Sunday, November 15, 2020

रिव्यू : जज्बे और बुलंद हौसलों की कहानी 'छलाँग'



फिल्म:छलांग


कलाकार : राजकुमार राव, नुसरत भरुचा, मोहम्मद जीशान अयूब, सौरभ शुक्ला, सतीश कौशिक, बलजिंदर कौर 

निर्देशक :हंसल मेहता


राजकुमार राव और नुसरत भरुचा स्टारर फिल्म छलांग अमेजन प्राइम वीडियो पर रिलीज हो चुकी है। इस फ़िल्म का मुझे विशेष रूप से इंतजार था।  जिंदगी में हिम्मत ना हारना जैसी सीख बहुत सी जगह से मिलती रहती है। लेकिन बात तब बनती है जब हम उस सीख को अपने जीवन में धारण कर पाएं। क्योंकि जब तक हम खुद अपने   लिए कुछ नहीं करते तब तक दूसरों का बोलना जाया ही जाता है। अपने हालातों को बेहतर बनाने, आगे बढ़ने, की सीख यह फ़िल्म देती है। 

इधर बॉलीवुड में खेलों पर आधारित कई फिल्में आई हैं। और अमूमन हर खेल से जुड़ी फ़िल्म में जज्बा विशेष रूप से देखने को मिलता है। 

फिल्म की कहानी  हरियाणा के एक गाँव से शुरू होती है जहां  महेंद्र हुड्डा उर्फ मोन्टू यानी राजकुमार राव एक सरकारी स्कूल का पीटीआई  टीचर है। मोन्टू की जिंदगी बड़े आराम से कट रही है। वो स्कूल के बच्चों को कभी-कभी कुछ सिखा देता है अन्यथा खेल के मैदान में बैठा बस टाइमपास करता रहता है। मोन्टू ने अपनी जिंदगी में अभी तक कुछ बड़ा नहीं किया है। वह हर चीज को अधूरा छोड़ देता है। और तो और उसकी नौकरी भी उसे अपने पिता के कहने पर उसी स्कूल में मिली है, जिसमें वो बचपन में पढ़ा था। 


मोन्टू की दोस्ती उसी के स्कूल टीचर वेंकट यानी सौरभ शुक्ला से है। सब सही चल रहा है लेकिन उसकी जिंदगी स्कूल में नीलिमी मैडम यानी नुसरत भरुचा के आते ही बदलने लगती है। नीलिमा जो एक कंप्यूटर टीचर है, को  पटाने के लिए मोन्टू कोशिशें करने लगता है। लेकिन अब प्रेमी कहानी शुरू हुई है तो विलेन भी होगा ही। यहां आते  हैं नये पीटी टीचर मिस्टर सिंह यानी मोहम्मद जीशान अयूब। मिस्टर सिंह के आने से मोन्टू की नौकरी, छोकरी और इज्जत सब छिनने की कगार पर आ जाती है। ऐसे में अपना हीरो क्या फैसला लेता। और वह स्पोर्ट्स के कौन-कौन से कम्पटीशन लड़ने का फैसला करता है जानने के लिए आपको फ़िल्म देखनी होगी। इसके अलावा खेल देखते हुए आपके मनोभाव भी उसी दिशा में गोते खाने लगते हैं। और आप भी चाहते हैं कि अपना हीरो जीते।

 

ख़ैर परफॉरमेंस की बात करें तो राजकुमार राव बॉलीवुड के उन एक्टर्स में से हैं, जो आपको कभी निराश नहीं करते। उन्हें कोई भी रोल दे दिया जाए वो उसे बहुत आराम से निभा जाते हैं। छलांग में भी उन्होंने ऐसा ही किया है। इसके अलावा नीलिमा के रोल में नुसरत भरुचा ने अच्छा काम किया है। उनका रोल भले ही छोटा रहा हो लेकिन उनका काम और अंदाज देखने लायक है। 


बात सपोर्टिंग किरदारों की हो तो मोन्टू के पिता के रोल में सतीश कौशल, दोस्त और टीचर के रोल में सौरभ शुक्ला, मां के रोल में पंजाबी सिनेमा की बेहतरीन अदाकारा बलजिंदर कौर और स्कूल की प्रिंसिपल के रोल में ईला अरुण ने कमाल का काम किया है। किसी भी सीन में ये मंझे हुए एक्टर्स आपको निराश नहीं करते। फिल्म के 'विलेन' मिस्टर सिंह के रोल में मोहम्मद जीशान अयूब ने भी बढ़िया काम किया है।  स्कूल के बच्चों की तारीफ विशेष रूप से करनी होगी वे सभी कमाल के थे। यदि कहूँ कि उन्होंने ही इस फिल्म में जान डाली है तो कोई बड़ी बात नहीं होगी। 



डायरेक्टर हंसल मेहता जानते हैं कि इतनी बढ़िया स्टारकास्ट के लिए उन्हें अच्छी कहानी चाहिए और उन्होंने वही दर्शकों को दी भी है। फ़िल्म की कहानी लव रंजन ने लिखी है और बहुत समय बाद लव रंजन की लिखी कहानी में कोई लड़की लड़के को ठगने का काम नहीं कर रही है।  स्कूल और पीटी टीचर की जिंदगी, हरियाणा के गांव और अन्य सेट को हंसल मेहता ने करीने से दिखाया है। फिल्म का म्यूजिक बढ़िया है। बैकग्राउंड स्कोर खास करके खेल के समय लाजवाब बन पड़ा है। फ़िल्म में कुछ कमियां भी नजर आती हैं। लेकिन उन्हें नजरअंदाज करके इसे देखा जाए तो एक एंटरटेनिंग है और जीवन की सीख देकर जाती है। 



अपनी रेटिंग 3.5



Review By Tejas Poonia


Sunday, November 8, 2020

बुक रिव्यू : दलित आंदोलन से गुजरते हुए हिन्दी दलित आत्मकथाएं - एक मूल्यांकन : पुनीता जैन

 



पुस्तक : हिन्दी दलित आत्मकथाएँ, एक मूल्यांकन

लेखक : पुनीता जैन

प्रकाशक : सामयिक पेपरबैक्स, नई दिल्ली

संस्करण : 2018

मूल्य : रु. 300

हिन्दी साहित्य में अवतरित हुए तमाम आंदोलनों-विमर्शों में स्त्री विमर्श, आदिवासी विमर्श, दलित विमर्श आदि ने हिन्दी साहित्य की चिंतन प्रक्रिया को एक नवीन मोड़ प्रदान किया है । इन विमर्शों ने साहित्य की परंपरागत गति को आम जन के दर्द से जोड़कर जो नवीनता उत्पन्न की है, उससे साहित्य में विमर्श के मायने बदले हैं । हिन्दी में दलित आत्मकथाओं के मूल्यांकन के माध्यम से लेखिका पुनीता जैन ने इन मान्यताओं को एक नवीन दृष्टि प्रदान करते हुए दलित आत्मकथाओं के चिंतन को सर्वग्राह्यता प्रदान की है ।

हिन्दी के नवजागरण काल से ही दलित-विमर्श ने साहित्य में अपना स्थान निर्धारित किया । दलितों के साथ-साथ गैर-दलित लेखकों ने भी इस आंदोलन का समर्थन किया । साहित्य में मुख्यधारा की विभिन्न प्रतिष्ठित पत्रिकाओं ने इस विषय पर विशेषांक निकालकर दलित आंदोलन को तीव्रता प्रदान की । पिछले दशकों में दलितों के बीच से कई अच्छे लेखक सामने आए, जिन्होंने दलितों की पीड़ा को ‘भोगे हुए यथार्थ’ के रूप में सामने रखा । इन लेखकों ने कविता, कहानी, उपन्यास, लेख तथा आत्मकथाओं के माध्यम से दलितों के सदियों पुराने दर्द को समाज से रूबरू करवाया । इन विधाओं में आत्मकथाओं का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा । दलित विमर्श को ‘हंस’ के वर्ष दो हजार चार में निकले विशेषांक ने एक विशेष गति प्रदान की । 

वास्तव में देखा जाए तो दलित लेखन में जो ‘भोगा हुआ यथार्थ’ था, वह दलित आत्मकथाओं में विशेष रूप से उजागर हुआ । इन आत्मकथाओं में दलित लेखकों ने अपने समय और समाज को स्वयं की आंखों से देखा, परखा और भूतकाल से तुलना करते हुए उस यथार्थ को अपने लेखन में उतारा । समीक्ष्य पुस्तक ‘हिन्दी दलित आत्मकथाएं, एक मूल्यांकन’ में लेखिका पुनीता जैन ने दलित लेखकों द्वारा लिखी गईं लगभग सभी आत्मकथाओं को बड़ी ही सूक्ष्मता के साथ कुछ ऐसे प्रस्तुत किया कि इनआत्मकथाओं से अन्जान पाठक भी लेखक और उसके समाज के सच से परिचित हो सके । खालिस परिचित ही नहीं बल्कि गहराई से परिचय प्राप्त कर सके । 

पुस्तक के ‘फ्लैप’ पर डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे लिखते हैं “सृजनात्मक साहित्य के निर्माण के मूल में लेखक की अकुलाहट, बेचैनी-यही एकमात्र बड़ा कारण होती है । लेखक अपनी अनुभूति के बोझ से मुक्त होने हेतु लिखने लगता है । सृजनात्मक समीक्षक की भी यही स्थिति होती है । एक मनुष्य होने के नाते पुनीता जैन, धर्म, जाति, पन्थ के परे जाकर दलितों की संवेदनाओं से, उनकी व्यथाओं से उनकी मर्मांतक पीड़ाओं से इस कदर प्रभावित, प्रेरित हो जाती हैं कि वह उनकी सहयात्री ही बन जाती हैं ।  इस सहयात्रा में एक ओर वे उस पीड़ा को भोगती भी हैं तथा उसी समय उस पीड़ा को, उसके भोगनेवाले को पूरी तटस्थता से देखती भी हैं ।” 

वास्तव में मूल पुस्तकों पर किए गए लेखन की पहली शर्त होती है कि लेखक मूल के अंतर्मन में पहुँचकर उस मूल संवेदना को निकालकर सामने लाए जिसको पढ़ते हुए ही मूल को पढ़ने और समझने की जिज्ञासा बढ़ जाए । उक्त पुस्तक में लेखिका ने मूल रचनाओं की उस मूल जड़ को बखूबी पकड़ा है । 


(सुनील मानव)

पुस्तक का आरंभ भूमिका के परिचय के साथ दलित साहित्य और उसमें भी दलित आत्मकथाओं की पृष्ठभूमि के परिचय से होता है जो इस पुस्तक की मूल विषय वस्तु का आधार बनी है । 

हिन्दी साहित्य की पृष्ठभूमि पर यदि दृष्टि डालें तो इस साहित्य की रचना में कुछ सामाजिकताओं के साथ स्वान्त:सुखाय एवं वाग्विलाश का भाव अधिक रहा है लेकिन दलित साहित्य दलितों के साथ सदियों से चले आ रहे अन्याय एवं अत्याचार, समाज में उनकी दयनीय स्थित अथवा कहा जाए कि वर्णव्यवस्था के अत्याचारों के प्रति स्वर उठाने की प्रक्रिया में हुआ । लेखिका पुनीता जैन ने प्रथम अध्याय ‘हिन्दी दलित साहित्य की पृष्ठभूमि’ में इन पूरी प्रकिया की पृष्ठभूमि को स्पर्श करते हुए वेदकाल से लेकर अंबेडकर के आंदोलन तक अपनी सूक्ष्म दृष्टि दौड़ाई है । इस संदर्भ में आपने इस बात को प्रमुखता से इंगित किया है कि वर्तमान में यदि कहा जाए कि अब से पहले दलितों को लेकर कोई आंदोलन नहीं हुए अथवा साहित्यिक रूप में कुछ लिखा नहीं गया तो यह बात पूरी तरह सही नहीं है । आप लिखती हैं “वर्तमान दलित लेखन, साहित्य पर यह आरोप नहीं लगा सकता कि उसके पक्ष में कभी आवाज नहीं उठी । वर्णव्यवस्था के विरोध में चार्वाक् से कबीर तक और कबीर से प्रेमचंद तक की लम्बी परम्परा दिखाई देती है ।” आपका यह निष्कर्ष पुस्तक के प्रति तटस्थता को मज़बूती प्रदान करता है । 

पुस्तक के द्वितीय अध्याय ‘हिन्दी दलित आत्मकथन का परिदृश्य’ में लेखिका ने वर्तमान दलित लेखन की प्रेरणा के बिन्दुओं के साथ-साथ मराठी के दलित लेखन को हिन्दी दलित साहित्य लेखन की पृष्ठभूमि के रूप में प्रस्तुत किया है । आपने हिन्दी साहित्य के आदिकाल के सिद्ध और नाथ साहित्य से लेकर मध्यकाल के संत कवियों की वाणियों को दलित साहित्य की नींव के रूप में इंगित किया है । इसके आगे लेखिका कहती हैं कि “आधुनिक काल में महाराष्ट्र में ज्योतिबा फुले व अंबेडकर के प्रभाव ने कथित शूद्र को ‘दलित’ नाम दिया तथा अन्याय के विरुद्ध खड़े होने की प्रेरणा दी । इसके प्रभाव से हुए सामाजिक, शैक्षिक जागरण ने उनके उत्पीड़न के दीर्घ इतिहास को वाणी देना आरम्भ किया । हिन्दी में दलित लेखन का प्रादुर्भाव इसी पृष्ठभूमि में मराठी साहित्य के प्रभाव से हुआ ।” अपने इस निष्कर्ष को सिद्ध करते हुए पुनीता जी तमाम संदर्भ भी प्रस्तुत करती हैं जो उनकी शोध दृष्टि की भी परिचायक है । 

तृतीय अध्याय ‘हिन्दी दलित आत्मकथाएं और उनका सौन्दर्य-मूल्य’ के संदर्भ में लेखिका ने दलित आत्मकथाकारों की उस दृष्टि को समझने का प्रयास किया है जिसके तहत कोई लेखक लिख पाता है । अपने परिवेश की सुन्दरता को संपूर्णता में देखना और उसके सार्वभौम स्वरूप को शब्दों में बाँधना, किसी भी लेखक के लिए बहुत सहज नहीं होता है । कोई भी लेखक उस सत्य को तभी शब्दों में पिरो पाता है जब वह उस परिवेश का ‘भोक्ता’ हो । ‘भोक्ता’ होने से सत्य को समझना थोड़ा आसान हो जाता है और यहीं से आत्मकथ्य के सूत्रों का सूत्रपात हो जाता है । लेखिका ने इन अध्याय में दलित लेखकों को उनकी आत्मकथाओं के संदर्भ में इसी स्वरूप में समझने का प्रयास किया है । सौंदर्यशास्त्र और कुछ आगे बढ़ते हुए दलित सौंदर्यशास्त्र को और स्पष्टता प्रदान करते हुए लेखिका ने डॉ. तुलसीराम के शब्दों को सौंदर्यशास्त्र की स्थापना के रूप में प्रस्तुत किया है कि “सौंदर्यशास्त्र का उद्देश्य साहित्य के माध्यम से व्यक्ति की सामाजिकता को परिष्कृत करना और उसके जीवन को उच्च स्तरीय बनाना है । इस प्रकार सौंदर्यबोध वैयक्तिक जीवन को उसकी संदर्भवत्ता देने और सामाजिक सम्बद्धता को सुदॄढ़ करने व गहनता प्रदान करने का दायित्त्व निभाता है ।”

हिन्दी साहित्य के आरम्भ से लेकर वर्तमान परिवेश और उसकी केन्द्र की विषय वस्तु पर दृष्टि दौड़ाई जाए तो आदिकाल के नाथ, जैन और रासो साहित्य में आम आदमी नहीं दिखता; मध्यकालीन साहित्य में ईश्वर और ईश्वर बनने की ललक के साथ ही बुर्जुवा वर्ग का चित्रण मिलता है । 1857के बाद परिस्थितियाँ कुछ बदलीं । धीरे-धीरे ही सही, साहित्य के मूल में आम आदमी की स्थिति मज़बूती पकड़ने लगी । और दलित साहित्य तक आते आते आम आदमी ने स्वयं अपनी स्थितियों को साहित्य के मूल में प्रस्तुत करना आरम्भ कर दिया । पुस्तक के चौथे अध्याय ‘दलित आत्मकथन और उसका समाज वैज्ञानिक पक्ष’ में लेखिका ने उक्त वस्तुस्थिति को गहराई से स्पष्ट किया है । लेखिका लिखती हैं कि “हिन्दी साहित्य में लम्बे समय तक ‘आम आदमी’ विषय के केन्द्र में नहीं था । जातिभेद के कारण उत्पन्न वास्तविक सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति का न्यूनतम उल्लेख हिन्दी में दिखाई देता है, जबकि साहित्य में वर्णित पात्र और परिवेश के द्वारा पाठक समाज की पृष्ठभूमि में कार्यशील स्थितियों से परिचित होता है ।”आपने इस अध्याय में लेखक और पाठक के बीच स्थापित तादात्म्य को भी स्पष्ट करने का प्रयास किया है । दलित लेखकों की आत्मकथाओं के माध्यम से पाठक को दलित वर्ग की सामाजिक परिस्थितियों का परिचय स्थापित करने का भी प्रयास है यह अध्याय । 

उक्त से आगे बढ़ते हुए पुनीता जैन ने ‘हिन्दी की दलित आत्मकथाएँ और स्त्री’ के संदर्भों को भी व्याख्यायित किया है । स्त्री की स्थिति प्रत्येक स्तर पर दयनीय रही है । वह मनुष्य कम ‘भोग्या’ अधिक मानी गई है । इस अध्याय में लेखिका ने दलित आत्मकथाओं में स्त्री की स्थिति को भी सूक्ष्मता से स्पष्ट किया है । ऐसा करते हुए लेखिका ने उन सभी आत्मकथाओं का जिक्र किया है जिनमें दलित स्त्री की वेदना को स्वर प्रदान किया गया हो । इसके साथ ही उक्त आत्मकथाओं में स्त्री की सामाजिकता को विशेष रूप में स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है । 

यहाँ तक आते आते पुस्तक का प्रथम खण्ड समाप्त हो जाता है और अगले खण्ड ‘अन्तर्पाठ’ के माध्यम से दलित आत्मालापों के आख्यानों का अन्तर्पाठ आरम्भ होता है । इन अन्तर्पाठों के माध्यम से लेखिका एक-एक कर हिन्दी की तमाम आत्मकथाओं का उनके मूल स्वर के साथ विवेचन-विश्लेषण करना आरम्भ करती है । लेखिका ने समस्त दलित आत्मकथाओं को उनकी विषय वस्तु के साथ स्पष्ट रूप से प्रकट करने का प्रयोग किया है । इन आत्मकथाओं की विषय वस्तु के साथ आत्मकथा लेखन से गुजरते हुए लेखक की मनोदशा और मूल लेखक के आस-पास को लेखिका पुनीता जैन ने बड़ी ही स्पष्टता से प्रस्तुत किया है । 

वर्ष 1995 में प्रकाशितमोहनदास नैमिशराय की ‘अपने अपने पिंजरे’ से आरम्भ हुए सफर को लेखिकावर्ष 2017में प्रकाशित हुई रजनी तिलक की आत्मकथा ‘अपनी ज़मीं अपना आसमां’तक पूरी ईमानदारी से लेकर आई हैं । इतिहास की विसंगतियों से लेकर समय के बदलाव को लेखिका ने इन आत्मकथाओं में बखूबी इंगित किया है । 

दलित आत्मकथाओं से पहले की जो आत्मकथाएँ थीं, उनमें उपदेश और सीख देने की प्रधानता के साथ-साथ लेखक के अभिजातीय दंभ भी देखने को मिलता रहा था । दलित आत्मकथाओं ने इस अभिजातीय दंभ, उपदेशात्मकता और मनोरंजकता के स्थान पर अपनी विषय वस्तु में एक आम आदमी के दर्द को, उसकी व्यथा को, उसके वातावरण को पूरी सच्चाई व आत्मनिष्ठा से उकेरने का प्रयास किया । वास्तव में यही वह विषय वस्तु थी जो लेखक की अपनी सच्चाई थी । पुनीता जैन ने आत्मकथा लेखकों की समीक्ष्य कृतियों के माध्यम से ‘एक आम जन की व्यथा’ को उसकी संपूर्णता प्रदान की है । पुनीता जैन ने इन अलग-अलग आत्मकथाओं के बिखरे सूत्रों को एक माला में पिरोते हुए संवेदना के सूत्र को एक साथ स्थापित किया है । 

