Sunday, February 9, 2020

संत गुरू ’रैदास’ एक क्रांतिकारी संत




वर्तमान युग में यदि दलित समाज की बात कि जाए तो भगवान बुद्ध के बाद दलित आन्दोलन के अग्रदूत गुरू रविदास हुए हैं । गुरू रैदास का जन्म माघ सदी 15 विक्रम संवत् 1460 में मंडुआ डीह नामक एक गाँव में रघुराम जी के घर में हुआ । ये प्रारंभ से ही क्रांतिकारी विचार-धारा के थे, उन्होंने ब्राह्मणों के चारों वेदों का खण्डन किया तथा उन्हें व्यर्थ की किताबें बताया साथ ही संत कबीर ने भी इन वेदों को अधर्म के वेद बताया । उन्होंने दलित समाज को चेताया कि केवल दलित समाज के लोग ही असल में भारत के लोग रहे हैं । सिंधु सभ्यता अर्थात दलित सभ्यता से लेकर मौर्य काल तक भारत पर केवल और केवल दलितों का शासन ही रहा है । उन्होंने दलितों को शिक्षा देना शुरू किया तथा उन अक्षरों की गुरूमुखी लिपि बनाई, और उस लिपि में अपनी बाणी की रचना की ।
वैदिक काल से वर्तमान तक चली आ रही वर्णाश्रम व्यवस्था ने मानव जाति के साथ बहुत अन्याय किया है । छोटे-बडे़ के नाम पर कई सिद्वान्त बनाए गए, जिनका पालन अब तक किया जाता रहा है । इन्हीं सिद्वान्तों के कारण सवर्ण और अवर्ण लोगों के बीच की सामाजिक आर्थिक और धार्मिक खाई इतनी गहरी हो गई कि उसे कम कर पाना अत्यन्त कठिन हो गया ।
    कठोर कानून बनाये जाने के बावजूद भी आज निम्न जातियों के लोगों के साथ दुर्व्यवहार किया जा रहा है । सर्वप्रथम भक्तिकालीन कवियों ने इस अमानवीय व्यवस्था के खिलाफ मध्ययुग को ’स्वर्णयुग’ बनाने का श्रेय निस्संदेह ही भक्तिकालीन संत कवियों और मुख्य रूप से उनकी लोक-चेतना को जाता है । संतकाव्य ईश्वर के नाम पर जातिगत और धार्मिक भेदभाव के विरूद्व एक बिगुल के समान है ।
    कवि रैदास उदात्त मानवतावादी प्राणधारा के उन कवियों में से थे जिन्होंने मध्यकालीन युग में गरीब और हताश लोगों को अपनी बानी से प्रोत्साहित कर उनका मार्गदर्शन किया। उनकी बानियों से ही ऐसा आभास होता है कि उन्होंने एक ऐसे राज्य की स्थापना करनी चाही जहाँ ऊँच-नीच शोषण आदि का कोई नाम न हो । गुरू रैदास ने उस जमाने में विधवा मीरा को शिक्षा दी, जब भारत में खासकर राजस्थान में विधवा स्त्री को पति के मृतक शरीर के साथ जीवित जला दिया जाता था । इस सामाजिक कुरीति को ब्राह्मण धर्म का पूर्ण समर्थन था और उस युग में विधवा हो जाना सबसे बड़ा गुनाह था । उन्होंने उन अटकलों को भी खारिज किया है, जिसमें उनके राम को दशरथ पुत्र राम कहा गया । वे स्पष्ट करते हैं कि उनके राम वह राम नहीं हैं जो दशरथ के पुत्र हैं । उनका राम तो उनकी अन्तर्रात्मा है । गुरू रैदास जी के वास्तव में कोई गुरू नहीं थे । स्वयं जातिगत भेदभाव से पीड़ित होने के बावजूद उन्होंने छाती ठोककर अपनी जाति का उल्लेख अपनी बानी में किया है -
यथा- “कहे रैदास खलास चमारा ।”
    रैदास स्वयं का उदाहरण देकर कहते हैं कि सच्चे भक्त की कोई जाति नहीं होती और सच्ची भक्ति के कारण निम्न जाति में उपजा मानव भी श्रद्वेय बन जाता है ।
यथा- 
“जाके कुटुम्ब के ढेढ सब छोर ढोंवत फिरहीं,
अजहूँ बनारसी आसा-पासा
आचार सहित बिप्र करहिं, दंडौति तिन तनै रैदास दासानुदासा । ।”

जहाँ शूद्रों को मंदिरों में प्रवेश की मनाही थी वहाँ गुरू रैदास जैसे संतों ने मंदिरों का ही विरोध किया है । उनमें रखी मूर्तियों का विरोध किया है जो सिर्फ सवर्णों की संपत्ति समान थी । इनका मानना था कि जब सबका रचयिता एक है, तो उस रचयिता पर सबका समान अधिकार होना चाहिए, चाहे फिर वह सवर्ण-अवर्ण हों या हिन्दू, मुसलमान ।
यथा-
जब सब करि दो हाथ पग, देउ नैन दोउ कान।
रविदास पृथक कैसे भये, हिन्दू मुसलमान । ।”

