तेजस पूनिया
पूर्व छात्र स्नातकोत्तर उत्तरार्द्ध
राजस्थान केन्द्रीय विश्वविद्यालय
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मध्ययुगीन साधकों में विशिष्ट स्थान के अधिग्राही हैं रैदास जिन्हें हिंदी साहित्य में संत रविदास के नाम से भी जाना जाता है । मौखिक रूप से रैदास और लिखित रूप से रविदास के नाम से विख्यात इन संत के जन्म को लेकर तथा जन्मस्थान तक को लेकर एक लम्बी बहस छिड़ी है । किन्तु फिर भी कुछ विवादों के पश्चात इनका जन्म सन् 1398 में राजस्थान राज्य में स्वीकार किया जा सकता है । हालांकि कुछ विद्वानों के अनुसार रैदास नाम से विख्यात संत रविदास का जन्म सन् 1388 को बनारस में हुआ था । रैदास कबीर के समकालीन हैं और कबीर की ही भांति रविदास भी संत कोटि के प्रमुख कवियों में विशिष्ट स्थान रखते हैं । मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा जैसे दिखावों में बिल्कुल भी विश्वास न रखने वाले इन क्रांतिकारी संत को कबीर ने ‘संतन में रविदास’ की संज्ञा दी है । उन्होंने व्यक्ति की आंतरिक भावनाओं और आपसी भाईचारे को ही सच्चा धर्म मानते हुए अपनी रचनाओं में सरल, व्यावहारिक ब्रजभाषा का प्रयोग किया हैं । जिसमें अवधी, राजस्थानी, खड़ी बोली और उर्दू-फ़ारसी के शब्दों का भी मिश्रण है । उदाहरण के लिए ये दो रचना देखें-
अब कैसे छूटे राम रट लागी।
प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी, जाकी अँग-अँग बास समानी।
प्रभु जी, तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा॥
प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती।
प्रभु जी, तुम मोती, हम धागा जैसे सोनहिं मिलत सोहागा॥
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प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी, जाकी अँग-अँग बास समानी।
प्रभु जी, तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा॥
प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती।
प्रभु जी, तुम मोती, हम धागा जैसे सोनहिं मिलत सोहागा॥
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जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात।
रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।।
रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।।
रैदास कनक और कंगन माहि जिमि अंतर कछु नाहिं।
तैसे ही अंतर नहीं हिन्दुअन तुरकन माहि।।
तैसे ही अंतर नहीं हिन्दुअन तुरकन माहि।।
हिंदू तुरक नहीं कछु भेदा सभी मह एक रक्त और मासा।
दोऊ एकऊ दूजा नाहीं, पेख्यो सोइ रैदासा।।
दोऊ एकऊ दूजा नाहीं, पेख्यो सोइ रैदासा।।
रैदास अथवा संत रविदास कबीर के समसामयिक कहे जाते हैं । मध्ययुगीन संतों में रैदास का महत्वपूर्ण स्थान है । अत: इनका समय सन 1398 से 1518 के आस पास का रहा होगा और ऐसे ही कुछ साक्ष्यों के आधार पर रविदास का चर्मकार जाति का होना सिद्ध होता है-
‘नीचे से प्रभु आँच कियो है कह रैदास चमारा।’
रविदास का विश्वास था कि ईश्वर की भक्ति के लिए सद-आचरण का पालन, परहित-भावना तथा सद्- व्यवहार का पालन करना सबसे आवश्यक तथा उसे प्राप्त करने की पहली सीढी है । अभिमान त्याग कर दूसरों के साथ व्यवहार करने पर और नम्रतापूर्वक शिष्ट गुणों का समावेश करते हुए हुए उन गुणों का विकास करने पर उन्होंने अधिक बल दिया है। उन्होंने अपने एक भजन में कहा है-
‘कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै।
तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।’
उनके विचारों का आश्य यही है कि ईश्वर की भक्ति बड़े भाग्य से प्राप्त होती है । अभिमान से न्यून रहकर काम करने वाला व्यक्ति ही जीवन में सफ़ल रहता है जैसे कि कोई एक जानवर शक्कर के कणों को चुनकर खाने में असफ़ल रहता है, जबकि वहीं दूसरी ओर शरीर में बहुत ही मामूली होने पर भी ‘पिपीलिका’ अर्थात् चींटी इन कणों को आसानी से चुन लेती है । इसी प्रकार अभिमान शून्य रहकर विनम्रतापूर्वक आचरण करने वाला मनुष्य ही ईश्वर का भक्त हो सकता है । क्रांतिकारी संत रविदास ने सत्य को अनुपम और अनिर्वचनीय कहा है । यह सत्य शिव की भांति सुंदर भी है और सर्वत्र एक रस भी । इसकी सुंदरता जल में रहने वाली तरंगों के समान है जिसमें सारा विश्व निहित रहता है । यह नित्य, निराकार तथा सबके भीतर विद्यमान रहने वाला है और साधक को उस निराकार के चरणों में अपना सर्वस्व अर्पण कर देने से ही उसे लक्ष्य की सिद्धि प्राप्त करने वाला भी ।
यदि इतिहास में मुड़कर देखें तो हम पायेंगे कि मध्ययुगीन इतिहास के संक्रमण काल में जन्मे रविदास ब्राह्मणों की पशु समान दूसरों से व्यवहार करने की मनोवृत्ति से दलित, उपेक्षित तथा पशुवत सा जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य थे । यह सब उनकी मानसिकता को उद्वेलित करता था और रविदास की समन्वयवादी चेतना सम्भवत इसी का परिणाम है । उनकी स्वानुभूत चेतना ने भारतीय समाज में जागृति का संचार तो किया ही साथ ही उनके मौलिक चिन्तन ने शोषित और उपेक्षित शूद्रों में आत्मविश्वास का संचार भी किया । परिणामत वे ब्राह्मणवाद की प्रभुता के सामने साहसपूर्वक अपने अस्तित्व की घोषणा करने में सक्षम हो पाए । मानवता की सेवा में अपना सर्वस्व समर्पित कर देने वाले महान संत रविदास के मन में सभी धर्मों के लिए एक सा आस्था भाव था । उनके समकालीन कबीर की वाणी में हम जहाँ आक्रोश की अभिव्यक्ति को देखते हैं, वहीं दूसरी ओर रविदास के काव्य में रचनात्मक दृष्टि। इस तरह इन दोनों की अलग-अलग धर्म दृष्टि और समानता का भाव होने के बावूजद भी सम्पूर्ण मानवता को एक मंच पर लाने का प्रयास उन्हें सर्वकालिक और प्रासंगिक भी बनाता है ।
वर्णाश्रम धर्म को समूल नष्ट करने का संकल्प, कुल और जाति की श्रेष्ठता का मिथ्या भ्रम इस संत द्वारा अपनाये गए समन्वयवादी मानवधर्म का ही अंग है जिसे उन्होंने मानवतावादी समाज के रूप में संकल्पित किया । संत रविदास के जाति तथा वर्णाश्रम आधारित दोहे-
जन्म जात मत पूछिए, का जात अरु पात।
रविदास पूत सभ प्रभ के कोउ नहिं जात कुजात।।
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‘वर्णाश्र अभिमान तजि, पद रज बंदहिजासु की।
संदेह- ग्रन्थि खंडन-निपन, बानि विमुल रैदास की।।’
आज एक लंबा इतिहास और शताब्दी गुजर जाने के बाद भी वर्तमान समय में संत रविदास के उपदेश समाज के कल्याण तथा उत्थान के लिए लाभदायी प्रतीत होते हैं तथा उन्हें एक सही दिशा प्रदान करने का कार्य करते हैं । उन्होंने अपने आचरण तथा व्यवहार से भी यह प्रमाणित कर दिखाया है कि मनुष्य अपने जन्म तथा व्यवसाय के आधार पर ही महान नहीं होता अपितु विचारों की श्रेष्ठता, समाज के हित की भावना से कार्य करने वाला तथा सद्- व्यवहार जैसे गुण मनुष्य को महान बनाने में सहायक होते हैं । इस बात पर कबीर का एक दोहा याद आता है-
‘जाति न पूछो साधू की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का पड़ी रहन दो म्यान।।’
संत रैदास के यही गुण उन्हें संत से क्रांतिकारी संत रविदास बनने को मजबूर करते हैं । रैदास उन महान संतों में अग्रणी थे, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने में महत्वपूर्ण योगदान किया । इनकी रचनाओं की विशेषता लोक-वाणी का अद्भुत प्रयोग रहीं हैं जिससे जनमानस के मस्तिष्क पर अमिट प्रभाव पड़ा है ।
मधुर एवं सहज इस संत की वाणी ज्ञानाश्रयी होते हुए भी ज्ञानाश्रयी एवं प्रेमाश्रयी शाखाओं के मध्य सेतु की तरह काम करती है इसका प्रबल उदाहरण उनका गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी उच्च-कोटि के विरक्त एवं संत स्वभाव होना है । ज्ञान एवं भक्ति के उच्च पद को सुशोभित करने वाले संत रविदास ने समता और सदाचार पर बल दिया । वे खंडन-मंडन की प्रक्रिया में विश्वास नहीं करते तथा सत्य को शुद्ध रूप में एवं सत्य रूप में ही प्रस्तुत करना उनका ध्येय था । यही कारण है कि उनका प्रभाव आज भी भारत में दूर-दूर तक देखने को मिलता है और उनके इस मत का पालन करने वाले उनके अनुयायी रैदासी या रविदासी कहलाते हैं । संत रविदास की विचारधारा और सिद्धांत संत-मत की परम्परा का अक्षरश पालन करते दिखाई देते हैं । रविदास ने भक्ति के लिए परम् वैराग्य को अनिवार्य तत्व माना और ‘यह परमतत्व एकरस तथा जड़ और चेतन दोनों में समान रूप से अनुस्यूत है । वह अक्षर है, अनीश्वर है और जीवात्मा के रूप में प्रत्येक जीव में विद्यमान भी । रविदास की साधनापद्धति का विवेचन जहाँ-तहाँ प्रसंगवश संकेतों के रूप में मिलता है । हालांकि विवेचकों, आलोचकों ने रैदास की इस साधना तथा भक्ति में भी ‘अष्टांग’ योग को भी खोज निकाला है ।
