Thursday, October 10, 2019

बुक रिव्यू : देहलीला से देहगान तक की सच्ची अभिव्यक्ति 'अन्या से अनन्या'

तकरीबन एक महीने पहले अनन्या से अनन्या पढ़ी और आज जाकर कुछ लिखने का प्रयास कर रहा हूँ । एम ए के दौरान इस आत्मकथा को पढ़ाने वाले प्रोफेसर से पहला प्रश्न मेरा यही था कि ऐसी औरत को पढ़ेंगे अब हम ? ऐसी औरत का मतलब मेरा सीधा सीधा वही था जो आप समझ रहे हैं । सदियों से कुलटा, रखैल, दासी और न जाने क्या क्या उपाधियाँ पुरुष समाज से प्राप्त करने वाली स्त्री की कहानी को इतनी बेबाकी से लिखे गए साहित्य को पढ़ना मुझे शर्म महसूस कराने वाला था एक पल के लिए । तब उन प्रोफेसर ने कहा तेजस ऐसी औरत नहीं, कहो ऐसी औरत । अब आप सोचेंगे दोनों बातों में क्या अंतर है । तो जनाब बहुत बड़ा अंतर है । ऐसी औरत मतलब रखैल इत्यादि टाइप और जब उस ऐसी औरत में ऐसी शब्द पर जोर देकर कोई कहे तो वह औरत महान, संघर्षशील, बेबाक और न जाने क्या क्या बन आपके सामने आदर्श रूप में प्रस्तुत की जाती है ।


खैर अन्या से अनन्या आत्मकथा की लेखिका प्रभा खेतान  के बारे में इतना कुछ कहा, लिखा, सुना और शोध किया जा चुका है कि अब सम्भवत: मेरे द्वारा कुछ लिखना उन सभी बातों को दोहराने जैसा ही होगा । मेरा व्यक्तिगत मानना है कि ऐसी पुस्तकों को निशुल्क वितरित किया जाना चाहिए और अधिक से अधिक लोगों को इसे पढ़ने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए । जब तक इस पुस्तक को पढ़ा नहीं था तब तक हजारों सवाल जेहन में उतरते थे और अब पढ़ लेने के बाद उनमें से कुछ का शमन हुआ तो कुछ यूँ ही यथावत बने हुए हैं साथ ही कुछ ऐसे भी हैं जो नए प्रश्नों के रूप में उभर कर सामने आते हैं । हिंदी साहित्य की विलक्षण एवं बुद्धिजीवी कही जाने वाली डॉ० प्रभा खेतान दर्शन, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, विश्व-बाजार और उद्योग जगत की गूढ़ समझ रखने वाली जानकार हैं और इन सबसे बढ़कर- सक्रिय स्त्रीवादी लेखिका भी । प्रभा ने विश्व स्त्रीवादी लेखन को व्यापक रूप में समझा ही नहीं अपितु उसकी  अहमियत समझते उपनिवेशित समाज में स्त्री के प्रति होने वाले शोषण एवं मुक्ति के संघर्ष पर विचारोत्तेजक लेखन कार्य भी किया । “हंस में धारावाहिक रूप से प्रकाशित इस आत्मकथा को एक बोल्ड, निर्भीक आत्मस्वीकृति की साहसिक गाथा के रूप में प्रशंसाएँ मिली वहीं दूसरी ओर बेशर्म तथा निर्लज्ज स्त्री द्वारा अपने आपको चौराहे पर नंगा करने की कुत्सित बेशर्मी का नाम भी इसे दिया गया ।” (गूगल साभार)

