Monday, August 2, 2021

तुम अपने सिर्फ क्राफ्ट पर काम करो - राज शर्मा के साथ बातचीत

 


राज शर्मा से तेजस पूनियां की बातचीत

राज शर्मा अपने कॉलेज के दिनों से ही थियेटर से जुड़े रहे हैं। बीच में कई विपरीत परिस्थतियों से जूझते हुए बिजनेस में आए लेकिन खून में थियेटर होने के कारण उम्र का एक पड़ाव पार कर लेने के बाद फिर से एक्टिंग में सक्रिय हुए हैं। कई फिल्मों में कैमियो करने के अलावा थियेटर और विज्ञापनों में दिखाई देते हैं।

प्रश्न – अपनी अब तक की फ़िल्मी यात्रा के बारे में कुछ बताएँ? कैसे सिनेमा का सफ़र शुरू हुआ और क्या आगे भूमिका रही?

उत्तर – मैं बचपन से ही एक्टर बनना चाहता था। मैं बचपन में रामलीला वगैरह में भी काम करता रहा हूँ लेकिन एक रास्ता नहीं मालूम था। उसके बाद मैं जब कॉलेज में आया तो हमारे साउथ कैम्पस, दिल्ली यूनिवर्सिटी के रामलाल आनंद कॉलेज में नई-नई ड्रामेटिक सोसाइटी उस वक्त बनी थी। मेरा छोटा भाई भी उसी कॉलेज में था वो उस सोसाइटी के एक दोस्त को जानता था उससे उसने पूछा कि “यार ये डफली लेकर तुम लोग कहाँ घूमते रहते रहते हो।” उसने कहा हम नुक्कड़ नाटक करते हैं। तब मेरे भाई ने उससे कहा कि यह सब तो मेरा भाई भी करता है रामलीला वगैरह में, तो यहाँ से मेरा तारुफ़ हुआ थियेटर से। उसके बाद मैंने कॉलेज की वो सोसाइटी ज्वाइन की और वहाँ पर पहला नाटक किया ‘बकरी’ ‘सर्वेश्वरदयाल सक्सेना’ का। इस नाटक का मंचन श्री राम सेंटर, नई दिल्ली में 1994 में हुआ। वहाँ पर मैंने जाना कि आप वास्तव में सिनेमा में कैसे जा सकते हो। यहाँ पता चला कि सिनेमा क्या है और यहाँ तो बहुत सारा सिनेमा होता है। हालांकि मैं पैदा तो दिल्ली में ही हुआ हूँ लेकिन उस नाटक को करने के बाद मैंने ठान लिया कि मुझे एक्टिंग में ही जाना है। तब मेरा संकल्प और ज्यादा दृढ़ हो गया। दिल्ली में नब्बे के दशक में ‘एक्ट वन’ नाम से एक ग्रुप था। उस वक्त वहाँ पर कई लोग थे जो आज के बड़े नामचीन लोग हैं। वे सब मेरे सीनियर और मेरे आस-पास के ही मित्र रहे। उस ग्रुप से जुड़ने के बाद कॉलेज जाना लगभग छुट गया और पूरा का पूरा समय मैं उस ग्रुप में देने लगा। मैंने करीबन डेढ़ साल वहाँ बतौर एक्टर छ: नाटकों में काम किया। इसमें भगतसिंह का एक नाटक ‘गगन दमामा बाज्यो’ ‘पीयूष मिश्रा’ लिखित में भी मैंने काम किया जो सबसे पहले खेला गया था अब तक उसे कई बार खेला जा चुका है। यहाँ से मेरी शुरआत हुई। और होता भी है जैसे पहले-पहल नाटक किया तो चार डायलॉग थे उसके बाद दूसरा नाटक किया तो आपके पास एक अच्छा ख़ासा कैरेक्टर था, तीसरी बार में आपके पास हीरो का रोल था और धीरे धीरे इसमें आपकी अभिनय की ट्रेनिंग होती गई। तो दरअसल मेरी शुरुआत भी कुछ ऐसी ही रही है। बीच-बीच में कॉलेज वगैरह के पेपर देता रहा मगर अपनी ग्रेजुएशन मैं पूरी नहीं कर पाया, अचानक से मेरे पिता की असामयिक मृत्यु हो गई। अब जब फादर फौत हो गए तो एक्टिंग वाला एरिया मेरा छुट गया। मैं नौकरी वगैरह करने लगा। ये बात है 1997 की इस दौरान थियेटर मैं पूरी तरह भूल गया और जगह-जगह नौकरियाँ की। साल 2000 आते-आते मैंने अपना एक छोटा सा वॉटर प्युरिफिकेशन का बिजनेस शुरू किया। उस दौरान मुझे खाली खाली लगता रहा। हालांकि बिजनेस अच्छा खासा चल रहा था। 