मात्र डिग्री प्राप्त कर नौकरी पा लेना ही शिक्षा नहीं है और न ही शिक्षा का एकमात्र ध्येय नौकरी पाना है। बल्कि शिक्षा मनुष्य के सम्पूर्ण और पूरक विकास हेतु उसके विभिन्न ज्ञान तंतुओं को प्रशिक्षित करने की प्रक्रिया का नाम है। शिक्षा सामाजिक जीवन की एक अति महत्वपूर्ण उपलब्धि है। शिक्षा ही एक ऐसा माध्यम है, जो मनुष्य का सही मायनों में ‘मनुष्यता‘ से परिचय कराती है। आज शिक्षा जगत में अनवरत कई नये प्रयोग होने के साथ-साथ आमूल-चूल परिवर्तन भी हो रहे हैं। परन्तु आज शिक्षा का अर्थ अपनी वास्तविक गरिमा के अनुरूप अपनी महत्ता को वर्णित कर रहा है। शिक्षा का वास्तविक ध्येय है आदमी को परिपक्व बनाकर उसमें मानवता का संचार करना है। नीति शास्त्र में एक उक्ति है-‘ज्ञानेन हीनाः पषुभिः समाना‘‘ जिसका अर्थ है ‘बिना ज्ञान के मनुष्य पशु समान है।‘ स्वभाविक रूप से औपचारिक शिक्षा ही ज्ञान का प्रारम्भिक बिन्दु है। शिक्षा एक युग समानान्तर प्रक्रिया है। समय की गति और उसके नवीन परिवर्तनों के अनुसार प्रत्येक समयाकाल में शिक्षा की परिभाषा, रूप और उद्देश्य भी तत्कालीन समयानुरूप परिवर्तनीय होते हैं। यह एक ऐतिहासिक सत्य है। जैसे-जैसे मानव का विकास होता आया है, वैसे-वैसे शिक्षा जगत में भी नित नये आयाम खुल रहे हैं। जिसके फलस्वरूप आज शिक्षाविदों के समक्ष कई चुनौतियां आ खड़ी हुई हैं। जिसके आधार पर शिक्षा की नयी परिवर्तित-परिवर्धित रूप-रेखा की महती आवश्यकता है। शिक्षा का सबसे अनिवार्य तत्व है कि वह अपनी संस्कृति, धर्म तथा अपने इतिहास को अक्षुण्ण बनाये रखने में समर्थ है। इसके कारण ही देश का गौरवशाली अतीत भावी पीढ़ियों के समक्ष द्योतित होता है और युवा पीढ़ी अपने अतीत से जुड़कर लगाव महसूस करती है।
वैसे तो ताउम्र मनुष्य की शिक्षा किसी न किसी रूप में चलती ही रहती है, परन्तु औपचारिक रूप से शिक्षा प्राथमिक से आरम्भ होकर माध्यमिक स्तर से होती हुई उच्च शिक्षा तक होती है। उच्च शिक्षा को तृतीयक, तीसरे चरण या पोस्ट माध्यमिक शिक्षा भी कहा जाता है। विश्वविद्यालय-महाविद्यालयों उच्च शिक्षा प्रदान करने के मुख्य संस्थान है। साधारणतः उच्च शिक्षा परिणाम प्रमाण-पत्र, डिप्लोमा व शैक्षिक डिग्री के रूप में मिलते हैं। उच्च शिक्षा में अनुसंधान और विश्वविद्यालय के सामाजिक सेवाओं के सामाजिक गतिविधियां भी सम्मिलित हैं।
उच्च शिक्षा का सामान्य अर्थ है साधारण रूप से सबकों दी जाने वाली शिक्षा से बढ़कर ऊपर किसी विशेष विषय या विषयों में विशेष, विशद तथा सूक्ष्म शिक्षा है। (विकिपीडिया के अनुसार) इसके अन्तर्गत स्नातक, परास्नातक एवं व्यावसायिक शिक्षा के साथ अनेक प्रकार के प्रशिक्षण आते हैं।