Thursday, February 13, 2020

दलित वर्ग : अभिप्राय एवं अस्मिता



भारतीय समाज में जाति एक ऐसी सामाजिक संस्था है, जो हिन्दू ध्र्म द्वारा अनुमोदित होती है। प्रारम्भ में जाति व्यवस्था दो वर्गों में विभाजित थी- सवर्ण तथा अवर्ण। ये दोनों वर्ग पुनः अनेक उपवर्गों ;उपजातियोंद्ध में विभाजित थे। इस सन्दर्भ में के.सी. श्रीवास्तव का मत है कि, फ्ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को एक साथ मिलाकर द्विज कहा गया है और इन्हें शूद्रों से अलग माना जाता था। शूद्रों को इन तीनों वर्गों का सेवक अन्यस्थप्रेष्यः व कभी-कभी अन्त्यज भी कहा जाता था। इस प्रकार द्विज लोगों की जातियों को सवर्ण तथा अन्त्यज लोगों की जातियों को अवर्ण कहा गया। य्
    तथाकथित मनुवादी संगठनों और राजकीय पक्षों पर टिप्पणी करते हुए डाॅ. जयन्ती लाल मकाडिया लिखते हैं कि फ्आज कल हम देख रहे हैं कि कुछ मनुवादी संगठनों और राजकीय पक्षों की ओर से भारतीय संस्कृति की गूलबांके हाॅकी चलायी जा रही है। विश्व की सबसे पुरानी संस्कृति की दुहाई देते हुए इसके मूल में पड़ी विभाजक भावना को मजबूत करने का प्रयास किया जा रहा है। कहने के लिए भारत की, एक संस्कृति का प्रचार किया जा रहा है, एक ही संस्कृति है, भारत की यह अनपढ़-अबु( जन को समझाया जाता रहा है, किन्तु यह बात समझदारों में स्वीकृत नहीं हो रही है, क्योंकि भारत में एक संस्कृति नहीं वरन् कई संस्कृतियां हैं।य्  संस्कृति के इस अंतर्विरोध को स्पष्ट करते हुए डाॅú एनú सिंह ने लिखा है, फ्भारत में कहने के लिए एक संस्कृति है, मगर मैं इसे नहीं मानता। मेरे अनुसार यहाँ संस्कृति नहीं संस्कृतियां हैं। एक को हम ब्राह्मण संस्कृति कहते हैं और अन्य को बाह्मणेत्तर। यह विभाजन दोनों में अंतर्निहित विरोध भाव का व्यंजक है।य्3
    भारतीय सनातन संस्कृति और अन्य भारतीय संस्कृतियों के विश्लेषण की गुत्थी में हम यहाँ नहीं उलझेंगे, किन्तु नामकरण का विरोधाभास, जो अवर्ण या दलित है, ये विद्रोह और प्रतिरोध की संस्कृति को बढ़ावा देने वाले हैं। पफलतः इन नामों तथा इन नामों में विचरने वाले दर्द को स्पष्ट करने से पूर्व भारतीय संस्कृति के विरोधाभास की तरपफ संकेत करना आवश्यक था। डाॅ. जयन्ती लाल मकाडिया के अनुसार, फ्आज यहाँ से हम उस भविष्य की कल्पना नहीं कर सकते हैं, जब यही विरोधी संस्कृति प्रमुख हो जाएंगी, और होगा। क्योंकि जिसे दबाया गया है वह कभी-न-कभी उछलेगा। यदि ऐसा हुआ तो यह केन्द्र में रहेगी और कला के स्वनिर्मित प्रतिमानों का निर्माण करेगी।य्4 संस्कृति महज किसी समुदाय के सदस्यों को बांधे रखने वाला सांगठनिक सि(ान्त नहीं है, यह दूसरे समुदाय के अलग और उनसे प्रतिरोध करने वाली भी होती है। पफलतः दलित वर्ग की अपमानजनक संस्कृति, जो सवर्णों द्वारा उस पर थोपी गयी है, उनसे प्रतिरोध कर अपना अधिकार प्राप्त करने को व्याकुल है।
