कोरोना वायरस
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जो कोरोना वायरस एक नई महामारी के रूप में उभरकर सामने आया है और जिसने चीन में आपातकालीन स्थितियां निर्मित कर दी हैं, उसका एपिसेंटर वुहान प्रांत का हुआनान सीफ़ूड होलसेल मार्केट बताया गया है। किंतु मैं तो जहां भी नज़र घुमाता हूं, मुझको हुआनान सीफ़ूड होलसेल मार्केट दिखलाई देते हैं।
चीन के लोगों को सर्वभक्षी होने का बड़ा चस्का है। इधर यह फ़ैशनपरस्ती में भी शुमार हो गया। तो वो तमाम तरह की चीज़ें खाते हैं। तमाम तरह के पशुओं का कच्चा-पक्का मांस। वुहान के हुआनान सीफ़ूड होलसेल मार्केट में एक सेक्शन है, जहां 120 प्रकार के पशुओं का मांस बेचा जाता है। इन पशुओं को ख़रीदे जाने के बाद मारकर पकाया जाता है। अकसर तो वे जीवित ही उन्हें पकाते हैं। एक फ़ैशन यह भी है कि तश्तरी में ऐसा भोजन हो, जिसमें प्राण अभी शेष हों। मांसभक्षण अपने आपमें क्रूर है। तिस पर यह अतिचार तो मनोरोग की ही श्रेणी में आएगा, जो दक्षिण-पूर्व एशिया को ग्रस चुका है।
चीन में सांपों को खाया जाता है। कुत्तों को मारकर पकाया जाता है। इधर इंटरनेट पर ऐसी युवतियों की तस्वीरें प्रसारित हुईं, जो चमगादड़ों को खा रही थीं। एग्ज़ॉटिक फ़ूड के नाम पर वे कुछ भी खाते हैं। झींगा और केकड़ा तो पुरानी बात हो गई, अब रेस्तरां में जाकर वे फ़रमाइश करते हैं कि बीयर्स-पॉ खाना है। हिरन खाना है। शुतुरमुर्ग़ और पेंगोलिन का गोश्त चखना है। प्रवासी परिंदों की वैराइटीज़ उनकी जीभ को चाहिए। गंदा सी-फ़ूड वे चाव से खाएंगे। उनकी देखा-देखी रॉ-फ़िश वाला सुषी अब भारत में भी खाया जाने लगा है।
वो ये सब खा तो रहे हैं, किंतु शरीर अब प्रतिकार करने लगा है। राक्षसी-वृत्ति महंगी पड़ रही है। कोरोना वायरस अभी तक लगभग 110 लोगों की जान ले चुका है। यह एक क़िस्म का फ़्लू या न्यूमोनिया है, जिस पर एंटीबायोटिक्स बेअसर होती हैं। अगर रोगी में प्रतिरोधक-क्षमता है, तो वह संघर्ष करेगा। अन्यथा उसके प्राण बचाए नहीं जा सकेंगे।
चीन में इससे पूर्व सार्स नामक ऐसी ही एक महामारी फैल चुकी थी। सार्स यानी सीवियर एक्यूट रेस्पिरैटरी सिंड्रोम। वर्ष 2003 में यह महामारी फैली थी, तब वहां के पर्यावरणविदों ने चेताया था। किंतु सुने कौन? चाइना बायोडायर्विटी कंज़र्वेशन एंड ग्रीन डेवलपमेंट फ़ाउंडेशन के महासचिव शिनफ़ेन्ग शोऊ ने मांग की है कि चीन के ऐसे वाइल्डलाइफ़ मार्केट्स पर फ़ौरी रोक नहीं बल्कि पूर्णरूपेण पाबंदी लगाई जाए। वो ना केवल बीमारियों का अड्डा हैं, बल्कि जैव-विविधता के विनाश का भी कारण बन रहे हैं। कोई ना कोई उदारवादी बौद्धिक अभी चीन में उठकर सामने आएगा और कहेगा कि हम क्या खाएं, क्या ना खाएं, यह तय करने वाले आप कौन? जैसे कि ईश्वर ने पशुओं को इसीलिए रचा था कि मनुष्य उनको मारकर खा जाए? कुछ और बुद्धिमान फ़ूड-ट्रेड का हवाला देकर किंतु-परंतु करेंगे। हुकूमत में विवेकशीलता होगी तो वह ऐसे बुद्धिमानों की अनसुनी करके ज़रूरी क़दम उठाएगी। क्योंकि ग़ैरक़ानूनी एनिमल ट्रेडिंग के चलते आज पशुओं की 8775 प्रजातियां संकट में आ गई हैं।