अपने अपने पिंजरे, जूठन, दोहरा अभिशाप, झोपड़ी से राजभवन, घुटन, नागफनी, मेरा बचपन मेरे कंधों पर, मुर्दहिया, मणिकर्णिका, शिकंजे का दर्द, दु:ख-सुख के सफर में आदि आत्मकथाओं का जो विवेचन-विश्लेषण लेखिका पुनीता जैन ने किया है, बड़ा ही स्तुत्य है । आपने अपनी इस कृति को दलित लेखन का आख्यान बना दिया है । लेखिका ने प्रस्तुत आत्मकथाओं का एक-एक कर सिलसिलेबार कुछ ऐसा सूक्ष्म विश्लेषण किया है कि सामान्य से सामान्य पाठक भी मूल रचनाओं से अपना सहज संवाद स्थापित कर सके । 

अपनी विषय-वस्तु से इतर भी इस पुस्तक की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता और परिलक्षित होती है । वह यह कि पुस्तक को शोधपूर्ण दृष्टि से लिखा गया है । आत्मकथाओंके साथ ही उसको पूर्णता प्रदान करने के लिए लेखिका ने संबंधित लेखकों की अन्य स्वीकारोक्तियों तथा आत्मकथाओं पर अन्य समीक्षकों / आलोचकों की टिप्पणियों को जो संदर्भ रूप में प्रस्तुत किया है, वह पुस्तक की गरिमा और गहराई को और भी बढ़ाती है । 

वह पाठक जो हिन्दी की दलित आत्मकथाओं के स्वरूप और उसकी वैचारिकी को एक साथ एक ही स्थान पर समझना चाहते हैं, यह पुस्तक उन पाठकों के लिए बड़े काम की सिद्ध हो सकती है । सामान्य पाठकों के अतिरिक्त दलित विषयों पर शोध करने वाले विद्यार्थियों के लिए तो अत्यंत महत्त्वपूर्ण है ही । 

  सुनील मानव

मानस स्थली, एन.एच.24

फरीदपुर, बरेली

पिन : 243503

मोबाइल : 9918992511

Saturday, November 7, 2020

बुक रिव्यू : सकारात्मक और सामाजिक बदलाव की मूर्धन्य कहानियां


 

एक समयान्तराल के बाद मानवीय संवेदनाओं और पारिवारिक भावनाओं को छूने वाला तीन कहानी संग्रहों का संकलन ‘मेरी प्रारंभिक कहानियां’ पढ़ने को मिला। यह कहानी संग्रह माननीय केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री डॉ० रमेश पोखरियाल 'निशंक' द्वारा लिखित औऱ डॉ० गिरिराजशरण अग्रवाल द्वारा सम्पादित इसी वर्ष 2020 में संपादित हुआ है। आज भी इस संग्रह की हर कहानी प्रासंगिक ही नहीं बल्कि समाज के कटु सत्य को बयां करती है। इस संकलन में 'निशंक' जी की प्रारंभिक तीन कहानी संग्रहों 'बस एक ही इच्छा', 'क्या नहीं हो सकता' और 'भीड़ साक्षी है' में संकलित क्रमशः दस, ग्यारह और दस कहानियों को स्थान दिया गया है।

हर कहानी मानस पटल पर एक अमिट छाप छोड़ती है। हर कहानी को पढ़कर लगता है मानो हमारे आसपास ही यह सब आज भी घटित हो रहा। साधारण और आम बोलचाल (यही उनके लेखन की उपलब्धि भी है) की भाषा-शैली में लिखे ये तीनों कहानी संग्रह हिन्दी कथा साहित्य में विशिष्ट स्थान रखते हैं। हिन्दी साहित्य जगत के सशक्त हस्ताक्षर 'निशंक' जी की प्रारंभिक कहानियों को इस प्रकार सहेजकर उनको आम पाठकों तक पहुंचाना, निश्चय ही एक महती कार्य है, जिसका सम्पूर्ण श्रेय ‘डॉ० गिरिराजशरण अग्रवाल जी’ को जाता है। इसके लिए उनका धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ कि 'निशंक' जी की प्रारंभिक 31 कहानियों को उन्होंने एक ही स्थान पर पाठकों और शोधकर्ताओं के लिए उपलब्ध करा दिया। 



राजनीति के उच्च शिखर को पा लेने के बाद भी साहित्य के क्षेत्र में सक्रिय रहना स्वयं में किसी महान उपलब्धि से कम नहीं है। साथ ही उनका लेखन इस बात का भी द्योतक है कि 'निशंक' जी राजनीति जैसे कठिन और ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चलने के बाद भी साहित्य के संवेदनशील और हृदयी मार्ग को उन्होंने नहीं छोड़ा। इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए कि उन्होंने हमेशा अपनी लेखन शैली से कइयों के जीवन के दुष्कर रास्तों को अपनी लेखन की क्षमता द्वारा सरल बनाया होगा। 

'निशंक' जी का सम्पूर्ण साहित्य पर यदि नज़र डाली जाए तो आप देखेंगे कि उनका साहित्य सपनों की ऊंची उड़ान भरता प्रतीत नहीं होता बल्कि उनकी लेखनी सत्य की भूमि पर विचरण करती महसूस होती है। उनके साहित्य को पढ़कर एक आशावादी और आदर्शवादी साहित्यकार के दर्शन होते हैं, जो इस साहित्यिक और गैर-साहित्यिक विकटकाल में सहज प्राप्य नहीं है। उनका साहित्य सच की जमीन से फुटकर फिर वृहद वृक्ष बन जाता है।

कहानियों पर संक्षेप में प्रकाश डालते हैं। सबसे पहले उनका पहला कहानी संग्रह बस एक ही इच्छा में प्रकाशित कहानियों पर चर्चा करेंगे। 



वैसे तो हर कहानी पढ़कर पाठक को लगेगा कि यह कहानी लेखक के इर्द-गिर्द घूम रही है। काफी हद तक इसमें सच्चाई भी है क्योंकि लेखक यानी स्वयं 'निशंक' जी ने जीवन को बड़ी बारीकी और संवेदनशीलता से जिया है।

इस संकलन की पहली कहानी 'बस एक ही इच्छा' के नाम पर ही एक संकलन का नाम भी रखा गया है। यह कहानी उस पहाड़ी बालक विक्रम की है, जो घर की खराब आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाने के लिए नीचे मैदान के एक होटल में काम करता है। पलायन की समस्या भी इस कहानी में देखी जा सकती है। 1985 में लेखक ने जो चिंता इस कहानी के माध्यम से दर्शायी थी, वह आज भी बनी हुई है। कहानी का पात्र विक्रम को गरीबी के कारण खुद न पढ़-लिख पाने का अफसोस जरूर है, परन्तु वह इस अफसोस को अपने छोटे भाई-बहन को पढ़ाकर दूर करना चाहता है। उसकी एकमात्र इच्छा भी यही है कि उसके भाई-बहन खूब पढ़-लिखकर बड़े आदमी बने। इसके लिए वह दिन रात जीतोड़ मेहनत भी करता गया। उसके मुख से निकला वाक्य आज भी अनेकों के मुख से निकला वाक्य है, जो गरीबी और लाचारी के चलते चाहते हुए भी पढ़-लिख नहीं पाए। वह कहता है 'हम अभागों की किस्मत में कहाँ है पढ़ना-लिखना बाबू जी।' इस संग्रह की अगली कहानी 'मैं और तुम' है जो एक अधूरे प्रेम की अधूरी कहानी है। और इस अधूरेपन के कई कारण लेखक ने दिखाएं हैं, जिनमें दहेज, जातीय संकीर्णता, क्षेत्रवाद और अमीरी-गरीबी के बीच की खाई जैसी गम्भीर समस्याओं को प्रमुखता से उठाया है। दीप्ति और शशांक का प्रेम इन्ही सामाजिक कुरूतियों के चलते अधूरा रह जाता है। हालांकि शशांक अपने प्रेम को पाने के लिए संघर्षरत है। वह अपने ही क्षेत्र एवं जाति का झूठा आवरण छोड़कर, परिवार से निष्कासित हो जाता है, परन्तु दीप्ति अपने परिवार को न तो मना पाती है और न ही शशांक की भांति समाज के झूठे आदर्शों के विरुद्ध जाकर अपने प्रेम को पाने का प्रयास करती है। इतना ही नहीं इस कहानी के अंत में शशांक के एक संवाद ने कहानी का उद्देश्य प्रकट दिया वह दीप्ति से कहता है 'दीप्ति! तुम तो खुद भी पढ़ी-लिखी हो, समाज के प्रबुद्ध वर्ग में गिनी जाती हो, फिर क्या शिक्षा का वैभव व विकास इन सब बातों की पुनरावृत्ति हेतु ही है? धनलोलुप भावनाएं बनी रहें, साथ ने यह कोरे आदर्श की सजातीय अनिवार्य है।' बाद में अपने प्रेम में समाज के सामने वह उपहास का पात्र न बन जाये इसके लिए वह दीप्ति से आग्रह भी करता है। परन्तु दीप्ति अपना निर्णय पहले ही बता चुकी होती है।

तीसरी कहानी 'कितना संघर्ष और' एक मेधावी लड़की 'श्वेता' के कठिन मेहनत और संघर्षों की कथा है। श्वेता का परिवार बड़ा है और गरीबी-लाचार है ऊपर से उसका पिता शराबी है, जो दिन-रात शराब में डूबा रहता है। इतना ही नहीं उसका पिता घर में सभी के साथ मार पिटाई करता है। वह भाई-बहनों में सबसे बड़ी होने के कारण सारी जिम्मेदारी उसने अपने कंधों पर उठा ली। श्वेता जैसी नायिका होने की ज़रूरत है आज की युवतियों को। उसने इतना संघर्ष होने के बाद भी निराशा को अपने पास फटकने तक नहीं दिया। लेकिन नौकरी न मिलने कारण वह टूटती जा रही थी, उसकी हिम्मत साथ छोड़ रही थी। वह रमेश को चिट्ठी में लिखती भी है ' मैं पूछती हूँ कि आखिर कितना संघर्ष करूँ? कहीं सफलता मिलने से पहले ही यह संघर्ष हमको ही न मिटा डाले!' इतना होने पर भी श्वेता का प्रथम आना, अपने आप में बेहतरीन उदाहरण था, क्योंकि इतने संघर्षों में आदमी जीना तक छोड़ देते हैं, ऐसे में पढ़ाई करना, किसी अजूबे से कम नहीं हो सकता। श्वेता कहानी की ऐसी पात्र है जिससे है युवती प्रेरणा पाकर जीवन में एक मुकाम हासिल कर सकती है, बशर्त उसकी तरह संघर्ष करना न छोड़े। हालांकि कहानी के अंत मंय सारे परिवार की जिम्मेदारी उठाते उठाते वह चारपाई पकड़ लेती है।

संकलन की चौथी कहानी 'संकल्प' है, जो विशुद्ध देशभक्ति कैसी होनी चाहिए, उस पर आधारित है। 'निशीथ' नाम का युवक अपनी शादी के प्रस्ताव को लेकर व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठने की बात कहता हुआ अपनी माँ से कहता है ''माँ' ऐसी किसी लड़की से मेरी शादी करा सकती है जो व्यक्तिगत स्वार्थों में ना पढ़कर आम व्यक्ति के हितों की बात कर सके? शोषितों के लिए जूझ सके?’ निशीथ का यह वाक्य हमारे सामने कई सवाल खड़ा करता है। इस कहानी का प्रतिपाद्य यह है कि हमें अपने व्यक्तिगत स्वार्थों को त्याग कर जितना संभव हो आम लोगों के जन जीवन को बेहतर बनाने के लिए हमेशा प्रयासरत रहना चाहिए, साथ ही अपनी जन्मभूमि की खातिर जितना त्याग और समर्पण हो सके करना चाहिए। अपने व्यक्तिगत जीवन से इतर भी अनेक समस्याएं हैं, जिन पर हम कभी ध्यान नहीं देते हैं, ‘निशीथ’ भारत माता की फिक्र करता है, जिसे हिंसा वैमनस्य अलगाववाद और उचित राजनीति की जैसे सर्प लगातार डस रहे हैं। इस युवक की चिंता आज भी जस की तस बनी हुई है। जिसको कहानी के माध्यम से लेखक ने बखूबी बताने का प्रयास किया है।

इस संकलन की अगली कहानी 'याद रखूंगा' एक चुटीलापन  लिए हुए है। इस कहानी की व्यंग्यात्मकता में बहुत गहरा संदेश छिपा है। कहानी में एक युवक जो अपनी पत्नी की शिकायत लेकर आया है और अखबार में अपनी पत्नी के खिलाफ नोटिस छपवाना चाहता है। जिसका आग्रह वह लेखक से करता है। यही युवक अपने वक्तव्य में उसके द्वारा की जा रही है घरेलू हिंसा को सही ठहराया जाता है। लेकिन बाद में ‘साब’ उसे समझाते हैं कि यदि उसने अपने पत्नी के खिलाफ कुछ भी किया तो भविष्य में वह भी कुछ न कुछ अवश्य करेगी जिससे आपको मुश्किल उठानी पड़ सकती है। ‘साब’ की बातों को समझ कर वह युवक साहब को धन्यवाद देकर वहां से चला जाता है। एक पारिवारिक समस्या को कहानीकार ने कितनी खूबसूरती और हल्के से सरल कर दिया, यही कहानीकार की सफलता है। उस युवक को सबक भी मिलता है और ‘साब’ की बात को याद रखूंगा कहकर चला जाता है।

 संकलन की अगली कहानी ‘गंतव्य की ओर’ हमें प्रेरणा देती है कि स्थिति चाहे जो भी हो यदि मातृभूमि की रक्षा की बात हो तो जान की बाजी लगाने से भी पीछे नहीं हटना चाहिए। किस कहानी का पात्र विनय इस बात को प्रमाणित करता है  कि राष्ट्र की सुरक्षा से परे कुछ नहीं हो सकता। कहानी में आप देखेंगे की विनय को अपने देश के सामने अपने भाई का संबंध भी बोना नजर आने लगता है। इतना ही नहीं विनय को देखकर वे शराबी भी देश की फिक्र करते हैं और अंत में कहते हैं- ‘इसमें उपकार की क्या बात है यह देश भाई पैसे ने ने हमें अंधा बना दिया तो क्या! यह तो हमारा भी फर्ज बनता है। प्राणों को हथेली पर रखकर देश की रक्षा के लिए समर्पित तुम जैसे युवाओं से तो हमें सीख लेनी चाहिए’। कहकर उन्होंने तेजी से गाड़ी मोड़ी और बिना अपने गंतव्य की ओर चल दिया।

‘नई जिंदगी’ नामक कहानी इस संकलन की ऐसी कहानी प्रतीत हुई, जिसे पढ़कर क्रूर से क्रूर दंभी व्यक्ति का भी हृदय परिवर्तन हो जाए। इस कहानी का पात्र ‘दुष्यंत’ ऐसा ही एक पात्र है, जो अपने अय्याशीपन के कारण जीवन को खराब कर रहा था लेकिन एकाएक उसकी मुलाकात ‘अमीरदास’ नाम के एक दरिद्र व्यक्ति से होती है। जिसके पास पहले सब कुछ था लेकिन समय का चक्र कुछ ऐसा घूमा कि आज वह अपने दो बच्चों के साथ भीख मांगने पर मजबूर है। ‘अमीरदास’ से मिलने के बाद ‘दुष्यंत’ का हृदय परिवर्तन होता है और वह परिवर्तन कुछ ऐसा होता है कि वह अमीरदास और उसके दोनों बच्चों को अपने घर में आश्रय देता है। अमीरदास को अपने विभाग में सरकारी सेवा पर लगाता है और उसके दोनों बच्चों को अच्छे विद्यालयों में पढ़ाता है। बदले में अमीरदास भी दुष्यंत के प्रति वफादार और कर्तव्य परायण रहता है। इस कहानी से मन में यह प्रश्न भी कौंधा कि यदि किस देश का हर धनाढ्य व्यक्ति दुष्यंत की तरह किसी गरीब मजबूर का हाथ पकड़ ले, तो देश-समाज से अमीरी गरीबी का यह फासला एक दिन अवश्य कम हो जाएगा।

इस बात में कोई दो राय नहीं है कि यदि स्त्री परिवार को जोड़ भी सकती है और बिखेर भी सकती है। ऐसी ही कहानी है ‘राधा’। ‘राधा’ अपने पति ‘राघव’ से बहुत प्रेम करती हैं। लेकिन कुछ समय से ‘राघव’ ‘राधा’ से खिंचा-खिंचा सा और परेशान रहता है। लेकिन ‘राधा’ इसका कारण नहीं जान पाती। लेकिन एक दिन वह अपने मन की पीड़ा राधा के सामने प्रकट कर ही देता है। उसके मन की पीड़ा आज के हर उस युवक की पीड़ा है जिसका परिवार उसकी पत्नी के कारण या तो टूट गया है या बिछड़ गया है। राघव की पीड़ा है कि वह चाह कर भी अपनी विधवा मां और अपने छोटे भाई किशोर को अपने साथ शहर में नहीं रख सकता। क्योंकि राधा यह नहीं चाहती लेकिन कहानी में एक ऐसा मोड़ आता है, जब राघव की तकलीफ सुनकर राधा का हृदय परिवर्तन होता है। हालांकि ऐसा हृदय परिवर्तन बहुत कम देखने यह सुनने को मिलता है। राघव के भाव और उसकी पीड़ा को समझते हुए, वह राघव की अनुपस्थिति में बिना उसे बताएं उसके गांव पहुंच जाती है और अपनी सासू मां और किशोर को किसी तरह समझा कर, जिद और अधिकार से अपने घर शहर में ले आती है। राघव जब कई दिनों बाद घर आता है और घर पर अपनी मां और छोटे भाई को देखता है, तो उसका हृदय भर आता है। उसके लिए यह किसी दिवास्वप्न जैसा था। जब माँ ने पूरी बात राघव को बताई तो राधा के प्रति उसके हृदय में पहले से कई गुना अधिक प्यार उमड़ पड़ा वह। इतना भावुक हुआ  कि अपनी आंखों में आते हुए आंसुओं की धारा को नहीं रोक सका। उसे लगा कि कोई नई जिंदगी मिल गई है, जिसे पाने के लिए वह कब से तड़प रहा था। यदि महिलाएं घर को एकजुट रखने के लिए अपना झूठा अभिमान छोड़ दें, तो निश्चय ही प्रत्येक परिवार स्वर्ग बन जाएगा। पारिवारिक विघटन से बचने का रास्ता इस कहानी से होकर गुजरता है, ऐसा कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगा

अगली कहानी ‘सुख दु:ख’ लेखक की ऐसी कहानी है जिसे बाद में उन्होंने विस्तार प्रदान कर उपन्यास ‘मेजर निराला’ का रूप दिया। इस कहानी का पात्र भावावेश में एक ऐसा विवेक हीन कार्य कर देता है जिसके लिए वह पूरी उम्र खुद को माफ़ नहीं कर पाता। 15 वर्ष जेल में सजा काटने के बाद वह दोबारा अपना जीवन शुरु करता है। जीवन के दो पहलू हैं सुख और दु:ख, परंतु यह कभी नहीं कहा जा सकता कि आखिर सब सुख के पल बदलकर दु:ख के हो जाएं। यही इस कहानी का उद्देश्य भी है कि इस समय बहुत बलवान है कब क्या रूप इस जीवन का हमें देखने को मिले कोई नहीं जानता।

इस संकलन की अंतिम कहानी का शीर्षक है ‘अपना पराया’। कहानी के पात्र ‘मृदुला’ और उसके देवर ‘राहुल’ के इर्द-गिर्द घूमती है। एक परिवार के ताने-बाने से बनी यह कहानी ‘राहुल’ के रूप में ऐसे पात्र से पाठक का परिचय कराती है, जो हमेशा दूसरों की मदद करता है और उनकी समस्याओं को दूर करने के लिए हमेशा संघर्षरत रहता है। और   अपनों के दु:खों को दूर करने के लिए सीमा से बाहर जाकर सहयोग करता है। कहानी का एक अन्य पात्र इंजीनियर खरें हैं, जो राहुल के बोस हैं। राहुल को सहयोग के लिए हर संभव मदद करते हैं। वह कहते हैं, इस भीड़ भरी दुनिया में किसे फुर्सत है कि किसी के बारे में सोचें तक करना तो बहुत दूर की बात रही। कहानी के अंत में राहुल की एक इच्छा शेष रह जाती है कि वह ‘शरद’ जो कि उसका भतीजा है, उसे पढ़ा लिखा कर बड़ा बनाना है। इसके बाद वह सदा के लिए मुक्त हो जाएगा। यही उसका लक्ष्य है और यही है उसके जीवन की अंतिम अभिलाषा।

सत्य, करुणा, प्रेम, न्याय, सद्भाव इत्यादि अनेक जीवन मूल्यों की पक्षधरता लिए निशंक जी की इस संकलन की कहानियां हैं। इन कहानियों में सीख है कि निराशा, हताशा और संघर्ष की स्थिति में अपने भीतर एक गहन आस्था और विश्वास को बनाए रखें। अजेय बने रहने की प्रेरणा इन कहानियों से हमें मिलती है। सकारात्मक जीवन दृष्टि के मूर्धन्य साहित्यकार निशंक जी का साहित्य इस बात का प्रमाण है कि उन्होंने अपने साहित्य में उन सामाजिक जीवन मूल्यों को स्थान दिया है, जो राष्ट्र की पहचान है, शाश्वत है और हर युग में समाज की निमित्त के प्रतिमान सिद्ध होंगे। इनकी कहानियों की भाषा-शैली एकदम सहज सरल और आम बोलचाल की है। इसी कारण पाठक बड़े चाव से इन कहानियों को एक बैठक में आनंद विभोर होकर पड़ जाता है। निश्चय ही लेखक का यह शुरुआती लेखन हो, लेकिन आज भी समाज को रचनात्मक दिशा की ओर ले जाने के लिए सक्षम है। इसके अगले भाग में उनकी कहानी संकलन क्या नहीं हो सकता कि 11 कहानियों की समीक्षा आप सभी जन पाठकों के समक्ष प्रस्तुत की जाएगी।

05.11.2020

धन्यवाद

Review by Dr. Ram Bharose 

डॉ० राम भरोसे

हिन्दी विभागाध्यक्ष

राजकीय महाविद्यालय पोखरी (क्वीली)

टिहरी गढ़वाल

9045602061

Saturday, October 24, 2020

वेब सीरीज रिव्यू : राजनीति, हिंसा से भरपूर कहानी मिर्जापुर


 


कलाकार : पंकज त्रिपाठी, अली फजल, दिव्येंदु शर्मा, विक्रांत मैसी, कुलभूषण खरबंदा, राजेश तैलंग, श्रिया पिलगांवकर, रसिका दुग्गल, शीबा चड्ढा, शुभ्रज्योति भारत और अन्य.

