Friday, April 24, 2020

काफिल का कुत्ता

*काफिल का कुत्ता*

ऑनलाइन अध्ययन-अध्यापन के साथ लॉक डाउन में आज दूसरी किताब पढकर पूरी की. पहली किताब के बारे में बात इस किताब के बाद करेंगे. फ़िलहाल तो किताब पढ़ी, वह पांच लम्बी कहानियों का कहानी संग्रह है, यह संग्रह मित्र विक्रम सिंह जी द्वारा रचित है. विक्रम सिंह जी के विषय में यहाँ बताना इसलिए भी ज़रूरी है कि पाठक यह समझ सकें कि साहित्यकार या लेखक किसी क्षेत्र विशेष से सम्बन्ध नहीं रखता. जीवन की भावनाओं और संवेदनाओं को शिरेवार लेखनी के माध्यम से व्यक्त जो भी कर दे और वो लेखनी जन समुदाय तक न सिर्फ पहुंचे बल्कि उनके मानसपटल पर अपना प्रवाह भी अंकित करें, निसंदेह वही लेखक या कवि कहलाये जाने का हकदार होता है. तो इस कहानी संग्रह के लेखक ऐसे ही व्यक्तिव के धनी हैं. विक्रम सिंह जी तकनीकी शिक्षा प्राप्त करने के बाद वर्तमान में हरिद्वार औधोगिक क्षेत्र के अंतर्गत मुंजाल शोवा लिमिटेड कम्पनी (हीरो मोटोकोर्प) में अभियंता के पद पर कार्यरत हैं. औजार पकड़ने वाले हाथ जब कलम पकड़ते हैं तो समझिये साहित्य में क्रांति होने की संभावना ज्यादा होती है. मशहूर साहित्यकार ओमप्रकश वाल्मीकि के नाम से आप सभी भली प्रकार परिचित हैं. अरे! इसे आप तुलना न समझे, मात्र उदाहरण दे रहा हूँ. लेखन में रूचि रखने वाले और साथ ही अभिनय क्षेत्र में अपना दखल रखने वाले विक्रम जी देश भर के जाने-माने पत्र-पत्रकों में छपते रहते हैं. उनके तीन कहानी संग्रह ‘वारिस’, ‘और कितने टुकडें’ ‘गणित का पंडित’ और ‘काफ़िल का कुत्ता’ और अभी हाल ही में लोकोदय प्रकाशन से उपन्यास ‘यारबाज़’ प्रकाशित हुआ है. लेखन के साथ अभिनय में रूचि रखने वाले विक्रम सिंह जी तीन हिंदी फिल्मों (पी से प्यार फ से फरार, मेरे साइनाथ, पसंद-नापसंद) में भी अभिनय कर चुके हैं. साथ ही इनकी फिल्म स्क्रिप्ट राइटिंग कला आप  ‘पसंद-नापसंद’ फिल्म में देख सकते हैं.
खैर अब बात करते हैं इनके कहानी संग्रह ‘काफ़िल का कुत्ता’ की. पांच लम्बी कहानियों का यह संग्रह रोचकता से भरपूर है. क्रमशः संक्षेप में पाँचों कहानियों पर बात करते हैं. पहली कहानी जिसका शीर्षक है ‘अपना खून’ इस कहानी को यदि लघु उपन्यास कहा जाये तो इस रचना के साथ न्याय हो सकेगा. 66 पृष्ठों की यह लम्बी कहानी पाठक को अंत तक बांधे रखती है. पितृसत्तात्मकता व्यवस्था समाज में कैसे आज भी बनी है इसका बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत करती है यह कहानी. यही नहीं  हमारे भारतीय समाज में पितृसत्तात्मकता व्यवस्था को मजबूत करने के लिए महिला किस प्रकार जिम्मेदार है और काफी सीमा तक महिला को मजबूर भी किया जाता है कि वह पितृसत्तात्मकता व्यवस्था को बनाये रखने के लिए बे-मन से सही पुरुष का सहयोग करें. इस कहानी की विशेष बात तो पाठक के रूप में महसूस की वो यह कि इस कहानी में उत्तराखंड बनने की ऐतिहासिकता पर भी काफी प्रकाश डाला गया है.
