Wednesday, February 19, 2020

उच्च शिक्षा में बढ़ता जातीय भेदभाव और हमारा उत्तरदायित्व


इसमें कोई दो राय नहीं है कि आज हमारी उच्च शिक्षा-व्यवस्था पर गंभीरता से पुर्विचार करने की ज़रूरत है. देश के लगभग अधिकांश महाविद्यालय-विश्वविद्यालयों की वर्तमान हालत को देखकर दुःख भी होता है और रोष भी. स्वयं भी उच्च शिक्षा से जुड़े होने के कारण यह दुःख-रोष और भी बढ़ जाता है. जिस प्रकार हमारे उच्च शिक्षण संस्थानों में दलित वर्ग से छात्रों के उत्पीड़न की खबरें आम हो गयी हैं, यह भावी भारत (डिजिटल इंडिया) के लिए कम से कम शिक्षा के क्षेत्र में कतई भी शुभ सन्देश लेकर नहीं लाने वाले हैं. केवल गिनती कि बात की जाए, तो भारत शिक्षा-तंत्र की उपलब्धियों किसी को आश्चर्य करने के लिए पर्याप्त हैं. संख्यात्मक दृष्टि से तो देश में स्कूल, कॉलेजों, यूनिवर्सिटिओं में बढ़ोतरी हुई है, परन्तु गुणवत्ता उस अनुपात में नगण्य ही है. इसका प्रमाण इस बात से मिल जाता है- देश में प्रत्येक वर्ष लाखों की संख्या में बच्चे ग्रेजुएट-पोस्ट ग्रेजुएट होते हैं, लेकिन जब बात रोजगार की आती है, तो अधिकांश संख्या पढ़े-लिखे बेरोजगारों की ही मिलेगी.  
स्पष्ट है कि हमारे देश में मात्र उच्च शिक्षा के नाम पर डिग्री बांटी जा रही है. मूल में स्थिति आज भी संतोषजनक नहीं है. उस पर बड़े खेद की बात है कि हमारे उच्च शिक्षण संस्थान जातिवाद के गढ़ बन रहे हैं. कही दलित छात्रों को उत्पीडित व अपमानित कर उन्हें आत्महत्या के लिए मजबूर किया जा रहा है तो कही दलित प्राध्यापक को झूठी शिकायतों को आधार बनाकर उनका निलंबन किया जा रहा है. यह सब इस बात को प्रमाणित करने हेतु पर्याप्त है कि आज भी दलितों के लिए उच्च शिक्षा कि राह में मनुवादी रोड़े भरपूर हैं. उच्च शिक्षा में ही क्यों दलित बच्चों को तो उनके प्राथमिक स्तर से अपमान का घूंट पीना पड़ता है. कहीं उनके लिए भोजनमाता भोजन बनाने के लिए मना कर देती है, तो कहीं उनकों अन्य बच्चों के साथ बैठकर भोजन नहीं कराया जाता आदि. जब भी कभी जातीय उत्पीड़न के कारण कोई दलित छात्र आत्महत्या करता है, तो लगता है जैसे जातिवाद की बाँहों में शिक्षा अपना दम तोड़ रही है. दलित छात्रों में उच्च शिक्षण संस्थानों में दाखिले से लेकर नियुक्ति तक की प्रक्रिया में घोर जातिवाद झलकता है. एक ओर जहाँ वर्तमान सरकार नयी शैक्षणिक नीति बनाने की कोशिश कर रही है, वहीँ उच्च शिक्षण संस्थानों में जातिवादिता को बढ़ावा देने में सरकार के नुमाइंदों की भी भूमिका कम प्रतीत नहीं होती.  