गार्डियन की रिपोर्ट बतलाती है कि कहने को तो चीन में एक वाइल्डलाइफ़ प्रोटेक्शन लॉ है, लेकिन तीस सालों से उसे सुधारा नहीं गया है। ना ही अधिकारियों की उसमें कोई रुचि है। प्राकृतिक संसाधनों और वन्यजीवन का नि:शंक दमन इस देश के गुणसूत्रों में है। पशुओं के प्रति क्रूरता में यह पश्चिमी जगत को भी मात दे चुका है। अमेज़ॉन और ऑस्ट्रेलिया के दावानल के बाद यह कोरोना वायरस बीते एक साल की तीसरी बड़ी प्राकृतिक आपदा है, और अगर अब भी नहीं चेते तो गम्भीर परिणाम भुगतना होंगे।
मालूम हुआ है कि यह कोरोना वायरस सांपों, चूहों, साहियों और पेंगोलिन को खाने से फैल रहा है। बाज़ार में ये पशु खुले पिंजरों में क़ैद रखे जाते थे और मारे जाने की प्रतीक्षा करते थे। रेस्तरां की मेज़ पर सब कुछ सुंदर और सुथरा मालूम होता है, किंतु जब आप कुछ खाने का ऑर्डर देते हैं तो भीतर रसोईख़ाने में उसे कैसे तैयार किया जा रहा है, यह जानने में भी दिलचस्पी होनी चाहिए। जिस पशु का मांस ऑर्डर किया गया है, वह किन परिस्थितियों में रखा गया था, इसकी किसी को चिंता नहीं है। वे भोले और निर्दोष पशु अत्यंत शोचनीय जीवन-परिस्थितियों में रहते हैं। उनके पिंजरे तंग और गंदे होते हैं। वे अपने ही अपशिष्ट में लिथड़े रहते हैं और अनेक संक्रामक रोगों से ग्रस्त होते हैं।
जब मैं कहता हूं कि हुआनान सीफ़ूड होलसेल मार्केट मुझे सब तरफ़ दिखलाई देते हैं, तो उसका आशय यही है कि मांसभक्षण के लिए मारे जाने वाले पशुओं को सदैव ही मैंने शोचनीय दशा में देखा है। अलबत्ता ऐसा कहने का यह अभिप्राय नहीं कि अगर उन्हें साफ़-सुथरी दशा में रखा जाता है, तब आप उन्हें मारकर खा सकते हैं, जैसा कि अमेरिका के कुछ स्लॉटर-हाउस दावा करते हैं कि हम बहुत क्लीन हैं। मनुष्य नैसर्गिक रूप से मांसभक्षी है या नहीं, इस पर एक लम्बी बहस चलती है। किंतु वह सर्वभक्षी तो निश्चय ही नहीं है। मांसभक्षी भी वह फ़ूड-चेन में अपनी शक्ति के आधार पर ही हो सकता है। किंतु मास-स्लॉटर हाउसेस और फ़ैक्टरी-फ़ॉर्म्स की वधशालाओं से कौन-सी फ़ूड-चेन बनती है? निहत्था मनुष्य आमने-सामने की लड़ाई में किस पशु को मारकर खा सकता है? और अगर वह ऐसा नहीं करता, तो शेष सभी प्रकार के मांसभक्षण अनैतिक तो हैं ही, अप्राकृतिक भी हैं।
प्लेग, रैबीज़, एंथ्रेक्स, बर्ड-फ़्लू, स्वाइन-फ़्लू, सार्स के बाद अब कोरोनावायरस हमारे सामने है, जो पशुओं से फैलता है। मनुष्य के अहंकार और उद्दंडता की सीमा नहीं। ऐसी किसी भी महामारी के फैलने पर वह उलटे पशुओं का सामूहिक-वध करने लगता है, स्वयं के आचरण में नैतिकता का समावेश करने की नहीं सोचता। उसे अपने किए पर ग्लानि भी नहीं होती। करुणा की तो बात ही रहने दें। पशुओं को जीवन का अधिकार है, यह तो तब कौन कहे? मैं तो इसको भी अनैतिक ही मानूंगा कि मनुष्य पशुओं से फैलने वाली महामारी के डर से उन्हें मारकर खाना बंद कर दे। पशु-वध के प्रतिकार का आधार तो करुणा और नैतिकता ही होना चाहिए। किंतु अगर वैसी महामारियां फैलती हैं और मनुष्यता का सर्वनाश करती हैं तो शिक़ायत करने का नैतिक-अधिकार किसी को नहीं है। मनुष्य-जाति का विनाश या तो किसी पिंड के पृथ्वी से टकराने से होगा, या युद्धों से होगा, या महामारियों से होगा, या कोई और प्राकृतिक आपदा धरती को मनुष्यों से शुद्ध करेगी- यह तो निश्चित ही है।
