्य के आरम्भ से लेकर वर्तमान परिवेश और उसकी केन्द्र की विषय वस्तु पर दृष्टि दौड़ाई जाए तो आदिकाल के नाथ, जैन और रासो साहित्य में आम आदमी नहीं दिखता; मध्यकालीन साहित्य में ईश्वर और ईश्वर बनने की ललक के साथ ही बुर्जुवा वर्ग का चित्रण मिलता है । 1857के बाद परिस्थितियाँ कुछ बदलीं । धीरे-धीरे ही सही, साहित्य के मूल में आम आदमी की स्थिति मज़बूती पकड़ने लगी । और दलित साहित्य तक आते आते आम आदमी ने स्वयं अपनी स्थितियों को साहित्य के मूल में प्रस्तुत करना आरम्भ कर दिया । पुस्तक के चौथे अध्याय ‘दलित आत्मकथन और उसका समाज वैज्ञानिक पक्ष’ में लेखिका ने उक्त वस्तुस्थिति को गहराई से स्पष्ट किया है । लेखिका लिखती हैं कि “हिन्दी साहित्य में लम्बे समय तक ‘आम आदमी’ विषय के केन्द्र में नहीं था । जातिभेद के कारण उत्पन्न वास्तविक सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति का न्यूनतम उल्लेख हिन्दी में दिखाई देता है, जबकि साहित्य में वर्णित पात्र और परिवेश के द्वारा पाठक समाज की पृष्ठभूमि में कार्यशील स्थितियों से परिचित होता है ।”आपने इस अध्याय में लेखक और पाठक के बीच स्थापित तादात्म्य को भी स्पष्ट करने का प्रयास किया है । दलित लेखकों की आत्मकथाओं के माध्यम से पाठक को दलित वर्ग की सामाजिक परिस्थितियों का परिचय स्थापित करने का भी प्रयास है यह अध्याय ।
उक्त से आगे बढ़ते हुए पुनीता जैन ने ‘हिन्दी की दलित आत्मकथाएँ और स्त्री’ के संदर्भों को भी व्याख्यायित किया है । स्त्री की स्थिति प्रत्येक स्तर पर दयनीय रही है । वह मनुष्य कम ‘भोग्या’ अधिक मानी गई है । इस अध्याय में लेखिका ने दलित आत्मकथाओं में स्त्री की स्थिति को भी सूक्ष्मता से स्पष्ट किया है । ऐसा करते हुए लेखिका ने उन सभी आत्मकथाओं का जिक्र किया है जिनमें दलित स्त्री की वेदना को स्वर प्रदान किया गया हो । इसके साथ ही उक्त आत्मकथाओं में स्त्री की सामाजिकता को विशेष रूप में स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है ।
यहाँ तक आते आते पुस्तक का प्रथम खण्ड समाप्त हो जाता है और अगले खण्ड ‘अन्तर्पाठ’ के माध्यम से दलित आत्मालापों के आख्यानों का अन्तर्पाठ आरम्भ होता है । इन अन्तर्पाठों के माध्यम से लेखिका एक-एक कर हिन्दी की तमाम आत्मकथाओं का उनके मूल स्वर के साथ विवेचन-विश्लेषण करना आरम्भ करती है । लेखिका ने समस्त दलित आत्मकथाओं को उनकी विषय वस्तु के साथ स्पष्ट रूप से प्रकट करने का प्रयोग किया है । इन आत्मकथाओं की विषय वस्तु के साथ आत्मकथा लेखन से गुजरते हुए लेखक की मनोदशा और मूल लेखक के आस-पास को लेखिका पुनीता जैन ने बड़ी ही स्पष्टता से प्रस्तुत किया है ।
वर्ष 1995 में प्रकाशितमोहनदास नैमिशराय की ‘अपने अपने पिंजरे’ से आरम्भ हुए सफर को लेखिकावर्ष 2017में प्रकाशित हुई रजनी तिलक की आत्मकथा ‘अपनी ज़मीं अपना आसमां’तक पूरी ईमानदारी से लेकर आई हैं । इतिहास की विसंगतियों से लेकर समय के बदलाव को लेखिका ने इन आत्मकथाओं में बखूबी इंगित किया है ।
दलित आत्मकथाओं से पहले की जो आत्मकथाएँ थीं, उनमें उपदेश और सीख देने की प्रधानता के साथ-साथ लेखक के अभिजातीय दंभ भी देखने को मिलता रहा था । दलित आत्मकथाओं ने इस अभिजातीय दंभ, उपदेशात्मकता और मनोरंजकता के स्थान पर अपनी विषय वस्तु में एक आम आदमी के दर्द को, उसकी व्यथा को, उसके वातावरण को पूरी सच्चाई व आत्मनिष्ठा से उकेरने का प्रयास किया । वास्तव में यही वह विषय वस्तु थी जो लेखक की अपनी सच्चाई थी । पुनीता जैन ने आत्मकथा लेखकों की समीक्ष्य कृतियों के माध्यम से ‘एक आम जन की व्यथा’ को उसकी संपूर्णता प्रदान की है । पुनीता जैन ने इन अलग-अलग आत्मकथाओं के बिखरे सूत्रों को एक माला में पिरोते हुए संवेदना के सूत्र को एक साथ स्थापित किया है ।
अपने अपने पिंजरे, जूठन, दोहरा अभिशाप, झोपड़ी से राजभवन, घुटन, नागफनी, मेरा बचपन मेरे कंधों पर, मुर्दहिया, मणिकर्णिका, शिकंजे का दर्द, दु:ख-सुख के सफर में आदि आत्मकथाओं का जो विवेचन-विश्लेषण लेखिका पुनीता जैन ने किया है, बड़ा ही स्तुत्य है । आपने अपनी इस कृति को दलित लेखन का आख्यान बना दिया है । लेखिका ने प्रस्तुत आत्मकथाओं का एक-एक कर सिलसिलेबार कुछ ऐसा सूक्ष्म विश्लेषण किया है कि सामान्य से सामान्य पाठक भी मूल रचनाओं से अपना सहज संवाद स्थापित कर सके ।
अपनी विषय-वस्तु से इतर भी इस पुस्तक की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता और परिलक्षित होती है । वह यह कि पुस्तक को शोधपूर्ण दृष्टि से लिखा गया है । आत्मकथाओंके साथ ही उसको पूर्णता प्रदान करने के लिए लेखिका ने संबंधित लेखकों की अन्य स्वीकारोक्तियों तथा आत्मकथाओं पर अन्य समीक्षकों / आलोचकों की टिप्पणियों को जो संदर्भ रूप में प्रस्तुत किया है, वह पुस्तक की गरिमा और गहराई को और भी बढ़ाती है ।
वह पाठक जो हिन्दी की दलित आत्मकथाओं के स्वरूप और उसकी वैचारिकी को एक साथ एक ही स्थान पर समझना चाहते हैं, यह पुस्तक उन पाठकों के लिए बड़े काम की सिद्ध हो सकती है । सामान्य पाठकों के अतिरिक्त दलित विषयों पर शोध करने वाले विद्यार्थियों के लिए तो अत्यंत महत्त्वपूर्ण है ही ।
सुनील मानव
मानस स्थली, एन.एच.24
फरीदपुर, बरेली
पिन : 243503
मोबाइल : 9918992511
शुक्रिया
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