    दलित साहित्य जैसे आन्दोलन को समझने और उसकी सही पहचान करने के लिए उसके सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पक्षों पर विचार करना जरूरी है क्योंकि लोगों को देखने में जैसा लगता है, दलित उसके बिल्कुल भि  है। इस विषय में डाॅ. जयन्ती माकडिया कहते हैं कि फ्एक वर्ग की वर्जनाएं और पूर्वग्रह जरूरी नहीं कि दूसरे वर्ग पर भी उसी रूप में लागू हो जाएं। हर वर्ग या समूह की दृष्टि या चेतना दूसरे वर्गों या समूहों से भि  होती है और यह भि ता किसी सरलीकृत सि(ांत से समझी भी नहीं जाती। कहना चाहें तो कह सकते हैं कि सवर्णों के लिए जो प्राथमिकताएं हैं, वही प्राथमिकताएं दलितों की नहीं हैं।य्5 इसलिए दलितों के विचारबोध या चेतना को समझने से पूर्व उनकी सांस्कृतिक स्थिति-परिस्थिति पर एक नजर डालना आवश्यक है।
    वर्ण-व्यवस्था हिन्दू धर्मशास्त्रों में वैदिक काल से ही देखी जा सकती है। वेदों में )ग्वेद, यजुर्वेद के सूत्तफों में वर्णों के उद्भव के विधान हैं। पुरुष सूत्तफों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के उत्पत्ति के विधान हैं।
    यहाँ उत्तफ तमाम धार्मिक पचड़ों को प्रस्तुत करना अतिरेक होगा और मूल दलित-सम्मानजनक-स्थिति सम्बन्धी संशोधन की प्रवृत्ति के विरु( भी होगा क्योंकि यह साहित्यिक संशोधन है। पिफर भी इस ‘वर्ण व्यवस्था’ के मूल में रहे दलित विरोधी तत्त्वों की खोज इस दलित चेतना के आधार को अधिक मजबूती प्रदान कर सकता है, इसलिए शूद्र सम्बन्धी धार्मिक ग्रंथों में क्या कहा गया और कैसे यह कथन एक पूरे बहुजन समाज को समाज के ठेकेदारों द्वारा परिभाषित करने का आधार बना और उनको नकारने तथा प्रताड़ित करने का क्या कारण रहा आदि पर विचार करना जरूरी है, क्योंकि आज अनेकाविध आन्दोलनों के माध्यम से दलित वर्ग अपनी मुत्तिफ के लिए पफड़पफड़ा रहा है। और यही तड़प और पफड़पफड़ाहट विधिविधान पूर्ण रूप ग्रहण कर दलित चेतना की प्रतिक्रिया का आगाज़ बनकर दलित साहित्य को ऊर्जापूर्ण सामग्री प्रदान कर रहा है। अतः दलित वर्ग की असमानता के मूल को स्पष्ट करने से पूर्व वर्ण-व्यवस्था को संक्षेप में देखना जरूरी है।
    )ग्वेद हिन्दू संस्कृति का सबसे पुराना धार्मिक ग्रंथ है और इसके पुरुष सूत्तफ में वर्ण व्यवस्था के उद्भव की सबसे प्राचीन घोषणा की गयी है। पिफर श्रुति, स्मृति, धर्मसूत्रों, पुराणों, सब में वर्ण-व्यवस्था के अनेकविध कथित ईश्वर प्रदत्त रूढ़ उदाहरण भरे पड़े हैं, जिसमें इस घृणास्पद् व्यवस्था को ऐसा रूप दिया गया कि आदमी पशुओं से भी बदतर स्थिति को प्राप्त हो आया है-
फ्शूद्रो मनुष्याणामश्वः पशूनां
तस्मातो भूत संक्रामिणावश्वश्च
शूद्रश्च तस्माच्छूद्रो यज्ञेघनवक्लुप्तः।।य्6
    अर्थात्, जैसे पशुओं में घोड़ा होता है, वैसे ही मनुष्यों में शूद्र है, अतः शूद्र यज्ञ के योग्य नहीं। इससे स्पष्ट होता है कि वैदिक काल में शूद्रों की दशा क्या रही होगी। श्रुति में कहा गया है कि शूद्र एक चलता पिफरता शमशान है, उसके समीप वेदाध्ययन नहीं करना चाहिए। एतरेय ब्राह्मण में कहा गया है कि, फ्ब्राह्मणों को गायत्राी के साथ उत्प  किया, राजन्य को त्रिस्टुप के साथ और वैश्व की जगती के साथ, परन्तु शूद्र को किसी भी छन्द के साथ उत्प  नहीं किया।