मुझको तो इधर हर बात पर गांधी जी याद आते हैं। गांधी जी ने बहुत आहार-चिंतन किया है और उनकी आत्मकथा में भी अनेक प्रकरण इस पर केंद्रित हैं। अनेक पढ़े-लिखे चतुरसुजान इस बात पर उपहास भी करते हैं कि गांधी जी आहार को इतना महत्व क्यों देते हैं। हम क्या खाएं, क्या नहीं खाएं, इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है? उन्हें मालूम नहीं कि हम जो खाते हैं, उससे हमारी चेतना की निर्मिति का गहरा सम्बंध है। जैसा अन्न, वैसा मन। भोजन का शुद्ध, नैतिक, प्राकृतिक और सात्विक होना अत्यंत आवश्यक है।
मैं इस लेख का समापन "सत्य के प्रयोग" के कुछ अंशों से करता हूं। आहार-लिप्सा से सर्वनाश की ओर बढ़ रही दुनिया के लिए एक भारत-मूर्ति के ये विचार हैं-
"मेरा अनुभव तो मुझे यह सिखाता है कि जिसका मन संयम की ओर बढ़ रहा है, उसके लिए आहार की मर्यादा और उपवास बहुत मदद करने वाले हैं। अपनी त्रुटियों का मुझे ठीक दर्शन होने से मैंने उन्हें दूर करने के लिए घोर प्रयत्न किए हैं और फलतः मैं इतने वर्षों तक इस शरीर को टिका सका हूँ और इससे कुछ काम ले सका हूँ। जब प्रत्येक इंद्रिय शरीर के द्वारा आत्मा के दर्शन के लिए ही कार्य करती है, तब उसके रस शून्यवत् हो जाते हैं और तभी कहा जा सकता है कि वह स्वाभाविक रूप से बरसती है। ऐसी स्वाभाविकता प्राप्त करने के लिए जितने प्रयोग किए जाएं, कम ही हैं।"
सुशोभित सर की फेसबुक वॉल से साभार
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जो कोरोना वायरस एक नई महामारी के रूप में उभरकर सामने आया है और जिसने चीन में आपातकालीन स्थितियां निर्मित कर दी हैं, उसका एपिसेंटर वुहान प्रांत का हुआनान सीफ़ूड होलसेल मार्केट बताया गया है। किंतु मैं तो जहां भी नज़र घुमाता हूं, मुझको हुआनान सीफ़ूड होलसेल मार्केट दिखलाई देते हैं।
चीन के लोगों को सर्वभक्षी होने का बड़ा चस्का है। इधर यह फ़ैशनपरस्ती में भी शुमार हो गया। तो वो तमाम तरह की चीज़ें खाते हैं। तमाम तरह के पशुओं का कच्चा-पक्का मांस। वुहान के हुआनान सीफ़ूड होलसेल मार्केट में एक सेक्शन है, जहां 120 प्रकार के पशुओं का मांस बेचा जाता है। इन पशुओं को ख़रीदे जाने के बाद मारकर पकाया जाता है। अकसर तो वे जीवित ही उन्हें पकाते हैं। एक फ़ैशन यह भी है कि तश्तरी में ऐसा भोजन हो, जिसमें प्राण अभी शेष हों। मांसभक्षण अपने आपमें क्रूर है। तिस पर यह अतिचार तो मनोरोग की ही श्रेणी में आएगा, जो दक्षिण-पूर्व एशिया को ग्रस चुका है।
चीन में सांपों को खाया जाता है। कुत्तों को मारकर पकाया जाता है। इधर इंटरनेट पर ऐसी युवतियों की तस्वीरें प्रसारित हुईं, जो चमगादड़ों को खा रही थीं। एग्ज़ॉटिक फ़ूड के नाम पर वे कुछ भी खाते हैं। झींगा और केकड़ा तो पुरानी बात हो गई, अब रेस्तरां में जाकर वे फ़रमाइश करते हैं कि बीयर्स-पॉ खाना है। हिरन खाना है। शुतुरमुर्ग़ और पेंगोलिन का गोश्त चखना है। प्रवासी परिंदों की वैराइटीज़ उनकी जीभ को चाहिए। गंदा सी-फ़ूड वे चाव से खाएंगे। उनकी देखा-देखी रॉ-फ़िश वाला सुषी अब भारत में भी खाया जाने लगा है।
