Friday, April 24, 2020

काफिल का कुत्ता

*काफिल का कुत्ता*

ऑनलाइन अध्ययन-अध्यापन के साथ लॉक डाउन में आज दूसरी किताब पढकर पूरी की. पहली किताब के बारे में बात इस किताब के बाद करेंगे. फ़िलहाल तो किताब पढ़ी, वह पांच लम्बी कहानियों का कहानी संग्रह है, यह संग्रह मित्र विक्रम सिंह जी द्वारा रचित है. विक्रम सिंह जी के विषय में यहाँ बताना इसलिए भी ज़रूरी है कि पाठक यह समझ सकें कि साहित्यकार या लेखक किसी क्षेत्र विशेष से सम्बन्ध नहीं रखता. जीवन की भावनाओं और संवेदनाओं को शिरेवार लेखनी के माध्यम से व्यक्त जो भी कर दे और वो लेखनी जन समुदाय तक न सिर्फ पहुंचे बल्कि उनके मानसपटल पर अपना प्रवाह भी अंकित करें, निसंदेह वही लेखक या कवि कहलाये जाने का हकदार होता है. तो इस कहानी संग्रह के लेखक ऐसे ही व्यक्तिव के धनी हैं. विक्रम सिंह जी तकनीकी शिक्षा प्राप्त करने के बाद वर्तमान में हरिद्वार औधोगिक क्षेत्र के अंतर्गत मुंजाल शोवा लिमिटेड कम्पनी (हीरो मोटोकोर्प) में अभियंता के पद पर कार्यरत हैं. औजार पकड़ने वाले हाथ जब कलम पकड़ते हैं तो समझिये साहित्य में क्रांति होने की संभावना ज्यादा होती है. मशहूर साहित्यकार ओमप्रकश वाल्मीकि के नाम से आप सभी भली प्रकार परिचित हैं. अरे! इसे आप तुलना न समझे, मात्र उदाहरण दे रहा हूँ. लेखन में रूचि रखने वाले और साथ ही अभिनय क्षेत्र में अपना दखल रखने वाले विक्रम जी देश भर के जाने-माने पत्र-पत्रकों में छपते रहते हैं. उनके तीन कहानी संग्रह ‘वारिस’, ‘और कितने टुकडें’ ‘गणित का पंडित’ और ‘काफ़िल का कुत्ता’ और अभी हाल ही में लोकोदय प्रकाशन से उपन्यास ‘यारबाज़’ प्रकाशित हुआ है. लेखन के साथ अभिनय में रूचि रखने वाले विक्रम सिंह जी तीन हिंदी फिल्मों (पी से प्यार फ से फरार, मेरे साइनाथ, पसंद-नापसंद) में भी अभिनय कर चुके हैं. साथ ही इनकी फिल्म स्क्रिप्ट राइटिंग कला आप  ‘पसंद-नापसंद’ फिल्म में देख सकते हैं.
खैर अब बात करते हैं इनके कहानी संग्रह ‘काफ़िल का कुत्ता’ की. पांच लम्बी कहानियों का यह संग्रह रोचकता से भरपूर है. क्रमशः संक्षेप में पाँचों कहानियों पर बात करते हैं. पहली कहानी जिसका शीर्षक है ‘अपना खून’ इस कहानी को यदि लघु उपन्यास कहा जाये तो इस रचना के साथ न्याय हो सकेगा. 66 पृष्ठों की यह लम्बी कहानी पाठक को अंत तक बांधे रखती है. पितृसत्तात्मकता व्यवस्था समाज में कैसे आज भी बनी है इसका बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत करती है यह कहानी. यही नहीं  हमारे भारतीय समाज में पितृसत्तात्मकता व्यवस्था को मजबूत करने के लिए महिला किस प्रकार जिम्मेदार है और काफी सीमा तक महिला को मजबूर भी किया जाता है कि वह पितृसत्तात्मकता व्यवस्था को बनाये रखने के लिए बे-मन से सही पुरुष का सहयोग करें. इस कहानी की विशेष बात तो पाठक के रूप में महसूस की वो यह कि इस कहानी में उत्तराखंड बनने की ऐतिहासिकता पर भी काफी प्रकाश डाला गया है.
उत्तराखंड आंदोलन की पृष्ठभूमि दिखाए जाने के चलते कहानी में जिज्ञासा और रोचकता बढ़ती जाती है। इतना ही नहीं उत्तराखंड के गरीबी पहाड़ी जनजीवन को इस कहानी को जिस प्रकार दिखाया गया है, वो आंखे नम कर देता है। इस कहानी को पढ़ने वाला कोई भी पाठक हो, यह जानकर आश्चर्यचकित होगा कि आज भी पहाड़ पर रहने वालों का जीवन अभावग्रस्त ही नहीं बल्कि दुष्कर भी है। हालांकि सरकारी योजनाओं के चलते स्थितियों में काफी सुधार हुआ है, परन्तु इसके बावजूद भी ईजा और दीपा जैसे अनेकों गरीब लाचार परिवार हैं, जिन तक सही मायनों में कोई सरकारी लाभ नहीं पहुंच सका है। जबकि ईजा का पति खड़गराम उन आंदोलनकारियों में शामिल था, जिन्होंने उत्तराखंड को अलग राज्य का दर्जा दिलाने के लिए अपनी जान की बाजी तक लगा दी। बावजूद इसके उसके पीछे उसके परिवार की वही दयनीय स्थिति है।

कहानी में उत्तराखंड में किस प्रकार ब्रिटिशों का आगमन हुआ और कैसे उनसे मुक्ति के लिए पहाड़ों पर संघर्ष हुआ, लेखक ने बखूबी दिखाने का प्रयास किया है। कहानी में दीपा और इंदर की अधूरी प्रेमकथा, कहानी को विस्तार अवश्य प्रदान करती है, परन्तु हर बार की जैसे यह कथा भी पूर्ण होने से पहले ही कहीं खो जाती है। इंदर अपनी माँ के इलाज के लिए शहर जाता है, हाड़-तोड़ प्राइवेट काम करता है लेकिन अंत में अपनी माँ को टीबी की बीमारी से बचा नहीं पाता है और माँ की मृत्यु हो जाती है। माँ की मौत के बाद जब गांव वापस लौटता है, तो दीपा के बारे में पता चलता है कि उसकी तो शादी हो गयी। कहानी के युवा पात्र इंदर के रूप में पहाड़ के युवा बेरोजगार को देख सकते हैं। पहाड़ पर रोजगार के अवसर न होने के चलते वहाँ के युवा किस प्रकार रोजगार की तलाश में तराई के क्षेत्रों में चले जाते हैं और पहाड़ को पलायन का दर्द झेलना पड़ता है।
कहानी फिर कुछ ऐसे आगे बढ़ती है, कहानी का मुख्य पात्र रूप सिंह है जो इंडियन ऑयल प्लांट  में सरकारी मुलाजिम है और शान से मैदानी क्षेत्र में आलीशान घर बनाकर अपनी पत्नी कलावती के साथ रह रहा है। कहानी में सरकारी नौकरी के पहले के संघर्ष को भी बखूबी दिखाया गया।  परन्तु सब होने के बाद भी उसके पास कुछ नहीं, मतलब शादी के कई वर्षों बाद भी वह बाप नहीं बन सका। कमी उसमें नहीं, उसकी पत्नी में थी। इसलिए वह हर शाम शराब में डूब जाता है और दुखी भी होता है।
निःसंतानता के कष्ट के कारण कलावती उससे से एक दिन कह ही देती है कि क्यों न हम बच्चा गोद ले ले। यह सुनकर रूप सिंह को अच्छा नहीं लगता, वह कलावती से कहता है, 'अपना खून चाहता हूँ'। इसके बात कलावती निरुत्तर हो जाती है।
एक दिन इकबाल जो कि रूप सिंह का दोस्त है उससे कहता है यार तू दूसरी शादी क्यों नहीं कर लेता। यह सुनकर रूप सिंह चौंक जाता है और मना करता है। लेकिन बार बार इकबाल के समझाने पर, उसे इकबाल की बात समझ आ जाती है। पर यह बात कलावती से कैसे कहें, इसी चिंता में डूबा रहता है। खैर किसी तरह वह कलावती को मना लेता है या कहिए रूप सिंह को संतान प्राप्ति के लिए वह स्त्री जीवन के सबसे बड़े त्रास यानि सौत रखने के लिए हामी भर देती है। लेकिन उसकी शर्त यह है कि संतान होने के बाद रूप सिंह उसे छोड़ देगा। उस समय रूप सिंह भी उसकी शर्त मां लेता है।
अब लड़की कौन है? रूप सिंह के इस प्रश्न की जिज्ञासा पर इकबाल उसे बताता है कि एक गरीब पहाड़न की तीन लड़कियां हैं, उसकी सबसे बड़ी लड़की के लिए बात करूंगा। इकबाल को गांव में सभी मानते हैं तो ईजा यानी दीपा की माँ, हाँ जी यह वही इंदर की दीपा है, उसकी बात को यह जानते हुए भी मान जाती है कि दीपा की दुगनी उमर का है रूप सिंह। चूंकि घर में खाने के लाले पड़े हैं, तो इसका विवाह कैसे करती, यही सब सोचकर एक मजबूर-बेबस माँ ने हां की।
आखिर इस गरीबी ने फूल सी लड़की को अधेड़ से शादी करा ही दी।
रूप सिंह शादी करके दीपा को घर ले आता है। रूप सिंह की माँ तो खुश है लेकिन स्त्री स्वभाव ऐसे समय कैसे खुश रह सकती थी। कहानी पढ़ते हुए बात मन में आयी क्या ये समाज यही इजाज़त कलावती को भी दे देता, यदि रूप सिंह नपुंसक होता। कभी नहीं।
कलावती न चाहते भी अपना बिस्तर पराई स्त्री को दे देती है। देखते देखते आखिर वो दिन आ ही गया, दीपा पेट से रह गयी। और कुछ समय बाद दीपा सिंह एक बेटी का पिता बन ही गया। उस दिन उसकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रह गया। पूरे अस्पताल में उसने मिठाई बटवायी। यह बता दे, यह मिठाई लड़की के होने की नहीं, बल्कि उसके सिर्फ बाप बनने की है। यह बात कहानी के अंत में जाकर समझ आती है। हालांकि कलावती उस बच्ची को बड़े प्यार-दुलार से रखती है।
इसके बाद एक दिन कलावती रूप सिंह को उसकी शर्त याद दिलाती है और दीपा को घर से निकालने के लिए कहती है। जबकि इस बात का विरोध रूप सिंह और उसकी माँ दोनों करते हैं। लेकिन कलावती अपनी बात पर अड़ी रहती है। कलावती कहती है संतान तो आपको मिल गयी, अब क्या। इस पर रूप सिंह कहता है मुझे संतान नहीं अपना खून चाहिए। कलावती कहती है बात संतान की हुई थी, वारिस की नहीं। अन्ततः बात इतनी बढ़ जाती है कि पंचायत होती है। पंचायत भी दीपा के हक़ में फैसला आता है और रूप सिंह अपने घर पर दूसरे तल पर मकान बना देता है। कलावती नीचे और दीपा ऊपर रहती है। और दीपा की बेटी का ख्याल कलावती अपने पास रखकर ही करती है, आखिर वो भी उससे उतना ही प्यार जो करती है। समय बीतने के साथ दीपा एक बार फिर गर्भवती हो जाती है, लेकिन इस बार भी उसे बेटी ही होती है। इस बार वह बर्दाश्त नहीं कर पाता और टूट सा जाता है। मतलब जो आदमी कुछ समय पहले सिर्फ बाप कहलवाने के लिए तरस रहा था वही अपने खून यानी बेटे होने के लिए दुखी है। वाह! रे रूप सिंह।
कहानी का एक पक्ष यह भी है कि रूप सिंह अपनी दोनों बेटियों को प्यार भरपूर करता है, लेकिन अपने खून की कसक उसके दिल में बनी रहती है। दोनों बच्चियां अच्छे माहौल में पल-बढ़ रही है। तीसरी बार फिर दीपा के माँ बनने की खबर रूप सिंह को मिलती है। इस बार उसे पूरा विश्वास है कि लड़का ही होगा। लेकिन वक़्त को कुछ और ही मंजूर था। जैसी कि उसकी आदत थी, एक शाम रूप सिंह अपने साथी के साथ घर पर ही शराब पी रहा था। समय से ऑमलेट न मिलने से  नाराज होकर दीपा के सर पर तीन चार घुसे मार देता है। जिससे दीपा की हालत खराब हो जाती है और उसे हॉस्पिटल ले जाना पड़ता है, जहाँ उसका प्रसव भी हो जाता है, इस बार उसे बेटा होता है लेकिन उसकी सर की चोट का असर बच्चे पर पड़ता है और उस बच्चे को आई सी यू में रखना पड़ता है। जहाँ उसकी हालत और खराब हो जाती है और उसका बच्चा मर जाता है। यह सदमा सुनकर अपना सर दीवार पर मारने लगता है और यह खबर सुनकर सबकी आंखें भीग जाती हैं। कुछ सामान्य होने के बाद दीपा रूप सिंह को कुछ ऐसा बोल देती है कि रूप सिंह की नज़रों पुराने दिन फिर आ जाते हैं और कलावती की बातें उसके दिमाग में घूमने लगती हैं। दीपा कहती है, 'मैं जानती हूँ आपको अपने बेटे का दुख है... मैं आगे मां नहीं बन सकती। क्यों ना हम दोनों कोई लड़का गोद ले लें ताकि आपको अपनी संपत्ति का वारिस मिल जाये।'
यह सुनकर रूप सिंह को दीपा के चेहरे में कलावती दिखने लगी। वहीं पुराने मोड़ पर जिंदगी ने उसे फिर खड़ा कर दिया था। उसके अपने खून का सपना, सपना ही रह गया था।