उत्तराखंड आंदोलन की पृष्ठभूमि दिखाए जाने के चलते कहानी में जिज्ञासा और रोचकता बढ़ती जाती है। इतना ही नहीं उत्तराखंड के गरीबी पहाड़ी जनजीवन को इस कहानी को जिस प्रकार दिखाया गया है, वो आंखे नम कर देता है। इस कहानी को पढ़ने वाला कोई भी पाठक हो, यह जानकर आश्चर्यचकित होगा कि आज भी पहाड़ पर रहने वालों का जीवन अभावग्रस्त ही नहीं बल्कि दुष्कर भी है। हालांकि सरकारी योजनाओं के चलते स्थितियों में काफी सुधार हुआ है, परन्तु इसके बावजूद भी ईजा और दीपा जैसे अनेकों गरीब लाचार परिवार हैं, जिन तक सही मायनों में कोई सरकारी लाभ नहीं पहुंच सका है। जबकि ईजा का पति खड़गराम उन आंदोलनकारियों में शामिल था, जिन्होंने उत्तराखंड को अलग राज्य का दर्जा दिलाने के लिए अपनी जान की बाजी तक लगा दी। बावजूद इसके उसके पीछे उसके परिवार की वही दयनीय स्थिति है।

कहानी में उत्तराखंड में किस प्रकार ब्रिटिशों का आगमन हुआ और कैसे उनसे मुक्ति के लिए पहाड़ों पर संघर्ष हुआ, लेखक ने बखूबी दिखाने का प्रयास किया है। कहानी में दीपा और इंदर की अधूरी प्रेमकथा, कहानी को विस्तार अवश्य प्रदान करती है, परन्तु हर बार की जैसे यह कथा भी पूर्ण होने से पहले ही कहीं खो जाती है। इंदर अपनी माँ के इलाज के लिए शहर जाता है, हाड़-तोड़ प्राइवेट काम करता है लेकिन अंत में अपनी माँ को टीबी की बीमारी से बचा नहीं पाता है और माँ की मृत्यु हो जाती है। माँ की मौत के बाद जब गांव वापस लौटता है, तो दीपा के बारे में पता चलता है कि उसकी तो शादी हो गयी। कहानी के युवा पात्र इंदर के रूप में पहाड़ के युवा बेरोजगार को देख सकते हैं। पहाड़ पर रोजगार के अवसर न होने के चलते वहाँ के युवा किस प्रकार रोजगार की तलाश में तराई के क्षेत्रों में चले जाते हैं और पहाड़ को पलायन का दर्द झेलना पड़ता है।
कहानी फिर कुछ ऐसे आगे बढ़ती है, कहानी का मुख्य पात्र रूप सिंह है जो इंडियन ऑयल प्लांट  में सरकारी मुलाजिम है और शान से मैदानी क्षेत्र में आलीशान घर बनाकर अपनी पत्नी कलावती के साथ रह रहा है। कहानी में सरकारी नौकरी के पहले के संघर्ष को भी बखूबी दिखाया गया।  परन्तु सब होने के बाद भी उसके पास कुछ नहीं, मतलब शादी के कई वर्षों बाद भी वह बाप नहीं बन सका। कमी उसमें नहीं, उसकी पत्नी में थी। इसलिए वह हर शाम शराब में डूब जाता है और दुखी भी होता है।
निःसंतानता के कष्ट के कारण कलावती उससे से एक दिन कह ही देती है कि क्यों न हम बच्चा गोद ले ले। यह सुनकर रूप सिंह को अच्छा नहीं लगता, वह कलावती से कहता है, 'अपना खून चाहता हूँ'। इसके बात कलावती निरुत्तर हो जाती है।
एक दिन इकबाल जो कि रूप सिंह का दोस्त है उससे कहता है यार तू दूसरी शादी क्यों नहीं कर लेता। यह सुनकर रूप सिंह चौंक जाता है और मना करता है। लेकिन बार बार इकबाल के समझाने पर, उसे इकबाल की बात समझ आ जाती है। पर यह बात कलावती से कैसे कहें, इसी चिंता में डूबा रहता है। खैर किसी तरह वह कलावती को मना लेता है या कहिए रूप सिंह को संतान प्राप्ति के लिए वह स्त्री जीवन के सबसे बड़े त्रास यानि सौत रखने के लिए हामी भर देती है। लेकिन उसकी शर्त यह है कि संतान होने के बाद रूप सिंह उसे छोड़ देगा। उस समय रूप सिंह भी उसकी शर्त मां लेता है।