2006 में मैं एक अच्छा ख़ासा कमाने वाला आदमी था। लेकिन जीवन में जो खालीपन था उसे भरने की जद्दोजहद लिए एक शाम मैं बैठा अपने अब तक के जीवन के बारे में जब सोच रहा था तो मैंने महसूस किया कि मैं तो एक्टर बनना चाहता था, मैं तो थियेटर करता था। कुछ दिन बाद मैंने फिर से मंडी हाउस जाना शुरू किया। और वहाँ जाकर पता चला कि वो लोग जो मेरे साथ या एक दो साल सीनियर थे वो तब तक सिनेमा का एक बड़ा चेहरा और नाम बन चुके थे। मनोज वाजपेयी, पीयूष मिश्रा, रितेश शाह, हेमेन्द्र, शालिनी वत्स, आशीष विद्यार्थी जैसे कई लोग थे। बाकि कहा जाता है अनुराग कश्यप, गजराज राव, इमत्याज अली  जैसे लोग भी उसी ग्रुप से निकले हुए हैं। बस यही सब फिर से शुरू किया और एक दिन अरविन्द गौड़ सर से मेरी मुलाक़ात हुई हालांकि उन्हें जानता बहुत पहले से था। तो उन्हें लगता था यह पैंतीस-चालीस साल का आदमी है और बिजनेस भी कर रहा है तो शौकिया तौर पर दो-चार या छ: महीने करके चला जाएगा शौक पूरा। लेकिन मेरे से ऐसा नहीं था मैंने थियेटर को किया बंद और वापस उसी आग में कूद गया। दो साल थियेटर किया, एक्टिंग के बेस को और मजबूत किया और अभिनय की बारीकियाँ सीखीं। 2010 के दौरान गौड़ साहब ने मुझे मुम्बई जाने की सलाह दी। यहाँ आकर एक दिन, दो दिन के कुछ रोल मिले लेकिन मैं संतुष्ट नहीं था। खैर मैं वापस आया और यहाँ गुडगाँव में ‘किंग्डम ऑफ़ ड्रीम्स’ में बतौर एक्टर मैं काम करने लगा। वहाँ करीब छ: साल मैंने काम किया उसी समय एक फिल्म आई पी०के०।  उसकी कास्टिंग की जा रही थी तो मेरे एक दोस्त आकाश डबास ने मुझे कहा कि मैं आपका ऑडिशन करके डायरेक्टर को दिखाना चाहता हूँ। इस तरह मुझे आमिर खान के साथ पहली बार ब्रेक मिला यहाँ से मेरी फाइनली शुरुआत कही जा सकती है। उसी दौरान मुझे ‘चिल्ड्रन ऑफ़ वॉर’ फिल्म मिली जो 1971 में पाकिस्तान, बंगलादेश का बंटवारा हुआ उस पर थी। ऐसे धीरे-धीरे करके मैंने ‘तलवार’, ‘साला खडूस’, ‘शौकिन्स’, ‘मुरारी द मैड-जेंटलमैन’ की। इसी दौरान यूट्यूब का भी बूम तेजी से फैला यहाँ दिल्ली में कई यूटूयूब हैं जैसे ‘स्कूप-वूप’, ‘पॉप एक्सपो’, ‘मैन एक्स पी आदि के साथ काम किया। इसी बीच में करीबन छ महीने मैंने एक टीवी सीरियल ‘जिंदगी की महक’ किया। टीवी को लेकर भी मेरे मन में पहले से था कि कुछ ऐसा हो जो लम्बा चले यह नहीं की महीना-बीस दिन ही रोल मिले। 2013 के बाद से मैं लगातार इस क्षेत्र में काम कर रहा हूँ और अब आकर मैं अपने आप को एक्टर कह सकता हूँ।

प्रश्न - फिल्मों में जूनियर आर्टिस्ट और सीनियर आर्टिस्ट के बीच की दूरी के बारे में आपका क्या ख्याल है?