आत्मकथा के कवर पेज एक तस्वीर तथा पृष्ठभाग पर लिखे गए कुछ अंश इस प्रकार हैं 


महिला उद्योगपति प्रभा खेतान का यही दुस्साहस क्या कम है कि वह मारवाड़ी पुरुषों की दुनिया में घुसपैठ करती है। कलकत्ता चैम्बर ऑफ कॉमर्स की अध्यक्ष बनती है । एक के बाद एक उपन्यास और वैचारिक पुस्तकें लिखती है और वही प्रभा खेतान ‘अन्या से अनन्या’ में एक अविवाहित स्त्री, विवाहित डॉक्टर के धुआँधार प्रेम में पागल है । दीवानगी की इस हद को पाठक क्या कहेंगे कि प्रभा डाक्टर सर्राफ़ की इच्छानुसार गर्भपात कराती है और खुलकर अपने आपको डॉ० सर्राफ़ की प्रेमिका घोषित करती है । स्वयं एक अन्यन्त सफल, सम्पन्न और दृढ़ संकल्पी महिला परम्परागत ‘रखैल’ का साँचा तोड़ती है क्योंकि वह डॉ० सर्राफ़ पर आश्रित नहीं है । वह भावनात्मक निर्भरता की खोज में एक असुरक्षित निहायत रूढ़िग्रस्त परिवार की युवती है । प्रभा जानती है कि वह व्यक्तिगत रूप से ही असुरक्षित नहीं है बल्कि जिस समाज का हिस्सा है वह भी आर्थिक और राजनैतिक रूप से उतना ही असुरक्षित, उद्वेलित है । तत्कालीन बंगाल का सारा युवा-वर्ग इस असुरक्षा के विरुद्ध संघर्ष में कूद पड़ा है और प्रभा अपनी इस असुरक्षा की यातना को निहायत निजी धरातल पर समझना चाह रही है... एक तूफ़ानी प्यार में डूबकर... या एक बोर्जुआ प्यार से मुक्त होने की यातना जीती हुई... । प्रभा खेतान की यह आत्मकथा अपनी ईमानदारी के अनेक स्तरों पर एक निजी राजनैतिक दस्तावेज़ है - बेहद बेबाक, वर्जनाहीन और उत्तेजक... ।
 बकौल प्रभा डॉ० सर्राफ के प्रति यह उनका मात्र प्रेम था कोई देह का आकर्षण नहीं । इसी प्रेम के सम्बन्ध में बायरन लिखते हैं – “पुरुष का प्रेम पुरुष के जीवन का एक हिस्सा भर होता है । लेकिन स्त्री का तो यह सम्पूर्ण अस्तित्व ही होता है ।  अर्थात एक स्त्री जब किसी से प्रेम करती है तो वह ईमानदार होने के साथ-साथ उस प्रेम के प्रति समर्पित भी होती है । प्रभा अपनी आत्मकथा में लिखती है - ‘‘प्रेम कोई योजना नहीं हुआ करता और न ही यह सोच समझकर किया जाने वाला प्रयास है । इसे मैं नियति भी मानूँगी क्योंकि इसके साथ आदमी की पूरी परिस्थिति जुड़ी होती है ।’’ सोच समझकर लाभ-हानि देखकर किया जाने वाला प्रेम वास्तव में प्रेम नहीं स्वार्थ कहा जाता है ।

बाइस साल की उम्र में अपने से तकरीबन अठारह साल बड़े डॉ० सर्राफ से प्रभा का जो रिश्ता बना उसे वे प्रेम ही कहती हैं । लेकिन सामाजिक विडम्बना यह है कि अक्सर प्रेम  को व्यभिचार से जोड़ दिया जाता है । हिंदी कथा साहित्य में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो इस तथ्य की प्रामाणिकता सिद्ध करते हैं । उनका कथन इस बात का प्रमाण है-
     
‘‘वेदना की कड़ी धूप में
खड़ी हो जाती हूँ क्यों
बार-बार?
प्यार का सावन लहलहा जाता है मुझे
किसने सिखाया मुझे यह खेल
जलो ! जलते रहो
लेकिन प्रेम करो और जीवित रहो’’