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 के अनुसार हमारे जीवन में उच्च शिक्षा के उद्देश्य के सन्दर्भ में स्पष्ट किया है-‘‘सभी षिक्षाओं का, अभ्यासों का अंतिम ध्येय मनुष्य का विकास करना है। मनुष्य की इच्छा शक्ति का प्रवाह और अविष्कार संयति होकर, फलदायी बन षिक्षार्थी के जीवन में उच्च षिक्षा का महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि उच्च षिक्षा लोगों को एक अवसर प्रदान करती है, जिससे वे मानवता के सामने आज सोचनीय रूप से उपस्थित सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, नैतिक व आध्यात्मिक मसलों पर सोच-विचार कर सकें। अपने विषिष्ट ज्ञान और कौषल के प्रसार द्वारा उच्च षिक्षा राष्ट्रीय विकास में योगदान करती है। इस कारण हमारे अस्तित्व के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है।‘‘ विश्व के महान ज्ञान-दार्शनिक स्वामी विवेकानंद सम्पूर्ण शिक्षा प्रणाली पर गंभीर चितंन व अध्ययन के पश्चात् उसके उद्देश्य को कुछ इस प्रकार उद्घाटित करते हैं ‘‘सारी षिक्षा तथा समस्त प्रषिक्षण का उद्देष्य ‘मनुष्य‘ का निर्माण होना चाहिए। परन्तु हम यह न करके केवल बहिरंग पर ही पानी चढ़ाने का सदा प्रयत्न किया करते हैं। जहाँ व्यक्तित्व का ही अभाव है, वहाँ सिर्फ बहिरंग पर पानी चढ़ाने का प्रयत्न करने से क्या लाभ? सारी षिक्षा का ध्येय है ,मनुष्य का विकास।‘‘ स्वामी जी के उपरोक्त चिंतनपरक कथन में सबसे असामान्य और ध्यानाकर्षित करने वाला तथ्य है ‘मनुष्य में व्यक्तित्व का अभाव‘। व्यक्तित्व का अभाव का मुख्य कारण है सामान्य मानवीय समाज में नैतिकता का पतन। हमारे जीवन के सार्वजनिक आवश्यक पहलू हैं नैतिक मूल्य। परन्तु दुर्भाग्यवश इस पहलु से आज हम और हमारी शिक्षा व्यवस्था विशेषकर उच्च शिक्षा व्यवस्था अपना मूख मोड़ते हुए अपने इस मूल कर्तव्य से पलायन कर रही है। उच्च शिक्षा मात्र डिग्री हासिल कर नौकरी प्राप्त करने का माध्यम बनकर रह गयी है। फलस्वरूप आज का स्नातक/स्नातकोत्तर स्तर के विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता, विवेकहीनता, बईमानी, झूठ, अमानवीयता, आत्मबल के हृास के चलते आत्महत्या आदि मानसिक व्याधियां आम बात हो गयी हैं। वर्तमान युवा पीढ़ी में बढ़ रहीं अनैतिकता वर्तमान और भावी दोनों समाज के लिए बहुत खतरनाक साबित हो रही है और होंगी। इसके दुष्परिणाम कई रूपों में रोजमर्रा अखबारों व समाचार चैनलों पर देखे जा सकते हैं।
आज जरूरत है शिक्षकों के साथ उच्च शिक्षा से संबंधित सभी सरकारी व गैर सरकारी विभागों को चाहिए कि सामाजिक परिवर्तन को देखते हुए उच्च शिक्षा को मात्र पाठ्यक्रम व परीक्षाओं के सम्पन्न कराने का माध्यम न बनाया जाये बल्कि उसकी गुणवत्ता को बनाये रखने के लिए नैतिक मूल्यों से अनुप्रमाणित कर आत्मसंयम, प्रलोभनोपेक्षा, इंद्रिय संयम तथा नैतिक मूल्यों को आधार में रखकर भारतीय समाज, अंतर्राष्ट्रीय जगत की सुख-शांति और समृद्धि को माध्यम तथा साधन बनाया जाए। महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘‘जिस तालीम का असर हमारे चरित्र पर नहीं होता वह कुछ काम की नहीं होती।