    आखिर हमारी शिक्षा जा किधर रही है? यह एक यक्ष प्रश्न बनता जा रहा है. सरकार चाहे जिसकी रही हो, जातिवाद से पीड़ित छात्र हर शिक्षण संस्थान में मिल जायेगा. नयी शैक्षणिक नीति के विषय में यू.जी.सी. के पूर्व चेयरमैन व जे.एन.यू. के पूर्व प्रोफेसर सुखदेव थोराट मानते है कि “उच्च शिक्षा में दाखिले के दर को बढ़ाये जाने की कोशिश होनी चाहिए. इनमें महिलाओं, दलितों-आदिवासियों, मुसलमानों का प्रतिनिधित्व काफी कम है. इस विषमता को दूर करने के ज़रूरत है.” (इंडिया टुडे, 03.02.16) समाज विज्ञानी और शिक्षाविद् शिव विश्वनाथन दलित छात्रों की आत्महत्या को लेकर अति गंभीर बात कहते हैं- “यह मामला दिखता है कि वि.वि. छात्र-छात्राओं के ख्वाबों को  किस तरह खत्म कर रहे हैं. खासकर दलितों के. उनके शिक्षकों की चुप्पी सब कुछ बयां कर रही है.” (इंडिया टुडे, 03.02.16) प्रत्येक शिक्षण संस्थान में द्रोणाचार्य मौजूद है. ओ.पी. सोनिक कहते हैं, “द्रोणाचार्य ने गुरु दक्षिणा में एकलव्य का अंगूठा मांग लिया था, पर आज के द्रोणाचार्य तो एकलव्यों को जान देने पर मजबूर कर रहे हैं.” (राष्ट्रीय सहारा 08.11.2011)
    रोहित वेमुला जैसी न जाने कितनी ही प्रतिभाएं हमारे शिक्षण केन्द्रों में जातिवाद के कारण अपनी जान गवां चुके हैं. इसकी एक झलक देख ही आत्मा चीत्कार करने लगती है. यहाँ उनका संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करना उल्लेखनीय भी है और समीचीन भी –
1. अगस्त 2007- आइआइएस, बंगलुरु में शोध छात्र अजय एस.चंद्रा ने आत्महत्या की.
2. जनवरी 2007- आइआइटी मुंबई में बी.टेक. अंतिम वर्ष के दलित छात्र एम.श्रीकांत की आत्महत्या.
3. जनवरी 2007- आइआइटी दिल्ली में दलित छात्र अंजनी कुमार ने आत्महत्या की.
4. फरवरी 2008- हैदराबाद विश्वविद्यालय में पीएचडी छात्र सेंथिल कुमार ने फेलोशिप बंद होने के चलते आत्महत्या का कदम उठाया.
5. जनवरी 2009- आइआइटी कानपुर एम.टेक. अंतिम वर्ष की छात्रा जी.सुमन तथा इससे पूर्व यहाँ 2008 में प्रशांत कुरील ने आत्महत्या की.
6. मार्च 2010- एम्स, नयी दिल्ली के एमबीबीएस के अंतिम वर्ष के बाल मुकुंद भारती ने जातीय भेदभाव के चलते अपनी जान दे दी.
7. फरवरी 2011- आइआइटी रुड़की के दलित छात्र मनीष कुमार ने अपने उत्पीड़न से तंग आकर आत्महत्या की.
8. मार्च 2012- एम्स, नयी दिल्ली के आदिवासी छात्र अनिल कुमार मीणा ने फांसी लगाकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली.
9. 2013- आइआइटी दिल्ली के दलित छात्र राजविंदर सिंह ने आत्महत्या की.
10. नवम्बर 2013- हैदराबाद विश्वविद्यालय में पीएचडी छात्र एम.वेंकटेश ने कथित तौर पर भेदभाव से तंग आकर आत्महत्या कर ली. 
11. सितम्बर 2014- आइआइटी मुंबई में दलित छात्र अनिकेत अम्भोरे की संधिग्ध हालात में मृत्यु (आत्महत्या)
12. जनवरी 2016- हैदराबाद विश्वविद्यालय में पीएचडी छात्र रोहित वेमुला की फेलोशिप बंद होने के चलते आत्महत्या का कदम उठाया. जिसने पुरे देश को एक बार फिर पुनः हिलाकर रख दिया है और कई सवाल हमारे सामने खड़े कर दिये हैं. (इंडिया टुडे से साभार)