संग्रह की दूसरी कहानी के नाम पर संग्रह का नाम भी रखा गया, 'काफिल का कुत्ता'। यह शीर्षक पढ़कर पहले थोड़ा अजीब सा लगा, फिर कहानी जैसे जैसे आगे बढ़ती रही तो शीर्षक का रहस्य समझ आ गया।
निश्चय ही यह कहानी आपको अपने बचपन में ले जाती हुई आपके संघर्ष के दिनों में फिर से ले जाएगी। देश में बढ़ती बेरोजगारी पर यह कहानी चोट करती है। सरकार को आईना दिखाती है यह कहानी। देश का हर बेरोजगार युवा इस कहानी में खुद के दर्शन कर सकता है। यही इस कहानी की खास बात है। वर्तमान में हिन्दी साहित्य जगत में जिस तरह कुकुरमुत्ते के तरह लेखक-कवि निकल रहे हैं, उन सबसे अलग यह कहानीकार है क्योंकि इनकी कहानियों में आमजन की पीड़ा और संवेदना की झलक मिलती हैं। फेसबुक पर ख्याली घसीट मारने से कोई लेखक/कवि नहीं बन जाता।
खैर इस कहानी को पढ़कर जान पड़ता है कि इसका नायक स्वयं लेखक ही है। जो अपने बचपन की शरारतों से गुजरते हुए जवानी में रोटी की जद्दोजहद तक पहुंचता है। एक कुत्ते की कहानी को अपने साथ जोड़कर दिखाया जाना कहानी में भावुकता ला देता है। फिर उसके बाद जैसा कि अक्सर हर युवा के साथ घटता ही है कि नौकरी समय से न लगने के चलते नायक की प्रेमकथा बीच में ही दम तोड़ देती है। अब इस कहानी की प्रासंगिकता इससे बढ़ती है कि नौकरी की तलाश में देश का युवा बाहर के देशों की ओर टकटकी लगाएं, मुंगेरीलाल के हसीन सपने सजाने लगता है। कुछ ऐसा ही इस कहानी में भी है। जब कुछ हाथ न लगा तो उसने ड्राइवरी सीख ली। वैसे आज देश में कोई भी काम ले लीजिए पढा लिखा युवा मिल ही जाता है। ड्राइवरी सीखने के बाद अपने मित्र की सलाह पर वह अरब देश में जाने के लिए प्रयास करता है। एजेंट को 70000/- रुपये देकर वीजा लगवाता है और हसीन सपने लेकर सऊदी अरब पहुंच जाता है। अब थोड़ा आप आस पास नजरें घुमाइए तो सही, हमारे नजदीक भी ऐसे कई युवा है जो अरब देशों में नौकरी करके खुद को खपा रहे हैं। ज़रूरी नहीं कि हर वहाँ से रुपयों के बक्से ही भरकर लाता हो। पर सपना तो सबका यही होता है। ड्राइवरी करने के लिए वीजा लगवाया था नायक ने, पर यहाँ आकर पता चलता है कि उसे भेड़-बकरी और ऊँट चराने के लिए यहाँ भेजा गया है। और जंगल में एक तंबू में रखकर उसे यह काम करना था।  यानी दलाल ने उसके साथ धोखा किया। कहानी के अंत में पहुंचते ही, मन ठहर सा जाता है। और उन युवाओं का ख्याल सताने लगता है जो किसी न किसी रूप में ऐसे ही धोखे का शिकार हुए हैं और अब उनकी जिंदगी ऐसे ही मौत से भी बत्तर हो चली होगी। यहाँ आकर उसे उसी कुत्ते की याद आती है, जिसका जिक्र कहानी के मध्य आता है।
तीसरी कहानी की पृष्ठभूमि से दूसरी कहानी की कथावस्तु लिखी गयी। इस कहानी में जो ट्विस्ट आपको मिलेगा वह यह कि एक सरकारी कर्मचारी (तारकेश्वर) अपने लड़के (मृत्युंजय) को गांव में किसानी करने के लिए कहता है और गांव का एक किसान (पलटन) अपने लड़के (धनंजय) को बाहर विदेश में नौकरी करने के लिए भेजता है। अब दोनों लड़के परेशान हैं। क्योंकि स्वभाववश तो मृत्युंजय बाहर जाना चाहता था और धनंजय गांव में रहकर जीवन गुजर करना चाहता था। मृत्युंजय तो गांव में आकर शुरू में परेशान रहता है, पर धीरे धीरे वह ग्रामीण परिवेश का आदि हो जाता है। जबकि धनंजय की स्थिति बहुत दयनीय हो जाती है। जितने रूबल पर उसे नौकरी का वादा किया जाता है उसे उससे कहीं कम रूबल मिलते हैं। ऐसे में वो सोचता है मेरे बाप ने जो समझकर मुझे यहाँ भेजा है, वो तो शायद इस जन्म में तो कभी पूरा नहीं हो सकता। जो और लड़के उसे यहाँ आकर मिलते हैं उनकी हालत भी कुछ ठीक नहीं है, बस वो इस माहौल के अभ्यस्त हो चुके हैं। उन्ही लड़कों के बीच उसे 'बद्दू' नाम मिलता है।
अब कहानी में नया मोड़ कहानी के अंत मे आपको मिलेगा, जिसपर यहाँ लिखकर आपका मजा खराब नहीं करूंगा। लेकिन इतना ज़रूर कहूंगा, अपने बच्चों को विदेशी चकाचौंध से बचाकर रखें, नहीं तो आपके जीवन की चकाचौंध में कमी आ सकती है। उक्त दोनों कहानियों का सार भी आखिर यही है।
संग्रह की चौथी कहानी 'आवारा अदाकार' पिछली तीनों कहानियों से हल्की लगी। मानो लेखक की कलम अपनी दिशा भटक गयी हो। कहानी की शुरुआत संतोषजनक थी, लेकिन मध्य और अंत तक कहानी अपने उद्देश्य से भटकती हुई अंत तक पहुंच ही जाती है। कहानी का मुख्य पात्र गुरुवंश है, जो फिल्मी दुनिया में अपना कैरियर बनाना चाहता है, परन्तु उतना सफल नहीं हो पाता जितना होना चाहिए था, क्योंकि कहानी में उसके संघर्ष पर मेहनत नहीं की गयी, इसलिए उसका किरदार कहानी और असल में सामान्य बनकर ही रह गया। गुरुवंश की प्रेमिका बबनी भी अपने परिवार के दबाव या इज्जत के लिए गुरुवंश से शादी करने में असमर्थता प्रकट कर देती है। गुरुवंश का बाप हर बाप की तरह यही चाहता है कि उसका बेटा भी सम्मान से जीवन यापन कर सके। वह उसे आगे पढ़ने की सलाह देते हैं, पर गुरुवंश फ़िल्म कलाकार बनना चाहता है। मगर फ़िल्म इंडस्ट्री में कामयाब होना, लोहे के चने चबाने के समान है। गुरुवंश का कलाकार बनने का संघर्ष जारी रहता है, परन्तु उसे कामयाबी नहीं मिलती, छोटे रोल तो मिल जाते हैं, पर वो भी हमेशा नहीं। कहानी के अंतिम भाग में बॉलीवुड की उस सच्चाई को सामने लाने की कोशिश की गयी है, जिसका सामना सामान्यतः हर उस शख्स को करना पड़ता है, जो फ़िल्म नगरी में अपना भविष्य बनाना चाहता है। कुल मिलाकर यह कहानी जिस उद्देश्य को लेकर रची गयी, वह काफी हद तक पूरा तो हुआ वैसे।
अब बात करते हैं अंतिम कहानी 'रास्ता किधर है?' इस कहानी संग्रह की सबसे कमजोर कहानी यही लगी। हालांकि कहानी में मध्यम परिवारों की दशा का कटु चित्रण किया गया। शैलीगत आधार पर कहानी कमजोर अवश्य है, परन्तु तथ्यात्मक स्तर पर जीवन की परतों को काफी उघाड़ती ज़रूर है। कहानी की पात्रा बबली, ऐसे परिवार में रहती है जहां उसकी माँ अपने पति यानी बबली के बाप को छोड़कर आ जाती है, क्योंकि उसका किसी और औरत के साथ नाजायज सम्बंध थे। दो भाई बहन और माँ, यही छोटा सा परिवार था। माँ एक स्कूल में नौकरी करती थी और घर को किसी तरह चला रही थी। हालांकि वह अपने पूर्व पति अभिषेक से अभी वही सम्पर्क में रहती थी। अब कहानी में एक भाग आता है जो अक्सर देखने को मिल जाता है। बबली एक लड़के के साथ प्रेम करती है और उसके साथ जीवन बिताना चाहती है, जबकि वह दूसरी जात का है और कमाता भी कम है। सबके विरोध किये जाने के बाद भी वह उस लड़के से शादी कर लेती है। अब शादी तो कर ली, पर क्या वह वहाँ खुश रहती है। इसका जवाब कहानी पढ़कर मिल तो जाएगा, लेकिन हमारे सामने एक यक्ष प्रश्न खड़ा कर देगा, वह यह कि हमे बखूबी यह मालूम है कि बेटियों को कामयाब करने के बाद ही उनकी शादी करनी चाहिए, लेकिन हम फिर भी ऐसा नहीं करते या कर पाते, क्यों? दूसरा एक प्रश्न यह कहानी उन लड़कियों के लिए छोड़ती है, जो अपने दिखावटी प्रेम की खातिर अपने घर परिवार को तो छोड़ ही देती है साथ ही अपने उज्ज्वल भविष्य को बनने से पहले ही बर्बाद कर देती हैं। क्या आज की युवतियां इसे ही प्रेम मानती हैं या मानेगी? इसका जवाब पाठक दें।
अंत में केवल इतना ही कहूंगा कि यह संग्रह अपने उद्देश्य में सफल रहा है, ऐसा मेरा विश्वास है। समीक्षक के तौर पर नहीं, एक पाठक के नजरिये से यह कहना अतिश्योक्ति न होगा कि आज के युवाओं- युवतियों को इस प्रकार की रचनाओं से रूबरू होना चाहिए।
चलते चलते यह भी कहना अपना कर्तव्य समझता हूँ कि प्रिय मित्र विक्रम जी अपनी आगामी रचनाओं को प्रकाशन से पूर्व उनकी पांडुलिपियों की प्रूफ रीडिंग अवश्य कराएं, क्योंकि वर्तनी सम्बन्धी गलतियां अक्सर पाठक को खलती है और अनवरत पढ़ने में व्यवधान पैदा करती है। विक्रम जी को मेरी ओर से उनके लेखन और जीवन के लिए अन्नत शुभकामनाएं
धन्यवाद

23.04.2020
डॉ० राम भरोसे
असिस्टेंट प्रोफेसर (हिन्दी)
राजकीय महाविद्यालय पोखरी (क्वीली) टिहरी गढ़वाल उत्तराखंड

