Monday, September 30, 2019

उच्च शिक्षा में नैतिक मूल्यों की महत्ता


        मात्र डिग्री प्राप्त कर नौकरी पा लेना ही शिक्षा नहीं है और न ही शिक्षा का एकमात्र ध्येय नौकरी पाना है। बल्कि शिक्षा मनुष्य के सम्पूर्ण और पूरक विकास हेतु उसके विभिन्न ज्ञान तंतुओं को प्रशिक्षित करने की प्रक्रिया का नाम है। शिक्षा सामाजिक जीवन की एक अति महत्वपूर्ण उपलब्धि है। शिक्षा ही एक ऐसा माध्यम है, जो मनुष्य का सही मायनों में ‘मनुष्यता‘ से परिचय कराती है। आज शिक्षा जगत में अनवरत कई नये प्रयोग होने के साथ-साथ आमूल-चूल परिवर्तन भी हो रहे हैं। परन्तु आज शिक्षा का अर्थ अपनी वास्तविक गरिमा के अनुरूप अपनी महत्ता को वर्णित कर रहा है। शिक्षा का वास्तविक ध्येय है आदमी को परिपक्व बनाकर उसमें मानवता का संचार करना है। नीति शास्त्र में एक उक्ति है-‘ज्ञानेन हीनाः पशुभिः समाना‘‘ जिसका अर्थ है ‘बिना ज्ञान के मनुष्य पशु समान है।‘ स्वभाविक रूप से औपचारिक शिक्षा ही ज्ञान का प्रारम्भिक बिन्दु है। शिक्षा एक युग समानान्तर प्रक्रिया है। समय की गति और उसके नवीन परिवर्तनों के अनुसार प्रत्येक समयाकाल में शिक्षा की परिभाषा, रूप और उद्देश्य भी तत्कालीन समयानुरूप परिवर्तनीय होते हैं। यह एक ऐतिहासिक सत्य है। जैसे-जैसे मानव का विकास होता आया है, वैसे-वैसे शिक्षा जगत में भी नित नये आयाम खुल रहे हैं। जिसके फलस्वरूप आज शिक्षाविदों के समक्ष कई चुनौतियां आ खड़ी हुई हैं। जिसके आधार पर शिक्षा की नयी परिवर्तित-परिवर्धित रूप-रेखा की महती आवश्यकता है। शिक्षा का सबसे अनिवार्य तत्व है कि वह अपनी संस्कृति, धर्म तथा अपने इतिहास को अक्षुण्ण बनाये रखने में समर्थ है। इसके कारण ही देश का गौरवशाली अतीत भावी पीढ़ियों के समक्ष द्योतित होता है और युवा पीढ़ी अपने अतीत से जुड़कर लगाव महसूस करती है।
    वैसे तो ताउम्र मनुष्य की शिक्षा किसी न किसी रूप में चलती ही रहती है, परन्तु औपचारिक रूप से शिक्षा प्राथमिक से आरम्भ होकर माध्यमिक स्तर से होती हुई उच्च शिक्षा तक होती है। उच्च शिक्षा को तृतीयक, तीसरे चरण या पोस्ट माध्यमिक शिक्षा भी कहा जाता है। विश्वविद्यालय-महाविद्यालयों उच्च शिक्षा प्रदान करने के मुख्य संस्थान है। साधारणतः उच्च शिक्षा परिणाम प्रमाण-पत्र, डिप्लोमा व शैक्षिक डिग्री के रूप में मिलते हैं। उच्च शिक्षा में अनुसंधान और विश्वविद्यालय के सामाजिक सेवाओं के सामाजिक गतिविधियां भी सम्मिलित हैं।
    उच्च शिक्षा का सामान्य अर्थ है साधारण रूप से सबकों दी जाने वाली शिक्षा से बढ़कर ऊपर किसी विशेष विषय या विषयों में विशेष, विशद तथा सूक्ष्म शिक्षा है। (विकिपीडिया के अनुसार) इसके अन्तर्गत स्नातक, परास्नातक एवं व्यावसायिक शिक्षा के साथ अनेक प्रकार के प्रशिक्षण आते हैं।       
    राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 के अनुसार हमारे जीवन में उच्च शिक्षा के उद्देश्य के सन्दर्भ में स्पष्ट किया है-‘‘सभी शिक्षाओं का, अभ्यासों का अंतिम ध्येय मनुष्य का विकास करना है। मनुष्य की इच्छा शक्ति का प्रवाह और अविष्कार संयति होकर, फलदायी बन षिक्षार्थी के जीवन में उच्च षिक्षा का महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि उच्च षिक्षा लोगों को एक अवसर प्रदान करती है, जिससे वे मानवता के सामने आज सोचनीय रूप से उपस्थित सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, नैतिक व आध्यात्मिक मसलों पर सोच-विचार कर सकें। अपने विषिष्ट ज्ञान और कौशल के प्रसार द्वारा उच्च षिक्षा राष्ट्रीय विकास में योगदान करती है। इस कारण हमारे अस्तित्व के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है।‘‘ विश्व के महान ज्ञान-दार्शनिक स्वामी विवेकानंद सम्पूर्ण शिक्षा प्रणाली पर गंभीर चितंन व अध्ययन के पश्चात् उसके उद्देश्य को कुछ इस प्रकार उद्घाटित करते हैं ‘‘सारी शिक्षा तथा समस्त परिशिक्षण का उद्देश्य ‘मनुष्य‘ का निर्माण होना चाहिए। परन्तु हम यह न करके केवल बहिरंग पर ही पानी चढ़ाने का सदा प्रयत्न किया करते हैं। जहाँ व्यक्तित्व का ही अभाव है, वहाँ सिर्फ बहिरंग पर पानी चढ़ाने का प्रयत्न करने से क्या लाभ? सारी षिक्षा का ध्येय है ,मनुष्य का विकास।‘‘ स्वामी जी के उपरोक्त चिंतनपरक कथन में सबसे असामान्य और ध्यानाकर्षित करने वाला तथ्य है ‘मनुष्य में व्यक्तित्व का अभाव‘। व्यक्तित्व का अभाव का मुख्य कारण है सामान्य मानवीय समाज में नैतिकता का पतन। हमारे जीवन के सार्वजनिक आवश्यक पहलू हैं नैतिक मूल्य। परन्तु दुर्भाग्यवश इस पहलु से आज हम और हमारी शिक्षा व्यवस्था विशेषकर उच्च शिक्षा व्यवस्था अपना मूख मोड़ते हुए अपने इस मूल कर्तव्य से पलायन कर रही है। उच्च शिक्षा मात्र डिग्री हासिल कर नौकरी प्राप्त करने का माध्यम बनकर रह गयी है। फलस्वरूप आज का स्नातक/स्नातकोत्तर स्तर के विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता, विवेकहीनता, बईमानी, झूठ, अमानवीयता, आत्मबल के हृास के चलते आत्महत्या आदि मानसिक व्याधियां आम बात हो गयी हैं। वर्तमान युवा पीढ़ी में बढ़ रहीं अनैतिकता वर्तमान और भावी दोनों समाज के लिए बहुत खतरनाक साबित हो रही है और होंगी। इसके दुष्परिणाम कई रूपों में रोजमर्रा अखबारों व समाचार चैनलों पर देखे जा सकते हैं।
    आज जरूरत है शिक्षकों के साथ उच्च शिक्षा से संबंधित सभी सरकारी व गैर सरकारी विभागों को चाहिए कि सामाजिक परिवर्तन को देखते हुए उच्च शिक्षा को मात्र पाठ्यक्रम व परीक्षाओं के सम्पन्न कराने का माध्यम न बनाया जाये बल्कि उसकी गुणवत्ता को बनाये रखने के लिए नैतिक मूल्यों से अनुप्रमाणित कर आत्मसंयम, प्रलोभनोपेक्षा, इंद्रिय संयम तथा नैतिक मूल्यों को आधार में रखकर भारतीय समाज, अंतर्राष्ट्रीय जगत की सुख-शांति और समृद्धि को माध्यम तथा साधन बनाया जाए। महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘‘जिस तालीम का असर हमारे चरित्र पर नहीं होता वह कुछ काम की नहीं होती।‘‘ इसी बात को ध्यान में रखते हुए आज हमारे विद्यालयों के पाठ्यक्रम में नैतिक मूल्यों से सम्बंधित विषयों को दोबारा शुरू करने की अतिआवश्यकता है। क्योंकि आज का मानव नीतिपरक मूल्यों में अपनी आस्था खोता जा रहा है। सरकार को नैतिक मूल्यों पर आधारित शिक्षा को सम्पूर्ण देश के उच्च शैक्षणिक संस्थानों में आवश्यक रूप से पाठ्यक्रमों का हिस्सा बनाना चाहिए। विज्ञान सम्मत स्वास्थ्य शिक्षा, नैतिक शिक्षा, व्यक्तिगत विकास व चरित्र निर्माण और सामाजिक जागरूकता हेतु पाठ्यक्रम तैयार किये जाने चाहिए। किसी समाज के मानवीय मूल्यों को दृढ़ बनाने की जिम्मेदारी मात्र व्यक्तिगत प्रयासों तक ही सीमित नहीं रहनी चाहिए, समाज का महत्वपूर्ण अंग कहे जाने वाले शिक्षक को भी इस सन्दर्भ में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए। यह कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं होगा कि वर्तमान शिक्षा चरित्र निर्माण के लिए होनी चाहिए। जब तक हमारे उच्च शिक्षण संस्थानों में मानव रूपी मशीन बनाते रहेंगे और शिक्षार्थियों के चरित्र निर्माण पर ध्यान नहीं दिया जाएगा तब तक यह समस्याएँ यथावत् रहेंगी।
    नैतिक व सामाजिक मूल्यों पर आधारित उच्च शिक्षा वास्तव में समाज में वास्तविक सुख-शांति स्थापित हो सकेगी। हम प्राथमिक व माध्यमिक स्तर पर काफी हद तक पाठ्यक्रम (हालांकि वह भी संतुष्टिपरक नहीं है) के माध्यम से बच्चों को नैतिक शिक्षा का ज्ञान कराया जाता है, परन्तु सही मायनों में उच्च शिक्षा में शिक्षार्थियोें को उनके विषयानुसार के साथ-साथ नैतिक मूल्यों की शिक्षा भी अनिवार्य रूप से दी जानी चाहिए। लेकिन न इसके प्रति राष्ट्रीय-राज्य सरकार सजग है और न ही महाविद्यालय या विश्वविद्यालय स्तर पर जुडे़ शैक्षिक अधिकारी/कर्मचारी/शिक्षक। इस पर गंभीर चिंतन की आवश्यकता है। शिक्षार्थी के जीवनकाल में नैतिकता परक उच्च शिक्षा का बहुत बड़ा महत्व है। क्योंकि उच्च शिक्षा में नैतिक-सामाजिक मूल्यों का शिक्षण व प्रचार-प्रसार ही लोगों को मानवता का मार्ग प्रशस्त करेगा। साथ ही देश के युवा अपने विशिष्ट ज्ञान, नैतिकता और कौशल के प्रसार द्वारा उच्च शिक्षा प्राप्त करने के साथ-साथ राष्ट्र के सच्चे विकास में योगदान कर सकेंगे। उच्च शिक्षा में गुणवत्ता की महत्ता के विषय में तत्कालीन प्रमुख सचिव ने अपनी पुस्तक ‘उच्च शिक्षा में गुणवत्ता प्रबंधन‘ में लिखा है ‘‘उच्च षिक्षा का सम्बंध जीवन में गुणवत्ता के विकास क्रम में अर्जित मानवता के दीर्घकालिक अनुभवों को आत्म उपलब्धि की दिषा में समाजीकरण के साथ अग्रसारित किया जा सके। ऐसे अनुभवों के समुच्चय ही कालान्तर में मूल्य बनते हैं, जिन्हे अपनाने की परम्परा ही संक्षेप में संस्कृति कहलाती है।‘‘ निश्चय ही इस संस्कृति का रक्षक व विस्तारित करने में एक शिक्षक ही महत्वपूर्ण भूमिका है।
इसे देश का दुर्भाग्य कहे या विडम्बना गुणवत्ता की दृष्टि से कभी विश्व गुरू कहलाये जाने वाले  हमारे देश का कोई भी उच्च अध्ययन संस्थान विश्वभर में 200 शीर्ष उच्च शिक्षा संस्थानों की सूची में अपना स्थान नहीं रखता है। (द टाइम्स विश्व यूनिवर्सिटीज़ रैंकिंग 2013 के अनुसार) महाविद्यालयों व विश्वविद्यालयों की कक्षाओं में अपने विषयवार व्याख्यान के अलावा शिक्षकों को स्नातक व परास्नातक स्तर पर नैतिक शिक्षा की आवश्यकता पर भी विशेष ध्यान देना चाहिए। आज शिक्षक का कर्तव्य मात्र पाठ्यक्रम पूर्ण कराने व परीक्षाओं का सफल समापन कराने तक ही सीमित हो गया है। इससे ज्यादा वह अपने ही प्रोन्नत हेतु विभिन्न प्रकार की अनिवार्य प्रक्रियाओं को पूर्ण करने में ही मजबूरन व्यस्त है। जबकि शिक्षक सही मायनों वही है, जो बच्चों को अपने विषयगत ज्ञान के अतिरिक्त जीवन से सम्बंधित सामाजिक-नैतिक मूल्यों के बारे में भी कक्षा में बच्चों के साथ गंभीरता से चर्चा करें। भारत का युवा हमारी शक्ति है और इस शक्ति को सकारात्मक मार्ग पर लगाना हम सबका परम कर्तव्य होना चाहिए। शिक्षकों के साथ ही पारिवारिक स्तर पर भी अपने युवा बच्चों को जीवन के विभिन्न पहलुओं के सन्दर्भ में उन्हें सजग रखना चाहिए। नैतिकता का पाठ स्वयं पहले अपने घर से शुरू होता है फिर यह कार्य समानान्तर रूप स्कूल-कॉलेजों के प्रशासन, प्रबंधन व शिक्षकों द्वारा अनवरत किया जाना चाहिए।
    युवाओं में समाज की अधिकतर सामाजिक समस्याएँ मात्र नैतिक मूल्यों के गिरने के परिणास्वरूप ही बढ़ रही हैं। हमारे युवा हमारा भविष्य का निर्धारण करेंगे। अतः उच्च शिक्षा पद्धति ऐसी हो जिसमें समय-समय पर महाविद्यालय-विश्वविद्यालयों में नैतिक मूल्यों को बच्चों के जीवन में संचार करने पर बल दें। समाजिक-नैतिक मूल्यों की जरूरतो से उन्हें रू-ब-रू कराया जाए। इनके चरित्र निर्माण तभी होगा जब परिवार के साथ ही उच्च शिक्षा में भी युवा विद्यार्थियों हेतु नैतिक मूल्यों का बराबर ज्ञान कराया जाए। यह काम और भी सरल हो जाएगा यदि हम/शिक्षक स्वयं भी बच्चों के सामने नैतिकता का आदर्श का प्रस्तुत करें।
    महान दार्शनिक कन्फ्यूशियस ने कहा था कि ‘‘यदि आपका चरित्र अच्छा है, तो आपके परिवार में शांति रहेगी, यदि आपके परिवार में शांति रहेगी तो समाज में शांति रहेगी, यदि समाज में शांति रहेगी तो राष्ट्र में शांति रहेगी।‘‘ अतः परिवार व समाज में शान्ति हेतु प्रत्येक व्यक्ति को चरित्रवान होना होगा। इससे अपने घर में ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण मानवजाति में शांति स्थापित हो सकेगी। किसी भी राष्ट्र के विकास का मानक ‘धन सम्पदा‘ नहीं हो सकती, अपितु उसके नागरिकों का उच्च चरित्र होना ही किसी भी देश या राष्ट्र के लिए समृद्धि का सूचक है।  अब वक्त आ गया है कि हमारी उच्च शिक्षा पद्धति ही यह तय करें कि अपनी भावी पीढ़ी को अनैतिक, संस्कारहीन, आदर्श-मर्यादा विहीन समाज के स्थान पर एक स्वस्थ, संस्कारवान्, आदर्शवादी समाज की सौंगात दंे। अपने बच्चों को अंधकार से बचा, नैतिकता की ओर ले जाना होगा। यह जिम्मेदारी का कार्य हमारे महाविद्यालय और विश्वविद्यालयों से बेहतर भला कौन कर सकेगा। अपनी भावी पीढ़ी का नैतिक उत्थान हेतु प्रयास करना ही हमारी शिक्षा का मूल ध्येय होना चाहिए।
धन्यवाद

डॉ. राम भरोसे

 सम्प्रतिः असिस्टेन्ट प्रोफेसर (हिन्दी विभागाध्यक्ष)
                                                                       श.बे.चौ. राजकीय महाविद्यालय पोखरी (क्वीली)
टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड
9045602061, 9719177319
                                                                           