रविदास के महान व्यक्तित्व को देखकर किसी अनाम व्यक्ति कि कही हुई पंक्ति याद आती है । कि ‘जिस कौम का इतिहास नहीं होता, उस कौम का कोई भविष्य नहीं होता ।’ रविदास जी प्रारम्भ से ही क्रांतिकारी विचारधारा के थे। उन्होंने क्रांतिकारी संत कबीर की भांति ब्राह्मणों के चारों वेदों का खंडन किया तथा उन्हें व्यर्थ कि किताबें बताया । उन्होंने ब्राह्मण धर्म के सभी रीति-रिवाजों पूजा-पाठ आदि हर ब्राह्मणी कर्मकांड का तर्क के साथ खंडन भी किया । बहुजन समाज को अंकित करते हुए संत रविदास कहते हैं कि- केवल बहुजन समाज के लोग ही असल में भारत के शासक रहे हैं और सिन्धु सभ्यता से लेकर आज तक भी उनका यह कथन जायज प्रतीत होता है । उन्होंने बहुजनों को अपने उपदेशों के माध्यम से शिक्षा देना शुरू किया तथा उपअक्षरों की गुरुमुखी लिपि बनाई । उसी लिपि में अपनी बाणी की रचना भी की । संत रैदास की बानियों से ही ऐसा आभास होता है कि उन्होंने एक ऐसे राज्य की स्थापना करनी चाही जहाँ ऊँच-नीच, शोषण आदि का कोई नाम न हो । गुरु रैदास के वास्तव में कोई गुरु नहीं थे, क्योंकि किसी बहुजन को आज तक इस भारत में किसी ने अपना शिष्य नहीं माना, न ही शिक्षा दी इसके बरक्स उन्हें हमेशा गुलाम बनाये रखने की मानसिकता को लेकर शिक्षा से भी वंचित रखा गया । इतिहास भी इस बात का गवाह तथा साक्षी रहा है कि वाल्मीकि से लेकर डॉ० अम्बेडकर तक किसी भी बहुजन संत ने गुरु धारण नहीं किया । हिन्दू धर्म के तो वे प्रखर विरोधी स्वभाव में नजर आते हैं । शायद इसीलिए उनकी बाणी में हिन्दू धर्म या उससे सम्बन्धित किसी धर्म, वेदों आदि की छवि नजर नहीं आती ना ही कहीं उनका प्रभाव लक्षित होता है । उन्होंने स्पष्ट कहा कि किसी भी जाति या वर्ण विशेष में जन्म लेने से कोई छोटा या बड़ा नहीं हो जाता और उन्होंने मंदिरों, अवतारों, त्रिमूर्ति आदि सभी को इसीलिए उन्होंने शायद झूठा और धोखा बताया ।
गुरु रैदास कहते हैं कि “बिन देखे उपजे नहीं आशा, जो देखू सो होय विनाशा ।” अर्थात जो दिखाई नहीं देता उसके प्रति भावना पैदा नहीं होती तथा जो दिखाई देता है वह नश्वर है और उसका अंत होना निश्चित है । रविदास जी ने भी भगवान बुद्ध की भांति सृष्टिकर्त्ता ईश्वर के अस्तित्व से इंकार किया । रैदास के समकालीन रहे फक्खड़ तथा सरल भाषा के कवि कबीर कुछ ज्यादा ही मुखर शब्दों में बोलते हैं कि- अगर ईष्ट देव का नाम जपने से ही फल मिलता हो तो रोटी-रोटी जपने मात्र से पेट भर जाना चाहिए था? इसीलिए वे केवल शुभ काम करने मात्र से ही दूसरों का भला होना मानते हैं । गुरु कबीर ने ब्राह्मणवादी व्यवस्था को चुनौती देते हुए स्पष्ट कहा कि “जो तू बामण बामणी जाया, तो अवर राह ते क्यों नहीं आया ।” अर्थात् तुम अगर ब्राह्मण के पेट से पैदा होने के कारण ही ब्राह्मण होने का दावा करते हो तो तुझे आम आदमी की तरह माँ के गर्भ से पैदा होने के बजाए किसी अन्य रास्ते से पैदा होना चाहिए था । रैदास और कबीर दोनों ने साथ मिलकर ब्राह्मणवादी सत्ता के विरुद्ध आन्दोलन चलाया और उनकी प्रखर आलोचना की साथ ही शुद्र जनों और उनके समाज के लोगों में वैचारिक चेतना जगाने का भी काम किया । सिखों के गुरु गुरुनानक देव भी संत रविदास के समकालीन अथवा समकक्ष माने जाते हैं और समाज में प्रचलित लोक- कथाओं आदि में प्रचलित किस्सों के आधार पर यह कहा जाता है कि वे उनसे मिले भी थे और भेंट के पश्चात उनकी बाणियों को वे अपने साथ संग्रहित करके भी ले गए थे । वे उन्हें अक्सर गुनगुनाया करते थे । सिखों के दशम् पिता गुरु गोविन्द सिंह ने अपने जीवनकाल में समस्त भारत के संतों की वाणी को “गुरु ग्रन्थ साहिब” संकलित करने का प्रयास किया था । जिसमें संत रविदास की बाणियों के भी लगभग 41 पदों को शामिल किया गया । यह आम धारणा तथा मान्यता है कि रैदास ने शतायु से भी अधिक जीवन व्यतीत किया । किन्तु इसके साथ ही यह विचारणीय तथ्य तथा प्रश्न बन जाता है कि उन्होंने सम्पूर्ण जीवन में क्या मात्र 41 पदों की ही रचना की ।
यह बात पूर्णत: अविश्वसनीय सी ज्ञात होती है कि जब गुरु नानक संत रविदास से मिले थे तब तक उन्होंने अपनी हत्या होने से पूर्व मात्र 41 पदों को ही उन्हें दे पाए थे। ऐसा माना जाता है कि इन पदों का संकलन लगभग डेढ़ सौ वर्षों बाद गुरु ग्रन्थ साहिब में किया गया था । किन्तु साथ ही यह प्रश्न उठता है कि शेष बाणियाँ कहाँ गई ? रविदास पर शोध करने वाले विद्वान चन्द्रिका प्रसाद का मानना है कि रविदास की हत्या करके उनकी समस्त बाणियों को उनकी चिता के साथ ही अग्नि की भेंट चढा दिया गया था । अगर उनकी हत्या नहीं की गई होती तो आज भी संभवत: उनकी शेष बाणियाँ अवश्य मिलती । जिसे पढ़कर यह देश तथा समाज युग- युगांतर तक लाभ उठाता और एक सफ़ल व्यक्ति बनकर अपने आप को अवश्य ही जान पाता ।
विचारणीय प्रश्न यह भी है कि यह आमियाना तथा घटिया काम किया किसने? जिसका सीधा सा उत्तर हो सकता है कि- ऐसा काम हो न हो उन्हीं लोगों ने किया होगा जिन्होंने उनके शरीर से ब्राह्मणों द्वारा पवित्र घोषित ‘जनेऊ’ निकाले । एक किंवदन्ती के अनुसार ब्राह्मणों व सामंतशाहों ने बड़ी चतुराई से मिलकर एक षड्यंत्र के तहत जनेऊ दिखाने के बहाने से उनके शरीर को राणा विक्रम सिंह जो उस समय चित्तौडगढ़ के राजाधिराज पद पर विराजमान थे। उनके भरे दरबार में सीना चीरकर उनकी जीवनलीला/ईहलीला समाप्त कर दी और उनके पार्थिव शरीर को मेघवालों (नीची जाति के लोगों) की बस्ती में भिजवा दिया गया । यह कहलवाकर कर कि तुम्हारे गुरु ने भीतर का जनेऊ दिखाकर सभी को चकित कर दिया और स्वेच्छा से शरीर त्याग दिया है । अपने पति संत रविदास की हत्या की खबर सुनते ही उनकी धर्मपत्नी लोना भी सदमे को बर्दाश्त न कर सकी और यह समाचार सुनते ही वे भी परलोक मार्ग को गमन कर गई ।
संत रैदास की हत्या के बारे में लेखक सतनाम सिंह ने अपनी पुस्तक में प्रमाणिक दस्तावेजों का उल्लेख करते हुए कुछ महत्वपूर्ण कारण जगजाहिर किए हैं । जिसमें गुरु रैदास द्वारा ब्राह्मणवादी व्यवस्था को चुनौती देना, मीराबाई को दीक्षित करना, वेदों, कर्मकांड आदि का खंडन करना तथा हरिजनों में राजनैतिक चेतना जाग्रत कर, राजमहलों में ब्राह्मणों के वर्चस्व को चुनौती देना आदि सर्वप्रथम कारण रहे । साथ ही लेखक सतनाम सिंह ने इस क्रांतिकारी गुरु की हत्या के घटनाक्रम का भी विस्तार से वर्णन किया है । इस क्रन्तिकारी गुरु के विचारों को अमली जामा पहनाने का कार्य वर्तमान के आजाद तथा आधुनिक भारत के पितामह डॉ० अम्बेडकर ने किया, जिसकी झलक आधुनिक भारत के संविधान में साफ़ दिखाई देती है ।
संत रैदास केविश्वास, पाखंड, कर्मकांड, जातिवाद, ब्राह्मणवाद की आलोचनास्वरूप उन पर करारी चोट करता दोहा-
रैदास एक ही बूंद से, भयो सब विस्तार।
मुर्ख है जो करे वर्ण-अवर्ण विचार।।
इसके माध्यम से संत रैदास उस कृष्ण को मुर्ख बता रहे हैं जो एक ग्वाला है और गोपियों संग रास-महारास रचाने वाला है । रविदास उसी को जो इंसान को अलग-अलग बांटता है, जो गीता जिसे कि श्रीमद्भाग्वद का भी दर्जा प्राप्त है उसी में वह इंसानों में ही भेदभाव कर उन्हें अलग-अलग वर्ण- अवर्ण जातियों में बांटता है । जबकि रैदास के अनुसार सभी इंसान एक ही है ।
रैदास हमारे राम जी दशरथ हजे सूत नाहीं।
राम रम रह्यो में, बसें कुतुम्भ माहीं।।
मेरा राम वह नहीं है जो दसरथ पुत्र है । मेरा राम तो मेरे रोम, रोम में है, मेरे कर्म में है। जैसे कबीर कहते हैं “मौको कहाँ ढूंढे से बंदे मैं तो तेरे पास में ।”
मोको कहाँ ढूंढे रे बंदे, मैं तो तेरे पास में
न तीरथ में न मूरत में, न एकांत निवास में
न मन्दिर में न मस्जिद में, न काबे कैलास में
मैं तो तेरे पास में बंदे, मैं तो तेरे पास में
न मैं जप में न मैं तप में, न मैं बरत उपास में
न मैं कौनो क्रिया करम में, नहिं जोग संस्यास में