अब लड़की कौन है? रूप सिंह के इस प्रश्न की जिज्ञासा पर इकबाल उसे बताता है कि एक गरीब पहाड़न की तीन लड़कियां हैं, उसकी सबसे बड़ी लड़की के लिए बात करूंगा। इकबाल को गांव में सभी मानते हैं तो ईजा यानी दीपा की माँ, हाँ जी यह वही इंदर की दीपा है, उसकी बात को यह जानते हुए भी मान जाती है कि दीपा की दुगनी उमर का है रूप सिंह। चूंकि घर में खाने के लाले पड़े हैं, तो इसका विवाह कैसे करती, यही सब सोचकर एक मजबूर-बेबस माँ ने हां की।
आखिर इस गरीबी ने फूल सी लड़की को अधेड़ से शादी करा ही दी।
रूप सिंह शादी करके दीपा को घर ले आता है। रूप सिंह की माँ तो खुश है लेकिन स्त्री स्वभाव ऐसे समय कैसे खुश रह सकती थी। कहानी पढ़ते हुए बात मन में आयी क्या ये समाज यही इजाज़त कलावती को भी दे देता, यदि रूप सिंह नपुंसक होता। कभी नहीं।
कलावती न चाहते भी अपना बिस्तर पराई स्त्री को दे देती है। देखते देखते आखिर वो दिन आ ही गया, दीपा पेट से रह गयी। और कुछ समय बाद दीपा सिंह एक बेटी का पिता बन ही गया। उस दिन उसकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रह गया। पूरे अस्पताल में उसने मिठाई बटवायी। यह बता दे, यह मिठाई लड़की के होने की नहीं, बल्कि उसके सिर्फ बाप बनने की है। यह बात कहानी के अंत में जाकर समझ आती है। हालांकि कलावती उस बच्ची को बड़े प्यार-दुलार से रखती है।
इसके बाद एक दिन कलावती रूप सिंह को उसकी शर्त याद दिलाती है और दीपा को घर से निकालने के लिए कहती है। जबकि इस बात का विरोध रूप सिंह और उसकी माँ दोनों करते हैं। लेकिन कलावती अपनी बात पर अड़ी रहती है। कलावती कहती है संतान तो आपको मिल गयी, अब क्या। इस पर रूप सिंह कहता है मुझे संतान नहीं अपना खून चाहिए। कलावती कहती है बात संतान की हुई थी, वारिस की नहीं। अन्ततः बात इतनी बढ़ जाती है कि पंचायत होती है। पंचायत भी दीपा के हक़ में फैसला आता है और रूप सिंह अपने घर पर दूसरे तल पर मकान बना देता है। कलावती नीचे और दीपा ऊपर रहती है। और दीपा की बेटी का ख्याल कलावती अपने पास रखकर ही करती है, आखिर वो भी उससे उतना ही प्यार जो करती है। समय बीतने के साथ दीपा एक बार फिर गर्भवती हो जाती है, लेकिन इस बार भी उसे बेटी ही होती है। इस बार वह बर्दाश्त नहीं कर पाता और टूट सा जाता है। मतलब जो आदमी कुछ समय पहले सिर्फ बाप कहलवाने के लिए तरस रहा था वही अपने खून यानी बेटे होने के लिए दुखी है। वाह! रे रूप सिंह।