Thursday, September 26, 2019

चित्रकारी को शिद्दत से जीती एक लड़की

*एक अपील*

ये सभी चित्र जो आपको भेजें हैं, यह मेरी विद्यार्थी रह चुकी *रेशु जी* द्वारा बनाई गयी हैं। ये बच्ची कमाल की कलाकारा है। कई प्रकार के सम्मान से भी नवाज़ी जा चुकी है। ये तस्वीरें कुछ नमूना मात्र है। इनके हाथों की कलाकारी इससे भी बढ़कर है। क्योंकि मैंने बहुत करीब से इन्हें पेंटिंग बनाते देखा है। जिस शिद्दत से रेशु जी पेंटिंग्स बनाती है, उसकी झलक आपके सामने है। ये सभी प्रकार की पेंटिंग बनाने में महारथ रखती हैं, जिनमे प्रमुख मधुबनी पेंटिंग, फड़ (राजस्थानी पेंटिंग), कोहबर पेंटिंग, एक्रेलिक कलर केनवास, आयल पेंटिंग, क्लॉथ पेंटिंग, एब्सट्रेक्ट (अमूर्त कला), पोट्रेट, थीम रिलेटिड पेंटिंग इत्यादि।
ये तस्वीरें यहाँ साझा करने का एक विशेष उद्देश्य है। रेशु जी अपनी कलाकारी को व्यवसाय के रूप में लेना चाहती है, जिस हेतु आप सभी मित्रों का सहयोग अपेक्षित है। मुझे आशा है कि आप इनकी कलाकारी/चित्रकारी के प्रसार-प्रचार करने में सहयोग करें। और अपने घर या ऑफिस या अन्यत्र कहीं के लिए भी किसी प्रकार की पेंटिंग बनवाना चाहते हैं या चित्रकारी के माध्यम से घर को सुंदर बनवाना चाहते हैं, तो आप सीधे इनसे सम्पर्क कर सकते हैं और ऑर्डर देकर पेंटिंग बनवा सकते हैं।
कुल मिलाकर यही कहना चाहूंगा कि आज इस बच्ची को हमारे सहयोग की आवयश्कता है। अपने स्तर से आप सहयोग करने की कृपा करेंगे। आपके द्वारा यह संदेश साझा करना भी एक प्रयास होगा। जिसके हम आभारी रहेंगे।







Tuesday, September 24, 2019

दिनकर काव्य साहित्य में सन्निहित राष्ट्रीय अस्मिता-चेतना सम्बद्ध विमर्श: एक अध्ययन

                               

अपनी मातृभूमि के प्रति हमारा प्रेम स्वाभाविक है। देष प्रेम को क्रियाषील व विकसित करने का श्रेय जितना राष्ट्रीय नेताओं व क्रांतिकारियों का है उतना ही राष्ट्रीयता के लिए समर्पित साहित्यकारों का भी है। तत्कालीन परिस्थितियां भी देष प्रेम को गति प्रदान करती है। हमारा देष भी राष्ट्रप्रेम की भावना से ओत-प्रोत रहा है। क्रांति की कई किस्से-कहानियां विष्वभर में मषहूर है। अंग्रेजी शासनकाल में अपने दासत्व की दयनीय दषा के प्रति देषवासियों में देष प्रेम का उद्वेलन तीव्र रूप लेने लगा था। इस आंदोलन में हिन्दी साहित्यकारांे, विषेषकर कवियों ने भी अपना दायित्व पूर्ण किया। उन्होंने राष्ट्रीय भावों से मुक्त कविताओं का सृजन करते हुए जनसामान्य की राष्ट्रीय चेतना को जागृत एवं परिपुष्ट करने का महान् कार्य किया। काव्य में राष्ट्रीयता या राष्ट्रीय भावना के सन्दर्भ में यह आवष्यक है कि राष्ट्रीय काव्य के तात्पर्य को समझा जाएं। डॉ. द्वारका प्रसाद सक्सैना ने राष्ट्रीय काव्य को सरल व सुस्पष्ट शब्दों में व्यक्त करते हुए कहते हैं, ‘‘राष्ट्रीय काव्य से हमारा तात्पर्य उस काव्य से है, जिसमें किसी राष्ट्र की महिमा का गुणगान किया जाता है, उसके अतीत गौरव के चित्र अंकित किये जाते हैं। जिसमें समूचे राष्ट्र को स्वाधीनता एवं स्वतंत्रता के लिए आत्मोत्सर्ग करने के हेतु प्रेरित किया जाता है, जिसमें राष्ट्र प्रेम के साथ-साथ सम्ूपर्ण राष्ट्र की एकता एवं अखंडता को स्थिर रखने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, जिसमें अपनी मातृभूमि एवं मातृभाषा के प्रति अटूट श्रद्धा एवं विष्वास प्रकट किया जाता है, जिसमें राष्ट्र-विरोधी पुरातन रूढ़ियों एवं परम्पराओं के प्रति जन-जन के हृदय में विद्रोह उत्पन्न करने की क्षमता होती है, जिसमें राष्ट्र-विरोधी श्क्तियों एवं शत्रुओं के प्रति तीव्र घृणा एवं क्षोभ जागृत करने की शक्ति होती है और जो राष्ट्र की सामूहिक उन्नति, सामूहिक प्रगति एवं सामूहिक समृद्धि के हेतु सर्वसाधारण के हृदय में तीव्र ज्वाला प्रज्वलित करने में समर्थ होता है।‘‘1
हिन्दी काव्य साहित्य में राष्ट्रीय चेतना की चर्चा ‘रामधारी सिंह दिनकर जी‘ के बिना अपूर्ण है। इस धारा के सबसे सषक्त कवि दिनकर ही है। दिनकर जी राष्ट्रवादी काव्य चेतना के प्रतिनिधि कवि है। दिनकर जी प्रगतिषील चेतना से ओत-प्रोत, राष्ट्रीय भावनाओं के प्रचारक एवं क्रांतिकारी चेतना के दृष्टा है। इनका जन्म 23 सितम्बर, 1908 में सिमरिया (जिला मुंगेर, बिहार) में एक किसान के परिवार में हुआ था। इनका बचपन निर्धनता एवं अभावों में व्यतीत हुआ। लेकिन इन्होंने कभी अपनी गरीबी और मजबूरी को सफलता के मार्ग में बाधा नहीं बनने दिया। डॉ. निधि भार्गव दिनकर के विषय में लिखती है, ‘‘दिनकरजी का जीवन बड़ी ही विषम स्थितियों से गुजरा था। इसी विषमता ने उन्हें निर्भीक साहित्यकार बना दिया। प्रारम्भ काल से ही विद्यार्जन दिनकर के लिए साधना के रूप में आया। यह साधना यद्यपि परिस्थितिजन्य थी परन्तु उसने उनको एक कर्मठ जीवन-दर्षन प्रदान किया जिसके परिणामस्वरूप आज वह इतने निर्भीक साहित्यकार बन सके हैं।‘‘2 पारिवारिक विषम परिस्थितियों के बावजूद भी इन्होंने पटना में इतिहास में ऑनर्स लेकर बी.ए. (1932) की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद ये क्रमषः एक हाईस्कूल के प्रधानाध्यापक, बिहार-सरकार के अधीन सब-रजिस्ट्रार, बिहार-सरकार के प्रचार विभाग के उपनिदेषक, मुजफ्फरपुर के कॉलेज में हिन्दी-विभागाध्यक्ष, राज्यसभा के सदस्य, भागलपुर विष्वविद्यालय के उपकुलपति तथा भारत-सरकार के हिन्दी-सलाहकार रहे।
    दिनकर जी बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न कवि है। वे भारतीय जीवन-मूल्यों के प्रति आस्थावान् है। उनका कविता काल लगभग चार दषक तक फैला है। उनका काव्य बहुरूपी होने के साथ ही बहुरंगी है। डॉ. षिवकांत गोस्वामी उनकी प्रतिभा विषयक कहते हैं, ‘‘अपने काव्य के विस्तृत कैन्वास पर दिनकर जी ने स्वयुग के विविध चित्रों को यथार्थ रूप में चित्रित करके युग को बहुमुखी चेतना के प्रति अपनी सजगता का अच्छा परिचय दिया है।‘‘3 हिन्दी काव्य-जगत् में जब छायावादीता का जोर-षोर समाप्त हो रहा था तब दिनकर जी अपनी प्रवाहमयी और ओजस्वी वाणी को कविता के रूप में लेकर प्रकट हुए। इस प्रकार वे छायावादोत्तर काल के कवि हैं और इस काल के कवियों में इनका विषेष स्थान है। छायावादी युग की समस्त काव्योपलब्धियां उन्हें विरासत में मिली थीं। काव्य-प्रवृत्तियों की दृष्टि से दिनकर जी कविताओं पर द्विवेदी युगीन से प्रभावित है, परन्तु आधुनिक युग की ओजस्विता ने उन्हें प्रगतिषील चिंतन प्रदान किया। ये सामाजिक चेतना के चारण हैं। वैसे तो इन्होंने विविध विषयों के लेकन काव्य-सजृन किया, परन्तु मुख्यतः उनकी कविताओं में राष्ट्रीय चेतना का क्रांतिमय स्वर ही मुखरित होता है। इसलिए ये हिन्दी साहित्य में राष्ट्रीय कवि के रूप में ख्यातमान है। इनसे पूर्व भी राष्ट्रीय भावना/चेतना को मुख्य विषय में रखकर तत्कालीन अनेक कवियों (जैसे- मैथिलीषरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, रामनरेष त्रिपाठाी, सुभद्राकुमारी चौहान, सोहनलाल द्विवेदी आदि) ने काव्य-सजृन किया। परन्तु इन सबसे अलग दिनकर ने राष्ट्रीय चेतना के कवि के रूप में अपना विषिष्ट स्थान बनाया। ये उक्त कवियों की धारा के अग्रणी कवि कहे जाएंगे। छायावादी युग में रहकर भी इनकी छायावादी प्रभावों से अलिप्त रहकर जो उदात्त राष्ट्रीय काव्य की सृष्टि की है, निष्चय ही वह स्पृहणी है। इसका जिक्र डॉ. षिवकांत गोस्वामी इस प्रकार करते हैं कि ‘‘उन्होंने अपने क्रांतिपरक विचारों में बौद्धिकता का पुट देकर उन्हें जनमानस में संप्रेषित करते हुए राष्ट्रीयता को एक विषिष्ट व्यापकता एवं उदात्तता प्रदान की।‘‘4 काव्य संबद्ध उनकी विषेषता के विषय में डॉ. रवेलचंद आनंद लिखते हैं कि ‘‘राग और आग के कवि दिनकर में स्वछन्दवादी सांस्कृतिक राष्ट्रीय भावना का नवीन विकास मिलता है। इनका व्यक्तित्व ओज और माधुर्य के दो तन्तुओं से बना है। ‘रसवंती‘ तथा ‘उर्वषी‘ में दिनकर रसीला युवक है तथा ‘हुंकार‘, ‘कुरूक्षेत्र‘ में वह आग बरसाता है।‘‘5 इसमें कोई अतिष्योक्ति नहीं है कि इनके काव्य में भाव, चिंतन व कला तीनों का सामंजस्य बखूबी देखा जा सकता है।
दिनकर जी की सबसे पहली रचना सन् 1924 में जबलपुर से प्रकाषित एक पाक्षिक पत्र ‘छात्र सहोदर‘ में छपी थी। मात्र 11 वर्ष से प्रारम्भ हुई इनकी साहित्यिक यात्रा जीवन पर्यन्त चलती रही। देष की तत्कालीन अनेक विख्यात पत्र-पत्रिकाओं में ये अनवरत अपने ओजमय काव्य की छाप छोड़ते रहे। दिनकर जी का रचना संसार अति व्यापक है। इनकी रचनाएँ इस प्रकार हैं- प्रबन्ध काव्य- ‘प्रणभंग‘ 1929, ‘कुरूक्षेत्र‘ 1946, ‘रष्मिरथी‘ 1952, मुक्तक काव्य- ‘रेणुका‘ 1935, ‘हुंकार‘ 1938, ‘रसवंती‘ 1939, ‘सामधेनी‘ 1947, ‘इतिहास के आँसू‘ 1951, ‘धूप और धुआँ‘ 1951, ‘दिल्ली‘ 1954, ‘नीम के पत्ते‘ 1954, ‘नील कुसुम‘ 1955, ‘नये सुभाषित‘ 1957, ‘परषुराम की प्रतीक्षा‘ 1963, ‘कोयल और कवित्व‘ 1964, ‘मृत्ति-तिलक‘ 1964, ‘हारे को हरिनाम‘ 1970, रष्मिलोक, 1973 गीतिनाट्य/महाकाव्य- ‘उर्वषी‘ 1961, बालोपयोगी रचनाएं- ‘धूप छाँह‘ 1947, ‘चित्तोड़ का साका‘ 1949, ‘मिर्च का मजा‘ 1951, ‘सूरज का ब्याह‘ 1955, ‘भारत की सांस्कृतिक कहानी‘ 1955, अनुवादित रचनाएं- ‘सीपी और शंख‘ 1957 (44 कविताओं का संग्रह, चीनी कवियों लारेन्स, गुमिलेव, रिल्के व पषेन की कविताओं का अनुवाद), ‘आत्मा की आंखे‘ 1964, इसके अतिरिक्त ‘द्वन्द्वगीत‘ (रूवाइयंा) 1940, ‘बापू‘ (षोक-काव्य) 1947, एक मात्र कहानी- ‘उजली आग‘ 1956, संस्मरण- ‘लोक देव नेहरू‘ 1965, ‘संस्मरण एवं श्रद्धांजलियां‘, 1970 यात्रा साहित्य-‘देष-विदेष‘ 1957, ‘मेरी यात्राएं‘ 1971, निबन्ध संग्रह-‘मिट्टी की ओर‘ 1946, ‘अर्द्धनारीष्वर‘ 1952, ‘रेती के फूल‘ 1954, ‘काव्य की भूमिका‘ 1958, ‘पंत, प्रसाद और मैथिलीषरण‘ 1958, ‘वेणुवन‘ 1958, ‘षुद्ध कविता की खोज‘ 1966, ‘साहित्यमुखी‘, 1968 ‘वट-पीपल‘ 1961,  डायरी-‘दिनकर की डायरी‘ 1973, ‘विवाह की मुसीबतें‘ 1974 (यह दिनकर जी की अंतिम कृति है), इतिहास-संस्कृति- ‘संस्कृति के चार अध्याय‘ 1956, हे राम‘, 1968 (रेडियो रूपक) तथा ‘चक्रवाल‘ 1956, ‘कविश्री‘, ‘लोकप्रिय कवि दिनकर‘, ‘दिनकर की सूक्तियां‘, ‘दिनकर के गीत‘ शीर्षकों से काव्य संग्रह प्रकाषित हुए हैं, जिनमें इनकी अन्यान्य कृतियों से चुनी हुई कविताएं अन्तर्भूत है।
दिनकर जी का पहला काव्य संग्रह ‘रेणूका‘ था। ये छायावादोत्तर हिन्दी काव्य की राष्ट्रीय सांस्कृतिक कविता के एक सषक्त कवि है। राष्ट्रीयता, मानवतावाद, प्रगतिषीलता तथा रोमांस उनकी कविताओं की प्रमुख विषेषताएं हैं। ये सांस्कृतिक चेतना एवं ‘युद्ध‘ व ‘प्रेम‘ के समर्थ कवि है। इसकी पुष्टि डॉ. सावित्री सिंह इस प्रकार करती हैं, ‘‘दिनकर की काव्य-चेतना में व्यष्टि और समष्टि, सुन्दर और सत्य, औज और प्रेम, प्रवृत्ति और निवृत्ति साथ-साथ चले हैं।‘‘6 इनके विद्यार्थी जीवन में ब्रिटिष साम्राज्य का स्वदेष पर बोलबाला था। इन्होंने जब देष की जनता को पीड़ित और शोषित देखा तो समाज की विषम स्थिति उन्हें पुकारने लगी। उनके इसी संस्कार का परिचय इनके काव्य संग्रह ‘हुँकार‘ में संकलित कविताओं में मिलता है-
‘‘युगों से हम अनय का भार ढोते आ रहे हैं,
न बोली तू मगर, हम रोज मिटते जा रहे हैं।
पिलाने को कहाँ से रक्त लायें दानवों को?
नहीं क्या स्वत्व है प्रतिषोध का हम मानवों को?‘‘7

साथ ही उस समय देष की वर्ग वैषम्य का चित्रण जिसमें भूख से तड़पते और एक-एक बूँद दूध के लिए तरसे हुए बालक की छटपटाहट का वर्णन उन्होंने इस प्रकार किया है-

‘‘वे भी यहीं, दूध से जो अपने श्वानों को नहलाते हैं!
ये बच्चे भी यही, कब्र में ‘‘दूध-दूध‘‘! जो चिल्लाते हैं!‘‘8
×     ×     ×      ×      ×      ×      ×      ×      ×     ×
इसी कविता में आगे वह वर्ग वैषम्य की इस स्थिति से निपटने के लिए स्वयं का आह्वान कुछ इस प्रकार करते हैं-
‘‘दूध, दूध!‘‘ फिर सदा कब्र की, आज दूध लाना ही होगा,
जहाँ दूध के घड़े मिलें, उस मंजिल पर जाना ही होगा।
×     ×     ×      ×      ×      ×      ×      ×      ×     ×
हटो व्योम में मेघ, पंथ से, स्वर्ग लूटने हम आते हैं,
‘‘दूध, दूध‘‘ ओ वत्स! तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं।‘‘9

 दिनकर जी राष्ट्रीय चेतना को प्रेरित करने वाली तत्कालीन परिस्थितियां उत्तरदायी थी। कांग्रेस दो दलों (गरम व नरम) में बंट चुका था। एक ओर भारतीय कांग्रेस के नेतृत्व में भारतीय स्वतंत्रता का आन्दोलन पूरे वेग पर था और दूसरी ओर जनमानस में क्रांति का बीज बोने वाले- चंद्रषेखर आजाद, खुदीराम बोस, भगतसिंह व बिस्मिल। एक ओर थे सुभाषचंद्र बोस व तिलक तो दूसरी ओर शांति दूत गांधी और उनका दल। नजरूल इस्लाम व मैथिलीषरण गुप्त की क्रांतिकारिता तथा ओजस्वी वाणी से प्रभावित होकर दिनकर जी शांति के विरोधी बन गये जिसके फलस्वरूप उनके काव्य में विद्रोह की ज्वाला धधक उठी। उनका विद्रोही हृदय बोल उठा-
‘‘शृंग छोड़ मिट्टी पर आया, किन्तु, कहो क्या गाऊँ मैं?
जहाँ बोलना पाप, वहाँ क्या गीतों से समझाऊँ मैं?
विधि का शाप, सुरभि-सांसों पर लिखूं चरित मैं क्यारी का,
चौराहे पर बंधी जीभ से मोल करूँ चिनगारी का?‘‘10