निर्देशक : गुरमीत सिंह, करण अंशुमान 
प्लेटफॉर्म - अमेजन प्राइम 

मिर्जापुर 2  का बेसब्री से इंतजार करने वालों का इंतजार  समय से पहले ही खत्म हो गया। 'मिर्जापुर 2' कहानी में पहले सीजन की तरह घात-प्रतिघात खूब है और दिवाली से पहले ही इसमें गोली, बारूद और तमंचों की आतिशबाजी भी जमकर दिखाई गई है। बावजूद इसके  पहले दो एपिसोड की कहानी थोड़ी स्लो है। दूसरा इसमें पहले सीजन की भांति महिलाएं सिर्फ सेक्स ऑब्जेक्ट के तौर पर नहीं है। बल्कि  इसमें महिलाओं का कैरेक्टर मजबूत है। कालीन भैया यानी पंकज त्रिपाठी एक बार फिर अपने किरदार में कमाल किया है। कालीन भैया के बेटे मुन्ना त्रिपाठी का किरदार निभा रहे दिव्येंदु शर्मा ने पिछले सीजन की तरह ही बिगड़ैल युवक को जिंदा रखा है।

इस बार कहानी पिछली बार से ज्यादा ट्विस्ट लिए हुए है। 'मिर्जापुर 2' की कहानी केवल राजा के बारे में नहीं है बल्कि उनके सिपाहियों, रानियों और उनकी वफादारी की भी है।  कुछ ऐसे सीन भी इसमें  हैं, जिन्हें देखते हुए धैर्य की जरूरत होगी है तो कुछ ऐसे सीन भी हैं जिन्हें देखते हुए आपका मुंह खुला का खुला रह जाएगा। गुड्डू पंडित और गोलू गुप्ता, मुन्ना त्रिपाठी, कालीन भैया की बीवी बीना त्रिपाठी और शरद शुक्ला सभी मिर्जापुर की गद्दी पाने के लिए किसी पर भी हमलावर होते हुए दिखाई दे जाते हैं।


अली फजल उर्फ गुड्डू पंडित  'मिर्जापुर की गद्दी' के साथ भाई (विक्रांत मैसी) और पत्नी की मौत का बदला लेने आए हैं और इसमें उनका साथ देती है श्वेता त्रिपाठी यानी गोलू। गुड्डू पूरी सीरीज में घायल हैं और कदम-कदम पर गोलू उनका साथ दे रही हैं। जहां ये दोनों अपने बदले की तैयारी में लगे हैं, वहीं पिछली बार की ही तरह दिव्येंदु शर्मा यानी मुन्ना त्रिपाठी खुद को साबित करने में जुटे हुए हैं। सीरीज में जान डालने वाले कालीन भैया (पंकज त्रिपाठी) एक मजबूर पिता और पति के रूप में ही नजर आए हैं।  'मिर्जापुर 1' की कहानी मिर्जापुर और जौनपुर तक सीमित थी, लेकिन इस बार उसका विस्तार लखनऊ और बिहार के सिवान तक हुआ है। पॉलिटिक्स के तगड़े मसालों के साथ कहानी में कुछ ऐसे नए ट्विस्ट और टर्न्स हैं जिन्हें देखकर आप कहानी को रीयल लाइफ से जोड़ने पर मजबूर हो जाएंगे।


'मिर्जापुर 2' की एक चीज, जो इसे पिछली बार से अलग बनाती है, वह है 'स्त्री शक्ति'। पिछली बार जहां दर्शकों को स्ट्रॉन्ग फीमेल कैरेक्टर्स की कमी खली थी, वहीं इस बार शो के मेकर्स ने इस बात का पूरी तरह से ख्याल रखा है। फीमेल कैरेक्टर्स के साथ खूब स्क्रीनटाइम शेयर किया गया है। कहानी में सभी महिलाएं फिर चाहे वह गोलू गुप्ता का किरदार निभा रहीं श्वेता त्रिपाठी हों, बीना के किरदार में रसिका दुग्गल हों, डिंपी के किरदार में हर्षिता गौर हों या माधुरी के किरदार में ईशा तलवार, सभी पिछली बार से ज्यादा सशक्त दिखाई दी है। 

कहानी की बात करें तो गुड्डू पंडित और गोलू अपने कनेक्शन से बिहार के सिवान के दद्दा त्यागी के बेटे भरत त्यागी से अफीम के बिजनेस के लिए बात करते हैं और उसे मना लेते हैं। दूसरी तरफ, रतिशंकर शुक्ला का बेटा शरद शुक्ला अपने पिता की मौत का बदला लेने के लिए कालीन भैया और मुन्ना त्रिपाठी के साथ आ जाता है। शरद को गुड्डू से अपनी पिता की मौत का बदला तो लेना ही है, लेकिन त्रिपाठियों से मिर्जापुर भी छीनना है। कालीन भैया व्यापारी और बाहुबली से आगे बढ़ते हुए राजनेता बनने की चाह में अपने बेटे मुन्ना त्रिपाठी की शादी मुख्यमंत्री की विधवा बेटी माधुरी से शादी करा देते हैं। कालीन भैया की पत्नी बीना त्रिपाठी एक लड़के को जन्म देती है। उस बच्चे का पिता कौन है, यह सस्पेंस है।

गुड्डू के पिता अपराध की आंच में सुलगते और बर्बाद होते मिर्जापुर को बचाने तथा अपने बेटे बाबलू और बहू स्वीटी को न्याय दिलवाने की जद्दोजहद में लगे रहते हैं। इसमें उनका साथ देते हैं आईपीएस अधिकारी मौर्या। अंत आते-आते एक बार फिर मिर्जापुर की गद्दी की लड़ाई कालीन भैया और गुड्डू पंडित के बीच में सिमट जाती है। बीना अपने पति और सौतेले बेटे मुन्ना के खिलाफ गुड्डू और गोलू का चुपके-चुपके साथ देती हैं। इसमें उनका क्या स्वार्थ है और मुन्ना त्रिपाठी और शरद शुक्ला का क्या होता है, इन सवालों का जवाब जानने के लिए आपको मिर्जापुर 2 देखना पड़ेगा।


सीरीज का सबसे शानदार कैरेक्टर रॉबिन उर्फ राधेश्याम अग्रवाल हैं। राधेश्याम यूं तो ऑलराउंडर हैं, लेकिन पेशे से इन्वेस्टमेंट का बिजनेस देखते हैं जो गुड्डू पंडित की बहन डिंपी से प्यार करते हैं और उनसे शादी करना चाहते है। रॉबिन का किरदार निभा रहे प्रियांशु पैन्यूली अपने किरदार के साथ न्याय करते हुए नजर आते हैं। 

 भाषा के लिहाज से देखा जाए तो मिर्जापुर-1 की तरह ही इसमें भी भरपूर गालियां हैं। शुरुआती दो एपिसोड की कहानी इतनी स्लो चलती है यह आपको बोर करती है। परन्तु  इसके बाद जैसे जैसे कहानी में जैसे-जैसे नए कैरेक्टर आते जाते हैं, तो कहानी उतनी ही पावरफुल नजर आने लगती है।

मिर्जापुर उत्तर प्रदेश के उस शहर की कहानी है, जो अभी तक कायदे का शहर नहीं बन सका है। जो देखने में भी कस्बा सा ज्यादा नजर आता है। हकीकत में भी मिर्जापुर बहुत कुछ आज भी ऐसा ही है। 

अभिनय के लिहाज से मिर्जापुर अच्छी वेब सीरीज है। कई कलाकारों का काम तो चौंकाने वाला है। खासकर अली फजल और दिव्येंदु शर्मा का अभिनय। वहीं गुड्डू पंडित के रूप में अली फजल का लुक किरदार के मुताबिक ढला हुआ है। बबलू पंडित के किरदार में विक्रांत मैसी जंचे हैं। उनकी आंखों में संकोच, डर और गुस्सा किरदार के मुताबिक ही है। 


कुलमिलाकर मिर्जापुर एक अच्छी कहानी हो सकती थी। लेकिन रियलिटी के नाम पर सेक्स, वायलेंस और कई बेसिर पैर की बातें निराश करती हैं। स्थानीयता पर भी  बहुत ध्यान नहीं दिया गया है। कई जगह लगता है कि सीरीज को मसालेदार बनाने के लिए सेक्स और हिंसा के सीन जबरदस्ती ठूंस दिए गए है।   सबसे बड़ी बात मिर्जापुर की पहचान विंध्याचल से है वो सीरीज के 9 एपिसोड में कहीं दिखता ही नहीं। 

अपनी रेटिंग - ढाई स्टार

Tuesday, October 20, 2020

रिव्यू : मातृभाषा से प्रेम करना सिखाती है 'उड़ा ऐड़ा'

 

स्टारकास्ट: तरसेम जस्सर, नीरू बाजवा, पोपी जब्बाल, बीएन शर्मा, गुरप्रीत घुग्गी, करमजीत अनमोल, और अन्य


 निर्मित : क्षितिज चौधरी, नरेश कथूरिया, दीपक गुप्ता, ररूपाली गुप्ता


 निर्देशित: क्षितिज चौधरी



विदेशी भाषाओं को लेकर उन पर हमारी ऐसी एकाग्रता है कि यह आशंका है कि पंजाबी 50 वर्षों के भीतर इस्तेमाल होना बन्द हो जाएगी। पंजाबी भाषा को बचाने के लिए भी यह फ़िल्म सिनेमा शैदाइयों के दिलों में जगह बनाने में कामयाब हुई है। क्या आप जानते हैं शहरी भारत में, 44% लोग द्विभाषी हैं और 15% त्रिभाषी हैं - हालांकि, ग्रामीण क्षेत्रों में आंकड़े 22% और 5% हैं। और जिस तरह से हमारा मोह अपनी माँ बोली को छोड़कर विदेशी भाषाओं को अपनाने का हो रहा है उस लिहाज से एक दिन जरूर हम अपनी माँ बोली को भूल जाएंगे। खैर


उड़ा ऐड़ा फिल्म एक ऐसी महिला की कहानी है जो अपने बेटे को अंग्रेजी स्कूल में दाखिला दिलाना चाहती है, ताकि उसके बच्चे को उज्ज्वल भविष्य मिले लेकिन मुख्य रूप से उसका मकसद उसे धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलना सिखाना है।    फिल्म एक सिनेमाई बंडल है जहां सब कुछ एक साथ ढेर किया गया है और इसके लिए वे दर्शकों को बांधें रखने में कामयाब हुए हैं।  यह फिल्म एक सपने के नोट पर शुरू होती है जिसमें तरसेम और नीरू का रोमांस भी है। 


 10 साल के बच्चे की माँ के रूप में नीरू का अभिनय आपको चकरा देता है। गुरप्रीत घुग्गी हर बार की तरह लाजवाब रहे। और उन्होंने फौजी ताया का किरदार निभाया है। बीएन शर्मा का कहना ही क्या। बी ए शर्मा पंजाबी फिल्मों के सुपरस्टार हैं। जो इस फ़िल्म में तरसेम के पिता का किरदार निभाते हैं, जो घर पर बहुत कुछ नहीं करता है। 

 करमजीत अनमोल फिल्म में एक सुरक्षा गार्ड की भूमिका निभाते हैं और उनका चरित्र इतना नया नहीं है। पोपी जब्बाल ने स्कूल समन्वयक की भूमिका निभाई है और वह अच्छा काम करती है।  कम से कम यह लड़की अपनी भूमिका में अच्छी तरह से फिट बैठती है और इसने अच्छा प्रदर्शन भी किया है।  


 फिल्म का पहला भाग अंग्रेजी सीखने और अंग्रेजी स्कूल में प्रवेश करने के बारे में है और दूसरा भाग एक पहेली के रूप में सामने आता है।  संभवतः फ़िल्म की पूरी टीम ने लाजवाब काम किया है। 

 फिल्म का डायरेक्शन ठीक रहा लेकिन उसे और बेहतर किया जा सकता था। स्क्रीनप्ले में भी कसावट की कमी नजर आई।  

 एक कैदा ले दे बेबे मैनु उड़े ऐड़ा दा गाना दिल को छू जाता है। 

 अपनी रेटिंग - 3 स्टार


 

Monday, October 19, 2020

रिव्यू : दिलो दिमाग पर छाई 'भूरी'



बहुत कम फ़िल्में हैं जो आपको पलक झपकने तक नहीं देतीं।  भूरी निश्चित रूप से उनमें से एक है।  यह वासना, प्रभुत्व और अंधविश्वास की खोज करती हुई फ़िल्म है।  ग्रामीण मानसिकता की पृष्ठभूमि पर निर्मित, भूरी एक महिला का संघर्ष है, जो सत्ता में रहने वालों और अंधविश्वासों पर टिके रहने वालों के बीच की कहानी कहती  है।

 प्लॉट 
 फ़िल्म एक लड़की, भूरी की कहानी है, जो अपने बिसवां दशा में है और यह बेहद आकर्षक है।  उसे अपने गाँव के लोगों द्वारा मनहूस (अशुभ) माना जाता है।  भूरी ने तीन बार शादी की, और उसके सभी पति मर गए।  ग्रामीणों का मानना ​​है कि वह किसी भी शादी में एक अभिशाप है, और इसकी वजह यह है कि तीनों पतियों की मृत्यु हो गई।  इस सब के कारण उसे गाली दी जाती है और प्रताड़ित किया जाता है।  उसकी शादी अब एक 54 वर्षीय ईंट भट्ठा मजदूर, धनवा से हुई है। ग्रामीणों का मानना ​​है कि उसकी वजह से धनवा की भी मौत हो जाएगी।  सत्ता में रहने वाले सभी लोग- राजनेता, पुलिस और पुरुष उसके साथ सोना चाहते हैं और ऐसा करने के लिए वे धनवा पर दबाव डालते हैं और उसे परेशान करते हैं। धनवा जब तक बीमार नहीं पड़ता तब तक वह भूरि को सभी शातिरों के चंगुल से बचाने की कोशिश करता है।  तब जब भूरी सभी के बीच खुद को नीलाम करती है और फिर उसके साथ कुछ अविश्वसनीय होने लगता है जो पूरे गांव को सदमे की स्थिति में छोड़ देता है।

 फिल्म एक स्टनर है और इसमें भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों की जमीनी हकीकत को दर्शाया गया है।  फिल्म कुछ दिलचस्प मोड़ हैं। जो आपकी आंतरिक आत्मा तक को हिला देती है।  फिल्म वास्तव में समाज का स्कैन करती है और हमारे समाज की सच्चाई को दर्शाती है।  फिल्म में केवल एक खलनायक है, और वह इसकी ईमानदारी है।  इस फ़िल्म के माध्यम से ग्रामीण स्तर पर हमारे समाज में महिलाओं की स्थिति को आसानी से महसूस किया जा सकता है।

 स्टार परफॉरमेंस फिल्म में कोई बड़ी स्टार कास्ट नहीं है, लेकिन भारतीय सिनेमा के कई जाने माने चेहरे हैं।  पीपली लाइव फेम रघुवीर यादव, धनवा की भूमिका निभा रहे हैं, जिन्होंने शानदार ढंग से भूमिका निभाई है।  जबकि मार्श पौर ने वास्तव में अपने अभिनय और संवाद के साथ अपनी भूमिका साबित की है, क्योंकि उन्होंने भूरी को चित्रित किया था।  आदित्य पंचोली, कुनिका सदानंद, शक्ति कपूर, मोहन जोशी, मुकेश तिवारी, मनोज जोशी और सीताराम पांचाल ने भी महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाई हैं और अपने अपने किरदारों के साथ न्याय किया है।

 फ़िल्म में क्या है?

 1. नाटक और वास्तविकता का एक बहुत ही सही और सटीक चित्रण। साथ ही  फिल्म में ग्रामीण क्षेत्रों की विकट स्थितियों को बिना किसी दोष के साथ प्रदर्शित किया गया है और यह दिखाया गया है कि किस तरह पुरुषवाद और अंधविश्वासों ने तर्क और मानवता पर नियंत्रण किया है।

 2. कुछ गहन संवाद डिलीवरी जो कि खुरदरी, गंदा और आम तौर पर ग्रामीण होती है।

 3. दर्शकों को एक मजबूत और सीधा संदेश।

 4. कुछ व्यंग्यात्मक टैपिंग गाने।

 फ़िल्म में क्या नहीं है?