कहानी का एक पक्ष यह भी है कि रूप सिंह अपनी दोनों बेटियों को प्यार भरपूर करता है, लेकिन अपने खून की कसक उसके दिल में बनी रहती है। दोनों बच्चियां अच्छे माहौल में पल-बढ़ रही है। तीसरी बार फिर दीपा के माँ बनने की खबर रूप सिंह को मिलती है। इस बार उसे पूरा विश्वास है कि लड़का ही होगा। लेकिन वक़्त को कुछ और ही मंजूर था। जैसी कि उसकी आदत थी, एक शाम रूप सिंह अपने साथी के साथ घर पर ही शराब पी रहा था। समय से ऑमलेट न मिलने से  नाराज होकर दीपा के सर पर तीन चार घुसे मार देता है। जिससे दीपा की हालत खराब हो जाती है और उसे हॉस्पिटल ले जाना पड़ता है, जहाँ उसका प्रसव भी हो जाता है, इस बार उसे बेटा होता है लेकिन उसकी सर की चोट का असर बच्चे पर पड़ता है और उस बच्चे को आई सी यू में रखना पड़ता है। जहाँ उसकी हालत और खराब हो जाती है और उसका बच्चा मर जाता है। यह सदमा सुनकर अपना सर दीवार पर मारने लगता है और यह खबर सुनकर सबकी आंखें भीग जाती हैं। कुछ सामान्य होने के बाद दीपा रूप सिंह को कुछ ऐसा बोल देती है कि रूप सिंह की नज़रों पुराने दिन फिर आ जाते हैं और कलावती की बातें उसके दिमाग में घूमने लगती हैं। दीपा कहती है, 'मैं जानती हूँ आपको अपने बेटे का दुख है... मैं आगे मां नहीं बन सकती। क्यों ना हम दोनों कोई लड़का गोद ले लें ताकि आपको अपनी संपत्ति का वारिस मिल जाये।'
यह सुनकर रूप सिंह को दीपा के चेहरे में कलावती दिखने लगी। वहीं पुराने मोड़ पर जिंदगी ने उसे फिर खड़ा कर दिया था। उसके अपने खून का सपना, सपना ही रह गया था।

संग्रह की दूसरी कहानी के नाम पर संग्रह का नाम भी रखा गया, 'काफिल का कुत्ता'। यह शीर्षक पढ़कर पहले थोड़ा अजीब सा लगा, फिर कहानी जैसे जैसे आगे बढ़ती रही तो शीर्षक का रहस्य समझ आ गया।
निश्चय ही यह कहानी आपको अपने बचपन में ले जाती हुई आपके संघर्ष के दिनों में फिर से ले जाएगी। देश में बढ़ती बेरोजगारी पर यह कहानी चोट करती है। सरकार को आईना दिखाती है यह कहानी। देश का हर बेरोजगार युवा इस कहानी में खुद के दर्शन कर सकता है। यही इस कहानी की खास बात है। वर्तमान में हिन्दी साहित्य जगत में जिस तरह कुकुरमुत्ते के तरह लेखक-कवि निकल रहे हैं, उन सबसे अलग यह कहानीकार है क्योंकि इनकी कहानियों में आमजन की पीड़ा और संवेदना की झलक मिलती हैं। फेसबुक पर ख्याली घसीट मारने से कोई लेखक/कवि नहीं बन जाता।
खैर इस कहानी को पढ़कर जान पड़ता है कि इसका नायक स्वयं लेखक ही है। जो अपने बचपन की शरारतों से गुजरते हुए जवानी में रोटी की जद्दोजहद तक पहुंचता है। एक कुत्ते की कहानी को अपने साथ जोड़कर दिखाया जाना कहानी में भावुकता ला देता है। फिर उसके बाद जैसा कि अक्सर हर युवा के साथ घटता ही है कि नौकरी समय से न लगने के चलते नायक की प्रेमकथा बीच में ही दम तोड़ देती है। अब इस कहानी की प्रासंगिकता इससे बढ़ती है कि नौकरी की तलाश में देश का युवा बाहर के देशों की ओर टकटकी लगाएं, मुंगेरीलाल के हसीन सपने सजाने लगता है। कुछ ऐसा ही इस कहानी में भी है। जब कुछ हाथ न लगा तो उसने ड्राइवरी सीख ली। वैसे आज देश में कोई भी काम ले लीजिए पढा लिखा युवा मिल ही जाता है। ड्राइवरी सीखने के बाद अपने मित्र की सलाह पर वह अरब देश में जाने के लिए प्रयास करता है। एजेंट को 70000/- रुपये देकर वीजा लगवाता है और हसीन सपने लेकर सऊदी अरब पहुंच जाता है। अब थोड़ा आप आस पास नजरें घुमाइए तो सही, हमारे नजदीक भी ऐसे कई युवा है जो अरब देशों में नौकरी करके खुद को खपा रहे हैं। ज़रूरी नहीं कि हर वहाँ से रुपयों के बक्से ही भरकर लाता हो। पर सपना तो सबका यही होता है। ड्राइवरी करने के लिए वीजा लगवाया था नायक ने, पर यहाँ आकर पता चलता है कि उसे भेड़-बकरी और ऊँट चराने के लिए यहाँ भेजा गया है। और जंगल में एक तंबू में रखकर उसे यह काम करना था।  