उत्तर - जूनियर आर्टिस्ट तो अपने आप में एक अलग कौम है। मुम्बई में और सिनेमा में एक कैटेगरी है ए-ग्रेड, बी-ग्रेड। हमारे जो मुख्य कलाकार या स्टार वगैरह हैं वो सब तो ए ग्रेड के हैं और उसके बाद आते हैं हमारे कैरेक्टर आर्टिस्ट जैसे की वे लोग जिन पर फिल्म की स्क्रिप्ट लिखी जाती है। जैसे परेश रावल साहब, ओम पूरी ने एक फिल्म की जो कमर्शियली मल्टी स्टारर नहीं है लेकिन उनकी कई सारी ऐसी फ़िल्में हैं या नसीर साहब और आजकल संयज मिश्रा, पंकज त्रिपाठी हैं। अब हमारे यहाँ इंडस्ट्री में हीरो जैसे शत्रुघन सिन्हा, देवानन्द साहब, बच्चन, गोविंदा, मिथुन, जितेन्द्र, सलमान, शाहरुख ये सब हिरोइज्म की कैटेगरी वाले हैं और बाकि के दूसरे लोग भी अपने में स्टार हैं लेकिन उनकी तरह नहीं। उसके बाद एक तीसरी कैटेगरी आती है। उन लोगों की जो हीरो भी हैं और टीवी में बाप का, भाई का रोल कर रहे हैं जैसे रोनित रॉय हैं। वो किसी फिल्म में लीड भी करते हैं तो किसी में छोटे-मोटे रोल भी करते हैं। इसके बाद भी एक कैटेगरी है जिसमें मेरे जैसे लोग आते हैं। ये दरअसल कैमियो कहा जाएगा, जैसे पी० के में मैंने कैमियो किया। अब अगर आप देखें तो कैमियो में और जूनियर आर्टिस्ट में भी फर्क है।  पी० के० फिल्म  के सीन को देखें उसमें मैं और मेरे साथ एक महिला है, तो हम दोनों कैमियो कर रहे हैं और बाकि के लोग जो बस में बैठे हैं वो लोग जूनियर आर्टिस्ट हैं। जो शिफ्ट वाइज या रोजाना के हिसाब से काम करते हैं। उनका एक पैसा फ़िक्स हो सकता है और उनमें से अगर कोई डायलॉग बोल सकता है तो ठीक नहीं तो वो लोग फिलर्स यानी जगह भरने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं। मेरा संघर्ष वहाँ तक है कि मैं अब यहाँ से ऊपर उठ कर उस दूसरी कैटेगरी में जाऊँ। और बाकि रही बात भेदभाव की तो ऐसा कुछ नहीं है। एक्टर-एक्टर होता है। कैमियो वाले को कुछ लोग कैरेक्टर आर्टिस्ट भी कह देते हैं। मैंने आमिर के साथ, करीना के साथ, ऋतिक रोशन, नरेंद्र झा, अनुपम खेर, अन्नू कपूर, पीयूष मिश्रा आदि जैसे हर ग्रेड के एक्टर के साथ मैंने काम किया। मेरे साथ आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि कोई नया देखकर या शुरूआती सफ़र देखकर मुझे हिकारत की नजर से देखा गया हो। होता क्या है कि एक आम इंसान जो सिनेमा देखने जाता है या टीवी देखता है वो भले मुझे नहीं जानता है लेकिन एक एक्टर आपको वही आदर देता है जो मिलना चाहिए, या आप उन्हें देते हैं। क्योंकि इसमें एक बड़ी अजीब बात है कि कब? कहाँ? कौन? कोई? किस? जगह पर आकर बैठ जाए आप कह नहीं सकते। ये सब फ्लिक ऑफ़ सैकेंड में हो जाता है। 

प्रश्न - इंडस्ट्री से कई बार खबरें आती हैं कि फलां एक्टर की आपस में नहीं बन रही या मतभेद हैं, तो क्या सचमुच बॉलीवुड में कोई किसी का सगा नहीं है? और आप अपने आप को बचाते हुए चलें किसी की साइड न लें? क्योंकि आपको वहाँ बने रहना है?