नहिं पिंड में नहिं अंड में, न ब्रह्मांड आकाश में
न मैं प्रकटी भवंर गुफ़ा में, सब स्वासों की स्वांस में
खोजी होए तुरंत मिल जाऊं, पल भर की तलाश में
कहत कबीर सुनो भई साधो, मैं तो हूँ विश्वास में।
या फिर
जात जात के फेर में उलझ रहे सब लोग।
मनुष्यता को खा रहा, रैदास जात का रोग।।
जात-जात में जात है, ज्यों केले में पात।
रैदास मानस न जुड़ सके, जब तक जात न जात।।
संत रविदास इस दोहे में ब्राह्मणों, आर्यों की बनाई गई वर्ण-व्यवस्था, जाति व्यवस्था की कड़ी आलोचना करते हुए कहते हैं कि- “ब्राह्मणों का बनाया तथा प्रचारित किया गया जातिवाद नसों में जहर बनकर धीरे धीरे इस कदर फ़ैल गया है । जिसे देखो वह जाति के इस घिनौने दलदल में उलझा हुआ है । रविदास कहते हैं कि जाति एक प्रकार का रोग है, एक बीमारी है जो इंसान में घुन्न की तरह लगी हुई है और उसे धीरे-धीरे खाकर खोखला करती जा रही है । जिससे इंसानों के अंदर का इंसान तथा उनकी मानवीयता ही खत्म होती जा रही है । जाति से पनपे भेदभाव, छुआछूत, गैरबराबरी शोषण ने इंसानियत तथा मानवता को ही खत्म कर दिया है । उन्होंने इसी तरह एक अन्य दोहे में कहा है कि ब्राह्मणों ने इंसान को जातियों, उपजातियों तथा उसमें भी फिर अनगिनत जातियों में बाँट रखा है । रविदास जातियों के इस विभाजन की तुलना केले के कमजोर पेड़ से करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार केवल पत्तियों के सहारे से बने इस पेड़ में जैसे एक पत्ते को हटाने पर दूसरा पत्ता निकल आता है । ऐसे ही दूसरे को हटाने पर तीसरा, चौथा और क्रमशः पांचवा भी निकल आता है और इस प्रकार धीरे-धीरे पूरा पेड़ ही खत्म हो जाता है । ठीक उसी तरह इंसान विभिन्न हिस्सों में बंटा हुआ है । जातियों के इस विभाजन में इंसान आगे भी धीरे-धीरे बंटता ही चला जा रहा है पर जातियां है कि खत्म होने का नाम ही नहीं लेती, इंसान भले ही उसके कारण खत्म हो जाए । इसलिए रविदास कहते हैं कि जाति को खत्म किया जाना चाहिए क्योंकि इंसान तब तक जुड़ नहीं सकता, एक नहीं हो सकता, जब तक की जातियां चली नहीं जाती ।
सौ बरस रहो जगत में, जीवत रह कर करो काम।
रैदास करम ही धरम है, करम करो निष्काम।।
संत रविदास कहते हैं कि आप शतायु होने तक जीवित रहो या इससे भी कम या ज्यादा पर जब तक जीवित हो यहाँ रहकर काम करो । ब्राह्मणों के या किसी अन्य तरह की किसी मानसिकता वाले व्यक्ति के षड्यंत्र अथवा भक्ति के जाल में न उलझें क्योंकि भक्ति मूर्खों का काम है । ब्राह्मण तुम्हें भक्ति के नाम पर निठ्ठला और कामचोर बनाता चलता है तथा माला जपने और राम नाम जपने में ही उलझाए रखता है । वे आगे कहते हैं कि शुद्र और नीच समझी जाने वाली इन जातियों के पास पहले से ही धन का अभाव है और दूसरा ब्राह्मणों तथा स्वर्णवादियों ने मिलकर इन्हें खूब लूटा है, इसलिए आप जब तक जीवित हों मन लगाकर काम करें और काम का प्रतिफल भी पूरा लेवें । ब्राह्मणों अथवा उच्चवर्ग के इन लोगों के लिए कर्म किए जा फल की चिंता ना कर के जाल में न उलझें । जैसा की गीता में भी उच्चरित है-
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।” इस कथन को इन ब्राह्मणवादियों ने अपने हिसाब से ढाल कर, उसकी व्याख्या की है और दरअसल कर्म करने की प्रेरणा तथा भक्ति करने का तरीका भी उन्हीं से लिया है । हम विभिन्न श्लोकों में देखते हैं कि हिन्दू लोग या हिन्दू धर्म को मानने वाले लोग अपने ही देवी- देवताओं से प्रेरणा लेते हुए, शास्त्रों आदि में वर्णित इन मन्त्रों के द्वारा भी न मन्त्रों को जपने की प्रेरणा भी ये लोग अपने ही देवताओं से लेते हैं । जिस प्रकार हम अपने मिथकों, पुराणों आदि में देखते हैं- हनुमान जो एक बन्दर मात्र से ज्यादा नहीं है वह राम-राम जपता है और उसे यानी अपने ईष्ट को रिझाने के लिए सिंदूरी रंग में भी रंग जाता है । ठीक इसी प्रकार नारद नारायण-नारायण जपता है और फिर आजकल तो कई राधे-राधे भी जपते हैं । लेकिन एक सोचने की बात है कि इनके इस तरह नाम मंत्र जपने से आखिर हासिल क्या होता है? यह वाकई समझ से परे का प्रश्न है । मंत्र जपने की इस प्रक्रिया की तरह ही हिन्दुओं की एक अन्य प्रथा है । शिवलिंग को पूजने की, हालांकि संस्कृत भाषा में इस शब्द का अर्थ देखा जाए तो लिंग का अर्थ प्रतीक से लिया जाता है । लेकिन साधारण अर्थों में इसे कोई भी एकबारगी साधारण मनुष्य के लिंग के समान ही समझता है और फिर यह संस्कृत भाषा भी तो ब्राह्मणों की ही गाढ़ी हुई भाषा है । तो कौन जानता है? कि इसकी सच्चाई और इसके पीछे छिपे सटीक तथ्य को छिपाने की वजह से भविष्य में भी इसके नाम पर लोगों को लुटते रहने की धारणा से इसे संस्कृत में अर्थ तथा प्रतीक कह कर पुकारा जाने लगा हो? शिवलिंग पर आधारित एक कविता है नेहा नरुका की जो इस लिंग की भीतरी सच्चाई जानने का प्रयास करती उसकी पड़ताल करती दिखती कविता है -
ऐसा क्या किया था शिव तुमने?
रची थी कौन-सी लीला?
जो इतना विख्यात हो गया तुम्हारा लिंग
माताएँ यश, धन व पुत्रादि के लिए
पतिव्रताएँ पति की लंबी उम्र की खातिर
अच्छे घर-वर के लिए कुँवारियाँ
पूजती है तुम्हारे लिंग को
दूध-दही-गुड़-फल-मेवा वगैरह
अर्पित होता है तुम्हारे लिंग पर
रोली, चंदन, महावर से
काढ़ कर आड़ी-तिरछी लकीरें
सजाया जाता है उसे
फिर ढोक देकर बारंबार
गाती हैं आरती
उच्चारती हैं एक सौ आठ नाम
तुम्हारे लिंग को दूध से धोकर
माथे पर लगाती है टीका
जीभ पर रखकर
बड़े स्वाद से स्वीकार करती हैं
लिंग पर चढ़े हुए प्रसाद को
वे नहीं जानती कि यह
पार्वती की योनि में स्थित
तुम्हारा लिंग है,
वे इसे भगवान समझती हैं,
अवतारी मानती हैं,
तुम्हारा लिंग गर्व से इठलाता
समाया रहता है पार्वती योनि में,
और उससे बहता रहता है
दूध, दही और नैवेद्य...
जिसे लाँघना तक निषेध है
इसलिए वे
करतीं हैं आधी परिक्रमा
वे नहीं सोच पातीं
कि यदि लिंग का अर्थ
स्त्रीलिंग या पुल्लिंग दोनों है
तो इसका नाम पार्वती लिंग क्यों नहीं?
और यदि लिंग केवल पुरुषांग है
तो फिर इसे पार्वती योनि भी
क्यों न कहा जाए?
लिंग पूजकों ने
चूँकि नहीं पढ़ा 'कुमारसंभव'
और पढ़ा तो 'कामसूत्र' भी नहीं होगा
सच जानती ही कितना हैं...
हालाँकि उनमें से कुछ पढ़ी-लिखीं हैं
कुछ ने पढ़ी है केवल स्त्री-सुबोधिनी
वे अगर पढ़ती और जान पातीं
कि कैसे धर्म, समाज और सत्ता
मिलकर दमन करते हैं योनि का,
अगर कहीं वेद-पुराण और इतिहास के
महान मोटे ग्रंथों की सच्चाई!
रची थी कौन-सी लीला?
जो इतना विख्यात हो गया तुम्हारा लिंग
माताएँ यश, धन व पुत्रादि के लिए
पतिव्रताएँ पति की लंबी उम्र की खातिर
अच्छे घर-वर के लिए कुँवारियाँ
पूजती है तुम्हारे लिंग को
दूध-दही-गुड़-फल-मेवा वगैरह
अर्पित होता है तुम्हारे लिंग पर
रोली, चंदन, महावर से
काढ़ कर आड़ी-तिरछी लकीरें
सजाया जाता है उसे
फिर ढोक देकर बारंबार
गाती हैं आरती
उच्चारती हैं एक सौ आठ नाम
तुम्हारे लिंग को दूध से धोकर
माथे पर लगाती है टीका
जीभ पर रखकर
बड़े स्वाद से स्वीकार करती हैं
लिंग पर चढ़े हुए प्रसाद को
वे नहीं जानती कि यह
पार्वती की योनि में स्थित
तुम्हारा लिंग है,
वे इसे भगवान समझती हैं,
अवतारी मानती हैं,
तुम्हारा लिंग गर्व से इठलाता
समाया रहता है पार्वती योनि में,
और उससे बहता रहता है
दूध, दही और नैवेद्य...
जिसे लाँघना तक निषेध है
इसलिए वे
करतीं हैं आधी परिक्रमा
वे नहीं सोच पातीं
कि यदि लिंग का अर्थ
स्त्रीलिंग या पुल्लिंग दोनों है
तो इसका नाम पार्वती लिंग क्यों नहीं?
और यदि लिंग केवल पुरुषांग है
तो फिर इसे पार्वती योनि भी
क्यों न कहा जाए?
लिंग पूजकों ने
चूँकि नहीं पढ़ा 'कुमारसंभव'
और पढ़ा तो 'कामसूत्र' भी नहीं होगा
सच जानती ही कितना हैं...
हालाँकि उनमें से कुछ पढ़ी-लिखीं हैं
कुछ ने पढ़ी है केवल स्त्री-सुबोधिनी
वे अगर पढ़ती और जान पातीं
कि कैसे धर्म, समाज और सत्ता
मिलकर दमन करते हैं योनि का,
अगर कहीं वेद-पुराण और इतिहास के
महान मोटे ग्रंथों की सच्चाई!
औरत समझ जाए
तो फिर वे पूछ सकती हैं
संभोग के इस शास्त्रीय प्रतीक के -
स्त्री-पुरुष के समरस होने की मुद्रा के -
दो नाम नहीं हो सकते थे क्या?
तो फिर वे पूछ सकती हैं
संभोग के इस शास्त्रीय प्रतीक के -
स्त्री-पुरुष के समरस होने की मुद्रा के -
दो नाम नहीं हो सकते थे क्या?
