Friday, January 31, 2020

कोरोना वायरस एक चिंतनशील विचारणीय बिंदु

कोरोना वायरस
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जो कोरोना वायरस एक नई महामारी के रूप में उभरकर सामने आया है और जिसने चीन में आपातकालीन स्थितियां निर्मित कर दी हैं, उसका एपिसेंटर वुहान प्रांत का हुआनान सीफ़ूड होलसेल मार्केट बताया गया है। किंतु मैं तो जहां भी नज़र घुमाता हूं, मुझको हुआनान सीफ़ूड होलसेल मार्केट दिखलाई देते हैं।

चीन के लोगों को सर्वभक्षी होने का बड़ा चस्का है। इधर यह फ़ैशनपरस्ती में भी शुमार हो गया। तो वो तमाम तरह की चीज़ें खाते हैं। तमाम तरह के पशुओं का कच्चा-पक्का मांस। वुहान के हुआनान सीफ़ूड होलसेल मार्केट में एक सेक्शन है, जहां 120 प्रकार के पशुओं का मांस बेचा जाता है। इन पशुओं को ख़रीदे जाने के बाद मारकर पकाया जाता है। अकसर तो वे जीवित ही उन्हें पकाते हैं। एक फ़ैशन यह भी है कि तश्तरी में ऐसा भोजन हो, जिसमें प्राण अभी शेष हों। मांसभक्षण अपने आपमें क्रूर है। तिस पर यह अतिचार तो मनोरोग की ही श्रेणी में आएगा, जो दक्षिण-पूर्व एशिया को ग्रस चुका है।

चीन में सांपों को खाया जाता है। कुत्तों को मारकर पकाया जाता है। इधर इंटरनेट पर ऐसी युवतियों की तस्वीरें प्रसारित हुईं, जो चमगादड़ों को खा रही थीं। एग्ज़ॉटिक फ़ूड के नाम पर वे कुछ भी खाते हैं। झींगा और केकड़ा तो पुरानी बात हो गई, अब रेस्तरां में जाकर वे फ़रमाइश करते हैं कि बीयर्स-पॉ खाना है। हिरन खाना है। शुतुरमुर्ग़ और पेंगोलिन का गोश्त चखना है। प्रवासी परिंदों की वैराइटीज़ उनकी जीभ को चाहिए। गंदा सी-फ़ूड वे चाव से खाएंगे। उनकी देखा-देखी रॉ-फ़िश वाला सुषी अब भारत में भी खाया जाने लगा है।

वो ये सब खा तो रहे हैं, किंतु शरीर अब प्रतिकार करने लगा है। राक्षसी-वृत्ति महंगी पड़ रही है। कोरोना वायरस अभी तक लगभग 110 लोगों की जान ले चुका है। यह एक क़िस्म का फ़्लू या न्यूमोनिया है, जिस पर एंटीबायोटिक्स बेअसर होती हैं। अगर रोगी में प्रतिरोधक-क्षमता है, तो वह संघर्ष करेगा। अन्यथा उसके प्राण बचाए नहीं जा सकेंगे।

चीन में इससे पूर्व सार्स नामक ऐसी ही एक महामारी फैल चुकी थी। सार्स यानी सीवियर एक्यूट रेस्पिरैटरी सिंड्रोम। वर्ष 2003 में यह महामारी फैली थी, तब वहां के पर्यावरणविदों ने चेताया था। किंतु सुने कौन? चाइना बायोडायर्विटी कंज़र्वेशन एंड ग्रीन डेवलपमेंट फ़ाउंडेशन के महासचिव शिनफ़ेन्ग शोऊ ने मांग की है कि चीन के ऐसे वाइल्डलाइफ़ मार्केट्स पर फ़ौरी रोक नहीं बल्कि पूर्णरूपेण पाबंदी लगाई जाए। वो ना केवल बीमारियों का अड्डा हैं, बल्कि जैव-विविधता के विनाश का भी कारण बन रहे हैं। कोई ना कोई उदारवादी बौद्धिक अभी चीन में उठकर सामने आएगा और कहेगा कि हम क्या खाएं, क्या ना खाएं, यह तय करने वाले आप कौन? जैसे कि ईश्वर ने पशुओं को इसीलिए रचा था कि मनुष्य उनको मारकर खा जाए? कुछ और बुद्धिमान फ़ूड-ट्रेड का हवाला देकर किंतु-परंतु करेंगे। हुकूमत में विवेकशीलता होगी तो वह ऐसे बुद्धिमानों की अनसुनी करके ज़रूरी क़दम उठाएगी। क्योंकि ग़ैरक़ानूनी एनिमल ट्रेडिंग के चलते आज पशुओं की 8775 प्रजातियां संकट में आ गई हैं।