Thursday, April 16, 2020

वर्तमान साहित्यिक परिवेष के सन्दर्भ में अनुवाद की भूमिकाः एक अध्ययन



भारत एक बहुभाषी विभिन्न संस्कृतियों का देश है। सभी भाषाओं में आपस में आदान-प्रदान प्राचीनकाल से ही हो रहा है। इन भाषाओं-संस्कृतियों के मध्य ‘अनुवाद‘ संवाद-सेतु के रूप में अपनी अपरिहार्य भूमिका निभा रहा है। भूमण्डलीकरण के इस युग में आज पूरा विश्व एक नजर आता है। इस हेतु अनुवाद की महती भूमिका है। आज विश्व के देश एक-दूसरे से सम्पर्क कर अपना ज्ञान-विज्ञान, तकनीक-प्रोद्यौगिकी, साहित्य-विचार सांझा कर रहे हैं। जिसमें अनुवाद की भूमिका असंदिग्ध है। ज्ञान-विज्ञान का कोई क्षेत्र शेष नहीं है, जो किसी न किसी रूप में अनुवाद से संबंधित न हो। बल्कि यह कहना ज्यादा उचित होगा कि अनुवाद ही एक ऐसा माध्यम है, जो आज सम्पूर्ण विश्व को एकसाथ जोड़ने का कार्य कर रहा है। साहित्य हो या गैरसाहित्यिक अनुवाद का मुख्य कार्य ही है कि विश्व में बिखरे सम्पूर्ण ज्ञान को एकत्रित कर उससे सभी लाभान्वित हो सके। साहित्यिक, वैज्ञानिक या तकनीकी संसार की कोई भी भाषा अनुवाद से अछूती नहीं है। विश्व साहित्य की अनुवाद प्रक्रिया प्राचीन काल से ही अनवरत् चली आ रहा है।
वैश्विक परिदृश्य पर अनुवाद का मूलरूप तो वही है, परन्तु आधुनिक रूप में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन अवश्य हुए हैं। डाॅ. कृष्ण कुमार गोस्वामी के शब्दों में ‘‘वास्तव में शताब्दियों के सांस्कृतिक समन्वय की प्रक्रिया के चलते देष में सांस्कृतिक एकीकरण में दृढ़ता आई। देष के विभिन्न भाषाओं, आचार-विचारों और मत-मतांतरों के होने के बावजूद हमारी अखंडता और एकता पर कोई आंच नहीं आई। विविध भाषा-परिवारों की भाषाओं को बोलने वालों में परस्पर सद्भाव बनाए रखने में अनुवाद का बहुत बड़ा योगदान रहा है। आज भी अनुवाद एक सामाजिक आवष्यकता है।‘‘1
मानव सभ्यता के विकास के साथ ही मनुष्य ने भौगोलिक सीमाओं का पार करना शुरू किया, जिससे अन्य समुदायों से युद्ध, मित्रता, व्यापार, धर्म-प्रचार आदि के संबंध में एक-दूसरे से मिलने के फलस्वरूप संप्रेषण का व्यापार बढ़ता गया, जिसका आधार अनुवाद है। प्राचीन समय में संस्कृत और यूनानी ही क्रमषः पूर्व व पष्चिमी की प्राचीनतम क्लासिक भाषाएँ थीं, जिनके पास प्रचुर मात्रा में ज्ञान का भंडार था। अन्य समकालीन भाषाएँ उनके समक्ष बोलियों के रूप में विद्यमान थीं। चूंकि उनके पास इन क्लासिक भाषाओं को देने के लिए कुछ विषेष नहीं था, अतः अन्य भाषाओं से इन भाषाओं मंे अनुवाद का कोई क्रम स्पष्टतः नहीं दिखायी देता। उपरोक्त दो क्लासिक भाषाओं के आधार पर विश्व अनुवाद परंपरा को दो भागों पूर्व अर्थात् भारत में अनुवाद तथा पष्चिम में अनुवाद में विभाजित किया जा सकता है। तथापि विश्व के प्राचीनतम अनुवाद की बात करे तो, इसका वर्णन प्रो. कृष्णकुमार गोस्वामी जी अपनी पुस्तक में करते हैं, ‘‘विष्व का प्राचीनतम अनुवाद रोज़ेटा प्रस्तर पर मिला है, जो लगभग 200 ई.पू. का है और उसमें मिó की दो प्राचीन लिपियों ‘हीरोग्लाइफिक‘ तथा ‘देमांतिक‘ में इतिहास तथा संस्कृति का वृत्तांत है और उसका अनुवाद प्राचीन मिóी भाषा में भी है।‘‘2
अनुवाद परम्परा के सन्दर्भ में प्राचीन भारतीय साहित्य में अनुदित साहित्य प्रायः उपलब्ध नहीं है। जिसका प्रमुख कारण तत्कालीन साहित्य और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में भारत विष्व का सर्वाधिक विकसित देष था। प्राचीन भारतीय साहित्य में लौकिक संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभं्रष आदि भाषाओं के साहित्य को किसी अन्य भाषा में प्रस्तुत/अनुवाद करने का कोई प्रचलन ही नहीं था। सम्भवतः इसकी जरुरत भी नहीं पड़ी होगी। लेकिन काव्यषास्त्र और नाट्यषास्त्र गं्रथों में गाहा सत्सई, वड्डकहा, कर्पूर मंजरी आदि प्राकृत गं्रथों में संकलित अनेक स्थानों का संस्कृत अनुवाद अवष्य किया गया। इसके साथ तत्कालीन नाटकों में पुरुष पात्रों का संवाद संस्कृत में होता होगा। चूंकि स्त्रियां तथा अन्य निम्न वर्ग के पात्रों की बोली प्राकृत थी, तो ऐसे पात्रों के प्राकृत संवादों का संस्कृत पाठ भी साथ-साथ दिया जाता था, जिसे ‘छाया‘ कहा गया। यह एक प्रकार का अंतरभाषिक अनुवाद ही था।
प्रामाणिक रूप से प्राकृत भाषा के अनेक गं्रथों के संस्कृत में छायावाद हुए हैं, जिनमें प्रमुख गुणाढ्य की पैशाची प्राकृत में रचित ‘बडडकहा (बृहत्कथा) के तीन रूपांतर मौजूद हैं- पहला बुध स्वामी कृत ‘बृहत्कथा-श्लोक-संग्रह‘, दूसरा क्षेमेंद्र कृत ‘बृहत्कथा मंूजरी‘ व तीसरा सोमदेव का ‘कथा सरित्सार‘। इनके बाद भारतीय पाली साहित्य में अनुदित गं्रथ नगण्य है। इसी प्रकार प्राकृत अपभ्रंशों में भी अनुदित गं्रथ न के बराबर ही है। अनुवाद की क्रमबद्ध परंपरा भारतीय साहित्य में वैसे तो नगण्य ही है, परन्तु भारतीय साहित्य का विश्व की अन्य भाषाओं में अनुवाद और रूपांतरण होते रहे हैं। सबसे पहले संस्कृत के प्राचीनतम अनुवाद चीनी भाषा में हुए हैं। बौद्ध-धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु एशिया के विभिन्न देशों के साथ ही चीन, जापान, लंका, बर्मा, बाली, बोर्नियों आदि देशों में बौद्ध साहित्य का उन देशों की भाषाओं में अनुवाद हुआ। इसके साथ रामायण और महाभारत की बहुत सी कथाएं एशियाई देशों में पहुंची। अनुवाद की दृष्टि से पंचतंत्र का प्रथम स्थान है। मूलभाषा संस्कृत से इसके अनुवाद अरबी, ग्रीक, इटालियन, स्लाव, हिब्रू, डैनिस, आइसलैंडिक, डच, फ्रांसीसी, अंगे्रजी, फारसी, लेटिन, जर्मन, स्पेनिष आदि अनेक भाषाओं में हुए हैं।3 पंचतंत्र को अरबी में ‘कलील-दमना‘ नाम से जाना जाता है।
अनुवाद के विकास मेें मुगल काल का अपना महत्व है। सम्राट् अकबर ने प्राचीन ग्रंथों के फारसी-अरबी में अनुवाद कराने के लिए एक स्वतंत्र विभाग की स्थापना करायी, जिसमें रामायण, महाभारत व गीता जैसे महान हिन्दू धर्मग्रंथों के फारसी में अनुवाद कराये गये। इसी कड़ी में सन् 1656-1657 में मुगल सम्राट् शाहजहाँ के बड़े पुत्र शहज़ादा दारा शिकोह ने एक महायज्ञ के रूप में 52 उपनिषदों का अनुवाद फारसी में किया। महाभारत के महत्वपूर्ण भाग श्रीमद्भगवद् गीता का अनुवाद विश्व की लगभग सभी प्रमुख भाषओं मंे हो चुका है। इसी प्रकार संस्कृत-तमिल, तमिल-संस्कृत, अंगे्रजी-तमिल-अंग्रेजी, संस्कृत-अंग्रेजी, तेलुगु-संस्कृत, बंगला-संस्कृत, गुजराती-संस्कृत, मराठी व सिंधी अनुवाद भी विश्व साहित्य के परिप्रेक्ष्य में उल्लेखनीय है, जो स्वयं में विशेष अध्ययन की संभावना रखते है।
वैदिक साहित्य के अनुवाद के पश्चात्, आधुनिक काल में हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं से अनुवाद का क्रम ईस्ट इंछिया कम्पनी के शासनकाल तथा अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार-प्रसार से प्रारम्भ होती है। गोस्वामी के अनुसार हिन्दी में अनुवाद की व्यवस्थित परंपरा सोलहवीं शताब्दी से मिलती हैं। अट्ठारहवीं शताब्दी तक प्राचीन साहित्य का अनुवाद होता रहा।.................वषिष्ट कृत संस्कृत वेदांत ग्रंथ ‘योग वषिष्ट‘ का अनुवाद रामप्रसाद निरंजनी की भाषायोग वषिष्ट (1741) को खड़ीबोली हिन्दी गद्य की प्राचीनतम पुस्तक माना जाता है।‘‘4 खड़ीबोली काव्य की प्रथम कृति श्रीधर पाठक की ‘एकांतवासी योगी‘ (1886) आॅलिवर गोल्डस्मिथ की ‘द हरमिट‘ का काव्यानुवाद ही है।
अनुवाद के माध्यम से ईरान में कई शताब्दियों तक गुमनामी के अंधकार में खोये रहे एक फारसी कवि उमर खैय्यमी अचानक 19वीं शताब्दी में विश्व में प्रसिद्ध हो गया। उनकी रूबाइयों का अंग्रेजी में सबसे पहले अनुवाद 1859 में फिट्ज़्ाजेराल्ड ने किया। भारतीय नवजागरण के उदय के साथ ही खड़ी बोली हिन्दी का उद्भव और विकास हुआ। इस सन्दर्भ में अनुवाद की महत्ता और भी बढ़ जाती है। ‘‘यदि नवजागरण दो जातीय संस्कृतियों की टकराहट से उत्पन्न रचनात्मक ऊर्जा है, तो अनुवाद ही वह माध्यम है जो संस्कृतियों में संपर्क और टकराहट लाने में अपनी भूमिका निभाता है।‘‘5 इसमें कोई दो राय नहीं है कि नवजागरण की चेतना के पाश्र्व में अनुवाद की अति महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। खड़ी बोली के विकास में अपनो अद्वितीय योगदान देने वाले भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अनुवाद के माध्यम से खड़ी बोली को परिष्कृत करने का महत्वपूर्ण कार्य किया। भारतेन्दु ने श्री हर्ष कृत ‘रत्नावती‘, कृष्ण मिश्र के ‘प्रबोध चन्द्रोदय‘ नाटक का ‘पाखण्ड विडम्बन‘ (1873), कंचन पंछित के ‘धनंजय विजय‘ (1873), महाकवि विशाखदत्त के ‘मुद्राराक्षस‘ (1875), जैसे संस्कृत गं्रथों के साथ ही शेक्सपीयर के ‘मर्चेंट आॅफ वेनिस‘ का भी ‘दुर्लभ बन्धु‘ नाम से खड़ी बोली में अनुवाद किया। हिन्दी भाषा-साहित्य न केवल संस्कृत से समृद्ध हुआ, अपितु अंगे्रजी साहित्य के अनुवाद से भी हुआ। अंग्रेजी साहित्य के संपर्क में आने पर भारतीय साहित्यकारों ने अंग्रेजी नाटकों के अनुवाद भी आरंभ करत दिये गये। वास्तव में हिन्दी साहित्य को उपन्यास की जिस नयी विधा का परिचय हुआ, वह डेनियल डेफो के अंग्रेजी उपन्यास ‘द लाइफ एंड स्टेंªज एंड सरप्राइजिंग एडवेंचर्स आॅफ रोबिन्सन क्रूसो‘ (1719) के हिन्दी अनुवाद 1860 से हुआ। इस उपन्यास का अनुवाद काशी के पंडित बद्रीलाल ने बंगला से किया था। इसके बाद यह सिलसिला आज तक भी चल रहा है। कई महत्वपूर्ण कृतियां अनुवाद के माध्यम से ही विश्व पटल पर अपना स्थान बना पायी हैं। भारतीय भाषाओं में जो परस्पर अनुवाद हुए हैं, उनमें सर्वाधिक अनुवाद हिन्दी और अंगला के मध्य ही हुए हैं। क्योंकि हमारे देश में मुद्रण एवं पत्रकारिता के आरंभिक काल से ही बंगला व हिन्दी के बीच अनुवाद प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी थी। परन्तु बंगला व हिन्दी अनुवाद के विषय में यह पहलू भी महत्वपूर्ण है कि जहां बंगला से हिन्दी में अनुवाद करने की प्रवृति अधिक रही है, वहीं हिन्दी से बंगला में अनुवाद की स्थिति संतोषजनक नहीं रही है। अपवाद के रूप में कुछ उल्लेखनीय अनुवाद अवश्य हुए हैं। तुलसीदास कृत ‘रामचरितमानस‘ का अनुवाद विजयकाली भट्टाचार्य ने और प्रेमचंद कृत ‘गोदान‘ और ‘निर्मला‘ का अनुवाद चित्रा देव ने किया।
द्विवेदी युग और उसके बाद अर्थात् देश के स्वाधीनता आन्दोलन ने सारी भारतीय भाषाओं और हिन्दी को आपस में जोड़ दिया, उसके फलस्वरूप अन्य भाषाओं से हिन्दी में तथा हिन्दी से अन्य भाषाओं में अनुवाद का कार्य शीघ्रता से होने लगा।
तेलुगु, मलयालम, कन्नड, तमिल, पंजाबी, कश्मीरी आदि भारतीय भाषाओं और साहित्य में परस्पर अनुवाद व विदेशी भाषाओं से हिन्दी अनुवाद की एक सशक्त और सुदीर्घ परम्परा विद्यमान है। किसी ने स्वेच्छा से और स्वांतः सुखाय से, तो किसी ने व्यावसायिक दृष्टि से अनुवाद किया। भारतीय अनूदित साहित्य को सीमित कर पाना असंभव है। भारत में अनुवाद प्रक्रिया उतनी ही पुरानी है, जितनी मूल लेखन की। अतः अनुवाद का इतिहास-लेखन बड़ा कठिन तथा चुनौती भरा काम है। वास्तव में अनुवाद की इतिहास की संस्कृत के वैदिक-औपनिवेशिक युग में प्रारंभ हो जाता है। ये अनुवाद भारतीयों तथा विदेशियों द्वारा पूरे मन से किय गये हैं। उल्लेखनीय है कि प्रत्येक रचना के अनेक अनुवाद कई अनुवादकों द्वारा किये गये हैं। परन्तु दुःखद है कि भारतीय स्वतंत्रता से पहले हिन्दी भाषी में साहित्यकारों ने संस्कृत, अंग्रेजी, बंगला, मराठी आदि भारतीय भाषाओं के साहित्यों का अनुवाद किया गया, लेकिन स्वतंत्रता के बाद हिन्दी भाषी साहित्यकारों  और अनुवादकों ने भारतीय भाषाओं से नाममात्र के अनुवाद किया, जबकि हिन्दीतर साहित्यकारों-अनुवादकों ने अपनी भाषाओं के साहित्य का अनुवाद स्वयं किया है। वास्तव में लक्ष्य भाषा अनुवादक की मातृभाषा/प्रथम भाषा हो तो उसे अनुवाद करने में अधिक सुविधा होती है और अनुवाद में सहजता और स्वाभाविकता आने की अधिक संभावना रहती है। इस ओर ध्यान देने की अत्यंत आवश्यकता है। इसकी चर्चा आगे करेंगे।
अनुवाद के संक्षिप्त इतिहास को जान लेने के बाद जरूरत है कि क्यों न इसके वर्तमान पक्ष पर नजर डाली जाए। साथ ही अनुवाद के वर्तमान भारतीय भाषाओं के सन्दर्भ में विभिन्न भारतीय साहित्यकारों के विचारों पर प्रकाश डालें।
निश्चित ही यह युग अनुवाद का युग है। इस युग में अनुवाद तथा अनुवादकों की महत्ता व प्रासंगिकता बढ़ रही है। डाॅ. सुरेश सिंघल का मानना है कि ‘‘आज अनुवाद मौलिक विधा एवं अनुषासन के समतुल्य ही नहीं उससे भी आगे निकल रहा है। अनुवादकों तथा अनुवाद से जुड़े साधकों की साधना अब रंग ला रही है। प्रकाषन् संस्थाएं, अकादमियां, विष्वविद्यालय, शोध-संस्थान, भाषा एवं साहित्य सेवी जगत् सभी जगह अनुवाद एक अनिवार्यता बनकर प्रवेष कर चुका है।‘‘6 इसमें कोई दो राय नहीं है कि आज अनुवाद उपेक्षित, दोयम दर्जे का कार्य का न रहकर मौलिक सृजन के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका है। अनुवादकों ने राष्ट्र के समक्ष यह सिद्ध कर दिया है कि राष्ट्र का बहुमुखी विकास अनुवाद के बिना असम्भव था और है।