‘‘ इसी बात को ध्यान में रखते हुए आज हमारे विद्यालयों के पाठ्यक्रम में नैतिक मूल्यों से सम्बंधित विषयों को दोबारा शुरू करने की अतिआवश्यकता है। क्योंकि आज का मानव नीतिपरक मूल्यों में अपनी आस्था खोता जा रहा है। सरकार को नैतिक मूल्यों पर आधारित शिक्षा को सम्पूर्ण देश के उच्च शैक्षणिक संस्थानों में आवश्यक रूप से पाठ्यक्रमों का हिस्सा बनाना चाहिए। विज्ञान सम्मत स्वास्थ्य शिक्षा, नैतिक शिक्षा, व्यक्तिगत विकास व चरित्र निर्माण और सामाजिक जागरूकता हेतु पाठ्यक्रम तैयार किये जाने चाहिए। किसी समाज के मानवीय मूल्यों को दृढ़ बनाने की जिम्मेदारी मात्र व्यक्तिगत प्रयासों तक ही सीमित नहीं रहनी चाहिए, समाज का महत्वपूर्ण अंग कहे जाने वाले शिक्षक को भी इस सन्दर्भ में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए। यह कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं होगा कि वर्तमान शिक्षा चरित्र निर्माण के लिए होनी चाहिए। जब तक हमारे उच्च शिक्षण संस्थानों में मानव रूपी मशीन बनाते रहेंगे और शिक्षार्थियों के चरित्र निर्माण पर ध्यान नहीं दिया जाएगा तब तक यह समस्याएँ यथावत् रहेंगी।
नैतिक व सामाजिक मूल्यों पर आधारित उच्च शिक्षा वास्तव में समाज में वास्तविक सुख-शांति स्थापित हो सकेगी। हम प्राथमिक व माध्यमिक स्तर पर काफी हद तक पाठ्यक्रम (हालांकि वह भी संतुष्टिपरक नहीं है) के माध्यम से बच्चों को नैतिक शिक्षा का ज्ञान कराया जाता है, परन्तु सही मायनों में उच्च शिक्षा में शिक्षार्थियोें को उनके विषयानुसार के साथ-साथ नैतिक मूल्यों की शिक्षा भी अनिवार्य रूप से दी जानी चाहिए। लेकिन न इसके प्रति राष्ट्रीय-राज्य सरकार सजग है और न ही महाविद्यालय या विश्वविद्यालय स्तर पर जुडे़ शैक्षिक अधिकारी/कर्मचारी/शिक्षक। इस पर गंभीर चिंतन की आवश्यकता है। शिक्षार्थी के जीवनकाल में नैतिकता परक उच्च शिक्षा का बहुत बड़ा महत्व है। क्योंकि उच्च शिक्षा में नैतिक-सामाजिक मूल्यों का शिक्षण व प्रचार-प्रसार ही लोगों को मानवता का मार्ग प्रशस्त करेगा। साथ ही देश के युवा अपने विशिष्ट ज्ञान, नैतिकता और कौशल के प्रसार द्वारा उच्च शिक्षा प्राप्त करने के साथ-साथ राष्ट्र के सच्चे विकास में योगदान कर सकेंगे। उच्च शिक्षा में गुणवत्ता की महत्ता के विषय में तत्कालीन प्रमुख सचिव ने अपनी पुस्तक ‘उच्च शिक्षा में गुणवत्ता प्रबंधन‘ में लिखा है ‘‘उच्च षिक्षा का सम्बंध जीवन में गुणवत्ता के विकास क्रम में अर्जित मानवता के दीर्घकालिक अनुभवों को आत्म उपलब्धि की दिषा में समाजीकरण के साथ अग्रसारित किया जा सके। ऐसे अनुभवों के समुच्चय ही कालान्तर में मूल्य बनते हैं, जिन्हे अपनाने की परम्परा ही संक्षेप में संस्कृति कहलाती है।‘‘ निश्चय ही इस संस्कृति का रक्षक व विस्तारित करने में एक शिक्षक ही महत्वपूर्ण भूमिका है।
इसे देश का दुर्भाग्य कहे या विडम्बना गुणवत्ता की दृष्टि से कभी विश्व गुरू कहलाये जाने वाले हमारे देश का कोई भी उच्च अध्ययन संस्थान विश्वभर में 200 शीर्ष उच्च शिक्षा संस्थानों की सूची में अपना स्थान नहीं रखता है। (द टाइम्स विश्व यूनिवर्सिटीज़ रैंकिंग 2013 के अनुसार) महाविद्यालयों व विश्वविद्यालयों की कक्षाओं में अपने विषयवार व्याख्यान के अलावा शिक्षकों को स्नातक व परास्नातक स्तर पर नैतिक शिक्षा की आवश्यकता पर भी विशेष ध्यान देना चाहिए। आज शिक्षक का कर्तव्य मात्र पाठ्यक्रम पूर्ण कराने व परीक्षाओं का सफल समापन कराने तक ही सीमित हो गया है। इससे