हमारी संविधान की पुस्तक के बाद बहुत ही कम पुस्तकें हमारे पास ऐसी होती हैं, जो आपके नागरिक होने का आपको महत्व और हक़ बताती है। इतना ही नहीं आपके जिंदा रहने का मतलब क्या है और देश में रहते हुए देश के प्रति क्या जिम्मेदारियां हैं, उन सबसे रू-ब-रू कराती है रैमॉन मैग्सेसे अवार्ड 2019 से सम्मानित निर्भीक पत्रकार रवीश सर की कथेतर विधा में लिखी यह पुस्तक, जिसका नाम है *बोलना ही है* लोकतंत्र, संस्कृति और राष्ट्र के बारे में. रवीश सर की The Free Voice: On Democracy, Culture and the Nation का यह पुस्तक हिन्दी अनुवाद है, जो अक्टूबर 2019 में ही राजकमल प्रकाशन से पुस्तक रूप में आया है।
इस पुस्तक के बारे में और कुछ भी लिखने से पूर्व इस पुस्तक की समर्पण पंक्ति की ओर आपका ध्यान आकृष्ट कराना चाहूंगा-
"नॉयना, तनिमा और तनिशा को जो मेरे बोलने और लिखने का मोल चुकाते हैं..."
इस एक पंक्ति में पूरी किताब का सार समाहित है, बाकी आप किताब पढ़ने के बाद इसकी गहराई और संवेदनशीलता को समझेंगे, ऐसा विश्वास है।
तीन महीने के लंबे अंतराल के बाद अमेजॉन से मिली और एक रात के कुछ घण्टों की सीटिंग में पढ़कर पूरी कर दी। 12 अध्यायों में विभक्त यह पुस्तक कई मायनों में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। देश आज जिन भयावह स्थितियों से गुजर रहा है, तो उनका ठोस कारण और निवारण मिलता है इस किताब में। यह किताब जवाब है उन सत्ताधारियों के लिए, जो आमजनों की आवाज़ को नेस्तोनाबूद कर उन्हें हमेशा हमेशा के लिए चुप करा देना चाहते हैं। यह देश ऐसे ही नहीं बना न ही यह किसी एक धर्म-सम्प्रदाय या जाति विशेष की बपौती नहीं है। देश का नागरिक होने के नाते यह बात जितना शीघ्र हमे समझ आ जाये, उतना ही बेहतर हमारे लिए होगा। लोकतंत्र, संस्कृति और राष्ट्र की विस्तृत व्याख्या आपको इस किताब में मिलेगी। साथ ही फिलहाल देश में क्या हो रहा है, क्यों, कैसे और किनके द्वारा किया जा रहा इसका जवाब भी देती है यह किताब। और हाँ एक ज़रूरी बात यह पुस्तक हर भारतीय को पढ़ना चाहिए, जिनको पढ़ना नहीं आता उनको यह पुस्तक किसी शिक्षित आदमी को साथ में बैठाकर सुननी चाहिए। रिक्शा वाले से लगाकर, आईएएस ऑफिसर, हमारे राजनेताओं को, यानि सभी को इस किताब से मुखातिब होना लाज़मी है। मेरा व्यक्तिगत आग्रह यह भी है कि सरकार के पक्ष-विपक्ष के सभी लोगों को इस किताब को अनिवार्य रूप से पढ़ना चाहिए। आपको आज के सरकारी तंत्र का ही नहीं अब से पहले सभी सरकारों का पोस्टमार्टम होता मिलेगा किताब इस किताब में। हर चिंतक और पत्रकार को यह पुस्तक सावधानी से पढ़कर इसपर खुलकर खुले मंचों पर विचार विमर्श करना चाहिए। देश की यथास्थिति को हू-ब-हू हमारे सामने रखती है। इसके शब्द दिल-दिमाग पर ऐसे छपते हैं कि जिसके निशान काफी लंबे समय तक रहने वाले हैं, शायद न भी जाएं।