उल्लेखनीय है कि एक समय था जब अनुवाद को एक निकृष्ट कार्य समझा जाता था। अनुवाद को स्वीकृति अथवा मान्यता प्राप्त करने के लिए बड़ा लंबा संघर्ष करना पड़ा। आरम्भ में लगभग सभी अनुवादकों की तीव्र आलोचना की जाती थी और यह माना जाता था कि अनुवाद असंभव था। अनुवाद मात्र का उपहास उड़ाते हुए उस समय यह कहा गया कि अनुवाद से अभिप्राय है ‘‘किसी मरे हुए पक्षी की खाल में भूसा भर कर उसे सजावट के लिए टाँग देना या नई बोतल में पुरानी शराब डाल देना अथवा किसी सरस फल को उबालकर उसका सत्व निकाल लेना।‘‘7 अनुवाद को प्रत्येक साहित्य, प्रतिबंधित सामग्री मानता था और अवैध वस्तु के रूप में देखता था। अनूदित सामग्री तस्कर की हुई वस्तु समझी जाती थी। अतः उस समय अनुवाद को निस्सार और निरर्थक माना जाता था। एक इतालवी कहावत के अनुसार ‘अनुवादक वंचक होते हैं।‘ एफ गंुथर ने अनुवाद को अर्थ विज्ञान के साथ जोड़ा है। अनुवाद हेतु एक इतालवी कहावत और है कि ‘निष्ठायुक्त कुरूपता अच्छी है, निष्ठायुक्त संुदरता नहीं। यानि यदि अनुवाद संुदर होगा तो मूलनिष्ठ नहीं होगा और मूलनिष्ठ होगा तो सुंदर नहीं होगा। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि मूल पाठ में अंतर्निहित सौन्दर्य को हम दूसरी भाषा में उतना ही सौन्दर्ययुक्त बनाकर प्रस्तुत नहीं कर सकते। सौंदर्यविहीन अनुवाद साधारणतः टीकाएं मात्र बनकर रह जाते हैं। अनुवादक अपनी रचना से मूल की समानर्थी अभिव्यक्त्यिों की पुनर्रचना तो कर सकता है, परन्तु यथातथ्य प्रतिरूप नहीं। इसी आधार पर ‘मे‘ जैसे विद्वानों ने तो यहां तक मान लिया कि‘‘अनुवाद जैसी कोई वस्तु होती ही नहीं।‘‘ इसी प्रकार अन्य पाश्चात्य साहित्यकारों-आलाचकों के साथ भारतीय साहित्यकारों के अनुवाद संबंधित विचार उसे हीन बनाते नजर आते हैं- उदाहरणार्थ-
सिडनी, ‘‘विचार अनूदित हो सकते हैं लेकिन शब्द और उनकी अर्थ-छायाएँ अनूदित नहीं हो सकती‘‘
जाॅएटे, ‘‘अनुवाद में कुछ कमी अवष्य रह जाती है। प्रायः हर भाषा के शब्दों की अपनी ध्वनियां होती हैं, जिन्हें दूसरी भाषा में ला पाना संभव नहीं होता।‘‘
राबर्ट गेब्ज, ‘‘अनुवाद असत्य या विनम्र असत्य है। वह सत्य हो नहीं सकता ऐसी स्थिति में अनुवादक वंचक हो जाएगा।‘‘
रवीन्द्रनाथ टैगोर, ‘‘अनुवाद पूर्ण संतोष देने वाला नहीं होता।‘‘
मामा वरेरकर, ‘‘लेखक होना आसान है, अनुवादक होना अत्यंत कठिन है।‘‘
खुशवंत सिंह, ‘‘हर एक कृति अनुवाद योग्य है, पर हर कृति का अनुवाद नहीं किया जा सकता।‘‘ (उक्त परिभाषाएं ‘अनुवाद सूक्त्यिां‘ नामक पुस्तक से ली गयी हैं, संपादक- कुसुम अग्रवाल व डाॅ. गार्गी गुप्त, वर्ष 1984)
उक्त इन सभी धारणाओं/विचारों के बावजूद भी अनुवाद होता रहा और उसका मूल्यांकन भी साथ-साथ किया जाता रहा। सुख और दुख की भांति मनुष्य ज्ञान को भी दूसरों के साथ बाँट लेना चाहता है। जो वह स्वयं जानता है उसे दूसरों तक पहुंँचाना चाहता है और जो दूसरे जानते हैं, उसे स्वयं जानना चाहता है। इस प्रक्रिया में भाषा की सीमाएं उसके आड़े आती हैं। इसलिए अनुवाद आज ज्ञान-विज्ञान के विकास और प्रसार का अनिवार्य साधन बन चुका है। सामान्यतः एक भाषा की किसी सामग्री के दूसरी भाषा में रूपांतर को ही अनुवाद कहते हैं। यहां ‘अनुवाद‘ शब्द या उसकी परिभाषाओं पर विस्तार से विचार करने के अपेक्षा उसकी वर्तमान प्रासंगिकता और भावी संभावना पर गहन दृष्टि डालना मुख्य उद्देश्य है। 
आज के ‘विश्व-कुटुम्बकम‘ युग पुनीत भावना को साक्षात् करने का महान समय है। प्राचीन अथाह अभाव वाले युग को भूलकर हम नवीन सूचना-प्रौद्योगिकी के युग में प्रवेश कर चुके हैं। तो निश्चय ही निःसंदेह सूचनाओं-आंकड़ों से भरे इस दुनिया में एक ऐसे माध्यम की महती आवश्यकता है, जो सूचनाओं को एकरूपता से विश्व में प्रचारित-प्रसारित किया जाए। यह महान कार्य भाषाओं के परस्पर ‘अनुवाद‘ के अलावा कोई अन्य माध्यम नहीं कर सकता।आज हम सच में बहुत आगे निकल चुके हैं। विदेशी-बहुद्देशीय व्यापार तंत्र हमारे देश में प्रविष्ट हो चुका है। हमारा व्यापार भी विश्व के अनेक देशों में अपने पैर पसार चुका है। वित्तीय निवेश के साथ हमारे वैचारिक प्रवेश भी विश्व के हर कोने में हो चुका है।निःसंदेह ही हमारी राजभाषा हिन्दी का प्रचार-प्रसार भी अब वैश्विक स्तर पर हो रहा है। इन सभी कार्यांे के लिए आज सर्वाधिक कारगर माध्यम ‘अनुवाद‘ ही है। भारत के प्रसिद्ध अनुवाद विद् तथा भाषा के स्थापित विशेषज्ञ डाॅ. पूरनचन्द टण्डन ने अनुवाद के महत्ता के विषय में यहां तक कह चुके हैं, ‘‘यदि विष्व की कोई एक भाषा तलाषी जाए तो वह ‘अनुवाद‘ ही है।........अनुवाद एक ‘तकनीक‘ भी है,‘कला‘ भी है, ‘विज्ञान‘ भी है और ‘षिल्प‘ भी है।‘‘8 अपने एक अन्य साक्षात्कार में उन्होंने कहा, ‘‘अनुवाद आज विष्व की भाषा बन गया है। पूरे विष्व को एक सेतु बनकर जोड़ रहा है। ऐसा सेतु जो बहु-दिषागामी है और निर्बाध आवागमन के रास्ते खोलता है। अनुवाद राजगारोन्मुख विधा तो है ही, सामाजिक, सांस्कृतिक स्तर पर प्रतिष्ठित करने का शस्त्र भी है। आज भूमण्डलीकरण की अवधारणा को साकार करने वाला संलल्प कोई है तो वह है अनुवाद।‘‘9 प्रख्यात भाषाविद् डाॅ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार, ‘‘कुछ लोग अनुवाद को केवल षिल्प मानते हैं, तो कुछ लोग केवल कला। अनुवाद को विज्ञान प्रायः लोग बिल्कुल नहीं मानते। मेरे विचार में अनुवाद षिल्प भी है, कला भी और विज्ञान भी।‘‘10साहित्य की अनेक विधाओं की तरह ‘अनुवाद‘ भी एक विधा के रूप में पहचान बना चुका है। आज के प्रगतिशील युग में अनुवाद की महती आवश्यकता है। ‘‘अनुवाद के कारण आपसी सम्बन्धों में बढ़ोतरी हुई है। इसीलिए तो बीसवीं सदी को अनुवाद या पुनस्सृजन का युग कहा जाता है।‘‘11 बिल्कुल सही है क्योंकि आज अनुवाद की उपयोगिता मात्र भाषा और साहित्य तक ही सीमित नहीं है, वह हमारी सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और राष्ट्रीय भावना और साहित्य की सर्जनात्मक चेतना की समरूपता के साथ-साथ, वर्तमान तकनीकी और वैज्ञानिक युग की पूति कर हमारे ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न आयामों को देश-विदेश मंें सयुंक्त करता है। इससे आगे की बात करें तो आधुनिक विज्ञान के विकास की नींव भी अनुवाद के माध्यम से डाली गयी है।
अनुवादों के कारण ही विश्वसाहित्य की अवधारणा अस्तित्व में आयी। साधारणतः व संक्षिप्त रूप से अनुवाद की उपयोगिता कई रूपों में हमारे समक्ष है। इस आधार पर डाॅ. पूरनचंद टंडन का व्यक्तव्य बिल्कुल सटीक व समीचीन है, ‘‘किसी भी समाज-देष का विकास अनुवाद के बिना सम्भव नहीं है।‘‘12 अनुवाद क्यों? या इसकी महत्ता के विषय को प्रसिद्ध अनुवाद शास्त्री डाॅ. रीतारानी पालीवाल अनुवाद-अनुवादक संबंधी प्रासंगिक बात लिखती हैं, ‘‘मानव के पास आयु, समय और साधन की एक सीमा रहती है। हर व्यक्ति संसार की प्रत्येक भाषा नहीं सीख सकता। ऐसी स्थिति में अनुवादक की वह माध्यम है, जिसके द्वारा हम सभी भाषाओं से सम्पर्क स्थापित कर सकते हैं।‘‘13 आज अनुवाद का क्षेत्र इतना विस्तारित हो चुका है कि कोई भी क्षेत्र अनुवाद से अछूता नहीं है। महान् अनुवाद शास्त्री जिन्होंने भारत में भारतीय अनुवाद परिषद का गठन किया और अनुवाद कार्य को पुनीत बनाने का अद्वितीय कार्य किया। अनुवाद की उपयोगिता के क्षेत्र में उनका मानना है, ‘‘अब अनुवाद लगभग एक स्वतंत्र शास्त्र बन गया है। उसके सिद्धान्त निर्धारित हो गये हैं। उसकी समस्याएं भी रेखांकित हो गई हैं। उसकी प्रक्रिया भी स्पष्ट है। इन सभी का अध्ययन शैक्षिक पाठ्यक्रम का एक रोचक अंग बन चुका है। इसलिए इसका निरन्तर विस्तार ही होगा। अनुवाद शास्त्र के इन प्रष्नों की गहरी छानबीन कर सकते हैं और इसके फलस्वरूप काफी सामग्री अध्येता सामने आ सकती है।‘‘14  ज्ञान-विज्ञान की जानकारी के लिए अनुवाद, व्यवहारोपयोगी रूप में अनुवाद, सांस्कृतिक विनिमय की दृष्टि से अनुवाद आवश्यक है, राजनीतिक आदान-प्रदान की जरूरत हेतु अनुवाद, विभिन्न भाषाओं का सम्पर्क स्थापित करने के लिए अनुवाद की आवश्यकता, विदेशी भाषा के अध्ययन हेतु अनुवाद, अर्जित-उपार्जित ज्ञान की निरंतरता स्थापित करने वाला माध्यम, मानव जाति के विकास में अनुवाद की महती भूमिका, भाषा की अभिव्यक्ति क्षमता का विस्तार, वर्तमान विभिन्न भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन में सहायक, अनुप्रयुक्त भाषा विज्ञान का अभिन्न अंग, आमजन के मेल-मिलाप का महत्वपूर्ण साधन, विश्व के महान् साहित्य/गं्रथों का परिचय, सरकारी कामकाज में अनुवाद या कार्यालयी द्विभाषिकता, वैज्ञानिक-प्रौद्योगिकी-विधि साहित्य में अनुवाद की उपयोगिता, विभिन्न देशों द्वारा किया जा रहा शोध कार्यों में अनुवाद, व्यापार-पर्यटन के क्षेत्र में आदान-प्रदान में अनुवाद का उपयोग, पत्रकारिता, अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में अनुवाद की उपादेयता, वर्तमान समस्त विमर्शों के अध्ययन-अध्यापन में अनुवाद की उपयोगिता। डाॅ. रामचन्द्र वर्मा के अनुसार, ‘‘आज विष्व बन्धुत्व की भावना बल पकड़ रही है। एक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र के निकट लाने और एक-दूसरे को समझने-समझाने के निरन्तर प्रयास हो रहे हैं। यहां भाषा ही सबसे बड़ी बाधा है। अनुवाद कार्य ही इस बाधा को दूर करने को एकमात्र साधन है।‘‘15
विज्ञान के विकास के साथ ही सूचना का महत्व भी बढ़ रहा है। विज्ञान के क्षेत्र में खोजों/अविष्कारों की जानकारियां वैज्ञानिक तुरंत पाना चाहते हैं। जिस भाषा में वह उपलब्ध है, उसे एकदम अपनी भाषा में पाने हेतु उन्हें अनुवादकों की जरूरत रहती है। विज्ञान व प्रौद्योगिकी के विकास के साथ आज दुनिया भर के लोगों का आपसी संपर्क काफी बढ रहा है। ज्ञान के क्षेत्र के अतिरिक्त व्यापार, उद्योग, पर्यटन आदि के क्षेत्र में विश्व सिमट गया है। भूमंडलीकरण के जमाने में जब मनुष्य एक दूसरे की आवश्यकताओं और उनकी पूर्ति में ज्यादा और निकट का साझीदार हुआ है तब अनुवाद की आवश्यकता और भी बढ़ गयी हे। आज बहुराष्ट्रीय कंपनियों का प्रसाद है और इन कंपनियों के माल के बाजार दुनियाभर में विस्तारित हैं। इस बाजारों में माल की खपत हेतु अनुवाद का महत्व अपने ढंग से और बढ़ गया है। कम्पनियों के उत्पाद भाषा की सीमाओं को लांघते हुए अब जगह पहंुच रहे हैं।
चूंकि अनुवाद के परिप्रेक्ष्य में उसकी उपयोगिता से सन्दर्भित रोजगार के प्रत्येक क्षेत्र में पृथक-पृथक शोध किया जा सकता है। इसमें कोई दो राय नहीं होनी चाहिए कि अनुवाद ही वह सशक्त माध्यम है, जिसके द्वारा भारत जैसे देश की एक सूत्रता को सही दिशा मिलती है। अनुवाद की सुविधा के अभाव में हम अपने विशाल बहुभाषी देश में ही अपरिचित जैसे रह जाते। अनुवाद ने सम्पूर्ण राष्ट्र को एकता में बांध रखा है तथा राष्ट्रीयता के सूत्रों को बिखरने से रोका हुआ है। रोजगार की दृष्टि से भी अनुवाद आज अत्यंत प्रभावी सिद्ध हो रहा है। उदाहरण के लिए वरिष्ठ/कनिष्ठ अनुवादक, हिन्दी अधिकारी, अंग्रेजी-हिन्दी अध्यापक व प्राध्यापक, भाषा निदेशक, उपनिदेशक, राजभाषा अधिकारी, संवाददाता, समाचारवाचक, संपादक, बैंक अधिकारी आदि अनेक पदों पर अनुवादकों की नियुक्तियां हो रही हैं। केन्द्र-राज्य सरकार के कार्यालयों में, अस्पतालों में, बैंक, रेलवे, संसद, पर्यटन, विधानसभा, पत्र-पत्रिकाओं के कार्यालयों में, अकादमियों में, प्रकाशन संस्थानों में, रेडियो-दूरदर्शन, विज्ञापन एजेंसियों में, बीमा क्षेत्रों में, कोश विज्ञान में, भाषा संबंधी निदेशालयों व संस्थानों में, प्रदर्शनियों में, संग्रहालयों में, पुस्तकालयों में, खेलों में, अर्थजगत में, विज्ञान-तकनीकी-प्रौद्योगिकी से संबद्ध कार्यालयों में, विभिन्न विषयों, साहित्य आदि अनेक क्षेत्रों में अनुवाद की उपादेयता एवं प्रासंगिकता पर कोई संदेह नहीं किया जा सकता। लाखों व्यक्ति इन अनेक क्षेत्रों में अनुवाद के जरिए धनार्जन कर रहे इस सन्दर्भ में अनुवाद शास्त्री डाॅ. पूरनचंद के अनुसार, ‘‘सिनेमा भी आज अनुवाद का बहुत बड़ा मंच बन गया है। टेलीविजन के अनेक चैनल भी आज अनुवाद के माध्यम से ही अपने कार्यक्रम चला रहे हैं। ..............आज डाॅक्टर, इंजीनियर, वकील, जज, फैषन डिजाइनर, इंटीरियर डैकौरेटर, आर्किटैक्ट, मनोवैज्ञानिक, बिल्डल आदि भी अनुवाद के माध्यम से अपने व्यवसाय को व्यापक स्तर पर देष-विदेष में फैलाने-बढ़ाने का कार कर रहे हैं।‘‘16 निःसन्देह ही अनुवाद-कार्य जिज्ञासाओं का शांत करने वाली एक प्रकार की चमत्कारी विधा है। या यूं कहिए अतृप्त को तृप्ति तथा प्यासे को जल प्रदान करने वाली विधा है। अनुवाद शास्त्री डाॅ. पूरनचंद के अनुसार, ‘‘ ‘न होने से कुछ होना बेहतर है‘ तथा कुछ से कुछ और‘ उपलब्ध कराते चलने का मूल मंत्र है अनुवाद। अनुवाद ‘षास्त्र‘ भी और इसी कारण अनुषासन की विधा भी है।‘‘17 भारतीय अनुवाद परिषद् की अधिष्ठात्री, महान अनुवाद शास्त्री व भाषाविद् डाॅ. गार्गी गुप्त ने अनुवाद की उपोदयता, महत्व और प्रासंगिकता को अपने एक वाक्य में समेटते हुए कहा है कि ‘‘अनुवाद वस्तुतः एक ऐसा नीड़ है, जहाँ से विष्व-भर की यात्रा घर बैठे ही हो जाती है- ‘यत्र विष्वम् भवति एक नीडम्।‘‘18