 1. फिल्म में ग्रामीण सेटअप, पंचायत, जातिवाद, आदि के कुछ महत्वपूर्ण हिस्से याद हैं। किंतु उन्हें खूबसूरती से नहीं फिल्माया जा सका।

 2. अंधविश्वास और पुरुषवाद पर अंकुश लगाने की समस्या का कोई हल नहीं है।

 3. कहानी में कुछ-कुछ गायब हैं। या कहें झोल हैं।

 4. फ़िल्म का चरमोत्कर्ष बेहतर हो सकता था।

  यह देखना दिलचस्प होगा कि वास्तविकता और नाटक के साथ फिल्माई गई यह कहानी जो कुछ मूर्त गीतों से सराबोर है। वह दर्शकों को कब तक याद रह पाती है।  एक आउट-ऑफ-द-बॉक्स फिल्म भूरी आपको ऐसी उत्कृष्ट कृतियों के लिए तरसा जरूर जाएगी।
  अपनी रेटिंग - 4 स्टार 
Review By Tejas Poonia

Sunday, October 18, 2020

बुक रिव्यू : आशा की किरण है 'तिनका तिनका मध्यप्रदेश'

 

मरजानी, तिनका तिनका की श्रृंखला, तिनका तिनका तिहाड़, तिनका तिनका मध्यप्रदेश, तिनका तिनका डासना, रानियाँ सब जानती है आदि जैसी प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय किताबें लिखने वाली लेखिका एवं लेडी श्री राम कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ वर्तिका नन्दा आज अपनी एक अलग  पहचान बना चुकी हैं। देश के विभिन्न जेलों का अध्ययन करके वहाँ से कविताएं और कहानियां निकालने का अनूठा काम इन्होंने किया है। यूं तो मैंने लेखिका वर्तिका नन्दा को हमारे महाविद्यालय किरोड़ीमल में एक सेमिनार के दौरान सुन चुका हूँ। बेहद सुरीली, सुमधुर आवाज और बहुमुखी प्रतिभा की धनी इस लेखिका के द्वारा जेलों पर किए गए कार्य के लिए राष्ट्रपति से सम्मान भी प्राप्त हो चुका है। तिनका तिनका फाउंडेशन की शुरुआत करके जेलों के भीतर एक बेहतर माहौल इन्होंने तैयार किया है। पुस्तक समीक्षा की कड़ी में वर्तिका नन्दा की लिखी पुस्तक तिनका तिनका मध्यप्रदेश पर बात करूं उससे पहले तिनका तिनका तिहाड़ पुस्तक में एक महिला कैदी कि कविता है।

सुबह लिखती हूँ शाम लिखती हूँ।
इस चारदीवारी में बैठी जब से, तेरा नाम लिखती हूं
इन फासलों में जो गम की जुदाई है
उसी को हर बार लिखती हूं

यह मात्र कविता ही नहीं अपितु जेल के भीतर मौजूद उस महिला कैदी की अंतर्व्यथा भी प्रकट करती है। लेखिका वर्तिका नन्दा उस पार के संसार की बातें करती हैं जो 10 बाई 10 के अंधेरे कमरे में  अपनी जिंदगी काट रहे हैं। लेखिका जेल और उस संसार को चुनती है जिसके बारे में हम कभी बात नहीं करना चाहते। इन जेलों में फूलों की क्यारी नहीं है, खुला आसमान नहीं है। और तो और पेड़ की छांव भी उन्हें मयस्सर नहीं है। है तो बस एक खिड़की  जिसमें छोटे-छोटे से सुराख हैं उनमें भी दरवाजा नहीं है। लोहे का गेट है और उस गेट पर है एक बड़ा ताला जड़ा।  रात का एलान शाम 5 बजे ही हो जाता है। तब बचे-खुचे ख्वाब भी उसी बड़े कमरे में बंद हो जाते हैं और करवट बदलने तक की इजाजत लेते हैं। यहां सिर के नीचे कोई तकिया नहीं, एक छोटा-सा कपड़ा है।

खैर इसी श्रृंखला में समीक्षार्थ हेतु किताब है तिनका तिनका मध्यप्रदेश। 'जेल’ शब्द सुनते ही ऊंची दीवारों से घिरे एक परिसर, तंग कोठरियां, लोहे के गेट की सलाखों के पीछे पकड़े गए लोगों के अनजाने चेहरों का दृश्य आंखों के आगे आ जाता है। जेल का यह स्याह पक्ष है तो उसमें अपनी सजा काट रहे लोगों में कला और रचनात्मकता एवं सृजनात्मकता का एक उजला पक्ष भी मौजूद है और उसी पक्ष से दो चार करवाती है किताब ‘तिनका तिनका मध्यप्रदेश’। यह पुस्तक 19 लोगों के जरिए जेल की कहानी कहती है- मध्य प्रदेश की जेलों में बंद बारह पुरुषों, दो महिलाओं, चार बच्चों और एक प्रहरी के जरिए जेल के हर पक्ष को इसमें सुंदर तस्वीरों के साथ सँजोया गया है। बच्चों की उम्र छह साल से कम हैं और उनमें से तीन का तो जन्म ही जेल में हुआ है।

जेल में बाहर से न कोई रसोइया आता है, न हज्जाम।
जेलें सब कुछ नए सिरे से शुरू करने और जिंदगी के अस्थायी होने के भाव को समझने में माहिर होती हैं। जो आया है , वो लौटेगा।

कविता से तिनका तिनका मध्यप्रदेश की शुरुआत होती है। कुछ जेल के भीतर की तस्वीरें भी इस किताब में मौजूद हैं। और येतस्वीरें हमें जेल के भीतर के माहौल से रूबरू करवाती हैं।

थोड़ी और जेलें
थोड़ी और सिकुड़ती जगह
थोड़ी कम हवा
सब कुछ थोड़ा
पर इंतजार बड़ा।।

कविता अपने आप में एक अनूठा प्रयोग लगती है।
जेलों के बिना समाज नहीं पर जेलें अपराध के हर सवाल का जवाब भी नहीं। जेलों की मौजूदगी से अपराधों का खात्मा हुआ हो, ऐसा नहीं है और जो जेलों में हैं, वे सभी अपराधी ही हों, ऐसा भी कोई प्रमाण नहीं है। इसलिए दुनिया की हर जेल समाज से कटा एक टापू है जहां से सवाल झांकते हैं।

किताब कि ये मात्र पंक्तियां ही नहीं है अपितु ये हमें सोचने पर मजबूर करती हैं। कि क्या जेल में सिर्फ कोई अपराध करके ही जाया जा सकता है। कभी कभी तो बेकसूर होने के बाद भी लोग जेलों में ठूंस दिए जाते हैं। और ऐसा अभी से नहीं मुगलों, अंग्रेजों के राज में भी होता था। भारत देश मे चार लाख उन्नीस हजार से भी अधिक कैदी बन्द हैं। जिनमें से करीबन तीन लाख विचाराधीन केस के मामले में फंसे हुए हैं। तिनका तिनका मध्यप्रदेश बताती है कि अकेले मध्यप्रदेश मब करीबन चालीस हजार कैदी मौजूद हैं।
जेल हमें यह बताती है कि यहां ऊंची आवाज में बोलना मना है। जेलें रंगों का बायोस्कोप हैं तो ये लिखती भी हैं। सुभद्रा कुमारी चौहान से लेकर माखन लाल चतुर्वेदी भवानी प्रसाद मिश्र, गांधी, भगतसिंह आदि जैसे हजारों लाखों नाम हैं जिन्होंने जेल के भीतर सृजन का काम किया है। तिनका के इतिहास कि बात करें तो यह 2013 में सामने आया। यूं तो लेखिका कहती हैं कि उन्होंने ने प्रयास 1993 से ही शुरू कर दिया था। परंतु मुक्कमल हुआ 2013 में आकर। लता मंगेशकर सरीखी आवाज की धनी लेखिका जेल का नुमाइंदा नहीं करती बल्कि जेल के भीतर से कला और सृजन को भी बाहर लेकर आती है।

जेलों पर किया गया यह काम अपने आप में मौलिक और काबिले तारीफ है। तिनका तिनका तिहाड़ पुस्तक तो गिनीज बुक रिकॉर्ड तक में दर्ज हो चुकी है। तिनका तिनका की सभी श्रृंखला में जेल के भीतर की प्रतिभाओं के साथ साथ वहां का मुआयना करती तस्वीरें भी इसमें साझा की गई हैं। ये तस्वीरें किसी भी संवेदनशील हृदय के व्यक्ति में दया भाव पैदा करने के लिए काफी है।

Book Review By Tejas Poonia

Thursday, September 24, 2020

बुक रिव्यू : थ्रिल और सस्पेंस से भरपूर है 'समप्रीत'


दो सिटिंग में बैठकर उपन्यास समप्रीत को पढ़ गया। पिछले करीबन एक साल से भी ज्यादा लम्बा वक्फा गुज़र गया इस उपन्यास की समीक्ष्य प्रति प्राप्त हुए को और एक बात इस उपन्यास को शेल्फ़ में ही पड़ा रहने दिया। कुछ व्यक्तिगत कारणों से पढ़ नहीं पाया। ख़ैर कल रात जब इसे हाथ में उठाया तो मन ही नहीं किया कि इसे बीच में छोड़कर सो जाऊं। आधा उपन्यास अगले दिन के लिए छोड़ना पड़ा। अब जब इसे पढ़ कर खत्म किया है तो कुछ बातें हैं इस उपन्यास को लेकर। कोई भी भारतीय नारी इस बात को कभी स्वीकार नहीं कर पायेगी कि उसका पति अपने लिए ही पति ढूंढता फिरे। यानी वह समलैंगिक हो। किसी भी भारतीय पत्नी के लिए यह कष्टदायक ही होगा। ऐसी स्थिति में या तो वह उस पति से तलाक लेना पसंद करेगी या मरना। हालांकि अब समय बदल रहा है और सुप्रीम कोर्ट ने भी समलैंगिकों को अपनी मर्जी से संबंध बनाने के अधिकार दे दिए हैं तो इस बात को समझते हुए अवश्य कुछ लड़कियां अपने पति के समलैंगिक होने पर शायद आवाज ना उठाए। लेकिन प्रकृति के साथ छेड़छाड़ और सामाजिक स्वीकृति ना प्राप्त हो पाने के सवाल भी उठाए जा सकते हैं। हालांकि समलैंगिक सम्बन्धों को कानूनी मान्यता मिल चुकी है। 


यह दुनिया बहुत बुरी है - यहाँ कोई किसी की भावनाओं की कद्र नहीं करता - कोई किसी को नहीं समझना चाहता - सब ख़ुद में गुम हैं। 


कांटों भरे बिस्तर पर मखमल की चादर बिछी हो और दुनिया उस चादर को सम्मान दे रही हो तो भले वह सम्मान झूठा हो मगर जीवन के लिए ऑक्सीजन की मानिंद साबित होता है। उसके बनिस्पत सच्ची जिंदगी जिसको दुनिया का तिरस्कार प्राप्त होता है, वो जिंदगी गले की फांस बनकर हलक में अटकी रहती है। 


औरत एक अजीब चीज है, जब निबाह करने पर आती है तो बड़ी विषम परिस्थितियाँ भी उसके लिए कोई अर्थ नहीं रखतीं, यूँ समझो कि कांटों को निगल जाने की कला भी प्रकृति ने औरत को दी है और ज़ख्मों को नुमाया भी नहीं करेगी लेकिन जब वह अपने तेवर बदल ले तो ईश्वर भी उसको नहीं थाम सकता। 


पूरे उपन्यास में ये तीन वाक्यात प्रभावित करने वाले हैं। यूँ तो लगभग पूरा उपन्यास ही आपको अपनी गिरफ्त में ज़ब्त रखता है और आप तब तक उसकी गिरफ्त में कैद रहते हैं जब तक उपन्यास पूरा खत्म ना हो जाए। 

मनोज (manoj) नाम का एक लड़का है जिसकी अंकिता नाम की लड़की से शादी हुई है। शादी के कुछ समय बाद ही अंकिता को पता चलता है कि मनोज यानी उसका पति समलैंगिक यानी गे (gay) है। तो वह भीतर तक टूट जाती है। यह पता भी उसे तब चलता है जब मनोज का बचपन का दोस्त उसके ही शहर में यस (yes bank) बैंक में जॉब लगता है और वे मिलते हैं। कुछ दिन सन्नी यानी मनोज का बचपन का दोस्त उसके घर रहने आता है। मनोज उसके आने से बेहद खुश होता है। रोजाना स्त्री वेश धारण करता है। सुर्खी, लाली, लिपस्टिक और चूड़ियां आदि तमाम सौंदर्य प्रसाधन इस्तेमाल करता है। एकदम खूबसूरत लड़की के रूप में वह सजधज कर सन्नी के साथ शारीरिक संबंध बनाता है। इधर उसकी पत्नी अंकिता को यह सब नागवार गुजरता है। एक दिन अंकिता को उसकी सहेली का फोन आता है और वह सुसाइड करने की बात उससे करती है। अंकिता का मनोज से शादी करने से पहले ऋषभ से प्रेम सम्बन्ध थे। वे दोनों एक दूसरे को बहुत चाहते थे। लेकिन अंकिता की माँ शीतल उन दोनों की शादी नहीं होने देना चाहती क्योंकि ऋषभ नीची जाति का है। अब ऋषभ को अंकिता की सहेली से मालूम होता है वह अपनी शादी से मुतमइन नहीं है, खुश नहीं है। इसलिए वह अंकिता से बात करता है। कहानी कुछ मोड़ लेती है और मनोज की हत्या (मर्डर) की अंकिता और ऋषभ साजिश रचते हैं और उसकी हत्या कर देते हैं। मनोज को अपने लिए संगीता नाम से उच्चारण करवाना अच्छा लगता है। ऋषभ और सन्नी इसी नाम से बुलाते हैं उसे। कभी कभी सन्नी उसे मंजू कहकर भी बुलाता है। लेकिन मनोज को संगीता नाम सुनकर (अपने लिए) सुकून मिलता है। अब चूंकि मनोज की हत्या हो चुकी है तो पुलिस उसकी जांच पड़ताल करती है। कहानी एकदम से हत्या, मिस्ट्री, उत्सुकता से मुड़ती है। कभी कभी यह बोझिल सा भी प्रतीत होता है। लेकिन किसी भी उपन्यास को पूर्ण करने के लिए कुछ कहानियां समानांतर भी चलानी होती हैं। 

उपन्यास के अंत में एक सवाल जेहन में उठता है कि अंकिता के अलावा उसकी माँ शीतल, उसके पिता और भाई मनोज को क्यों नहीं पहचानते? अंकिता तो चलो मान लिया इस हत्या में शामिल है। लेकिन इस हत्याकांड में उसकी मां , भाई, पिता तो नहीं शामिल है फिर वे क्यों पुलिस से झूठ बोलते हैं? यह सवाल लगातार बना रहता है। ये बात तो लेखक एम इकराम फरीदी ही ज्यादा बेहतर तरीके से बता सकते हैं। 

खैर उपन्यास की कहानी अच्छी है और किसी फिल्मी कहानी सी प्रतीत होती है। कभी कभी यह भी लगता है कि इस तरह के उपन्यास लिखने के दिन अब लद चुके हैं। क्योंकि ऐसे उपन्यास 60,70 के दशक में लिखे जाते थे। बस एक अच्छी बात है वह है उपन्यास का समलैंगिक विमर्श पर आधारित होना। 

उपन्यास शैली, कथ्य, कथा विस्तार, बिम्ब , शिल्प के आधार पर बेहतर बन पड़ा है। लेकिन इस तरह के उपन्यासों का ऐसा अंत होना कुछ खास अच्छा नहीं लगता। लगता है इसकी कहानी कुछ और होनी चाहिए थी। वैसे इस उपन्यास को आधार बनाकर अगर फ़िल्म बनती है तो वह अवश्य रोचक होगी। लेकिन इस तरह की फिल्में भी बी ग्रेड की फिल्मों की श्रेणी में ही शामिल की जाएंगी। 

किताबों की समीक्षा करते हुए मैंने उन्हें फ़िल्म समीक्षा की तरह कभी कोई रेटिंग नहीं दी है। क्योंकि किसी भी किताब, उपन्यास, कहानी को लिखते हुए लेखक अपना दिमाग, ऊर्जा, कल्पना शक्ति और न जाने क्या क्या दांव पर लगाकर लिखता है। लेकिन इस उपन्यास के लिए 


अपनी रेटिंग - 3 स्टार


उपन्यासकार एम इकराम फरीदी के अन्य उपन्यास निम्न हैं। 


मनोरोग के नए सूत्र (समस्या और समाधान)

द ओल्ड फोर्ट

ट्रेजेडी गर्ल

गुलाबी अपराध

ए टेरेरिस्ट 

रिवेंज

चैलेंज होटल : द हॉन्टेड प्लेस

Review By Tejas Poonia

Tuesday, September 22, 2020

बुक रिव्यू : आशा की किरण जगाती 'तिनका तिनका मध्यप्रदेश


 मरजानी, तिनका तिनका की श्रृंखला, तिनका तिनका तिहाड़, तिनका तिनका मध्यप्रदेश, तिनका तिनका डासना, रानियाँ सब जानती है आदि जैसी प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय किताबें लिखने वाली लेखिका एवं लेडी श्री राम कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ वर्तिका नन्दा आज अपनी एक अलग  पहचान बना चुकी हैं। देश के विभिन्न जेलों का अध्ययन करके वहाँ से कविताएं और कहानियां निकालने का अनूठा काम इन्होंने किया है। यूं तो मैंने लेखिका वर्तिका नन्दा को हमारे महाविद्यालय किरोड़ीमल में एक सेमिनार के दौरान सुन चुका हूँ। बेहद सुरीली, सुमधुर आवाज और बहुमुखी प्रतिभा की धनी इस लेखिका के द्वारा जेलों पर किए गए कार्य के लिए राष्ट्रपति से सम्मान भी प्राप्त हो चुका है। तिनका तिनका फाउंडेशन की शुरुआत करके जेलों के भीतर एक बेहतर माहौल इन्होंने तैयार किया है। पुस्तक समीक्षा की कड़ी में वर्तिका नन्दा की लिखी पुस्तक तिनका तिनका मध्यप्रदेश पर बात करूं उससे पहले तिनका तिनका तिहाड़ पुस्तक में एक महिला कैदी कि कविता है।

सुबह लिखती हूँ शाम लिखती हूँ।
इस चारदीवारी में बैठी जब से, तेरा नाम लिखती हूं
इन फासलों में जो गम की जुदाई है
उसी को हर बार लिखती हूं

यह मात्र कविता ही नहीं अपितु जेल के भीतर मौजूद उस महिला कैदी की अंतर्व्यथा भी प्रकट करती है। लेखिका वर्तिका नन्दा उस पार के संसार की बातें करती हैं जो 10 बाई 10 के अंधेरे कमरे में  अपनी जिंदगी काट रहे हैं। लेखिका जेल और उस संसार को चुनती है जिसके बारे में हम कभी बात नहीं करना चाहते। इन जेलों में फूलों की क्यारी नहीं है, खुला आसमान नहीं है। और तो और पेड़ की छांव भी उन्हें मयस्सर नहीं है। है तो बस एक खिड़की  जिसमें छोटे-छोटे से सुराख हैं उनमें भी दरवाजा नहीं है। लोहे का गेट है और उस गेट पर है एक बड़ा ताला जड़ा।  रात का एलान शाम 5 बजे ही हो जाता है। तब बचे-खुचे ख्वाब भी उसी बड़े कमरे में बंद हो जाते हैं और करवट बदलने तक की इजाजत लेते हैं। यहां सिर के नीचे कोई तकिया नहीं, एक छोटा-सा कपड़ा है।

खैर इसी श्रृंखला में समीक्षार्थ हेतु किताब है तिनका तिनका मध्यप्रदेश। 'जेल’ शब्द सुनते ही ऊंची दीवारों से घिरे एक परिसर, तंग कोठरियां, लोहे के गेट की सलाखों के पीछे पकड़े गए लोगों के अनजाने चेहरों का दृश्य आंखों के आगे आ जाता है। जेल का यह स्याह पक्ष है तो उसमें अपनी सजा काट रहे लोगों में कला और रचनात्मकता एवं सृजनात्मकता का एक उजला पक्ष भी मौजूद है और उसी पक्ष से दो चार करवाती है किताब ‘तिनका तिनका मध्यप्रदेश’। यह पुस्तक 19 लोगों के जरिए जेल की कहानी कहती है- मध्य प्रदेश की जेलों में बंद बारह पुरुषों, दो महिलाओं, चार बच्चों और एक प्रहरी के जरिए जेल के हर पक्ष को इसमें सुंदर तस्वीरों के साथ सँजोया गया है। बच्चों की उम्र छह साल से कम हैं और उनमें से तीन का तो जन्म ही जेल में हुआ है।

जेल में बाहर से न कोई रसोइया आता है, न हज्जाम।
जेलें सब कुछ नए सिरे से शुरू करने और जिंदगी के अस्थायी होने के भाव को समझने में माहिर होती हैं। जो आया है , वो लौटेगा।

कविता से तिनका तिनका मध्यप्रदेश की शुरुआत होती है। कुछ जेल के भीतर की तस्वीरें भी इस किताब में मौजूद हैं। और येतस्वीरें हमें जेल के भीतर के माहौल से रूबरू करवाती हैं।

थोड़ी और जेलें
थोड़ी और सिकुड़ती जगह
थोड़ी कम हवा
सब कुछ थोड़ा
पर इंतजार बड़ा।।

कविता अपने आप में एक अनूठा प्रयोग लगती है।
जेलों के बिना समाज नहीं पर जेलें अपराध के हर सवाल का जवाब भी नहीं। जेलों की मौजूदगी से अपराधों का खात्मा हुआ हो, ऐसा नहीं है और जो जेलों में हैं, वे सभी अपराधी ही हों, ऐसा भी कोई प्रमाण नहीं है। इसलिए दुनिया की हर जेल समाज से कटा एक टापू है जहां से सवाल झांकते हैं।

