“लोग हमसे नफरत करते हैं, लोगों
को यह समझना चाहिए कि हमें भी आशियाने की जरूरत है, हमें भी
प्यास लगती है, हमें भी भूख लगती है । हमारे पास भी दिमाग है
। हम भी अच्छे काम कर सकते हैं ।” (एक तृतीय लिंगी की जुबान
से...)
आज का समय वंचित वर्गों के लिए अत्यन्त चुनौतियों से भरा
है । रोज ही अखबारों में दलित, स्त्री, आदिवासी समाज पर हो रहे अमानवीय अत्याचारों की खबरें सुर्खियों में रहती
हैं । दलित, आदिवासी तथा स्त्री तीनों ही अपने-अपने स्तरों
पर अपने अस्तित्व को बचाये रखने हेतु संघर्षरत हैं । इनके संघर्षों से उत्पन्न
छटपटाहट दिल्ली से लेकर देश के आम गांव तक में देखी जा सकती है । परन्तु वहीं
वर्चस्ववादी इन्हें अपने नियंत्रण से बाहर न जाने के लिए मिथ्या हठ ठाने हुए हैं ।
इसके लिए वर्चस्वादी किसी भी सीमा तक जाने के लिए तैयार है । इसी कारण प्रायः देखे
तो किसी गाँव, कस्बे या शहर में किसी दलित ने जरा सा सिर
उठाया उसे कुचलने के लिए साम, दाम, दंड
तीनों का प्रयोग करने से कभी नहीं हिचकते हैं । प्रत्येक दिन ही दलितों को मारना,
पीटना, घर जला देने की खबरें अखबारों में आम
है । यही स्थिति है स्त्रियों की भी है, उनका तो सुन्दर होना,
ठीक से कपड़े पहनना या खुलकर बाहर निकलना की अभिशाप बन गया है । गाँव
की युवती घर से बाहर निकलकर खेत पर गयी, दुराचार कर डाला,
शिक्षा के लिए निकली तो छेड़छाड़ और दुराचार का शिकार बना डाला और कुछ
नहीं कर सके तो बदनाम कर उसे अपमानित कर दिया । वंचित, शोषित,
कुचले समुदायों में से ही एक ‘हिजड़ा समुदाय‘
भी है, जो आज भी स्वयं को इंसान कहे जाने के
लिए संघर्षरत है । डॉ. भारती अग्रवाल इस तथ्य को पुष्ट करते हुए अपने के एक लेख
में लिखती हैं, ‘‘आज का दौर अस्तित्व की पड़ताल का दौर है ।
हाशिए पर धकेले गये स्त्री और पुरुष अपनी अस्मिता के लिए संघर्षरत है । ऐसे समय
में समाज के एक वर्ग को निरंतर अनदेखा किया गया है, वह है
थर्ड जेंडर ।”1
विचारणीय है कि ‘हिजड़ा‘
शब्द सुनकर या इन्हें घरों में सुअवसरों पर नाचते-गाते देखते हुए ये
प्रश्न कभी न कभी हम सभी के मन में आते हैं या आये होंगे कि आखिर हिंजड़े कैसे पैदा
होते हैं ? इनका समुदाय का रहन-सहन किस प्रकार का होता है ?
या यह समुदाय सामान्य समाज में घुल मिलकर क्यों नहीं रहता ? आदि-आदि । इसके अतिरिक्त अन्य कई प्रश्न ऐसे हैं, जो
हिजड़ा समुदाय से सम्बंधित होते हैं । ‘हिजड़ा‘ शब्द की उत्पत्ति या इन्हें और किन विशेष क्षेत्रों में किन-किन नामों से
जाना-पुकारा जाता है या ‘हिजड़ा समुदाय‘ के विषय में संक्षिप्त पर गंभीर चिन्तन करना समीचीन होगा ।
हिजड़ों से तात्पर्य उन लोगों से हैं, जिनके जननांग पूरी तरह विकसित न हो पाए हो या पुरुष होकर भी स्त्रैण
स्वभाव के लोग, जिन्हें पुरुषों की जगह स्त्रियों के मध्य
रहने में सहजता महसूस होती है । शब्द ‘हिजड़ा‘ उर्दू से लिया है, जो अरबी के हिज्र शब्द से आया है ।
जिसका अर्थ होता है अपने कबीले का छोड़ना । यानि घर-परिवार एवं समाज से अलग होना ।
हिन्दी या उर्दू में प्रयुक्त इस ‘हिजड़ा‘ शब्द को अन्य शब्दों से जैसे- हिजिरा, हिजादा,
हिजदा, हिजारा और हिजराह शब्द से भी पुकारा
जाता है । उर्दू का ख्वाजा सरा शब्द हिजड़ा का समानार्थी है । दूसरे अन्य शब्द खसुआ