उत्तर - मैं इस बात को बिल्कुल सिरे से नकारता हूँ। कारण क्या है कि हमारे मीडिया को खबरें बेचनी हैं। अगर खबर चटपटी नहीं होगी तो कोई क्यों देखेगा? ये हम सब जानते हैं। चाहे वो राजनीतिक हो, सिनेमाई हो। स्टार डस्ट, फ़िल्मी कलियाँ, फिल्म फेयर आदि सिनेमा की मैगजीन कॉलेज के समय में मैं खूब पढ़ा करता था। तो उसमें जो मेन स्टोरी आती थी। जैसे अनिल कपूर और गोविंदा में संघर्ष, अनिल कपूर को हटाकर गोविंदा स्टार बन गया और उनके बीच में एक बिजली की चमक जैसी लाइन खींच दी जाती थी।  मैं अगर अपने पिछले चार-पाँच साल का अनुभव  देखूं तो उसमें मैंने गुलशन ग्रोवर, रंजीत साहब के साथ काम किया है। ‘बहन होगी तेरी’ फिल्म में रंजीत के साथ एक सीन था तो मैंने शॉट के बाद जब उनके साथ एक फोटो खिंचवाया तो हम लोग वैनिटी में जा रहे थे। तो उस समय मैंने रंजीत साहब से कहा कि – मैं बचपन से आपको देख रहा हूँ और मेरे लिए यह बहुत बड़ी बात है कि मैं आपके साथ स्क्रीन शेयर कर रहा हूँ। तो उन्होंने बड़े प्यार से कंधे पर हाथ रखते हुए कहा – अरे, अरे ये कोई बड़ी बात नहीं है। कल को तुम भी ऐसे ही हो जाओगे। हमारा काम ही यही है। तो मुझे तो आज तक ऐसा लगा नहीं कि भई कोई एक्टर किसी को खुन्नस की नजर से देख रहा हो। ऐसे ही पीयूष मिश्रा के साथ नाटकों में काम किया है। तो वो भी सभी के सामने मुझे पहचानते हुए अपने पास बुलाया हाल-चाल लिया। ये बात है साहित्य आजतक के कार्यक्रम की जहाँ मैं एक बार अपने दोस्तों के साथ गया हुआ था और पीयूष मिश्रा का इंटरव्यू सामने चल रहा था और जैसे ही वो नीचे उतरे तो पूरी सिक्योरिटी के बावजूद वो मेरे से मिलने आए।

प्रश्न - क्या खाली विज्ञापन करते रहने से फिल्मों के लिए बड़े मौके मिलना सम्भव है ?

उत्तर – बिल्कुल मिल सकता है। बस ये है ईमानदारी से आप काम करते रहें। अभी हाल ही में मैंने आदिल हुसैन के साथ काम किया फिल्म थी ‘निर्वाणा’ उस फिल्म में आदिल से मेरी बात हो रही थी। कैसे आप इस क्षेत्र में प्रगतिशील हो सकते हैं एक-एक स्टेप से। तो उस बातचीत के दौरान उन्होंने एक साफ़ और सीधी बात कही कि – तुम अपने सिर्फ क्राफ्ट पर काम करो। जो अपना एक्टिंग का क्राफ्ट है, अगर आप अपनी एक्टिंग को, अभिनय की शैली को लगातार काम करते रहोगे, जितना आप उसमें पारंगत होते जाओगे। तो अपने आप इंडस्ट्री अपने आप आपको उठा लेगी। ऐसा नहीं है अब तो टीवी का एक्टर फिल्म में आ सकता है, विज्ञापन का एक्टर फ़िल्में कर सकता है और कर रहे हैं ऐसे बहुत से लोग हैं। जैसे रोनित रॉय हैं उनका भाई रोहित रॉय।

प्रश्न – तो इस तरह बच्चन आदि को देखें तो उनका टीवी की और रुख करना या वहाँ अपनी पैठ बनाने का कारण क्या है?