अपनी कविता ‘हिमालय‘ में कवि ने हिमालय का मानवीकरण किया है और इस कविता में हिमालय का आह्वान भारत के गौरवमयी अतीत की ओर संकेत करता है-
‘‘युग-युग अजेय, निर्बन्ध, मुक्त,
युग-युग गर्वोन्नत, नित, महान,
निस्सीम व्याम में तान रहा
युग से किस महिमा का वितान?‘‘11
इन पंक्तियों में कवि ने विराट्, गौरव, पौरुष की ज्वाला तथा जननी के हिमकिरीट की महिमा का गान किया है। इस कविता के विषय में डॉ. जितराम पाठक कहते हैं, ‘‘दिनकर ने भी मातृभूमि के किरीट हिमालय का वर्णन बड़े मनोयोग से किया और उसके अतुल बल एवं पौरुष को जगाया। मौन तोड़ने का आग्रह भी कवि ने हिमालय से किया है।‘‘12 निष्चिय ही उनके स्वर में देष की तत्कालीन राष्ट्रीय भावना का उत्कर्ष ध्वनित हो उठा है।
आधुनिक युग की प्रमुख विष्व की महान क्रांतियों जैसे अमरीकी क्रांति, इंग्लैण्ड की औद्योगिक क्रांति, फ्रांसीसी क्रांति, रूसी क्रांति, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, दलित आंदोलन, रंगभेद के खिलाफ आंदोलन आदि क्रांतियांे को आरम्भ करने का श्रेय- हॉब्स, जॉन, लॉक, रूसो, बेकन, न्यूटन, कार्ल मार्क्स, टॉलस्टाय और गांधी जी, अम्बेडकर, नेल्सन मंडेला आदि चिंतकों को जाता है। साथ ही धार्मिक जागरण की प्रेरणा भी दिनकर जी पर परिलक्षित होती है। अपनी कविताओं के माध्यम से यह स्पष्ट किया है कि विष्व में उपस्थित सभी धर्मों से सर्वोपरि विष्व भाइचारा है। दिनकर जी का मानना था कि ‘‘आज हिन्दू, बौद्ध, जैन, ईसाई, यहूदी, इस्लाम आदि धर्मांे का महत्व नहीं जितना कि विष्व-एकता में है।‘‘13 लॉक की सम्राज्यवादी विचारधारा के विरूद्ध क्रांति से प्रभावित होकर कवि दिनकर जी कहते हैं-
‘‘है कौन जगत् में, जो स्वतंत्र जनसत्ता का अवरोध करें
रह सकता सत्तारूढ़ कौन, जनता जब उस पर क्रोध करे‘‘14

दिनकर जी का साहित्य जगत् में प्रार्दुभाव तक हुआ जब ब्रिटिष शासन से त्राहि-त्राहि कर रहा था। उनका मानना है कि अतीत के वीर-चरित्रों की स्मृति वर्तमान को संजीवनी दे सकती है। इसलिए भारत को स्वतंत्र देखने हेतु कवि भारत के महान वीरात्माओं का स्मरण करता हैं-
‘‘पूछे, सिकताकण से हिमपति, तेरा वह राजस्थान कहाँ?
वन-वन स्वतंत्रता-दीप लिए, फिरने वाला बलवान कहाँ?
तू पूछ, अवध से राम कहाँ?, वृन्दा! बेला, घनष्याम कहाँ?
ओ मगध! कहाँ मेरे अषोक?, वह चन्द्रगुप्त बलधाम कहाँ?
पैरों पर ही है पड़ी हुई, मिथिला भिखारिणी सुकुमारी,
तू पूछ, कहाँ इसने खोई, अपनी अनन्त निधियां सारी?‘‘15

 सम्राज्यवाद के विरूद्ध आवाज उठान वाले हॉब्स, लॉक तथा रूसो का प्रभाव कवि दिनकर के काव्य पर भी पड़ा-
‘‘बन्ध, विषमता के विरूद्ध सारा संसार उठा है,
अपना बल पहचान, लहर कर पारावार उठा है।
छिन्न-भिन्न हा रहीं मनुजता के बंधन की कड़ियां,
देष-देष में बरस रहीं आजादी की फुलझड़ियां।‘‘16

क्रूर शासकों के विरूद्ध आवाज बुलंद करने की स्वीकृति ‘कार्ल मार्क्स‘ ने ही दी थी। मार्क्सवाद के जनक ‘कार्ल मार्क्स‘ का पर्याप्त प्रभाव दिनकर जी पर भी पड़ा। मार्क्स के सिद्धान्तों का प्रभाव ‘कुरूक्षेत्र‘ के छन्दों में स्पष्ट देखा जा सकता है। दिनकर जी को मार्क्स के ‘प्रारम्भिक साम्यवाद (प्रिमिटिव कम्यूनिज्म)‘ का सिद्धान्त मान्यता देते हुए में वे कहते हैं-
‘‘बिना विघ्न जल, अनिल सलभ हैं,
आज सभी को जैसे;
कहते हैं, थी सुलभ भूमि भी
कभी सभी को वैसे।‘‘17

अपनी कविता ‘वैभव की समाधि‘ में कवि दिनकर जी पूंजीपति वर्ग द्वारा शोषण के विरूद्ध क्रांति का समर्थन करते हुए लिखते हैं-
‘‘वैभव की मुस्कानों में थी
छिपी प्रलय की रेखा;‘‘18

साथ ही श्रम की महत्ता को स्वीकारते हुए दिनकर जी अपनी कविता ‘नीम के पत्तें‘ में कहते हैं-
‘‘रोटी उसकी जिसका अनाज जिसकी जमीन जिसका श्रम है,
आजादी है अधिकारी परिश्रम का पुनीत फल पाने का।‘‘19

    यहाँ यह बताना भी समीचीन होगा कि दिनकर जी पर मार्क्सवाद का सषक्त प्रभाव सिर्फ उनके प्रबन्ध काव्य ‘कुरूक्षेत्र‘ (मार्क्सवादी प्रभाव के चतुर्थ उत्कर्ष काल (1937-42)) में ही मिलता है। इससे पूर्व उनकी रचनाओं में मार्क्सवाद की छलक नहीं मिलती है। पर हाँ कही-कही उन्होंने मार्क्स के विचारों का समर्थन जरूर किया है। उनके मार्क्सवादी विचार के विषय में डॉ. जनेष्वर में लिखते हैं ‘‘दिनकर एक अच्छे कलाकार होते हुए भी अच्छे विचारक नहीं है।....उन्होंने मार्क्सवाद का अध्ययन किया है और गांधीवादी सिद्धान्तों से भी परिचित हैं परन्तु वह निर्णय करने में असमर्थ हैं कि इन दोनों में किस मार्ग को अपनाया जाय। कभी वे मार्क्सवाद का समर्थन करते हैं तो कभी गांधीवाद का और कभी दोनों के समन्वय का विचित्र प्रयास करते हुए दिखाई देते हैं।‘‘20 आगे वे यह भी कहते हैं कि ‘‘विचारों से दिनकर मार्क्सवादी नहीं हैं और कहीं भी उसने स्पष्ट शब्दों में साम्यवाद की स्थापना को अपना उद्देष्य नहीं कहा है।‘‘21 इस सन्दर्भ में डॉ. मुरारीलाल शर्मा कहते हैं-‘‘दिनकर जी को मार्क्सवादी परंपरा का ‘प्रगतिवादी‘ कहना उचित नहीं है, वास्तव वे जन-जीवन के प्रति जागरूक प्रगतिषील कवि है।‘‘22 परन्तु फिर भी मार्क्सवादी प्रभाव के तृतीय उत्कर्ष काल (1931-36) में उनके काव्य संग्रह ‘हुंकार‘ में शोषितों के प्रति सहानुभूति, वर्ग-वैषम्य का चित्रण, पूंजीवाद का प्रबल विरोध किया है। इस बात का समर्थन करते हुए डॉ. जनेष्वर कहते हैं- ‘‘इनके काव्य संग्रह ‘हुंकार‘ में सामाजिक व्यवस्था को बदलने के लिए सषस्त्र क्रांति आह्वान के रूप में मार्क्सवादी चेतना की तीव्र अभिव्यक्ति हुई है।‘‘23
सामाजिक विषमता का नग्न चित्रण दिनकर जी ने अपनी कविताओं में किया है। गरीबी में पिसते लोगों के श्रम की कमाई पूंजीपतियों के खजाने में एकत्र होती है। गरीबी के कारण जनता को दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं होती है जबकि पंूजीपति अपने पालतू जानवरों को भी अधिक से अधिक सुख-सुविधा देते हैं। उनके काव्य संग्रह ‘हुंकार‘ (1938) में क्रांति का आह्वान है। इस हुंकार का उदय उनकी हृदय की गहरी व्यथा से हुआ है। इसमें इन्होंने दीनता और विपन्नता का भावुक और संवेदनषील चित्रण प्रस्तुत किया है-
‘‘वे भी यहीं, दूध से जो अपने श्वानों को नहलाते हैं!
ये बच्चे भी यहीं, कब्र में ‘‘दूध-दूध‘‘! जो चिल्लाते हें!‘‘24
    शोषितों की दयनीय स्थिति का अत्यन्त कारुण्यपूर्ण वर्णन अपनी कविता ‘विपथगा‘ में कुछ इस प्रकार किया है-
‘‘ष्वानों को मिलते दूध-वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं,
मँ की हड्डी से चिपक, ठिठुर जाड़ों की रात बितात हैं।
युवती के लज्जा-वसन बेच जब ब्याज चुकाए जाते हैं,
मलिक जब तेल-फुलेलों पर पानी-सा द्रव्य बहाते हैं।‘‘25

    कवि दिनकर जी की राष्ट्रीय भावना समष्टिपरक है, जो भारतीयता के प्राचीन आदर्ष, विष्व प्रेम की उदात्त भावना की कसौटी पर खरी उतरती है। वे मानते थे कि जातीयता की संकुचित विचारधारा से समाज अस्वस्थ रहता है। स्वस्थ एवं सषक्त समाज का निर्माण जाति से चिपके रहने वाले व्यक्तियों से नहीं, बल्कि अपने कर्म, शक्ति व शौर्य से अपना मार्ग प्रषस्त करने वाले व्यक्तियों द्वारा होता है। यही विचार ‘रष्मिरथी‘ में सूत-पूत्र कर्ण के माध्यम से इस प्रकार अभिव्यक्त हुआ है-
‘‘ ‘जाति! हाय री जाति!‘ कर्ण का हृदय क्षोभ से डोला,
कुपित सूर्य की ओर देख वह वीर क्रोध से बोला-
‘‘जाति-जाति रटते, जिनकी पूंजी केवल पाषण्ड,
मैं क्या जानूं जाति? जाति हैं ये मेरे भुजदण्ड
×     ×     ×      ×      ×      ×      ×      ×      ×     ×
×     ×     ×      ×      ×      ×      ×      ×      ×     ×
‘‘पूछो मेरी जाति, शक्ति हो तो, मेरे भुजबल से,
रवि-समान दीपित ललाट से, और कवच-कुण्डल से।
पढ़ो उसे जो झलक रहा है मुझमें तेज-प्रकाष,
मेरे रोम-रोम में अंकित है मेरा इतिहास।‘‘ ‘‘26
    दिनकर जी का स्पष्ट मानना था कि जातिवाद की संकीर्णता एवं विषम भावना के कारण ही भारत जैसा बड़ा और मजबूत देष अंग्रेजों द्वारा पदाक्रांत हुआ है। वे कहते हैं-
‘‘धँस जाये वह देष अतल में, गुण की जहाँ नहीं पहचान
जाति-गोत्र के बल से ही, आदर पाते जहाँ सुजान।‘‘27
साथ ही वे मनुष्य के कर्म में विष्वास रखते हैं न कि धर्म या वंष परम्परा में-
‘‘बड़े वंष से क्या होता है, खोते हों यदि काम?
नर का गुण उज्ज्वल चरित्र है, नहीं, वंष, धन, धान।‘‘28
उन्होंने अपने प्रबन्ध काव्य ‘रष्मिरथी‘ में जातिगत वैषम्य की समस्या को उठाकर मानवता का सन्देष दिया है।  इसके काव्यनायक ‘कर्ण‘ के माध्यम से जो जातिगत भेदभाव के विरूद्ध आक्रोषित स्वर उठाया गया है वह अवष्य ही साहित्य में दलित आन्दोलन को एक नये आयाम तक पहुंचा सकता है तथा निष्चय ही इस कृति ने दलितों/षोषितों के लिए मार्गदर्षक का कार्य किया है। ‘कर्ण‘ के चरित्र की प्रतिष्ठा करके निष्चय ही दलितों और उपेक्षितों को आत्म विष्वास की वाणी दी है, जिन्हें समाज जाति और कुल से हीन होने के कारण अपमानित करता है। ‘रष्मिरथी‘ के विषय में यह कहना उचित होगा कि दिनकर जी ने इसमें एक ओर परम्परा-पोषित एवं जर्जरित रूढ़िवादी मान्यताओं का खण्डन किया गया है, तो दूसरी ओर युगसापेक्ष, प्रगतिषील जीवन-मूल्यों की प्रस्थापना पर बल दिया है। इसमें सामाजिक अन्याय के कारण उच्च कुल की झूठी मान-मर्यादा और जातिवाद के दंभ की जोरदार व आक्रोष से भर्त्सना करते हुए उन्होंने जाति-कुल के अहंकार को गलत साबित कर दानषीलता, गुरु-भक्ति एवं त्याग की भावना को महत्व दिया है।
छायावाद-युग की बलिदान भावना उग्र होकर क्रांति की रण-भेरी बन बज उठी। वर्तमान के प्रति क्षोभ एवं असंतोष क्रांति की कोपल बनकर फूटा। दिनकर जी ने अपनी कविताओं के माध्यम से आम सोयी जनता को यह बताया कि परिवर्तन ही क्रांति है। वर्तमान शासन की क्रूरता से ऊबकर ही उनके भावों ने उग्र रूप ले लिया। मूक प्राणों को हुंकार कर जाग उठने की प्रेरणा देते हुए दिनकर जी अपने युग के मूक शैल का आह्वान करते हैं-
‘‘नए प्रात के अरूण! तिमिर-उर में मरीचि-संधान करो,
युग के मूक शैल! उठ जागों, हुंकारों, कुछ गान करो।,
किसकी आहट? कौन पधारा? पहचानों, टुक ध्यान करो,
जगो भूमि! अति निकट अनागत का स्वागत-सम्मान करो।‘‘29
दिनकर जी एक ओर राष्ट्र चेतना की बात करते हैं तो दूसरी ओर देष के दलित-षोषित समुदाय के मर्दन से रोमांचित हंे उठते हैं और दलितों के हृदयों में सदियों से सोयी चिंगारी को, युग मर्दिन यौवन की ज्वाला को क्रांति कुमारी के रूप में अवतरित होने की पुकार कुछ इस प्रकार करते हैं-
‘‘उठ वीरों की भाव तरंगिणी
दलितों के दिल की चिनगारी
युग-मर्दित यौवन की ज्वाला
जग-जाग री क्रांति कुमारी!‘‘30 (‘क्रांति‘ का मानवीकरण)
कवि दिनकर जी सभी मनुष्यों से यह आग्रह करते हैं कि दलितों को भी सम्मानपूर्वक जीवन जीने दो और उन्हें भी मानव होने का एहसास कराओं। वे लिखते हैं-
‘‘दलित मनुष्य में मनुष्यता के भाव भरो‘‘31

समाज में दलित क्रांति ने जो रूप लिया है उसका आभास दिनकर जी को पहले ही हंे गया था। इसलिए वे समाज/षासन/प्रषासन को सजग करते हैं कि न जाने दलित कब फुंकार उठे और अपने हक के लिए संघर्ष करें। वे कहते हैं-
‘‘अब की अगस्त की बारी है, पापों के पारावार! सजग,
बैठे-बिसूवियस के मुख पर भोले अबोध संसार! सजग।
रेषों का रक्त कृषान हुआ, औ जुल्मी का तलवार! सजग,
दुनिया के वीरों सावधान, दुनिया के पापी जार! सजग।
जाने, किस दिन फुंकार उठें पद-दलित काल-सर्पों के फन।‘‘32
कवि दिनकर का हृदय दलितों की दयनीय दषा देखकर अत्यन्त उद्विग्न था। उनके प्रति उनके दिल में अपार सहृदयता, संवेदनषीलता एवं सहानुभूति थी। दलितों के उन्नयन हेतु वे सदा तड़पते थे। उनकी कृति ‘रष्मिरथी‘ इसका प्रमाण है जिसमें उन्होंने दलित-उपेक्षित कर्ण के चरित्र को ऊपर उठाने की कोषिष की है। इसकी पुष्टि ‘रष्मिरथी‘ की इन पंक्तियों से हो जाती है-
‘‘मैं उनका आदर्ष, कहीं जो व्यथा न खोल सकंेगें,
पूछेगा जग; किन्तु, पिता का नाम न बोल सकेंगे।
×     ×     ×      ×      ×      ×      ×      ×      ×     ×
मैं उनका आदर्ष, किन्तु, जो तनिक न घबरायेंगे,
निज चरित्रबल से समाज में पद विषिष्ट पायेंगे।‘‘33
×     ×     ×      ×      ×      ×      ×      ×      ×     ×
‘‘जग में जो भी निर्दलित, प्रताड़ित जन हैं,
जो भी निहीन हैं, निन्दित हैं, निर्धन हैं,
यह कर्ण उन्हीं का सखा, बन्धु, सहचर है,
विधि के विरूद्ध ही उसका रहा समर है।‘‘34