वो ये सब खा तो रहे हैं, किंतु शरीर अब प्रतिकार करने लगा है। राक्षसी-वृत्ति महंगी पड़ रही है। कोरोना वायरस अभी तक लगभग 110 लोगों की जान ले चुका है। यह एक क़िस्म का फ़्लू या न्यूमोनिया है, जिस पर एंटीबायोटिक्स बेअसर होती हैं। अगर रोगी में प्रतिरोधक-क्षमता है, तो वह संघर्ष करेगा। अन्यथा उसके प्राण बचाए नहीं जा सकेंगे।
चीन में इससे पूर्व सार्स नामक ऐसी ही एक महामारी फैल चुकी थी। सार्स यानी सीवियर एक्यूट रेस्पिरैटरी सिंड्रोम। वर्ष 2003 में यह महामारी फैली थी, तब वहां के पर्यावरणविदों ने चेताया था। किंतु सुने कौन? चाइना बायोडायर्विटी कंज़र्वेशन एंड ग्रीन डेवलपमेंट फ़ाउंडेशन के महासचिव शिनफ़ेन्ग शोऊ ने मांग की है कि चीन के ऐसे वाइल्डलाइफ़ मार्केट्स पर फ़ौरी रोक नहीं बल्कि पूर्णरूपेण पाबंदी लगाई जाए। वो ना केवल बीमारियों का अड्डा हैं, बल्कि जैव-विविधता के विनाश का भी कारण बन रहे हैं। कोई ना कोई उदारवादी बौद्धिक अभी चीन में उठकर सामने आएगा और कहेगा कि हम क्या खाएं, क्या ना खाएं, यह तय करने वाले आप कौन? जैसे कि ईश्वर ने पशुओं को इसीलिए रचा था कि मनुष्य उनको मारकर खा जाए? कुछ और बुद्धिमान फ़ूड-ट्रेड का हवाला देकर किंतु-परंतु करेंगे। हुकूमत में विवेकशीलता होगी तो वह ऐसे बुद्धिमानों की अनसुनी करके ज़रूरी क़दम उठाएगी। क्योंकि ग़ैरक़ानूनी एनिमल ट्रेडिंग के चलते आज पशुओं की 8775 प्रजातियां संकट में आ गई हैं।
गार्डियन की रिपोर्ट बतलाती है कि कहने को तो चीन में एक वाइल्डलाइफ़ प्रोटेक्शन लॉ है, लेकिन तीस सालों से उसे सुधारा नहीं गया है। ना ही अधिकारियों की उसमें कोई रुचि है। प्राकृतिक संसाधनों और वन्यजीवन का नि:शंक दमन इस देश के गुणसूत्रों में है। पशुओं के प्रति क्रूरता में यह पश्चिमी जगत को भी मात दे चुका है। अमेज़ॉन और ऑस्ट्रेलिया के दावानल के बाद यह कोरोना वायरस बीते एक साल की तीसरी बड़ी प्राकृतिक आपदा है, और अगर अब भी नहीं चेते तो गम्भीर परिणाम भुगतना होंगे।
मालूम हुआ है कि यह कोरोना वायरस सांपों, चूहों, साहियों और पेंगोलिन को खाने से फैल रहा है। बाज़ार में ये पशु खुले पिंजरों में क़ैद रखे जाते थे और मारे जाने की प्रतीक्षा करते थे। रेस्तरां की मेज़ पर सब कुछ सुंदर और सुथरा मालूम होता है, किंतु जब आप कुछ खाने का ऑर्डर देते हैं तो भीतर रसोईख़ाने में उसे कैसे तैयार किया जा रहा है, यह जानने में भी दिलचस्पी होनी चाहिए। जिस पशु का मांस ऑर्डर किया गया है, वह किन परिस्थितियों में रखा गया था, इसकी किसी को चिंता नहीं है। वे भोले और निर्दोष पशु अत्यंत शोचनीय जीवन-परिस्थितियों में रहते हैं। उनके पिंजरे तंग और गंदे होते हैं। वे अपने ही अपशिष्ट में लिथड़े रहते हैं और अनेक संक्रामक रोगों से ग्रस्त होते हैं।