किताब पढ़ने के बाद यदि यह कहा जाए कि इस पुस्तक को लिखना जितना साहसिक कदम रहा है, उतना ही साहसी कदम इसे पढ़ना भी है। यक़ी न हो तो खुद पढ़कर, आप अंदाजा कर सकते हैं।
आदरणीय रवीश सर से मेरी निजी गुजारिश है यदि सम्भव हो सके तो इस किताब की ऑडियो अपनी पत्रकारीय, तेज तर्रार, बुलंद और प्रभावशाली आवाज़ में निकाले। उसका प्रभाव अलग होगा सर।
इस पुस्तक की भाषा सरल, सहज और आम बोलचाल की है, जिसे साधारण से साधारण आदमी आसानी से समझ सकता है। और शैली पत्रकार वाली, या कहिये एक ईमानदार, निस्वार्थी, निर्भीक, संवेदनशील पत्रकार की शैली।
कंटेंट की बात करूं तो 12 भागों की इस पुस्तक का हर अध्याय, आत्मा (यदि जिंदा हो) को झकझोर देता है। यहाँ उन अध्यायों के नाम देखिए और सोचिए-
1. बोलना
2. रोबो-पब्लिक और नए लोकतंत्र का निर्माण
3. डर का रोज़गार
4. जहाँ भीड़, वहीं हिटलर का जर्मनी
5. जनता होने का अधिकार
6. बाबाओं के बाजार में आप और हम
7. हम सबके जीवन में प्रेम।8. निजता का अधिकार: संविधान की किताब में एक सुंदर-सी कविता
9. डरपोक क़िस्म की नागरिकता गढ़ता मुख्यधारा मीडिया
10. 2019 में 1984 पढ़ते हुए
11. पंद्रह अगस्त को एक आइसक्रीम जरूर खाएँ
12. नागरिक पत्रकारिता की ताकत
अब इन अध्यायों के आधार पर सोचिए कि इस पुस्तक की सामग्री किस हद तक आपको एक नागरिक होने के नाते प्रभावित करेगी। किस किताब में कई तथ्य ऐसे हैं जिनका आप अंदाजा भी नहीं लगा सकते। वो सिर्फ आप पढ़कर-समझकर ही जान पाओगे। केवल छठे अध्याय का जिक्र करूँ तो इतना ही कहूंगा कि हमारी धर्मांधता को तथाकथित संत/बाबाओं द्वारा कैसे बाजार में बदला जाता है और इससे कैसे बचें इनका सविस्तार वर्णन किया गया है।
नोट:- एक प्राध्यापक होने के नाते इस पोस्ट के माध्यम से एक निवेदन ज़रूर करना चाहूंगा कि किसी भी विश्वविद्यालय या महाविद्यालय का विद्यार्थी/शोधकर्ता यदि इस पुस्तक को पढ़ना चाहता है और इसका शुल्क (250/-) जमा करने के स्थिति में नहीं है, तो इनबॉक्स में सम्पर्क करें, यह महत्वपूर्ण दस्तावेज व्यक्तिगत रूप से उनको उपलब्ध कराऊंगा। इसलिए क्योंकि इस पुस्तक को पढ़ना-पढ़ाना और पढ़वाना हमारी नैतिक जिम्मेदारी है।
बाकी आप अवश्य पढ़कर इसका मूल्यांकन स्वयं भी करें।
पुनः रवीश सर को इस साहसिकता के लिए दिल से धन्यवाद देना चाहता हूँ।
अपनी बात का अंत रवीश सर के ही शब्दों में करना उचित होगा-
मैंने लोकतंत्र और आज़ादी के हक़ में एक नारा लिखा है--
"एक मान, एक हानि
एक राष्ट्र, एक मान
सवा रुपये का सबका सम्मान!"
*"कितना बढ़िया नारा है! टेम्पों पर लाउडस्पीकर लेकर निकल जाइए। सबको सुनाइए।"*
धन्यवाद
बहुत अच्छा ये पुस्तक सभी को जरूर पढ़नी चाहिए
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