Monday, November 11, 2019

दलित साहित्यः दलितों की मुक्ति का मार्ग


राम भरोसे
असि. प्रोफेसर, (हिन्दी-विभाग),

वर्तमान भारतीय साहित्य जगत में दलित साहित्य अपनी एक अलग पहचान बना चुका है। शुरू से ही दलित साहित्य, साहित्य जगत में एक आन्दोलन की तरह रहा है और वर्तमान में भी इस साहित्य को आन्दोलन की दृष्टि से ही देखा जा रहा है और इसमें सत्यता भी है। जिस प्रकार दलित साहित्य ने हिन्दी साहित्य में अपना एक विषेष स्थान बनाया है उसे साहित्य जगत में एक आन्दोलन ही कहा जा सकता है। इस साहित्य के सन्दर्भ में कुछ प्रष्न ऐसे है जिन पर चर्चा करना आवष्यक हैं, हांलाकि वर्तमान समय में दिन प्रति दिन हमारे समक्ष दलित साहित्य नये रूपों प्रस्तुत हो रहा है। इस षोधपत्र के माध्यम से कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों पर प्रकाष डाला जायेगा जो कि इस साहित्य से गहरा सम्बंध रखते है। जैसे दलित साहित्य का प्रारम्भ, विकास, वर्तमान रूप या अवस्था और दलितों की मुक्ति के लिए दलित साहित्य का क्या योगदान रहा तथा इस साहित्य हेतु वर्तमान दलित साहित्यकरों की भूमिका इत्यादि।
दलित षब्द सुनते या देखते ही जो बात सबसे पहले हमारे दिमाग में आती है कि ‘दलित‘ क्या है?, दलित कौन है? या दलित किसे कहा जाये? चंूकि ‘दलित‘ षब्द वर्तमान साहित्य जगत का एक ज्वलन्त षब्द बन चुका है जिसका प्रयोग सर्वप्रथम मराठी साहित्य में लगभग 1936 ई0 में हुआ था किन्तु हिन्दी साहित्य में इस षब्द ने 1980 ई0 में आकर अपनी पहचान बनाई और तब से आज तक यानि 21 वर्षो में इस षब्द ने न केवल अपनी एक अलग पहचान बनाई अपितु साहित्य जगत में इस षब्द की सर्वाधिक आवष्यकता महसूस की जा रही है। हांलाकि आज भी दलित साहित्य भारतीय साहित्य जगत में विषेषकर हिन्दी साहित्य में अपना वो स्थान नहीं बना पाया है जिसकी सभी दलित साहित्यकारों को अपेक्षा है। सभी विद्वानों और चिन्तकों ने दलित षब्द को अनेक प्रकार से परिभाषित किया है, जिसके फलस्वरूप ‘दलित‘ षब्द को लेकर अलग-अलग विचारधाराएॅ साहित्य जगत में प्रचलित हो चुकी हैं। जिनमें एक वर्ग उन तमाम लोगों को दलित माना है, जो किसी भी प्रकार से पीड़ित या षोषित हो तथा कुछ एक दलित को षूद्र का पर्याय स्वीकार करते है परन्तु ‘दलित‘ षब्द का इतिहास इतना प्राचीन नहीं है यह  षब्द बिल्कुल नया है तथा यह आधुनिक साहित्य या भाषाओं का एक प्रचलित षब्द बन चुका है। ‘दलित‘ एक गतिषील षब्द है जो एक विषेष प्रकार की सामाजिक एवं सांस्कृतिक पहचान को सूचित करता है तथा इसकी सबसे बड़ी विषेषता है इसमें छिपी आन्दोलनकारी चेतना। गहराई से समझने के लिए हमें कुछ विद्वानों के मतो का सहारा लेना आवष्यक होगा। ‘दलित‘ षब्द का अर्थ है - ‘‘ जिसका दलन और दमन हुआ है, दबाया गया, उत्पीड़ित, षोषित, सताया हुआ, उपेक्षित, घ्ृणित, रोंदा हुआ, मसला हुआ, कुचला हुआ, विनिष्ट, मर्दित, पस्त-हिम्मत, हतोत्साहित, वंचित आदि।1‘‘ तथा अन्य परिभाषाओं में दिया है कि ‘‘दलित षब्द मसला हुआ, मर्दित, दबाया, रौंदा या कुचना हुआ, विनिष्ट किया गया है।