जब मैं कहता हूं कि हुआनान सीफ़ूड होलसेल मार्केट मुझे सब तरफ़ दिखलाई देते हैं, तो उसका आशय यही है कि मांसभक्षण के लिए मारे जाने वाले पशुओं को सदैव ही मैंने शोचनीय दशा में देखा है। अलबत्ता ऐसा कहने का यह अभिप्राय नहीं कि अगर उन्हें साफ़-सुथरी दशा में रखा जाता है, तब आप उन्हें मारकर खा सकते हैं, जैसा कि अमेरिका के कुछ स्लॉटर-हाउस दावा करते हैं कि हम बहुत क्लीन हैं। मनुष्य नैसर्गिक रूप से मांसभक्षी है या नहीं, इस पर एक लम्बी बहस चलती है। किंतु वह सर्वभक्षी तो निश्चय ही नहीं है। मांसभक्षी भी वह फ़ूड-चेन में अपनी शक्ति के आधार पर ही हो सकता है। किंतु मास-स्लॉटर हाउसेस और फ़ैक्टरी-फ़ॉर्म्स की वधशालाओं से कौन-सी फ़ूड-चेन बनती है? निहत्था मनुष्य आमने-सामने की लड़ाई में किस पशु को मारकर खा सकता है? और अगर वह ऐसा नहीं करता, तो शेष सभी प्रकार के मांसभक्षण अनैतिक तो हैं ही, अप्राकृतिक भी हैं।
प्लेग, रैबीज़, एंथ्रेक्स, बर्ड-फ़्लू, स्वाइन-फ़्लू, सार्स के बाद अब कोरोनावायरस हमारे सामने है, जो पशुओं से फैलता है। मनुष्य के अहंकार और उद्दंडता की सीमा नहीं। ऐसी किसी भी महामारी के फैलने पर वह उलटे पशुओं का सामूहिक-वध करने लगता है, स्वयं के आचरण में नैतिकता का समावेश करने की नहीं सोचता। उसे अपने किए पर ग्लानि भी नहीं होती। करुणा की तो बात ही रहने दें। पशुओं को जीवन का अधिकार है, यह तो तब कौन कहे? मैं तो इसको भी अनैतिक ही मानूंगा कि मनुष्य पशुओं से फैलने वाली महामारी के डर से उन्हें मारकर खाना बंद कर दे। पशु-वध के प्रतिकार का आधार तो करुणा और नैतिकता ही होना चाहिए। किंतु अगर वैसी महामारियां फैलती हैं और मनुष्यता का सर्वनाश करती हैं तो शिक़ायत करने का नैतिक-अधिकार किसी को नहीं है। मनुष्य-जाति का विनाश या तो किसी पिंड के पृथ्वी से टकराने से होगा, या युद्धों से होगा, या महामारियों से होगा, या कोई और प्राकृतिक आपदा धरती को मनुष्यों से शुद्ध करेगी- यह तो निश्चित ही है।
मुझको तो इधर हर बात पर गांधी जी याद आते हैं। गांधी जी ने बहुत आहार-चिंतन किया है और उनकी आत्मकथा में भी अनेक प्रकरण इस पर केंद्रित हैं। अनेक पढ़े-लिखे चतुरसुजान इस बात पर उपहास भी करते हैं कि गांधी जी आहार को इतना महत्व क्यों देते हैं। हम क्या खाएं, क्या नहीं खाएं, इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है? उन्हें मालूम नहीं कि हम जो खाते हैं, उससे हमारी चेतना की निर्मिति का गहरा सम्बंध है। जैसा अन्न, वैसा मन। भोजन का शुद्ध, नैतिक, प्राकृतिक और सात्विक होना अत्यंत आवश्यक है।
मैं इस लेख का समापन "सत्य के प्रयोग" के कुछ अंशों से करता हूं। आहार-लिप्सा से सर्वनाश की ओर बढ़ रही दुनिया के लिए एक भारत-मूर्ति के ये विचार हैं-
"मेरा अनुभव तो मुझे यह सिखाता है कि जिसका मन संयम की ओर बढ़ रहा है, उसके लिए आहार की मर्यादा और उपवास बहुत मदद करने वाले हैं। अपनी त्रुटियों का मुझे ठीक दर्शन होने से मैंने उन्हें दूर करने के लिए घोर प्रयत्न किए हैं और फलतः मैं इतने वर्षों तक इस शरीर को टिका सका हूँ और इससे कुछ काम ले सका हूँ। जब प्रत्येक इंद्रिय शरीर के द्वारा आत्मा के दर्शन के लिए ही कार्य करती है, तब उसके रस शून्यवत् हो जाते हैं और तभी कहा जा सकता है कि वह स्वाभाविक रूप से बरसती है। ऐसी स्वाभाविकता प्राप्त करने के लिए जितने प्रयोग किए जाएं, कम ही हैं।"
सुशोभित सर की फेसबुक वॉल से साभार
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