वे पढ़ लेंगी
तो निश्चित ही पूछेंगी,
कि इस दृश्य को गढ़ने वाले
कलाकारों की जीभ
क्या पितृ समर्पित सम्राटों ने कटवा दी थी
क्या बदले में भेंटकर दी गई थीं
लाखों अशर्फियाँ,
कि गूँगे हो गए शिल्पकार
और बता नहीं पाए
संभोग के इस प्रतीक में
एक और सहयोगी है
जिसे पार्वती योनि कहते हैं
तो निश्चित ही पूछेंगी,
कि इस दृश्य को गढ़ने वाले
कलाकारों की जीभ
क्या पितृ समर्पित सम्राटों ने कटवा दी थी
क्या बदले में भेंटकर दी गई थीं
लाखों अशर्फियाँ,
कि गूँगे हो गए शिल्पकार
और बता नहीं पाए
संभोग के इस प्रतीक में
एक और सहयोगी है
जिसे पार्वती योनि कहते हैं
इस तरह हम देखते हैं कि वैदिक युग से आज तक चली आ रही इस भारतीय वर्णाश्रम व्यवस्था ने मानव जाति के साथ बहुत अन्याय किया है । छोटे-बड़े के नाम पर अलग-अलग सिद्धाँत बनाए गए । जिनका आज तक भी उसी परम्परा तथा रुढियों के साथ पालन किया जा रहा है और इन सिद्धाँतों के कारण सवर्ण और अवर्ण लोगों के बीच की सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक खाई इतनी गहरी हो गई कि उसे कम कर पाना नामुकिन सा प्रतीत होता है । भले ही इसके लिए कठोर से कठोरतम कानून बन गए हों । फिर भी उन कठोर कानून बनाने के बाद भी निम्न जातियों के साथ निरंतर बुरा बर्ताव किया जा रहा है । इसके कारण न जाने कितने दंगे आए दिन होते रहते हैं, इसके अलावा एक बात और कि न जाने कितने लोगों को आज भी मन्दिर में प्रवेश की अनुमति नहीं मिली है ।
भक्तिकालीन साहित्येतिहास में हम देखें तो पाते हैं कि इस समय के कवियों ने इस अमानवीय व्यवस्था के खिलाफ़ सबसे पहले आवाज़ बुलन्द की । राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक दृष्टि से निस्तेज इस मध्ययुग को स्वर्ण युग बनाया और इसका श्रेय भी निस्संदेह भक्तिकालीन संत कवियों और उनकी लोक चेतना को दिया जाना स्वभाविक है । भक्तिकालीन कवियों का संतकाव्य ईश्वर के नाम पर जातिगत और धार्मिक भेदभाव के विरूद्व की दुन्दुभी है । इसका एक उदाहरण हम देख सकते हैं कि वर्णाश्रम व्यवस्था के विरोधी रामभक्त कवि रामानंद ने अपने शिष्यों के माध्यम से रामभक्ति का प्रचार-प्रसार किया और वे स्वयं भले ही रामभक्त थे किंतु उनके शिष्यों में सगुण-निर्गुण उपासक दोनों थे, जिनमें बारह शिष्यों में प्रमुख कबीर और रविदास माने जाते हैं । कबीर और रविदास उदात्त मानवतावादी विचारधारा के उन कवियों में से थे जिन्होंने मध्यकालीन युग में गरीब और पिछड़े तथा जीवन में हताश हो चुके लोगों को अपनी बानी से प्रोत्साहित कर उनका मार्गदर्शन किया करते थे । वर्णभेद, जातिभेद एवं सांप्रदायिकता का विरोध और निर्गुण की उपासना आदि उनकी कुछ ऐसी समानताएँ है जो हमें कबीर और रविदास दोनों में ही समान रूप से देखने को मिलती हैं। ऐसा माना जाता है कि दोनों की पैदाइश काशी की थी और जाति से एक चमार तो दूसरा जुलाहा था । स्वयं जातिगत भेदभाव से पीड़ित होने के बावजूद भी दोनों ही कवियों ने छाती ठोककर अपनी जाति का उल्लेख अपनी बानियों में किया । इसीलिए तत्कालीन समय के कवियों की कविताएं ‘वसुधैव कुटुम्बकम' जो भारतीय परम्परा का प्राचीन सिद्वाँत है, पर आधारित है ।
अयं निज परोवेति गणना लघु चेतसाम।
उदार चरितानां तू वसुधैव कुटुम्बकम।।
जहाँ तत्कालीन समय में शूद्रों को मन्दिर प्रवेश पर मनाही थी और आज भी अमूमन वैसी ही स्थिति बनी हुई है । वहाँ कबीर और रविदास जैसे संतों ने मन्दिरों का केवल ही विरोध ही नहीं किया अपितु, उसमें रखी उन मूर्तियों का भी विरोध किया । जो सिर्फ़ सवर्णों की संपत्ति समान थी। दरअसल, इन दोनों ही क्रांतिकारी संतों का मानना था कि जब सबका रचियता एक है चाहे वह सवर्ण हो अवर्ण हो या हिन्दू और मुस्लमान, तब उस रचियता पर सबका समान अधिकार होना चाहिए । दरअसल, सांप्रदायिक सद्भाव का यह प्रयास उस समय की सबसे बड़ी ज़रूरत थी क्योंकि इन दोनों धर्मों के मालिक बने बैठे लोग एक-दूसरे के धर्म का न केवल दुष्प्रचार कर रहे थे बल्कि मन्दिर- मस्जिद भी तुड़वा रहे थे । हिन्दुओं में केवल सवर्णों के लिए ही ईश्वर पूजनीय था और शूद्रों के लिए सवर्ण पूजनीय थे । सदियों से चली आ रही इस जाति प्रथा की बुराईयों को पहचानकर उन्होंने कर्म के महत्व पर अधिक बल देने का प्रयास किया । इसलिए संत रविदास का मानना था कि -
जन्म जात कूँ छांडि करि, करनी जात परधान।
इह्यौ बेद को धरम है, करै रविदास बखान।।
रविदास के मानवीय धर्म के स्वभाव पर हिंदी साहित्य के महान आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का यह वक्तव्य एकदम सटीक बैठता है कि “अन्य संतों की तुलना में महात्मा रविदास ने अधिक स्पष्ट और जोरदार भाषा में कहा है ‘कर्म ही धर्म है ।’ उनकी वाणियों से स्पष्ट होता है कि भगवद्जन, सदाचार मय जीवन, निरहंकार वृत्ति और सबकी भलाई के लिए किया जाने वाला कर्म, ये ही वास्तविक धर्म है। इसके अलावा “झीनी झीनी बीनी चदरिया” में जो ध्वनि और मनुष्यवादी दृष्टि मौजूद है, उसमें कबीर ने सुर, नर और मुनि जनों को अपनी चदरिया ओढ़ाई ही नहिं है । जिस तार से उन्होंने चदरिया को बीना है उसी से उन्होंने ब्राह्मणवादी सोच को नंग-धड़ंग करके रख दिया है ।
“सो चादर सुर, नर, मुनि ओढ़ी, ओढ़ के मैली किन्हीं चदरिया।
दास कबीर जतन से ओढ़ी, जस की तस धर दीन्हीं चदरिया।।”
यही है सामान्य आदमी का सच जो कबीर जैसे जुलाहे की तरह ही अपने जीव को मिला नहीं होने देता ।”
यहाँ अहम तथा विचारणीय तथ्य यह है कि ब्राह्मणवादी विचारधारा के लोगों ने धार्मिक कर्मकांडों पर ही अधिक बल दिया और इसी का सहारा लेकर अस्पृश्यता और छुआछुत जैसा रोगों को फैलाया किन्तु संत रविदास ने इस पर भी विनम्रतापूर्वक शब्दों में ऐसा कठोर प्रहार किया है कि मनुस्मृति जैसे ग्रन्थों के सिद्धांतों की भी धज्जियाँ उड़ गई हैं । धर्म और मानवीयता की जहाँ हम बात करते हैं तो मै एक कविता के बहाने इसे और अधिक स्पष्ट करना चाहूँगा-
धर्म की सारी धज्जियां उड़ा कर रख दो
जो धर्म है तुम्हें उसे तुम स्वीकार करो
ना तुम हिन्दू रहो
ना मुस्लिम रहो
ना सिख
और ना ही
ईसाई
सारे गढ़ उखाड़ फेको
सभ्यता संस्कृति धर्म समाज
सब भूल जाओ
सहिष्णुता क्या है
क्या है असहिष्णुता
ये ना देखो तुम
ना ही ध्यान दो
देश की तमाम अर्थव्यवस्था की ओर
ना ही तुम्हारा कोई
कर्तव्य
ना ही तुम्हारा कोई
अधिकार
अधिकारों को ख्याल में भी ना सँजो प्यारे
अधिकार मांगो तो कर्तव्य भी रखो ध्यान में
ना तुम वीर हो ना ही कोई पीर फ़क़ीर
तुम मनुष्य बनो
और
केवल मनुष्य
तुम्हारी मनुष्यता के चर्चे होने चाहिए
थोड़ी संवेदनशीलता भी हो तो
क्या कहना
तुम हो केवल तुम
तुम और सिर्फ तुम्हारा भी हो सके
तो बना लो
किसलिए जानेमन गैर की बज़्मुशहर निभाते हो
किसलिए अहले उल्फ़त निभाते हो
कोई ना आया है ना आएगा
किसी की मानवीयता ज़िंदा नहीं
कोई भी धर्म चुनते रहो
या ना भी चुनो
गैर की बज़्मुशहर निभाते चलो बस
और केवल यही बाकी है
शायद अब
और जरुरी भी
जो धर्म है तुम्हें उसे तुम स्वीकार करो
ना तुम हिन्दू रहो
ना मुस्लिम रहो
ना सिख
और ना ही
ईसाई
सारे गढ़ उखाड़ फेको
सभ्यता संस्कृति धर्म समाज
सब भूल जाओ
सहिष्णुता क्या है
क्या है असहिष्णुता
ये ना देखो तुम
ना ही ध्यान दो
देश की तमाम अर्थव्यवस्था की ओर
ना ही तुम्हारा कोई
कर्तव्य
ना ही तुम्हारा कोई
अधिकार
अधिकारों को ख्याल में भी ना सँजो प्यारे
अधिकार मांगो तो कर्तव्य भी रखो ध्यान में
ना तुम वीर हो ना ही कोई पीर फ़क़ीर
तुम मनुष्य बनो
और
केवल मनुष्य
तुम्हारी मनुष्यता के चर्चे होने चाहिए
थोड़ी संवेदनशीलता भी हो तो
क्या कहना
तुम हो केवल तुम
तुम और सिर्फ तुम्हारा भी हो सके
तो बना लो
किसलिए जानेमन गैर की बज़्मुशहर निभाते हो
किसलिए अहले उल्फ़त निभाते हो
कोई ना आया है ना आएगा
किसी की मानवीयता ज़िंदा नहीं
कोई भी धर्म चुनते रहो
या ना भी चुनो
गैर की बज़्मुशहर निभाते चलो बस
और केवल यही बाकी है
शायद अब
और जरुरी भी
उनका तर्क बहुत ही सराहनीय, उचित तथा वाजिब प्रतीत होता है क्योंकि जब फूल, फल, पानी जैसी वस्तुएँ भी पवित्र नहीं रही तो सवर्ण-अवर्ण का भेद क्यों और किसलिए? और अगर निर्मल, स्वच्छ आदि जैसा कुछ हो सकता है तो केवल व्यक्ति के मन के भाव और संवेदनाएं जिनके लिए कोई जाति तत्व विशेष महत्व नहीं रखता, बाकी सब तो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जूठा हैं। सचमुच इन दोनों ही संतों ने उन औपचारिकताओं को अपनी कविता तथा काव्य के माध्यम से धर्म से दूर करना चाहा था जो पूजा-अर्चना को कठिन और अर्थहीन बनाती हैं, संत रविदास कर्मकांड को विशेष महत्व नहीं देते । उनकी आस्था उस धर्म एवं साधना पर नहीं है, जो केवल दिखावा है । इसीलिए वे मूर्ति पूजा, यज्ञ, पुराण, उपनिषद् कथाओं आदि की भी उपेक्षा करते हैं । उसकी दृष्टि में ईश्वर कर्मा है, सर्वव्यापक है, अर्न्तयामी है, सर्वशक्तिमान तथा सर्वशक्तिशाली होने के साथ-साथ भक्ति से प्रसन्न होकर दीन-दलितों का उद्धार करने वाला है । यह सच है कि इन दोनों संतों की भक्ति में नवधा भक्ति के गुण नहीं मिलते । क्योंकि इनका परमेश्वर तो निर्गुण निराकार जो है, लेकिन फिर भी इनकी भक्ति में जो भक्ति-भावना और मधुरता है वह सूर या तुलसी जैसे भक्तों से किसी मायने में कम नहीं लगती ।