गार्डियन की रिपोर्ट बतलाती है कि कहने को तो चीन में एक वाइल्डलाइफ़ प्रोटेक्शन लॉ है, लेकिन तीस सालों से उसे सुधारा नहीं गया है। ना ही अधिकारियों की उसमें कोई रुचि है। प्राकृतिक संसाधनों और वन्यजीवन का नि:शंक दमन इस देश के गुणसूत्रों में है। पशुओं के प्रति क्रूरता में यह पश्चिमी जगत को भी मात दे चुका है। अमेज़ॉन और ऑस्ट्रेलिया के दावानल के बाद यह कोरोना वायरस बीते एक साल की तीसरी बड़ी प्राकृतिक आपदा है, और अगर अब भी नहीं चेते तो गम्भीर परिणाम भुगतना होंगे।

मालूम हुआ है कि यह कोरोना वायरस सांपों, चूहों, साहियों और पेंगोलिन को खाने से फैल रहा है। बाज़ार में ये पशु खुले पिंजरों में क़ैद रखे जाते थे और मारे जाने की प्रतीक्षा करते थे। रेस्तरां की मेज़ पर सब कुछ सुंदर और सुथरा मालूम होता है, किंतु जब आप कुछ खाने का ऑर्डर देते हैं तो भीतर रसोईख़ाने में उसे कैसे तैयार किया जा रहा है, यह जानने में भी दिलचस्पी होनी चाहिए। जिस पशु का मांस ऑर्डर किया गया है, वह किन परिस्थितियों में रखा गया था, इसकी किसी को चिंता नहीं है। वे भोले और निर्दोष पशु अत्यंत शोचनीय जीवन-परिस्थितियों में रहते हैं। उनके पिंजरे तंग और गंदे होते हैं। वे अपने ही अपशिष्ट में लिथड़े रहते हैं और अनेक संक्रामक रोगों से ग्रस्त होते हैं।

जब मैं कहता हूं कि हुआनान सीफ़ूड होलसेल मार्केट मुझे सब तरफ़ दिखलाई देते हैं, तो उसका आशय यही है कि मांसभक्षण के लिए मारे जाने वाले पशुओं को सदैव ही मैंने शोचनीय दशा में देखा है। अलबत्ता ऐसा कहने का यह अभिप्राय नहीं कि अगर उन्हें साफ़-सुथरी दशा में रखा जाता है, तब आप उन्हें मारकर खा सकते हैं, जैसा कि अमेरिका के कुछ स्लॉटर-हाउस दावा करते हैं कि हम बहुत क्लीन हैं। मनुष्य नैसर्गिक रूप से मांसभक्षी है या नहीं, इस पर एक लम्बी बहस चलती है। किंतु वह सर्वभक्षी तो निश्चय ही नहीं है। मांसभक्षी भी वह फ़ूड-चेन में अपनी शक्ति के आधार पर ही हो सकता है। किंतु मास-स्लॉटर हाउसेस और फ़ैक्टरी-फ़ॉर्म्स की वधशालाओं से कौन-सी फ़ूड-चेन बनती है? निहत्था मनुष्य आमने-सामने की लड़ाई में किस पशु को मारकर खा सकता है? और अगर वह ऐसा नहीं करता, तो शेष सभी प्रकार के मांसभक्षण अनैतिक तो हैं ही, अप्राकृतिक भी हैं।