यानी दलाल ने उसके साथ धोखा किया। कहानी के अंत में पहुंचते ही, मन ठहर सा जाता है। और उन युवाओं का ख्याल सताने लगता है जो किसी न किसी रूप में ऐसे ही धोखे का शिकार हुए हैं और अब उनकी जिंदगी ऐसे ही मौत से भी बत्तर हो चली होगी। यहाँ आकर उसे उसी कुत्ते की याद आती है, जिसका जिक्र कहानी के मध्य आता है।
तीसरी कहानी की पृष्ठभूमि से दूसरी कहानी की कथावस्तु लिखी गयी। इस कहानी में जो ट्विस्ट आपको मिलेगा वह यह कि एक सरकारी कर्मचारी (तारकेश्वर) अपने लड़के (मृत्युंजय) को गांव में किसानी करने के लिए कहता है और गांव का एक किसान (पलटन) अपने लड़के (धनंजय) को बाहर विदेश में नौकरी करने के लिए भेजता है। अब दोनों लड़के परेशान हैं। क्योंकि स्वभाववश तो मृत्युंजय बाहर जाना चाहता था और धनंजय गांव में रहकर जीवन गुजर करना चाहता था। मृत्युंजय तो गांव में आकर शुरू में परेशान रहता है, पर धीरे धीरे वह ग्रामीण परिवेश का आदि हो जाता है। जबकि धनंजय की स्थिति बहुत दयनीय हो जाती है। जितने रूबल पर उसे नौकरी का वादा किया जाता है उसे उससे कहीं कम रूबल मिलते हैं। ऐसे में वो सोचता है मेरे बाप ने जो समझकर मुझे यहाँ भेजा है, वो तो शायद इस जन्म में तो कभी पूरा नहीं हो सकता। जो और लड़के उसे यहाँ आकर मिलते हैं उनकी हालत भी कुछ ठीक नहीं है, बस वो इस माहौल के अभ्यस्त हो चुके हैं। उन्ही लड़कों के बीच उसे 'बद्दू' नाम मिलता है।
अब कहानी में नया मोड़ कहानी के अंत मे आपको मिलेगा, जिसपर यहाँ लिखकर आपका मजा खराब नहीं करूंगा। लेकिन इतना ज़रूर कहूंगा, अपने बच्चों को विदेशी चकाचौंध से बचाकर रखें, नहीं तो आपके जीवन की चकाचौंध में कमी आ सकती है। उक्त दोनों कहानियों का सार भी आखिर यही है।
संग्रह की चौथी कहानी 'आवारा अदाकार' पिछली तीनों कहानियों से हल्की लगी। मानो लेखक की कलम अपनी दिशा भटक गयी हो। कहानी की शुरुआत संतोषजनक थी, लेकिन मध्य और अंत तक कहानी अपने उद्देश्य से भटकती हुई अंत तक पहुंच ही जाती है। कहानी का मुख्य पात्र गुरुवंश है, जो फिल्मी दुनिया में अपना कैरियर बनाना चाहता है, परन्तु उतना सफल नहीं हो पाता जितना होना चाहिए था, क्योंकि कहानी में उसके संघर्ष पर मेहनत नहीं की गयी, इसलिए उसका किरदार कहानी और असल में सामान्य बनकर ही रह गया। गुरुवंश की प्रेमिका बबनी भी अपने परिवार के दबाव या इज्जत के लिए गुरुवंश से शादी करने में असमर्थता प्रकट कर देती है। गुरुवंश का बाप हर बाप की तरह यही चाहता है कि उसका बेटा भी सम्मान से जीवन यापन कर सके। वह उसे आगे पढ़ने की सलाह देते हैं, पर गुरुवंश फ़िल्म कलाकार बनना