किताब कि ये मात्र पंक्तियां ही नहीं है अपितु ये हमें सोचने पर मजबूर करती हैं। कि क्या जेल में सिर्फ कोई अपराध करके ही जाया जा सकता है। कभी कभी तो बेकसूर होने के बाद भी लोग जेलों में ठूंस दिए जाते हैं। और ऐसा अभी से नहीं मुगलों, अंग्रेजों के राज में भी होता था। भारत देश मे चार लाख उन्नीस हजार से भी अधिक कैदी बन्द हैं। जिनमें से करीबन तीन लाख विचाराधीन केस के मामले में फंसे हुए हैं। तिनका तिनका मध्यप्रदेश बताती है कि अकेले मध्यप्रदेश मब करीबन चालीस हजार कैदी मौजूद हैं।
जेल हमें यह बताती है कि यहां ऊंची आवाज में बोलना मना है। जेलें रंगों का बायोस्कोप हैं तो ये लिखती भी हैं। सुभद्रा कुमारी चौहान से लेकर माखन लाल चतुर्वेदी भवानी प्रसाद मिश्र, गांधी, भगतसिंह आदि जैसे हजारों लाखों नाम हैं जिन्होंने जेल के भीतर सृजन का काम किया है। तिनका के इतिहास कि बात करें तो यह 2013 में सामने आया। यूं तो लेखिका कहती हैं कि उन्होंने ने प्रयास 1993 से ही शुरू कर दिया था। परंतु मुक्कमल हुआ 2013 में आकर। लता मंगेशकर सरीखी आवाज की धनी लेखिका जेल का नुमाइंदा नहीं करती बल्कि जेल के भीतर से कला और सृजन को भी बाहर लेकर आती है।

जेलों पर किया गया यह काम अपने आप में मौलिक और काबिले तारीफ है। तिनका तिनका तिहाड़ पुस्तक तो गिनीज बुक रिकॉर्ड तक में दर्ज हो चुकी है। तिनका तिनका की सभी श्रृंखला में जेल के भीतर की प्रतिभाओं के साथ साथ वहां का मुआयना करती तस्वीरें भी इसमें साझा की गई हैं। ये तस्वीरें किसी भी संवेदनशील हृदय के व्यक्ति में दया भाव पैदा करने के लिए काफी है।

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Monday, September 14, 2020

रिव्यू : उरी हमले की याद ताजा करती 'द हिडन स्ट्राइक'

 द हिडन स्ट्राइक फ़िल्म उरी हमले के बाद भारत की ओर से पाकिस्तान में कई गई सर्जिकल स्ट्राइक पर आधारित है। जी हाँ वही स्ट्राइक जिसे तथाकथित वामियों ने फर्जीकल स्ट्राइक कहा और इसके सबूत भी भारत सरकार से मांगे थे। सबूत मांगना एक अलग प्रतिक्रिया है और उस पर फ़िल्म बनाना अलग। फ़िल्म  आर्मी ऑफिसर की कहानी बयां करती है, जो अपने आलाकमान की अनुमति से सीमा पार अपने सबसे अच्छे लोगों के साथ एक गुप्त मिशन पर जाता है और अंततः सफल होता है।  कहानी काउंटर अटैक पर एक व्यंग्य है हालांकि उनके पास सभी नवीनतम संसाधन और गोला-बारूद हैं।  फिल्म एक भारतीय के रूप में आपके गुस्से को भड़का सकती है कि कैसे हमारे सैनिक हमलों में अपनी जान गंवाते हैं। 

लोकेशन वार फील्ड का वास्तविक एहसास देते हैं।  संगीत, ग्राफिक्स, स्टोरीलाइन और स्टार कास्ट कुलमिलाकर औसत हैं। यह फ़िल्म नेपोटिज्म को एक गंभीर झटका देती है क्योंकि इसमें नए कलाकारों को लिया गया है।  फिल्म कलाकार दीपराज राणा, मीर सरवर, जिमी शर्मा, संजय सिंह, लाखा लखविंदर, वेदिता प्रताप सिंह और दिल्ली बिहार गुजरात, पंजाब, हरियाणा, जम्मू और कश्मीर के थिएटर कलाकारों ने अपने किरदारों के साथ न्याय किया है।  इस फिल्म में दिखाई गई गहरी पीड़ा हमारे वास्तविक नायकों के जीवन के नुकसान के खिलाफ हमारे दिलों को आगे बढ़ाती है और यह भारतीयों के लिए एक मस्ट वॉच फिल्म है।

 संगीत हमारे दिलों में एक गूँज समान है। लेकिन इस फ़िल्म का गीत संगीत निम्न स्तर का है। कहानी और स्क्रीनप्ले भी कसे हुए नहीं लगते।  निर्देशक सुजाद इकबाल खान ने कहानी के साथ-साथ लेखक अभिनाश सिंह चिब और सागर झा को भी कहानी पटकथा और संवादों के साथ उनका साथ लिया है। क्रिस्टल मूवीज के बैनर तले निर्मित की गई इस फ़िल्म में अभिनेता जिमी शर्मा ने अपने अभिनय कौशल से साबित करते हैं कि उन्होंने अपने पावर पैक के प्रदर्शन के माध्यम से सभी के दिलों को और आंखों को भावुक कर दिया।

 एक आर्मी मैन के वास्तविक जीवन को 'द हिडन स्ट्राइक' में चित्रित किया गया है, जहां देश स्वयं से पहले आता है, परिवार से पहले कर्तव्य आता है।  उनकी प्रतिबद्धता, निष्ठा और वीरता वे तत्व हैं जो आपको अंत तक स्क्रीन पर चिपकाए तो रखते हैं लेकिन नाकाम कोशिश के साथ। इस तरह की फ़िल्म को देखने के लिए अंदर जोश आना चाहिए और मुठियाँ भींच जानी चाहिए हथेलियों में पसीना आ जाना चाहिए लेकिन अफसोस ऐसा कुछ नहीं हो पाता। और देशभक्ति के नाम पर आप ठगे जाते हैं। इससे बेहतर तो ये हो कि इस फ़िल्म को न देखकर साल 2016 की खबरें ही एक बार पुनः देख ली जाएं तो कुछ देशभक्ति तो पैदा होगी। सहयोगी कलाकारों के लिए करने लायक कुछ ज्यादा है नहीं। इस फ़िल्म को देखने से बेहतर है उरी फ़िल्म को देख लिया जाए। 


शेमारूओ बॉक्स ऑफिस

निर्देशक: सुज़ाद इकबाल खान

कास्ट: दीपराज राणा, मीर सरवर, जिमी शर्मा, संजय सिंह, लाखा लखविंदर, वेदिता प्रताप सिंह, अमित अंतिल आदि। 

 निर्माता: विजय वल्लभानी और सोनू जैन

 बैनर: क्रिस्टल मूवीज

 शैली: एक्शन थ्रिलर

 अपनी रेटिंग: ढाई  स्टार


रिव्यू: मनुष्य और राक्षसों के संसार की कहानी 'कार्गो'

 

हिंदी में तय फार्मूलों और हकीकत से हटकर बहुत ही कम फिल्में बनी हैं। अगर कभी बनती भी हैं तो उनमें ऐसे प्रयोग किए जाते हैं कि फिल्म आम दर्शक के सर से गुजर जाती है। कार्गो लीक से अलग होने के बावजूद एक सहज फिल्म है, जो हमें एक कल्पनालोक में ले जाती है। जहां जीवन और मृत्यु के गंभीर प्रसंगों पर कभी-कभी आप मुस्करा भी देते हैं। 

पृथ्वी पर अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए इंसानों और राक्षसों की लड़ाई पौराणिक है। लेखक-निर्देशक आरती कदव अपनी डेब्यू फिल्म कार्गो में इस पौराणिक मिथक को कई ट्विस्ट एंड टर्न के साथ तोड़ती और पेश करती हुई प्रतीत होती है। वे एक नई-रोचक कहानी बुनकर इस बार हमारे सामने प्रस्तुत हुई  हैं। इसमें विज्ञान, अंतरिक्ष के साथ साथ आत्मा-परमात्मा , जीवन-मृत्यु का दर्शन भी है लेकिन इसे एक फैंटेसी के रूप  में ही सहजता से बुना गया लगता  है। वह भी एक ऐसे दौर में जबकि हिंदी सिनेमा में रियलिस्टिक पर जोर है, आरती काल्पनिक कहानी को जमीनी सच्चाई की तरह पेश करती हैं वह भी हल्के-फुल्के कॉमिक अंदाज में। 


इसमें साल 2027 का समय दिखाया गया है। जिसमें यहां ऐसा समय दिखाया गया है, जब इंसान चांद-मंगल से आगे बृहस्पति तक पहुंच गया है। लेकिन धरती पर हालात 2020 जैसे हैं। क्योंकि 2027 तो कपोल कल्पना के आधार पर दिखाया जा सकता है। साल 2020 की बात करें तो इस दौर में वही लोकल ट्रेनें, वही घरों की पलस्तर से उखड़ती दीवारें और उनमें काले पड़ते इलेक्ट्रिक सॉकेट मौजूद हैं। वहीं प्यार के झूठे वादे और रिश्तों में धोखा देने वाले इंसान पैदा हो रहे हैं। लेकिन कार्गो में इस जीवन-मरण के बीच में बड़ा बदलाव दिखता है। मरे हुए इंसान को लेने के लिए भैंसे पर सवार यमराज या उनके नुमाइंदे नहीं आते। यह काम मनुष्यों जैसे दिखने वाले राक्षस करते हैं। साथ ही यहां न स्वर्ग है, न नर्क। पृथ्वी पर मनुष्यों और राक्षसों के समझौते के बाद आकाशगंगा में मृत्यु के पश्चात अंतरिक्ष स्टेशन बनाए गए हैं, जहां आदमी  सिर्फ मर कर ही पहुंच सकता है। यहां उसे कार्गो यानी डिब्बाबंद माल कहा जाता है। स्टेशन में उसकी ‘मेमोरी इरेज’ की जाती है और फिर धरती पर नए शरीर में उसका जन्म होता है। 

फ़िल्म की कहानी की बात करूं तो यहां काल्पनिक काल और स्थान के बैकग्राउंड वाली यह कहानी एक अंतरिक्ष स्टेशन पुष्पक 634-ए पर 75 साल से रह रहे होमो-राक्षस प्रहस्थ (विक्रांत मैसी) की है। जिसकी उम्र कितने सौ बरस होगी, कह नहीं सकते। लेकिन चूंकि अब उसके स्टेशन में जन्म-मृत्यु के कई चक्रों से गुजर कर आते लोग कहने लगे हैं कि उसे कहीं देखा है, तो इसका मतलब है कि धरती पर कई युग बीत चुके हैं। उसके रिटायरमेंट का समय आ गया है। उसकी जगह लेने के लिए राक्षसों-मनुष्यों के इंटरप्लेनेटरी स्पेस ऑर्गनाइजेशन ने युविष्का शेखर (श्वेता त्रिपाठी) को भेजा है।  दूसरी ओर प्रहस्थ को धरती पर लौटना मुश्किल लगता है क्योंकि उसकी भावनाएं अपने काम से जुड़ी हैं। मगर यहां उसकी एक छोटी-सी प्रेम कहानी भी आरती ने दिखाई है। 


ओटीटी प्लेटफॉर्म नेटफ्लिक्स पर आई कार्गो का फिल्माई ढांचा रोचक है। हॉलीवुड या पश्चिमी देशों में बनने वाली महंगी अंतरिक्ष फिल्मों की तुलना में सीमित संसाधनों में बनी कार्गो अंतरिक्ष फैंटेसी का सुंदर नमूना पेश करती है। कहानी और स्क्रिप्ट में दम दिखाई देता है। इसी कारण यह आपको बांधे रखने में कामयाब होती  है। मृत्यु का सफर और वहां से पुनर्जन्म की राह पर लौटना क्या इतना ही सहज किंतु रोचक होता होगा। फिल्म में मर कर अंतरिक्ष स्टेशन में आने वाले किरदारों में एक बात लगभग समान दिखती है कि वे अचानक मर गए हैं और एक बार अपने किसी प्रियजन या परिवारवाले से बात करना चाहते हैं। मृत्यु यहां मशीनी रूप में है। जिसमें ना कोई दर्द, ना तकलीफ और ना ही इमोशन है। स्मृति को ‘खत्म’ कर देने वाली या मिटा देने वाली कुर्सी पर बैठने के बाद इंसान जैसे कोरी स्लेट हो जाता है और धरती पर ट्रांसपोर्ट होने के लिए रबर के गुड्डे की भांति तैयार रहता है। ऐसे तमाम दृश्य और प्रसंग यहां आकर्षक लगते हैं।  कार्गो जीवन से मोह और मृत्यु के भय को एक समान दूरी और एक नजर से देखने की कहानी मालूम पड़ती है। कई बार जैसे हमें यह पता नहीं होता कि हम जी रहे हैं, वैसे ही हमें यह भी पता नहीं चलता कि हम मर चुके है। कुछ ऐसी ही बात कहते हुए कार्गो कहीं-कहीं हल्की मुस्कान पैदा करती है। इसमें हल्का व्यंग्य भी है।

लगभग एक घंटे 50 मिनट की यह फिल्म दर्शकों को बांधे रखने में कामयाब  है। अगर आप रूटीन फिल्मों से अलग कुछ देखना पसंद करते हैं और साइंस फिक्शन में रुचि है तो कार्गो आपके लिए है। हिंदी में ऐसी फिल्में दुर्लभ है। अतः एक अलग अनुभव के लिए इस फिल्म को देखा जा सकता है। विक्रांत मैसी और श्वेता त्रिपाठी ने अपनी भूमिकाएं सहजता से निभाई हैं। फिल्म के सैट अच्छे से डिजाइन किए गए लगते हैं।  इसका आर्ट डायरेक्शन और वीएफएक्स कहानी के अनुकूल हैं। फ़िल्म के सेट, लोकेशन को छोड़ गाने ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाते। 

अपनी रेटिंग - 3 स्टार


Saturday, August 29, 2020

रिव्यू : सड़क 2 झेल सको तो झेल लो

 



 कास्ट: संजय दत्त, आलिया भट्ट, आदित्य रॉय कपूर, जीशु सेनगुप्ता, प्रियंका बोस, मकरंद देशपांडे, गुलशन ग्रोवर
  निर्देशक: महेश भट्ट
अपनी रेटिंग: एक स्टार

 हो सकता है कि किसी दिन महेश भट्ट इस पीढ़ी के सबसे रोमांचक अभिनेताओं में से एक, आलिया भट्ट के साथ कुछ कर रहे हों। लेकिन अफसोस की बात है कि सड़क 2 वह फिल्म नहीं है। सड़क 2 को पसंद करने की हिम्मत रखने वाले सभी लोगों पर मेहरबान होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं।  फिल्म को अगर एक शब्द में कहना हो तो कहा जा सकता है कि यह भयानक है। कोई भी इस दिन और उम्र में इतना थकाऊ क्यों बनना चाहेगा? यह तो ऊपर वाला ही जाने।

 

 1991 की सड़क को देखें तो पता चलता है एक हँसते हुए टैक्सी-ड्राइवर और पटरियों के गलत साइड से एक लड़की के बीच एक उच्चस्तरीय रोमांस, एक समय की यादें वापस लाता है जब बॉलीवुड कहानियों को बताना जानता था।  उस संजय दत्त-पूजा भट्ट अभिनीत फिल्म के बारे में कुछ भी मौलिक नहीं था, लेकिन अतुलनीय सदाशिव अमरापुरकर द्वारा बुरी महारानी के रूप में प्रस्तुत किए गए खस्ता कथानक और प्रदर्शन के मिश्रण के बारे में कुछ ने इसे उस युग की सबसे यादगार फिल्मों में से एक बना दिया।

 

 लगभग तीस साल बाद यह ’सीक्वल’ आया है, और सीधे ही आपको पता चलता है कि यह एक खोया हुआ कारण जानने के लिए है।  ऐसा नहीं है कि संजय दत्त, अब उचित रूप से पुराने और आकर्षक रूप से जकड़े हुए हैं, उनकी भूमिका को मजबूत करने वाले टैक्सी-चालक रवि के रूप में, कुछ भी खो दिया है।  और ऐसा नहीं है कि आलिया भट्ट, जिनकी उत्तराधिकारी आर्या को सड़क पर आने के लिए सख्त जरूरत है, एक ठोस कलाकार नहीं है।

 

 फ़िल्म के सहायक कलाकार तो जर्जर है हीं साथ ही  जिशु सेनगुप्ता, जो हिंदी सिनेमा में लगातार अतिक्रमण कर रहे हैं, यहां प्रियंका बोस के साथ उनकी पापी मां के रूप में हैं और आर्या के पिता हैं।  आम तौर पर विश्वसनीय मकरंद देशपांडे को  ढोंगी बाबा के रूप में पागलपन करने का मौका मिलता है।  और 80 के दशक के अंत में, 90 के दशक की शुरुआत में, गुलशन ग्रोवर, संक्षेप में पॉप अप होते दिखाई देते हैं।

 लेकिन इनमें से किसी भी अभिनेता को ऐसा करने के लिए कुछ भी विश्वसनीय नहीं दिया गया है।  इस हरे-भरे दिमाग वाले प्लॉट का सपना किसने देखा था?  निश्चित रूप से, यह दुष्ट माँ और भिखारी दादा और लालची स्वामियों के लिए पूरी तरह से स्वीकार्य है जो निर्दोषों का शिकार करते हैं।  यहाँ और बहादुर लड़कियां हो सकती हैं, उनके वफादार स्वैन्स (रॉय कपूर) के साथ, जो अनैतिक रूप से ऊपर जाना चाहते हैं।  'और' श्वर के खिलाफ लड़ने के लिए, जैसा कि सड़क 2 वर्तमान में चाहती  है, एक अच्छी बात है, लेकिन इस तरह से?  एक विश्वसनीय दृश्य, या चरित्र, या ट्विस्ट के साथ नहीं?