प्लेग, रैबीज़, एंथ्रेक्स, बर्ड-फ़्लू, स्वाइन-फ़्लू, सार्स के बाद अब कोरोनावायरस हमारे सामने है, जो पशुओं से फैलता है। मनुष्य के अहंकार और उद्दंडता की सीमा नहीं। ऐसी किसी भी महामारी के फैलने पर वह उलटे पशुओं का सामूहिक-वध करने लगता है, स्वयं के आचरण में नैतिकता का समावेश करने की नहीं सोचता। उसे अपने किए पर ग्लानि भी नहीं होती। करुणा की तो बात ही रहने दें। पशुओं को जीवन का अधिकार है, यह तो तब कौन कहे? मैं तो इसको भी अनैतिक ही मानूंगा कि मनुष्य पशुओं से फैलने वाली महामारी के डर से उन्हें मारकर खाना बंद कर दे। पशु-वध के प्रतिकार का आधार तो करुणा और नैतिकता ही होना चाहिए। किंतु अगर वैसी महामारियां फैलती हैं और मनुष्यता का सर्वनाश करती हैं तो शिक़ायत करने का नैतिक-अधिकार किसी को नहीं है। मनुष्य-जाति का विनाश या तो किसी पिंड के पृथ्वी से टकराने से होगा, या युद्धों से होगा, या महामारियों से होगा, या कोई और प्राकृतिक आपदा धरती को मनुष्यों से शुद्ध करेगी- यह तो निश्चित ही है।

मुझको तो इधर हर बात पर गांधी जी याद आते हैं। गांधी जी ने बहुत आहार-चिंतन किया है और उनकी आत्मकथा में भी अनेक प्रकरण इस पर केंद्रित हैं। अनेक पढ़े-लिखे चतुरसुजान इस बात पर उपहास भी करते हैं कि गांधी जी आहार को इतना महत्व क्यों देते हैं। हम क्या खाएं, क्या नहीं खाएं, इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है? उन्हें मालूम नहीं कि हम जो खाते हैं, उससे हमारी चेतना की निर्मिति का गहरा सम्बंध है। जैसा अन्न, वैसा मन। भोजन का शुद्ध, नैतिक, प्राकृतिक और सात्विक होना अत्यंत आवश्यक है।

मैं इस लेख का समापन "सत्य के प्रयोग" के कुछ अंशों से करता हूं। आहार-लिप्सा से सर्वनाश की ओर बढ़ रही दुनिया के लिए एक भारत-मूर्ति के ये विचार हैं-

"मेरा अनुभव तो मुझे यह सिखाता है कि जिसका मन संयम की ओर बढ़ रहा है, उसके लिए आहार की मर्यादा और उपवास बहुत मदद करने वाले हैं। अपनी त्रुटियों का मुझे ठीक दर्शन होने से मैंने उन्हें दूर करने के लिए घोर प्रयत्न किए हैं और फलतः मैं इतने वर्षों तक इस शरीर को टिका सका हूँ और इससे कुछ काम ले सका हूँ। जब प्रत्येक इंद्रिय शरीर के द्वारा आत्मा के दर्शन के लिए ही कार्य करती है, तब उसके रस शून्यवत् हो जाते हैं और तभी कहा जा सकता है कि वह स्वाभाविक रूप से बरसती है। ऐसी स्वाभाविकता प्राप्त करने के लिए जितने प्रयोग किए जाएं, कम ही हैं।"

सुशोभित सर की फेसबुक वॉल से साभार

Wednesday, January 22, 2020

रिव्यू : बेहतरीन मगर बेअसर है 'ताना जी'



यह एक ऐतिहासिक फ़िल्म है। जो अच्छी तरह से किक मारती है, बीच में फड़फड़ाती है और फिर चरमोत्कर्ष में कुछ अच्छे घूंसे मारती है।