प्रभुजी! तुम चंदन हम पानी, जाकी अंग अंग बास समानी
प्रभुजी! तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा
प्रभुजी! तुम दीपक हम बाती, जाकी जोकि बरै दिन राती
प्रभुजी! तुम मोती हम धागा, जैसे सोनहि मिलत सुहागा
प्रभुजी! तुम वामी हम दासा, ऐसी भक्ति करै रैदसा।
वस्तुत: रविदास और कबीर के व्यक्तित्व की तुलना फूलों के राजा कमल से की जा सकती है जो संसार रूपी मोय माया की गंदगी तथा कीचड़ में पैदा होकर भी उस सांसारिक गंदगी से दूर एवं बिना छुआ रहता है । वह न केवल उसे बिना छुआ रहता है अपितु अपनी सुन्दरता से उस तालाब को और सुंदर तथा दर्शनीय भी बनाता है । दरअसल क्रांतिकारी भावना से उद्धुत एवं प्रेरित संत रविदास और कबीर दोनों ही उस पुस्तकीय ज्ञान की निंदा तथा आलोचना करते हैं जिसका प्रयोग पाखंडी लोग अपने स्वार्थ हेतु अक्सर करते हुए दिखाई हैं । इन संतों ने मूर्ति वाले मन्दिर से बेहतर मन्दिर मन को बताया है जिसमें प्रज्जवलित जोत सच्ची भावों वाली है तथा उस अप्रतिम रूप ज्योति से परमेश्वर की दिन-रात आरती की जानी चाहिए तथा उससे सक्षात्कार किया जाना चाहिए ।
भारतीय समाज को शोषण मुक्त बनाने की कोई भी क्रान्तिकारी परियोजना जाति प्रश्न को छोड़कर नहीं बनायी जा सकती । इस धारणा को सिरे से खारिज करने के पर्याप्त आधार है । पहले सामाजिक-राजनीतिक धरातल पर कुछ सुनिश्चित सचेतन प्रयासों से जाति-व्यवस्था को समाप्त किया जाना चाहिए, इसके बाद ही जनता के विभिन्न वर्गों की क्रान्तिकारी लामबन्दी सम्भव हो सकती है । इसके विपरीत, यह धारणा भी उतनी ही गलत है कि वर्गों की क्रान्तिकारी लामबन्दी और सर्वहारा क्रान्ति की प्रक्रिया जाति-व्यवस्था को स्वतः समाप्त कर देगी, अतः यह प्रश्न अलग से कोई अहम मुद्दा बनता ही नहीं है । हमारी यह स्पष्ट धारणा है कि सर्वहारा क्रान्ति की तैयारी की प्रक्रिया जाति-आधारित उत्पीड़न के विविध रूपों और उनकी कारक-वाहक संस्थाओं को स्पष्ट निशाना बनाये बिना आगे बढ़ ही नहीं सकती, इसके बिना जातियों में बँटी हुई और सामाजिक पार्थक्य की शिकार व्यापक मेहनतकश जनता के विभिन्न वर्गों की चेतना का क्रान्तिकारीकरण और लामबन्दी सम्भव नहीं साथ ही, क्रान्ति के हरावलों को जाति-उन्मूलन की एक ऐतिहासिक-वैज्ञानिक, तर्कसंगत परियोजना प्रस्तुत करनी होगी, जो भले ही दीर्घकालिक हो, पर जिसके कुछ ठोस तात्कालिक कार्यभार भी हों । हाँ, इतना तय है कि जाति-व्यवस्था के अन्तिम तौर पर, समूल नाश के लिए, सर्वहारा राज्य की स्थापना के बाद भी, उत्पादन-सम्बन्धों के समाजवादी रूपान्तरण और समाजवादी सामाजिक-राजनीतिक-शैक्षिक-सांस्कृतिक ढाँचे के क्रमशः उन्नततर होते जाने की सुदीर्घ प्रक्रिया के साथ-साथ विचार और संस्कृति के धरातल पर भी सतत क्रान्ति की प्रक्रिया चलानी होगी ।
लेकिन यहीं पर हम परवर्ती मध्यकाल में आये कुछ ऐसे बदलावों की ओर ध्यान केन्द्रित करना चाहेंगे जो उपनिवेशीकरण न हो पाने की स्थिति में पूँजीवादी विकास की ऐसी सम्भावनाओं के द्वार खोल सकते थे, जो जाति-व्यवस्था को भी विघटन की दिशा में धकेल सकती थीं । इस मुद्दे की प्रायः या तो अनदेखी की गयी है या फिर अधूरी-असन्तुलित व्याख्याएँ की गयी हैं । अग्रणी मार्क्सवादी इतिहासकारों के बीच आज इस स्थापना पर आम सहमति है कि एक सापेक्षतः अलग-थलग ईकाई होने के बावजूद भारतीय गाँवों के जनसमुदाय में श्रेणी-विभाजन और स्तर-विन्यासीकरण मार्क्स की सोच से बहुत अधिक था और वर्ग-विभेद जनित टकरावों की आन्तरिक गति मौजूद थी । व्यक्तिगत अधीनस्थता सामूहिक अधीनस्थता के साथ विविध रूपों में जुड़ी हुई थी। ऐसी व्यक्तिगत अधीनस्थता का मुख्य कारण जाति-व्यवस्था ही थी जिसने ग्रामीण मजदूरों का एक विशाल वर्ग संघटित किया था ।
भारतीय समाज, विशेषकर हिंदुओं में जाति के प्रश्न बहुत पुराने हैं । यह ऐसी हकीकत है जिसके कारण हिंदू धर्म को अनेकानेक आलोचनाएं झेलनी पड़ी हैं । इसका सहारा लेकर कथित ऊंची जातियां शताब्दियों से निम्नस्थ जातियों का शोषण करती आई हैं । इस कारण कुछ आलोचक जाति–प्रथा को भारतीय समाज का कलंक मानते हैं । वे गलत नहीं हैं । आज भी समाज में जो भारी असमानता और ऊंच–नीच है, आदमी–आदमी के बीच गहरा भेदभाव है । जाति उसका बड़ा कारण है । समाजार्थिक समानता के लक्ष्य की यह आज भी सबसे बड़ी बाधा है । जातीय उत्पीड़न के शिकार समाज के दो–तिहाई से अधिक लोग, निरंतर इसकी जकड़बंदी से बाहर आने को छटपटाते रहे हैं । यदा–कदा उन्हें आंशिक सफलता भी मिली है । मगर आत्मविश्वास की कमी और बौद्धिक दासता की मनःस्थिति उन्हें बार–बार कथित ऊंची जातियों का वर्चस्व स्वीकारने को बाध्य करती रही है । भारतीय समाज में जाति–विधान इतना अधिक प्रभावकारी है कि सिख और इस्लाम जैसे धर्म भी, जिनमें जाति के लिए सिद्धांततः कोई स्थान नहीं है । इसके प्रभाव से अछूते नहीं हैं । इनमें सिख धर्म का तो जन्म ही जाति और धर्म पर आधारित विषमताओं के प्रतिकार–स्वरूप हुआ था, जबकि इस्लाम की बुनियाद बराबरी और भाईचारे पर रखी गई थी । भारत में आने के बाद इस्लाम पर भी जाति–भेद का रंग चढ़ चुका है ।
जाति आधारित विभाजन पूरी तरह अमानवीय है । यह मनुष्य की नैसर्गिक स्वतंत्रता में अवरोध उत्पन्न करता है । जाति और वर्ण की संकल्पना सामान्य मनोविज्ञान के भी विपरीत है, जिसके अनुसार जन्म के समय सभी शिशु एक समान होते हैं । उनका मस्तिष्क कोरी सलेट जैसा होता है । एकदम साफ, इबारत उस पर बाद में लिखी जाती है । ब्राह्मण और शूद्र के शिशुओं को यदि एक साथ, एक ही जंगल में छोड़ दिया जाए और उनसे किसी भी प्रकार का संपर्क न रखा जाए; तो समान अवधि के उपरांत दोनों की बौद्धिक परिपक्वता का स्तर लगभग एक–समान होगा । जो भी अंतर होगा, उसके पीछे उनकी देह–यष्टि का योगदान होगा । लगभग वैसा ही विकास जैसा पशुओं और वन्य प्राणियों में दिखाई पड़ता है । जाहिर है मनुष्य अपने गुण–कर्म और प्रवृत्तियां समाज में रहते हुए ग्रहण करता है । जाति–व्यवस्था के अनुसार मान लिया जाता है कि फलां शिशु ‘पंडित’ के घर में जन्मा है, इसलिए उसमें जन्मजात पांडित्य है। जबकि शूद्र के घर में जन्म लेने वाले शिशु सामान्य बुद्धि–विवेक से भी वंचित मान लिए जाते हैं । इसलिए उनका काम बताया जाता है । विप्र वर्ग की सेवा करना, उनकी चाकरी करते हुए जीवन बिताना । यह थोपी हुई दासता है, परंतु हिंदू परंपरा में इसे धर्म बताया गया है । बिना कोई शंका किए, चुपचाप परंपरानुसरण करते जाने को पुरुषार्थ की संज्ञा दी जाती रही है । इस तरह जो धर्म बुद्धिमत्तापूर्ण व्यवहार की अपेक्षा के साथ ब्राह्मण को शीर्ष पर रखता है, और प्रकांतर में मानवीय विवेक का सम्मान करता है । व्यवस्था बनते ही समाज के अस्सी प्रतिशत लोगों से बौद्धिक हस्तक्षेप और पसंदों का अधिकार छीनकर, पूरे समाज को नए ज्ञान का विरोधी बना देता है । हिंदू धर्म की यही विडंबना समय–समय पर उसके बौद्धिक एवं राजनीतिक पराभव का कारण बनी है । आज भी समाज में जो भारी असमानता और असंतोष है, उसके मूल में भी जाति ही है । जाति का लाभ उठा रहे वर्गों और जातीय उत्पीड़न का शिकार रहे लोगों के बीच अविश्वास की खाई इतनी गहरी है कि संस्कृति को लेकर जरा–सी बहस भी चले तो जनता का बड़ा हिस्सा उसपर संदेह करने लगता है । इससे कई बार धार्मिक–सांस्कृतिक सुधारवादी आंदोलन भी खटाई में पड़ जाते हैं ।
वैसे भी पांडित्य, चिंतन–मनन और स्वाध्याय से हासिल होता है अथवा हासिल किया जा सकता है । वह न तो बैठे–ठाले आ सकता है और न ही वह व्यक्ति का जन्मजात गुण हो सकता है । कथित दैवी अनुकंपा भी जड़बुद्धि व्यक्ति को पंडित नहीं बना सकती । दूसरी ओर जाति है कि उसके माध्यम से एक वर्ग जन्मजात पांडित्य के दावे के साथ हाजिर होता है तो दूसरा वर्ग ‘शासक’ के रूप में । फिर निहित स्वार्थ के लिए ये दोनों वर्ग संगठित होकर शेष समाज के लिए शोषक की भूमिका निभाने आ जाते हैं । ‘पांडित्य’ को यदि ज्ञान का पर्याय भी मान लिया जाए तो वह स्वाभाविक रूप से व्यवहार का, अनुभव का विषय होगा, किन्तु वह प्रदर्शन की वस्तु हरगिज नहीं हो सकता । यदि हम प्राचीन पुराणों और टीकाओं की बात करें तो उनमें दर्शित ज्ञान, प्रदर्शन और महिमामंडन से आगे नहीं बढ़ पाता। पूरी की पूरी ब्राह्मण मेधा, कुछ अपवादों को छोड़कर, देवताओं के नख–शिख वर्णन और उनके छल–प्रपंच भरे काल्पनिक विजय अभियानों के बखान में लगी रहती है । मनुष्य का अस्तित्व, जिसने विषम परिस्थितियों से जूझकर, आपदाओं से निरंतर संघर्ष करते हुए इस धरती को रहने लायक बनाया है, इन ग्रंथों में बस एक दास जितना है । उपनिषदों में अवश्य कुछ श्रेष्ठ, श्रेष्ठतर और श्रेष्ठतम है, मगर उनमें भी जबरदस्त दोहराव है । बाकी सब आत्मरति और मनःरंजन का विषय तो हो सकता है । समाज का वास्तविक हित उससे सध ही नहीं सकता । इस वास्तविकता को जाति–व्यवस्था के शीर्ष पर मौजूद लोग जानते जरूर थे, मगर निहित स्वार्थ की खातिर सत्य की ओर से मुंह फेरे रहते थे । उन्होंने शूद्रों के लिए धर्मग्रंथों का अध्ययन केवल इसलिए निषिद्ध नहीं किया कि वे उन्हें अपात्र मानते थे । डर यह भी था कि शूद्र यदि वेदादि धर्मग्रंथ पढे़ंगे तो उनमें दर्ज देवों की सत्ता लोलुपता, वासनाएं, साधारण सम्राट की तरह किए गए छल–प्रपंच पर विमर्श करने का अधिकार भी उन्हें मिल जाएगा । क्योंकि धर्म और शास्त्र के नाम पर मनमानी तभी तक चल सकती है, जब तक सामने वाला अनपढ़ हो, या उसे जानबूझकर अनपढ़ रखा गया हो । जब व्यक्ति जानने लगता है तो सवाल भी उठाने लगता है । संभवतः वे भूल गए थे कि नदी की तरह विचार भी निरंतर गतिशील रहने पर ही शुद्ध रह पाते हैं । ठहराव आते ही उनमें अशुद्धियां पनपने लगती हैं । आलोचना, विमर्श न हो तो परंपरा के नाम पर आडंबरों को खुली छूट मिल जाती है । जाति, धर्म और संस्कृति के नाम पर इस देश में यही हुआ । आड़ंबरपूर्ण शास्त्रीयता धीरे–धीरे सभ्यता और संस्कृति के पाखंड में ढलती चली गई । ऐसा नहीं कि इसका विरोध नहीं हुआ । आडंबरवाद और ब्राह्मणवाद को प्रत्येक युग में लताड़ा गया, किंतु सत्ता के शिखर पर मौजूद लोग विरोध को हमेशा नजरंदाज करते रहे। विरोध में रचे गए साहित्य और कलाओं को पुराने जमाने के ‘गजनवियों’ द्वारा निमर्मतापूर्वक मिटाया जाता रहा ।