    उच्च अध्ययन केन्द्रों में हो रहे जातिगत भेदभाव को क्या माना जाए. यही कि आज मनुवादी डरे हुए हैं कि अगर दलित पूर्ण रूप से शिक्षित हो गये तो उनके लिए एक बड़ी चुनौती बन सकते हैं और इसमें कोई संदेह भी नहीं है. मनुवादियों का प्रयास है कि भारत में फिर कोई ‘अम्बेडकर’ का जन्म न हो जाए. सभी जानते हैं कि आजादी के बाद आरएसएस चाहता था कि ‘मनुस्मृति’ को आजाद भारत का नया संविधान घोषित किया जाए, परन्तु बाबा साहब डॉ भीमराव अम्बेडकर ने नये ढंग से समतावादी संविधान की रचना कर उनके प्रयोसों पर पानी फेर दिया. इसे देश का दुर्भाग्य के कहना चाहिए कि स्वंतत्रता के 69 वर्ष बाद भी मनुस्मृति के वैचारिक अवशेष मौजूद हैं, जो मनुवादियों को जातीय उत्पीड़न के लिए प्रेरित करते हैं. 
    विडम्बना है कि एक ओर जहाँ दलितों-आदिवासियों, मुस्लिमों का उच्च शिक्षा में प्रतिनिधित्व काफी कम है और दूसरी ओर दलित-आदिवासी-मुस्लिम बच्चे उच्च शिक्षा प्राप्त कर, उच्च शिक्षा में ही अपना कैरियर बनाने के सपने संजोये हैं. डॉ. अम्बेडकर के सपने को साकार करने के लिए दलित छात्र अपने जी-जान से जुटे हैं. अफ़सोस उनकी राह आसान नहीं है. आज यह मिथ्या सा लगता है कि शिक्षा नये विचारों को जन्म देती है और विचारों में परिवर्तन लाती है; क्योंकि जातिवादी पूर्वाग्रहों के चलते दलित उत्पीड़कों में न तो समतावादी नये विचार पैदा हो पाए हैं, न ही जातिवादी विचार बदले हैं और न ही शिक्षा से उनके जीवन की विषमतावादी धारा ही बदल पायी है. 
    उच्च शिक्षा में दलित छात्रों  के नामांकन से लेकर नियुक्ति तक के वास्तविक आंकड़े किसी से छिपे नहीं हैं. उच्च शिक्षण संस्थानों में उच्च पदों पर दलितों-आदिवासियों व मुस्लिमों की भागीदारी न के ही बराबर है. छात्रों के नामांकन की वास्तविक स्थिति जानने डीयू के दयाल कॉलेज के असिस्टेंट प्रोफेसर और एकेडमिक फोरम फॉर सोशल जस्टिस के अध्यक्ष केदार कुमार मंडल ने सुचनाधिकार में प्राप्त सूचनाओं में पाया कि “2010-11 सत्र में डीयू में दाखिले के करीब 50000 अनुसूचित जाति, जनजाति और ओबीसी समुदाय की सींटे खाली रह गयी और इनकों बाद में सामान्य वर्ग के छात्रों से भर दिया गया.” (इंडिया टुडे फरवरी 2016)  बाद में उनके सुप्रीम कोर्ट में अपील के बाद फैसला आया कि इन आरक्षित सीटों के लिए न्यूनतम कट-ऑफ जारी किया जाए. केदार कुमार मंडल के अनुसार “यहाँ नियुक्तियों में भी विसंगतियां हैं और इसके लड़ाई मैं अदालत में लड़ रहा हूँ.” ऐसा ही एक अन्य उदाहरण है- जेएनयू में भेदभाव की स्थिति को वही के छात्र बाल गंगाधर बताते हैं- “जेएनयू में पीएचडी कर रहे वंचित समुदाय के डेढ़ दर्जन छात्र हर साल बीच में ही पढाई छोड़ने के लिए मजबूर हो जाते हैं.” (इंडिया टुडे फरवरी 2016, 17)
    छात्रों के नामांकन हेतु प्रतिशतवार आंकड़े क्या कहते हैं – 4% अनुसूचित जनजाति, 13.5% अनुसूचित जाति, 35% ओबीसी, 85% सामान्य (राष्ट्रीय सहारा 30.01.2016) 
नियुक्ति के विषय में आंकड़े-