और खुसरा है । अंग्रेजी में इसे यनक अथवा हर्मा फ्रोडाइट से जोड़कर देखा जाता है ।
बंगाली में इन्हें हिजरा, हिजला, हिजरी
से सम्बोधित किया जाता है । तेलगु में उन्हें नपुंसुकुडू, कोज्जा
अथवा मादा, तमिल में अली, अरावनी,
अरवन्नी, अरूवरी । पंजाबी में खुसरा, जंखा, सिंधी में खदरा, गुजराती
में पवैया, मराठी में हिजड़ा, छक्का आदि
नामों से जाना जाता है । लेखक-विचारक डॉ. विजेन्द्र प्रताप सिंह ने अपनी पुस्तक
में लिखते हैं, ‘‘समाज में मानव प्रजाति के इन दो लिंगों के
अलावा भी एक और प्रजाति का अस्तित्व है, जो न पुरुष होता है
न स्त्री । जो न संभोग कर सकता है न ही गर्भ धारण कर सकता है । जिसे किन्नर,
हिजड़ा या छक्का कहा जाता है ।”2 आगे वह अन्य नामों व
इनकी दयनीय स्थिति से परिचय कराते हुए लिखते हैं, ‘‘थर्ड
जेंडर, लौंडेबाजों, लेस्बियन्स,
गे, ट्रांस जेंडर, तृतीय
लिंग, किन्नर (इस शब्द का प्रयोग काफी विवादास्पद रहा),
षिखंडी, बहन्नला, खोजवां/हिजरा,
हिजड़ा, माद्दा, कोज्जा,
नंगाई/अरूवन्नी, खुसरा, मामू,
गांडु, नामर्द, मऊगा,
पावैया आदि नामों से जाना जाने वाला यह समुदाय भारतीय समाज के सबसे
उपेक्षित तबकों में से एक है ।”3 कुछ वर्ष पूर्व ही माननीय सुप्रीम
कोर्ट ने अपने फैसले में उपरोक्त शब्दों के स्थान पर ‘थर्ड
जेन्डर‘ के नाम से सम्बोधित किया है । इसलिए अब इस समुदाय के
लोगों को ‘थर्डजेन्डर‘ के नाम से जाना
जाता है । आज राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक दृष्टि से इसकी
शिनाख्त सबसे उत्पीड़ित वर्गों के रूप में की जा रही है । वर्षां से दुत्कार,
प्रताड़ना और अपमान झेलने वाला यह वर्ग अब खुली हवाओं में सांसें
लेने का प्रयास कर रहा है । शिक्षा की बात हो, संगठन
बनाने-सामाजिक काम करने का हो या फिर राजनीति में सक्रिय भागीदारी का, हिजड़ा समुदाय की छटपटाहट खुल कर सामने आने लगी है । हिजड़ा समुदाय वास्तविक
उत्पीड़ित समुदाय है । अन्य पीडित समुदायों यहां तक की पशु-पक्षियों व पेड़-पौधों के
संरक्षण व विकास हेतु कानूनी व्यवस्था है । लेकिन हिजड़ों को तो देश में मान्यता ही
2014 के बाद मिली है, जो उक्त समुदाय का दुर्भाग्य है ।
हालांकि इसे एक सुखद कदम में रूप में देखा जाना अनिवार्य है । हालांकि नेपाल,
बांग्लादेश, पाकिस्तान आदि देशों में इनके लिए
कई वर्षों पूर्व ही कानूनी अधिकार दे दिये गये थे । उल्लेखनीय है कि पश्चिम देशों
में इनकी स्थिति भारत की अपेक्षा काफी बेहतर है ।
भारत की सन् 2011 की जनगणनानुसार भारत में लगभग 4.9 लाख
किन्नर हैं, जिनमें 1,37000 उत्तर प्रदेश में निवास
करते हैं । इसी जनगणना के अनुसार सामान्य जनसंख्या में शिक्षित लोगों की संख्या 74
प्रतिशत है, जबकि यही संख्या किन्नरों में महज 46 प्रतिशत ही
है । प्रबुद्ध लेखक-विचारक डॉ. पुनीत बिसारिया के एक अध्ययन के मुताबिक ‘‘आश्चर्य की बात है कि दो लाख असली हिजड़ों में से भी सिर्फ 400 जन्मजात
हिजड़े या बुचरा हैं, शेष हिजड़ें स्त्रैण स्वभाव के कारण
हिजड़ों में परिगणित किए जाने वाले मनसा या हंसा हिजड़े हैं और इससे भी बड़े आश्चर्य
की बात यह है कि इन दो लाख हिजड़ों में से लगभग 70,000 हिजड़े ऐसे हैं, जिन्हें एक छोटे से ऑपरेशन के बाद लिंग परिवर्तन करने के पश्चात् पुरुष या