कुछ देर के लिए यदि मान भी लिया जाए कि वर्ण–विभाजन तत्कालीन समाज में कार्य–विभाजन के लिए आवश्यक था । हमारे पूर्वजों ने समाज की आवश्यकताओं, सुख एवं संसाधनों की वृद्धि हेतु बड़े ही बुद्धिमत्तापूर्ण ढंग से उसे चार वर्णों में विभाजित किया था । उनका ध्येय समाज के संपूर्ण सुख एवं संसाधनों में वृद्धि करना था । दूसरे शब्दों में जाति और वर्ण को यदि कार्य–विभाजन की बेहतरीन पद्धति मान लिया जाए तो उन्हें अर्थशास्त्र का विषय होना चाहिए था । धर्म और संस्कृति का हिस्सा बनाने का कोई औचित्य नहीं रह जाता । यदि यह कहा जाए कि प्राचीनकाल में सभी कुछ धर्म और संस्कृति का हिस्सा था… कि ‘अर्थशास्त्र’ में अर्थनीति, राजनीति, व्यवहारशास्त्र आदि सभी कुछ है । तो भी जातीयता की संकल्पना के चार–पांच हजार वर्षों में उस पर कभी तो अर्थशास्त्रीय दृष्टिकोण से विचार किया जाना था? आकलन किया जाता कि कार्य–विभाजन की उस परंपरागत भारतीय प्रणाली की समसामयिक उपयोगिता कैसी और कितनी है? निष्पक्ष समीक्षा के बाद ही उन्हें बनाए रखने या हटाने का निर्णय लेना चाहिए था । जैसे यूनान में हुआ था । प्लेटो ने मनुष्यों को स्वर्ण, रजत और लौह वर्गों में बांटा था । उसने जन्म को उसके लिए आधार नहीं बनाया था । उसके द्वारा किए गए वर्गीकरण का आधार व्यक्ति के अपने गुण और प्रवृत्तियां थीं। तो भी अरस्तु को अपने गुरु का यह विचार जमा नहीं । उसने यह मानते हुए कि मानव–व्यक्तित्व जटिल रचना है, और उसका इस तरह सरलीकरण नहीं किया जाना चाहिए, प्लेटो द्वारा किए गए वर्गीकरण को अनुपयुक्त मानकर उसे आधी शताब्दी से भी कम समय में नकार दिया था । भारत में ऐसा नहीं हुआ वह इसलिए नहीं हुआ क्योंकि उस अवैज्ञानिक कार्य–विभाजन को शिखरस्थ वर्गों का समर्थन प्राप्त था । सत्ताधारी वर्गों के स्वार्थ उससे जुड़े थे । उसके बहाने वे समाज के अधिकांश संसाधनों पर कब्जा जमाए रखते थे । इसलिए एक के बाद एक स्मृति–ग्रंथ वर्ण–व्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए रचे गए । सांस्कृतिक वैविध्य के मुखौटे में जातीय भेदभाव को बचाया गया ।
गौरतलब है कि कार्य–विभाजन समाज की आवश्यकता है । लेकिन इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि जाति आधारित कार्य विभाजन भी आवश्यक हो । ऋग्वेद का पुरुषसूक्त जातिभेद–वर्गभेद का बीज–मंत्र है । उसमें लिखा है कि ब्राह्मण, ब्रह्मा के मुख से, क्षत्रिय भुजाओं से, वैश्य उदर से तथा शूद्र उसके पैरों से जन्मे हैं ।
“ब्राह्मणोऽस्य मुखामासीद्वाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।।”
ब्रह्मा यहां समाज का प्रतीक हैं । इसका लक्ष्यार्थ है कि समाज में ज्ञान, व्यापार तथा सेवाकर्म चार प्रमुख अंग होते हैं । रूपक के चयन में भी चतुराई देखी जा सकती है । यदि सीधे–सीधे कार्य–विभाजन किया जाता तो देर–सवेर लोगों का ध्यान उसके औचित्य पर भी जाता । ऐसा न हो इसलिए अभिजन वैदिक मनीषियों ने उसे सांस्कृतिक रूपक के माध्यम से प्रस्तुत किया था । ताकि उसको आस्था और विश्वास की साम्रगी के रूप में देखा जाए । आलंकारिक भाषा केवल कविता में ही फबती है । बौद्धिक विमर्श को उससे दूर रखने की सलाह दी जाती है । दरअसल मिथकों और बिंबों की विशेषता होती है कि उन्हें सामान्य विवेक के सहारे मनचाहा आकार दिया जा सकता है । वे सर्वसाधारण की चेतना का हिस्सा भले हों, मगर समय–समय पर उनकी ऐसी व्याख्याएं होती रहती हैं जो उनकी मूल संकल्पना से एकदम अलग होती हैं जैसे इंद्र का मिथक । वह एक ओर देवराज है दूसरी ओर देवताओं में ही सबसे बड़ा खलनायक । गिरे हुए चरित्र का स्वामी, जिसे अपने सिंहासन के खिसकने का भय हमेशा सताता रहता है । इसकी प्रतीकात्मकता को देखें तो सत्ता छिन जाने का भय केवल इंद्र का भय नहीं था । यह हर उस राजा का डर हो सकता है, जो प्रजा कल्याण से दूर, केवल भोग–विलास में लिप्त रहता है । बावजूद इसके देवराज इंद्र के मिथक के जरिये उस ओर हमारा ध्यान नहीं जाता । इसलिए कि वह भौतिक जगत का न होकर, सांस्कृतिक विमर्श का हिस्सा है; और संस्कृति को प्रायः आस्था और विश्वास का विषय माना जाता है । इंद्र उन देवताओं का सम्राट है जिन्हें मात्र जीवन के कष्टों का सामना नहीं करना पड़ता । मिथकों के विरूपण या उनकी नवव्याख्याओं के पीछे सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही प्रकार के दृष्टिकोण हो सकते हैं । कुल मिलाकर मिथक उससे अपने परंपरागत संदर्भों से कट सकता है । अतएव मिथक को यथार्थ मानना, ‘ईश्वर की मूर्ति है, इसलिए ईश्वर भी है ।’ जैसा ही भ्रांत धारणा है । इसके बावजूद परंपरावादियों का जातीय विभाजन को लेकर ब्रह्मा के मिथक में विश्वास आज भी बना हुआ है । गीता में कृष्ण स्वयं को विराट पुरुष के रूप में पेश कर, वर्ण–भेद की इसी संकल्पना को आगे बढ़ाते हैं । ‘चातुर्वर्णमरूपक मयास्रष्ठं गुण–कर्म विभागभ्य’… ‘मैंने चार प्रकार के मनुष्यों की रचना की है । उनके गुण, स्वभाव के आधार पर उन्हें वर्णों में विभाजित किया है ।’ दबे स्वर में ही सही, परंपरावादी आज भी इन घिसे–पिटे तर्कों को आगे बढ़ाकर असमानताकारी जाति–व्यवस्था के पोषण में लगे रहते हैं ।
कुछ विद्वानों के अनुसार पुरुष–सूक्त ऋग्वेद का प्रक्षेपित हिस्सा है । इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता। ऋग्वेद आर्यों की कई शताब्दियों की यादों को समेटे हुए है । उसका आरंभिक हिस्सा तब का है जब आर्य भारत–भूमि पर पांव जमाने का प्रयास ही कर रहे थे । उस समय तक वर्ण–व्यवस्था इतनी जटिल नहीं हुई थी । वैसे भी ब्रह्मा प्राचीनतम देवता नहीं है । भारत में शिव और बाकी सभ्यताओं में सूर्य प्राचीनतम देवता रहे हैं । आरंभ में शूद्र राजन्य और ब्राह्मण केवल तीन वर्ण थे । इसके साथ ही ऋक्, यर्जु, साम तीन वेद। वेद त्रयी और वर्ण–त्रयी का साम्य था। कालांतर में जब शूद्रों के एक वर्ग ने स्वयं को आर्थिक रूप से संपन्न कर लिया तो उसकी उपेक्षा कर पाना असंभव हो गया । चौथे वर्ग की कल्पना करनी पड़ी । यजुर्वेद में वैश्य और क्षत्रियों को सजातीय कहा गया है । इसलिए जब तक वेद तीन रहे, तब तक तीन वर्ण भी मान्य रहे होंगे । कालांतर में चौथे वर्ण को मान्यता मिली तो अथर्ववेद के रूप में चौथे वेद को भी स्वीकार किया जाने लगा । हालांकि इनमें पहले क्या हुआ? पहले चौथे वर्ण को मान्यता मिली या चौथे वेद को यह शोध का विषय है । कल्पना की जा सकती है कि दोनों का समय आसपास का रहा होगा । ऐसे में परमपुरुष की अवधारणा; यानी पुरुष सूक्त की रचना ईसा से पांच से आठ सौ वर्ष पहले तक की हो सकती है ।
आरंभ में वर्ण इतने रूढ नहीं थे । आरंभिक ग्रंथों में अनुलोम और विलोम दोनों ही प्रकार के अंतरण के उदाहरण मिलते हैं । यह अंतरण तत्कालीन परिस्थितियों में जब आर्य और मूल निवासी घुलने–मिलने की कोशिश में थे, स्वाभाविक था । आर्यों ने भारत भूमि पर आक्रामक के रूप में प्रवेश किया । वे यहां पहले से रह रहे मूल निवासियों की अपेक्षा निपुण लड़ाके, रणकौशल में पारंगत थे । उत्तरी एशिया से भारत तक पहुंचने में उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा । उनकी अपेक्षा इस देश के मूल निवासी शांतिप्रिय और अपने संतोष के साथ जीवन जीने वाले थे। मूल निवासी अनेक कबीलों में बंटे थे, किंतु लंबे समय तक साथ रहने के बाद वे सहअस्तित्व की कला में निपुण होने लगे थे । धर्मशास्त्रों में देवासुर संग्राम के अनेक उल्लेख हैं, मगर ऐसा कोई उल्लेख नहीं है जो दैत्यों के आपसी वैमनस्य को दर्शाता हो । बहरहाल एक लंबी संघर्षपूर्ण यात्रा के अनुभव के बाद आर्यों का कुशल रणनीतिकार के रूप में उभरना स्वाभाविक था । बावजूद इसके भारत के मूल निवासियों को अपने साथ जोड़ना, उनपर अपना सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित करना आसान नहीं था । हड़प्पा और मोन–जो–दाड़ो से प्राप्त अवशेष बताते हैं कि भारतीय मूल निवासी एक समृद्ध संस्कृति के वासी थे । कदाचित उनकी समृद्धि ही आर्यों को मध्य–एशिया से भारत तक खींच कर लाई थी । यात्रा के दौरान आर्यों ने जहां आवश्यक समझा, वहाँ युद्ध किया । जहां लगा कि युद्ध के माध्यम से ऐच्छिक परिणाम तक पहुंचना असंभव है, वहाँ उन्होंने युद्धेत्तर नीतियों का सहारा लिया ।