 पीरियड ड्रामा या ऐतिहासिक थकान नामक एक स्थिति इसमें है। इस फ़िल्म का उद्देश्य भारतीयों पर गर्व करना है, जो हमें अतीत में वापस ले जाती है, 17 वीं शताब्दी के अंत तक, जब हम “सोने के चिडिया” हुआ करते थे, तब तक  "बाहरी ताक़त" (विदेशी आक्रमणकारियों) ने आकर हमें अलग कर दिया।  फिल्म की शुरुआत में एक वॉयसओवर कहता है, "हम आपके हैं पर गुन्हगार हैं।  (हम अपनी ही मातृभूमि में दोषी हो गए)।"  हालाँकि, मराठा सम्राट शिवाजी के सबसे बहादुर जनरलों में से एक, तानाजी मालुसरे के जीवन के काल्पनिक (अस्वीकरण के कारण) और एक हास्य-पुस्तक है, जो काम करने का प्रबंधन करती है आंशिक रूप से।
1670 में ताना जी (अजय देवगन) अपने बेटे रेबा की शादी की तैयारी में व्यस्त है, जब उसे शिवाजी (शरद केलकर) के लिए मिशन पर जाने के लिए यह सब एक तरफ छोड़ना पड़ता है और मुगलों से मराठों के लिए कोंधना किले को फिर से हासिल करना पड़ता है।  औरंगज़ेब द्वारा दक्षिण भारत में मुग़ल विस्तार के आधार के रूप में रणनीतिक किले का उपयोग करने की योजना का एक हिस्सा है और यह किला उनके राजपूत अधिकारी उदयभान राठौड़ (सैफ अली खान) के नियंत्रण में है।

अजय देवगन की उड़ान के साथ चीजें अच्छी तरह से किक करती हैं।  जल्द ही यह सब एक के बाद एक लड़ाई के सेट का टुकड़ा बन जाता है। गीत-और-नृत्य के अतिरिक्त, सभी को 3 डी में बनाया गया है जो इस फ़िल्म को तेजी से बढ़ता है, सैन्यवादी ध्वनि, विशेष रूप से घमासान।  भगवा (गेरू / केसर) रंग पर बहुत कुछ खेला जाता है, मराठा सेना के भीतर कुछ षडयंत्रकारी असंतोष, औरंगजेब और ईरान के शाह के बीच मानव शतरंज का खेल लेकिन खूंखार इस्लामोफोबिया निहित है, हालांकि पूरी तरह से दूर नहीं किया गया है।

 भव्य पैमाने और निष्पादन के बावजूद, बीच में एक निश्चित एन्नुई स्थापित होना शुरू हो जाता है।  हालाँकि, जलवायु के क्रम में चीजें फिर से प्रभावी रूप से सामने आती हैं।  कोंढाना के खड़ी पहाड़ी किले की स्केलिंग, उदयभान के साथ ताना जी की गति, लड़ाई और जीत के बाद आखिरी हड़ताल।  यह कुछ इस प्रकार के सामूहिक कैथारिस और एड्रेनालाईन रश के लिए ही काम करता है।

 नायक और खलनायक सुविधाजनक चरम सीमा पर बैठे नजर आते हैं। अजय देवगन उपयुक्त रूप से कुशल है क्योंकि वह कुछ भी गलत नहीं कर सका है फ़िल्म में ।  लेकिन उदयभान (सैफ) को अलाउद्दीन खिलजी की व्याख्या मिलती है, शायद औरंगजेब के साथ उसके जुड़ाव के कारण।  सैफ अली खान उन्मत्त, अशिक्षित चरित्र को निभाते हैं।  कमल (नेहा शर्मा) नामक लड़की के प्रति उसके प्रेम के रास्ते में आने वाली वर्ग राजनीति के बारे में बैकस्टोरी का एक संकेत अब उसकी कैद में विधवा के रूप में है।  इसने अपनी खलनायकी को एक अच्छा संदर्भ दिया जा सकता है, लेकिन यहां एक्टिंग का धागा लटका हुआ है।  शरद केलकर एक सुंदर और प्रतिष्ठित शिवाजी के रूप में काम करते हैं, जैसा कि हमने उन्हें इतिहास की किताबों और अमर चित्र कथाओं में अपनी पत्नी के माध्यम से जाना है।  और महिलाएं - शिवाजी की माँ राजमाता जीजाबाई (पद्मावती राव) और ताना जी की पत्नी सावित्री (काजोल) - से अपेक्षा की जाती है कि पुरुष सहमति के रक्षक होने के अलावा उनकी कोई भूमिका नहीं होगी।
 अपनी रेटिंग - ढाई स्टार 