य्7 ब्राह्मण ग्रंथों में तो यहाँ तक कहा गया है कि- एक शूद्र, भले ही उसके पास बहुत से पशु हों, यज्ञ करने के योग्य नहीं है, वह देवहीन है, उसके लिए किसी देवता की रचना नहीं की गयी। क्योंकि उसकी उत्पत्ति पैरों से हुई है। इन रूढ़ धार्मिक कूपमण्डूक तथ्यों का, जो कि अन्यायपूर्ण एवं शोषणकारी व्यवस्था के शोषण-साधन रहे हैं, प्राचीन समय से लेकर वर्तमान समय तक दलित वर्ग की प्रताड़ना में उपयोग हुआ है। हमें इसी घृणित समस्या का एकजुट हो, विरोध कर न्याय के लिए संघर्ष करना है।
दलित वर्ग की उत्पत्ति
रामआहूजा के अनुसार, फ्भारत एक विशाल देश है, जिसमें अनेक भाषाओं, ध्र्मों, सम्प्रदायों, वर्गों, प्रजातियों, जातियों तथा उपजातियों का सम्मिश्रण है।य्8 दलित ;शूद्रद्ध कौन हंै? और कब से तथा किन कारणों से उनकी पतन की स्थिति बनी? वैदिक साहित्य, जिसमें ‘वेद’, ‘ब्राह्मण’, ‘अरण्यक’, ‘पूर्व उपनिषद’ आदि हैं, में ऐसा कोई साक्ष्य नहीं मिलता, जिसके आधर पर यह कहा जाएं कि शूद्र जाति की सामाजिक स्थिति अन्य वर्णों के समकक्ष थी और न ही इनके सामाजिक स्थिति और इतिहास का विस्तृत चित्राण हुआ मिलता है, जिससे इनके विषय में विस्तार से जाना जा सके। )ग्वेद ;लगभग 1500 ई.पू.द्ध में आर्यों में केवल तीन जातियों- ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य का ही उल्लेख मिलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि शूद्र जाति शब्द की रचना आर्यों द्वारा वैदिक काल के अन्तिम चरण में की गयी। हालांकि शूद्र शब्द का उल्लेख या शूद्रों से सम्बन्धित इतिहास का पूर्ण प्रकाशन )ग्वेद या अन्य वैदिक साहित्य में नहीं मिलता, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि शूद्रों का अस्तित्त्व प्राचीन काल में नहीं था। गं्रथ ‘ब्राह्मण’ में कई बार शूद्र का उल्लेख ब्राह्मणों के साथ मिलता है, क्षत्रिय और वैश्यों का भी उल्लेख है, यह सब इण्डो आर्यन समाज के अभि  अंग थे। ‘ब्राह्मण’ के मूल ग्रन्थ में शूद्रों ;दासद्ध को निम्नतम स्थान प्रदान किया गया है और उन्हें ब्राह्मणों के ध्र्म से पृथक् माना गया है। ऐसा सम्भवतः इसलिए है कि वे आर्यों से प्रजाति एवं संस्कृति में भिन्न थे और जहाँ तक उनके ध्र्म का सम्बन्ध् था वे उनके बिल्कुल विपरीत थे।
उनका न केवल आर्यों के अन्ध धार्मिकता में अविश्वास था, बल्कि वे उनके कृत्रिम जीवन से भी ताल्लुक नहीं रखते थे। हालांकि इसका कारण शूद्रों ;मजलूमोंद्ध का आर्य-विरोधी रवैया नहीं था, बल्कि खुद आर्यों द्वारा उनसे सामाजिक दूरी बनाये जाने का परिणाम था। इन दासों के लिए वैदिक साहित्य में जिन शब्दों का प्रयोग आर्य जातियों ने किया, वे हैं- अन्यवृत, अंश, मृध्र्वक। इस प्रकार सामाजिक विशेषाध्किारों एवं धर्मिक अध्किारों के विषय में शूद्रों को निम्नतम स्थान प्रदान किया गया था। वे न तो ‘यज्ञ’ कर सकते थे और न ही वेद पढ़ सकते थे। इस सन्दर्भ में बी.आर. कांबले ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि फ्उनको घृणित, अपवित्रा और अशु( जीव माना जाता था, जिनके स्पर्श से संस्कार अपवित्रा हो जाने का भय था।य्9