दिनकर जी तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों से आहत होकर राष्ट्रीयता की ओजस्वी वीणा हाथ में लेकर वैताली के समान क्रांति का स्वर मुखरित करता है। साथ ही दिनकर जी क्रांति की वह ज्वाला सुलगाना चाहता है, जो शोषण और अत्याचार को भस्मसात् कर विनिष्ट कर सके-
‘‘क्रांति-धात्रि कविते! जाग, उठ
आडम्बर में आग लगा दे
पतन, पाप पाखंड जले
जग मंे ऐसी ज्वाला सुलगा दे।‘‘35
इसमें कोई अतिष्योक्ति नहीं है कि कवि दिनकर भारतीय साहित्य इतिहास के एक ऐसे अग्निपुत्र है जिसने देष के सीने में धधकती हुई अग्नि को ऐसे व्यक्त किया जैसे ज्वालामुखी पर्वत में प्रज्वलित लावा उद्गीर्ण होता है। दिनकर जी के क्रांतिगीतों ने सम्पूर्ण राष्ट्र की सुप्तावस्था से जगाते हुए उसे युग-धर्म के प्रति सचेत किया है-
‘‘दो आदेष, फूंक दूं श्रृंगी,
उठें प्रभाती-राम महान,
तीनों काल ध्वनित हो स्वर में,
जागें सुप्त भुवन के प्राण।
गत विभूति, भावी की आषा,
ले युग धर्म पुकार उठे,
सिंहों की धनअंध गुहा में
जागृत की हुंकार उठे।‘‘36

क्रौंच पक्षी की कराह से प्रथम कविता का जन्म आदि कवि की संवेदना से हुआ। आज भी विपन्नता के कारण लाखों क्रौच कराह रहे हैं। इसी आक्रोष से ही भारतीय हिन्दी साहित्य के क्रांतिकारी कवि दिनकर जी का जन्म हुआ। आदि कवि की यही संवेदना दिनकर जी के क्रांतिपरक गीतों में क्रन्दन करती देखी जा सकती है-
‘‘लाखों क्रौंच कराह रहे हैं,
जाग, आदि कवि की कल्याणी?
फूटकंठो से फूट तू कवि-
बन व्यापक निज युग की वाणी।‘‘37

क्रांति का जन्म अन्याय, अत्याचार, शोषण, दमन जैसे दुर्व्यवहारों के विरूद्ध प्रतिक्रिया के फलस्वरूप होती है। आम जनता के संत्रास, उनकी यातनाएं, कुण्ठाएं, और बेबसी-लाचारी अति उग्र रूप धारण कर लेती है, तब उसकी परिणति क्रांति के विस्फोट में होती है। इसी क्रांति की सषक्त अभिव्यंजना में दिनकर जी की ‘तांडव‘, ‘आलोकधन्वा‘, ‘दिगंबरी‘, ‘विपथगा‘ इत्यादि रचनाओं का महत्वपूर्ण स्थान है। इनमंे दिनकर जी का उग्र रूप हमारे सामने उपस्थित होता है। दिनकर जी के प्रसिद्ध काव्य संग्रह ‘हुंकार‘ में प्रकाषित उनकी कविता ‘आलोकधन्वा‘ में इनके उग्र रूप के मूर्तिमान दर्षन कुछ इस प्रकार होते हैं-
‘‘ज्योतिर्धर कवि में ज्वलित सौर मंडल का,
मेरा षिखंड अरुणाभ किरीट अनल का।
रथ में प्रकाष के अष्व जुते हैंे मेरे,
किरणों ने उज्ज्वल गीत गंुथे हैं मेरे।‘‘38
‘रेणुका‘ से भी अधिक आक्रामक स्वरों में क्रांति की सषक्त अभिव्यक्ति के दर्षन दिनकर जी के ‘हुँकार‘ में होते हैं। उनके इस काव्य संग्रह के सन्दर्भ में प्रो. कामेष्वर शर्मा का कहना है कि ‘‘रेणूका‘ में अंगारों के ऊपर कोयले के नये टुकड़े पड़े थे ‘हुँकार‘ में वे सभी आग हो गये हैं।ं‘‘39 उदाहरणार्थ-
‘‘फेंकता हँू, लो, तोड़-मरोड़
अरी निष्ठुरे! बीन के तार;
उठा चांदी का उज्ज्वल शंख
फूँकता हूँ भैरव-हुंकार।‘‘40
आगे देखिए-
‘‘रण की घड़ी; जलन की बेला, तो मैं भी कुछ गाऊँगा,
सुलग रही यदि षिखा यज्ञ की, अपना हवन चढ़ाऊँगा।‘‘41

दिनकर जी के साहित्य के अध्ययन करने के पष्चात् यह तो स्पष्ट है कि ये हिंसात्मक क्रांति में विष्वास रखते हैं। वे मानते हैं कि हिंसात्मक क्रांति ही देष में अभीष्ट परिवर्तन ला सकती है। इसलिए वह युधिष्ठर के स्थान पर अर्जुन और भीम जैसे वीरों की आवष्यकता अनुभव करते हुए कहते हैं-
‘‘रे! रोक युधिष्ठर को न यहाँ,
जाने दे उनको स्वर्ग धीर।
पर, फिरा हमें गाण्डीव-गदा,
लौटा दे अर्जुन-भीम वीर
×     ×     ×      ×      ×   
तू मौन त्याग, कर सिंहनाद
रे तपी! आज तप का न काल,
नवयुग-षंख-ध्वनि जगा रही,
तू जाग-जाग मेरे विषाल!‘‘42

इसी प्रकार अपनी कविता ‘परषुराम की प्रतीक्षा‘ में कवि ने अपनी राष्टीय चेतना/अस्मिता के भावों को देष के स्वर्णिम अतीत से जोड़ते हैं और आने वाले समय में वैराग्य-विरक्ति का भाव छोड़कर बाहुबल हेतु प्रेरित करते हुए कहते हैं-
‘‘बांहों से हम अम्बुधि अगाध थाहेंगे,
धंस जायेगी यह धरा, अगर चाहंेगे।‘‘43

बाहुबल की महत्ता को वे कुछ इस प्रकार व्यक्त करते हैं-
‘‘वैराग्य छोड़ बांहों की विभा संभालो,
चट्टानों की छाती से दूधे निकालों।‘‘44

दिनकर जी ने जिस प्रकार उग्र हिसांत्मक क्रांति का समर्थन अपने प्रबन्ध काव्य ‘कुरूक्षेत्र‘ में की है ऐसी निर्भय व सषक्त अभिव्यक्ति विरले साहित्यकार के ही साहित्य में ही मिलती है। ‘कुरूक्षेत्र‘ के बगैर दिनकर जी चर्चा अधूरी है। यह रचना 1946 में द्वितीय विष्वयुद्ध की भूमिका पर हुई है। कवि ने इस विष्वयुद्ध को महाभारत की संज्ञा दी है। डॉ. निधि भार्गव इस कृति के विषय में कहा है कि ‘‘‘कुरूक्षेत्र‘ आधुनिक युग की गीता है।‘‘45 आगे इसके विषय में अन्य लेखक लिखते हैं ‘‘कुरुक्षेत्र में कवि ने महाभारत की कथा को लेकर भीष्म और युधिष्ठर के वार्तालाप के माध्यम से युद्ध और शान्ति, हिंसा और अहिंसा आदि अनेक समस्याओं पर विचार किया है। इन समस्याओं पर विचार करते हुए कवि ने जो निष्कर्ष निकाले हैं, उन पर मार्क्सवादी विचारधारा का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।‘‘46 अपनी इस महत्वपूर्ण कृति में कवि दिनकर जी ने स्पष्ट किया है कि सन्यास कापुरुषता है। गीता के जैसे ही ‘कुरूक्षेत्र‘ में भी अधिकार के लिए लड़ने का समर्थन किया है। इसके माध्यम से कवि ने कर्मवाद, लोक कल्याण, समाजवाद, भाग्यवाद की अनुपादेयता तथा बुद्धि और हृदय के समन्वय का सन्देष दिया है। क्रांतिकारी कवि दिनकर जी ‘कुरूक्षेत्र‘ में अहिंसावादियों का आततायियों से लोहा लेने हेतु ललकारते हुए कहते हैं-
‘‘जानता हूं किन्तु, जीने के लिए
चाहिए अंगार-जैसी वीरता,
पाप हो सकता नहीं वह युद्ध है,
जो खड़ा होता ज्वलित प्रतिषोध पर।
छीनता हो स्वत्व कोई, और तू
त्याग-तप से काम ले यह पाप है।
पुण्य है विच्छिन कर देना उसे
बढ़ रहा तेरी तरफ जो हाथ हो।‘‘47
उपर्युक्त पंक्तियों में अनाचार के विरोध हेतु वह गांधीवादी अहिंसात्मक उपायों का खण्डन करते हुए शक्ति प्रयोग का जोरदार समर्थन किया है।
आगे वे कहते हैं-
‘‘व्यक्ति का धर्म तप, करूणा, क्षमा,
व्यक्ति की शोभा विनय भी, त्याग भी,
किन्तु, उठता प्रष्न जब समुदाय का,
भूलना पड़ता हमें तप-त्याग को।‘‘48


इसमें कोई अतिष्योक्ति नहीं कि कवि दिनकर जी के राष्ट्रीय व्यक्तित्व को बनाने में तत्कालीन परिस्थितियों एवं महापुरुषों का विषेष योगदान रहा है। साथ ही यह भी सत्य है कि कवि दिनकर की राष्ट्रीय कविताओं के प्रेरणास्त्रोत एवं उत्प्रेरक, तत्कालीन राष्ट्रीय-काव्य धारा को प्रवाहित करने वाले हिन्दी साहित्य के कवि भी रहे हैं, और उनकी प्रखर राष्ट्रीयता का स्वर दिनकर जी के रचना संसार मेें क्रमिक रूप में मुखरित हुआ है। हिंसात्मक क्रांति के समर्थक कवि दिनकर जी स्वतंत्रता को किसी दीन-हीन याचक के समान षिक्षा-रूप में नहीं बल्कि तिलक के ‘स्वतंत्रता के जन्मसिद्ध अधिकार है‘ इस तथ्य को स्वीकार करते हुए अपने पौरुष तथा क्रांति के मार्ग से करना चाहते हैं। श्री रामवृक्ष बेनीपुरी जी दिनकर जी के क्रांतिकारी उद्घोषों की प्रषंसा करते हुए कहते हैं कि ‘‘हमारे क्रांति-युग का सम्पूर्ण प्रतिनिधित्व कविता में, इस समय ‘दिनकर‘ कर रहा है। क्रांतिकारी को जिन-जिन हृदय-मंथनों से गुजरना होता है, ‘दिनकर‘ की कविता उसकी सच्ची तस्वीर है।‘‘49 इसमें कोई दो राय नहीं है कि उनकी कविताओं में जन-जागरण की विचारधारा बड़े ही तीव्र और प्रखर शब्दों में हुई है। डॉ. द्वारिका प्रसाद सक्सेना के शब्दों में- ‘‘दिनकर की कविताओं में योद्धा का-सा गंभीर घोष है, अनल का-सा तीव्र ताप है और सूर्य का-सा प्रखर तेज है। इसीलिए वे ‘अनल के कवि‘ कहलाते हैं।...................................इनका अधिकांष काव्य बलिदान और वीरता का अमर राग है, अन्याय और अत्याचार के विरूद्ध क्रांति एवं विद्रोह उत्पन्न करने वाला सिंहनाद है और अर्कमण्यता एवं आलस्य की रात्रि को नष्ट करके जन-जन में कर्मण्यता, शूरत एवं पराक्रमषीलता के प्रभात को लाने वाला दिवस-मणि का दिव्यालोक है।‘‘50
अतः सामाजिक विषमताओं, जातीय शोषण, अमानवीय व्यवहार, राष्ट्रीय भावना/चेतना के प्रति संकेत मात्र करना ही कवि दिनकर का उद्देष्य नहीं है, बल्कि ये उन समस्याओं का समाधान भी प्रस्तुत किया है। इनका स्पष्ट मानना है कि समाज में जब तक समन्वय एवं सामंजस्य की भावना नहीं तब तक स्वस्थ समाज की संरचना एवं सुख-षांति कभी स्थापित नहीं हो सकती। साथ ही इन्होंने स्पष्ट शब्दों में यह चेतावनी भी दी है कि जब तक समाज में समानता-शांति का भाव नहीं होगा तब तक यह क्रांति नहीं रूकेगी और यदि ये ‘कुरूक्षेत्र‘ की चार पंक्तियों को दिनकर काव्य का उद्देष्य माना जाएं तो कोई अतिष्योक्ति नहीं होगी।
‘‘जब तक मनुज-मनुज का,
वह सुख भाग नहीं सम होगा,
शमित न होगा कोलाहल,
संघर्ष नहीं कम होगा।‘‘51

दिनकर जी का नारी विषयक दृष्टिकोण पर चर्चा अपेक्षित है, लेकिन यह पृथक और गंभीर शोध का विषय है। संक्षेप में उनकी काव्य कृति ‘रष्मिरथी‘ में ‘कुन्ती‘ के रूप में एक माँ की ममतामयी, एवं वात्सल्यमयी करूणा मूर्ति को षिल्पीकृत करने में भी अपूर्व सफलता प्राप्त की है। इसमें समाज में नारी विवषता एवं परवष्ता को ‘कुन्ती‘ के रूप में व्यक्त किया है-
‘‘धरती पर बड़ी दीन है नारी,
अबला होती, सचमुच, योषिता कुमारी।
है कठिन बन्द करना समाज के मुख को,
सिर उठा न पा सकती पतिता निज सुख को।‘‘52

दिनकर जी की कृति ‘उर्वषी‘ में नारी का कई रूपों में चित्रण हुआ है। उनमें शक्ति, अबला, माता, आधुनिक कुल वधू आदि का विषेष रूप से प्रतिपादन हुआ है। इनके काव्य में इन सभी रूपों का पूर्ण विकास हुआ है।
दिनकर जी अतीत के गौरव को याद करके वर्तमान को उद्बोधन प्रदान करने वाले कवि है। डॉ. नगेन्द्र अपने द्वारा संकलित ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास‘ में इनके विषय में कहते हैं- ‘‘दिनकर की सबसे बड़ी विषेषता है अपने देष और युग-सत्य के प्रति जागरूकता है।.............. इन्होंने राष्ट्रीयता की पहचान को मात्र भावनात्मक प्रतिक्रिया से उबार कर चिंतन, परीक्षण तथा आत्मालोचन का स्वरूप रूप देने का प्रयत्न किया, साथ ही राष्ट्रीयता को सार्वभौम मानवता के रूप में विकसित होने का स्वप्न देखा।‘‘53 उनका सम्पूर्ण साहित्य में कई मिलन बिन्दुओं पर चेतना को झकझोरने की शक्ति है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि इनका साहित्य हिन्दी-साहित्य का गौरव है। इनकी राष्ट्रीय भावना उŸारोŸार विकसित होती गयी और युगचारण स्वीकार किये गये हैं। परन्तु उनके काव्य के मूल्यांकन से यही ध्वनित होता है कि वे वर्तमान समस्याओं का निराकरण उज्ज्वल भविष्य के परिप्रेक्ष्य में करते हैं। स्वयं रामवृक्ष बेनीपुरी ‘हुंकार‘ की भूमिका में लिखते हैं-‘‘राष्ट्रीय कविता की जो परम्परा ‘भारतेन्दु‘ से प्रारम्भ हुई; उसकी परिणति हुई है ‘दिनकर‘ में।‘‘54
निष्कर्षतः दिनकर जी के साहित्य के अनेकानेक सृजनात्मक प्रेरणा-स्त्रोत हैं। विष्व की महान् क्रांतियों, विचारकों और शीर्षस्थ साहित्यकारों के साथ इतिहास के अनुप्रेरक प्रसंगों ने उन्हें सदैव प्रभावित किया। इसके फलस्वरूप उन्होंने निरन्तर संघर्षषील और जुझारू भंगिमा अपनाकर अपने काव्य का सृजन किया। दिनकर जी युगकवि और युगचारण ही नहीं अपितु भविष्य-द्रष्टा चिन्तक कवि भी है। दिनकर जी वह दिनकर है जो अपनी स्वर्णिम रष्मियों से सम्पूर्ण जगत् को आलोकित करते रहेंगे। स्वयं दिनकर जी के शब्दों में-
‘‘मर्त्य मानक की विजय का तूर्य हूँ मैं,
उर्वषी! अपने समय का सूर्य हूँ मैं।
अन्ध तम के भाल पर पावक जलाता हूँ,
बादलों के सीस पर स्यन्दन चलाता हूँ।‘‘55