 

 यह विश्वास करना कठिन है कि यह महेश भट्ट की और से आती है, जिसने हमें र्थ, नाम और 1999 ज़ख्म जैसे क्लासिक्स दिए हैं, जो धर्मों और लोगों के बीच बढ़ती दरार के लिए इतनी भव्यता और भावनात्मक रूप से बोलते थे।  यह एक ऐतिहासिक फिल्म थी।  अपने सबसे अच्छे काम में, भट्ट ने क्षण के स्वाद को पकड़ने और उस स्मार्ट मुख्यधारा में अनुवाद करने की क्षमता थी, और जब उन्होंने निर्देशन को रोकने का फैसला किया तो यह एक खाई थी।


 मुख्य कहानी के खिलाफ संघर्ष करने वाले एकमात्र व्यक्ति दत्त हैं।  लंबे समय तक याद रखने वालों को याद हो सकता है कि दत्त, एक महान अभिनेता, कभी भी स्क्रीन पर मौजूद नहीं थे, और कैसे उन्होंने और पूजा भट्ट (जिन्हें हम अगली कड़ी में अक्सर फ्लैशबैक में देखते हैं) ने एक जोड़ी बनाई जिसकी हमने देखभाल की।  इन हस्तक्षेप के वर्षों में, जिसके दौरान उन्होंने व्यक्तिगत और व्यावसायिक अशांति का अनुभव किया, दत्त ने सीखा कि कैसे एक भूमिका को भरना है, और हमें विश्वास करना है।  सड़क 2 में, सभी आलस्य के बावजूद, वह आखिरी आदमी खड़ा है।  लेकिन यह इस फिल्म को अविश्वसनीय रूप से कम से कम अच्छे से अच्छा नहीं करता है।

 हो सकता है कि किसी दिन महेश भट्ट इस पीढ़ी के सबसे रोमांचक अभिनेताओं में से एक, आलिया के साथ कुछ कर रहे हों।  अफसोस की बात है कि सड़क 2 वह फिल्म नहीं है।
 फ़िल्म के गाने कुछ खास और याद रखने लायक नहीं है। निर्देशन, एक्टिंग सब चरमराई सी दिखाई देती है। 

 सदाक 2 डिज्नी प्लस हॉटस्टार पर चल रही है।
रिव्यू by तेजस पूनिया

Monday, August 10, 2020

एक किन्नर की प्रेम कहानी

 इस लॉक डाउन में कठिनाइयां और परेशानियां तो बहुत हुई लेकिन मेरी जिन्दगी में आश्चर्यचकित कर देने वाली कुछ घटनाएं भी हुई उनमें से दो घटनाएं ऐसी थी जिनके बारे में मैं कभी सोचती भी नहीं थी । 
लेकिन परमात्मा बहुत दयालु है उसको पता है कि हमें किसकी किस वक्त ज़रूरत है । बिना मांगे वह दे देता है । 
लॉक डाउन शुरू होते ही मेरे हमेशा बुरा सोचने वाले अपने ही समाज के कुछ लोगों से मुझे हमेशा से मुक्ति मिल गई । मैं उनके चंगुल से निकल गई ।
दूसरी घटना जिसके बारे में मैंने सोचना तकरीबन छोड़ ही दिया था  वह थी जीवन साथी की ।
जीवन साथी हमारे जीवन का एक अहम हिस्सा होता है जीवन में बहुत लोग आते हैं जो शारीरिक रूप से साथी होते हैं लेकिन एक ऐसा भी होता है जो हमारी आत्मा का साथी बन जाता है । इस दुनियां से जाने के बाद तो सभी को छोड़ना है लेकिन आत्म स्वरूप प्रियतम के लिए रूहें भटकती हैं । 
लॉक डाउन में मुझे ईश्वर ने बहुत ही प्यारा साथी प्रदान किया । वह  ट्रांस पुरुष है । महिला से पुरुष ट्रांस जेंडर को ट्रांस मैन बोलते हैं जैसे मैं पुरुष शरीर से महिला हुई ।
सभी हिजड़ा ट्रांस जेंडर ही होते हैं लेकिन सभी ट्रांस जेंडर हिजड़ा नहीं होते । हिजड़ा एक परंपरा है । 
आने वाले समय में हम दोनो इसकी जानकारी सब को दे देंगे ।
तीसरी घटना जो कि एक ट्रांस जेंडर की जिन्दगी में बहुत महत्वपूर्ण होती है वह है उसका गुरु ।
मैंने आज तक किसी से शास्त्र अनुसार किसी से दीक्षा नहीं ली थी । खाली मुंह से ही सभी को गुरु जी बोल देती थी । और कुछ लोगों ने बिना चेला किए ही मेरे ऊपर रौब और हक जमाना शुरू कर दिया था । दीक्षा संस्कार एक परंपरा है जो सभी धर्मों में और सभी जातियों में लोग निभाते हैं । 
अभी कुछ दिन पहले ही मुझे 
किन्नर अखाड़ा की महामंडलेश्वर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी जी ने मुझे शिष्य स्वीकार किया और सभी बड़े किन्नर लोगों के सामने मुझे शिष्य स्वीकार किया । अभी यह सब फोन और वीडियो कॉल पर हुआ बहुत जल्द इसकी विधिवत रूप से परंपरागत रूप से दीक्षा होगी । 
यह सब बातें मेरे जीवन को नई दिशा की ओर ले जा रही है । इसमें परमात्मा की पूर्ण मर्जी होगी । नहीं तो बिन मांगे कुछ नहीं मिलता था । मुझे सब बिन मांगे ही मिल गया जिसकी मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी । 
एक और अहम घटना मेरे जीवन की हिस्सा बनी वह थी मेरे जीवन पर आधारती फिल्म Admitted का यूट्यूब चैनल पर प्रसारित होना । यह मेरे जीवन में मील का पत्थर साबित हुई। फिल्म का निर्देशन Ojaswwee Sharma जी ने किया है ।
मैं हरदम प्रयास करूंगी कि किन्नर समाज में शिक्षा को बढ़ावा दूं और  गुरु का नाम रौशन करूं ।

Monday, August 3, 2020

रिव्यू : आंखों से पर्दा मिलाती फ़िल्म प्रथा


दीपक को लीला से प्यार है और दोनों जल्द ही अपने गांव में एक पारंपरिक समारोह में शादी कर लेते हैं।  नवविवाहित जोड़े के लिए जीवन अच्छा लगता है, लेकिन दीपक एक बेहतर भुगतान वाली नौकरी हासिल करने की अपनी क्षमता को व्यापक बनाने का फैसला करता है और इस तरह खुद को 


शिक्षित करने के लिए शहर जाता है।  कुछ दिनों के बाद, परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु की खबर उसके पास पहुँचती है और वह वापस घर लौट आता है।  पहुंचने पर, दीपक यह जानकर चौंक गया कि उसकी पत्नी लीला को गाँव की देवी ठहराया गया है।  सच्चाई का पता लगाने और अपनी पत्नी से मिलने की उसकी सारी कोशिश नाकाम कर दी जाती है।  वह बाद में लोगों को लगता है कि लोगों को लगता है कि लीला हिंदू देवी का पुनर्जन्म है।  वह तब लीला को उसके साथ मंदिर से भागने में मदद करता है।



 जल्द ही उसे गाँव के अधिकारियों ने पकड़ लिया।  इस बार दीपक निराश है और गांव के पुजारी निमी का अपहरण कर लीला की रिहाई की मांग करता है।  जब दीपक के खिलाफ पुलिस की रिपोर्ट बनती है और उसके लिए दृष्टि संबंधी आदेश दिए जाते हैं तो चीजें और अधिक जटिल हो जाती हैं।  चीजों को अधिक बदसूरत होने से पहले उसे जल्द ही अपने कार्य को पूरा करना होगा।  फिल्म का निर्देशन और निर्माण रजा बुंदेला ने किया है।  संगीत अमोद भट्ट और पल्लव पंड्या द्वारा रचित है।  सिनेमैटोग्राफी के यू मोहनन की है और कोरियोग्राफी भूषण लखंदरी ने की है। 
https://youtu.be/rnFBGdmXvMs

*धर्म का चश्मा उतार कर यह फ़िल्म देखेंगे तो फ़िल्म का उद्देश्य स्पष्ट देख सकेंगे* 

ऐसी फिल्म बननी चाहिए, लेकिन बनेगी नहीं। 2002 में आयी यह फ़िल्म *प्रथा* है। हाँ वही दकियानूसी प्रथाएं जिनके आधार पर हमें इंसान समझने से रोका जाता है और झोंक दिया जाता है एक प्रथा के अंतर्गत। आश्चर्य नहीं घोर आश्चर्य होता है इन प्रथाओं की बलि भारतीय नारी ही चढ़ती है और इसकी पूरी जिम्मेदारी पुरुष समुदाय अपने कंधों पर लेकर चलता है। 
गैरत यदि आपमें शेष होगी तो आपकी रूह कांप जाएगी इसे देखकर। इरफान साहब के अभिनय पर तो बात करना सूरज को दीया दिखाने के समान होंगे। यदि आज वे होते तो उनके सामने नतमस्तक होकर उन्हें प्रणाम जरूर करता। अफसोस मुझे ही नहीं आपको भी होगा जिन्होंने यह फ़िल्म अब यानी इरफान साहब के अलविदा होने पर देखी। 
*भगवा-खादी-खाकी* का दुर-संयोग कितना भयावह होता है या हो सकता इस फ़िल्म में आप देख सकते हैं। इतना ही नहीं रूढ़िवादिता और कुप्रथाओं को यदि समाज से खत्म करना है तो इसके लिए बलिदान देना पड़ता है। आप फ़िल्म देखते हुए आज के वर्तमान समय से इसकी साम्यता का मिलान करोगे तो आप हैरत में पड़ जाओगे कि लगभग 20 साल पहले बनी इस फ़िल्म की पृष्ठभूमि ऐसी लगती है मानो अभी हाल-फिलहाल ही यह फ़िल्म रिलीज़ हुई हो। 
इस फ़िल्म को देखकर *हिन्दू* होने की अकड़  कुछ देर के लिए ही सही एकदम ढीली पड़ जाएगी। हो सकता है शर्म से डूब जाओ। हालांकि इस फ़िल्म का अंत दुःखद है। परन्तु जो *भगवा-खादी-खाकी* के संयोग का अंत इसमें दिखाया है वह फिलहाल तो सम्भव नहीं, पर नामुमकिन भी नहीं। सबसे खास बात जो मुझे लगी वह यह कि *भगवा-खादी-खाकी* के आतंक का पुरजोर विरोध तत्कालीन मीडिया ने किया वह काबिले तारीफ है। आज की गोदी और बिकी हुई मीडिया को सबक लेना चाहिए। (हालांकि मीडिया के दृश्य कुछ ही मिंटो के हैं) यहां भी दो तरह की मीडिया आपको दिखेगी। कौन सी? उसके लिए आपको फ़िल्म देखनी होगी। नायक *दीपक* के संवादों को गौर से सुनिएगा और फिर आज के युवाओं के संवादों से उसकी तुलना कीजियेगा, बड़ा अंतर मिलेगा आपको। 
धर्म एक प्रपंच है जो गरीब-भोले औऱ नादान लोगों के खिलाफ जमकर प्रयोग किया जाता है और इसके लिए चयन भी बड़े सोच समझकर किया जाता है। 
एक पहलू इस फ़िल्म का नारी चरित्र भी है। एक नारी पात्र है *सुवा* जो एक बच्चे की चाह में अपना घर द्वार पति को छोड़कर घोर अंध विश्वास के चलते  *निन्नी पांडे* यानी इरफान साहब (कुख्यात बदमाश जो ग्राम प्रधान के सहयोग से गांव के चौक्सा माता मंदिर का मुख्य महंत बन जाता है) के पिछले कई वर्षों से उसके बुरे कर्मों में उसका साथ देती है। जबकि निन्नी पांडे जानता है कि सुवा कभी माँ नहीं बन सकती है फिर भी वह अपने भोग विलास हेतु हमेशा उसे अपने साथ रखता है। हालांकि अंत में नायिका *लीला* (फ़िल्म में जिसको जबरदस्ती चौक्सा माता बना दिया जाता है) का साथ देती हुई अपनी जान देती है। 
आप जब देखेंगे तो आपके सामने वर्तमान के *भगवा-खादी-खाकी* की मिली भगत करने वालों चेहरे सामने घूमने लगेंगे। धार्मिक प्रपंच का शिकार महिला ही क्यों और कैसे होती है और इसका विरोध किस प्रकार विरोध महिला को ही करना होगा। यह आप इस फ़िल्म में बखूबी देख सकते हैं। 
मंदिर की खुशी मनाने वाले और न मनाने वाले दोनों इस फ़िल्म में देखेंगे कि मंदिर निर्माण और निर्माण के बाद किस तरह के षड्यंत्र करके आम जनता को मूर्ख बनाकर उनसे उनकी जमापूंजी लूटते हैं। 
*यहां धर्म से आशय हर उस धर्म से है जिसमें इस तरह का पाखण्डवाद रचा जाता है*

बाकी फ़िल्म देखकर बुद्धि के पट अवश्य खुलेंगे. नहीं खुले तो कोई बात नहीं जैसा है चलता रहेगा। 

*धन्यवाद*

Saturday, August 1, 2020

मूवी रिव्यू: खुद को स्वीकारें admitted


भारत के पहले ट्रांसजेंडर Mx Dhananjay Chauhan जिन्होंने पँजाब विश्वविद्यालय से पीएचडी की है उन्हीं के जीवन पर आधारित है यह डॉक्यूमेंट्री। इस डॉक्यूमेंट्री में दिखाया गया है कि किस तरह धनञ्जय चौहान को अपने जीवन में संघर्ष करना पड़ा और संघर्ष करते हुए किस तरह उन्होंने पँजाब विश्वविद्यालय में ट्रांसजेंडर के लिए अलग से टॉयलेट बनवाया, फीस माफ करवाई। किस तरह उनके साथियों ने ही उनपर अत्याचार किए। रेप तक करने की कोशिशें हुई। 
हमारे जीवन में सिनेमा, साहित्य, संगीत आदि अन्य कला रूपों का विशेष महत्व है  इनके द्वारा हमारी मानसिक जरूरतों की पूर्ति होती है, और हमारा अच्छा या बुरा मनोरंजन होता रहता है।  साहित्य की तरह सिनेमा भी वैचारिक संघर्षों की अभिव्यक्ति का एक माध्यम है। भारत में सिनेमा जीवन का अभिन्न अंग है। सिनेमा में व्यक्ति के सपने तथा अहसासत बिकते हैं और बिकते हैं नए किरदार। 
    हिंदी सिनेमा अपने आरंभिक काल से अब तक के सफर में समाज के विभिन्न पहलुओं को उजागर करता आया है। सिनेमा का इतिहास संक्षिप्त नहीं अपितु एक शताब्दी से भी अधिक लम्बे दौर का रहा है। “सिनेमा अपने विविध विषयों के चुनाव के लिए समाज पर आश्रित है। सिनेमा कितना भी व्यावसायिक हो, पर उसमें अगर सामाजिकता का सरोकार न हो तो वह चल नहीं सकता।’’ सिनेमा वस्तुतः समाज पर ही आश्रित है। इसी बात को पुरजोर शब्दों में रेखांकित करते हुए डॉ. दयाशंकर कहते हैं “साहित्य और सिनेमा कल्पना और व्यावसायिकता में विशेष आग्रह के बावजूद अपनी कच्ची सामग्री कमोबेश समाज से लेता है यहाँ तक कि दोनों अपने प्रयोजन में, वह आनंद हो चाहे मनोरंजन, सामाजिक ही होते हैं।” किन्तु समाज में आज भी कई ऐसे अनछुए पहलु विद्यमान है जो पूरे परिवेश के साथ सिनेमा में उभरकर सामने नहीं आ सके हैं। किन्नरों की आवाजें उसी का परिणाम है।

Friday, July 31, 2020

प्रेमचन्द साहित्य में सन्निहित दलित चेतना सम्पन्नता-असम्पन्नता सम्बद्ध विमर्ष : एक अध्ययन



वर्तमान हिन्दी साहित्य जगत की बात करें और प्रेमचन्द साहित्य का जिक्र ना हो, यह एक असम्भव बात है। उपन्यास सम्राट् प्रेमचन्द के बिना वर्तमान हिन्दी कथा साहित्य की कल्पना नहीं की जा सकती, विषेषकर जब से (कुछ वर्ष पूर्व) प्रेमचन्द के साहित्य के साथ दलित विमर्ष जुड़ गया है, तब से प्रेमचन्द-साहित्य और भी प्रांसगिक हो गया है। बल्कि, यह कहना अतिष्योक्ति न होगा कि वर्तमान साहित्य जगत् में जितने प्रांसगिक साहित्यकार प्रेमचन्द हैं, उतना अन्य कोई साहित्यकार नहीं हैं। कान्तिमोहन इस बात को पुष्ट करते हुए लिखते हैं कि ‘‘दलित विमर्ष के सन्दर्भ प्रेमचन्द और हिन्दी कथाकारों में से सिर्फ प्रेमचन्द ही आज भी न केवल प्रांसगिक बने हुए है, बल्कि चर्चा के केन्द्र में हैं।‘‘1 चूंकि इस बात में कोई दो राय नहीं है कि वर्तमान साहित्य जगत् में दलित साहित्य एक क्रांति का पर्याय बन चुका है और इस क्रांति का हिन्दी साहित्य में अभी प्रारम्भ मात्र है। यहाँ यह कहना भी उचित होगा कि मार्क्सवाद-प्रगतिवादके पष्चात् समकालीन साहित्य में दलितवाद या दलित विमर्षएक बड़ा विक्षोभ है, जिसने साहित्य एवं संस्कृति को एक परिवर्ततनकारी मोड़ दिया है। इतिहास साक्षी है कि जब-जब क्रांति होती है, परम्परा का नये सिरे से मूल्यांकन होता है, कुछ पुराने प्रतिमान की जगह नये मूल्यों का निर्माण होता है। प्रेमचन्द ऐसे ही सौभाग्यषाली लेखक हैं, जिनकी चर्चा मार्क्सवाद के समय में भी उतनी  नहीं हुयी, जितनी आज दलित उभार के जमाने में हो रही है। यह चर्चा कुछ वैसे ही है, जैसे जब  देष में कोई सामाजिक और राजनीतिक क्रांति की बात की जाती ह,ै तो डॉ. अम्बेडकर व गांधी के बिना पूर्ण नहीं हो सकती है, यह उनकी वर्तमान समय में भी प्रासंगिकता का प्रमाण है। डॉ. अम्बेडकर व गांधी के साथ ही प्रेमचन्द ने हमेषा अपने आपको तत्कालीन समाज और राजनीति से जोड़कर देखा। इस विषय में ठाकुर हरिनारायण कहते हैं कि ‘‘गांधी  ने धर्म को राजनीति से जोड़ा, डॉ. अम्बेडकर ने समाज को और प्रेमचन्द ने साहित्य को।2‘‘ अगर दलित चेतना/विमर्ष की बात की जाए, जो प्रेमचन्द विगत कुछ वर्षा से खासे विवादस्पद हुए हैं। दलित विमर्ष के सन्दर्भ में पिछले कई वर्षो में प्रेमचन्द पर जितना चर्चाएं हुई है, तर्क-वितर्क, आलोचना एवं प्रतिवाद हुए है, उतने किसी अन्य भारतीय लेखक के सम्बन्ध में नहीं हुए हैं। प्रेमचन्द हिन्दी साहित्यकारों में खासकर दलित लेखकों में शुरु से ही विवाद का कारण बने रहे हैं, बल्कि प्रेमचंद के जीवन काल के दौरान भी उनके साहित्य को सन्देहात्मक दृष्टि से देखा जा रहा था। वास्तव में हिन्दी साहित्य, विषेषकर दलित साहित्य में, यह आज भी यक्ष प्रष्न बना हुआ है कि प्रेमचन्द को दलित साहित्यकार की श्रेणी में रखा जाए या नहीं?