प्रारम्भिक हिन्दू ध्र्मग्रन्थों और स्मृतियों में वर्णव्यवस्था की उत्पत्ति का प्रसंग मिलता है। वर्ण की उत्पत्ति के सम्बन्ध् में परम्परागत् सि(ान्त सबसे प्राचीन है। )ग्वेद के ‘पुरुषसूक्त’ के अनुसार परम पुरुष अर्थात् ईश्वर ने ही समाज को चार वर्णों में विभाजित किया है तथा विभिन्न वर्णों का जन्म इसी परम पुरुष ;ब्रह्माद्ध के शरीर के विभिन्न अंगों से हुआ है। ‘पुरुषसूक्त’ में कहा गया है कि ईश्वर ने अपने मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, पेट से वैश्य तथा पैरों से शूद्रों को उत्पन्न किया है। कुछ विद्वानों ने वर्ण व्यवस्था की इसी प्राग्वैदिक उत्पत्ति को स्वीकार किया है, जो उनके अपरिष्कृत विचार-बोध का परिणाम है। उदाहरण देखें-
फ्ब्राह्मणोअस्य मुखमासीद्
बाहु राजन्यः कृतः उरुतदस्यवदवैश्यः
षदभ्या शूद्रो अजायत्।य्10
    हालांकि इन चारो वर्णों की उत्पत्ति सम्बन्धी यह धरणा कर्मों पर आधारित थी, किन्तु कालान्तर में इस धारणा को दूषित अथवा रूढ़ कर जन्म आधारित बना दिया है, जिससे शूद्र अपने कर्म की बजाय अपने जन्म से पहचाने जाने लगे और उनकी पीड़ा दिनों-दिन सवर्णों के शोषण-उत्पीड़न से बढ़ने लगी।
वृहदारण्यकोपनिषद नामक ग्रन्थ में यह उल्लेख मिलता है कि ब्रह्मा ने सर्वप्रथम देवताओं में चार वर्ण बनाये और पिफर उसके आधर पर मनुष्यों में चार वर्णों की सृष्टि की, लेकिन ये अकेले ही उचित रूप में कार्य एवं उन्नति नहीं कर सकते थे, अतः उनके कार्यों में सहायता देने के विचार से ब्रह्मा ने क्षत्रिय वर्ण के देवताओं की सृष्टि की। ये क्षत्रिय देवता- इन्द्र, वरुण, सोम, रुद्र आदि थे। पिफर भी ब्रह्मा को पूर्ण सन्तोष नहीं हुआ और उन्होंने वैश्य देवताओं की सृष्टि की, ये वैश्य देवता- वसु, आदित्य, मारुत, आदि थे। इस पर भी ब्रह्मा भली प्रकार उन्नति करने में असपफल रहे, अतः उन्होंने प्रशानु देवता के रूप में शूद्र वर्ण की सृष्टि की। इसी विषय को आगे बढ़ाते हुए रविन्द्रनाथ मुखर्जी कहते हैं कि फ्चूंकि यह वर्ण-व्यवस्था स्वर्गलोक में उपयोगी सि( हुई, अतः मृत्युलोक में भी इसी वर्ण व्यवस्था को लागू किया गया।य्11 हालांकि वह स्वर्गीय वर्ण व्यवस्था यहाँ मृत्युलोक में नरकीय रूप धारण कर चुकी है, जिसमें जन-सामान्य का वृहत् खण्ड शोषण-पीड़ा से पीड़ित हो त्राहि-त्राहि कर रहा है। उनका जीवन इतना कष्टपूर्ण हो चुका है कि इस कष्ट से जितना जल्दी हो सके, छुटकारा पाना चाहते हैं। आज उनके इस दलित रूपी कोढ़ का वाजिब उपचार न मिला तो उनका यह रोग अजीर्ण रूप धारण कर लेगा और इस अजीर्णता से समाज में अस्थिरता का समावेश हो जाएगा।
वर्णाश्रम व्यवस्था के विषय में पी.एन. प्रभु कहते हैं कि फ्हिन्दू सामाजिक संगठन में वर्णाश्रम व्यवस्था का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। इसके अन्तर्गत दो प्रकार के संगठन थे- वर्ण तथा आश्रम। इनका सम्बन्ध् मनुष्य की प्रकृति तथा उसके प्रशिक्षण से था और इस प्रकार ये हिन्दू सामाजिक संगठन के आधर स्तम्भ हैं।य्12 प्राचीन हिन्दू शास्त्राकारों ने वर्ण व्यवस्था का विधान समाज की विभिन्न श्रेणियों के लोगों में कर्म के आधार पर कार्यों का उचित बटवारा करके सामाजिक संगठन बनाये रखने के लिए किया था, किन्तु उसका परिवर्तन इतना विकृत और रूढ़ रूप धारण कर लेगा, उन्हें आभास न होगा।