गुरू रैदास की मानवतावादी दृष्टि सबको धार्मिक व सामाजिक समानता का दर्जा देती है । साम्प्रदायिक सद्भाव का यह प्रयास उस समय की सबसे बड़ी आवश्यकता थी क्योंकि इन दोनों धर्मां के मालिक बन बैठे लोग एक-दूसरे के धर्म का न केवल दुष्प्रचार कर रहे थे, बल्कि मंदिर-मस्जिद भी तुड़वा रहे थे । सवर्णों के लिए ही ईश्वर पूज्यनीय था और शूद्रों के लिए सवर्ण पूजनीय थे । सदियों से चली आ रही जाति प्रथा की बुराईयों को पहचानकर इन्होंने कर्म को महत्व दिया ।
यथा-
जन्मजात कूँ छांडि करि, करनी जात परधान।
इहयों बेद को धरम है, करै रविदास बखान । ।”
    संत रविदास के मानवीय धर्म पर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की यह टिप्पणी बिल्कुल सही है कि- “अन्य संतों की तुलना में महात्मा रविदास ने अधिक स्पष्ट और जोरदार भाषा में कहा है कि ‘कर्म ही धर्म है’ उनकी वाणियों से स्पष्ट होता है कि भगवद् जन सदाचारमय जीवन, निरअंहकार वृत्ति और सबकी भलाई के लिए किया जाने वाला कर्म, ये ही वास्तविक धर्म है ।”
    गुरू रैदास ने जब थोथे धर्म ज्ञान और पाखण्डी विचार धारा का इन्होंने विद्रोह किया तो, ये विद्रोही कहलाए । देखा जाए तो यह धर्म विरोधी नहीं बल्कि उसका शुद्वीकरण है और संभवतः इसीलिए इन्होंने निर्गुण निराकार ब्रह्म की भक्ति की और यही निर्गुण निराकार ब्रह्म उन सभी निम्न जातियों और समाज के बेदखल लोगों का बहुत बड़ा धार्मिक विकल्प था । जिन्हें मंदिरों से दूर रहने की हिदायतें दी जाती थीं । व्रत, तीर्थ, मालाजाप, उपवास, रोजा, आदि का विरोध कर कबीर और रैदास ने सच्चे मन से निराकार ब्रह्म की भक्ति करने का रास्ता प्रषस्त कर उन लोगों को नई राह दिखाई, जो किनारे पर फेंक दिए गए थे।
    ब्राह्मणवादी विचारधारा के लोगों ने समाज को बांटने और समाज में अपना वर्चस्व बनाने के लिए भक्ति जैसे सद्भाव के साथ छेड़छाड़ कर स्वयं को उसका उत्तराधिकारी बनाया और इसी सोच के कारण जाति प्रथा और अस्पृश्यता जैसी कुप्रथाओं का प्रारम्भ हुआ । धर्म के नाम पर हो रहे तमाषे को रैदास जैसे संतों ने पहचाना और इसीलिए इस गंदगी की सफाई की शुरूआत भी इन्होंने वहीं से की जहाँ से ये महामारी फैली थी । हालाँकि इन्होंने भी भक्ति का सहारा लिया किंतु इनकी भक्ति में धार्मिक, सामाजिक संकीर्णताओं के लिए कोई जगह नहीं थी । तभी तो इनके लिए सामान्य स्थानों और तीर्थ स्थानों में कोई भेद नहीं था। इनके लिए तो सच्चा तीर्थ स्थान वह दिल है जो प्रेम की बानी बोलता है, और वहीं प्रभु का वास भी है ।
यथा-
“का मथुरा का द्वारका का काषी हरिद्वार?
रविदास जो खोजा दिल अपना तो मिलिया दिलदार ।।”
    संत रैदास ने जीवन को परमात्मा का अंश माना है । इनका मत है कि साधु संगति के बिना भगवान के प्रति प्रेम भाव उत्पन्न नहीं हो सकता और बिना भाव के भक्ति नहीं हो सकती ।
यथा- 
“साधु संगति बिनु भाव नहीं उपजै ।
भाव बिनु भगति होई न तेरि। ।”
    इनकी भक्ति का तरीका थोड़ा अलग है, वे धार्मिक क्षेत्र के दोषों पर कठोर प्रहार नहीं करते बल्कि बड़ी ही विनम्रता से पूजन सामग्री को जूठा बताकर मन की पवित्रता को ही पूजन सामग्री बनाने का आग्रह करते हैं ।
यथा-
“दूध त बछरै थनहु बिटारियो, फूलु भवरि जलुभीनि बिगारिओ।
माइ गोविन्द पूजा कहा लै चरावउ, अवरू न फूलु अनूपु न पावउ ।।”
    ब्राह्मणवादी विचारधारा के लोगों ने धार्मिक कर्मकाण्डों में शुचिता पर अत्यधिक बल दिया है, और इसी का सहारा लेकर अस्पृश्यता जैसा रोग समाज में फैलाया । मगर संत रैदास ने इस शुचिता पर विनम्र शब्दों में ऐसा कठोर प्रहार किया कि मनु-स्मृति जैसे ग्रन्थों के सिद्वान्तों की भी धज्जियाँ उड़ गयीं । उनका तर्क बहुत ही सराहनीय है क्योंकि जब फूल, पानी जैसी वस्तुएं भी पवित्र नहीं तो सवर्ण-अवर्ण का भेद कैसा ? अगर कुछ निर्मल हो सकता है तो केवल मन के भाव, बाकी सब तो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जूठे हैं । रैदास कर्मकाण्ड को महत्व नहीं देते, उनकी आस्था उन धर्मां व साधना में नहीं जो केवल दिखावा है । इसीलिए वे मूर्तिपूजा, यज्ञ, पुराण, कथा आदि की उपेक्षा करते हैं । उनकी दृष्टि में ईष्वर कर्मा हैं, सर्वव्यापक हैं, अंतर्यामी हैं तथा भक्ति से प्रसन्न होकर दीन-हीनों का उद्धार करने वाले हैं ।
यथा-
“प्रभु जी तुम चंदन हम पानी, जाकि अंग-अंग बास समानी ।
प्रभु जी तुम घन हम मोरी, जैसे चितवन चंद चकोरा ।
प्रभु जी तुम दीपक हम बाती, जाकी जोती बैर दिन राति ।
प्रभु जी तुम मोती हम धागा, जैसे सोनहि मिलत सुहागा ।
प्रभु जी तुम स्वामी हम दासा, ऐसी भक्ति करै रैदासा ।।”