‘‘02  तथा श्री नारायण सुर्वे कहते है कि ‘‘दलित षब्द की मिली-जुली कई परिभाषाएॅ है। इसका अर्थ केवल बौद्ध या पिछड़ी जातियाॅ ही नहीं है, अपितु समाज में जो भी पीड़ित है, वे सभी दलित है।03 इसके साथ ही एक मासिक पत्रिका में मित्तरसेन मीत ने कहा है कि ‘‘कोई भी व्यक्ति जाति नहीं, बल्कि आर्थिक स्थिति से वास्तविक दलित होता हैं।‘‘04 डाॅ. रामचन्द्र षर्मा और श्री नारायण सुर्वे आदि ने ‘दलित‘ षब्द को एक विस्तृत रूप देते हुए पिछड़ी जातियों के साथ-साथ उन सभी को दलित माना है, जो किसी भी प्रकार से पीड़ित या षोषित है। साधाराणतः उनको यह दृष्टिकोण सम्पूर्ण षोषित समाज के लिए हितकर हो सकता है, किन्तु हमें उन परिस्थितियों पर भी विचार करना अनिवार्य होगा कि यदि एक व्यक्ति निम्न वर्ग (षूद्र-वर्ण) का है और दूसरा सवर्ण वर्ग का है, यह प्रष्न उठता है कि क्या सिर्फ पीड़ित होने के कारण उसकी सामाजिक स्थिति में समानता होगी? षायद नहीं। यदि एक तरफ एक ब्राह्मण व्यक्ति पीड़ित है और दूसरी ओर षूद्र या अछूत व्यक्ति पीड़ित है तो क्या समान पीड़ा के आधार पर दोनों व्यक्तियों के साथ समाज एक समान व्यवहार करेगा? नहीं। इसका मतलब हुआ कि ब्राह्मण या सवर्ण पीड़ित या षोषित होने के उपरान्त भी समाज में सम्मान पाता है। और एक निम्न जाति का व्यक्ति पीड़ित अवस्था में हो या श्रेष्ठ अवस्था में, दोनों ही स्थिति में उसे अपमान का सामना करना पड़ता है। इस बात को और अधिक पुष्ट करने के लिए दलित षब्द के सन्दर्भ मोहनदास नैमिषराय कहते है कि ‘‘दलित षब्द माक्र्स प्रणीत सर्वहारा षब्द के लिए समानार्थी लगता है। लेकिन इन दोनों षब्दों में पर्याप्त भेद भी है। दलित की व्याप्ति अधिक है, तो सर्वहारा की सीमित। दलित के अन्तर्गत सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक षोषण का अन्तर्भाव होता है, तो सर्वहारा केवल आर्थिक षोषण तक ही सीमित है। प्रत्येक दलित व्यक्ति सर्वहारा के अन्तर्गत आ सकता है, लेकिन प्रत्येक सर्वहारा को दलित कहने के लिए बाध्य नहीं हो सकते। ........... अर्थात सर्वहारा की सीमाओं में अर्थिक विषमता का षिकार वर्ग आता है, जबकि दलित विषेष तौर पर सामाजिक विषमता का षिकार होता है।‘‘05 इससे यह पुष्ट तो हो ही जाता है कि सभी आर्थिक रूप से षोषित वर्ग दलित वर्ग के अन्तर्गत नहीं आ सकते। नैमिषराय जी ने अपनी इस परिभाषा के माध्यम से ‘दलित‘ षब्द को एक विस्तार प्रदान किया है।
दलित षब्द पर संक्षेप विचार करने के पष्चात् इस षब्द को साहित्य के साथ जोड़कर चर्चा करे, यानि ‘दलित साहित्य‘। दलित साहित्य का जन्म मूलतः मराठी साहित्य से हुआ है या हम कह सकते है कि मराठी साहित्य में अपनी पूर्ण पहचान बना लेने के बाद दलित साहित्य ने अन्य भारतीयों भाषाओं हिन्दी, गुजराती, पंजाबी, कन्नड इत्यादि में प्रवेष किया। दलित साहित्य के पे्ररणास्त्रोत महात्मा ज्योतिबा फुले जी और डाॅ अम्बेडकर जी का जीवन दर्षन हैं। इनके दर्षन को प्रमाण मान कर लिखा गया साहित्य ही दलित साहित्य है। षरणकुमार लिम्बाले के अनुसार ‘‘साधारणतया 1935-36 से साहित्य विषयक यह विमर्ष खुद डाॅ. बाबासाहब ने षुरू किया था।...............................