संस्थान का नाम 
अनुसूचित जाति 
अनुसूचित जनजाति

राष्ट्रीय सहारा 15.09.2012
आरक्षित पद 
वर्तमान स्थिति 
आरक्षित पद 
वर्तमान स्थिति 
AMU
283
01
142
0
DU
255
44
128
14
JNU
109
24
55
09
BHU
362
115
181
30

    एक ओर मनुष्य की मुक्ति शिक्षा प्राप्त करने पर मानी गयी है, दूसरी ओर जिस प्रकार दलित-आदिवासियों को शिक्षा से दूर रखने का षडयंत्र किये जा रहे हैं, क्या दर्शाता है? यही कि आज भी अपने को विकसित करने के लिए दलित वर्ग जो प्रयास कर रहा है उसकी राह बाधित है. वास्तव में अध्ययन स्थलों पर पसरा यह भेदभाव आने वाले समय में देश के लिए घातक साबित होगा, जिससे किसी का भी भला होने वाला नहीं है. इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद जैसे देश का दलित युवा (गैर दलित भी आंशिक रूप से शामिल हैं) इकठ्ठा होकर सड़कों पर आ रहे हैं और देश में छोटे-बड़े शहरों में न्याय के लिए झंडा उठाये हैं. 
    यह तो स्पष्ट हो ही चूका है कि उच्च शैक्षणिक परिसरों में दलित छात्रों को उपेक्षा, उत्पीड़न, अपमान और भेदभाव के अंतर्धारा को रोहित वेमुला की आत्महत्या ने एक बार पुनः सतह पर ला दिया है. साथ ही यह भी बता दिया है कि हमारे इन संस्थानों में कुछ भी ठीक नहीं हैं, वहां सांस्थानिक भेदभाव आज भी मौजूद है. इन आत्महत्याओं की पड़ताल करते हुए राजनीतिक विश्लेषक कुमार नरेंद्र सिंह लिखते हैं- “उच्च शिक्षण संस्थानों में भेदभाव के अनुभव, बहिष्कार और अपमान के चलते अधिकतर दलित छात्र आत्महत्या कर लेते हैं. इनका कारण भारतीय सामाजिक संरचना है, जो ऊँच-नीच पर आधारित सामाजिक दूरी के सिद्धांत पर आधारित है. दलितों को केवल एक पहचान में तब्दील कर देती है. उच्च शिक्षा संस्थानों में जातीय समूहों का अलग-अलग रहने की प्रवृत्ति सर्वव्यापी है. ऐसा जातीय दुराग्रह और जातीय दंभ से चलते होता है. बहुधा यह बंटवारा लिंग, धर्म, वर्ग, जाति, राष्ट्रीयता, क्षेत्र और नस्ल के आधार पर स्पष्ट भेदभाव पैदा होता है. परिसर का माहौल दलितों-गैर दलितों के बीच विभेद बनाये रखता है” अकादमिशियन अनूप सिंह ने आत्महत्याओं के कुछ मामलों का विश्लेषण करने पर पाया कि “इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि जातिगत भेदभाव ही वह कारण है, जिसके चलते हाशिये पर पड़े समूहों के छात्र आत्महत्या करने को विविश हैं. इसमें बहुत बड़ी या मुख्य भूमिका संस्थान के उच्च जाति के शिक्षक व छात्र उत्तरदायी हैं.” शिक्षाविद् शिव विश्वनाथन दलित छात्रों की आत्महत्या को लेकर अति गंभीर बात कहते हैं- “यह मामला दिखता है कि वि.वि. छात्र-छात्राओं के ख्वाबों को  किस तरह खत्म कर रहे हैं. खासकर दलितों के. उनके शिक्षकों की चुप्पी सब कुछ बयां कर रही है.” (इंडिया टुडे, 03.02.16) उक्त दोनों विद्वानों के कथनों यह स्पष्ट है कि उच्च जाति के शिक्षक उच्च शिक्षा में हो रहे जातीय भेदभाव के काफीहद तक जिम्मेदार हैं. ऐसी क्रूर और दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएँ होने के बाद भी जिस प्रकार शिक्षक मौन साधे बैठे रहते हैं, सच में यह बहुत कष्टकारी स्थिति है. जिनके हाथों में देश के भविष्य को सुरक्षित महसूस करना चाहिए उन्हीं की छत्रछाया में उनके साथ दोगला व्यव्हार किया जा रहा है. यह अवस्था संतोषजनक तो कतई नहीं कही जा सकती. आज 21वीं सदी में भी हमारे यहाँ कक्षाओं में छात्रों से उनकी जाति पूछा जाना आम बात है.