प्रेम को जब प्रभा खेतान इतनी खूबसूरती से व्याख्यायित करती हैं तो प्रेम पर विश्वास हमेशा की तरह अडिग होने लगता है लेकिन अगले ही पल जब वे लिखती हैं कि - अफसोस डॉ० सर्राफ से ऐसा प्यार उन्हें नहीं मिला । समय के साथ उन्हें ये आभास होने लगा था कि मैंने और डॉ० साहब ने जिस चाँद को साथ-साथ देखा था वह नकली चाँद था । प्यार को निभाने का जो उत्साह प्रभा खेतान में था वह डॉ० सर्राफ में दिखा ही नहीं । निष्कपटता , निश्छलता प्रेम की कसौटी है । इसमें लेने का नहीं, देने का भाव होना चाहिए । लेखिका ने तो अपना हर कर्तव्य निभाया लेकिन डॉ० सर्राफ ने इस रिश्ते  के प्रति अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं निभाई । घनानंद के शब्दों में कहें तो-
‘‘तुम कौन धौं पाटी पढ़े हो लला
मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं।’’
जिस तरह प्रभा खेतान स्वयं से प्रश्न करती है उसी तरह के सवाल एक पाठक के रूप में मेरे जेहन में हमेशा कौंधते रहेंगे कि आखिर उस 22 साल की लड़की को क्या कमी थी कि वह आखिर अपने लिए क्यों नहीं जीती? क्यों एक परजीवी की तरह जी रही थी ।
आधुनिक काल में साहित्य सृजन को बढ़ावा दिया है आत्मकथा ने । यह विधा रचनाकार द्वारा स्वयं अपने विषय में तटस्थ भाव से दिया गया विवरण होती है । आत्मनिष्ठ विधा होने पर भी इसमें देशकाल का वातावरण सक्रिय रहता है । वर्तमान में कई महत्वपूर्ण आत्मकथाएं हैं जैसे- हरिवंश राय बच्चन की आत्मकथा चार खण्डों में, ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’, ‘नीड़ का निर्माण फिर’, ’बसेरे से दूर’ और ‘दशद्वार से सोपान तक’, यशपाल जैन की ‘मेरी जीवनधारा’, अमृतलाल नागर की ‘टुकड़े-टुकड़े दास्तान’, डॉ. नगेन्द्र की ‘अर्धकथा’, रामदरश मिश्र की ‘सहचर है समय’, डॉ. रामविलास शर्मा की तीन भागों में - ‘अपनी धरती अपने लोग’, ‘मुंडेर पर सूरज’ एवं ‘आपस की बातें’ कमलेश्वर की आत्मकथा तीन खण्डों में - ‘जो मैंने जिया’, ’यादों का चिराग’ और ‘जलती हुई नदी’, भगवतीचरण वर्मा की ‘कहि न जाय का कहिए’, राजेंद्र यादव की ‘मुड़-मुड़ कर देखता हूँ’, भीष्म साहनी की ‘आज के अतीत’ और विष्णु प्रभाकर की ‘पंछी उड़ गया’ आदि लेकिन स्त्री आत्मकथाओं को सामने आने में लंबा समय लगा है किन्तु अब तक जितनी भी आत्मकथाएं लिखी गई हैं उनमें यह हमेशा बेबाक रहेगी ।
Review by Tejas Poonia

2 comments:

  1. हम ने देखी है इन आँखों की महकती खुशबू
    हाथ से छूके इसे रिश्तों का इल्ज़ाम न दो
    सिर्फ़ एहसास है ये रूह से महसूस करो
    प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो
    हम ने देखी है ...

    प्यार कोई बोल नहीं, प्यार आवाज़ नहीं
    एक खामोशी है सुनती है कहा करती है
    ना ये बुझती है ना रुकती है ना ठहरी है कहीं
    नूर की बूँद है सदियों से बहा करती है
    सिर्फ़ एहसास है ये, रूह से महसूस करो
    प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई नाम ना दो
    हम ने देखी है ...

    मुस्कराहट सी खिली रहती है आँखों में कहीं
    और पलकों पे उजाले से छुपे रहते हैं
    होंठ कुछ कहते नहीं, काँपते होंठों पे मगर
    कितने खामोश से अफ़साने रुके रहते हैं
    सिर्फ़ एहसास है ये, रूह से महसूस करो
    प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई नाम ना दो
    हम ने देखी है ...

    लता, गुलज़ार, हेमंत कुमार

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