शब्द ‘दलित’ एक ऐसे तिरस्कृत जीवन का बोध् कराता है, जो कि हमारे समाज का एक बड़ा अंश है और जो सदियों से तिरस्कृत जीवन जीता हुआ चला आ रहा है और आज भी उसी जीवन को जी रहा है। शब्द ‘दलित’ करुणा या दया का व्यंजक नहीं, बल्कि बेवजह दमन और अपमान का शिकार होने के स्वाभाविक रोष को व्यक्त करता है। समाज के इस वर्ग की प्रगति और उत्थान का, हमारी राष्ट्रीय प्रगति और उत्थान के साथ गहरा सम्बन्ध् है। देश की जनसंख्या का विशाल भाग आज भी निर्बल और दलित है। उनकी सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक स्थिति पिछले दशकों में सुधर के प्रयत्नों के बावजूद अभी तक दयनीय है। भारत सरकार द्वारा अनुमोदित आध्ुनिकतम आंकड़ों के अनुसार देश की लगभग 36 प्रतिशत जनसंख्या आज भी गरीबी की रेखा के नीचे जीवन बसर कर रही है। परन्तु सच तो यह है कि फ्अनुसूचित जातियों और जनजातियों में लगभग 55 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन बसर कर रहे हैं और पिछड़े वर्गों में गरीबी रेखा के नीचे बसर करने वालों की संख्या लगभग 42 प्रतिशत है।य्13 और यह प्रतिशत वर्तमान का सच हो सकता है, भविष्य का नहीं, क्योंकि वर्तमान व्यवस्था में गरीब और गरीब होता जा रहा है, अमीर और अमीर होता जा रहा है। पफलतः दलितों की स्थिति और भी भयावह रूप धारण करती जा रही है।
    इन आंकड़ों से एक बात स्पष्ट है कि इसी दलित वर्ग में सबसे अध्कि गरीब, साध्नहीन और बेरोजगार लोग शामिल हैं। गत् वर्षों में केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों द्वारा इनके विकास के लिये अनेक कार्यक्रम चलाये गये, परन्तु अभी भी समाज का एक बड़ा हिस्सा, जिसे दलित कहते हैं, मौलिक सुविधओं के अभाव में ही जी रहा है। शिक्षा, स्वास्थ्य, पौष्टिक आहार, रहने के लिए मकान और पीने के लिए पानी के क्षेत्रों में दलित वर्ग की स्थिति दूसरों के मुकाबले में दयनीय बनी हुई है। सभी मूलभूत आवश्यक क्षेत्रों में इस वर्ग के लोगों की पहुँच आज भी राष्ट्रीय औसत से बहुत नीचे है। इतना ही नहीं, सत्ता, प्रशासन, उद्योग, कृषि और महत्त्वपूर्ण संस्थानों में भी दलित वर्ग की भागीदारी कम है, जिसका उचित उपचार होना जरूरी है।
दलित वर्ग शब्द की परिभाषा एवं स्वरूप
    दलित वर्ग एवं दलित सम्ब( प्रेमचन्दीय साहित्य पर विचार करने के पूर्व ‘दलित’ शब्द पर विचार करना आवश्यक है। दलित शब्द की अवधारणा के सम्बन्ध में साहित्यकारों व विद्वानों में मतभेद जरूर है, पर इस शब्द पर कई विद्वानों ने अपने विचार प्रस्तुत किये हैं, जो भले एक दूसरे के विरोधी हों, पर दलित वर्ग की पीड़ा को समझने में बहुत उपयोगी हैं।