गुरू नानक देव भी गुरू रैदास के समकालीन थे, वे इनसे मिले भी थे  तथा रैदास जी की बानी को साथ लेकर भी गये वे रैदास जी से इतने प्रभावित थे कि उनकी बानी को स्वयं गाते भी थे । दशम् गुरू गोविंद सिहं ने अपने कार्यकाल में समस्त भारत के संतों की वाणी को ’गुरू ग्रंथ साहिबा’ में संकलित किया । जिसमें गुरू रैदास जी के 41 पदों को शामिल किया गया ।
    आमजन की मान्यता है कि रैदास 100 वर्षां तक जीवित रहे । अतः प्रश्न उठता है कि क्या उन्होंने अपने संपूर्ण जीवन काल में मात्र 41 पद ही रचे ? यह बात पूर्णतः अविश्वसनीय प्रतीत होती है । ऐसा माना जाता है कि नानक जी जब गुरू रैदास से मिले तब वे 41 पद ही उनकी हत्या से पूर्व अपने साथ ले गए, जिनका संकलन लगभग 150 वर्षां पश्चात् ’गुरूग्रंथ साहिब’ में किया गया है ।
    माननीय चंद्रिका प्रसाद जी का मानना है कि गुरू रैदास की हत्या करके उनकी समस्त बानियों को उनके शरीर के साथ ही आग की भेंट चढ़ा दिया गया था, यदि उनकी हत्या न की गई होती तो उनकी बानियां अवश्य मिलती ।
    रैदास जी के व्यक्तित्व की तुलना उस कमल से की जा सकती है जो संसार रूपी कीचड़ में उत्पन्न होकर भी उस सांसारिक गंदगी से अनछुआ रहता है । न केवल अनछुआ रहता है बल्कि अपनी सुंदरता से तलाब को भी सुंदर बनाता है ।


संदर्भ सूची 

  1. दलित मुक्ति की विरासतः संत रविदास, डॉ० सुभाषचन्द्र, आधार प्रकाशन , प्रथम संस्करण  2012
  2. रैदासः धर्मपाल मैनी, साहित्य अकादमी, प्रथम संस्करण
  3. भक्तिकाव्य और लोकजीवनः शिवकुमार मिश्र, वाणी प्रकाशन, 
  4. संतों एवं भक्तों का जीवन चरित्र, संपादकः डॉ० विक्रम सिंह राठौर, राजस्थानी शोध संस्थान
  5. गुरू रविदासः डॉ० धर्मवीर, एकता प्रकाशन
  6. संत रविदासः वीरेन्द्र पाण्डेय, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, द्वितीय संस्करण 2011

1 comment:

  1. वहा! बहुत खूब जय गुरु रविदास जी महाराज ।

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