Thursday, February 20, 2020

कालजयी पत्रिका


कुछ कालजयी रचना या पुस्तक ऐसी होती हैं, जिनकी प्रासंगिकता कभी समाप्त नहीं होती। ऐसे ही कुछ कालजयी पत्रकारिता भी अपने समय की तमाम बंधनों को तोड़कर भावी युगों के लिए प्रासंगिक बनी रहती है। 20वीं सदी के तीसरे-चौथे दशक में निकलने वाली 'चांद' पत्रिका में संकलित रचनाएं ऐसी ही कालजयी रचनाएं हैं। यदि कहूँ कि इन रचनाओं ने हिन्दी साहित्य के इतिहास के सृजन में महती भूमिका निभाने के साथ भाषा के रूप में भी परिवर्तन किया, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। समय समय पर 'चांद' के अनेक विशेषांक निकलते रहे, जिनमें तत्कालीन समय को परिभाषित करने का निरंतर प्रयास होता रहा। उस समय के मुद्दों को प्रमुखता से उठाया और उनका विश्लेषण किया। 'चाँद' के प्रकाशन काल अनिश्चितताओं का समय था। एक तरफ हम अंग्रेजों की गुलामी से आज़ादी के लिए छटपटा रहे थे वही दूसरी ओर जातीय भेदभाव से मानवता शर्मसार हो रही थी (जो आज भी वैसे). उक्त दोनों की तत्कालीन समस्या पर 'चाँद' ने दो अंक निकाले 'फांसी अंक' व 'अछूत अंक'.
गांधी जी के प्रभाव में 'अछूत अंक' तथा क्रांतिकारियों के सम्मान में उसने 'फांसी अंक' संयोजित किया।
चाँद का यह 'अछूत अंक' मई 1927 में पहली बार निकला जिसका पाँचवा संस्करण 'राजकमल प्रकाशन' दिल्ली द्वारा किया गया। पहला अंक पंडित नन्दकिशोर तिवारी ने इस अंक का संपादन किया। इस अछूत अंक के मुख्य पृष्ठ पर एक ऐसी तस्वीर छपी है जिसमें उसके संपादक प्रेस के दलित कंपोजीटर के साथ एक थाल में भोजन कर रहे हैं। उस समय इसका कितना विरोध हुआ होगा, इसकी कल्पना सहज की जा सकती है। यह 'अछूत अंक' मिशन पत्रकारिता का अन्यतम उदाहरण है।

इस अंक की सामग्री का संकलन कुछ इस प्रकार किया गया है कि अछूत दलित समस्या का कोई भी पहलू न छूट पाये। यह अंक अनेक खंडों में बंटा है तथा इसमें प्रकाशित लेख व टिप्पणियां में दलित समस्या के उत्स की विस्तार से पहचान कर समाधान के रास्ते बताएं गये हैं।

प्रेमचंद की कालजयी रचना 'मन्दिर' तो सभी को याद है, यह कहानी इसी अंक में छपी थी। दलित साहित्य-चेतना के विस्तार के इस काल में चाँद का 'अछूत अंक' मील का पत्थर है। निसंदेह इसकी सामग्री दलित साहित्य व दृष्टि को सही दिशा में ले गयी है।

धन्यवाद

1 comment:

  1. बहुत अच्छी पुस्तक है ।

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