Saturday, January 11, 2020

रिव्यू: आँखे नम करती है छपाक

कल जब हम 'छपाक' देख रहे थे, डिस्टर्बिंग विज़ुअल्स के चलते एक आदमी पर पैनिक अटैक हुआ। संयोग से दर्शकों में एक डॉक्टर थीं। फ़िल्म रोककर ग़श खाये उस आदमी को नॉर्मल करने की कोशिश की गयी। यह वैसी फ़िल्म नहीं है, जिसे देखकर आप सहज बने रहें। जैसे-जैसे दृश्य आगे बढ़ते हैं, आपके भीतर कुछ दरकता चला जाता है। फ़िल्म का निचोड़ यह है कि एसिड पहले आपके दिमाग़ में जगह बनाता है, फिर उसकी बोतल आपके हाथों में आती है।


किसने आख़िर ऐसा समाज रच डाला है
जिसमें बस वही दमकता है, जो काला है

मैं मालती और आमोल (असल में लक्ष्मी और आलोक) के संघर्ष को लगभग शुरुआती दिनों से जानता हूँ। ये जीवट वाले लोग हैं और इनका आंदोलन अभी जारी है। जब तक बर्बरताएँ इस धरती पर हैं, उसके ख़िलाफ़ संघर्ष का साहस भी इसी धरती पर है। हमें अपने ग़मे-रोज़गार में इस तरह मुब्तिला नहीं हो जाना चाहिए कि लड़ने वाले लोग अकेला महसूस करें। यह वक़्त सड़क पर उतरे न्यायप्रिय लड़ाकाओं के साथ सॉलिडरिटी दिखाने का है, उनके साथ क़दमताल करने का है।

हम लड़ेंगे जब तक
दुनिया में लड़ने की ज़रूरत बाक़ी है

मेघना गुलज़ार और दीपिका पादुकोण के लिए एक ज़ोरदार सलाम बनता है!

Avinash Das की फेसबुक
वाल से

Thursday, January 2, 2020

समकालीन हिंदी कविता का प्रतिनिधि स्वर आर चेतन की कविताएँ


समकालीन दौर में बहुत ही कम या कहें अंगुली पर गिने जा सकने योग्य लोग ही श्रेष्ठ और बेहतर कविताएँ लिख रहे हैं। उनमें से एक है आर चेतन क्रांति, इनकी कविताएँ सभ्यता और समाज का अंदरूनी हिस्सा हमें दिखाती है। और चीख चीख कर हमें मौजूदा हालातों से रूबरू कराती हैं। नि:संदेह समकालीन हिंदी कविता काफ़ी समृद्ध है। पुराने दौर के कवियों को छोड़ दिया जाए तो वर्तमान समय के या कहें समकालीन दौर के कवियों का कविता संसार भरा पूरा है। इन कवियों के पास अनुभव के लम्बे-लम्बे रेशे हैं। देवी प्रसाद मिश्र, कात्यायनी,अनामिका जैसे प्रतिष्ठित और समृद्ध कवियों- कवयित्रियों के बाद के इन कवियों की कलम में वह माद्द्दा है, जो सह्रदय और संवेदनशील ही नहीं अपितु आम पाठक वर्ग को भी भावाविभुत कर सकता है। आरचेतन क्रांति की कविताओं में धूमिल की छवि दिखाई पड़ती है। जिस तरह के यथार्थ बोध से धूमिल अपने पाठकों को बैचेन कर देते थे कुछ ऐसा ही कर गुजरने वाली कविताएँ आर चेतन क्रांति की भी हैं। जिस तरह नागार्जुन, कबीर या त्रिलोचन को पढ़ते हुए बाबा तुलसी याद आते हैं उसी तरह चेतन क्रांति भी अपना प्रभाव अन्य कवियों की भांति साहित्य जगत में छोड़ते नजर आते हैं