स्त्री बनाया जा सकता है लेकिन दुःख की बात है कि इस ओर किसी का ध्यान नहीं है ।
सम्पूर्ण हिजड़े समुदाय को सामाजिक संरचना की दृष्टि से सात
घरानों में बांटा गया है, घर घराने के मुखिया को नायक
कहा जाता है । ये नायक ही अपने डेरे या आश्रम हेतु गुरु का चयन करते हैं हिजड़े
जिनसे शादी करते हैं, या कहें जिन्हें अपना पति मानते हैं,
उन्हें ‘गिरिया‘ कहते
हैं । उनके नाम का करवाचौथ भी मनाते हैं । हमारे देश में इस प्रकार की मानसिक
विकृति को स्वीकृति नहीं मिली है । सन् 1871 तक हिजड़ों को हमारे समाज में
स्वीकार्यता प्राप्त थी । महाभारत काल से लेकर मध्यकाल तक इस समाज की स्थिति आज से
अच्छी थी । तत्कालीन समय राजाओं के घरों में जनानखानों की रखवाली, हवेलियों और महलों की पहरेदारी के लिए सरकारी नौकरी पर रखा जाता था । फिर
ब्रिटिश राज में इन्हें सन्देह की दृष्टि से देखा जाने लगा और 1871 में इन्हें
अपराधिक जनजाति में शामिल कर लिया गया । स्वतंत्रता के बाद इस वर्ग को यथास्थिति
में ही रखा गया और इनके जीवन को व्यवस्थित करने हेतु न तो कोई सरकारी प्रयास हुआ
और न ही समाज सुधारकों का विशेष ध्यान इनकी ओर गया ।
थर्ड जेंडर विषयक अपनी विशिष्ट समझ रखने वाले लेखन डॉ. एम.
फिरोज खान अपनी सम्पादित पुस्तक ‘थर्ड जेन्डरः हिन्दी
कहानियां‘ में हिजड़ा समुदाय की धार्मिक पृष्ठभूमि के विषय
लिखते हैं ‘‘आज किन्नर चाहे किसी भी धर्म का हो वह अपने
पूर्व धर्मों का छोड़ चुका है । अब उसकी अराध्य देवी बहुचरा माता है । वह उन्हीं की
पूजा-पाठ करता दिखाई पड़ता है । इनका मन्दिर गुजरात में है ।”4 हिजड़ा
समुदाय की शाखाओं के विषय में डॉ. फिराज लिखते हैं ‘‘इनकी
चार शाखाएं हैं-बुचरा, नीलिमा, मनसा और
हंसा ।”5 विस्तारित अध्ययन से स्पष्ट हुआ कि ‘बुचरा‘
की शाखा में पैदाइशी, ‘नीलिमा‘ की शाखा में जबरन बनाये गये, ‘मनसा‘ शाखा में इच्छा से बने और ‘हंसा‘ में वो आते हैं, जो शारीरिक कमी के कारण हिजड़े बनते
हैं । एक अन्य विभाजन के आधार पर ‘नीलिमा‘ शाखा के हिजड़े गाने-बजाने का काम करते हैं, जबकि ‘मनसा‘ शाखा हिजड़ा बनाने वाले व्यक्ति के लिए सामान
इकट्ठा करना है । जब ‘बुचरा‘ किसी को हिजड़ा
बना रहे होते हैं, तब ‘हंसा‘ साफ-सफाई का काम करता है । इसके इतर कब्र खोदने और उसमें राख डालने का काम
भी केवल ‘हंसा’ शाखा के किन्नर ही करते हैं, कब्र में पहली मिट्टी डालने का काम बुचरा शाखा के लोग ही करते हैं । एक
अन्य शाखा ‘अबुवा‘/‘अनुवा‘ भी अस्तित्व में, जो धन कमाने के लिए बहुत सारे लोग
हिजड़े का स्वांग धारण करते हैं अर्थात् नकली होते है उन्हें ‘अबुवा‘ कहा जाता है । इस प्रकार के हिजड़े वास्तविक
हिजड़ों के लिए परेशानी का कारण बने रहते हैं । अपने इस जन्म का कोई भी हिजड़ा यह
नहीं चाहता कि उसका अगला जन्म हिजड़ा ही हो । इसके बावजूद कुछ मर्दां को हिजड़ा भेष
बदलकर तालियां पीटने में जरा भी हिचकिचाहट नहीं महसूस होती । परन्तु इस तरह की
ताली पीटने वाले न केवल वास्तविक हिजड़ों के पेट पर लात मारने का कार्य करते हैं
बल्कि आम जनता के मन-मस्तिष्क में इनसे अलग रहने की भावना को भी बल प्रदान कर रहे
हैं । मान्यता यह भी है कि कभी-कभी सामान्य बच्चों को भी किसी कारणवश बलात्
बधियाकरण करके हिजड़ा बना दिया जाता है, जो कि एक बहुत ही