भारतीय साहित्य के सन्दर्भ में अनुवाद की भावी संभावनाओं को कदापि नकारा नहीं जा सकता है। मशहूर लेखिका अमृता प्रीतम ने अपने साक्षात्कार में कहा भी है कि ‘‘ अनुवाद के लिए काफी संभावनाएं हैं। किन्तु काम बहुत ही कम हुए हैं।‘‘19 इनके इस वाक्य से यह तो स्पष्ट है कि भारत में अनुवाद का क्षेत्र तो अति विस्तृत है, लेकिन काम अभी उस स्तर पर नहीं हुआ है, जो कि होना चाहिए था। उसका कारणों पर प्रकाश डालते हुए अपने साक्षात्कार में आगे वे कहती हैं, ‘‘हमारे यहाँ अनुवाद के लिए जमीन तो है किन्तु मौके नहीं। गैर-सरकारी प्रकाषक अनुवाद छापते कहाँ है? सरकारी योजनाअें की अपनी सीमाएं हैं। अनुवाद के के चयन में सरकार का अपना दृष्टिकोण है। अच्छे अनुवादक को सेवा का मौका अक्सर नहीं मिलता है।......अनुवाद भी ज्यादातर -काण्ट्रेट के तौर पर दिया जाता है। अनुवाद पर उसका बुरा असर पड़ता है। पैसे के चक्कर में पड़ने वाला आदमी समर्पित मन से अनुवाद नहीं करेगा। कुछ प्राध्यापक लोग छात्रों से अनुवाद कराकर अपने नाम छपवाते हैं। गरीब लेखकों से अनुवाद कराकर अपना नाम रखने वाले अनुवादक भी हमारे बीच में है। निष्ठा के साथ न करें तो अनुवाद का स्तर अपने आप ही गिर जाएगा।‘‘20  उनकी इन बातों में कितना कड़वा सच छिपा है। इस सच से सामना अक्सर अनुवाद से जुड़े व्यक्ति को व्यक्तिगत रूप से हो ही जाता है। आमतौर पर अनुवादक को लेखक से नीचे पायदान पर माना जाता है। इसके अन्य पहलू पर भी प्रकाश डालना समीचीन होगा कि अनुवादक की निष्ठा अनुवाद के प्रति कमतर होने का मुख्य कारण क्या है? इस सन्दर्भ में प्रसिद्ध अनुवादक सरला जगमोहन का कहना है कि ‘‘अनुवादक को उतने पैसे नहीं मिलते हैं, लेकिन केवल पैसे की ही बात नहीं है- दाम भी नहीं मिलता और नाम भी नहीं मिलता और दुःख तो इस बात का है कि उसे जितना चाहिए उतना यष भी नहीं मिलता है। बड़ी-बड़ी पत्रिकाओं और अखबारों में भी अनुवादकों का नाम पीछे रखा जाता है। खुद कहने में अफसोस होता है कि साहित्य अकादमी जैसे संस्था को हालांकि वह अनुवादक का नाम जरूर देती है, लेकिन गौण बनकर।‘‘21  जबकि होना यह चाहिए कि मूल लेखक के नाम के साथ ही अनुवादक का नाम भी होना चाहिए। पुस्तकों-पत्रिकाओं में भी ऐसे ही अनुवादक का दर्जा नीचा हो जाता है। यह पैसे मिलने से भी ज्यादा दुर्भाग्य की बात है। इस बात की पुष्टि श्रीपाद रघुनाथ जोशी के व्यक्तव्य के होती है, ‘‘अधिकांष अनुवादकों ने उसके लिए मेहनत नहीं की और यह समझा गया कि दो भाषाओं का मामूली ज्ञान हो तो कोई भी अनुवाद कर सकता है।..... इसीलिए हमारे यहां अनुवादों का स्तर बहुत अच्छा नहीं है।‘‘22
अनुवाद की प्रासंगिकता और विलक्षणताओं के प्रकाश में विश्व की सभी भाषाओं में अनुवाद की कई शैलियां और प्रविधियां अपनायी गयी हे। यदि अनुवादक सावधानीपूर्वक शब्द और अर्थ की आत्मा का स्पर्श करते हुए स्त्रोत भाषा की प्रकृति के अनुरूप लक्ष्य भाषा में अनुवाद उपस्थित करता है, तो यही आदर्श अनुवाद होगा। ‘‘श्रेष्ठ अनुवादक को ऐसा कुषल चिकित्सक कहा गया है, जो बोतल में रखी दवा को अपनी सिरिंज के द्वारा रोगी के शरीर तक यथावत् पहुंचा देता है।‘‘23  अनुवादक ही स्त्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा की मूल कड़ी होता है, इसलिए अनुवाद के क्षेत्र में अनुवादक की भूमिका ही सबसे महत्वपूर्ण होती है। अनुवादक का चाहिए कि उसका उक्त दोनों भाषाआंे पर प्रभुत्व हो। जब तक प्रभुत्व नहीं होता तब तक अनुवाद नहीं करना चाहिए। ज्यादा से ज्यादा शब्दकोशों को प्रयोग करने की आदत डालनी चाहिए। प्रमुख अनुवाद के क्षेत्र में जाना पहचाना नाम है श्रीपाद रघुनाथ जोशी, उनके अनुसार अनुवादक की योग्यता, ‘‘अनुवादक के पास अनुवाद के लिए वैसी ही प्रतिभा होनी चाहिए, जैसी मौलिक लेखक के पास होती है। दोनों भाषाओं पर आपको ऐसा अधिकार होना चाहिए जैसे दोनों मातृभाषाएँ हों।.........मौलिक लेखन की अपेक्षा अनुवाद में अधिक परिश्रम, अधिक बुद्धि और अधिक प्रतिभा की जरूरत होती है।‘‘24 अनुवादकों के महत्व पर प्रकाश डालते हुए और उनकों उत्साहित करने के उद्देश्य से वह आगे कहते हैं, ‘‘अनुवादकों से मैं यह कहूँा कि भाई, पहले तो अपने लिए समझो कि मैं अनुवादक हूँ और साहित्यिक समाज का महत्वपूर्ण अंग हूँ। मैं कोई सामान्य व्यक्ति नहीं हूँ या दूसरे दर्जे का लेखक नहीं हँ। समझो कि मैं वेसा ही लेखक हूँ, जैसाकि कोई दूसरा लेखक होता है। मैं भी उतना ही महत्वपूर्ण हॅँू। यह अस्मिता उसमें पहले आनी चाहिए। मैं अपनी ‘टम्र्स डिक्टेट‘ कर सकता हूँ, यह स्वाभिमान उसमें आना चाहिए।‘‘25 अनुवाद कार्य कम होने का एक अन्य मुख्य कारण अनुवाद की आवश्यकतानुसार शब्दकोशों का न मिलना या अधूरा शब्दकोश मिलना है। कोश हमारी एक मुख्य समस्या है। अभी भी हमारे यहां पारिभाषिक शब्दों भारी कमी है। यह कमी वैज्ञानिक, विधि, प्रौद्योगिकी, कार्यालयी अनुवाद के क्षेत्र में विशेषकर खलती है। वैसे हमारे यहाँ सभी भाषाओं में पारिभाषिक शब्दों का अभाव बड़ी आम बात है। वैसे इस क्षेत्र में कई प्रयास हुए हैं और हो रहे हैं। सरला जगमोहन इस विषय में कहती हैं, ‘‘केन्द्रीय हिन्दी निदेषालय के पारिभाषिक शब्दकोष के दो खण्ड हैं, लेकिन वे भी पर्याप्त नहीं। उनमें जिस तरह के जिस सावधानी और चैकसी से काम होना चाहिए था और जितने उत्साह से काम होना चाहिए था, वह नहीं हो पाया है।‘‘26  परन्तु इसमें एकदम सख्त होना भी लाज़मी नहीं होगा क्योंकि जिस भाषा में अनुवाद होगा, तो उसमें जो प्रचलित शब्द प्रयोग में आते जाएंगें, उनसे अलग या हटकर भी कुछ नये प्रयोग करने को अनुवादक को तैयार रहना चाहिए।
जैसा कि कुछ लोग मानते है कि अनुवाद छल है, कपट है, प्रवन्चना है, पाप है। कुछ लोग यह तक मानते है कि अनुवाद में मौलिकता नहीं होती। अनुवादक का प्रदेय उल्लेखनीय नहीं होता। कोई भी विधा या अनुशासन छोटा या बड़ा नहीं होता। अनुवाद और मौलिक लेखन भिन्न-भिन्न दो प्रक्रियाएं हैं, लेकिन एक-दूसरे से भिन्न होते हुए भी एक का दूसरे से ऊँचा या नीचा मानने की गलती जो आज तक हम करते आ रहे हैं, वह अब बन्द होनी चाहिए। डाॅ. शरद चन्द्रा इस विषय में कहते हैं कि ‘‘अनुवाद कार्य को हीन कार्य शायद वे लोग मानते हैं, जिनको अनुवाद का कोई अनुभव नहीं होता। जो लोग इसे हीन मानते हैं, उन्हें शब्दकोष लेकन बैठा दीजिए, फिर देखिए वे क्या करते हैं। जो लोग स्वयं मौलिक लेखन करते हैं और अनुवाद कार्य भी करते है, वही जानते हैं कि अनुवाद मौलिक लेखन की तुलना में कितना दुष्कर कार्य है।‘‘27
अनुवाद के भविष्य के विषय में हिन्दी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डाॅ. श्यामसिंह ‘शशि‘ का चिंतन कुछ प्रकार है ‘‘आज जब सारा विष्व अन्तर्राष्ट्रीय सद्भाव तथा सह-अस्तित्व की दिषा में आगे बढ़ रहा है, सैकड़ों भाषाओं में विचारों के आदान-प्रदान हो रहे हैं, तो अनुवाद का भविष्य भी उज्ज्वल दिखायी पड़ता है।...... आज आवष्यकता है अनुवाद के नये क्षेत्रों को खोजने तथा अच्छे अनुवादक तैयार करने की ताकि अनुवाद का पथ प्रषस्त हो, भविष्य और अधिक उज्ज्वल हो।‘‘28 अनुवाद आज विश्व की भाषा बन गया है। पूरे विश्व को एक सेतु बनकर जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य कर रहा है। यह सेतु बहु-दिशागामी है और निर्बाध आवागमन के रास्ते खोलता है। अनुवाद रोजगारोन्मुख विद्या तो है ही, सामाजिक तथा सांस्कृतिक स्तर पर प्रतिष्ठित करने का शस्त्र भी है। आत्मविश्वास प्रदान करने का सूत्र भी अनुवाद ही है। आज भूमण्डलीकरण की अवधारणा को साकार करने वाला संकल्प यदि कोई है तो वह है अनुवाद।आज के युग में अनुवाद को जितना महत्व मिल रहा है, वह पहले कभी नहीं मिला, क्योंकि आज अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भाषा का परस्पर सम्पर्क पहले की अपेक्षा में बढ़ गया है। आज विभिन्न देशों की संस्कृतियों की विपुल संपदा हमारे सामने है और हम उनसे सांस्कृतिक आदान-प्रदान करने हेतु उत्सुक है। इसलिए अनुवाद को सेतु बनाना हमारी विवशता भी है और जरूरत दोनों ही है। यदि अनुवाद न किये गये होते तो आज वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, कबीर आदि विदेशों में तो क्या शायद अपने ही देश में भी न जाने जाते। अनुवाद न होता तो अरस्तु, प्लेटों, सुकरात, शैली, शेक्सपियर, मोपांसा, चेखव आदि महान् लेखकों की विचार-सम्पदा से सारा विश्व कैसे लाभान्वित होता। टैगोर, बंकिम और शरतचन्द्र केवल बंगाल तक ही सीमित रह जाते। अर्थात् साहित्य और साहित्यकारों का अस्तित्व का आधार बिन्दु यदि अनुवाद को कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए।
विभिन्न साहित्यिक विमर्शों की आधारशिला भी अनुवाद के माध्यम से ही मजबूत हुई है। दलित, स्त्री, आदिवासी, पसमांदा, अल्पसंख्यक चाहे कोई भी साहित्यिक विमर्श क्यों न हो विभिन्न भाषाओं से हुए परस्पर हुए अनुवाद के कारण ही आज साहित्य जगत में उक्त विमर्शों पर चर्चा करना संभव हो पाया है। अभी हाल ही 30 सितम्बर को अंतरराष्ट्रीय अनुवाद दिवस मनाया गया। दिनांक 30.09.2016 के दैनिक हिन्दुस्तान में संपादकीय पृष्ठ पर वरिष्ठ लेखिका मधु बी जोशी का सारगर्भित लेख ‘कुछ अनुवाद जिन्होंने पूरी दूनिया ही बदल दी‘ में उन्होंने तीन अनूदित धर्मग्रन्थों रामायण, बाइबिल व रामचरितमानस की अनुवाद के सन्दर्भ में संक्षिप्त पर अनोखी चर्चा की। उनके लेख से स्पष्ट होता है कि अनुवाद मात्र एक ऐसा माध्यम है, जो पूरे विश्व को बदलने की क्षमता रखता है।
वर्तमान युग अनुवाद का युग है। सोच व व्यवहार के प्रत्येक स्तर पर हम अनुवाद पर आश्रित हैं, अनुवाद के आग्रही है। जीवन का कोई क्षेत्र शायद ही ऐसा हो, जिसमें अनुवाद की उपादेयता प्रमाणित न की जा सके। अपरिहार्य तौर पर अनुवाद एक व्यापक और प्रासंगिक स्थिति है। इसलिए यह सर्वथा स्वाभाविक ही है कि नये संसाधनों के विकास और व्यापकतर मानवीय सम्पर्कों के संदर्भ में अनुवाद के महत्व, प्रासंगिकता और भविष्य का अनुशीलन किया जाये। विश्व में प्रयुक्त पांच हजार से अधिक भाषाओं और बोलियों के बीच वैचारिक, सर्जनात्मक और कार्यात्मक सामंजस्य स्थापित रखने के लिए अनुवाद ही सर्वाधिक लोकप्रिय एवं उपयोगी माध्यम बन गया है।
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---ःसन्दर्भ सूचीः---
1. भारत की समसांस्कृतिक भाषाएँ और अनुवाद, ले. प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी, अनुवाद त्रैमासिक, जनवरी-मार्च 2016, अंक 166, पृ0 26
2. अनुवाद विज्ञान की भूमिका, कृष्ण कुमार गोस्वामी, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2008, पृ0-473
3. वही, पृ0-434 
4. वही, पृ0-443 
5. वही, पृ0-446
6. प्राक्कथन, अनुवाद अनुभूति एवं अनुभव, प्रधान संपादक डाॅ. सुरेश सिंघल, संजय प्रकाशन, नयी दिल्ली, वर्ष 2006
7. अनुवाद मूल्यांकन, प्रधान संपादक डाॅ. नीता गुप्ता, भारतीय अनुवाद परिषद, वर्ष 2002, पृ0-20
8. अनुवाद के विविध आयाम, डाॅ. पूरनचन्द टण्डन, हरीष कुमार सेठी, तक्षशिला प्रकाशन नयी दिल्ली, वर्ष 2012, भूमिका से
9. अनुवाद अनुभूति एवं अनुभव, प्रधान संपादक डाॅ. सुरेश सिंघल, संजय प्रकाशन, नयी दिल्ली, वर्ष 2006, पृ0 321
10. अनुवाद विज्ञान और संपे्रषण, प्रो. हरिमोहन, तक्षशिला प्रकाशन, वर्ष 2014 से उदृधत, पृ019
11. अनुवादः स्वरूप और समस्याएं, डाॅ. गिरीश सोलंकी, पैराडाईज पब्लिशर्स, जयपुर, वर्ष 2012, पृ0 51
12. राजभाषा के विकास में अनुवाद की भूमिका, मुख्य संपादक डाॅ. गार्गी गुप्ता, भारतीय अनुवाद परिषद, नयी दिल्ली, पृ0163
13. अनुवाद प्रक्रिया एवं परिदृश्य, रीतारानी पालीपाल, वाणी प्रकाशन नयी दिल्ली, वर्ष 2010, पृ0 105
14. पश्चिम में अनुवाद कला के मूल स्त्रोत, पृ0 107
15. अनुवाद कला, डाॅ. रामचन्द्र वर्मा शास्त्री, अशोक प्रकाशन, दिल्ली, वर्ष 2012, पृ0 10
16. राजभाषा के विकास में अनुवाद की भूमिका, मुख्य संपादक डाॅ. गार्गी गुप्ता, भारतीय अनुवाद परिषद, नयी दिल्ली, पृ0168-169
17. अनुवाद का व्याकरण, मुख्य संपादक डाॅ. गार्गी गुप्ता व भोलानाथ तिवारी, भारतीय अनुवाद परिषद, नयी दिल्ली, पृ023
18. वही, पृ0134
19. अनुवाद अनुभूति एवं अनुभव, प्रधान संपादक डाॅ. सुरेश सिंघल, संजय प्रकाशन, नयी दिल्ली, वर्ष 2006, पृ0 6
20. वही, पृ0 6-7
21. वही, पृ0 59
22. अनुवाद अनुभूति एवं अनुभव, प्रधान संपादक डाॅ. सुरेश सिंघल, संजय प्रकाशन, नयी दिल्ली, वर्ष 2006, पृ0 69
23. इ.ग.रा.मु.विवि के पाठ्यक्रम पी.जी.डी.टी.-01 से साभार
24. अनुवाद अनुभूति एवं अनुभव, प्रधान संपादक डाॅ. सुरेश सिंघल, संजय प्रकाशन, नयी दिल्ली, वर्ष 2006, पृ0 78
25. वही, पृ0 81)
26. वही, पृ0 61)
27. वही, पृ0 210)
28. (अनुवाद का भविष्य, डाॅ. श्यामसिंह ‘शशि‘, अनुवाद बोध, संपादक-डाॅ. गार्गी गुप्ता व डाॅ. पूरन चंद टंडन, भारतीय अनुवाद परिषद, नयी दिल्ली, वर्ष 2001, पृ0 147)