‘वीरता पर विचलित’ काव्य संग्रह की कविताएँ एक साधारण पाठक को भी सोचने समझने पर मजबूर कर देती हैं अपनी पहली ही कविता ‘पावर’ में वे लिखते हैं –

पावर गली-गली थी, छज्जे पे भी खड़ी थी
छत पे लगाके आला, घर-घर झाँकती थी
पावर का था ‘विधाला’, पावर की थी पढ़ाई
टीचर भी किया करता था पावर की ही बड़ाई।

चेतन क्रांति की इस कविता में पावर का यानी ताकत का जिस तरह चित्रण हुआ है वैसा आजतक कहीं ओर नहीं देखा गया है। बिल्कुल साधारण और आसान से शब्दों में वे पावर के भारी भरकम शरीर का स्पष्ट चित्रण कर जाते हैं। वीर होना एक मनुष्य के गौरवशाली और सम्पूर्ण होने का अभिप्रेत है। लेकिन यह वीरता आर चेतन क्रांति को विचलित करती है। वे सभ्यता, संस्कृति और साम्प्रदायिकता के गठजोड़ का मजाक उड़ाते हैं ‘सीलमपुर की लड़कियाँ’ कविता पर आर चेतन क्रांति को भारत भूषण अग्रवाल स्मृति सम्मान भी मिला था। लेकिन वीरता पर विचलित काव्य संग्रह में वे ‘सीलमपुर के लड़के’ के नाम से कविता लिखते हैं।

सीलमपुर के लड़के भूखे और बेरोजगार हैं
घर-परिवार और समाज से बेजार हैं
जिंदगी के बारे में कोई नक्षा उनके पास नहीं है
उनके सामने टीवी पर राम और युधिष्ठिर मनोरंजन करके नई भूमिकाओं में चले गए
उनके सामने चार सौ साल पुरानी एक मस्जिद गिरी और नया जमाना आया
उनके सामने मोबाइल की स्क्रीनों पर लड़कियाँ उग आईं जिन्हें वे मसलते रहे

          रघुवीर सहाय को हम सभी ने निसंदेह पढ़ा है। उनकी एक कविता है ‘रामदास’ तो रामदास को पता है कि हत्या होग्ही, निश्चित होगी और वह अपनी हत्या के लिए प्रस्तुत भी होता है उसकी हत्या होने के बाद सब गवाह हैं लेकिन रामदास बदल जाता है। उसे तनख्वाह इस बात की मिलती है कि वह एक प्रोफेशनल हत्यारा है। आर चेतन क्रांति की कविता इस प्रोफेशनल रामदास से मिलाती है।
उसको एक चाक़ू दिया गया
और तनख्वाह
कि जब मरते हुए आदमी को देखकर
तुम्हारा हाथ काँपे
तुम करुणा से बाज रहो
तो वह जब घर में घुसा
उसके हाथ में सिर्फ आदेश था
उसने बैठकर मकलूत की पूरी बात सुनी
उसे दया आई, हमदर्दी हुई
आदत के तहत उसके दिल ने कहा
छोड़ दो
लेकिन उसे पीछे रह जाने से डर लगा
और थोड़ी देर बाद
अपने थैले में
एक सिर ठूंस कर निकला जिसकी आँखें खुली थी

यह नया रामदास है जो मार रहा है और मर रहा है। उसकी तनख्वाह उचित होना या ना होना साबित करने के लिए।
एक अन्य कविता में आज की मॉल सभ्यता पर चेतन क्रांति लिखते हैं
गू-मूत-कीचड़-धूल-शोर
खून दर्द उल्लास
धक्कामुक्की और भीड़ के चौराहे पर
एक वस्तुसम्त दिशा देखकर
खड़ा किया वह नन्हा सा स्वर्ग
साफ़ और चमकीला
जो दो ही महीनें में
सदियों पुराने शहर से ज्यादा शाश्वत दिखने लगा