महाकाव्य काल में ही वर्ण जातियों में ढलने लगे थे । व्यक्ति के अपने कौशल का कोई महत्त्व नहीं रह गया था। कर्ण और एकलव्य ऐसे ही उदाहरण हैं । जो उस समय की व्यवस्था के अनुसार क्षत्रिय नहीं थे । लेकिन दोनों ने ही स्वयं को धनुर्विद्या में अत्यंत निपुण बना लिया था । महाभारत युद्ध में दुर्योधन के पक्ष में होने के बावजूद कर्ण को बार–बार आहत और अपमानित होना पड़ता है । वहीं एकलव्य के वाण–कौशल से विस्मित द्रोणाचार्य उसका अंगूठा ही मांग लेता है ।
अपनी प्रतिभा और लगन के बल पर दूसरे वर्ग में अंतरण के भी अनेक उदाहरण धर्मग्रंथों में उपलब्ध हैं । विश्वामित्र के क्षत्रिय कुल से ब्राह्मण वर्ग में दाखिल होने का किस्सा तो जाना–पहचाना है। क्षत्रिय दिवोदास का पुत्र मैत्रेय ब्राह्मण बनता है । हरिवंश पुराण के अनुसार वैश्य पुत्र नाभाग और अरिष्ट ब्राह्मण कुल में शामिल होते हैं । वर्ण–अंतरण को लेकर सत्यकाम जाबाल का किस्सा भी खूब चर्चित है । सत्यकाम दासी–पुत्र था । उसने गुरु की शरण में जाकर शिक्षा लेने की इच्छा व्यक्त की तो गुरु ने उसका नाम, गौत्र आदि पूछा । सत्यकाम ने घर आकर यही प्रश्न अपनी मां से किया । तब मां ने बताया, ‘पुत्र, दासी होने के कारण मुझे अनेक घरों में काम के लिए जाना पड़ता है । एक घर से दूसरे घर की यात्रा के दौरान तू कब मेरे गर्भ में आ गया, मुझे नहीं पता । तू सत्यकाम है। मेरा नाम जाबाला है । सो तू सत्यकाम जाबाल हुआ ।’ सत्यकाम यही बात गुरु से बता देता है । गुरु उसके सत्यवाचन से प्रसन्न होकर दीक्षा देने के लिए तैयार हो जाते हैं । यही सत्यकाम जाबाल आगे चलकर वेदमंत्रों के रचियता के रूप में उभरता है ।
जाति प्रथा चलते ही यह संभव हुआ कि पंडित के घर पंडितजी जन्म लेने लगे । यदि सबकुछ बिना किए जन्म ही से प्राप्त है तो कुछ और पाने के लिए गुणवत्ता को क्यों बढ़ाया जाए! इसलिए तप और स्वाध्याय का अभिप्राय राम–राम जपने तक सिमट गया और अध्यापन कर्मकांड तक । लोग सोलह पृष्ठ की पंजिका पढ़कर ‘पंडित’ कहलाने लगे। बिना ‘सत्य’ और ‘सत्यनारायण’ वाली ‘सत्यनारायण की कथा’ घर–घर बंची–बंचवाई जाने लगी । उन कहानियों में आदमी की पहचान जाति से जुड़ी थी । जानते सब थे कि जन्म आधारित वर्गीकरण मनुष्य के मूल स्वभाव के विरुद्ध है। दो व्यक्ति कभी–भी पूरी तरह से एक हो ही नहीं सकते । इसलिए किसी एक की परिस्थितियों पर विचार कर हू–ब–हू वही निर्णय दूसरे के लिए नहीं लिया जा सकता। चूंकि यह मनुष्य की प्रवृत्ति के विरुद्ध है,समाजीकरण की धारा के विरुद्ध है, इसलिए व्यक्ति केवल परंपराएं ढोता रहा । समाज जड़ और लोग यथास्थितिवादी बन गए । जाति ने लोगों से उनका विवेक, चयन का अधिकार छीनकर उन्हें एक नशा थमा दिया । बिना कुछ किए–धरे खास होने का नशा । जाति आधारित विभाजन की खूबी है कि उसमें हर कोई खास होता है । हालांकि खासियत के लिए उसका अपना कोई योगदान नहीं होता । बस अपनी लकीर के बराबर में मनमाफिक थोड़ी छोटी लकीर खींच लेता है । इसलिए कि वह जातीय पायदान पर अपने से नीचे के किसी कम खास की उपस्थिति मानकर मन को तसल्ली देने लगता है । दूसरा चाहे उसका विरोध करे, और विरोध होता ही है, फिर भी वह खुद को ‘अपने मुंह मिंया मिट्ठू’ बनने से रोक नहीं पाता। चूंकि जाति पर उसका जोर नहीं चलता, इसलिए जिस जाति वर्ग में वह जन्म लेता है, उसे अपनी नियति मानकर जीवन से समझौता किए रहता है । इससे भाग्यवाद और नियतिवाद को बढ़ावा मिलता है, जो परिवर्तनकामी आंदोलनों की आंच पर राख डालते रहने का काम करता है ।
मध्यकाल में जाति विरोधी आंदोलन के सूत्रधार संतकवि थे । संत रैदास, कबीर, दादू,आदि समाज के निचले वर्गों से आए थे । जो जातीय उत्पीड़न का शिकार थे । इसलिए उन्होंने जाति–आधारित ऊंच–नीच को अपनी समानताधारित समाज की स्थापना के सपने का अवरोधक माना था । लेकिन समानता से उनका आशय बस इतना था कि गरीब–गरीब रहे, अमीर–अमीर और सब अपने–अपने संतोष के साथ जीना सीख लें । बावजूद इसके संत कवि जातीय उत्पीड़न का शिकार रहे लोगों की उम्मीद का केंद्र थे । इसलिए वे संत कवियों के आसपास जुटने लगे । जाति–भेद को बढ़ावा देने के लिए संत कवियों ने ब्राह्मणों एवं जाति के पैरोकारों को ललकारा । लेकिन कुछ खास नहीं कर पाए । बहुत जल्दी उनके आंदोलन को संस्कृति का हिस्सा बनाकर हिंदू धर्म में समाहित कर लिया गया । सामंतवादी दौर में उनकी आर्त्त पुकार झोपडि़यों और चौराहों पर दम तोड़ने लगी । जाति को सामाजिक असमानता एवं अंतर्द्वंद्वों का कारण मानते हुए विवेकानंद, दयानंद आदि ने भी उसकी आलोचना की । लेकिन परिणाम लगभग शून्य ही निकला ।
इन दिनों एक ओर तो विभिन्न जातियों के बीच अस्मिता की पहचान को लेकर होड़ मची हुई है । दूसरी ओर आर० एस० एस० जैसे संगठन धर्म और संस्कृति को रोपने में लगे हुए हैं । इसलिए जो लोग भारतीय समाज को जातिमुक्त देखना चाहते हैं, उन्हें धर्म की संकल्पना में आमूल–चूल बदलाव करना पड़ेगा । जो समझते हैं कि हिंदू धर्म अपने वर्तमान स्वरूप में, लुंज–पुंज देवताओं की फौज के रूप में रहे और जाति चली जाए? वे या तो बहुत भोले हैं या जाति व्यवस्था के उन्मूलन के प्रति अगंभीर हैं । बहुजन राजनीति के पैरोकार इस तथ्य को बाखूबी समझते हैं । इसलिए वे इस बार जाति के सवालों को सीधे नहीं उठा रहे हैं । देखा जाए तो उठा ही नहीं रहे हैं । शताब्दियों से जो जाति के औचित्य पर सवाल उठाते थे, अब उन्होंने इसे भारतीय समाज की हकीकत के रूप में, भले ही अस्थायी तौर पर, स्वीकार कर लिया है । इसलिए जाति के आधार पर सवाल उठाने के बजाय उसके आधार पर हुए समाजार्थिक शोषण और गैरबराबरी पर सवाल उठाए जा रहे हैं । जाति का सहारा लेकर शोषित और वंचित वर्गों को संगठित किया जा रहा है । लंबे अर्से के बाद यह समझ लिया है कि लोकतंत्र में राजनीतिक सहभागिता सामाजिक अन्याय को मेटने वाले प्रमुख उपकरणों में से है । इससे आर्थिक समानता के उस लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है, जो मनुष्यता का अभीष्ट है । इस विभेदकारी समस्या के निदान के लिए शिक्षा और संसाधनों में साझेदारी की आवाज बुलंद की जा रही है । चूंकि इस बार जाति भी समानता के संघर्ष का एक हथियार है, इसलिए उससे सबसे अधिक तकलीफ उन लोगों को हो रही है, जो अभी तक जाति प्रथा का लाभ उठाते आए हैं और जिसका सहारा लेकर उन्होंने बहुसंख्यक समाज को अपना आश्रित बनाए रखा है ।
भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता की यह विशेषता रही है कि इसमें हमेशा वर्तमान तत्वों की जगह प्राचीन तत्वों को अधिक महत्व मिलता रहा है; यहाँ प्राचीन इतिहासकारों ने इतिहास की व्याख्या भी इसी दृष्टिकोण से की । अर्थात् उन्होंने घटनाओं और क्रियाकलापों की व्याख्या सांस्कृतिक दृष्टि से की । इसीलिए, महाभारत में इतिहास को पूर्ववृत्त मानते हुए उसके महत्व को निम्नलिखित प्रकार से स्थापित तथा परिभाषित किया गया है –
धर्मार्थकाममोक्षमुपदेशसमंवितम्
पूर्व वृत्त कथा युक्तमितहास प्रचक्षते।।
अर्थात् धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में मानव सभ्यता एवं मानव व्यवहार का प्रत्येक क्षेत्र समन्वित है । घटनाओं की आवृत्ति मात्र युद्धों तक सीमित रखना इतिहास की एकांगगिकता निर्धारित करना है । इतिहास सम्राटों की गाथा नहीं गाता, वह मनुष्यों को शिक्षा भी देता है ।
रामविलास जी भक्ति काल में फैलाए गए इस जन-जागरण को `लोक-जागरण` कहते हैं । प्लासी की लड़ाई से 1857 के स्वाधीनता संग्राम तक जो युद्ध हुए, उन्हें `जन-जागरण` का नाम देते हैं । पहले दौर के लोक जागरण को दूसरे दौर के जन-जागरण से अलग करते हुए बताते हैं कि पहले दौर में विरोध सामंतवाद से है जबकि दूसरे दौर में साम्राज्यवाद से है ।