    दलित किसे माना जाएं इस सम्बन्ध में प्रमुख दो प्रकार के मत साहित्य जगत में प्रचलित हैं। प्रथम अर्थ संकुचित है और दूसरा अर्थ व्यापक है। संकुचित अर्थ, धार्मिक गं्रथों में बहिष्कृत, प्रताणित शूद्र जाति और सामाजिक व्यवस्था में शोषित, उत्पीड़ित, दलित वर्ग को केन्द्र में रखकर विश्लेषित है, जिसके अंतर्गत चतुर्थ-वर्ण ;शूद्रद्ध में आनेवाले जातियों को आधार बनाया जाता है। इस प्रकार इस संकुचित अर्थ का सम्बन्ध सीधे-सीधे वर्तमान दलित विमर्श से जुड़ जाता है। जबकि व्यापक अर्थ में ये ;दलित शब्दद्ध उन सभी के लिए प्रयोग में लाया जाता है, जिन्हें किसी न किसी प्रकार से दबाया गया हो, पिफर चाहे वह कोई भी जाति, वर्ण या संप्रदाय के हों, इस प्रकार यह व्यापक अर्थ कहीं-न-कहीं जनवादी नजरिये को समेटे हुए अपने अर्थ की व्यंजना करता है। अब सवाल यह है कि दलित के अर्थ से सम्बन्धित कौन सा नजरिया ज्यादा तर्कसंगत और समाज-व्यवस्था में पिछड़ चुके शूद्र जातियों का पक्षधर है, उसे पहचानने की जरूरत है। पफलतः दलित शब्द के व्यापक तथा संकुचित दोनों अर्थों को देखना पड़ेगा।
     शब्द ‘दलित’ को व्यापक बनाकर उनकी व्यापकता के अर्थ को स्वीकृत करने वाली परिभाषाओं की भी हिन्दी साहित्य जगत में कमी नहीं है। कुछ परिभाषाएं देखें-
1.    डाॅú रामचंद्र शर्मा के अनुसार- फ्दलित शब्द मसला हुआ, मर्दित, दबाया, रौंदा या कुचला हुआ, विनिष्ट किया गया है।य्14
2.    श्री नारायण सुर्वे का विचार है कि- फ्दलित शब्द की मिली-जुली कई परिभाषाएं हैं। इसका अर्थ केवल बौ( या पिछड़ी जातियां ही नहीं है, अपितु समाज में जो भी पीड़ित है, वे सभी दलित हैं।य्15
3.    डाॅú बलवंत साधु जाधव का मानना है कि- फ्दलित शब्द का अर्थ सीमित नहीं है, अपितु व्यापक अर्थ का द्योतन करता है।य्16
    ‘दलित’ शब्द का संकुचित अर्थ स्वीकार करने वाले विद्वानों का मत इस प्रकार है-
1.    श्री राजकिशोर के अनुसार- फ्दलित शब्द एक वर्गीय शब्द ठहरता है। भारत एक गरीब देश है। यहाँ की आधी आबादी आर्थिक दृष्टि से दलित है। लेकिन जिन्हें दलित कहा जाता है उनका दंश कुछ और है। ‘दलित’ शब्द उन जातियों के अर्थ में कम होता जा रहा है जिन्हें पहले ‘अछूत’ या ‘हरिजन’ कहा जाता था। इनके लिए कानूनी शब्द ‘अनुसूचित जाति’ है।य्17
2.    श्री केशव मेश्राम का मानना है कि- फ्हजारों वर्ष जिन लोगों पर अत्याचार हुआ, ऐसे अछूतों को दलित कहना चाहिए।य्18
    यहाँ पर ‘दलित’ शब्द के संकुचित अर्थ और व्यापक अर्थ के पक्ष-विपक्ष में अनेक  शंृखलाब( व्याख्या, आधार दिये जा सकते हैं, किन्तु इस शब्द के अर्थ की चर्चा में गहरे उतरने के बजाए हम इन सबके सार-तत्त्व पर चर्चा करें तो ज्यादा बेहतर होगा। उपर्युत्तफ परिभाषाओं में डाॅú रामचन्द्र, श्री नारायण सुर्वे आदि ने दलित शब्द को एक विस्तृत रूप प्रदान करते हुए पिछड़ी जातियों के साथ-साथ उन सबको ‘दलित’ माना है, जो किसी भी प्रकार से पीड़ित-शोषित हैं। यहाँ उनका यह विस्तृत दृष्टिकोण सम्पूर्ण शोषित जन-सामान्य के लिए हितकर हो सकता है, किन्तु हमें उन परिस्थितियों पर भी विचार करना होगा कि यदि एक व्यत्तिफ निम्नवर्ग का है और दूसरा सर्वण वर्ग का, तो क्या सिर्पफ पीड़ित होने के कारण उसकी सामाजिक स्थिति में समानता होगी? यदि एक तरपफ एक ब्राह्मण व्यत्तिफ पीड़ित है और दूसरी तरपफ एक शूद्र-अछूत व्यत्तिफ पीड़ित है तो क्या समान पीड़ा के आधार पर दोनों व्यत्तिफयों के साथ समाज एक समान व्यवहार करेगा? नहीं। यानि कि ब्राह्मण या सवर्ण पीड़ित या शोषित होने के उपरान्त भी सम्मान पाता है और ‘अछूत’ चाहे पीड़ित अवस्था में हो या श्रेष्ठ अवस्था में, दोनों ही स्थिति में उसे अपमान का सामना करना पड़ता है।
