Saturday, October 5, 2019

रिव्यू : बैजा बैजा कराती है ‘चम्म’


श्री गंगानगर इन्टरनेशनल फिल्म फेस्टिवल 19 से 23 जनवरी की शुरुआत हो चुकी है। और फेस्टिवल की शुरुआत में ही पहली ही फिल्म चम्म (Chamm) जो नॉन कम्पीटीशन कैटगरी में दिखाई गई नोजगे स्कूल ही नहीं, पंजाबी सिनेमा, पंजाब और श्री गंगानगर के साथ साथ इस पहले फिल्म फेस्टिवल की भी बैजा बैजा यानी वाहवाही करवाती है। 

फिल्म किसानों और दलितों के जीवन पर आधारित है। फिल्म निर्देशक इससे पहले अपनी फिल्म ‘नाबर’ (Nabar) के लिए राष्ट्रीय पुरूस्कार से सम्मानित भी हो चुके हैं। फिल्म की शुरुआत से पहले हुई बातचीत में उन्होंने बताया कि ‘चम्म’ फिल्म को करीब तीन सौ (300) से भी ज्यादा बार दिखाया जा चुका है। ख़ास करके उन इलाकों में जा जाकर फिल्म दिखाई गई है जहाँ के लोग अपने जीवन में कभी सिनेमाघरों का रुख नहीं कर पाते। जब दो जून की रोटी उन्हें नसीब न हो तो फिल्म कैसे देखे। इस फिल्म को करीब एक लाख से अधिक ऐसे लोगों के बीच जाकर दिखाया गया है जिससे उन्हें अपने अधिकारों और अन्य जरूरी मुद्दों पर जागरूक होने का हौसला मिला है। वैसे पंजाबी सिनेमा की बात की जाए तो यहाँ अधिक हनी सिंह या ऐसे ही अन्य गायकों और अभिनेताओं की बैजा बैजा होती है । वह भी उनकी कमाई के मामले में। पंजाब में समानांतर सिनेमा का बीड़ा उठाने वाले चंद लोगों में फिल्म चम्म के निर्देशक राजीव कुमार हैं। पंजाबी सिनेमा के नाम पर युवाओं को बर्बाद कर देने वाले निर्माताओं और निर्देशकों के लिए राजीव और उनकी फिल्म चम्म एक करारा तमाचा है। फिल्म की शुरुआत क्रांतिकारी संत गुरु रविदास की कविता ‘बेगमपुरा सहर को नाऊँ’ के बोल से होती है। फिल्म शुरुआत से ही दर्शकों के दिलों दिमाग पर काबिज होने लगती है और यहीं पर निर्देशक तालियों के हकदार हो जाते हैं। सिने प्रेमियों के दिल में यह फिल्म शैदाई तवज्जो पाती है। लघु फिल्म होने के बावजूद भी फिल्म में राहू, केतु और उनकी कहानी के अलावा देवासुर संग्राम की कहानी कहना फिल्म को पौराणिक तथ्यों और मिथकों से जोड़ते हुए और अधिक मजबूत बनाता है। इंसान क्या है? जातियां क्या है? ऐसे तमाम प्रश्नों पर करारा प्रहार करती हुई फिल्म चम्म वैश्वीकरण और ग्लोब्लाईजेशन के मुद्दे को भी हल्के से छू कर निकल जाती है। मालवा प्रांत में फिल्माई गई फिल्म की मोटा-मोटी कहानी यह है कि – पंजाब के एक गाँव में मरे हुए जानवर उठाने का काम करने वाला आदमी है। जो उनकी खाल बेचकर अपनी रोजी-रोटी कमाता है । और घोर दरिद्रता में जीता है। अपनी बदहाली से तंग एक बार जब वह वोट देने से इनकार कर देता है तो उसे सरपंच के हथकंडों और प्रपंचों का सामना करना पड़ता है।  उस आदमी को यह लगता है कि वह हमेशा इन अमीरों और नेताओं के झूठे वादों से ठगा गया है। तभी गाँव में पशुओं की लेडी डाक्टर का आना होता है और वह उन्हें उनके अधिकारों के प्रति जागरूक कर जाती है। उन अत्याचारों के अलावा ड्रग्स के कारण हर दिन मर रहे दो-चार लोगों, युवाओं के लिए भी वह गाँव की महिलाओं को जागरूक कर जाती है । फिल्म के बेहतरीन होने के बाद भी यदि फिल्म में जमीन के किस्से को थोड़ा और खींचा जाता तो यह फिल्म कुछ और पहलुओं को भी उभार पाने में सक्षम हो पाती। फिल्म का लबोलुआब है कि फिल्म आपकी आँखों में भरपूर आंसुओं के अलावा कई प्रश्न भी छोड़ जाती है । फिल्म के कसे हुए निर्देशन के अलावा फिल्म की कास्ट और उनके अभिनय को भी दाद देनी बनती है। हाल फिलहाल में सिनेमा और उससे जुड़े लोग जो कचरा फ़िल्में भी गुड़ की डली समझकर चबा जाते हैं उनके लिए भी यह फिल्म संदेश देती है। अभिनय के मामले में मेहेरीन, हरदीप गिल, सुरेन्द्र , बलजिंदर, जिम्मी गिद्देरबाहा (जिम्मी दंगल और मुबारकां जैसी फिल्मों के असिस्टेंट डायरेक्टर भी रहे हैं) सभी उम्दा रहे हैं। फिल्म के मुख्य किरदार सुरेन्द्र विशेष बधाई के पात्र हैं। फिल्म के निर्माता तेजिंदर पाल का फिल्म के निर्माता बनने का फैसला भी बिल्कुल दुरस्त है। निर्देशक राजीव की यह फिल्म पिछले साल ‘कान फिल्म फेस्टिवल’ में भी दिखाई जा चुकी है। अब तक 7 फ़िल्में बना चुके राजीव नॉन कमर्शियल फिल्मों का जाना पहचाना नाम है । 2017 में बनी यह फिल्म आने वाले कई सालों तक प्रसांगिक रहेगी । फिल्म कई मायनों में रियलिस्टिक सिनेमा का आभास कराती है । फिर इसकी कास्ट हो या सेट और लोकेशन । इन सबके अलावा फिल्म में गुरुनानक की वाणी के रूप में गीत कर्ण प्रिय लगता है । फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर, सिनेमेटोग्राफी, म्यूजिक सभी बाकमाल रहे ।
अपनी रेटिंग 4 स्टार
Review by tejas poonia

No comments:

Post a Comment