भक्ति आन्दोलन के सन्दर्भ में एक सवाल बार-बार आता है कि भक्ति आंदोलन धर्म के आवरण में क्यों आया ? इसकी अनेक व्याख्याएं हैं । कार्ल मार्क्स का कथन हैं – “धर्म पीड़ित आदमी की कराह है, हृदयहीन जगत का हृदय है । यह आत्महीन परिस्थितियों की आत्मा है ।” धर्म के इसी गुण और असर को देखते हुए मार्क्स ने इसे ‘अफीम’ भी कहा । यानि जिसका आश्रय पाकर जनता अपने समस्त दु:खों से कुछ समय के लिए निजात पा लेती है । धर्म जीवन के अभाव में भाव भरती है । यदि हम मार्क्स की ही इस धारणा को गहरे देखें, तो पाएंगे कि धर्म पीड़ा की अभिव्यक्ति का जरिया बनकर सामने आया, और भक्ति आन्दोलन का काव्य लोकहित, लोकोत्थान, लोकचिंता का काव्य है । संस्कार हमारे अवचेतन में विराजमान होता है और इससे जुड़ी शक्तियां हमारे हृदय और मन-मस्तिष्क पर अपना असर डालती हैं । इसी स्थिति में धर्म एक सामाजिक संस्कार के रूप में कार्य करता है । हम जानते हैं कि धर्म मूल्यों का समुच्चय होता है । इसलिए किसी भी राष्ट्र अथवा समुदाय विशेष पर बाह्य आक्रान्ता उनके इसी स्वरुप से खिलवाड़ करने का प्रयास करते हैं । मध्य युग में यह बहुत स्वाभाविक बात थी । इस समय भारतवर्ष पर लगातार बाह्य जातियों ने हमले किये थे । यह अलग बात है कि बाद में ये सभी हमारी सामासिक संस्कृति के अभिन्न अंग बन गए और आज यही हमारी सबसे बड़ी पहचान है । बहरहाल, बाह्य आक्रान्ताओं के इन प्रयासों से ही सामूहिक उपासना पद्धति के द्वारा समुदाय विशेष ने सांस्कृतिक मूल्यों को जीवंत रखने का प्रयास किया, इसका सबसे बड़ा उदाहरण आचार्य रामचंद्र शुक्ल की वह टिप्पणी है, जहाँ उन्होंने यह स्थापना दी थी कि अपने पौरूष से हताश जाति के पास भगवद भजन के सिवा कोई चारा नहीं था । तो धर्म भक्ति आन्दोलन का एक एक अनिवार्य पक्ष बना, जो स्वाभाविक ही था । वैसे भी, “धर्म दर्शन ने मध्य युग में विचारधारा की अन्य शाखाओं दर्शन, विधिशास्त्र, राजनीतिक आदि को आत्मसात कर लिया था । विचारधारा की ये शाखाएं उसकी उपशाखाएँ बन गयी थी। इसलिए उसने हर राजनीतिक, सामाजिक आन्दोलन को धर्म का जामा पहनने के लिए विवश किया । उसने सामान्य जनता को धर्म का चारा देकर और सब बातों से अलग रखा । यही कारण है कि मध्य युग में हर राजनीतिक सामाजिक आंदोलन को धर्म का जामा पहनने को विवश होना पड़ा ।” इसलिए मध्यकालीन परिस्थितियों और इतिहासकारों के कथनों के आलोक में देखें कि भक्ति आंदोलन धर्म का आवरण लेकर सामने आया तो कोई बहुत आश्चर्य की बात नहीं है । क्योंकि बहुसंख्यक जनता तक अपनी बात संप्रेषित करने के लिए धर्म ही सहज आधार हो सकता था, हुआ भी । जहाँ तक भक्ति आन्दोलन के उदय संबंधी मत-वैभिन्य की स्थिति है, तो इसमें दो राय नहीं कि दक्षिण से उपजे इस लोक जागरण की इस प्रगतिशील धारा का प्रभाव क्षेत्र सम्पूर्ण भारत में था और यह उत्तरोत्तर चहुँ ओर फैलती ही गयी, लोकचिंता और लोकमंगल इसके मूल में रहा ।
भक्ति आन्दोलन के उदय संबंधी विभिन्न मतों के विश्लेषण के पश्चात् हम पाते हैं कि यह आन्दोलन एक व्यापक सांस्कृतिक घटना थी । इस सांस्कृतिक घटना के उदय संबंधी मत बहुसूत्रीय हैं । इसमें दो राय नहीं कि भक्ति आन्दोलन के उद्भव के सूत्र दक्षिण से प्राप्त होते हैं और यह एक ऐतिहासिक विकास-क्रम में उत्तर की ओर अग्रसर हुआ। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जिसे पराजित, हतोत्साहित जाति का साहित्य कहा है उसे भी पूर्णतया नकारा नहीं जा सकता । आचार्य शुक्ल के इस मत को उत्तर भारतीय नजरिये से देखना आवश्यक है । यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि इस युग में उत्तर भारत में मुस्लिम शासक आये दिन मूर्तियों और मंदिरों को ध्वस्त कर रहे थे, जिसके प्रतिक्रिया स्वरुप बहुसंख्यक हिन्दू जाति का झुकाव भक्ति और भगवद भजन की ओर हुआ, यह स्वाभाविक ही था । पर यह भी उतनी ही बड़ी सच्चाई है कि इस युग में सूफी कवियों ने, जो बहुधा मुस्लिम ही थे, हिन्दू घरों की लोक प्रचलित कथा को अपने काव्य का आधार बनाया । संतों और सूफियों की उदार एवं सहिष्णु भावना ने हिन्दू और मुस्लिमों में सांस्कृतिक-सामाजिक सद्भाव का संचार मिला । यह भक्ति आन्दोलन की सबसे बड़ी उपलब्धि है । जहाँ तक भक्ति आन्दोलन के उदय संबंधी मतों की है तो रामस्वरूप चतुर्वेदी लिखते हैं “ग्रियर्सन, रामचंद्र शुक्ल और हजारीप्रसाद द्विवेदी भक्ति के उदय की व्याख्या तीन भिन्न रूपों में करते हैं । ग्रियर्सन के लिए वह एक बाह्य प्रभाव है, रामचंद्र शुक्ल के लिए वह बाहरी आक्रमण की प्रतिक्रिया है, और हजारीप्रसाद द्विवेदी उसे महज भारतीय परपरा का अपना स्वतःस्फूर्त विकास मानते हैं ।” चतुर्वेदी जी आगे लिखते हैं “ये क्रमशः विदेशी, देशी और लोक-पक्ष को महत्त्व देने की अलग-अलग परिणतियाँ हैं । ग्रियर्सन की ईसाई प्रभाव वाली धारणा अब बहुत विचारणीय नहीं रह गयी है । हाँ रामचंद्र शुक्ल और हजारीप्रसाद द्विवेदी की व्याख्याओं में दृष्टिगत अंतर ध्यान देने योग्य है ।” भक्ति आंदोलन भारतीय जनता के लिए सामाजिक चेतना का नवोन्मेष है । यह धर्म और मानवता के एक नए संकल्प के रूप में आया । भक्ति काव्य उसी नवोन्मेष की उपज है । इतिहास में उसकी जड़ें दूर-दूर तक फैली हुई हैं ।
भक्ति काव्य इस मायने में अनूठा है कि उसमें अपने समय की राजनीति और संस्कृति के दस्तावेज प्रत्यक्ष हैं । एक ओर जहाँ उसमें तत्कालीन सच्चाईयां हैं, तो दूसरी और उनकी आलोचना भी। कबीर को ही देखिये, जो उस समय के शासक वर्ग लोदियों से टकराते हैं, साथ ही मौलवी-मुल्ला-पंडितों की भी खबर लेते हैं । यह आन्दोलन लोक चेतना का आन्दोलन है, जिसमें शास्त्रीय रूढ़ियों और बनी-बनायी परिपाटी, व्यवस्था से विरोध है । भक्ति काव्य का प्रयोजन लीलागान करना मात्र नहीं था । इसमें गैर बराबरी और ‘सुरसरी सब कर हित होई’ का भाव सन्निहित था ।
सच कहा जाये तो, भक्ति आन्दोलन दक्षिण से उपजा और अपनी सर्वग्राह्य प्रवृति के कारण पूरे देश में फ़ैल गया । यदि इसमें दक्षिण के आचार्यों की वैचारिकता या दर्शन की आग है, तो उत्तर के संतों और भक्तों का भावावेग भी। इसलिए भक्ति काव्य को अखिल भारतीय जातीय काव्य कहा जाता है । यह किसी वर्ग, समुदाय, संप्रदाय आदि के हितों के लिए नहीं वरन उस आन्दोलन की उपज है, जिसमें हिन्दू, मुसलमान, सिख, जुलाहे, दस्तकार, किसान और अन्य कामगार जातियाँ शामिल हैं । यह एक साथ ही, राज्यसत्ता और सामंतवाद, पुरोहितवाद से टकराता है । भक्ति आन्दोलन में समाज के सभी वर्गों की सामूहिक संवेदनाओं का सार निहित है, इसलिए यह अपने मूल में ही सबसे अधिक प्रगतिशील और मानवीय है । यह आन्दोलन भारतीय सांस्कृतिक परम्परा का स्वतःस्फूर्त विकास अवश्य है, परन्तु इसके ऐतिहासिक प्रभावों को अनदेखा नहीं किया जा सकता । इतना ही नहीं, भक्ति आन्दोलन के उदय संबंधी व्याख्याओं में आंशिक सत्यता तो है ही, किसी भी तर्क को पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता । इतना तो सिद्ध है कि यह आन्दोलन जनता की चित्तवृतियों और अपने समय के विविध पक्षों से उपजा हुआ आंदोलन है और मानवतावाद की स्थापना इसका उद्देश्य ।
इस महान क्रांतिकारी संत के बारे में जितना लिखा जाए उतना कम है क्योंकि इस देश में समय समय पर ऐसी ताकतों ने जन्म लिया है जिन्होंने इस तरह के क्रांतिकारी लोगों की विचारधाओं को समाप्त कर उनकी विचारधारा ही नहीं अपितु उन्हें ही खत्म कर दिया है । तभी तो इतना सब कुछ लिख देने और पढने के बाद भी कुछ प्रश्न दिमाग में सदैव उन सवालातों के उत्तर तलाशता रहेगा । रविदास ने अपनी माँ को चमारी क्यों कहा ? क्या उनके वाकई कोई गुरु थे ? गंगा मैया उन्हें सचमुच कोई कंगन भेंट किए थे ? गैर बोद्ध के लिए वे क्या मान्यता रखते हैं ? क्या उन्होंने सीने को चीर कर जनेऊ दिखाया था ? उन्हें भक्त कहा जाए या गुरु ही स्वीकारा जाए ? इसके अलावा भी कई प्रश्न हैं जिनके
आज भी सही और सटीक जवाब ढूंढना मुश्किल सा बना हुआ है ।
सन्दर्भ सूचि-
1. दलित मुक्ति की विरासत: संत रविदास – डॉ० सुभाष चन्द्र, आधार प्रकाशन प्रथम संस्करण 2012
2. रैदास, धर्मपाल मैनी, साहित्य अकादमी, प्रथम संस्करण
3. अकथ कहानी प्रेम की, पुरुषोत्त्म अग्रवाल, राजकमल प्रकाशन, दूसरा संस्करण 2010
4. अनभै साँचा, मैनेजर पाण्डेय, पूर्वोदय प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2002
5. भक्तिकाव्य और लोकजीवन, शिवकुमार मिश्र, वाणी प्रकाशन
6. संतों एवं भक्तों का जीवन चरित्र, संपादक- डॉ० विक्रम सिंह राठौड, राजस्थानी शोध संस्थान
7. गुरु रविदास, डॉ० धर्मवीर, समता प्रकाशन
8. साझी संस्कृति की विरासत, डॉ० सुभाष चन्द्र, आधार प्रकाशन प्रथम संस्करण 2011
9. संत रविदास, वीरेन्द्र पाण्डेय, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, द्वितीय संस्करण 2011
10.कबीर एक पुनर्मॅल्याकन, सं बलदेव वंशी, आधार प्रकाशन द्वितीय संस्करण 2011
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10.कबीर एक पुनर्मॅल्याकन, सं बलदेव वंशी, आधार प्रकाशन द्वितीय संस्करण 2011
11. जाति प्रश्न और उसका समाधान, एक मार्क्सवादी दृष्टिकोण, शोध टीम- अरविन्द मार्क्सवादी अध्ययन संस्थान
12.भारतीय चिंतन परंपरा, के० दामोदरन, पृ० 327
13. लेखक कुशाल चौहान, एडवोकेट, बिरसा फुले, अम्बेडकर एसोशिएशन, राजस्थान
14. हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, रामस्वरूप चतुर्वेदी, पृ० 30
14. हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, रामस्वरूप चतुर्वेदी, पृ० 30
15.फ्रेडरिक एंजेल्स का कथन, भारतीय चिंतन परंपरा, के० दामोदरन, पृ० 328
16.साहित्य का इतिहास दर्शन, पृ० 1-2
17. रैदास रचनावली, रजनीश गोविन्द
18. नेहा नरुका, हिंदी समय डॉट कॉम एवं कविता कोश
19. कविता धर्म और मानवीयता, तेजस पूनिया, जनकृति अंतर्राष्ट्रीय बहुभाषी पत्रिका ISSN No. 2454-2725
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