मराठी दलित कृतियों का हिन्दी में अनुवाद षुरू हो गया।............... हिन्दी में इसके अनुवाद के बाद, अन्य भारतीय भाषाओं में यह साहित्य अनुवाद के माध्यम से जाने लगा। परिणास्वरूप इस साहित्य को लेकर प्रत्येक भारतीय भाषा में बहस षुरू हो गई।‘‘06 मराठी सहित्य से हिन्दी में अनुवाद करने में मुख्य रूप से डाॅ. सूर्यनारायण रणसुबे का नाम प्रमुख है। दलित साहित्य सम्बंधी धारणा को ओर आगे बढाते हुए ओमप्रकाश बाल्मीकि जी कहते है कि ‘‘दलित साहित्य संज्ञा मूलतः प्रष्न सूचक है। महार, चमार, माॅग, कसाई, भंगी जैसी जातियों की स्थितियों के प्रष्नों पर विचार तथा रचनाओं द्वारा उसे प्रस्तुत करने वाला साहित्य ही दलित साहित्य है।‘‘07
हिन्दी साहित्य रचना और विचारों के इतिहास की एक लम्बी दास्ता रही है। इसी मध्य साहित्य के इतिहास में अनेक परिवर्तन हुए हैं, जिन्होंने हिन्दी साहित्य की मुख्यधारा को प्रभावित किया है। दलित साहित्य उन्ही में से एक है। जैसा की पहले भी कहा जा चुका है कि हिन्दी साहित्य में यह एक मुख्य एवं ज्वलंत मुद्दा बन चुका है। यहां तक कि वर्तमान समय में इस प्रकार की बहस षुरू हो चुकी है कि दलित साहित्य को उचित दषा व दिषा कौन दे सकता है? दलित साहित्यकार या गैर-दलित साहित्यकार। यह चर्चा भी कई बार होती है कि जो दलित साहित्य गैर दलितों के माध्यम से लिखा गया है उसमें वो मर्म है? जो वास्तव में दलितों की वास्तविक अवस्था को भली प्रकार से उजागर कर सके। इस चर्चा के मध्य में सबसे पहले रखा गया मुंषी प्रेमचन्द को। उनको तोे दलित विरोधी तक कह दिया गया। इस बात को पुष्ट करने हेतु समाचार-पत्र जनसत्ता रायपुर 6,मार्च, 2011 में ओमप्रकाष वाल्मीकि का लेख ‘प्रेमचन्द और दलित‘ को देखा जा सकता है। जिसमें ओमप्रकाष जी ने लिखा है कि ‘‘पूना पैक्ट के बाद जहां अम्बेडकर और दलितों में घोर निराषा थी, वही प्रेमचन्द इसे ‘राष्ट्रीयता की विजय‘ कहा था।...................अम्बेडकर को प्रेमचन्द हमेषा षंका की दृष्टि से ही देखते रहे।‘‘08 वही दूसरी और देवेन्द्र चैबे प्रेमचन्द के पक्ष में लिखते है कि ‘‘यदि गैर-दलित रचनाकारों में प्रेमचन्द को छोड़कर कोई भी लेखक सवर्ण संस्कार से मुक्त दिखाई नहीं पड़ता है।.........................‘‘9
हांलाकि ये हिन्दी साहित्य में ये मुद्दा अलग चर्चा का विषय है कि प्रेमचन्द जी को दलितों का लेखक माना जाए या वे दलित विरोधी है। इसी सन्दर्भ में एक सवाल बार-बार हमारे सम्मुख आता है कि क्या केवल दलितों द्वारा लिखित साहित्य को ही दलित साहित्य माना जाए या अन्य गैर-दलित लेखकों द्वारा लिखित साहित्य को भी दलित साहित्य का दर्जा दिया जाए। इस बात का उत्तर हमें मैंनेजर पाण्डेय के दो अलग-अलग साक्षात्कारो के माध्यम से मिल जायेगा जिसका प्रकाषन देवेन्द्र चैबे ने अपनी पुस्तक मे किया है। ‘‘मैनेजर पांडेय के एक साक्षात्कार में उद्धत ज्योतिबा फुले के उस कथन को ध्यान में रखें कि ‘गुलामी की यातना को जो सह सकता है, वही जानता है और जा जानता है वही पूरा सच कह सकता है। सचमुच राख ही जानती है जलने का अनुभव, कोई और नहीं‘ तो साफ पता चलता है कि दलित जीवन की वास्तविक पीड़ा को वही व्यक्त कर सकता है जो स्वयं दलित है।