दर्दनाक प्रक्रिया है । इन्हें ‘छिनरा‘ भी कहते हैं ।
इनके पारिवारिक पृष्ठभूमि के विषय में जानने हेतु इच्छुक
तो हम सभी रहते हैं, परन्तु इस विषय में कम ही
व्यक्ति जानकारी रखते हैं । डॉ. फिरोज खान इस पर कहते हैं, ‘‘किन्नरों का समाज भी आम परिवारों की तरह ही होता है। हर घर या घराने का एक
मुखिया होता है, जिसे नायक कहते हैं । नायक के नीचे गुरु
होते हैं फिर चेले । गुरू का दर्जा मां-बाप से कम नहीं होता । हर किन्नर का अपने
गुरू का अपनी कमाई का एक हिस्सा देना होता है । उम्र दराज उस्ताद का काम
हिसाब-किताब रखना होता है । गुरु के नीचे काम करने वाले सभी चेले घराने की बहुएं
कहलाती हैं । हालांकि घराने के अन्दर भाई, बहन, बुआ, चाची, दादा, दादी आदि का अपना स्थान है, जो किन्नर को बहन का
ओहदा दिया जाता है ।”6 इससे यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि भले ही इस
पूर्ण लिंगी समाज में इन अधूरी देहों वालो के स्थान न हो, परन्तु
इन्होंने अपना ही एक निश्चित समाज गढ़ लिया है, जहाँ ये सब
सुरक्षित ही नहीं बल्कि एक परिवार के जैसे जीवन-यापन करते हैं । बड़ी ही
विरोधाभासों से भरी हमारी दुनिया है कि लिंग पूजने वाले इस समाज में लिंगविहीनों
का कोई स्थान ही नहीं है और न हमारा समाज इन्हें बर्दाश्त ही नहीं कर पाता है ।
आखिर कब तक ?
कुदरत ने तृतीय लिंगी लोगों के साथ अन्याय किया है । जिस
पर हम अगली बार विचार करेंगे ...
क्रमश:
यदि आप को लगता है कि अन्याय हुआ है आपके साथ या किसी और के साथ, तो नीचे की ओर देखो। आप पाओगे कि सैकड़ों है जिन्हें न्याय की आवश्यकता आप से भी अधिक है। या जिनके बारे में आप सोच रहे हैं, उनसे भी अधिक है।
ReplyDeleteयदि आपको उत्तरोत्तर तरक्की करनी है तो अपने से प्रगतिशील प्राणियों को देखिए। यदि सम्भव हो, अपने प्रयोजन को पाने का यथोचित पुरुषार्थ किजिए।
धन्यवाद सर
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Deleteवर्तमान में हिजड़ों को अपने अलग से समुदायिकरण की आवश्यकता ही उनकी परेशानी है. उनका अपनी कुंठाओं को अपनी रोजी-रोटी का साधन बनाना कहां तक उचित है. जिस प्रकार चमारों ने शिक्षित होकर मरे हुए जानवरों की खाल खिंचने या चमड़े निकालने का काम बंद किया और तब की यूपी की आगरा कमीशनरी (मुजफ्फरनगर,मेरठ, गाजियाबाद, हापुड़, बुलंदशहर, खुर्जा, अलीगढ़, मथुरा, फिरोजाबाद, आगरा) के लोग जाटव (हमेशा काम में जुटे लोग) चमार कहलाए और धीरे धीरे उनका काम खेती के साथ सरकारी अर्द्धसरकारी और अब प्राइवेट नौकरी है, कुछ अपने अलग-अलग व्यवसाय में भी कार्यरत हैं. जो काम आपको सम्मान दे वही करना चाहिए या अपने काम में लोगों की परवाह किए बिना सम्मान ढूंढना होगा.
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Deleteथर्ड जेंडर की तकलीफों को सामने लाने वाला बेहतरीन, सूचनापरक लेख।
ReplyDeleteशुक्रिया
Deleteशुक्रिया
ReplyDeleteआपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए बहुत महत्व रखती है।
ReplyDeleteसर,
आप जैसे गम्भीर और सुधी पाठकों के कारण ही लिखने की ऊर्जा और साहस मिलता है। भविष्य में भी आप ऐसे ही हमारा उत्साहवर्धन करते रहेंगे इसी आशा के साथ। आपका हार्दिक आभार����������
अति सराहनीय
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