उत्तर – इसका सबसे बड़ा कारण तो यह की टीवी की पहुँच बहुत ज्यादा है। क्योंकि अब जैसे मैं सिनेमा हॉल में जाकर फिल्म देखता हूँ, मेरे घर में कोई नहीं जाता। और मान लें मैं उनसे कहूँ कि चलो आप मेरे साथ, तो वो मेरे स्पेशली कहने पर जाएंगे और वहीं मेरे घर के वो लोग टीवी जरुर देखते हैं। दूसरी बात ये की फिल्मों के बीच में बहुत सारा खाली वक्त भी एक्टर के पास होता है। तो उन्हें मौका मिलता है तो वो लोग टीवी भी करते हैं। बच्चन का अगर आप उदाहरण ले रहे हैं तो उनकी पहुँच भी है और उन्हें पैसा भी मिल रहा है। पैसा मुख्य कारण है।

प्रश्न - जूनियर आर्टिस्ट के संघर्षों की दुनिया किस तरह बड़े कलाकारों से भिन्न है ?

उत्तर - देखिए जैसा मैंने पहले ही कहा। अब जैसे आप पंकज त्रिपाठी, संजय मिश्रा, नवाजुद्दीन का उदाहरण लें क्या ये सब बीस साल पहले अच्छे एक्टर नहीं थे ? लेकिन क्या है कि उन्हें पहले वो मौका नहीं मिल रहा था। उन्होंने ने भी कैरेक्टर आर्टिस्ट के रोल किए हैं। वो मानते थे कि उन्हें यही सब करना पड़ेगा लेकिन फिर अचानक से ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ उनकी जिंदगी में आती है। और वो आकर उसी कैटेगरी में बैठ जाते हैं, फिर सलमान भी उन्हें अपनी फिल्म में लेते हैं, शाहरुख भी फिल्म में लेते हैं तो ये एक उस तरह से एक जुआ टाइप है। अगर आपको अच्छा रोल मिल जाए और आप उसे अच्छे से निभा जाएँ ठीक से तो आप भी उस कैटेगरी में शामिल हो जाते हैं।

प्रश्न - बॉलीवुड की चकाचौंध और इसके पीछे की गुमनामी वाली जिंदगी वाले कलाकारों के बारे में आपकी क्या राय है ?

उत्तर – बिल्कुल जैसे राजेश खन्ना को देखिए आप। वो बड़े सुपरस्टार थे, उन्होंने वो स्टारडम देखा था जो हमारे आज के लोगों ने नहीं देखा। दरअसल होता ये है कि आपको उस चीज की आदत पड़ जाती है। आपको लोग पूछते हैं, हमारी दुनिया का जो दस्तूर है वो ये कि जो दिखता है वो बिकता है। और एक वक्त के बाद क्या होता है कि  बहुत सारे एक्टर जैसे महमूद साहब उनके बारे में भी लोग कहते हैं, ए० के० हंगल भी ऐसे ही एक्टर होते थे जिनके पास बिल्कुल भी कोई उनके पास नहीं था। उन्हें तो अपने अंत समय तक दुःख भी रहा कि बच्चन साहब ने उन्हें फोन तक नहीं किया। ऐसे ही कादर खान के साथ हुआ। एक तो कारण वही है जो काम कर रहा है, चल रहा है। दूसरी चीज अपना-अपना व्यक्तिगत भी होता है कि शादी के बाद मैं काम नहीं करना चाहता।  जैसे हाल में इरफ़ान खान हो या कपिल शर्मा हो। ये सब मिडिया के खेल है। और क्या कपिल शर्मा जो ऑडियो में बात कर रहे हैं क्या उस तरह से हम लोग आम जीवन में बात नहीं करते हैं? क्या हम लोग अपनी हर बात में गालियों का इस्तेमाल नहीं करते हैं? लेकिन ये जब हमारी आदत में शुमार हो चुका है तो इसका मतलब यह तो नहीं कि मैं सामने वाले को सच में गाली दे रहा हूँ। दूसरी चीज आप किसी एक आदमी की ऐसी एक बातचीत कैसे शेयर या पब्लिक कर सकते हैं। कहीं न कहीं यह कोंस्पिरेंसी है, साजिश है। अपने आप में पूरा एक प्रोपेगेंडा मानता हूँ मैं इसे, अब इसके पीछे कौन लोग हैं वो मैं नहीं जानता लेकिन मीडिया का इसमें बहुत बड़ा हाथ था। हर इंसान के दो चेहरे होते हैं एक जो सामने दिखाई देता है दूसरा वो जो पर्दे के पीछे होता है। मैं अपने घर में कैसे रहता हूँ, खाता-पीता हूँ वो मेरा चेहरा और मैं जो पब्लिक के सामने हूँ मेरा वो चेहरा दोनों अलग हैं। ये हर इंसान के साथ है, जो भी इंसान सांस लेता है, जीता है, खाना खाता है, चलता-फिरता है, बात करता है उसमें आप सलमान को ले लें, बच्चन को ले लें, संजय दत्त को ले लें, राज शर्मा को ले लें सारे के सारे जो भी इंसान हैं वो है तो नॉर्मल इंसान ही? तो हर किसी के यहाँ दो चेहरे होते हैं। अब कोई भी बड़ा एक्टर अपने घर में कैसे रहता होगा वो चीज तो पब्लिक करना एक प्रोपेगेंडा ही है। 