    सीमित अर्थ में ‘दलित’ शब्द का अर्थ ग्रहण करने के क्रम में दलित मतलब, शूद्र वर्ण विशेष के भीतर आने वाली जातियों, उपजातियों के लोगों को ही स्वीकार किया है। इस दृष्टि से उपरोक्त परिभाषाओं में राजकिशोरजी ने एक सीमा तक सभी दबे-कुचले, वर्षों से अपमानित, अस्पृश्य समझी जाने वाली जातियों को समेटने का प्रयास किया है। उन्होंने आर्थिक आधार पर भी दलितों की स्थिति दयनीय होना स्वीकार किया है, किन्तु अर्थ के आधार पर अमीर-गरीब तो हो सकते हैं, किन्तु दलित नहीं, क्योंकि हमारे समाज में दलित शब्द का आशय सामाजिक व्यवस्था के लोगों के अंतर्गत निम्न जाति, जिसे अछूत समझा जाता है, के लिए ही प्रयुत्तफ शब्द से है।
    विद्वानों और चिन्तकों द्वारा दलित शब्द को अनेक प्रकार से परिभाषित किया गया है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि दलित शब्द को लेकर अलग-अलग विचारधाराएं साहित्य जगत में प्रचलित हैं, जिनमें एक वर्ग उन तमाम लोगों को दलितों की श्रेणी में रखता है, जो किसी भी प्रकार से पीड़ित या शोषित हो। दलित वर्ग के विषय में हरपाल अरुष लिखते हैं कि फ्आज जो यह भ्रांतियां और धारणाओं को शब्दार्थ में पिरोकर साहित्य जगत में पैफलाई जा रही है, उनके पीछे भी मनुवादी तत्त्वों की साज़िश नज़र आती है। हिन्दी साहित्य जगत में दलित साहित्य आन्दोलन एक बिजली की कौंध जैसे चमकार से उठा है और समग्र दलितेतर साहित्य उनकी कौंध में पिफके पड़ने लगे तो हर कोई दलित साहित्य के नवनीत का पान करना चाहता है। दूसरी बात इसमें यह भी है कि ‘दलित’ की परिभाषा में अन्य पिछड़ी जातियों और सभी पीड़ित जन को घुसाकर जो साहित्य आन्दोलन डाॅú अम्बेडकर की विचारधारा से उद्भव होकर उसी विचारधारा से आगे बढ़ रहा है, उसे सर्वहारा का साहित्य- जनवादी साहित्य करार देकर दलितों की अपनी साहित्यिक अस्मिता को खत्म किया जा सके।य्19
    अतः हम कह सकते हैं कि फ्दलित केवल उसे ही मानना योग्य होगा जो सामाजिक व्यवस्था में सदियों से नीचे के पायदान पर रखे गये हैं, उसे नहीं जो निम्न आर्थिक स्थिति वाला है। क्योंकि हमारे यहाँ जो ऊँच-नीच की व्यवस्था है या कहिए कि विभाजन है- यह जाति के आधार पर है अर्थ के आधार पर नहीं। इसका मतलब यह हुआ कि दलित उसे कहा जाना चाहिए जो निम्न जातियों के उपेक्षित जन हैं, जिन्हें न सम्मान मिल पाया है न अभी तक खरी उम्मीद नज़र आती है।य्20
    साहित्यिक आन्दोलन के संदर्भ में ‘दलित’ वर्ग का अर्थ समाज की निम्न जाति विशेष से ठहरता है और यह दलित मुत्तिफ आन्दोलन के विचार के प्रवाहकों का मत ग्राह्य करता है, क्योंकि दलित मुत्तिफ आन्दोलन विकास में पिछड़े, सवर्णों द्वारा दबाये-कुचले जाति विशेष का आन्दोलन है। 

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