ज्यादा वह अपने ही प्रोन्नत हेतु विभिन्न प्रकार की अनिवार्य प्रक्रियाओं को पूर्ण करने में ही मजबूरन व्यस्त है। जबकि शिक्षक सही मायनों वही है, जो बच्चों को अपने विषयगत ज्ञान के अतिरिक्त जीवन से सम्बंधित सामाजिक-नैतिक मूल्यों के बारे में भी कक्षा में बच्चों के साथ गंभीरता से चर्चा करें। भारत का युवा हमारी शक्ति है और इस शक्ति को सकारात्मक मार्ग पर लगाना हम सबका परम कर्तव्य होना चाहिए। शिक्षकों के साथ ही पारिवारिक स्तर पर भी अपने युवा बच्चों को जीवन के विभिन्न पहलुओं के सन्दर्भ में उन्हें सजग रखना चाहिए। नैतिकता का पाठ स्वयं पहले अपने घर से शुरू होता है फिर यह कार्य समानान्तर रूप स्कूल-कॉलेजों के प्रशासन, प्रबंधन व शिक्षकों द्वारा अनवरत किया जाना चाहिए।
युवाओं में समाज की अधिकतर सामाजिक समस्याएँ मात्र नैतिक मूल्यों के गिरने के परिणास्वरूप ही बढ़ रही हैं। हमारे युवा हमारा भविष्य का निर्धारण करेंगे। अतः उच्च शिक्षा पद्धति ऐसी हो जिसमें समय-समय पर महाविद्यालय-विश्वविद्यालयों में नैतिक मूल्यों को बच्चों के जीवन में संचार करने पर बल दें। समाजिक-नैतिक मूल्यों की जरूरतो से उन्हें रू-ब-रू कराया जाए। इनके चरित्र निर्माण तभी होगा जब परिवार के साथ ही उच्च शिक्षा में भी युवा विद्यार्थियों हेतु नैतिक मूल्यों का बराबर ज्ञान कराया जाए। यह काम और भी सरल हो जाएगा यदि हम/शिक्षक स्वयं भी बच्चों के सामने नैतिकता का आदर्श का प्रस्तुत करें।
महान दार्शनिक कन्फ्यूशियस ने कहा था कि ‘‘यदि आपका चरित्र अच्छा है, तो आपके परिवार में शांति रहेगी, यदि आपके परिवार में शांति रहेगी तो समाज में शांति रहेगी, यदि समाज में शांति रहेगी तो राष्ट्र में शांति रहेगी।‘‘ अतः परिवार व समाज में शान्ति हेतु प्रत्येक व्यक्ति को चरित्रवान होना होगा। इससे अपने घर में ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण मानवजाति में शांति स्थापित हो सकेगी। किसी भी राष्ट्र के विकास का मानक ‘धन सम्पदा‘ नहीं हो सकती, अपितु उसके नागरिकों का उच्च चरित्र होना ही किसी भी देश या राष्ट्र के लिए समृद्धि का सूचक है। अब वक्त आ गया है कि हमारी उच्च शिक्षा पद्धति ही यह तय करें कि अपनी भावी पीढ़ी को अनैतिक, संस्कारहीन, आदर्श-मर्यादा विहीन समाज के स्थान पर एक स्वस्थ, संस्कारवान्, आदर्शवादी समाज की सौंगात दंे। अपने बच्चों को अंधकार से बचा, नैतिकता की ओर ले जाना होगा। यह जिम्मेदारी का कार्य हमारे महाविद्यालय और विश्वविद्यालयों से बेहतर भला कौन कर सकेगा। अपनी भावी पीढ़ी का नैतिक उत्थान हेतु प्रयास करना ही हमारी शिक्षा का मूल ध्येय होना चाहिए।
धन्यवाद
डॉ. राम भरोसे
सम्प्रतिः असिस्टेन्ट प्रोफेसर (हिन्दी विभागाध्यक्ष)
श.बे.चौ. राजकीय महाविद्यालय पोखरी (क्वीली)
टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड
919045602061, 91719177319
निवासः
‘कृष्णा निवास‘
म.नं.-1 गली नं.-1, टिहरी विस्थापित कॉलोनी,
ज्वालापुर, हरिद्वार
उत्तराखण्ड
Very nice understanding and relivance article 👌
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