--:ः सन्दर्भ सूची:ः --
‘दिनकर के काव्य में राष्ट्रीय भावना‘, ‘डॉ. षिवकान्त गोस्वामी‘ से उदृधत, ‘प्रगति प्रकाषन‘, आगरा, पृ0-29
‘दिनकर के काव्य में क्रांतिमंत चेतना‘, ‘निधि भार्गव‘, ‘कविता प्रकाषन‘, बीकानेर, पृ0-14
दिनकर के काव्य में राष्ट्रीय भावना‘, ‘डॉ. षिवकान्त गोस्वामी‘, ‘प्रगति प्रकाषन‘, आगरा, पृ0-09
वही, पृ0-10
‘हिन्दी-साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास‘, ‘डॉ. रवेखचन्द आनन्द‘, ‘सूर्य प्रकाषन‘, दिल्ली, पृ0- 304-305
‘हिन्दी-साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास‘, ‘डॉ. रवेखचन्द आनन्द‘, ‘सूर्य प्रकाषन‘, दिल्ली से उदृधत पृ0- 306
‘हुँकार‘ (दिगम्बरि!), ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘लोकभारती प्रकाषन‘, इलाहाबाद, पुनर्मुद्रण-2012, पृ0-39
‘हुँकार‘ (हाहाकार), ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘लोकभारती प्रकाषन‘, इलाहाबाद, पुनर्मुद्रण-2012, पृ0-35
वही, पृ0-36
‘हुँकार‘ (आमुख), ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘लोकभारती प्रकाषन‘, इलाहाबाद, पुनर्मुद्रण-2012, पृ0-11
‘हुँकार‘ (हिमालय), ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘लोकभारती प्रकाषन‘, इलाहाबाद, पुनर्मुद्रण-2012, पृ0-70
‘आधुनिक हिन्दी काव्य में राष्ट्रीय चेतना का विकास‘, ‘डॉ. जितराम पाठक‘, राजीव प्रकाषन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण 1976, पृ0-207
‘दिनकर के काव्य में क्रांतिमंत चेतना‘, ‘निधि भार्गव‘, ‘कविता प्रकाषन‘, बीकानेर, पृ0-21
वही से ‘उदृधत‘, पृ0-21
‘हुँकार‘ (हिमालय), ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘लोकभारती प्रकाषन‘, इलाहाबाद, पुनर्मुद्रण-2012, पृ0-72
‘सामधेनी‘ (दिल्ली और मास्को), ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘अमृत प्रकाषन‘, पटना, संस्करण-2005, पृ0-56
‘कुरूक्षेत्र‘ (सप्तम् सर्ग), ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘राजपाल प्रकाषन‘, दिल्ली, संस्करण-2013, पृ0-82
ीजजचरूध्धंअपजंावेीण्वतहधाध्इतिहास आंसूः वैभव की समाधिऋध्ऋरामधारीऋसिंहऋ‘‘दिनकर‘‘रुण्न्ेमपकिश्रक्अंव
ीजजचरूध्धंअपजंावेीण्वतहधाध्नीम के पत्ते और स्वाधीनताऋध्ऋरामधारीऋसिंहऋ‘‘दिनकर‘‘ रुण्न्ेमपकिश्रक्अंव
‘हिन्दी काव्य में मार्क्सवादी चेतना‘, ‘डॉ. जनेष्वर वर्मा‘, ‘आराधना प्रेस‘, कानपुर, प्रथम संस्करण-1974, पृ0-322
वही पृ0-360
‘हिन्दी के आधुनिक प्रतिनिधि कवि‘, ‘डॉ. मुरारीलाल शर्मा ‘सुरस‘, ‘दिनमान प्रकाषन‘, दिल्ली, प्रथम संस्करण-1986, पृ0-76
‘हिन्दी काव्य में मार्क्सवादी चेतना‘, ‘डॉ. जनेष्वर वर्मा‘, ‘आराधना प्रेस‘, कानपुर, प्रथम संस्करण-1974, पृ0-360
‘हुँकार‘ (हाहाकार), ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘लोकभारती प्रकाषन‘, इलाहाबाद, पुनर्मुद्रण-2012, पृ0-35
‘हुँकार‘ (विपथगा), ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘लोकभारती प्रकाषन‘, इलाहाबाद, पुनर्मुद्रण-2012, पृ0-89
‘रष्मिरथी‘ (प्रथम सर्ग), ‘रामधारीसिंह दिनकर‘, ‘लोकभारती पेपरबैक्स‘, इलाहाबाद, छठवाँ पेपरबैक्स संस्करण-2013, पृ0-19 व 20
वही (द्वितीय सर्ग), पृ0-31
वही (प्रथम सर्ग), पृ0-22
‘हुँकार‘ (आमुख), ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘लोकभारती प्रकाषन‘, इलाहाबाद, पुनर्मुद्रण-2012, पृ0-12
ीजजचरूध्धंअपजंावेीण्वतहधाध्कस्मेऋदेवायऋध्ऋरामधारीऋसिंहऋ‘‘दिनकर‘‘रुण्न्ेमपकिश्रक्अंव
‘कुरूक्षत्र‘ (सप्तम् सर्ग), ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘राजपाल प्रकाषन‘, दिल्ली, संस्करण-2013, पृ0-76
‘आधुनिक हिन्दी काव्य में राष्ट्रीय चेतना का विकास‘, ‘डॉ. जितराम पाठक‘, राजीव प्रकाषन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण 1976, से उदृधत, पृ0-222
‘रष्मिरथी‘ (चतुर्थ सर्ग), ‘रामधारीसिंह दिनकर‘, ‘लोकभारती पेपरबैक्स‘, इलाहाबाद, छठवाँ पेपरबैक्स संस्करण-2013, पृ0-74
वही (पंचम सर्ग) पृ0-102
ीजजचरूध्धंअपजंावेीण्वतहधाध्कस्मेऋदेवायऋध्ऋरामधारीऋसिंहऋ‘‘दिनकर‘‘रुण्न्ेमपकिश्रक्अंव
ीजजचरूध्धंअपजंावेीण्वतहधाध् मंगलआहवानऋध्ऋरामधारीऋसिंहऋ‘‘दिनकर‘‘रुण्न्ेमपकिश्रक्अंव
ीजजचरूध्धंअपजंावेीण्वतहधाध्कस्मेऋदेवाय ऋध्ऋरामधारीऋसिंहऋ‘‘दिनकर‘‘रुण्न्ेमपकिश्रक्अंव
‘हुँकार‘ (आलोकधन्वा), ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘लोकभारती प्रकाषन‘, इलाहाबाद, पुनर्मुद्रण-2012, पृ0-27
‘दिनकर के काव्य में राष्ट्रीय भावना‘, ‘डॉ. षिवकान्त गोस्वामी‘ से उदृधत, ‘प्रगति प्रकाषन‘, आगरा पृ0-174
‘हुँकार‘ (असमय आह्वान), ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘लोकभारती प्रकाषन‘, इलाहाबाद, पुनर्मुद्रण-2012, पृ0-27
‘हुँकार‘ (आमुख), ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘लोकभारती प्रकाषन‘, इलाहाबाद, पुनर्मुद्रण-2012, पृ0-12
‘हुँकार‘ (हिमालय), ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘लोकभारती प्रकाषन‘, इलाहाबाद, पुनर्मुद्रण-2012, पृ0-73
‘परषुराम की प्रतीक्षा‘ (खण्ड तीन), ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘लोकभारती प्रकाषन‘-2010, पृ0-14
वही (खण्ड पांच) पृ0-23
‘दिनकर के काव्य में क्रांतिमंत चेतना‘, ‘निधि भार्गव‘, ‘कविता प्रकाषन‘, बीकानेर, पृ0-25
‘हिन्दी काव्य में मार्क्सवादी चेतना‘, ‘डॉ. जनेष्वर वर्मा‘, ‘आराधना प्रेस‘, कानपुर, प्रथम संस्करण-1974, पृ0-439
‘कुरूक्षेत्र‘ (द्वितीय सर्ग), ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘राजपाल प्रकाषन‘, दिल्ली, संस्करण-2013, पृ0-16
वही पृ0-17
‘हिन्दी के आधुनिक प्रतिनिधि कवि‘, ‘डॉ. मुरारीलाल शर्मा ‘सुरस‘, ‘दिनमान प्रकाषन‘, दिल्ली, प्रथम संस्करण-1986, से उदृधत पृ0-76
वही पृ0-76
‘कुरूक्षेत्र‘ (सप्तम सर्ग), ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘राजपाल प्रकाषन‘, दिल्ली, संस्करण-2013, पृ0-77
‘रष्मिरथी‘ (पंचम सर्ग), ‘रामधारीसिंह दिनकर‘, ‘लोकभारती पेपरबैक्स‘, इलाहाबाद, छठवाँ पेपरबैक्स संस्करण-2013, पृ0-84
‘हिन्दी साहित्य का इतिहास‘, सं.-डॉ. नगन्द्र, डॉ. हरदयाल, ‘नेषलन पब्लिषिंग हाऊस‘, नयी दिल्ली, तीसरा संस्करण-2011, पृ0-604
‘हुँकार‘ की भूमिका ‘क्रांति का कवि‘, ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘लोकभारती प्रकाषन‘, इलाहाबाद, पुनर्मुद्रण-2012, पृ0-05
‘उर्वषी‘ (तृतीयांक), ‘रामधारी सिंह दिनकर‘, ‘लोकभारती पेपरबैक्स‘, पटना, छठवाँ संस्करण, पृ0-61

डॉ. राम भरोसे
असि. प्रोफेसर, (हिन्दी-विभाग),
राजकीय महाविद्यालय पोखरी टिहरी गढ़वाल (उत्तराखण्ड)
9045602061

Friday, September 20, 2019

बुक रिव्यू: उत्तराखंड लोक साहित्य समझना है तो इस किताब को पढ़िए


यह पुस्तक इसी रविवार को पुस्तक मेले से लाया था, अभी पूरी हुई है। उत्तराखंड की लोक कथाओं, गीतों और लोक साहित्य पर लिखी यह पुस्तक बेहतरीन पुस्तकों में से एक है। 5 अध्यायों में लिखी इस पुस्तक के पीछे बहुत बड़ा शोध है, जिसको समेटना एक बड़ा महान कार्य है।  इसके लेखक दिनेश चंद्र बलूनी जी का धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ कि आज की पीढ़ी के समक्ष यह शोध पूर्ण कर हमारे समक्ष रखा। बड़ी बात यह है कि प्रकाशन विभाग, भारत सरकार ने इसका प्रकाशन किया, जो असामान्य बात है। उत्तराखंड के लोक साहित्य के विषय में समझ विकसित करने में यह पुस्तक निश्चय ही लाभकारी है। उत्तराखंड के लोक गीतों-साहित्य के शोधपरक अध्ययन गोविंद चातक के बाद इसमें मिला, हालांकि हरिदत्त भट्ट शैलेश ने भी बहुत काम किया है इस विषय पर। 2005 में भले ही इसका प्रकाशन हुआ हो, आज भी इसे पढ़ने के बाद लोक साहित्य के प्रति नवीन समझ विकसित होती है। इसका तीसरा अध्याय अति आवश्यक और प्रासंगिक है क्योंकि इसमें उत्तराखंड (उत्तरांचल, पुराना नाम) के लोक गीतों में सामाजिकता को प्रतिबिंबित किया है, जो नयी सामाजिक चेतना का विकास करता है।

इस अध्याय में कई रूढ़ियों को दिखाया गया है जैसे प्रेम विवाह, सतीत्व सम्बन्धी, जन्म व संतान सम्बन्धी, शकुन अपशकुन की परम्पराएँ, गुरु गोरखनाथ की परंपरा और भी बहुत कुछ समाहित है इस पुस्तक में। इस पुस्तक की एक खास बात आपसे अवश्य साझा करूँगा कि यह पुस्तक रंगीन चित्रों के साथ छापी गयी है। जिससे पाठक के मन की जिज्ञासा शांत होती रहती है कि जिस लोक परंपरा या लोक नृत्य या सांस्कृतिक वेशभूषा का जिक्र लेखक ने किया है, वो दिखती कैसी है। कुछ फोटो उसके यहाँ भी साझा कर रहा हूँ।
कई लोक कथाओं का विस्तृत और महत्वपूर्ण अंश आपको यहां मिलेगा, जैसे- शिव-गौरी कथा, नन्दा देवी कथा, लाटू की कथा, अंछरी, रमोल कथा, गोरिल देवता, बूढ़ा केदार आदि। अन्य अनसुनी पौराणिक लोक कथाओं का सटीक विवरणों से भरी है यह पुस्तक। जैसे हेरु-सैम की गाथा, सीता का बनवास, नागराजा कृष्ण की गाथा, कालीदह का कालीनाग, कृष्ण रुक्मणि प्रसंग, पांडव जन्म गाथा, द्रोपदी स्वयंवर इत्यादि।
वीरगाथाओं के जिक्र के बिना लोक साहित्य या लोक कथा का जिक्र अपूर्ण है और उत्तराखंड की बात हो और वीरों का जिक्र न हो, यह असंभव है। यहाँ की भूमि वीरों की जन्मदात्री है। इस पुस्तक में उन अनेक वीरगाथाओं का वर्णन किया गया है, जिन्हें याद नहीं रखा गया या भूला दिया गया या समय बीतने के साथ भूलते चले गए, परन्तु इस पुस्तक में सारे जिक्र विस्तार से किये गए हैं। जैसे- जगदेव पंवार, रूदी-ऊदी गाथा, गढ़, भानु भौपेला, राजा बिरमा कत्यूर, जियारानी की गाथा, रणजीत-दलजीत, नतिया की गाथा, अजूबा बफोल, माधोसिंह रिखोला, बाईस भाई गैडा, कफ्फू चौहान, कालू भंडारी, वीर बाला तीलू रौतेली, त्रिमल्चंद, सकराम कार्की, आशा और हरि हिंडवान, रणु रोत, मालूशाही इत्यादि, जमाला बोहरा, तिलोगा तडीयाली.

कुछ उदाहारण भी आपको देता हूँ-
भगवती नंदा का ससुराल जाते समय पितृगृह छोड़ने का आख्यान बड़ा ही कारुणिक और मार्मिक है-
जा ब्वे तू कैलास
त्वे तै द्युल मी मुंगरी, काखड़ी.
जख म्वारी नि रिन्ग्दी,
कन कै की रैली तू वे कैलास
जा ब्वे तू कैलास. (जा बेटी तू अपने ससुराल कैलास जा, तुझे मै चबेना, ककड़ी और मक्का दूंगी. तू वहां कैसे रहेगी? वहां तो जीव के नाम पर मधुमक्खी भी नहीं है.)
“द हो पाखड बाँधन छ कार्की सकराम,
गात मा पैरिंच क=झिलमिल वाको हो.
माथ मा बाँधन छ मखमली साही हो.
बोबली मा सुमाचछ गद्लिया कान्तो हो,
पीठी मा बाँधन छ चन्दन वाली दाल हो.
रात मा हिन्तच वाघ रातों जसो हो.” (सकराम कार्की वीरगाथा से)

“अनमातो धनमातो होलो जीवन मातो.
फूलों कू हौन्सिया होलो रान्यों कू रौन्सिया,
उद्मतो होइगे गरीबा को बेटा. (जीतू बगड़वाल से)
ऐसे अनेक उदाहरण आपको इस पुस्तक में मिलेंगे. यह कहना ज़रूरी हो जाता है कि अपनी संस्कृति और पारम्परिक विरासत को समझने हेतु उत्तराखण्ड अंचल के हर एक विद्यार्थी को इस पुस्तक को अवश्य पढ़नी ही चाहिए. और ज्यादा कुछ न कहते हुए इतना ही कहूँगा कि लोक साहित्य और लोक कथा पर शोध करने वाले शोधकर्ताओं को भी इस पुस्तक का अध्ययन अनिवार्य रूप से करना चाहिए.
धन्यवाद
समय रात्रि 1 बजे 

Monday, September 16, 2019

दलित आत्मकथाएँ: यातनाओं व संघर्षों में घुटती जिंदगी का यथार्थ


डॉ. राम भरोसे
असि. प्रोफेसर, (हिन्दी-विभाग),
शहीद वेलमती चौहान राजकीय महाविद्यालय पोखरी (क्वीली) टिहरी-गढ़वाल
$919045602061,
                                                                                                                        