शिक्षक युवाओं को भविष्य के लिए तैयार करता है. भारत के पूर्व राष्ट्रपति और बच्चों के चहेते डॉ. अब्दुल कलाम का मानना है कि “शिक्षकों का महान ध्येय युवा मस्तिष्कों को तेजस्वी बनाना है.” (अदम्य साहस, राजकमल प्रकाशन) सत्य ही है, शिक्षक पर समाज से हर बुराई दूर करने की खास जिम्मेदारी होती है (यदि वह समझे) परन्तु जब उसके सामने इतना सब अनैतिक हो और वह चुप रहता है या वह स्वयं भी छात्र शोषण का जिम्मेदार हो, तो हृदय को कष्ट बड़ा कष्ट पहुचता है. क्या हो गया है शिक्षकों को? क्या जाति ही एक व्यक्ति की पहचान है. एक विद्यार्थी मात्र विद्यार्थी होता है, उसकी कोई जाति नहीं होती. सिर्फ मोटी-मोटी तनख्वाह लेकर अपना स्टेट्स बढ़ाना ही सब है. समाज के प्रति नैतिक जिम्मेदारी से मुख मोड़ना कहाँ की समझदारी है. परन्तु वे बड़े-बड़े सेमिनारों और संगोष्ठियों में जोर-जोर से नैतिकता पर चिल्लाते हुए ज़रूर दिख जायेंगे और धरातल पर वही ढाक के तीन पात. कॉलेज हो या यूनिवर्सिटी शिक्षक के हाथ में बहुत कुछ होता है. लेकिन उनकी उदासीनता का परिणाम रोहित-सेंथिल जैसे होनहार छात्रों को अपनी जान देकर चुकाना पड़ता है. आज भी हालत हमारे नियन्त्रण में हैं. आज भी शिक्षक अपने छात्रों के आदर्श होते हैं. यदि किसी भी संस्थान के शिक्षक एकजुट होकर सभी बच्चों के दिलों-दिमाग से जातीय वैमनस्य को दूर करने के सही अर्थों में प्रयास करें, तो किसी भी छात्र के मन में कभी भी किसी भी विषम परिस्थिति में आत्महत्या करने का विचार नहीं आएगा. ऐसा पूर्ण विश्वास के साथ कहा जा सकता है. देश के सभी शिक्षण संस्थानों को जातिगत, लिंग, वर्ण, वर्ग भेद के विरुद्ध समय रहते सचेत हो जाना चाहिए. नहीं तो उस भावी गंभीर स्थिति से सभी परिचित है. 
भविष्य में कोई भी दलित छात्र या किसी भी छात्र की आत्महत्या के पीछे संस्थान की भूमिका न हो, ऐसे प्रयास शीघ्र अति शीघ्र करने होंगे. राजनीतिक लोग केवल अपना उल्लू सीधा करते हैं. अत: उनके भरोसा छोड़कर शिक्षक जगत और युवा पीढ़ी को जातिगत भेदभाव दूर करने के लिए स्वयं ही आगे आना होगा. इस विषय पर यू.जी.सी. के पूर्व चेयरमैन डॉ. सुखदेव थोराट का महत्वपूर्ण सुझाव है, जिस पर सरकार से लेकर तमाम अध्ययन केन्द्रों से जुड़े विद्यार्थी, शिक्षक एवं अन्य सभी कर्मचारियों को मिलकर कार्य करना होगा. उन्होंने कहा कि “ज़रूरी है कि कॉलेजों/विश्वविद्यालयों में भेदभाव के खिलाफ अलग से प्रावधान किए जायें. इनमे दंड की व्यवस्था हो. लैंगिक भेदभाव और रैगिंग मामले की तरह जातिगत आधार पर होने वाले भेदभाव के लिए भी दिशानिर्देश जारी किए जायें.” (राष्ट्रीय सहारा 30.01.16)
ऐसा कहना उचित नहीं होगा कि उक्त दशा में कोई सुधार नहीं हुए हैं. निश्चय ही सुधार तो हुआ है, परन्तु जाति अभी भी ज्यों की त्यों बनी है. आप हर क्षेत्र में देख सकते हैं. दलित-वंचित समुदाय के छात्रों के अन्य छात्रों, अध्यापकों एवं अध्ययन केन्द्रों के प्रशासकों के साथ सामान्यत: यह देखने को मिल ही जाता है. अभिप्राय है कि हाशिये पर मौजूद छात्रों की समस्याओं का निराकरण करने हेतु हर ओर से कोशिशें करनी होगी. जातीय भेदभाव के विरुद्ध वैधानिक प्रावधान, नैतिक-सामाजिक शिक्षा के साथ शिक्षा के जरुरतमंदों की हर जरुरी मदद की जाए और सबसे अंतिम और महत्वपूर्ण बात हमारे सभी सरकारी/गैर सरकारी उच्च शैक्षणिक संस्थानों में निर्णय लेने वाली कमेटियों में दलितों/ओबीसी की भागीदारी सुनिश्चित होनी चाहिए तथा सभी इकाइयों में दलित छात्रों/शिक्षकों को प्रतिनिधित्व दिया जाए, जिससे उनका संस्थान के संचालन में भागीदारी हो. दलितों की इस भागीदारी से ही भविष्य में उच्च शैक्षणिक केन्द्रों में जातीय भेदभाव को काफहद तक खत्म किया जा सा सकता है.
इस लेख का अंत महान दार्शनिक संत ‘ओशो’ के वाक्य से करना उचित भी होगा और समीचीन भी –
“जो मित्र नहीं है, वो गुरु कैसे हो सकता है.”

धन्यवाद.....

1 comment:

  1. बिल्कुल सही है बहुत अच्छा लेख है ऐसा ही होता आया है दलितो, आदिवासियो, मुस्लिम, छात्रो के साथ इतना पढ़ने के बाद भी बेरोजगार बैठे है ।

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