प्रश्न - मी टू को लेकर क्या कहेंगे ? क्या यह भी एक प्रोपेगेंडा है?

उत्तर – अभी क्या है कि चीजें बहुत आसानी से मिलने लगी हैं। कि आप मान लें फेसबुक खोलते हैं तो उसमें पचास तरह की वीडियो देखने को मिलती है, जिसमें एक्टर हैं या और कोई पर्सनेलिटी है। ये सब मिडिया और इंटरनेट के चलते मिल रही हैं। कास्टिंग काउच जैसी चीजें भी इसमें आसानी से उपलब्ध हो रही हैं। लोग करते हैं इस तरह की हरकतें और होती भी रहती है। मेरे सामने नहीं आया हालांकि लेकिन मैंने भी सुना है कि ये सब होता है। मैं इसे पूरी तरह नकार नहीं सकता। ना ही इसमें डिप्लोमेटिक होकर कुछ कहूँगा। लेकिन आलोक नाथ के साथ जो कुछ हुआ वो बाद में लोगों ने कहा कि हाँ यह सच है। तभी लोगों ने कहा कि यह सच है और वो इसलिए ही ये सब झेल रहे हैं। तो बहुत सारी चीजें हैं इसमें और ये सब होता है।

प्रश्न – 377 जैसे मुद्दे को अहमियत देने में या उसे लागू करवाने में सिनेमा जगत का कितना हाथ है?

उत्तर – सिनेमा ही नहीं आप कहीं भी जाइए कोर्पोरेट सेक्टर है या राजनीति है सब जगह ये चल रहा है। भले वो अंदर ही अंदर क्यों न हो। और सिनेमा ऐसी ही चीजों को जब बाहर लेकर आ रहा है तो हम उस पर हो हल्ला कर रहे हैं। देखिए हमाम में सब नंगे हैं। बॉलीवुड बीएस उसे खुलकर दिखाने का प्रयास कर रहा है। दरअसल सिनेमा है क्या ? यही ना की आपको वो उस तरह की चीजें जो नॉर्मली होती है लाइफ में वो दिखाता है। ये सब बॉलीवुड में ही नहीं हर सेक्टर और आम जीवन में है। हम इन चीजों को पचा नहीं पा रहे हैं। इनको हम बदल नहीं सकते। मान लो कोई लड़की कुछ कर रही है जिससे मेरा कोई रिश्ता नहीं है या कोई लेना-देना नहीं या जिसे मैं जानता नहीं हूँ तो मेरे लिए वो नॉर्मल है। लेकिन वही बात जब मेरे घर में होती है तो मैं एकदम से झंडा उठा लूँगा। क्योंकि हमारा जो समाजिक दायरा है, जो समाज का स्तर है, वो बिल्कुल हैं। जैसे बॉलीवुड को ही लें तो ज्यादातर एक्टर्स की बीवियाँ शादी के बाद काम नहीं करती है। बच्चन साहब की बेटी ही सिनेमा में नहीं है। बहुत सालों बाद उसने एक एड की जिसे भी लोगों ने नकार दिया तो ये वही बात है कि दूसरा है तब ठीक है लेकिन जब बात अपने पर आती है तो फिर आप झंडा उठा लेते हैं कि ये नहीं होना चाहिए। ये दोगलापन है एक तरह से।

प्रश्न - वर्तमान की फिल्मों की कहानियों और उनके इतने बड़े हाईप क्रियेट करने के बाद भी फ्लॉप होने के पीछे बड़ी वजह क्या मानते हैं ?