साहित्य जगत में आत्मकथा लेखन एक प्राचीन विधा है। आत्मकथा लेखक की सच्ची कथा होती है। विश्व साहित्य चाहे वह किसी भी भाषा में लिखा जा रहा हो आत्मकथाओं का महत्व हमेशा ही रहा है। हिन्दी साहित्य में भी आत्मकथा लेखन हमेशा से ही नवीन प्रयास होते रहे हैं। हिन्दी साहित्य में बनारसी दास जैन, हरिवंश राय बच्चन, बैचेन शर्मा ‘उग्र‘ आदि तथा राजनीति में महात्मा गांधी आदि ने अपनी आत्मकथाएँ लिखी, जिनकी अभिव्यक्ति में प्रमाणिकता, स्पष्टता, निर्ममता और बेबाकी की जरूरत महसूस होती है। यह जरूरत आज दलित साहित्यकार अपनी आत्मकथाएँ लिखकर पूर्ण करने का प्रयास कर रहे हैं और काफी हद तक यह प्रयास सफल भी रहा है। हजारों वर्षों से समाज में दलितों के साथ हुए घोर अमानवीय अत्याचारों पर गैर दलित लेखक केवल अनुमान मात्र लगाते रहे हैं। दलितों पर हुए अत्याचार और अमानवीय व्यवहार का पूर्णरूपेण चित्रण दलित आत्मकथाओं में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यह कहना कोई अतिश्योक्ति न होगा कि दलित जीवन की यथार्थता सत्यता के साथ वास्तविक रूप में दलित आत्मकथाओं से ही उभरती है।
दलित साहित्यकारों की रचनाएँ और विशेषकर आत्मकथाएँ भारतीय साहित्य को नयी दिशा प्रदान कर रहे हैं। इन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से समाज के उस वर्ग का दुःख-दर्द, पीड़ा, हंसी-खुशी तथा जीवन के सभी पहलुओं को अभिव्यक्त किया जो साहित्य की दुनिया से हजारों वर्षों से बहिष्कृत रखे गये। ब्राह्मणवादी मानसिकता की भूमिका मात्र ‘सेवक-दास‘ तक ही सीमित नहीं थी बल्कि जीवन जीने के सभी रास्तें एवं अवसर उनके (दलित वर्ग) लिए बंद कद दिए गये। समाज के इस शोषित वर्ग के श्रम का सीमा के पार जाकर घोर शोषण किया गया तथा इन्हें ‘जूठन‘ खिलाकर इनके अस्तित्व को जिन्दा रखा गया। साथ ही साहित्य और संस्कृति से बहिष्कृत करके दलितों की अपेक्षाओं एवं आकांक्षओं को भी मृत करने का कुकर्म किया गया। इन्हें ‘पाप की संतान‘ कहकर सदा ही अपमानित किया गया तथा इन्हंे दया के लायक भी नहीं समझा गया। साहित्य की अगर बात करें तो इनके लिए साहित्य के इतिहास में केवल अभिशाप ही दर्ज है। वैसे तो साहित्य के पंडित साहित्य के सिद्धान्तों को पुनः पुनः दोहराते हैं कि ‘साहित्य समाज का दर्पण है‘, ‘समाज के दुख दर्द को अभिव्यक्त करता है‘, ‘साहित्य मानवतावादी होता है‘, इत्यादि। परन्तु साहित्य शास्त्रियों के यह सिद्धान्त दलितों के परिपेक्ष्य में एकदम झूठे साबित हुए है। बडे़ खेद की बात है कि भारतीय समाज की लगभग आधी आबादी होने पर भी उनको इस लायक ही नहीं समझा गया कि उनकी वास्तविकता को सही प्रकार से साहित्य के माध्यम से प्रस्तुत किया जाएं। भारतीय साहित्य के पश्चात् अगर बात करें फिल्म जगत की तो हिन्दी फिल्मों में भी इस वर्ग की पीड़ा-अभिव्यक्ति से परहेज ही रखा गया। हिन्दी फिल्मों के उद्भव से आज तक समाज के सभी महत्वपूर्ण मुद्दों पर फिल्म या डॉक्यूमेन्ट्री बनी और बन रही है, लेकिन ‘जाति-प्रथा‘, ‘अस्पृश्यता‘, ‘सवर्णों के मन में व्याप्त दलितों के प्रति पूर्वाग्रहों व धारणाओं का‘, श्रेष्ठता दंभ से खत्म होती मानवता को केन्द्रित करने वाली फिल्मों को हमेशा से ही अभाव रहा है। यह तो कदापि संभव ही नहीं हो सकता कि संवेदनशील कलाकारों/निर्देशकों का इस ओर ध्यान न गया हो। ब्राह्मणवाद घोषित असमानता की व्यवस्था को समर्थन देने के साथ मजबूत करने का एक ढंग यह भी हो सकता है कि उक्त वर्ग के मुद्दे पर चुप्पी ही साध ली जाएं। कुछ फिल्में इसका अपवाद हो सकती हैं, परन्तु वह भी अपनी कहानी के अंत तक आते-आते मार्ग से भटकती हुई प्रतीत होती है।
ध्यातव्य है कि साहित्य के माध्यम से अपनी पीड़ा प्रस्तुत करने का कार्य स्वयं दलित साहित्यकार ही कर रहे हैं। यह प्रस्तुतीकरण साहित्य की विभिन्न विधाओं (कहानी, कविता, उपन्यास, लघु कथाएँ आदि) के माध्यम से हो रहा है। जिसे सभी ‘दलित साहित्य‘ के नाम से बखूबी पहचानते हैं। वर्तमान समय में दलित साहित्य ने एक क्रांति का रूप ले लिया है। परन्तु बहुत अफसोस की बात है कि अभी भी साहित्य जगत स्वयं को सवर्णवादी मानसिकता से पूर्ण रूप में अलग कर पाने में असमर्थ लग रहा है। जिसका प्रमाण सुभाष चन्द्र अपनी पुस्तक में देते हुए लिखते हैं ‘‘जब दलितों ने स्वयं अपनी रचनाओं में विशेषकर अपनी आत्मकथाओं में अपनी पीड़ा को, सवर्णों की दलितों के प्रति घृणा व पूर्वाग्रहों को तथा उनके विकास में बाधक बनी इस विचारधारा को अभिव्यक्त करना शुरू किया तो उन पर कभी जातिवाद को बढ़ावा देने का, कभी अति यथार्थ प्रस्तुत करने का, कभी बने-बनाये साहित्यिक मानदण्डों पर खरा न उतरने का तो कभी अश्लीलता का आरोप लगार खारिज किया जाता रहा।‘‘‘1 इसके साथ ही सवर्ण मानसिकता रखने वाले साहित्यकारों ने दलित साहित्य को पूर्णतः नकारने का प्रयास किया गया। हालांकि वर्तमान में दलित साहित्य को किसी की स्वीकारोक्ति की कोई आवश्यकता नहीं है। दलित साहित्य में आत्मकथाओं पर जितनी चर्चाएं हुई है या हो रही है अन्य किसी विधा के साथ ऐसा नहीं है।
आत्मकथा लिखना जोखिम का काम है। बेेईमान या झूठा व्यक्ति कभी भी आत्मकथा नहीं लिख सकता। क्योंकि आत्मकथा में जीवन के प्रारम्भ से अन्त तक की सभी घटनाओं को बेबाकी से चित्रण करना अनिवार्य होता है। इसलिए जयप्रकाश कर्दम ने आत्मकथा के विषय में लिखा है कि ‘‘आत्मकथा लिखना निस्संदेह एक हिम्मत और जोखिम का काम है, बल्कि यूं कहिए कि तलवार की धार पर नंगे पैर चलना है। यदि लेखक सच्चाई पर टिका रहेगा तो उसका लहुलूहान होना लगभग निश्चित हैं क्योंकि आत्मकथ नंगी सच्चाई की मांग करती है और इतना साहस बहुत कम लोगों में होता है जो सामाजिक यथार्थ के साथ-साथ अपने जीवन के  नंगे यथार्थ को सार्वजनिक प्रदर्शन कर सकें। ।‘‘2 इसी बात को डॉ. शरण कुमार लिबांले कुछ ऐसे कहते हैं कि ‘‘आत्मकथा का अर्थ जो जीवन जीया है, भोगा है और देखा है, इतने तक ही सीमित नहीं है, अपितु जो जीवन यादों में समाया हुआ है, वही आत्मकथा है। ये यादें सच्ची घटनाओं से जुड़ी रहती हैं।‘‘3 अतः कहा जा सकता है कि आत्मकथा लिखने की पहली शर्त है हिम्मत और दूसरी सच्चाई।
यह कहना अतिश्योक्ति न होगा कि दलित आत्मकथाओं ने भारतीय साहित्य जगत में एक भुचाल पैदा करने के साथ ही अपने अस्तित्व की मुहर लगा दी है। सवर्ण मानसिकता रखने वाले साहित्यकारों के साथ एक विडम्बना है कि जिस तरह वह दलित साहित्य की अन्य सभी विधाओं को कवि-लेखकों की कल्पना मानकर उसमें व्यक्त सच्चाई को स्वीकारने से इंकार कर दिया, ऐसे ही आत्मकथाओं में व्यक्त घटनाओं को अस्वीकार कर पाना सम्भव नहीं है। क्योंकि ‘‘आत्मकथा तो एक तरह के शपथ-पत्र की तरह है। जिसमें पूरी ईमानदारी से घटित घटनाएं व्यक्त की जाती हैं। दलित आत्मकथाओं में जो अनुभव व घटनाएं प्रस्तुत हुई हैं, उन्होंने समाज के संवेदनशील लोगों में एक बेचैनी अवश्य पैदा की है। बहुत से मिथक व भ्रम टूटे हैं जिन मूल्यों-मान्यताओं को बिल्कुल पवित्र व अनालोच्य मानकर बड़ी शान से व्यवहार में प्रयोग ला रहे थे, उसमें छिपी अमानवीयता को उद्घाटित किया है ..............................न तो दलित आत्मकथाओं में व्यक्त सच्चाईयों को व ब्राह्मणवादी विचारधारा में मौजूद अमानवीयता को झुठलाया जा सकता है और न ही इसे संस्कारगत विवशताओं के कारण स्वीकार ही किया जा सकता है।‘‘4 इसी सन्दर्भ में एक अन्य लेखक डॉ हितेन्द्र पटेल लिखते है कि ‘‘आमतौर पर आत्मकथा लिखना ‘नोस्टेल्जिया‘ का अनुभव होता है। बीते दिनों की यादों में दहकना होता है। अक्सर यह एक महिमामंडित रूमानी अन्तर्यात्रा होती है। परन्तु दलित आत्मकथा लिखना अपने हाथों अपने जख्मों को कुरेदना होता हे। पल-पल दोबारा मरना होता है। यहाँ वह बीते दिनों की खुशनुमाँ जुगाली नहीं है, वरन् वेदना का विस्तार है।‘‘5 
इसमें कोई दो राय नहीं है कि दलित आत्मकथाएँ वेदना का विस्तार है। यह बात सुभाषचन्द के एक वक्तव्य से पुष्ट होती है कि ‘‘दलित आत्मकथाएँ केवल उनके लेखकों के जीवन के तथ्यों-सत्यों, घटनाओं को ब्यौरा देने वाली रचना नहीं हैं, बल्कि यह भारतीय समाज और विशेषकर हिन्दी-भाषी क्षेत्र के हिन्दू समाज में व्याप्त ऊँच-नीच, जातिगत पूर्वाग्रह एवं घृणा-हिंसा को उद्घाटित करने वाली रचनाएँ हैं। अपने जीवन की घटनाओं व अनुभवों के माध्यम से समाज की निचली-ऊपरी परतों में व्याप्त सामाजिक हिंसा को उघाड़ा है।‘‘6 इसी क्रम आगे दलित आत्मकथाओं और उनकी महत्ता के विषय में शरणकुमार लिंबाले लिखते हैं ‘‘दलित-आत्मकथा एक बहुचर्चित साहित्य-विधा है। दलित कविता तथा समीक्षा के कारण दलित साहित्य का विकास हुआ, तो दलित आत्मकथा के कारण यह साहित्य समृद्ध हुआ। पिछले कुछ दषकों से दलित-आत्मकथा ने कुछ साहित्यिक और कुछ असाहित्यक प्रष्न उपस्थित किये हैं। दलित-आत्मकथा के कारण साहित्यिक अभिरूचि की सम्पूर्ण परम्परा अंतर्मुख हो गयी है, इसे कोई भी नकार नहीं सकता।‘‘7 जैसा कि पहले बताया गया है कि दलित साहित्य स्वयं की पहचान बनाने में संघर्षरत है क्योंकि कुछ साहित्य के ठेकेदारों ने न केवल दलित साहित्य पर प्रश्न चिन्ह लगाया है, बल्कि दलित आत्मकथाओं को तो यह कहकर नकार दिया कि ‘दलित साहित्यकार जो अपनी आत्मकथा लिख रहे हैं वो सभी काल्पनिक है तथा पुरस्कार प्राप्त करने के लिए लिख रहे हैं क्योंकि जितनी उनकी आत्मकथाओं में लिखा है, इतनी अमानवीयता तो समाज में हो ही नहीं सकती है। इसका एक उदाहरण लिंबाले की आत्मकथा ‘अक्करमाशी‘ है। मराठी में अक्करमाशी एक आत्मकथा के रूप में प्रकाशित हुई परन्तु जब इसका प्रकाशन हिन्दी में हुआ तो इसे उपन्यास का नाम दिया गया। क्यो? ताकि इसकी प्रमाणिता को झुठलाया जा सके। परन्तु ऐसा हो नहीं सका। इस विषय में स्वयं लिंबाले एक साक्षात्कार में कहते हैं कि ‘‘हिन्दी में मेरी आत्मकथा अक्करमाशी ह,ै जिसे उपन्यास कहा गया है‘। यह एक अजीब चीज है। ऐसा क्यों होता है? इसका मतलब यह है कि जो मैंने भोगा है, दोगलेपन की जो बात उसमें आई है, वैसा हिन्दी लेखक जी ही नहीं सकता? वह लब्धप्रतिष्ठ है इसलिए? उसमें (अक्करमाशी के अनुवाद में) भी लिखा है कि मराठी के लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार शरणकुमार लिंबाले का उपन्यास है। मैं न कभी लब्धप्रतिष्ठ था, न हूँ। मैं दलित हूँ और दलितों के लिए संघर्ष करता हूँ।‘‘8 लिंबाले जी के इस वक्तव्य से पुष्ट होता है कि किस प्रकार हिन्दी साहित्य जगत में दलित साहित्य विशेषकर दलित आत्मकथाओं के साथ कैसे नकाराने का प्रयास किया जाता रहा है। इस प्रश्न का उत्तर ओमप्रकाश वाल्मीकी बड़ी बेबाकी से देते हुए कहते हैं ‘कि दलित साहित्य को किसी की स्वीकारोक्ति की कोई जरूरत नहीं है, उसका अस्तित्व है और रहेगा।‘
हिन्दी में पुस्तक के रूप में पहली दलित आत्मकथा मोहनदास नैमिशराय की अपने-अपने पिंजरे थी। जिसका प्रकाशन सन् 1995 में हुआ था। यह आत्मकथा दो भागों में प्रकाशित हुई थी। इसके बाद ओमप्रकाश वाल्मीकी की ‘जूठन‘ (1997), सूरजपाल चौहान की ‘तिरस्कृत‘ एवं दूसरा भाग ‘संतप्त‘, कौसल्य बैसंत्री की ‘दोहरा अभिशाप‘, डॉ. श्यौरोज सिंह ‘बैचेन‘ की ‘मेरा बचपन मेरे कंधो पर‘, डॉ. तुलसीराम की ‘मुर्दहिया‘ (2010), डॉ. सुशीला टॉकभौंरे की ‘शिंकजे का दर्द‘ (2011), रमाशंकर आर्य की ‘घुटन‘ इत्यादि प्रकाशित हो चुकी है और भविष्य में भी आत्मकथा लिखने का क्रम जारी है। जैसा कि सभी को ज्ञात है कि ‘दलित साहित्य‘, मराठी भाषा की देन है और सबसे पहले मराठी में दलित साहित्य प्रकाश में आया। स्वाभाविक है कि हिन्दी दलित आत्मकथाओं से पूर्व मराठी दलित आत्मकथाओं आ चुकी थी जिनमें प्रमुख दया पवार की ‘बलुत‘ (अछूत), सोनकांबले की ‘आठवणीचे पक्षी‘ (यादों के पंछी), लक्ष्मण माने की ‘उपरा‘, लक्ष्मण गायगवाड़ की ‘उचल्या‘ (उठाईगीर), शंकरराव खरात की ‘तराल-अन्तराल‘, शरणकुमार लिंबाले की ‘अक्करमाशी‘, माधव कोंडविलकर की ‘मुक्काम पोस्ट गोठणे‘ आदि। उक्त आत्मकथाओं को दलित साहित्य का आधार बिन्दु कहा जाएं जो अतिश्योक्ति न होगी। दलित साहित्य के आधार बिन्दु डॉ. अम्बेडकर जी ने भी ‘मी कसा झालो‘ (मैं कैसे बना) नाम से अपनी आत्मकथा लिखी। यह आत्मकथा पुस्तक के रूप में प्रकाशित नहीं हो सकी बल्कि इसके कुछ अंशो का ही प्रकाशन हो सका। मराठी और हिन्दी से पूर्व अंग्रेजी में भी मुख्य ‘दो दलित आत्मकथाएँ प्रकाशित हो चुकी थी। पहली ‘आइ वाज इन आउट कास्ट‘ (हजारी, सन् 1951), तथा दूसरी ‘अनटोल्ड ए स्टोरी ऑफ भंगी वाइस चान्सलर‘ (श्यामल)।‘ (ीजजचरूध्ध्ूूूण्तंबींदंांतण्वतहध्2009ध्07ध्इसवह.चवेजऋ9278ण्ीजउस से साभार)
दलित आत्मकथा जीवन के हर स्तर पर निषेध की कथा है। अपनी खोई हुई अस्मिता की खोज यात्रा है। इस बात को पुष्ट करने हेतु कुछ आत्मकथाओं के मुख्य अंशो पर चर्चा करना अनिवार्य होगा। जिसके फलस्वरूप ही दलित आत्मकथा में छिपे दर्द और संवेदना को भली प्रकार से समझने में सरलता होगी। सभी दलित आत्मकथाओं में दलित जीवन का यथार्थ बड़ी मार्मिकता के साथ दर्ज है। 
सबसे पहले बात करते हैं ओमप्रकाश वाल्मीकी की जिनकी रचनाओं में एक ऐसी दुनिया से हमारा परिचय होता है, जहाँ लोग अन्य समाजों की नजरों में पवित्र और उत्कृष्ट न होने के कारण हाशिये का जीवन जीने को मजबूर हैं तथा जब यह लोग अक्षर की दुनिया मेें प्रवेश करते हैं तो इनके अतीत की स्मृतियाँ, इनके समाज और उसकी समस्याएँ एक शक्तिशाली ऊर्जा के साथ हमारे सामने उपस्थित होती हैं। जब कोई भी उन्हें पढ़ता है तो हतप्रभ रह जाता है और स्वतः ही उस पाठक का मन कह उठता है, ‘क्या कहीं ऐसा भी होता है या हुआ होगा?‘ उदाहरण हेतु ‘जूठन‘ का यह अंश- ‘‘जोहड़ी के किनारे पर चूडड़ो के मकान थे, जिनके पीछे गाँव भर की औरतें, जवान लड़कियां, बड़ी-बूढ़ी यहाँ तक कि नयी नवेली दुल्हने भी इसी डब्बो वाली के किनारे खुल में टट्टी फरागत के लिए बैठ जाती थीं। रात के अंधेरे मे ही नहीं, दिन के उजाले में भी पर्दों में त्यागी महिलाएं घूंघट कोढ़े दुशाले ओढ़े इस सार्वजनिक खुले शौचालय में निवृत्ति पाती थीं। तमाम शर्म लिहाज छोड़कर वे डब्बोवाली के किनारे गोपनीय जिस्म उघाड़कर बैठ जाती थीं। इसी जगह गाँव घर के लड़ाई-झगड़े गोलमेज कॉन्फ्रेंस की शक्ल में चर्चित होते थे। चारांे तरफ गंदगी होती थी। ऐसी दुर्गंध कि मिनट भर में साँस घुट जाए। तंग गलियों में घूमते सूअर, नंग-धडंग बच्चे, कुत्ते, रोजमर्रा के झगड़े बस यह था वह वातावरण जिसमें बचपन बीता। इस माहौल में यदि वर्ण व्यवस्था कहने वालों को दो-चार दिन रहना पड़ जाए तो उनकी राय बदल जाएगी।‘‘9 
कुछ ऐसा ही वर्णन मोहनदास नैमिशराय ने अपनी आत्मकथा में किया है- ‘‘हमारी बस्ती भी शहर की अन्य बस्तियों की तरह थी। बस्ती का नाम चमार गेट था, फिर चमार दरवाजा हुआ। जिसे लोग चमार दरवज्जा ही अधिक बोलते थे। बस्ती के सिरे पर एक बड़ा गेट था।............शाम होते-होते दरवाजे बंद कर दिए जाते थे। इसी कारण बस्ती का नाम चमार गेट पड़ा।............ कुछ लोग इसे चमारों का मौहल्ला भी कहकर पुकारते थे। आज भी रिक्शे-तांगेवाले सवारी लेने के लिए जोर-जोर से चमार दरवज्जा कहकर पुकारते हैं।‘‘10 बचपन के अपने ऐसे ही परिवेश के बारे में कौसल्या बैसंत्री अपनी आत्मकथा में लिखती हैं- ‘‘बस्ती में चालीस पचास घरों के लिए एक नल होता था। बस्ती काफी बड़ी थी। नल सवेरे पाँच बजे खुलता था और आठ बजे बंद हो जाता था। शाम को फिर साढ़े पाँच बजे खुलता और सिर्फ दो घंटे ही खुला रहता था। गरमी के दिनों में तो सिर्फ एक-डेढ़ घंटे ही पानी आता था। सबको सवेरे ही काम पर जाना होता था। लोग रात में तीन बजे से ही अपनी बारी के लिए बरतन रखते थे। नल के आगे बर्तनों, घड़ो की लाइन लगी रहती थी। ................ सवेरे से ही नल पर लोगों का शोर शुरू हो जाता था। कभी झगड़ा-फसाद, मारपीट भी हो जाती थी। झगड़ा औरतों में शुरू होता और बाद में घर के पुरुष भी उस झगड़े में उतर आते थे। औरतें एक दूसरे के बाल नोचती थी, और गंदी-गंदी गालियां एक दूसरे को देती थी।............ माँ हम बहनों को नल पर ज्यादा नहीं जाने देती थी।‘‘11 
जाहिर है कि विभिन्न आत्मकथाओं के यह पंक्तियां दलित समाज की वास्तविक जिदंगी और उनकी समस्याओं के माध्यम से एक ऐसे समय और समाज को हमारे समक्ष प्रदर्शित करती हैं जिसकी साहित्यिक वास्तविकता से हम सभी लगभग अछूते थे या जो दलितों की जिदंगी से परिचित भी थे तो उनमें इससे टकराने को साहस नहीं था। डॉ. देवेन्द्र चौबे इसकी पुष्टि करते हुए लिखते हैं कि ‘‘हम डरते थे कि कहीं हमने उन सच्चाइयों से टकराने का साहस किया भी तो खत्म हो जाएंगे हम और खत्म हो जाएगी हमारी वह दुनिया जो अब तक पवित्र, उत्कृष्ट और सुरक्षित थी।‘‘12 
आत्मकथा ‘जूठन‘ पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है कि जाति को लेकर ओमप्रकाश वाल्मीकी में कोई हीनता बोध नहीं है, कहीं यह एहसास तक भी नहीं हुआ है कि कथित निम्न जाति में पैदा होने से उनकी मानवता, सम्मान व गरिमा में कोई कमी आयी है। ओमप्रकाश वाल्मीकी का आग्रह है कि दलितों को भी मानव के रूप में स्वीकार किया जाए, न कि जाति की पहचान पर। विशेष बात यह है इस प्रकार का आग्रह प्रत्येक दलित साहित्यकार ने अपनी-अपनी रचनाओं के माध्यम से किया है। आत्मकथा ‘जूठन‘ में एक दृष्टान्त को लेखक ने बहुत मार्मिक ढंग से बताया है, जिसमें उन्हांेने इस बात पर प्रश्न चिन्ह लगाया है कि क्या सच में शिक्षक/गुरू भगवान का स्वरूप होते हैं? ओमप्रकाश वाल्मीकी लिखते हैं- 
‘‘तीसरे दिन मैं कक्षा में जाकर चुपचाप बैठ गया। थोड़ी देर बाद उनकी दहाड़ सुनाई पड़ी ‘अबे, ओ चूहड़े के, .............(गाली) कहाँ घुस गया अपनी माँ............ (गाली)  
उनकी दहाड़ सुनकर मैं थर-थर कांपने लगा था। एक त्यागी लड़के ने चिल्लाकर कहा ‘मास्साब, वो बेट्ठा है कोणे में।‘