‘‘10 एक दूसरे साक्षात्कार में मैनेजर पांडेय ने लिखा है कि ‘‘हिंदी में दलितों के जीवन पर उपन्यास और कविता लिखने वाले गैर-दलितों ने अपने वर्ग और वर्ण के संस्कारों से मुक्त होकर ही दलित जीवन पर लिखा है। फिर भी उनके लेखन में अनजाने ही सही, सवर्ण संस्कार की छाया आ गई है।‘‘11 आलोचना की दृष्टि से नहीं परन्तु यहां यह भी कहना अनुचित न होगा कि गैर दलित लेखकों द्वारा लिखा गया साहित्य दलितों के लिए मात्र एक सहानुभूति है स्वानुभूति तो केवल दलित लेखक ही कर सकता है। उदाहरण के लिए ‘जूठन‘ जैसी आत्मकथा मात्र ओमप्रकाष वाल्मीकि जी (वर्तमान प्रख्यात दलित साहित्यकार) ही लिख सकते है अन्य दूसरा कोई नहीं। इसी बात को आगे बढ़ाते हुए दलित चिन्तक कंवल भारती की मान्यता है कि ‘‘दलित साहित्य से अभिप्राय उस साहित्य से है। जिसमें दलितों ने स्वयं अपनी पीड़ा को रूपायित किया है अपने जीवन-संघर्ष में दलितों ने जिस यथार्थ को भोगा है, दलित साहित्य उनकी उसी अभिव्यक्ति का साहित्य है। यह कला के लिए कला नहीं, बल्कि जीवन का और जीवन की जिजीविषा का साहित्य है। इसीलिए कहना न होगा कि वास्तव में दलितों द्वारा दिखा गया साहित्य ही दलित साहित्य की कोटी में आता है।‘‘12 दलित साहित्य जन का साहित्य है। दलित साहित्य वो संघर्ष है जो सामन्ती मानसिकता के विरूद्ध आक्रोष से जन्मा है। डाॅ. सी.बी. भारती दलित साहित्य पर अपने विचार देते हुए कहते है कि ‘‘दलित साहित्य नवयुग का एक व्यापक वैज्ञानिक व यथार्थपरक संवेदनषील  साहित्यिक हस्तक्षेप है। जो कुछ भी तर्कसंगत, वैज्ञानिक, परम्पराओं के पूर्वाग्रहों से मुक्त साहित्य-सृजन है, उसे हम दलित साहित्य के नाम से संज्ञापित करते है।‘‘13
वर्तमान साहित्य जगत मंे विषेषकर हिन्दी साहित्य में दलित साहित्य चर्चा का केन्द्र बना हुआ है। क्योंकि दलित साहित्य मानव और मानवता को महत्व प्रदान कराता है बल्कि यह कहना उचित होगा कि दलित साहित्य मनुष्य की समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व की भावना से ओतप्रोत साहित्य है। साथ ही यह कहना उपयुक्त होगा कि दलित साहित्य मानव के इर्द-गिर्द घुमता है, इसका केन्द्र बिन्दु मात्र मानव ही है। डाॅ. अम्बेडकर जी का मानना था कि किसी भी मनुष्य के लिए ये तीन मुद्दे सर्वाधिक महत्वपणर््ूा है सामाजिक समता, राजनीतिक भागीदारी और आर्थिक समानता और दलित साहित्य इन्ही तीनों मुद्दो को लेकर ही लिखा जा रहा है। ताकि हजारों वर्षाे से पीड़ितों को मानवता का अधिकार मिल सके जो कि आज भी एक स्वप्न ही है। इसी सम्दर्भ में प्रो. चमनलाल जी का कहना है कि ‘‘दलित साहित्य‘ वह साहित्य है , जो दलितों के जीवन, उनके सुख-दुःख, उनकी सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों, उनकी संस्कृति, उनकी आस्थाओं-अनास्थाओं, उनके षोषण व उत्पीड़न तथा इस उत्पीड़न-षोषण के दलितों द्वारा प्रतिरोध की परिस्थितियों को व्यापकता तथा गहराई के साथ, कलात्मकता से प्रस्तुत करता है।