वर्तमान समय की यह माँग बन चुकी है कि प्रेमचन्द का पुनःपाठ अथवा दलित पाठ किया जाना चाहिए, क्योंकि जिस प्रकार प्रेमचन्द को दलित-विरोधी, सामन्तों का मुंषी (डॉ. धर्मवीर), विदेषी साहित्य का नकलची इत्यादि नामों से पुकारा जा रहा है, जो कि साहित्य की दृष्टि से न्यायसंगत प्रतीत नहीं होता है। इस प्रकार की चर्चाओं से साहित्य का हित भी हुआ है और अहित भी। प्रेमचन्द की इस प्रकार की आलोचनाओं से साहित्य का हित इस रूप में हुआ है कि दलित लेखकों ने प्रेमचन्द का पुनर्पाठ किया है, जिसके फलस्वरूप आलोचना में एक नयी दृष्टि के साथ-साथ दलित दृष्टि भी समृद्ध हुई है। साहित्य के अहित के विषय में हरिनारायण जी कहते हैं कि ‘‘सृजनात्मक लेखन बाधित हुआ है और कई ऊर्जावान लेखकों की बहुत सारी रचनात्मक ऊर्जा इस उठा-पटक की भेंट चढ़ गयी है।’‘3 प्रेमचन्द साहित्य सम्बंधी विरोध को दो रूपों में देखा जा सकता है। एक तो विरोध केवल विरोध के लिए किया जाए, तो अधिक समय तक नहीं चलता और व्यर्थ ही होता ह,ै किन्तु दूसरी तरफ सकरात्मक और रचनात्मक विरोध सार्थक उपलब्धियों से भरा होता है। दलित लेखकों द्वारा प्रेमचन्द के विरोध के मूल्यांकन को इसी दृष्टि से देखे जाने की जरूरत है। अब यहाँ प्रष्न यह भी उठता है कि ‘‘ क्या दलितों का प्रेमचन्द-विरोध केवल विरोध के लिए है या कि वह रचनात्मक के लिए है? क्या उनका विरोध निराधार या तर्कहीन है या उसके पीछे कोई ठोस आधार है?‘‘4 इस पर गम्भीरता से चर्चा करना अनिवार्य हो गया है। साथ ही प्रेमचन्द साहित्य को लेकर एक मुद्दा और भी कि प्रेमचन्द-साहित्य को किस श्रेणी में स्थान दिया जाए? जबकि इसके उत्तर में दलित और गैर-दलित साहित्यकारों दोनों का ही दृष्टिकोण अलग-अलग है। एक वर्ग जहाँं प्रेमचन्द-साहित्य को दलित साहित्य के अन्तर्गत रखता है और दूसरा इसका पूर्ण रूप से विरोध करता है। जयप्रकाष कर्दम जी (दलित लेखक) ने इस सन्दर्भ में प्रेमचन्द विरोध और समर्थन के दो उदाहरण दिये हैं, पहला सी.बी.एस.ई. पाठ्यक्रम से प्रेमचन्द के निर्मलाउपन्यास की जगह मृदुला सिंह के ज्यों मेहंदी को रंगको लगाए जाने का तथा दूसरा रंगभूमिको जलाये जाने पर राष्ट्रव्यापी विरोध का मुद्दा। दोनों ही स्थितियों में प्रेमचन्द को राष्ट्रव्यापी समर्थन मिला।

उपन्यास रंगभूमिका दहन हंसके वर्तमान सम्पादक राजेन्द्र यादव के तथाकथित दलित विरोधी तेवर का परिणाम था। इस बात का प्रमाण देते हुए हरिनारायण ठाकुर लिखते है कि ‘‘वस्तुतः रंगभूमिका दहन हंसके संपादक राजेन्द्र यादव और भारतीय दलित साहित्य अकादमीके अध्यक्ष डॉ. सोहनपाल सुमनाक्षर के बीच द्वन्द्व का परिणाम था।‘‘5 हांलाकि उपरोक्त मुद्दा साहित्य की राजनीति से सम्बंध रखता है परन्तु फिर भी यहाँं इसका जिक्र किया जाना बेहद आवष्यक है। दलित लेखकों में जिसने प्रेमचन्द का खुलकर और पूर्ण रूप से विरोध किया वह हैं डॉ. धर्मवीर भारती। अब तक का प्रेमचन्द पर सबसे बड़ा प्रष्न इन्होंने ने ही उठाया है कि ‘‘दलितों का लिखा हुआ साहित्य प्रेमचन्द के साहित्य की काट हैय उस पर रोक है, उसका क्रमिक विकास नहीं। दलित साहित्य जिस जगह पर जन्म लेता है, द्विज साहित्य उस जगह पर मरने तक भी नहीं पहुँच सकता।‘‘6  पर यहाँं ध्यान देने वाली बात है कि धर्मवीर जी के प्रेमचन्द विरोध की कसौटी साहित्यषास्त्र न होकर समाजषास्त्र है। डॉ. धर्मवीर ने यहाँ पितृसत्ताऔर मातृ सत्ताके पष्चात् इस नयी सत्ता पर दृष्टि डाली ह,ै वह है जारसत्ता। उन्होंने प्रेमचन्द का सम्पूर्ण मूल्यांकन इसी आधार पर किया है, जिसके फलस्वरूप इन्होंने प्रेमचन्द को सामन्त का मुंषीकहा है, लेकिन यह तथ्य भी द्रष्टव्य है कि धर्मवीर जी प्रेमचन्द का मूल्यांकन किया है, वह साहित्य कम व्यक्तिगत ज्यादा है, जबकि कोई भी साहित्यकार हो उसके व्यक्तित्व और कृतित्व में अन्तर पाया जाता है। इसी आधार पर दलित लेखिका अनिता भारती ने डॉ. धर्मवीर की आलोचना भी की है। इसके साथ ही देष निर्मोही के अनुसार, ‘‘डॉ. धर्मवीर ने प्रेमचन्द के निजी जीवन और लेखन पर जो आरोप लगाये हैं, वे बेबुनियाद हैं।‘‘7 धर्मवीर जी के पक्ष में मोहनदास नैमिषराय जी कहते हैं कि ‘‘बड़े लेखकों से भी चूक होती है। ऐसी ही चूक प्रेमचन्द ने भी की है, जिसे धर्मवीर ने दर्षाया हैं।‘‘8 जबकि मैनेजर पांडे ने धर्मवीर को पैदाइषी स्त्री विरोधी बतलाया है।

साधारणतः किसी भी लेखक को समझने के लिए कुछ आधार बिन्दु हैं- सबसे पहला तो यह कि उसका लेखन, सृजनात्मक है या चिंतनपरक या दोनों, परन्तु मुख्य रूप से सृजनात्मक। दूसरा जो आधार है, लेखक का अपना जीवन व्यवहार और जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि जीवन-व्यवहार के स्तर पर भारत ही नहीं, वरन् विष्व के समस्त साहित्यकारों के जीवन में भी अन्तर्विरोध होता है और साथ किसी भी लेखक के अपने व्यक्तिगत जीवन और उसके लेखन में जमीन-आसमान का अन्तर देखा जा सकता है। उदारणार्थ यदि लेखक की आयु 100 वर्ष की है, तो भी उसका लेखन का जीवन दषकों, सदियों तक भी चल सकता है। इसी प्रकार प्रेमचन्द का लेखन उनके व्यक्तिगत जीवन के प्रति तमाम तरह के प्रतिक्रियाओं के बावजूद भी दीर्घकालीन रहा है और दीर्घाकालीन रहेगा। यहाँ यह भी तथ्य ध्यान में दिया जाना चाहिए कि लेखक के व्यक्तिगत जीवन संबधी प्रामाणिकता की तलाष की जानी ह,ै तो वह लेखक के जीवनकाल में ही अधिक सार्थक होती है। लेखक के मृत्यु के पष्चात् उसके जीवन की घटनाओं पर प्रतिक्रियाएं एक सीमा के बाद निरर्थक प्रतीत होने लगती है या हद से हद उनका महत्व पाठ्यक्रम तक सीमित रह जाता है। अब यदि प्रेमचन्द पर बार-बार जारकर्म के आरोप लगते भी हैं, तो वह अपने आप में निरर्थक ही कहलायेंगे। इसी सन्दर्भ में प्रो. चमनलाल लिखते है कि ‘‘वस्तुगत स्तर पर प्रेमचन्द के किसी भी विमर्ष को उनके जीवन से नहीं, उनके लेखन से व्याख्यायित किया जाना जरूरी भी है और सही तथा वस्तुगत भी। उनके जीवन में बार-बार झांकना कई बार अपनी ही दृष्टि की सीमाओं को जगजाहिर करना सिद्ध हो जाता है।‘‘9 इसी आधार पर प्रेमचन्द को लेकर बार-बार उनके व्यक्तिगत जीवन में झांकना बिल्कुल उचित नहीं है।

इस बात में कोई अतिष्योक्ति नहीं है कि प्रेमचन्द ने करीब साढ़े तीन दषक के अपने लेखन काल में हिन्दी साहित्य को विपुल साहित्य प्रदान किया है। इनके लेखन में सृजनात्मक और चितंनपरक, दोनों प्रकार का साहित्य शामिल है। अगर संख्या की दृष्टि से देंखे, तो उनकी रचनाओं का आंकड़ा हजार के पार पहुँच चुका है, लेकिन यहाँ यह बताना आवष्यक है कि वर्तमान हिन्दी साहित्य में प्रेमचन्द की प्रसिद्धि का एक मात्र कारण उनके साहित्य में दलित-विमर्ष पर अर्न्तद्वन्द्व ही है। इस दलित विमर्ष को प्रेमचन्द साहित्य से निकाल दिया दें, तो शायद प्रेमचन्द उतने साहित्यक चर्चा के विषय नहीं रहेंगे जितना कि अब हैं। ओमप्रकाष वाल्मिकी ने इस बात को प्रामाणिक ढंग से प्रस्तुत करते हुए अपने लेख में लिखते हैं कि ‘‘आज भी प्रेमचन्द जीवित हैं, तो उन निरंतर और नये-नये आयामों से होने वाली चर्चा के कारण। बिना चर्चा के किसी रचनाकार की श्रेष्ठ रचनाएं भी समय के गर्त में खो जाती हैं, उन्हें भुला दिया जाता है। किसी आलोचक ने कोई स्थापना दी, तो क्या आने वाली पीढ़ी को भी उस स्थापना को आँख मूँद कर मानते रहना चाहिए? ‘‘10 जैसा कि दलित साहित्य लिखे जाने से पूर्व प्रेमचन्द-साहित्य के साथ किया जा रहा था। प्रो. चमनलाल भी इसी पक्ष में लिखते हैं कि ‘‘प्रेमचन्द के इस विपुल साहित्य में से उनके सृजनात्मक साहित्य में अभिव्यक्त दलित विमर्ष से ही हिन्दी में अधिकांष विवाद पैदा हुए हैं।.................दलित साहित्य पर पिछले एक दषक से शुरु हुई चर्चा में कफनको दलित विरोधी कहानी कहा गया।‘‘11

ओमप्रकाष वाल्मिकी ने प्रेमचन्द साहित्य को लेकर और भी कई प्रष्न खड़े किये हैं, जिनका उत्तर देना शायद ही गैर दलित लेखकों के वष में हो। उन्होंने कहा है कि ‘‘दलित लेखकों ने प्रेमचन्द के सम्बन्ध में जो सवाल उठाए हैं, उन्हें अतिवादी  दृष्टिकोण कह कर खारिज कर देना, क्या साहित्य की मूल भावना और उसके सामाजिक उत्तरदायित्व के पक्ष में जाता है? क्या दलित रचनाकारों का अपना स्वतंत्र मत निर्मित करना साहित्य-विमर्ष में गैर-जरूरी है? क्या प्रेमचन्द का साहित्य भी धार्मिक साहित्य की श्रेणी में स्थापित कर दिया गया है कि उसकी आलोचना नहीं की जा सकती?‘‘12 गैर-दलित लेखकों ने जब यह तक कहने में संकोच नहीं किया कि दलित लेखक प्रेमचन्द से अच्छा लिख कर दिखाएं तो ओमप्रकाष वाल्मिकी इसका करारा जवाब देते हुए कहा कि ‘‘प्रेमचन्द रूपी लाठी से दलित लेखकों को डराया-धमकाया जाने लगा। जैसे दलित लेखक उनके महत्व को खंडित करने, उनके आरक्षित क्षेत्र में घुसने की कोषिष कर रहे थे, लेकिन इस विद्वानों ने दलित पक्ष को जानने-समझने का प्रयास ही नहीं किया, क्योंकि यह उनके संस्कारों के विरूद्ध हैं। उन्हें सिखाने की आदत है, सीखने की नहीं।‘‘13

                   सर्वप्रथम प्रेमचन्द की जो कहानी दलित-विरोधी घेरे में आयी वह थी- कफन। इस कहानी के सन्दर्भ में नैमिषराय जी प्रेमचंद पर दलित पात्रों की अवमानना का आरोप लगाते है- ‘‘क्या प्रेमचन्द दलित चेतना के सूत्रधार थे? दलित चेतना की अवधारणा इतनी सुपरिभाषित है कि इससे प्रेमचन्द को जोड़ पाना सम्भव नहीं है। वह जन्मना कायस्थ थे और दलित इसकी अनदेखी नहीं कर सकता है।‘‘14 प्रारम्भ से ही दलित लेखकों का कहना है कि प्रेमचन्द ने अपने साहित्य में अधिकतर स्थान पर दलित पात्रों के लिए जातिसूचक शब्दों जैसे- चमार, भंगी आदि का प्रयोग बहुतयात से किया है, जो कि उस जाति विषेष को चोट पहुंचाती है। उनका यह भी कहना है कि प्रेमचन्द उक्त जातिसूचक शब्दों के स्थान पर दलितशब्द का प्रयोग भी कर सकते थे, कांतिमोहन इसके जवाब में कहते हैं कि ‘‘प्रेमचन्द के जमाने में दलित शब्द वजूद में होते हुए भी प्रचलन में नहीं था। तत्कालीन साहित्य में अंग्रेजी के शब्द डिप्रेस्ड क्लासेजके लिए कहीं-कहीं दलितया दमित तबकेशब्द का प्रयोग मिलता है। यहाँ तक कि 80 के दषक के आरम्भ में, जब हमने इस विषय का अध्ययन आरम्भ किया था, तब भी इन तबकों के लिए अछूत ही चलता था।‘‘15 इसके साथ आज यह भी प्रष्न उठाया जाना अनिवार्य हो गया है कि सन् 1916-1936 के मध्य जब प्रेमचन्द अपने साहित्य में जातिसूचक शब्दों का उल्लेख कर रहे थे, तो आज साहित्य जगत् में इतना हंगामा मच रहा है, जबकि उस समय जातिसूचक के स्थान पर अछूतशब्द का प्रचलन था, जो कि स्वयं में एक सम्मानजनक शब्द तो कतई नहीं है। वहीं दूसरी ओर, आज 21वीं सदी में दलित लेखकों के माध्यम से साहित्य में जातिसूचक शब्दों का प्रयोग धडल्ले से हो रहा है, तो इसे सकारात्मक दृष्टिकोण से देखा जा रहा है, आखिर क्यों?

                   प्रेमचन्द-साहित्य से सम्बद्ध दलित विरोध को लेकर आज दलित साहित्य में कई तथ्य मौजूद हैं। डॉ. धर्मवीर लिखते हैं कि ‘‘दलित की समस्याओं का वर्णन करने से दलित साहित्य का सृजन नहीं हो जाता। दलित की भूख, पीड़ा और त्रासदी के बखान में उसकी इतिश्री नहीं होती। दलित साहित्य का असली सृजन तब होता है, जब उसमें दलित का चिन्तन आता है। सारे गैर-दलित लेखक उसके इसी चिन्तन से घबराते हैं। एक प्रेमचन्द की अलग से क्या कही जाये, कोई भी अन्य गैर-दलित लेखक इसका अपवाद नहीं हो सकता।.......................................................प्रेमचन्द समेत कौन-सा गैर-दलित हिन्दू लेखक है, जो इन बातों को सपनें में भी सोच सकता है?16 जहाँ एक ओर डॉ. धर्मवीर प्रेमचन्द-साहित्य को दलित रचना स्वीकार नहीं करते, वहीं ओमप्रकाष वाल्मिकी को उनकी रचनाओं में दलित चेतना दिखायी पड़ती है और भगवानदास कहते है कि ‘‘यह सच है कि प्रेमचन्द के उर्दू और हिन्दी में लिखे कुछ अफसाने अछूत जीवन की तस्वीर पेष करते हैं, परन्तु यह दलित साहित्य नहीं, दलित लेखकों से प्रभावित साहित्य है।‘‘17 उपरोक्त तीनों लेखकों (धर्मवीर, वाल्मिकी एवं भगवानदास) की बातों को गम्भीरता से लेते हुए यह कहना उचित होगा कि ‘‘डॉ. धर्मवीर जैसे लेखक प्रेमचन्द की किसी भी रचना को दलित रचना नहीं मान रहे हैं, किन्तु वाल्मिकी को उनकी कुछ कहानियों में दलित चेतना दिखायी पड़ रही है, परन्तु भगवानदास की उक्त टिप्पणी को क्या कहा जाए, जिसमें प्रेमचन्द की रचनाओं में तो वे दलित चेतना स्वीकार करते हैं, किन्तु उन्हें दलित लेखकों से प्रभावित बताते हैं। अब इस बात का जवाब तो स्वयं भगवानदास जी दे सकते हैं कि प्रेमचन्द काल में कौन-सा दलित लेखक साहित्य लिख रहा था जिसका प्रभाव प्रेमचन्द पर था? यह बात सच में समझ से बाहर की प्रतीत हो रही है।

                   प्रेमचन्द-साहित्य के सन्दर्भ में इस बात में कोई दूसरी राय नहीं है कि प्रेमचन्द का साहित्य गांधीवाद से प्रभावित था, परन्तु साथ ही कहीं ना वह डॉ. अम्बेडकरवाद, मार्क्सवाद, स्त्रीवाद से भी प्रभावित दिखता है। इनका रचना काल 1916-1936 के मध्य रहा है। यह समय राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्तर पर काफी उथल-पुथल भरा समय था। वह इतिहास का वह समय था, जिसमें उत्तर नवजागरणकालीन समाज-सुधार एवं स्वतंत्रता आन्दोलन चल रहे थे। इस समयान्तराल में ब्रह्य समाज, आर्य समाज, हिन्दू समाज, मुस्लिमलीग, डॉ. अम्बेडकर, गांधी आदि के आन्दोलन भी चरम पर थे। साथ ही किसान आन्दोलन, मार्क्सवाद आन्दोलन का प्रारम्भ भी इसी काल में हुआ। हिन्दी साहित्य के काल विभाजन के अनुसार यह समय छायावादकहलाया। यह वही समय था जिसमें दलित समस्या ने एक राष्ट्रीय समस्या का रूप लिया और इसी समय डॉ. अम्बेडकर और गांधी दोनां के आन्दोलन चल रहे थे। डॉ. अम्बेडकर की क्रांति में जहाँ दलित मुक्ति शामिल थी, वही गांधी और कांग्रेस का आन्दोलन मात्र अस्पृष्यता निवारण तक ही सीमित था। दक्षिण में जहाँ दलित सुधारक के रूप में डॉ. अम्बेडकर सक्रिय थे, वहीं उत्तर में स्वामी अछूतानंद।

                   यहाँ ध्यानाकर्षण की बात यह भी है कि समाज में उपरोक्त ढेर सारी समस्याएं होने के बावजूद भी प्रेमचन्द के जमाने के साहित्यकार विषेषकर कविता कोलाहल कलहसे दूर कहीं नौका विहारकर रही थी, तो कहीं-कहीं राम की शक्ति पूजा‘, तो कहीं इस घोर भौतिक युग में भी शाष्वत और चिरन्तन सुख की लड़ियां गिनी जा रही थीं, परन्तु कहीं दूर निराला चतुरी-चमारजैसी कहानी के माध्यम से गरीब-तबकों की पीठ सहला रहे थी, तो महादेवी घर-बाहरमें महिलाओं की समस्याओं का निदान तलाष रही थीं। इसके विपरीत प्रेमचन्द साहित्य पर नजर डालें तो ‘‘प्रेमचन्द ने अपने पूरे साहित्य को भारतीय जनजीवन का गीत बनाकर उसे सामाजिक सरोकारों से सीधा जोड़ दिया। उन्होंने भारत की आत्मा किसान-मजदूरों के दुख-दर्द को अपने साहित्य का विषय बनाया, कथा साहित्य में पहली बार यथार्थ को स्वीकार्य बनाया। प्रेमचन्द के दर्जनों उपन्यास और सैकड़ो कहानियों में शायद ही कहीं किसी राजा-महाराजा या सामन्त वर्ग का कोई नायक मिल जाये। सवर्णो में बहुत हुआ तो कहीं-कहीं कायस्थनायक आये हैं, जिन्हें बकौल डॉ. धर्मवीर ब्राह्यणों ने शूद्रही माना है। ब्राह्यण तो उनके कथा साहित्य के खास खलनायक हैं। प्रेमचन्द का यदि सबसे अधिक विरोध किसी से है, तो वह है ब्राह्यणी व्यवस्था और हिन्दू धर्म के पाखंड।‘‘18    प्रेमचन्द के पक्ष में देवेन्द्र चौबे लिखते हैं कि ‘‘गैर-दलित रचनाकारों में प्रेमचन्द को छोड़कर कोई भी लेखक सवर्ण संस्कार से मुक्त दिखायी नहीं पड़ता है।.........................‘19 इसी समय की बात है 1932 में जब डॉ. अम्बेडकर एवं गांधी के मध्य पूना पैक्ट पारित हुआ। देखा जाए तो इसमें डॉ. अम्बेडकर की हार ही हुई थी, क्योंकि गांधीजी ने डॉ. अम्बेडकर पर दबाव बनाया कि वह इसे वापस ले लें। गांधी जी इसमें सफल रहे और पूना पैक्ट के रूप में डॉ अम्बेडकर को झुकना पड़ा। ओमप्रकाष वाल्मिकी इसी सन्दर्भ में कहते हैं कि ‘‘ऐसे वक्त में प्रेमचन्द की भूमिका को भी जान लेना जरूरी है। पूना पैक्ट के बाद जहां अम्बेडकर और दलितों में घोर निराषा थी, वहीं प्रेमचन्द इसे राष्ट्रीयता की विजयकहा था। निर्णाकयक मोड़ आते ही प्रेमचन्द की अछूत-सहानुभूति अपना पक्ष बदल लेती है। अम्बेडकर को प्रेमचन्द हमेषा शंका की दृष्टि से ही देखते रहे। स्वयं चमनलाल ने इस तथ्य को स्वीकार किया है।‘‘20 चमनलाल जी ने इस तथ्य को स्वीकार करते हुए मानते हैं कि प्रेमचन्द जितना गांधी से प्रभावित थे, उतना डॉ. अम्बेडकर से नहीं, लेकिन फिर भी दलित लेखिका अनिता भारती अपने हाल ही में प्रभात पोर्टलपर प्रकाषित लेख (प्रेमचन्द और दलित मत, कुमत) में प्रेमचन्द के पूर्णतः पक्ष में खड़ी हैं- ‘‘दलित चेतना की दृष्टि से प्रेमचन्द की जिन कहानियों पर सर्वाधिक चर्चा रहती है, उनमें मुख्य रूप से सद्गति‘, ‘ठाकुर का कुआँ‘, ‘दूध का दाम‘, ‘कफन‘, ‘मंदिरऔर पूस की रातहै। दलित चेतना के सन्दर्भ में यदि इन कहानियों पर बात की जाए तो ये सारी कहानियां दलित चेतना की सषक्त कहानियां हैं। प्रेमचन्द यर्थाथवादी लेखक थे, उन्होंने समाज में दलितां, शोषितों, वंचितों और स्त्रियों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार का मार्मिक चित्रण किया है।‘‘21