हिन्दी पत्रकारिता का प्रारम्भिक युगः एक अध्ययन




पत्रकारिता का इतिहास लगभग 1000 वर्ष पुराना है। भारत पत्रकारिता का शुभारंभ करने का श्रेय पुतगालियों को है। अपने देष का पहला मुद्रणालय सन् 1550 में पुर्तगालियों ने स्थापित किया। इसके लगभग 100 वर्षों बाद ब्रिटिषो ने सन् 1684 में दूसरा मुद्रणादय स्थापित किया। समाचार-पत्र के प्रकाषन की दिषा में प्रथम प्रयास ‘जेम्स आॅगस्टस हिकी‘ द्वारा किया गया। हिकी ने अपना प्रथम समाचार-पत्र ‘बंगाल गजट‘ नाम से प्रकाषित किया, जिसमें ब्रिटिष शासन व्यवस्था की आलोचना की गयी, जिसके फलस्वरूप ब्रिटिष सरकार ने उनका मुद्रणालय जब्त कर लिया। इसी प्रकार एक अन्य समाचार पत्र सन् 1780 में ‘इण्डिया गजट‘ प्रकाषित हुआ और इस प्रकार 18वीं सदी के अन्त तक कई पत्र प्रकाषित होते रहे, परन्तु भारतीय भाषा का प्रथम समाचार पत्र बांग्ला में सन् 1818 में ‘समाचार दपर्ण‘ नाम से प्रकाषित हुआ। समय के साथ-साथ पत्रकारिता के स्वरूप में कई परिवर्तन हुए और आज भी पत्रकारिता मंे होते निरन्तर परिवर्तन देखे जा सकते हैं। जहाँ एक ओर पत्रकारिता सूचनाओं और समाचारों का संकलन, सम्पादन, प्रकाषन तथा प्रेषण है,ं वहीं दूसरी और आज पत्रकारिता धड़कनों को महसूस और समझने का माध्यम भी बन चुकी है। इसी सन्दर्भ में हिन्दी भाषा के विकास में पत्रकारिता की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका रही, जिसकी चर्चा आगे की जाएगी। पत्रकारिता समाज की सेवा करती है, अन्याय तथा दमन का प्रतिरोध के साथ ही रचनात्मक प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन भी देती है। अगर विस्तृत अर्थो में देखें तो आज पत्रकारिता समाज में उच्च मूल्यों और आदर्षो की प्रतिष्ठा में सहयोग दे रही है। डाॅ. मीरारानी बल पत्रकारिता के महत्व को इस प्रकार बताती हंै- ‘‘वर्तमान काल में पत्रकारिता आधुनिक युगबोध, राष्ट्रीय चेतना, बौद्धिक जागरूकता एवं व्यापक जन-संवेदना को संप्रेषित करने का सर्वसुलभ उन्नत जन-माध्यम है। यह लोग-मानस की सामुदायिक सहभागिता की वह जीवंत-विधा है, जिसमें जनता की आत्मा के स्वर, उसके दुख-सुख, जय-पराजय, आषा-आकांक्षा तथा सामयिक एवं सनातन सत्य मुखर हो उठते हैं।‘‘1
 हिन्दी पत्रकारिता का इतिहास राष्ट्र प्रेम के साथ जुड़ा है। हिन्दी पत्रकारिता के उद्भव एवं विकास की एक लम्बी और संघर्षपूर्ण यात्रा है। हिन्दी पत्रकारिता को शुभारंभ 20.05.1826 से हिन्दी के प्रथम साप्ताहिक पत्र ‘उदंत मार्तण्ड‘ द्वारा हुआ। जिसका प्रकाषन युगल किषोर शुक्ल द्वारा कलकत्ता के कोलूटोला के 37 नं0 अमरतल्ला से किया गया। इसका मुख्य उद्देष्य हिन्दी और हिन्दीवासियों का हित साधना था, परन्तु आर्थिक अभाव के चलते 19 महीने पश्चात् यह पत्र बन्द कर दिया गया और इसका अन्तिम प्रकाषन 04 दिसम्बर, 1827 को हुआ, जिसकी पीड़ा स्वयं इस पत्र के संपादक ने कुछ इन शब्दों में व्यक्त कि ‘‘आज दिवस लौं उग चुक्यों मार्तण्ड उदन्त, अस्ताचल को जात है दिनकर-दिन, अब अन्त।‘‘ डाॅ0 कृष्ण बिहारी मिश्र ने संपादक की व्यथा को कुछ इस प्रकार लिखते हैं- ‘‘कहना न होगा कि पं. युगलकिषोर शुक्ल ने ये पंक्तियां बड़ी व्यथा के साथ लिखी होंगी। यह भी कुछ विचित्र संयोग है कि हिन्दी पत्रकारिता के उदय के साथ ही आर्थिक संकट का अषुभ ग्रहण उसके साथ लग गया जिसकी कुदृष्टि हिन्दी पत्रकारिता पर सदैव लगी रही।‘‘2  इसमें कोई दो राय नहीं है कि ‘उदन्त मार्तण्ड‘ के माध्यम से हिन्दी पत्रकारिता का एक मार्ग प्रषस्त हुआ। प्रारम्भिक पत्रकारिता का स्वरूप आज की वर्तमान पत्रकारिता के बिल्कुल भिन्न था। उदन्त मार्तण्ड के पष्चात् पं. युगलकिषोर जी ने पुनः दूसरे पत्र के प्रकाषन का प्रयास किया और ‘सामदन्त मार्तण्ड‘ नामक पत्र का प्रकाषन किया परन्तु इसका कोई अंक उपलब्ध नहीं हो सका। प्रारम्भ में जो पत्र-पत्रिकाएं प्रकाषित होते थे, उनमें मात्र घटनाओं का विवरण होता था। उस समय पत्रकारिता का उद्देष्य लोगों तक केवल सूचनाएँ पहुँचाना था। समाचार-पत्रों में किसी भी साहित्य का प्रकाषन ना के बराबर था, परन्तु उक्त समाचार पत्रोें में राजनीतिक एवं विचारात्मक लेखों का प्रकाषन अवष्य होता था। विषेषकर हिन्दी पत्रकारिता की बात करें, तो हिन्दी प्रथम दैनिक समाचार-पत्र का जिक्र जरूरी है। हिन्दी का प्रथम दैनिक समाचार-पत्र ‘समाचार सुधावर्षण‘ का प्रकाषन कलकत्ता के बड़ाबाजार नामक मुहल्ले से सन् 1854 में श्री श्यामसुन्दर सेन द्वारा किया गया। यह बांग्ला एवं हिन्दी, दोनों भारतीय भाषा में प्रकाषित किया जाता था। इस समाचार का समयकाल भी अल्प ही था। हिन्दी का दूसरा दैनिक पत्र ‘भारतोदय‘ सन् 1885 में श्री सीताराम ने कानपुर से प्रकाषित किया।
15 अगस्त, 1867 को श्री हरिष्चन्द्र ने वाराणसी से ‘कविवचन सुधा‘ नामक मासिक पत्र निकालना प्रारम्भ किया, जिसकी विषेषता थी कि इसमें सामाजिक एवं राजनीतिक लेखों के अलावा कविता, प्रहसन एवं व्यंग्यात्मक रचनां भी सम्मिलित थी। यह सत्य भी स्वीकार्य है कि इसी पत्र से हिन्दी साहित्यक पत्रकारिता का श्रीगणेष हुआ और साथ ही हिन्दी पत्रकारिता की विकास यात्रा को गति मिली। सन् 1872 में श्री कार्तिक प्रसाद खत्री ने कलकत्ता से मासिक पत्र ‘दीप्ति प्रकाष‘ का प्रकाषन किया। इस समय देष के अलग-अलग स्थानों पर अन्य अनेक पत्रों का प्रकाषन हो रहा था। कलकत्ता काफी लम्बे समय तक हिन्दी पत्रकारिता का प्रमुख केन्द्र बना रहा। कलकत्ता में सिर्फ प्रथम हिन्दी पत्र का जन्म हुआ अपितु हिन्दी की प्रथम गद्य-पुस्तक (पं. लल्लूलाल की ‘प्रेमसागर‘) को भी प्रकाषित करने का श्रेय प्राप्त है। इसके बाद बनारस ने हिन्दी पत्रकारिता को नये आयामों तक पहुंचाया। सन् 1845 में राजा षिवप्रसाद सितारे हिन्द ने काषी से प्रथम साप्तहिक पत्र ‘बनारस अखबार‘ का प्रकाषन किया। इसके संपादक मराठी भाषी श्री गोविन्द थत्ते थे। इसका प्रकाषन लिथो प्रेस के माध्यम से किया जाता था। सन् 1850 में ‘सुधारक‘ पत्र का प्रकाषन बनारस से ही तारामोहन मैत्रेय ने किया। यह पत्र दो भाषाओं हिन्दी और बांगला में प्रकाषित होता था। सन् 1852 आगरा से ‘बुद्धि प्रकाष‘ (सं.-मुंषी सदासुखलाल, यह पत्र उर्दू अखबार ‘नुरुलबसर‘ का हिन्दी संस्करण था) नामक पत्र प्रकाषन हुआ, जो अपने विषुद्ध हिन्दी के लिए प्रख्यात था। इसके साथ ही ‘मालवा‘ (सन् 1848), ‘प्रजा हितैषी‘ (सन् 1855, राजा लक्ष्मण सिंह), ‘सूरज प्रकाष‘ (सन् 1861, आगरा), ‘लोकहित‘ (सन् 1863, आगरा), ‘तत्वबोधिनी‘ (सन् 1865, बरेली), ‘सत्यप्रकाष‘ (सन् 1882, सं.- राय बंषीलाल, बरेली) ज्ञानदायिनी‘ (सन् 1866, लाहौर) आदि पत्र प्रकाषित हुए, जिनके माध्यम से हिन्दी पत्रकारिता धीरे-धीरे सूर्योदय हुआ। 
‘‘डाॅ. रामचन्द्र तिवारी ने ‘पत्रकारिता के विविध रूप‘ नामक अपनी पुस्तक में इस तरह काल विभाजन किया है-
1. उदय काल (1826-1867)
2. भारतेन्दु काल (1867-1900)
3. तिलक अथवा द्विवेदी युग (1900-1920)
4. स्वातन्त्र्योत्तर युग (1947 से आज तक)‘‘3
डाॅ. कृष्ण बिहारी मिश्र ने अपनी प् ाुस्तक ‘हिन्दी पत्रकारिता‘ में काल विभाजन इस प्रकार किया है-
1. भारतीय नवजागरण और हिन्दी पत्रकारिता का उदय (1826-1867)
2. राष्ट्रीय आन्दोलन की प्रगति (1867-1900)
3. बीसवीं शताब्दी का आरम्भ और हिन्दी पत्रकारिता का तीसरा दौर (1900 से स्वतंत्रता तक)। इस   कालखण्ड को मिश्र जी ने ‘तिलक युग‘ तथा ‘गांधी युग‘ के अन्तर्गत रखा है।
वस्तुतः हिन्दी पत्रकारिता के काल विभाजन पर सभी विद्वानों का मत भिन्न-भिन्न है। हमनें सुविधानुसार हिन्दी पत्रकारिता के समयकाल को इस प्रकार रखा हैः-
(अ) हिन्दी पत्रकारिता का नवजागरण काल (1826-1900)
(ब) 20वीं शताब्दी और हिन्दी पत्रकारिता (1900-1947)
(स) आजाद भारत में हिन्दी पत्रकारिता
(द) सूचना क्रांन्ति युग में हिन्दी पत्रकारिता का विकास

सन् 1826 से 1900 तक का समय हिन्दी पत्रकारिता में भारतेन्दु युग कहा जाता है। कवि और लेखक श्री हरिष्चन्द्र ने सन् 1867 में ‘कवि वचन सुधा‘ नामक पत्रिका का प्रकाषन किया। इस पत्रिका ने हिन्दी क्षेत्र में अपना विषेष स्थान बनाया और हिन्दी पत्रकारिता के लिए यह एक मील का पत्थर साबित हुई। हरिष्चन्द्र हिन्दी से बेहद प्यार करते थे। वह एक पत्रकार भी थे, इसलिए इन्होंने पत्रकार लेखकों का विषेष मण्डल बनाया जिसका कार्य था- हिन्दी प्रदेषों में हिन्दी के विकास हेतु पत्र-पत्रिकाएं निकालना। पत्रिका ‘कवि वचन सुधा‘ की खास बात यह थी कि इसमें पद्य व गद्य दोनों ही विधाओं में समान रूप से लिखा जा रहा था, जिसके फलस्वरूप इस पत्रिका ने सभी हिन्दी चाहने वालों के हृदय में विषेष स्थाना बना लिया। इसकी भाषा  साधारण बोलचाल की थी। इसकी प्रसिद्धि को देखते हुए इन्होंने एक अन्य पत्रिका सन् 1873 में ‘हरिष्चन्द्र चन्द्रिका‘ का प्रकाषन किया, जिसने हिन्दी के विकास में अपना योगदान दिया। पहले इस पत्रिका का नाम हरिष्चन्द्र मैंगजीन था, परन्तु फिर इसका नाम बदलकर ‘हरिष्चन्द्र चन्द्रिका‘ रखा गया। इसमें हिन्दी की सभी विधाओं का समावेष तथा भाषा व्यवहृत थी।
हिन्दी पत्रकारिता के सन्दर्भ में एन.सी. पन्त अपनी पुस्तक में लिखते हैं- ‘‘सन् 1881-82 का समय हिन्दी पत्रकारिता के विकास में विषेष महत्वपूर्ण है। उत्तर प्रदेष में उसे समय लगभग 55 पत्र-पत्रिकाएं थीं। 1881 में ‘आनन्द कादम्बिनी‘ मिर्जापुर से पं0 बदरीनाराण उपाध्याय के संपादकत्व तथा प्रकाषन में प्रकाषित हुइ। सन् 1882 में अनेक साप्ताहिक तथा मासिक पत्र प्रकाष में आये। ‘प्रचार समाचार‘ का स्थान इसमें मुख्य था। इसके जन्मदाता पं0 देवकीनन्दन तिवारी थे, परन्तु निर्धनता उनके पत्र के लिए कारण बन गयी। वे अपना पत्र छाप कर कंधे पर लादकर स्वयं बेचा करते थे। वे स्वतन्त्र चिन्तन के व्यक्ति थे, जो भी उनके मन में आता था उसे लिखते थे।‘‘4  पं0 प्रताप नारायण मिश्र ने कानपुर से सन् 1883 में सबसे तेजस्वी मासिक पत्रिका ‘ब्राह्मण‘ का प्रकाषन किया। सन् 1887 तक इस पत्रिका का प्रकाषन कानपुर से होने के पष्चात् इसके प्रकाषन की जिम्मेदारी खग विलास प्रेस, बांकीपुर के बाबू रामदीन सिंह ने ले ली। इस प्रकार कालांतर में उत्तर प्रदेष की पत्रकारिता प्रतिवर्ष उन्नति कर रही थी। सन् 1883-84 में पत्रों की कुल संख्या 68 हो चुकी थी।
बालकृष्ण भट्ट द्वारा प्रकाषित पत्रिका ‘हिन्दी प्रदीप‘ (1877-1910) ने हिन्दी की महान् सेवा में अविस्मरणीय योगदान दिया। इसका मुख्य उद्देष्य हिन्दी भाषा का प्रचार-प्रसार, उसकी समृद्धि, देष एवं समाज का सुधार था। सन् 1885 में राजा रामपाल सिंह ने पं. मदनमोहन मालवीय के संपादकत्व में ‘हिन्दोस्तान‘ नामक पत्र निकाला। यह पत्र हिन्दी व अंगे्रजी दोनों भाषाओं में दैनिक रूप से निकलता था। इसके कुछ समय पूर्व 17 मई,् 1878 में दुर्गादयाल मिश्र नें ‘भारत मित्र‘ प्रसिद्ध पाक्षिक पत्रिका का प्रकाषन किया। इस पाक्षिक पत्र ने हिन्दी पत्रकारिता को एक नयी दिषा प्रदान की। हिन्दी पत्रकारिता के विकास के लिए सन् 1889 का अपना विषेष महत्व है। इस वर्ष अनेक पत्रों का अभ्युदय हुआ कायस्थ, कायस्थ उपदेष..............वृज विनोद, अद्भुत शतक, विचार मित्र, भारत वर्ष, धर्म सुधावर्षण, आर्य जीवन, आरोग्य जीवन, विद्या धर्म दीपिका, सृगृहिणी, बुद्धि प्रकाष, मिश्र आदि पत्रों ने इसी वर्ष जन्म लिया। सन् 1890 से 1900 के मध्य कई पत्र-पत्रिकाएं प्रकाषित हुई। जिनका हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास में विषेष योगदान रहा है। इनमें प्रमुख - ‘खिचड़ी समाचार‘ (1891), ‘व्यापार हितैषी‘ (1892), सन् 1893 में ‘भारत प्रताप‘, ‘सुधा सागर‘, सन् 1894 में ‘सनाढ्यापकार‘, ‘नीति प्रकाषन‘, ‘विष्वकर्मा‘, सन् 1895 में ‘जैन गजट‘, ‘दीनबन्धु‘, ‘संसार दर्पण‘, ‘स्वतंत्र‘, ‘सुधा निधि‘, सन् 1896 में ‘आर्य भास्कर‘, ‘काषी वैभव‘, सन् 1897 में ‘रसिक मित्र‘, ‘रसिक बाटिका‘, सन् 1898 में ‘उपन्यास लहरी‘, ‘पंडित पत्रिका‘, ‘सनातन धर्म‘, ‘भारत मार्तण्ड‘, सन् 1899 में ‘देषहितकारी‘, ‘राजपूत‘, ‘भूमिहर ब्राह्मण‘ तथा ‘‘1900 का वर्ष हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास में महत्वपूर्ण है। इस वर्ष ‘सर्वाे हितकारी‘ अल्मोड़ा से देवीप्रसाद के सम्पादकत्व में प्रकाषित हुआ।‘‘5 इस वर्ष कुछ अन्य मुख्य पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाषन हुआ। जिनमें प्रमुख ‘सुदर्षन‘, ‘सनातन धर्म पताका‘, ‘जैसस गोमर‘, प्रेम पत्रिका‘, ‘भारतोद्धार‘, ‘सरस्वती‘ इत्यादि। अतः हमने देखा कि 19वीं शताब्दी में हिन्दी पत्रकारिता का उद्भव एवं विकास कैसें हुआ, समय-समय पर पत्र-पत्रिकाएं अपने उद्भव के साथ विषम परिस्थिति समाप्त होती रही। हिन्दी पत्रकारिता के विकास में उर्दू व अंगेजी भाषा तथा सरकारी मषीनरी मुख्यता रुकावटें उत्पन्न कर रही थी, परन्तु इसके बावजूद भी हिन्दी प्रेमी, देष प्रेमी, साहित्यकार एवं संस्थाओं के माध्यम से समय-समय पर हिन्दी पत्रकारिता को प्रगति करने का अवसर मिल रहा था।