उत्तर -  इसका बेसिक सा कारण है कि ऑडियंस का टेस्ट बदल रहा है। अब जैसे ‘बधाई हो’ फिल्म को लें एक सिम्पल सी कहानी है। कई करोड़ कमा लिए। ऐसे ही ‘विक्की डोनर’ आई थी। इनका अलग कंटेंट है, छोटी सी फिल्म और अचानक से 100-200 करोड़ की कमाई। इसके बीच में ‘पीकू’ आई थी, कितनी हल्की-फुलकी सी फिल्म थी।बधाई हो के साथ-साथ ‘अंधाधुन’ आई थी। अब हिरोइज्म वाला फैक्टर जो है पहले से कम हुआ है। पहले एक हीरो हुआ करता था वो आकर पूरे गाँव  के लिए समाज के लिए जीता था तो उसे सुपरमैन, स्पाइडर मैन और शक्तिमान से उसे आँकते थे। लेकिन अभी क्या है कि एक नॉर्मल इंसान जो राह चलता कोई भी आदमी वो हीरो तो है। अपनी लाइफ में सब हीरो है। एक बाप जो अपने परिवार के लिए जीता है, अच्छे से पालता है वो अपने परिवार के लिए हीरो है। वो अपनी कहानी का तो हीरो है। चाहे आप लेखन में देख लीजिए, चाहे सिनेमा में। हल्की-फुल्की फ़िल्में ज्यादा काम कर पा रही हैं बजाए स्टार्स से भरी हुई कास्ट वाली फ़िल्में। और यहाँ सबकी अपनी एक ऑडियंस है, जैसे सलमान है तो उनकी फिल्म देखने वो ऑडियंस जाएगी ही जाएगी जिसे उन्हें देखना है। तभी रेस 3 जैसी फ़िल्में भी कमाई कर जा रही है। ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ ने पाँच घंटे की फिल्म होने के बाद भी पूरा सिनेमा ही बदल दिया। और ये होता है।

प्रश्न - विवादित फ़िल्में हाल फिलहाल में आई जिन पर कई दिन तक विवाद हुआ। उन फिल्मों को और उन से उपजे विवादों को देखें तो सिनेमा जोड़ने का काम करता है या तोड़ने का?

उत्तर - देखिए सिनेमा जोड़ने का काम ही दरअसल करता है। आप कह कर नहीं मान सकते या मनवा सकते किसी को कि ये फिल्म पर कंट्रोवर्सी होगी और इस फिल्म पर कंट्रोवर्सी तो होगी ही नहीं। कंट्रोवर्सी तो होती है। हर दूसरी फिल्म पर कंट्रोवर्सी होती है। जैसे अभी ‘एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ या ‘मणिकर्णिका’ को लेकर हुआ है। वो कितनी ऊपर तक जाती ये अहम है। अब पद्मावत वाली कंट्रोवर्सी तो बहुत ऊपर तक चली गई। उसके लिए जिम्मेदार करनी सेना है। उन्होंने न चाहते हुए भी उस फिल्म को इतना ज्यादा हाईप दे दिया। जहाँ तक मैं मानता हूँ तो वो ये कि करनी सेना उसे इतना हाईप नहीं देती तो यहे नहीं होता। और ये सब उनका दिखावा ही तो था। क्योंकि ऐसा ही है तो बाकि मुद्दों पर कहाँ चली जाती है करनी सेना? पद्मावत को लेकर भी मतभेद हैं। तो बाकि मुद्दों पर आप चुप क्यों बैठ जाते हो जब आपके या दूसरे समुदाय की बेटियों के साथ अत्याचार की घटनाएँ सामने आती हैं तो। हर इंसान अपने लिए, अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहा है। प्रेमचन्द भी गोदान में लिखते हैं। जहाँ गोबर गाँव में आकर बोलता है तो भोला को ख़ुशी और गर्व होता है की उसका बेटा वहाँ आकर बोल रहा है। तो हमारे साथ समस्या है कि हम सुनते कम और बोलते ज्यादा हैं। हमारे जीवन की जो शुरुआत होती है वो ही अस्तित्व की लड़ाई के साथ शुरू हो जाती है। लोग अपने अच्छे मकान, अच्छे जीवन और अच्छा-अच्छा करके मर जाते हैं ये सब एक प्रोपेगेंडा बना दिया गया है।



प्रश्न - भविष्य में आपके खाते में क्या कुछ है ? जिससे आप प्रभावित कर पाएंगे दर्शकों और समीक्षकों को ?