हेडमास्टर ने लपककर मेरी गर्दन दबोच ली थी। उनकी उंगलियों का दबाव मेरी गर्दन पर बढ़ रहा था। जैसे कोई भेड़िया बकरी के बच्चे को दबोचकर उठा लेता है। कक्षा से बाहर खींच कर उसने मुझे बरामदे में ला पटका। चीखकर बोले ‘जा लगा पूरे मैदान में झाडू...... नहीं तो ......(शरीर का एक गोपनीय अंग) में मिर्ची डालके स्कूल के बाहर काढ़ (निकाल) दूंगा।‘‘13 इन पंक्तियों में जो अमानवीयता छिपी है देवेंद्र चौबे इस पर अपनी प्रतिक्रिया कुछ इस प्रकार देते हैं- ‘‘यह एक ‘‘गुरू‘‘ का अपने ‘‘दलित छात्र‘‘ के साथ किया गया दुर्व्यवहार है जो शिक्षण संस्थाओं में दलित समाज की वास्तविक स्थिति की ओर संकेत करता है।‘‘14 इस प्रकार के कडुवें और दिल दहला देने वाले अनेक प्रसंग आप हर दलित आत्मकथा में देख सकते हैं। लेकिन ‘जूठन‘ के इस उपर्युक्त उदाहरण के जरिए लेखक ने दलित समाज की इस चुप्पी को भी तोड़ने का प्रयास किया है जो दलितों को दोराहे पर लाकर खड़ी कर देती है। ‘‘इस आत्मकथा का नायक अपने समाज की चुप्पी तोड़ने के साथ ही उसे भयमुक्त बनाने का प्रयास भी करता है और इस क्रम में इस राजनीति से भी टकराने की कोशिश करता है जो उसके ग्रामीण समाज को सदियों से हाशिये पर डाले हुए है। यही कारण है जो उसके ग्रामीण समाज को सदियों से हाशिये पर डाले हुए है। यही कारण है कि जूठन  में लेखक अपने पिता के माध्यम से ‘शिक्षा‘ को सर्वाधिक महत्व देता है।‘‘15 आत्मकथा ‘जूठन‘ के महत्व पर प्रकाश डालते हुए डॉ. ललिता कौशल अपने एक शोध ग्रन्थ में लिखती हैं ‘‘यह आत्मकथा सामाजिक सड़ांध को उजागर करती है। इसमें हिन्दू समाज की विकृतियों का प्रामणिक पर्दाफाश हुआ है। यह लेखक की व्यक्तिगत पीड़ा के साथ पूरे दलित समाज का भी साकार कराती है। जाति के कारण एक बड़े समुदाय को मानवीय मूल्यों से वंचित रखा जाता है।‘‘16 जातीय उत्पीडन की व्यथा को शब्दों में व्यक्त करते हुए स्वयं लेखक ने लिख है ‘‘दलित जीवन की पीड़ाएं असहनीय ओर अनुभव-दग्ध हैं। ऐसे अनुभव जो साहित्यिक अभिव्यक्तियों में स्थान नहीं पा सके। एक ऐसी समाज-व्यवस्था में हमने सांसे ली हैं, जो बेहद क्रूर और अमानवीय है। दलितों के प्रति असंवेदनशील भी।‘‘17 यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि आत्मकथा ‘जूठन‘ एक ऐसा दस्तावेज है जो दलित उत्पीड़न की प्रक्रियाओं को उद्घाटित तो करती ही है साथ ही सामाजिक रीति-रिवाजों, प्रथाओं एवं कथित परम्पराओं में छिपे दलित उत्पीड़न की ब्राह्मणवादी मोर्चाबन्दी या मानसिकता से बचकर अपने रास्ते भी तैयार करती है।
हांलाकि हिन्दी में पहली आत्मकथा का दर्जा अपने-अपने पिंजरे (1995) को प्राप्त है परन्तु राज किशोर के संपादकत्व में ‘हरिजन के दलित‘ (वाणी प्रकाशन, 1994) नामक पुस्तक का प्रकाशन हुआ। इस पुस्तक में ओमप्रकाश वाल्मीकी के आत्मकथा को लगभग 20 पृष्ठों में प्रकाशित किया गया। मोहनदास नैमिशराय दलित साहित्य के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर है, जिन्होंने दलित साहित्य के विभिन्न पक्षो पर कार्य किया है और कर रहे हैं। अपनी आत्मकथा ‘अपने-अपने पिंजरे (भाग- 1,2)‘ में अपने दलित वर्ग की पीड़ा, उनकी आर्थिक व सामाजिक शोषण के विभिन्न रूपों को उद्घाटित किया है। यह आत्मकथा पढ़कर यह धारणा तथ्यपरक नहीं रहती है कि शहर दलितों के शोषण को कम या नहीं करता है। नैमिशराय ने अपनी इस आत्मकथा में दलितों के परिवेश, धार्मिक व सामाजिक क्रिया-कलाप, मेरठ शहर के त्यागियों द्वारा शारीरिक, मानसिक, व आर्थिक शोषण, बेगारी, अशिक्षा, स्कूल-कॉलेजों में जातिगत राजनीति, प्रेम-प्रसंग आदि के साथ इस शहर का यथार्थ चित्रण किया है जहाँ से देश में 1857 की पहले संग्राम का शंखनाद हुआ था। यह आत्मकथा समाजशास्त्रीय दृष्टि से महत्वपूर्ण कृति है। इस पुस्तक की भूमिका में डॉ. महीप सिंह लिखते हैं ‘‘मोहनदास नैमिशराय ने अपने जीवन की उन तल्ख और निर्मम सच्चाइयों को इसमें उकेरा है जिनमें मानवीय पीड़ा अपनी पूरी सघनता से व्यक्त हुई है। इसका सबसे बड़ा कारण व्यक्ति के ऊपर सड़ी-गली व्यवस्था का वह आरोपण है जिसके प्रति वह विवश होकर सब कुछ सहते जाने के लिए अभिशप्त हैं।‘‘18 उक्त यह आत्मकथा दलित समाज की जिन्दगी और उनकी समस्याओं के माध्यम से ऐसे समय और समाज से हमारा परिचय करवाती है, जिसकी वास्तविकता से हम लगभग अपरिचित थे। लेखक ने अपनी इस आत्मकथा में अपने जीवन की कहानी को चित्रित करके इस व्यवस्था के प्रति अपना आक्रोश भी प्रकट किया है।
जहाँ एक ओर ‘जूठन‘ में ओमप्रकाश वाल्मीकी ने अपने गांव में फैली जातिवादी कुरीरितियों का वर्णन किया है वही ‘अपने-अपने पिंजरे‘ में नैमिशराय ने मेरठ जैसे शहर के चमारों की स्थिति एवं उनके जीवन को अंकित किया है। भारतीय समाज गरीबी, दरिद्रता, बेरोजगारी, अशिक्षा से ग्रस्त था और लगभग आज भी है। हमारी सामाजिक व्यवस्था में सबसे अधिक तकलीफदेह था निम्न जातीयता के नाम पर दलितों के साथ क्रूरतापूर्ण बेइज्जती का व्यवहार। ब्राह्मणवाद की विचारधारा का इस सामाजजिक व्यवस्था पर गहरा प्रतिकूल प्रभाव रहा है। इसने ही समाज को ऊँच-नीच जातियों में बांटा हुआ है। अपनी आत्मकथा में नैमिशराय लिखते हैं ‘‘हर जाति और वर्ग के लोग अपनी-अपनी पहचान में सिमटे हुए। शहर धड़कता था, पर अलग-अलग स्वर में। बस्तियां थिरकती-नाचती थीं अलग-अलग बोलियों में। उन सबसे मिलकर बना यह शहर।‘‘19 गाँव हो या शहर समाज में व्यक्ति का दर्जा और हैसियत उस की जाति से तय की जाती है। जाति को आदमी की मुख्य पहचान बनाकर उच्च वर्ण द्वारा निम्न जातियों के लोग घृणा और अमानवीय व्यवहार का शिकार होते हैं। जो दलितों में हीन भावना पैदा करती है। समाज में दलितों की पहचान ना बराबर ही थी और आज भी सामाजिक स्थिति में कोई खासा परिवर्तन देखने को नहीं मिलता है। इस बात की पुष्टि लेखक स्वयं अपनी आत्मकथा में करते हुए कहते हैं ‘‘हिन्दू समाज में आदमी की कीमत उसकी जात से ही आंकी जाती थी। हमें विशेषतौर पर चमार-चूड़े नाम से संबोधित किया जाता था। पर उनके संबोधन के तौर-तरीके और भी घृणास्पद हुआ करते थे। उनके द्वारा कहे गये एक-एक शब्द हमारे शरीर को छीलते थे। बीच-बीच मे वे गांलियां भी देते थे। हिन्दू धर्म तथा संस्कृति की अमाननयी परम्परा से जुड़ी अजीबोगरी अश्लील गालियां। जिन्हें हमें सुनना ही पड़ता था।.......... जैसे गाँव या शहर के हाशिये पर रहना भी हमारी नियति थी। वैसे ही इस तरह के नाम हमें विरासत में मिले थे।‘‘20 
अस्पृश्यता ही ब्राह्मणवादी विचारधारा की सबसे घृणापद बात है। ज्योतिबा फुले और बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर के इसके विरूद्ध इतना संघर्ष करने के बावजूद भी समाज में इस सामाजिक बुराई की जड़े और गहरी होती गयी। दलितों के प्रति सवर्णों का व्यवहार ऐसा होता है कि किसी प्यासे व्यक्ति को पानी पिलाने में भी उनकी जाति आड़े आती है और एक ही रास्ते पर साथ चलने से उनका धर्म भ्रष्ट हो जाता है। नैमिशराय जी ने इसका स्पष्ट उल्लेख अपनी आत्मकथा में किया है। जिसको पढ़कर मानवता भी शर्मशार हो जाती है। यह घटना उस समय की है जब वह (मोहनदास नैमिशराय) अपने बड़े भाई के साथ बहन के घर जा रहे थे तब रास्तें में उन्हें प्यास लगती है वह दोनों एक सवर्ण के घर से पानी मांगते है तो सवर्ण पहले उनकी जाति पूछते हैं। जाति पता चलते ही अचानक उनके तेवर बदल जाते हैं और कहते हैं- 
‘‘तो म्हारे घर अग्गे कियांे खड़े हो? जाओ सिद्दे-सिद्दे, आगे चमारों के ही घर पड़ेंगे पैले। वे सांप की तरह फुंफकार रहे थे।
हमें पानी पिला दो, बड़ी प्यास लगी है।.......... म्हारे घर चमारों की खाŸार पानी ना है। ......... अग्गे झोड़ है, वईं मिल जागा पानी-वानी तमैं ।.........‘‘21 पानी न मिलने के कारण उनकी जो हालत खराब हुई उसका वर्णन लेखक कुछ इस प्रकार करता है- ‘‘मेरी आंखो के सामने अंधेरा छाने लगा था। पानी पीकर हम पांच मील भी आगे चल सकते थे। पर प्यासे गले से तो पांच कदम भी आगे न बढ़ा जा रहा था। उन दोनों ने पहले ही पानी पिलाने से मना कर हमारी आधी जान ले ली थी। कितनी आस से हम रूके थे उनके घर के आग। हम वहां प्यास रूके थे और प्यास ही आगे बढ़ गये थे।‘‘22 जिस पानी को जानवर भी मजबूरी में पीते होगंे वैसे जोहड़ का गंदा और बदबूवाला पानी लेखक और उनके भाई को पीना पड़ा। यह घटना दिखाती है कि सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त व्यक्ति इस तरह का अमानुष व्यवहार करते समय जरा भी असहजता अनुभव नहीं करते क्योंकि उनके मन में दलितों के प्रति घृणा बहुत ही गहरी हो गयी है। इसके साथ ही यह घटना पढ़कर स्वतः ही आंखो में पानी आ जाता है। सच में यह घटना मानवता को शर्मशार करने वाली है। ऐसी एक या दो नहीं बल्कि असंख्य अमानवीय घटनाएँ दलित आत्मकथाओं में देखी/पढ़ी जा सकती हैं। ऐसी ही एक घटना के बारे में डॉ. तुलसी राम अपनी आत्मकथा में लिखते हैं- ‘‘गर्मी के दिनों में प्यास लग जाना एक बड़ी समस्या थी। स्कूल के पास एक कुआँ था, जिसके चबूतरे तक को हम दलित छू नहीं सकते थे।.......... मुंशी जी (शिक्षक) परसूपुर गांव के मिसिर बाबा (सवर्ण छात्र) को पानी पिलाने के लिए कहते।........ और वह पानी पिलाता कम और हमारे ऊपर ज्यादा डालता था। जिससे भीग जाते थे।...............‘‘23  डॉ. सुशीला टाकभौरंे की आत्मकथा में भी स्कूल में घटित एक वृतान्त आता है जिसमें निम्न जाति के होने के कारण किस प्रकार कक्षा में उनकों अन्य बच्चों से अलग रखा जाता था वह लिखती हैं- ‘‘स्कूल में साथ पढ़ने वाले सवर्ण बच्चे मुझसे दूर-दूर रहते थे। स्कूल के घड़े का पानी चपरासी दूर से पिलाता था। कभी चपरासी न रहने पर मैं अपनी कक्षा की अन्य स्वर्ण छात्राओं से पानी पिलाने के लिए कहती थी। ऐसे समय अपनी निर्बलता और बेबसी का अनुभव होता था।‘‘24  आगे मोहनदास नैमिशराय अपनी आत्मकथा में लिखते हैं- ‘‘हजारों वर्षों से शायद यही व्यवस्था चल रही होगी। जाति और वर्गाें के अपने-अपने पिंजरों में बंद हो हम इन त्योंहारो को अपनी-अपनी बस्तियों/गांवों में मनाते आ रहे होंगे।‘‘25 इसे पढ़कर यह ज्ञात हो जाता है कि लेखक ने अपनी आत्मकथा को यह शीर्षक (अपने-अपने पिंजरे) क्यों दिया होगा।
भारतीय सामाजिक व्यवस्था में ‘दलित‘ होना ही किसी अभिशाप से कम नहीं है, साथ ही पुरुष प्रधान समाज में दलित होकर एक स्त्री होना तो उसके लिए दोहरा अभिशाप ही कहलाएगा। सर्वप्रथम ‘कौसल्या नंदेश्वर बैसंत्री‘ (24.06.2011 को परिनिर्वाण हुआ) ने हिन्दी दलित साहित्य में इस दोहरे अभिशाप की पीड़ा-दर्द को शब्दों के माध्यम से व्यक्त किया है। इसके बाद डॉ. सुशीला टाकभौंरे की आत्मकथा ‘शिकंजे का दर्द‘ (2011) का प्रकाशन हुआ। दोनों ही आत्मकथाओं में दलित महिला होने के उस दोहरे अभिशाप को बड़े मार्मिक ढंग से दर्शाया है। यहाँ यह कहना ज्यादा उचित होगा कि इन दो लेखिकाओं ने न केवल अपने जीवन के दुखों का वर्णन किया है बल्कि यह आत्मकथाएँ उन सभी दलित माहिलाओं की भी है, जिन्होंने जीवन में इस दोहरे अभिशाप को झेला। सामाजिक व पारिवारिक परिस्थितियों के चलते वह उस दर्द को शब्दबद्ध करने का साहस नहीं जुटा पायी। परन्तु यह साहस इन लेखिकाओं ने किया जिसके माध्यम से इस दोहरे अभिशाप की असहनीय पीड़ा को समझने में आसानी हुई। इन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से दलित महिलाओं के उत्पीड़न व संघर्ष से सशक्त अभिव्यक्ति की है जो पुरूषवादी मानसिकता पर गहरा प्रहार करती है। प्रो. विमल थोरात आत्मकथा ‘दोहरा अभिशाप‘के विषय में कहती है कि ‘‘कौशल्य बैसंत्री ने अपनी आत्मकथा के माध्यम से दलित स्त्री के संघर्ष को मजबूर और विकसित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उनके लेखन में दलित महिला रचनाकारों को प्रेरणा और बल दिया।‘‘26  इससे पूर्व मराठी भी में दलित महिला आत्मकथा प्रकाशित हो चुकी थी जिनमें प्रमुख बेबी कांवले की ‘जीवन हमारा‘ और सांताबाई कांवले की ‘मा ज्या जल माची चित्यूर कथा‘। 
कौसल्या बैसंत्री ने हिन्दी दलित साहित्य में दलित महिलाओं के दोहरे अभिशाप के दर्द को बड़े ही मार्मिक ढंग से दिखाया है। इनकी इस आत्मकथा को आत्मकथात्मक उपन्यास कहते हुए इसकी महत्ता के विषय में मस्तराम कपूर लिखते हैं- ‘‘यह उपन्यास लेखिका के लंबे, संघर्षपूर्ण, कड़वे-मीठे अनुभवों से भरे जीवन के एक सिंहावलोकन के रूप में लिखा गया है। अतः यह आत्मरति या आत्मपीड़न से उत्पन्न उन स्तब्धकारी प्रभावों से मुक्त है जो आम तौर पर दलित साहित्य की रचनाओं में पाये जाते हैं।.......... यह एक सीधी-सादी जीवन-कथा है जो हर प्रकार के साहित्यिक छलों से मुक्त है।‘‘27  लेखिका ने अपने जीवन की इस कथा को अपने माता-पिता को समर्पित किया है, जिन्होंने गरीबी, अंधविश्वास और जातीय प्रताड़नों से लड़ते हुए अपनी सभी लड़कियों को शिक्षित किया। यह आत्मकथा 28 प्रकरणों में विभक्त की गयी है। बैसंत्री जी ने अपनी आत्मकथा में अपनी गरीबी और लाचारी को मार्मिक ढंग से दर्शाया है। मां-बाप के अत्यन्त गरीब होने के बावजूद भी दानों सभी लड़कियों को शिक्षित करना चाहते थे। हर तरह की कठिन परिस्थितियां होने के बाद भी इनकी पढ़ाई के लिए पैसे जमा किये जाते थे। लेखिका के माँ-बाप दोनों ही शिक्षा की महत्ता जानते थे। क्यांेकि ‘‘उन्होंने बाबा साहब अंबेडकर का कस्तूरचंद पार्क में भाषण सुना था कि अपनी प्रगति करना है तो शिक्षा प्राप्त करना बहुत जरूरी है। लड़का और लड़की दोनों को पढ़ाना चाहिए। माँ के मन में इसका असर पड़ा था और उन्होंने हम सब बच्चों को पढ़ाने का निश्चय किया था, चाहे कितनी ही मुसीबतों का सामना करना पड़।‘‘28   इससे स्पष्ट हो जाता है कि दलितों ने अपने-अपने क्षेत्रों में जो भी मुकाम हासिल किये है उनके पीछे निःसन्देह रूप से उनके माता-पिता को बहुत बड़ा योगदान रहा है। अपनी इस आत्मकथा में कौशल्या बैसंत्री ने अपनी जाति की सभी समस्याओं को वर्णन किया है। इन्होंने अपने परिवार टूटने की समस्या की भी बात की है। क्योंकि कहीं भी उनके पहंुचने से पूर्व उनकी जाति पहुँच जाया करती थी। उनके अपने पति से भी कभी नहीं बनती थी। जिसका कारण था उनका गर्म मिजाज और जिद्दीपन। वह बात-बात पर गाली देते थे उनके स्वभाव पर प्रकाश डालते हुए कहती हैं कि ‘‘उसने मेरी इच्छा, भावना, खुशी की कभी कद्र नहीं की। बात-बात पर गाली, वह भी गंदी-गंदी और हाथ उठाता। मारता भी था बहुत क्रूर तरीके से।‘‘29 यह घटना पुरुषवादी मानसिकता को प्रदर्शित करती है तथा किसी भी स्त्री को अपने पति के बारे में इस तरह बेबाकी से लिखना किसी क्रांति से कम नहीं है। भविष्य में साहित्य जगत में जिस प्रकार से महिला लेखन लिखा जा रहा है वह पुरुषवादी मानसिकता के छुटकारा तथा अपने अस्तित्व की पहचान प्राप्त करने की ओर अग्रसर है। अगर दलित महिला की बात करे तो उनका लेखन उसी दोहरे अभिशाप से मुक्त होने हेतु लिखा जा रहा है।
दलित साहित्य में अभी तक जितनी भी आत्मकथाएँ लिखी जा चुकी है या लिखी जा रही है, उन सभी का एक ही उद्देश्य है कि दलितों की पीड़ा, उनके ऊपर थोपा गया अमानवीय और संघर्षपूूर्ण जीवन को इसके माध्यम से हम सबके समक्ष रखना। जिससे हमारे देश में आज भी जो सवर्णमानसिकता हावी है लोग उससे बाहर निकल कर सभी के साथ समान और मानवता का व्यवहार करें। दलित आत्मकथाओं ने समाज की खोखली और नग्न सत्य हकीकतों से परादा उठाया है। इसके साथ ही आत्मकथा लिखने का एक उद्देश्य और भी है कि समाज को सच्चाई बताना। लोग इस सच्चाई को स्वीकार करें, इनमें दिये गये तथ्यों को समझें, मंथन करें और भविष्य के समतावादी, मानवतवादी भारतीय समाज के निर्माण के लिए कदम उठाएं। दलित साहित्यकारों को कहना है कि उनके साहित्य को पढ़कर किसी से दलितों के प्रति सहानुभूति या दया नहीं चाहिए। बल्कि हमें अपना स्वाभिमान व अधिकार चाहिए। अपनी आत्मकथा की भूमिका में डॉ. सुशीला टाकभौरंे इस विषय में लिखती है- ‘‘अक्सर सवर्ण लोग दलित आत्मकथा पढ़कर दलितों के प्रति दया और सहानुभूति का भाव जताते हैं। यह उनकी समझ का फेर है। असल में उन्हें मनुवादी-वर्णवादी, जातिवादी अन्याय-शोषण की दुष्ट नीतियों पर लज्जित होना चाहिए। अपने पूर्वजों के कुचक्रों और छल-कपट पर शर्म करनी चाहिए। दलित आत्मकथाएँ मनुवादियों की कलंकित नीतियों को बताने वाली सच्ची कथाएँ हैं।‘‘30 दलित आत्मकथाओं में दलित जीवन की घनीभूत पीड़ा के अनेक चित्र हैं, अनेक प्रसंग हैं जो अपने समय के समाज की मानसिकता का साक्षात्कार कराते हैं। अभी भी समाज में यह मानसिकता है जो अब नासूर बन चुकी है। नासूर का इलाज कैसे किया जाता है, सभी जानते हैं। दलित आत्मकथा वर्चस्व की मानव-विरोधी व्यवस्था व विचारधारा की जटिलताओं को उद्घाटित करती व इसका विरोध करती व्यक्ति विशेष की आत्मकथा ना होकर समस्त समाज की दारूण कथा है।
निष्कर्षतः इस बात में कोई दो राय नहीं है कि दलित आत्मकथाएँ जीवन के अत्यन्त नजदीक और सबसे अधिक विश्वसनीय सिद्ध हो रही हैं। इनमें लेखकों ने अपनी शर्म, अपना उत्पीड़न तथा नंगी सच्चाईयों को समाज के सामने लाने का साहस किया है। हजारों वर्षों से अस्पृश्य लोगों के साथ अमानवीय व्यवहारा होता रहा है। सवर्ण वर्ग खोखली श्रेष्ठता के आडंबर होने के कारण ही मानवीय गरिमापूर्ण रहा और निम्न वर्ग को हमेशा घृणा की दृष्टि से देखता रहा है। सवर्ण मानसिकता रखने वाले लोग यह भूल रहे हैं कि ब्राह्मणवादी/सर्वणवादी समाज की मानवीयता को दीमक की तरह अन्दर-ही-अन्दर खत्म कर रही है, जिसके फलस्वरूप छुआछूत और जात-पात की क्रूरता समाज को जर्जर रहती रही। जहाँ तक दलित जीवन को सवाल है, वह भारतीय समाज में हमेशा बहिष्कृत ही रहा है, इसलिए डॉ. अम्बेडकर ने इसे बहिष्कृत भारत भी कहा है। इस जिन्दगी से दलित वर्ग मुक्ति पाना चाहता है और रूढ़िवादी परम्पराओं को नकारतें हुए जीना चाहता है। डॉ. अम्बेडकर सोच एवं दृष्किोण में परिवर्तन लाने के लिए ही यह घोषणा की थी ‘शिक्षित बनो, संगठित हो, संघर्ष करो‘। जागरूक दलित वर्ग इस नारे को अमल में लाने के लिए प्रयासरत हैं। शिक्षा चेतना व स्वाभिमान की आधारशिला है। शिक्षा वह तीसरा नेत्र है जो व्यक्ति को अपने अधिकारों के प्रति सचेत करता है।
अतः यह कहना कोई अतिश्योक्ति न होगी कि दलित आत्मकथाओं में आत्मकथाकार जीवन मंे होने वाले शोषण, अन्याय, अत्याचार, अपमान, रोटी, कपड़ा और मकान की बुनियादी समस्याओं को बखूबी दर्शाता है तथा समृद्ध एवं सवर्ण समाज का निम्न वर्ग के प्रति व्यवहार आदि को मार्मिक वर्णन करना है। साथ ही दलित आत्मकथाओं ने हमारे इतिहास की कमी को भी पूरा किया है। क्योंकि हमारे भारतीय इतिहास में दलितों के दुख-दर्द को कहीं ऐसे नहीं दर्शाया गया जैसे कि इन आत्मकथाओं में दर्शाया जा रहा है। दलित साहित्यकार या कहिए तमाम दलित वर्ग आज स्वाभिमान के साथ जीवन जीने से लिए संघर्षरत है और अपने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए प्रयत्नशील है। साहित्य की दृष्टि से देखा जाए तो वर्तमान दलित साहित्य इस बात का सशक्त प्रमाण है।