20वीं शताब्दी के पहले दषक को हिन्दी पत्रकारिता का नवोदय काल कह सकते हैं। सन् 1901 में कुल 12 पत्रों का प्रकाषन हुआ, जिनमें 02 साप्ताहिक, 01 पाक्षिक और 9 मासिक थे। जिनमें प्रमुख   पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी के सम्पादन में संपादित मासिक पत्र ‘समालोचक‘ था, जो जयपुर से प्रकाषित हुआ था। सन् 1902 में कुल 08 ही पत्रों का प्रकाषन सम्भव हो सका तथा सन् 1903 में यह बढ़कर 14 हो गया, जिनमें 06 साप्ताहिक, 07 मासिक, 01 द्विमासिक पत्र था। 1903 में ही महावीर प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी की सेवा को केन्द्र में रखकर ‘सरस्वती‘ का संपादन स्वयं करना शुरू किया। उन्होनें 17 वर्ष तक इस पत्रिका का सम्पादन में अपना असाधारण योगदान दिया और हिन्दी को नये आयामों तक पहुंचाया। हिन्दी की प्रथम दलित रचना के प्रकाषन का श्रेय भी ‘सरस्वती‘ को ही है। तरूण तेजपाल इस बात को पुष्ट करते हुए लिखते हैं-‘‘हिन्दी की प्रथम दलित रचना एक कविता थी, जो इंडियन प्रेस, इलाहाबाद से आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपादन में प्रकाषित होने वाली पत्रिका ‘सरस्वती‘ के सितंबर 1914 के अंक में प्रकाषित हुई थी। शीर्षक ‘अछूत की षिकायत‘ से प्रकाषित इस कविता के रचयिता पटना के हीरा डोम माने जाते हैं। पत्रिका ‘सरस्वती‘ में प्रकाषित हिन्दी की यह प्रथम रचना संभवतः भोजपुरी की प्रथम रचना भी है।‘‘6
 द्विवेदी जी ने हिन्दी लेखन की वर्तनी को शुद्ध किया तथा भाषा के व्याकरण की दृष्टि से पुष्ट एवं शास्त्रसम्मत बनाया। प्रत्येक वर्ष हिन्दी पत्रकारिता में पत्रांे की संख्या में वृद्धि होती गयी। सन् 1907 में महत्वपूर्ण पत्रिकाओं का प्रकाषन हुआ, जिनमें 16 मासिक, 01 पाक्षिक और 04 साप्ताहिक थे। साप्ताहिक पत्रों में ‘अभ्युदय‘ एवं ‘हिन्दी केसरी‘ का नाम विषेष उल्लेखनीय है। समाचार-पत्र ‘अभ्युदय‘ के जन्मदाता पं. मदन मोहन मालवीय तथा ‘हिन्दी केसरी‘ डाॅ. बालकृष्ण षिवराम के नेतृत्व में नागपुर से प्रकाषित हुआ। सन् 1908 में कलकत्ता से ‘भारती‘, ‘कमला‘, ‘प्रभाकर‘, और ‘ज्ञानोदय‘ का प्रकाषन हुआ। आगे चलकर 1913 में भी कई महत्वपूर्ण पत्रों का प्रकाषन हुआ, जिनमें जातीय, स्त्रिोपयोगी, चिकित्सोपयोगी तथा साहित्यिक पत्र शामिल थे। कानपुर से पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्पादकत्व में निकली ‘स्त्री षिक्षा‘ नाम प्रमुख पत्रिका थी जो स्त्री षिक्षा पर विषेष थी, । इसी वर्ष एक अति महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिका ‘सम्मेलन पत्रिका‘ जो कि हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग से पं. रामनरेष त्रिपाठी के सम्पादन में प्रकाषित हुई। यह पत्रिका वर्तमान में भी प्रकाषन में है और हिन्दी के प्रचार-प्रसार तथा विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रही है। महात्मा गांधी को हिन्दी से विषेष लगाव था और स्वतंत्रता आन्दोलन की सफलता हिन्दी पर भी निर्भर करती है, ऐसा उनका मानना था। सन् 1919 में बम्बई (वर्तमान मुम्बई) से ‘सत्याग्रही‘ नामक पत्र का सम्पादन किया।
सन् 1920 में ‘चाँद‘ नामक साप्ताहिक पत्र को प्रकाषन हुआ जो नवम्बर 1922 से मासिक रूप से प्रकाषित होने लगा। इसको रामरख सहगल ने ज्ञानानंद ब्रह्मचारी के सम्पादकत्व में प्रकाषित किया। सन् 1935 में ‘चांद‘ का सम्पादन महादेवी वर्मा ने किया और अंतिम अंक तक इसकी सम्पादिका बनी रही। पत्रिका ‘‘चाँद ने समाज, साहित्य आदि विषयों पर इतने अधिक विषेषांक को प्रकाषित किया, जिससे पत्रकारिता साहित्य में तहलका मच गया।................................ इसके 16 विषेषांक निकलें, जिनमें गल्पांक, महिला अंक, षिषु अंक, संरक्षण गृह सम्बन्धी अंक, विधवांक, प्रवासी अंक प्रवेषांक, अछूतांक (1927), सती अंक पत्रांक, फाँसी अंक, कनौजिया अंक, मारवाड़ी विषेषांक, नवर्षांक, विदुषी अंक और भारतवर्ष अंक मुख्य है।‘‘7   साथ ही सन् 1920 से हिन्दी पत्रकारिता क्षेत्र में दैनिक पत्रों का नवीन युग प्रारम्भ हुआ। इस वर्ष में 08 दैनिक पत्रों को प्रकाषन हुआ, जिनमें प्रमुख ‘आज‘ (05-09-1920) दैनिक पत्र था जिसका प्रकाषन काषी से होता था। इस पत्र ने राष्ट्रीय आन्दोलन में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इसी वर्ष राजेन्द्र प्रसाद ने ‘देष‘ तथा माखनलाल चतुर्वेदी ने साप्ताहिक पत्र ‘कर्मवीर‘ नामक पत्रों का संपादन किया। सन् 1921 में पत्रों की संख्या 34 (23 मासिक, 11 साप्ताहिक) हो गयी। साहित्यिक उत्थान हेतु उल्लेखनीय मासिक पत्रिका ‘माधुरी‘ (30-07-1922) का प्रकाषन लखनऊ से विष्णु नारायण भार्गव ने किया। इस पत्रिका की विषेषता थी कि इसमें विषिष्ट साहित्यकारों की कृतियों का प्रकाषन होता था, जिससे हिन्दी भाषा और साहित्य बहुत समृद्ध हुआ। इस पत्रिका का कलेवर ‘सरस्वती‘ के मेल खाता था, परन्तु भाषा शुद्धता की दृष्टि से ‘सरस्वती‘ ‘माधुरी‘ से कहीं आगे थी।,फिर भी ‘माधुरी‘ ने हिन्दी पत्रकारिता जगत् को एक नयी दिषा और नया आलोक प्रदान करने में विषेष योगदान है। इसके साथ ही ‘‘रामकृष्ण मिषन के तत्वावधान मेें स्वामी माधवानन्द जी के सम्पादकत्व में कलकत्ते से 1922 में ‘समन्वय‘ का प्रकाषन हुआ था। यह मासिक पत्र था, इस पत्र के सम्पादन-विभाग में एक लग्बे अरसे तक ‘निराला‘ जी रहे।‘‘8 23 अगस्त, 1923 को मुंषी नवजादिक लाल श्रीवास्तव, षिवपूजन सहाय और सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला‘ के सम्पादकत्व में ‘मतवाला‘ नामक साप्ताहिक पत्र का प्रकाषन हुआ। इस पत्रिका का नामकरण ‘मतवाला‘ ‘निराला‘ जी द्वारा ही किया गया। इसके मुख्य पृष्ठ पर ‘निराला‘ जी की कविता छपती थी। इस पत्रिका के प्रकाषन के पष्चात् एक बड़े अभाव की पूर्ति हुई और एक और साहित्यिक पत्र का आविर्भाव हुआ।
सन् 1925-1930 का समय हिन्दी पत्रकारिता की दृष्टि से विषेष स्थान रखता है। सन् 1925 में द्वारिका प्रसाद मिश्र के सम्पादकत्व में जबलपुर (म0प्र0) से ‘षारदा‘ नाम की त्रैमासिक पत्र का प्रकाषन हुआ। सन् 1926 में ‘महारथी‘ मासिक पत्र का संपादन रामचन्द्र वर्मा द्वारा दिल्ली से किया गया। सन् 1927 में बरेली से ‘आषा‘ (सं0 सुधाकर शर्मा) तथा लखनऊ से ‘सुधा‘ (सं0 दुलारेलाल भार्गव) सन् 1928 में किसान (सं0 सुखसंपत्ति भण्डारी, इन्दौर), ‘नवयुग‘ (सं0 सत्यदेव विद्यालंकार, कलकत्ता), ‘विषाल भारत‘ (सं0 बनारसी दास चतुर्वेदी, कलकत्ता), ‘सुकवि‘ मासिक (सं0 सनेही जी, कानपुर) आदि। 20 मई, 1928 को पत्र ‘बंगदूत‘ कलकत्ता से प्रकाषित हुआ, जिसके संस्थापक प्रसिद्ध समाज सेवी राजा राम मोहन राय तथा संपादक श्री नीलरत्न हलदार थे। यह पत्र विषुद्ध हिन्दी त्रैमासिक समाचार पत्र था। इस पत्र का प्रकाषन हिन्दी, बांग्ला व फारसी में होता था। सन् 1929 में रामजीवन शर्मा के सम्पादकत्व में ‘सन्देष‘ नामक त्रैमासिक पत्रिका का प्रकाषन हुआ। सन् 1930 का वर्ष हिन्दी पत्रकारिता जगत् में अपना विषेष स्थान रखता है, क्योंकि इसी वर्ष ‘हंस‘ नामक मुख्य मासिक पत्रिका का सम्पादन बनारस से प्रेमचन्द के सम्पादकत्व में हुआ। जो आज भी अपना अस्तित्व बनाये हुए है और हिन्दी साहित्य जगत् में अपना विषेष स्थान रखती है। जयषंकर प्रसाद ने इस पत्रिका को ‘हंस‘ नाम दिया था। सन् 1925 से 1930 के मध्य ही ‘आर्य जगत‘, ‘आलोग‘, ‘कल्याण‘, ‘कादम्बरी‘, ‘देवनागर‘, ‘नारायण‘, ‘पूर्णेन्दु‘, ‘वीणा‘, ‘सरोज‘, ‘अभय‘, ‘कल्पवृक्ष‘, ‘युवक‘ आदि पत्रिकाएं प्रकाषन में आयीं। सन् 1932 में षिवपूजन सहाय और प्रेमचन्द के सम्पादकत्व में ‘जागरण‘ पाक्षिक पत्र प्रकाषित हुआ। इसी वर्ष ‘निराला‘ के सम्पादन में ‘रंगीला‘ नाम से एक साप्ताहिक पत्रिका का उदय हुआ। सन् 1936 में शांतिनिकेतन में ‘विष्वभारती‘ नामक पत्रिका प्रकाष में आयी। यह पत्रिका शोधपरक साहित्य से ओतप्रोत थी। ‘रूपाभ‘ नामक पत्रिका का प्रकाषन सन् 1938 में हुआ, इसके सम्पादक कुमाऊं क्षेत्र में कौसानी कस्बे के निवासी सुमित्रानन्दन पंत थ। यह एक मासिक पत्रिका थी। अज्ञेय द्वारा सम्पादित पत्रिका ‘प्रतीक‘ को काफी सम्मान मिला जिसका प्रकाषन चालीस के दषक में हुआ।
स्वतंत्र भारत में हिन्दी पत्रकारिता का जो समय प्रारंभ हुआ है उसमें साहित्य की विभिन्न विधाओं का पर्याप्त स्थान है। साहित्य के विकास में दैनिक-पत्रों से लेकर आवधिक पत्रिकाओं की वर्तमान स्थिति से यही अर्थ निकाला जा सकता है कि वर्तमान पत्रकारिता भी साहित्य में विषेष स्थान रखती है। स्वतंत्रता पष्चात् कुछ पत्र-पत्रिकाएं पूर्ण रूप से साहित्यिक है और कुछ सामान्य, परन्तु जो साहित्यिक नहीं हैं वह भी साहित्य के विकास मार्ग अपने-अपने तरीके से प्रषस्त कर रही हैं।
सन् 1947 के पष्चात् पत्र-पत्रिकाओं के क्षेत्र में अद्भुत विकास हुआ। आज अनेक पत्रिकाएं बहुचर्चित हैं जिनमें हिन्दुस्थान, कादम्बिनी, आजकल, आलोचना, नवनीत, नयी कविता, नयी धारा, ज्ञानोदय, वागर्थ, दस्तावेज, लहर, पूर्वग्रह, नन्दन, चम्पक, सरिता, गृहषोभा, रविवार, इतवारी पत्रिका, कुरूक्षेत्र, योजना, सुषमा, पराग, चन्दा मामा, बाल भारती, चुन्नू-मुन्नू, नन्ही दुनिया, बाल लीला, प्रतियोगिता दर्पण, किरण, इण्डिया टुडे आदि सम्मिलित है। ये विविध पत्र-पत्रिकाएं विभिन्न पाठकों के लिए सामग्री प्रस्तुत करने में अति सक्षम है।
साधारणतः दैनिक पत्रों की अपेक्षा साप्ताहिक पत्रों में साहित्यिक परिषिष्टियां का समावेष अधिक रहता है क्योंकि उनमें पृष्ठों की संख्या अधिक होती है और वह चिन्तन प्रधान होते है। यही स्थिति पाक्षिक और मासिक पत्रों के मध्य देखी जाती है। जो पत्र जितनी अधिक अन्तराल में प्रकाषित होता है उसमें उतनी ही अधिक विविधता पायी जाती है। स्थिति, महत्ता, प्रसार संख्या, उपयोगिता एवं सामग्री के विस्तृत अध्ययन से हिन्दी पत्रकारिता के विकास में सभी पत्र-पत्रिकाओं का योगदान प्रमुख है। अभिव्यक्ति की निर्भीकता प्रेरक स्वाधीनता के माध्यम से अनेक दैनिक, साप्ताहिक, मासिक, त्रैमासिक पत्र-पत्रिकाओं का जन्म हुआ। दैनिक पत्रों में मुख्य रूप से राजनैतिक गतिविधियों, सामाजिक घटनाक्रम, दैनिक जीवन के क्रियाकलापों को प्रस्तुत किया जाता है। जिसके कारण साहित्य का स्थान अपेक्षाकृत कम होता है। अनेक बार दैनिक पत्रों में विषेष प्रकार की परिषिष्टियों का समावेष किया जता है। ‘‘ये परिषिष्टियां हमारी सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, व्यापारिक, वैज्ञानिक, महिला एवं खेलकूल, पर्यटन, साहित्यिक, स्वास्थ्य, ऐतिहाहिक आदि क्षेत्रों से सम्बन्धित होती हैं।‘‘9
इस प्रकार हिन्दी पत्रकारिता के उद्भव से लेकर आज तक हिन्दी पत्रकारिता का अभूतपूर्व विकास हुआ है। पत्र-पत्रिकाओं का विकास अत्यधिक तीव्रगति से हुआ जिसके फलस्वरूप हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार को भी अधिक बल मिला है। इसके साथ ही हिन्दी पत्रकारिता का आज आधुनिक रूप हमारे समक्ष है। वर्तमान परिपेक्ष्य में हिन्दी पत्रकारिता ने अपना एक अलग स्थान बना लिया है। आज के इस कम्प्यूटर युग में हिन्दी पत्रकारिता का रूप बिल्कुल बदल चुका है। आज कुछ मुख्य पत्रिकाओं (हंस, वागर्थ, कथादेष आदि) को इन्टरनेट के माध्यम से सीधे प्राप्त या डाउनलोड किया जा सकता है। यहाँ तक कि सोषल नेटवर्किंग (फेसबुक और ट्वीटर) और ब्लोग के जरिये भी हिन्दी पत्रकारिता को एक नया रूप मिला है। इन वेबसाइट्स पर दिन-प्रतिदिन सामाजिक, राजनैतिक, साहित्यिक एवं सामाजिक सरोकार आदि विषय सम्बंधी अनेक चर्चाएं होती हंै जिनको डाउनलोड करने के साथ-साथ ही उक्त चर्चाओं में सीधे प्रतिभाग भी कर सकते हैं। जिसके फलस्वरूप हिन्दी और हिन्दी पत्रकारिता अन्र्तराष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी पहचान बना रही है। जो हिन्दी प्रेमियों को उत्साहित करने साथ ही गौरान्वित भी करती है। वर्तमान हिन्दी पत्रकारिता में गुणवत्ता के साथ उसमें विविधताओं का भी समावेष हुआ है। जो हिन्दी पत्रकारिता को एक नये मुकाम तक ले जाने में सफल रहा है। अन्त में यह कहना अनिवार्य होगा कि हमें लगातार प्रयास करते रहना चाहिए कि हम हिन्दी पत्रकारिता को भविष्य में नये-नये सकारात्मक परिवर्तनों के माध्यम से और भी आगे ले जाएं।