चाहता है। मगर फ़िल्म इंडस्ट्री में कामयाब होना, लोहे के चने चबाने के समान है। गुरुवंश का कलाकार बनने का संघर्ष जारी रहता है, परन्तु उसे कामयाबी नहीं मिलती, छोटे रोल तो मिल जाते हैं, पर वो भी हमेशा नहीं। कहानी के अंतिम भाग में बॉलीवुड की उस सच्चाई को सामने लाने की कोशिश की गयी है, जिसका सामना सामान्यतः हर उस शख्स को करना पड़ता है, जो फ़िल्म नगरी में अपना भविष्य बनाना चाहता है। कुल मिलाकर यह कहानी जिस उद्देश्य को लेकर रची गयी, वह काफी हद तक पूरा तो हुआ वैसे।
अब बात करते हैं अंतिम कहानी 'रास्ता किधर है?' इस कहानी संग्रह की सबसे कमजोर कहानी यही लगी। हालांकि कहानी में मध्यम परिवारों की दशा का कटु चित्रण किया गया। शैलीगत आधार पर कहानी कमजोर अवश्य है, परन्तु तथ्यात्मक स्तर पर जीवन की परतों को काफी उघाड़ती ज़रूर है। कहानी की पात्रा बबली, ऐसे परिवार में रहती है जहां उसकी माँ अपने पति यानी बबली के बाप को छोड़कर आ जाती है, क्योंकि उसका किसी और औरत के साथ नाजायज सम्बंध थे। दो भाई बहन और माँ, यही छोटा सा परिवार था। माँ एक स्कूल में नौकरी करती थी और घर को किसी तरह चला रही थी। हालांकि वह अपने पूर्व पति अभिषेक से अभी वही सम्पर्क में रहती थी। अब कहानी में एक भाग आता है जो अक्सर देखने को मिल जाता है। बबली एक लड़के के साथ प्रेम करती है और उसके साथ जीवन बिताना चाहती है, जबकि वह दूसरी जात का है और कमाता भी कम है। सबके विरोध किये जाने के बाद भी वह उस लड़के से शादी कर लेती है। अब शादी तो कर ली, पर क्या वह वहाँ खुश रहती है। इसका जवाब कहानी पढ़कर मिल तो जाएगा, लेकिन हमारे सामने एक यक्ष प्रश्न खड़ा कर देगा, वह यह कि हमे बखूबी यह मालूम है कि बेटियों को कामयाब करने के बाद ही उनकी शादी करनी चाहिए, लेकिन हम फिर भी ऐसा नहीं करते या कर पाते, क्यों? दूसरा एक प्रश्न यह कहानी उन लड़कियों के लिए छोड़ती है, जो अपने दिखावटी प्रेम की खातिर अपने घर परिवार को तो छोड़ ही देती है साथ ही अपने उज्ज्वल भविष्य को बनने से पहले ही बर्बाद कर देती हैं। क्या आज की युवतियां इसे ही प्रेम मानती हैं या मानेगी? इसका जवाब पाठक दें।
अंत में केवल इतना ही कहूंगा कि यह संग्रह अपने उद्देश्य में सफल रहा है, ऐसा मेरा विश्वास है। समीक्षक के तौर पर नहीं, एक पाठक के नजरिये से यह कहना अतिश्योक्ति न होगा कि आज के युवाओं- युवतियों को इस प्रकार की रचनाओं से रूबरू होना चाहिए।
चलते चलते यह भी कहना अपना कर्तव्य समझता हूँ कि प्रिय मित्र विक्रम जी अपनी आगामी रचनाओं को प्रकाशन से पूर्व उनकी पांडुलिपियों की प्रूफ रीडिंग अवश्य कराएं, क्योंकि वर्तनी सम्बन्धी गलतियां अक्सर पाठक को खलती है और अनवरत पढ़ने में व्यवधान पैदा करती है। विक्रम जी को मेरी ओर से उनके लेखन और जीवन के लिए अन्नत शुभकामनाएं
धन्यवाद

23.04.2020
डॉ० राम भरोसे
असिस्टेंट प्रोफेसर (हिन्दी)
राजकीय महाविद्यालय पोखरी (क्वीली) टिहरी गढ़वाल उत्तराखंड

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