                   अब बात करें ठाकुर का कुआँ‘ (1932) और दूध का दाम (1934)‘ की तो, ये दोनां कहानियां पूना-पैक्ट के बाद में लिखी गयीं। इन पर डॉ. अम्बेडकर के महाड़ और कालाराम मन्दिर प्रवेष आन्दोलन की वैचारिक छाप स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है, बल्कि सद्गतिकहानी पर तो ब्राह्मणों द्वारा प्रेमचन्द को घृणा का प्रचारकतक कह दिया गया। हालांकि ‘‘‘सद्गतिकहानी में प्रत्यक्ष रूप से कोई दलित संघर्ष नहीं है, लेकिन परोक्ष रूप से इसमें एक बड़ा विद्रोह समाया हुआ है। दलित पीढ़ा की ऐसी मर्मान्तक त्रासदी और व्यवस्था से ऐसी असहमति शायद ही किसी साहित्य में उपलब्ध हो।‘‘22  इन्हीं कहानियां को आधार मानकर अनिता भारती आगे अपने लेख में लिखती हैं ‘‘वहीं  अमूर्त रूप में सद्गति‘, ‘ठाकुर का कुआँ‘, ‘दूध का दाम‘, ‘कफन‘, ‘मंदिरऔर पूस की रातमें सवर्ण वर्गीय जातिगत मानसिकता पर प्रहार करती हैं।‘‘23 मंदिर कहानी आप देख सकते हैं कि सुखिया अपने पल-पल मरते हुए बच्चे को देखने की मार्मिक स्थिति से जूझते हुए अपने मौलिक अधिकार मंदिर प्रवेष को लेकर समाज के समक्ष एक कटु प्रष्न खड़ा करती हुयी कहती है कि क्या भगवान ने चमारों को नहीं सिरजा?‘ इसी प्रकार दूध का दामकहानी में गरीब दलित बच्चा मंगल, जिसकी माँ गंगी ने अपने बच्चे मंगल के हिस्से का दूध भी बाबू साहेब के बच्चे को पिलाया, जिसका दाम बाबू साहेब की जाति ने कुछ इस तरह चुकाया है कि जिसे पढ़कर या सुनकर पाठक या श्रोता सवर्ण जाति की असंवेदनषीलता तथा हैवानियत देख किसी के भी रौंगटे खड़े हो जाएं।

                   इस सन्दर्भ में अब चर्चा का जो महत्वपूर्ण विषय है, वह है प्रेमचन्द की उत्कृष्ट उपन्यास गोदानकी। इसको लेकर भी साहित्यकारों में पर्याप्त मतभेद है। वर्तमान समय में जहाँ एक ओर गोदानके पुनर्पाठ आवष्यकता महसूस ही जा रही है, वहीं दूसरी ओर इसका पुनर्पाठ दलित एवं गैर-दलित लेखक अपने-अपने ढंग से कर रहे हैं। यह भी विचारणीय तथ्य है कि गोदानको लेकर ही दलित लेखकों के ही एक समान मत नहीं है। अगर ओमप्रकाष वाल्मिकी विपक्ष में बोलते प्रतीत होते हैं, तो अनिता भारती गोदानके पक्ष में खड़ी हैं। यहाँ बड़ी ही असमंजस की स्थिति है। जहाँ ओमप्रकाष वाल्मिकी कहते है कि गोदानमें सिलिया व मातादीन के बीच की वार्ता में प्रेमचन्द पूर्वाग्रहों पर आधारित है और इसी प्रकार के विरोधाभास प्रेमचन्द की अन्य रचनाओं में भी परिलक्षित होते रहे हैं।‘‘24 ‘गोदानके पक्ष में अनिता भारती अपने ब्लॉग में लिखती हैं कि ‘‘गोदान में उनकी दलित चेतना मूर्त रूप में दिखायी देती है जहाँ वे सीधे तौर पर गाँव के दलितों द्वारा मातादीन के मुँह में हड्डी घुसेड़कर  और जनेऊ तोड़करप्रतिकार करवाती है।‘‘25 (गोदान पृ0- 208-209) हांलाकि मातादीन को गंगा-स्नान कराकर बालू एवं गाय का गोबर आदि खिलवाकर पुनः पवित्र कर लिया जाता है, परन्तु सिलिया वही चमारिन बनी मातादीन की रखैल बनी रहती है। प्रेमचन्द ने मातादीन को अन्त तक नहीं छोड़ा और उसे चमार बनना ही पड़ा। उसके ब्राह्मण बनने की घटना पर प्रेमचन्द जी व्यंग्य करते है कि ‘‘गोबर से उसका मन पवित्र हो गया। मूत्र से उसकी आत्मा के कीटाणु में अषुचिता की कीटाणु मर गये।‘‘ (गोदान, पृ0-285). हरिनारायण जी गोदानके विषय पर अपनी राय देते हुए कहते है कि ‘‘गोदान का गलत पाठमत कीजिए। गोदानकी गाय किसी धर्म की प्रतीक नहीं है, बल्कि आम भारतीय किसान की आषा, आकांक्षा और अभिलाषा की प्रतीक है।‘‘26

                   वर्तमान साहित्य में गोदानकी गहरी अर्थ-व्यंजना को समझने की जरूरत है। इसके माध्यम से ब्राह्मणी व्यवस्था पर जोरदार व्यंग्य किया गया है। वैसे यह भी धारण साहित्य जगत् में धीरे-धीरे प्रचलित हो रही है कि गोदान का मुख्य पात्र होरीके स्थान पर धनियाऔर गोबरहैं। जहाँ होरीको ब्राह्मणवाद के समक्ष हताष दिखाया है, वहीं दूसरी ओर धनियाऔर गोबरको ब्राह्मणवादी विचारधारा का एक विरोधी दिखाया है। उपन्यास गोदानको पढ़ने के पश्चात् पाठक यह स्वयं महसूस करता है कि धनियाका कहीं भी करुणामय रूदन नहीं दिखाया है। वह आम औरतों के जैसे अपने पति की मृत्यु पर दहाड़े नहीं मारती, अपितु चुपचाप सभी विकट परिस्थितियों का वह धैर्य के साथ सामना करती है। मगर अन्त में गोदान करने के बाद उसका धैर्य टूट ही जाता है और वह पछाड़ खाकर गिर जाती है। उपन्यास गोदानके पक्षधर इसके विषय में बहुत महत्वूपर्ण बात लिखते हैं कि ‘‘गोदान विष्व साहित्य की सबसे बड़ी ट्रेजडी है। कौन ऐसा हृदयहीन होगा, जो ऐसी भीषण त्रासदी पर हिन्दू धर्म की उस व्यवस्था की प्रषंसा करेगा, जिसमें गरीब की मृत्यु पर भी गो-दान की व्यवस्था है?...................................प्रेमचन्द ने गोदान के माध्यम से हिन्दू धर्म और समाज की इस व्यवस्था पर करारा प्रहार किया है।‘‘      27 इनसे यह बात पूर्णतः पुष्ट करती है कि गोदानउपन्यास विष्व साहित्य में बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखता है और सम्पूर्ण विष्व साहित्य में इस उपन्यास का कोई दूसरा सानी नहीं है।

                   प्रेमचन्द साहित्य का अध्ययन करने पर पाठक को एक बात अवष्य खटक रही है कि सेवासदनसे गबनऔर प्रेमाश्रमसे गोदानतक की यात्रा में जमींदार हर जगह मौजूद है, किन्तु प्रेमचन्द ने जमींदारों को शायद ही कहीं अपनी कथा या कहानी का खलनायक बनाया हो। यह बात निष्चित रूप से विचारणीय है! आखिर प्रेमचन्द जैसे साहित्यकार ने ऐसा क्यों किया? उनके विचार से यह समय की माँग थी, चूंकि स्वतंत्रता आन्दोलन अपने चरम पर था और सभी समान रूप से इस आन्दोलन में अपनी भागीदारी सुनिष्चित कर रहे थे, लेकिन इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता है कि कहींं-कहीं प्रेमचन्द की सहानुभूति जमीदारों के साथ भी प्रतीत होती है। उपन्यास गोदानमें ही देख सकते हैं कि राय साहबएक शोषक के रूप में नजर आता है। थोड़ा और आगे चले तो कफनकहानी में भी जमींदार है, जिस पर डॉ. धर्मवीर नें अंगुली उठायी है, परन्तु कुछ साहित्यकार यहाँ उनके पक्ष लेते हुएकहते है कि जमींदार को दयालु बताना उसकी उदारता से अधिक उसकी कंजूसी और कठोरता पर व्यंग्य है। यह व्यंग्य कफनकहानी में इस प्रकार दिखाया है कि जमींदार होकर भी उसने घीसू को कफन के लिए 2 रूपये फेंककर दिये। सान्त्वना का एक शब्द भी नहीं। उसकी तरफ ताका तक नहीं। उल्टे भला-बुरा भी कहा। प्रेमचन्द के उपन्यास और कहानियों के पात्रों के नाम और उनके परिवेष को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रेमचन्द दलित-पिछड़े व सर्वहारा की कथा कहते हैं, उनके पात्र चाहे जो भी हो माधव, घीसू, धनिया, गोबर, होरी, झुनिया, सिलिया, झींगुर, जोखू, बुधिया, हल्कू, आदि,। प्रेमचन्द ने हमेषा इन पात्रों के माध्यम से ही दलित वर्ग की हृदय स्पर्षी कथा/कहानियां कहीं हैं, जिनमें छिपे मर्म को झुठलाया नहीं जा सकता है।

                   साधारणतः इस आलेख का उक्त विषय अपने आप में एक अनन्त चर्चा का विषय है, जिस पर निरन्तर कुछ ना कुछ चर्चाएं होती रही हैं और भविष्य में भी होती रहेंगी, परन्तु हमें उन परिस्थितियों को नहीं भूलना चाहिए कि जिन परिस्थितियों में प्रेमचन्द जैसे गैर-दलित लेखक दलित समस्या पर लिख रहे थे। इस प्रकार हम उनके दलित बोध का किस प्रकार खारिज कर सकते है? शायद नहीं कर सकते! सत्य तो यह है कि समय के साथ हर व्यक्ति का विचार बनता-बिगड़गता है। यहाँ सवाल यह नहीं है कि प्रेमचन्द गांधी से प्रभावित है या नहीं। सवाल है कि प्रेमचन्द ने क्या और किसके लिए लिखा? उनकी रचनाओं का सन्देष समाज ने किस तरह अपनाया? इसका उत्तर हरिनारायण ठाकुर देते हुए कहते हैं कि ‘‘उनकी नजर में ब्रिटिषकालीन भारत में गुलामी और शोषण के तीन चक्र है्र। पहला चक्र है- अंग्रेजी सत्ता, दूसरा जमींदारी व्यवस्था अथवा सामन्तवाद और तीसरा चक्र है ब्राह्मणी व्यवस्था। आम जनता इन्हीं तीन चक्कों में पिस रही है। कोई राजा बनकर लूट रहा है, कोई सामन्त बनकर...........................दलित सन्दर्भों से जुड़ी प्रेमचन्द की रचनाएं इसी धार्मिक और ब्राह्मणवादी व्यवस्था पर प्रहार करती है।‘‘28           डॉ. धर्मवीर के पक्ष में हरिनारायण कहते हैं कि ‘‘डॉ. धर्मवीर का प्रेमचन्द-विरोध वस्तुतः प्रेमचन्द का नहीं, बल्कि उस जारसत्ता का विरोध है, जिसकी गिरफ्त में दलित समाज सदियों से कैद रहा है। यह शुद्ध रूप से सत्ता-विमर्ष है।‘‘29 प्रेमचन्द ने अपने एक लेख में हिन्दू धर्म और पाखण्डी ब्राह्मणों पर कड़ा प्रहार किया हैं, इस लेख के कुछ अंष प्रो. चमनलाल ने अपनी पुस्तक में प्रकाषित किये हैं-‘‘इसी काषी में हजारों मदसेवी ब्राह्मण और वह भी तितकधारी निकल आएँगें। फिर भी वे ब्राह्मण हैं। ब्राह्मणों के घरों में चमारियाँ हैं, फिर भी उनके ब्राह्मणत्व में बाधा नहीं आती, किन्तु अछूत नित्य स्नान करता हो, कितना ही आचारवान हो, वह मन्दिर में नहीं जा सकता। क्या इसी नीति पर हिन्दू धर्म स्थिर रह सकता है?‘‘30 इसी लेख के पूर्व के कुछ अंष इस प्रकार हैं-‘‘इन मन्दिरों की आड़ में आज बड़े-बड़े लज्जाजनक कृत्य हो रहे हैं। पुजारियों का, महन्तों का और धर्मगुरुओं का जीवन भयानक विलासित से भरा हुआ हैं। वे मन्दिरों की आड़ में जघन्य कर्म करते नहीं शर्माते। ईष्वर को गाना सुनाकर खुष रखने के लिए उन्हें वेष्याएँ चाहिए। इस बहाने वे अपनी राक्षसी कामना को पूरा करते हैं और अपने जीवन को विलास-वासना और पतन के गहरे गड्ढे में डाल देते हैं। तिस पर भी हिन्दू समाज के लिए वे पूज्य हैं, मानवीय हैं और देवतातुल्य हैं, क्योंकि वे पुजारी हैं, महन्त हैं और धर्मगुरु हैं।‘‘31 उक्त उद्धरण देखकर यह कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए कि जितनी तीखी भाषा में प्रेमचन्द ने पाखण्डी ब्राह्मणों के इस कटु यथार्थ को व्यक्त किया है वैसा शायद किसी दलित लेखक ने भी नहीं किया होगा।

अन्त में यहाँ यह कहना अतिष्योक्ति न होगा कि वर्तमान में दलित साहित्य का अस्तित्व प्रेमचन्द साहित्य के बगैर अधूरा है, क्योंकि दलित साहित्यकारों द्वारा दलित साहित्य समझने के लिए प्रेमचन्द के साहित्य का आलम्बन प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से लिया जाता रहा है और रहेगा। हालांकि जार-प्रष्नएक ज्वलन्त मुद्दा है। कुछ सीमाओं के बावजूद भी प्रेमचन्द का साहित्य आज भी उतना ही प्रासंगिक है। दलितों के विषय में प्रेमचन्द ने जो भी लिखा है, अपने समकालीन साहित्यकारों से आगे बढ़कर ही लिखा है और यह बात प्रामाणिकता से कही जा सकती है। वर्तमान दलित चेतना के उभार के समय में यदि दलित साहित्यकारों की दृष्टि प्रेमचन्द से अधिक विस्तृत हुई है, तो यह समाज और समय के अनुरूप मूल्यों का विकास ही है। यह प्रेमचन्द जैसे महान साहित्यकारों को सीमित कर देता है, क्योंकि यह प्रेमचन्द की सीमा है, किन्तु इससे प्रेमचन्द खारिज कभी नहीं हो सकते। इसलिए कतिपय सीमाओं के होते हुए भी प्रेमचन्द दलित-चेतना के सन्दर्भ में भी आज भी उतने ही प्रासंगिक बने हुए हैं।

 

 

-- :ः सन्दर्भ सूची :ः --

 

1.       प्रेमचन्द और दलित विमर्ष : कान्तिमोहन, स्वराज प्रकाषन, अंसारी रोड, दरियागंज,  दिल्ली, पृ0-11

2.       दलित साहित्य का समाजषास्त्र : डॉ. हरिनारायण ठाकुर, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाषन, नयी दिल्ली, पृ0-134

3.       वही, पृ0-135

4.       वही, पृ0-135

5.       वही, पृ0-135

6.       प्रेमचन्दः सामन्त का मुंषी, डॉ. धर्मवीर भारती, वाणी प्रकाषन, पृ0-80

7.       दलित साहित्य का समाजषास्त्र : डॉ. हरिनारायण ठाकुर, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाषन, नयी दिल्ली, पृ0-138

8.       मोहनदास नैमिषराय, ‘तर्क को कुतर्क से मत काटो‘, ‘वसुधा‘, जुलाई-सितम्बर, वर्ष-2005, सम्पादकीय

9.       प्रो. चमनलाल, ‘प्रेमचन्द साहित्य में दलित विमर्ष‘, ‘कथादेष‘, फरवरी, 2011, पृ0-42

10.     समाचार-पत्र जनसत्तारायपुर, दि0- 06.03.11 ओम प्रकाष वाल्मीकि (प्रेमचन्द और दलित‘)

11.     दलित साहित्य एक मूल्यांकन : प्रो. चमनलाल, राजपाल प्रकाषन, कष्मीरी गेट नयी दिल्ली, पृ0-111

12.     समाचार-पत्र जनसत्तारायपुर, दि0- 06.03.11 ओम प्रकाष वाल्मीकि (प्रेमचन्द और दलित‘)

13.     वही।

14.     दलित साहित्य का समाजषास्त्र : डॉ. हरिनारायण ठाकुर, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाषन, नयी दिल्ली, पृ0-140

15.     प्रेमचन्द और दलित विमर्ष : कान्तिमोहन, स्वराज प्रकाषन, अंसारी रोड, दरियागंज,  दिल्ली, पृ0-13

16.     प्रेमचन्दः सामन्त का मुंषी, डॉ. धर्मवीर भारती, वाणी प्रकाषन, पृ0-63

17.     दलित साहित्य का समाजषास्त्र : डॉ. हरिनारायण ठाकुर, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाषन, नयी दिल्ली, पृ0-140

18.     वही, पृ0-141

19.     आधुनिक साहित्य में दलित विमर्ष : देवेन्द्र चौबे, ओरियंट व्लैकस्वॉन प्रकाषन, नयी दिल्ली, पृ0 -55

20.     समाचार-पत्र जनसत्तारायपुर, दि0- 06.03.11 ओम प्रकाष वाल्मीकि (प्रेमचन्द और दलित‘)

21.     प्रेमचन्द साहित्य और दलित मत, कुमत, अनिता भारती, स्त्रोत-ूूण्चतंइींजांइंतण्बवउध्दवकमध्36461घ्चंहमत्रेवूए दि0 31ण्07ण्11ण्

22.     दलित साहित्य का समाजषास्त्र : डॉ. हरिनारायण ठाकुर, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाषन, नयी दिल्ली, पृ0-150

23.     प्रेमचन्द साहित्य और दलित मत, कुमत, अनिता भारती, स्त्रोत-ूूण्चतंइींजांइंतण्बवउध्दवकमध्36461घ्चंहमत्रेवूए दि0 31ण्07ण्11ण्

24.     समाचार-पत्र जनसत्तारायपुर, दि0- 06.03.11 ओम प्रकाष वाल्मीकि (प्रेमचन्द और दलित‘)

25.     प्रेमचन्द साहित्य और दलित मत, कुमत, अनिता भारती,

स्त्रोत- ूूण्चतंइींजांइंतण्बवउध्दवकमध्36461घ्चंहमत्रेवूए दि0 31ण्07ण्11ण्

26.     दलित साहित्य का समाजषास्त्र : डॉ. हरिनारायण ठाकुर, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाषन, नयी दिल्ली, पृ0-142

27.     वही, पृ0-144

28.     वही, पृ0-150

29.     वही, पृ0-155

30.     दलित साहित्य एक मूल्यांकन : प्रो. चमनलाल, राजपाल प्रकाषन, कष्मीरी गेट नयी दिल्ली, पृ0-116

31.     वही, पृ0-114