धन्यवाद




ः सन्दर्भ सूची:

1. डाॅ. मीरा रानी बल, ‘राष्ट्रीय नवजागरण और हिन्दी पत्रकारिता‘, वाणी प्रकाषन, नयी दिल्ली-1994, पृ0 60।
2. डाॅ. कृष्ण बिहारी मिश्र, ‘हिन्दी पत्रकारिता‘, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली-1985, पृ0 31।
3. रसा मल्होत्रा, ‘हिन्दी पत्रकारिताः कल आज और कल‘, ‘संजय प्रकाषन‘, दिल्ली, पृ0 08।
4. एन. सी. पंत, ‘ हिन्दी पत्रकारिता का उद्भव एवं विकास‘, राधा प्रकाषन, नयी दिल्ली-1994, पृ0 23।
5. वही, पृ0 27।
6. ‘तहलका‘ साहित्य विषेषांक, संपादक तरूण तेजपाल, अंकः 11, 30 जून, 2010।
7. वही, पृ0 127।
8. डाॅ. कृष्ण बिहारी मिश्र, ‘हिन्दी पत्रकारिता‘, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली-1985, पृ0 370।
9. ‘हंस‘, ‘रामकृष्ण यादव‘, ‘हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता‘, अंकः 04, नवंबर, 2011 से उदृधत, पृ0 64। वही, पृ0 245।

Monday, April 6, 2020

रिव्यू : सायकॉलॉजिकल थ्रिलर फ़िल्म 'राक्खोश'



 मशहूर मराठी लेखक नारायण धड़प की कहानी 'पेशेंट नंबर 302' पर बनी सायकॉलॉजिकल थ्रिलर फ़िल्म राक्खोश तुम्बाड़ के बाद एक अच्छी हॉरर-ड्रामा फ़िल्म आई है। जो इस जॉनर की सबसे अच्छी हॉरर फिल्मों में से एक है।  इसे देखने के बाद, मैं भारतीय सिनेमा से और अधिक अंतर्ग्रही हो गया, खासकर अगर हम हॉरर की बात करें।

अभी यह फ़िल्म नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध है। राक्खोश का एक दिलचस्प आधार है पागलों के साथ दुर्व्यवहार। एक मानसिक रूप से बीमार एक कैदी अपने सबसे अच्छे दोस्त और उसकी बेटी से पूछता है कि उसे यह पता लगाने में मदद करें कि मरीज क्यों गायब हो रहे हैं। लंबे समय से चल रहे इस पागलखाने में कई पागल हैं। लेकिन समझदार लोग केवल 4,5 ही।


राक्खोश (बंगाली भाषा में राक्षस) एक प्रयोगात्मक फ़िल्म है, जिसे देश की पहली पीओवी (प्वाइंट ऑफ़ व्यू) फ़िल्म कहा जा रहा है। इस तरह की फ़िल्मों में कहानी कैमरे के ज़रिए ही बयां की जाती है, या कह सकते हैं कि कैमरा ही लीड रोल निभाता है। फ़िल्मों को शूट करने के लिए कैमरे को एक चलती-फिरती सतह पर स्थापित कर दिया जाता है और कैमरा फ्रेम में मौजूद दूसरे किरदारों से मुख़ाबित होता है और सारे किरदार कैमरे की तरफ़ देखकर बात करते हैं।

'राक्खोश' की कहानी बिरसा के इर्द-गिर्द घूमती है, जो मानसिक रोगियों के अस्पताल में भर्ती है। फ़िल्म में बिरसा के किरदार को नमित दास ने आवाज़ दी है। फ़िल्म में संजय मिश्रा, तनिष्ठा चैटर्जी, प्रियंका बोस और बरुण चंद्र ने अहम किरदार निभाये हैं।

 यह एक और हॉरर-मिस्ट्री भरी फ़िल्म है। लेकिन इसमें न तो पूरी तरह हॉरर है औरन ही मिस्ट्री भी। कहानी बेहतर है लेकिन कथ्य उसके मुकाबले कुछ कमजोर। दूसरे शब्दों में, कहानी के मुख्य किरदार में राकेश खुद को दर्शकों के सामने पेश करने का अवसर देता है।

 आलसी सिनेमैटोग्राफी और कैमरे के काम का बहाना होने के बावजूद, निर्देशकद्वय उस विभाग में एक बहुत मजबूत फिल्म बनाने में कामयाब हुए हैं।  फिल्म जटिल शॉट रचनाओं, अप्राकृतिक और लगभग असली कैमरा कोणों के हिसाब से समृद्ध है, यह एक समावेशी फ्रेम के साथ बनाई गई है जिसमें एक ही समय में स्क्रीन पर कई पात्रों को दिखाते हैं, कहानी को पृष्ठभूमि एक्स्ट्रा कलाकार के साथ अधिक यथार्थवादी महसूस करने का अवसर देते हैं जबकि मुख्य पात्र बातचीत कर रहे हैं।


 राक्खोश का एक और दिलचस्प पहलू चरम यथार्थवाद और असली सपने देखने वाले क्षणों का संयोजन है।  चूंकि, फिल्म में, दर्शक बिरसा है और हमें उसके मनोचिकित्सा के बारे में कुछ नेत्रहीन और स्वप्निल दृश्यों के माध्यम से भी पता चलता है जो दोनों भयावह हैं।

 फिर भी, इस भारतीय फिल्म का सबसे महत्वपूर्ण पहलू वास्तविक जीवन में डरावना होना है, जो स्पष्ट रूप से मानसिक अस्थिरता, दुर्व्यवहार, परेशान अतीत के विषयों से संबंधित है। 

 फिल्म के साथ अन्य मुद्दों की बात करें तो साउंड-डिज़ाइन , दृश्य, कैमरा अच्छी तरह से निष्पादित किया गया है। फ़िल्म का साउंड विभाग  स्पष्ट रूप से ऐसा लगता है कि इसे पोस्ट-प्रोडक्शन में जोड़ा गया है, जो आपको लगातार फिल्म से बाहर ले जाता है। शरण और बिरसा की यादों में घटनाओं के बीच लगातार आगे बढ़ते रहने पर, कथा कुछ समय में थोड़ी भ्रामक हो जाती है, कुछ निरंतरता त्रुटियों के साथ देखने को मिलती है। 


कुछ कमियों के अलावा राक्खोश फिल्म निर्माण की मिली-जुली शैली पर एक बहुत ही सुखद और कुछ हद तक ताजा फ़िल्म है।  कहानी खुद को कुछ दिलकश पहलुओं के साथ बहुत भयानक तत्वों को जोड़ती है, लेकिन कुल मिलाकर डरावनी फिल्मों के प्रशंसक शायद इस फिल्म का आनंद लेंगे।


अपनी रेटिंग तीन स्टार
Review By Tejas Poonia

Saturday, April 4, 2020

मर्यादा पुरूषोत्तम राम की विस्मृत बहन


शुक्रिया, 'गृहस्वामिनी', अप्रैल 2020

दुनिया भर में तीन सौ से ज्यादा रामायण प्रचलित हैं।इन सभी रामायणों की कथाओं में लेखकों की व्यक्तिगत आस्थाओं के अनुरूप थोड़ी-बहुत भिन्नताएं हैं। इनके अलावा जाने कितनी लोककथाएं भी हैं राम के बारे में। उत्तर भारत में रामचरित मानस के आधार पर ही हम राम-कथा को जानते-मानते हैं। कुछ लोककथाओं में राम की एक बहन के उल्लेख मिलते हैं। मानस में राम की कोई बहन भी थी, इसका कोई उल्लेख नहीं है। बाल्मीकि रामायण में दशरथ की एक पुत्री शांता का उल्लेख ज़रूर आया है-'अङ्ग राजेन सख्यम् च तस्य राज्ञो भविष्यति। कन्या च अस्य महाभागा शांता नाम भविष्यति।' शांता के जीवन की कुछ घटनाओं की जानकारी दक्षिण भारत की कुछ रामाकथाओं से मिलती है।

दक्षिण और उत्तर भारत की कुछ लोककथाओं के अनुसार दशरथ-पुत्री शांता राम सहित चारों भाइयों से बहुत बड़ी थीं। दशरथ और कौशल्या की यह पुत्री उस युग की रूढ़ियों और अंधविश्वासों का शिकार हो गई। शांता जब पैदा हुई, तब अयोध्या में भीषण अकाल पड़ा। चिंतित दशरथ को पुरोहितों ने कहा कि उनकी अभागी पुत्री ही इस भीषण अकाल का कारण है। उसका त्याग किए बिना प्रजा का कल्याण संभव नहीं। दशरथ ने पुरोहितों की बात मानकर शांता को अपने एक निःसंतान मित्र और अंग के राजा रोमपद को दान कर दिया। रोमपाद की पत्नी वर्षिणी कौशल्या की बहन थी। रोमपाद के आपदाग्रस्त राज्य में एक बार श्रृंगी ऋषि ने एक सफल यज्ञ का आयोजन किया था। यज्ञ के परिणाम से हर्षित रोमपाद ने अपनी पालित पुत्री शांता का ब्याह श्रृंगी ऋषि से कर दिया।

इधर अयोध्या में दशरथ और उनकी तीनों रानियों को अरसे तक कोई अन्य संतान नहीं हुई। उनकी चिंता यह थी कि पुत्र नहीं होने की स्थिति में उनके विशाल साम्राज्य का उत्तराधिकारी कौन होगा। कुलगुरू वशिष्ठ ने उन्हें सलाह दी कि आप अपने दामाद ऋंगी ऋषि की देखरेख में ऋषियों से पुत्रेष्ठि यज्ञ करवाएं। दशरथ ने यज्ञ में देश के कई महान ऋषियों के साथ ऋंगी ऋषि को मुख्य ऋत्विक बनने के लिए आमंत्रित किया। अयोध्या में पुनः अकाल पड़ जाने के भय से उन्होंने बेटी शांता को नहीं बुलाया। पत्नी की उपेक्षा  से व्यथित श्रृंगी ने उनका आमंत्रण अस्वीकार कर दिया। अंततः विवशता में दशरथ को बेटी शांता को भी बुलावा भेजना पड़ा। ऋंगी ऋषि के साथ शांता के अयोध्या पहुंचते ही राज्य में कई सालों बाद भरपूर वर्षा हुई। 

यज्ञ की सफल समाप्ति के बादभावनाओं में डूबती-उतराती अकेली शांता जब दशरथ के सामने आई तो दशरथ ने उन्हें पहचाना नहीं। आश्चर्यचकित होकर उन्होंने पूछा - 'देवी, आप कौन हैं ? आपके पांव रखते ही अयोध्या में चारों ओर वसंत छा गया है।' शांता ने अपना परिचय दिया तो पुत्री और माता-पिता की बरसों से सोई स्मृतियां भी जागीं और भावनाओं के कई बांध भी टूटे। यज्ञ के सफल आयोजन के बाद शांता ऋषि श्रृंग के साथ अपने आश्रम लौट गई।

इस घटना के बाद शांता की अपने माता-पिता, भाईयों और स्वजनों से भेंट का किसी ग्रंथ या लोककथा में कोई उल्लेख नहीं मिलता। कभी-कभी मन में यह सवाल उठता है कि पुत्र-वियोग में प्राण त्यागने वाले दशरथ को कभी अपनी निर्वासित पुत्री और प्राणिमात्र के लिए करुणा से भरे राम को ऋषि श्रृंगी की निर्जन तपोभूमि में बसी अपनी बहन की याद क्या नहीं आई होगी ?
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