ये मॉल हमें वैभव के अलावा हमारी अतृप्त इच्छाओं पर भी अपना महत्वपूर्ण योगदान दिखाता है। ऐसी इच्छाएँ जिनका हमें अब तक भान ही नहीं था। सब कुछ तृप्त करने वाले यह मॉल ऐसा राक्षस है जिससे बाहर निकलने के बाद हमारा क्या होता है उसके बारे में हमने आजतक न सोचा और न सोचने की जहमत उठाई। आर चेतन क्रांति के पास कविताओं की बहुत सी वैराइटी है। उनके पास एक सीधा और तना तना हुआ शिल्प है, जिसमें छंद सधे हुए हैं। उनके इस संग्रह में गीत हैं, गजलें हैं लेकिन कुछ भी रूमानी नहीं। उनकी मिजाज कड़क है जो सीधे व्यक्ति के दिल में जाकर चुभती है। आर चेतन क्रांति कविता के मामले में सभ्यताओं का एक एक कर जब पर्दा उठाते हैं तो नियत लक्ष्य पर वार करने लायक कविताएँ ही बाहर निकलती है।


इक्कीसवीं सदी बाजार की संस्कृति ही नहीं बल्कि अपनी खोई हुई अस्मिता को जगाने की सदी भी है। आज की हिंदी से आदिवासी, दलित, स्त्री सभी जाग्रत हो रहे हैं। सैकड़ों सालों से हम पर पसरी हुई, जमी हुई काई और खुदकश निगाहों से उस वक्त को देशभक्त कविता के माध्यम से चेतन क्रांति हटाते हैं और लिखते हैं –
सपाट सोच, इकहरा दिमाग, दिल पत्थर
सैकड़ों साल से ठहरी हुई काई ऊपर
बेरहम सोच की खुदकश निगाहबानी से फरार
तुम जो फिरते हो लिये सर पे कदीमी तलवार
तुमको मालूम भी है वक्त कहाँ जाता है
और इस वक्त से इंसान का क्या रिश्ता है!

चेतन क्रांति की एक अन्य कविता है भय प्रवाह। जिसमें में सत्ता से लड़ते हैं और अपने बागी तेवर इस कविता में दिखाते हैं। यह लंबी कविता हमें उस दौर में ले जाती है जहाँ सत्ता अपने मद में चूर अभिव्यक्ति की आजादी को दबाने की कोशिश करती हुई दिखाई देती है। सत्ताधीनों के चेलों के उस व्यवहार को इस कविता में प्रदर्शित किया गया है जहाँ वे अपनी लिप्सा, कामना के लिए किसी भी हद तक की चाटुकारिता तक करने को तैयार हो जाते हैं इसी तरह की एक कविता सीधी सड़क- टेढ़ी सड़क में वे स्वार्थ भावना को इंगित करते हुए एक टुच्चे से स्वार्थ के लिए लोगों की करनी पर वार करते हैं
         
कुलमिलाकर आर चेतन क्रांति के कविता संग्रह ‘वीरता पर विचलित’ एक ऐसा काव्य संग्रह है जिसमें हर वर्ग,जाति, संस्कृति, सभ्यता पर खुले विचारों से लिखा गया है। भले वह ‘प्यार का पावर डिस्कोर्स’ हो, ‘तुम अगर वेश्या होती’, ‘सुनो, दुनिया को वहाँ से मत देखो जहाँ तुम पैदा हुई थी’, ‘देह-बोध’, ‘क्या मेरे भीतर से उगोगी तुम?’, ‘स्त्री होने के लिए’ ‘अब मन की मेहनत कर,ताऊ’, ‘नंगी लड़की का बयान’ ये सभी कविताएँ हमें समाज का आइना दिखाती हैं और चीख चीख कर उसका बयाना देती है। क्योंकि जब तक लड़ेंगे नहीं तब तक बदल नहीं सकते और हमें लड़ना होगा एक बेहतर समाज के लिए, बेहतर देश के लिए


डॉ० राम भरोसे
असिस्टेंट प्रोफेसर (हिंदी)
राजकीय महाविद्यालय पोखरी (क्विली)
टिहरी गढ़वाल , उत्तराखंड 

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