उत्तर - देखिए मैं जो भी काम करता हूँ या जो भी मुझे करने को मिलता है उसे मैं पूरा शत-प्रतिशत देने की कोशिश करता हूँ। अभी मैं एक फिल्म कर रहा हूँ ‘द एन०सी० आर०’ जिसमें मेरा एक बहुत ही अच्छा रोल है। कहानी तो खैर मैं बता नहीं सकता। लेकिन ये क्राइम बेस्ड और चाइल्ड ट्रेफिकिंग की कहानी है। उसमें मेरा नेगेटिव किरदार है। और मेरे लिए यह पहला मौका है जब मैं कुछ नेगेटिव कर रहा हूँ और एक पूरा स्पेस मुझे इसमें मिल रहा है। शायद यह फिल्म चले और शायद मैं दर्शकों को, समीक्षकों को प्रभावित कर सकूँ। मेरी अभी पहचान और अस्तित्व की लड़ाई है जैसा मैंने आपसे पहले कहा।  इससे पहले ‘बुसान’ (बुसान इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल) के लिए मैंने एक फिल्म की है। ‘द निर्वाणा इन’ उसमें मेरा काफ़ी अच्छा किरदार है। लेकिन अभी तक जितना भी काम मैंने किया है उससे मैं खुश हूँ कि लोग मेरी तारीफ़ कर रहे हैं।



प्रश्न - कभी कोई निर्देशन के बारे में सोचा है ?

उत्तर - ऐसे तो मैंने एक बिल्कुल छोटी सी पैंतीस सैकेंड की एक शॉट फिल्म बनाई थी। जिसे आप मेरा डेब्यू कह सकते हैं। हँसते हुए... हाँ बाकि फिल्म बनाने का मेरा मन है, मैं डायरेक्ट करना चाहूँगा। अगर मैं कल को एक्टिंग में एक अच्छा खासा मुकाम पा लूँगा उसके बाद और मैं फिल्म जो बनाना चाहूँगा वो पश्चिमी उत्तर प्रदेश के आस पास की कहानी होगी। और मुझे गैंग्स्टर वाला फ्लेवर बहुत पंसद आता है। तो उसी पृष्ठभूमि पर बनाऊँगा। वैसे भी माफिया या गैंग्स्टर की कहानियाँ हर कहीं हैं। कंस्ट्रकशन हो, कोल माइनिग हो, या दाउद पर हो, शूट आउट एंड लोखंडवाला हो उन पर फ़िल्में बहुत पसंद है। ये माफिया बॉलीवुड में भी है। कुछ लोग वहाँ तक पहुँचाने के रुपए या कमिशन भी आपसे लेते हैं जो कभी कभी सत्तर प्रतिशत तक है।  इसी तरह की फिल्म का निर्देशन करना चाहूँगा। इसके अलावा बायोपिक बन रही हैं तो मैं शिवाजी से बड़ा प्रभावित हूँ इसलिए मैं शिवाजी पर बायोपिक बनाना चाहूँगा या उसमें जरुर काम करना चाहूँगा।




नोट - राज शर्मा के साथ यह इंटरव्यू साल 2018 में 'बधाई हो' फ़िल्म आने के बाद लिया गया था। इस फ़िल्म में इनकी छोटी सी लेकिन चुलबुली सी भूमिका थी। उसके बाद अब तक वे कई फ़िल्म और सीरीज में नजर आ चुके हैं। जैसे कि 'फ्लेम' वेब सीरीज के दूसरे सीजन में इशिता के पिता के रूप में। 'पाताललोक' सीरीज में महिपाल सिंह की भूमिका के रूप में शॉर्ट फिल्म 'पीली मछली' में देव मिश्रा के रूप में लीड रोल के लिए दादा साहेब फालके बेस्ट एक्टर का अवॉर्ड भी हासिल किया। हालिया रिलीज 'ग्रहण' वेब सीरीज में सतनाम सिंह के रूप में। इसके अलावा भी कुछ सीरीज और फिल्में आनी बाकी हैं। 'गिल्टी माइंडस', 'नैना' , 'कांड' इनमें प्रमुख हैं।


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