--:ः सन्दर्भ सूची:ः --

दलित आत्मकथाएँ अनुभव से चिंतन, सुभाष चन्द्र, साहित्य उपक्रम दिल्ली, पृ0-08 
हिन्दी कथा साहित्य में दलित विमर्श से उद्धृत, ले.-डॉ. खन्नाप्रसाद, सं.- दिलीप मेहरा, सी.पी. कम्पनी, नयी दिल्ली, पृ0-359
अक्करमाशी (आत्मकथा), डॉ. शरणकुमार लिंबाले, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ0-14 व 15 (लेखक की ओर से)
दलित आत्मकथाएँ अनुभव से चिंतन, सुभाष चन्द्र, साहित्य उपक्रम दिल्ली, पृ0-08 व 09
हिन्दी कथा साहित्य में दलित विमर्श से उद्धृत, सं.- दिलीप मेहरा, सी.पी. कम्पनी, नयी दिल्ली, पृ0-359
दलित आत्मकथाएँ अनुभव से चिंतन, सुभाष चन्द्र, साहित्य उपक्रम दिल्ली, पृ0-09
अक्करमाशी (आत्मकथा), डॉ. शरणकुमार लिंबाले, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ0-10 व 11 (लेखक की ओर से)
दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, डॉ. शरणकुमार लिंबाले, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ0-137
जूठन (आत्मकथा), ओमप्रकाश वाल्मीकी, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ0-11
अपने-अपने पिंजरे (आत्मकथा), मोहनदास नैमिशराय, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ0-17
दोहरा अभिशाप (आत्मकथा), कौसल्या बैसंत्री, परमेश्वरी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ0-36 व 37
आधुनिक साहित्य में दलित विमर्श, देवेंद्र चौबे, ओरियंट बलैकस्वॉन प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ0-75
जूठन (आत्मकथा), ओमप्रकाश वाल्मीकी, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ0-15
आधुनिक साहित्य में दलित विमर्श, देवेंद्र चौबे, ओरियंट बलैकस्वॉन प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ0-79
वही पृ0-79
चर्चित हिन्दी की दलित आत्मकथाएँःएक मूल्यांकन, डॉ. ललिता कौशन, साहित्य संस्थान, गाजियाबाद, पृ0-55
जूठन (आत्मकथा), ओमप्रकाश वाल्मीकी, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ0-07  (भूमिका से)
अपने-अपने पिंजरे (आत्मकथा भाग-1), मोहनदास नैमिशराय, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ0-08 (भूमिका से)
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अपने-अपने पिंजरे (आत्मकथा भाग-2), मोहनदास नैमिशराय, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ0-22 व 23
अपने-अपने पिंजरे (आत्मकथा भाग-1), मोहनदास नैमिशराय, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ0-68
वही पृ0-68
मुर्दहिया (आत्मकथा), डॉ. तुलसी राम, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ0-54
शिंकजे का दर्द, डॉ. सुशीला टाकभौरें, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ0-45
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ीजजचरूध्ध्ूूूण्पदजमतदंजपवदंसदमूेंदकअपमूेण्बवउध्2011ध्06ध्26ध्लेखिका-कौशल्या-बैंसत्री/
दोहरा अभिशाप (आत्मकथा), कौसल्या बैसंत्री, परमेश्वरी प्रकाशन, नयी दिल्ली, फ्लेप पृष्ठ से।
दोहरा अभिशाप (आत्मकथा), कौसल्या बैसंत्री, परमेश्वरी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ0-47
वही पृ0-104
शिंकजे का दर्द, डॉ. सुशीला टाकभौरें, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ0-08 (भूमिका से)


सहायक प्राध्यापक (हिन्दी साहित्य एवं भाषा विज्ञान)
"हिन्दी विभागाध्यक्ष"
शहीद बेलमती चौहान राजकीय महाविद्यालय पोखरी (क्वीली) टिहरी गढ़वाल
उत्तराखंड