‘‘14  हो सकात है कि यह परिभाषा कई विद्वानों को अग्राह्य लगे परन्तु दलित साहित्य पर विस्तृत दृष्टि डालने पर इस परिभाषा की सार्थकता नजर आती है।
यदि हम दलित साहित्य का अध्ययन करे चाहे वो दलित लेखक के द्वारा लिखा गया हो या फिर और दलित लेखकों के द्वारा दोनों के लेखन में दलित साहित्य को लेकर एक बात समान है और वो है दलित चेतना। यह दलित साहित्य का एक ऐसा सर्वाधिक महत्वूपर्ण तत्व है जिसके अभाव में दलित साहित्य लिखना सम्भव ही नहीं है। यही दलित चेतना, दलित साहित्य की ऊर्जा है। दलित चेतना के अभाव में दलित साहित्य अपने उद्देष्य में सफल नहीं हो सकता। दलित चेतना के माध्यम से ही दलित वर्ग में जो नयी सोचने समझने की क्षमता पैदा हुयी है। उदाहरण के लिए जिस प्रकार डाॅ. अम्बेडकर जी ने अपने लेखन व भाषणों के माध्यम से दलितों में नयी चेतना का संचार किया तो यह कहना अतिष्योक्ति न होगा कि दलित साहित्य के प्रेरणास्त्रोत मात्र ज्योतिबा फुले जी और अम्बेडकर जी ही है। दलित चेतना के सन्दर्भ में वाल्मीकि के विचार कुछ इस प्रकार है ‘‘दलित की व्यथा, दुःख पीड़ा, षोषण का विवरण देना या बखान करना ही दलित चेतना नहीं है, या दलित पीड़ा का भावुक और अश्रु-विगलित वर्णन, जो मौलिक चेतना से विहीन हो, चेतना का सीधा सम्बन्ध दृष्टि से होता है जो दलितों की सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, सामाजिक भूमिका की छवि के तिलस्म को तोड़ती है। वह है दलित चेतना। दलित मतलब मानवीय अधिकारों से वंचित, सामाजिक तौर पर जिसे नकारा गया हो। उसकी चेतना यानी दलित चेतना।‘‘15
चूंकि साहित्य किसी भी समाज का दर्पण कहलाता है। सर्वप्रथम दलित साहित्य द्वारा ही समाज मेें दलित वर्ग की वर्तमान अवस्था का चित्रण किया गया है । दलित साहित्य के माध्यम से दलित वर्ग में एक जागृति पैदा हुयी और हमारे भारतीय समाज को दलित वर्ग के संदर्भ में एक नयी दिषा प्राप्त की, इस बात का उदाहरण स्वयं दलित साहित्यकार भी है।  प्रारम्भ करे डाॅ. अम्बेडकर जी से तो उन्होंने 1936 ई. में अखिल मुम्बई इलाखा महार परिषद्, की एक सभा की अध्यक्षता करते हुए अपने भाषण के माध्यम से दलित वर्गाे के लिए नयी सोच के दरवाजे खोल दिये और उनमें एक नयी ऊर्जा का संचार किया। उनके भाषण का षीर्षक था ‘मुक्ति कौन पथे?‘ जिसमें उन्होंने दलित वर्ग के लिए धर्मान्तरण के महत्व पर प्रकाष डाला था। थोडा आगे चले तो अम्बेडकर जी के मृत्यु के लगभग 2 वर्ष पष्चात् 1958 ई. में दलित साहित्य सम्मेलन मुम्बई की अध्यक्षत अण्णाभाऊ साठे जी कर रहे थे जिन्होंने अपने भाषण के माध्यम से दलितों में प्रेरणा के साथ एक जोष भर दिया। उनके भाषण का षीर्षक था कि ‘‘पृथ्वी दलितों की हथेलियों पर खडी है।‘‘16 महाराष्ट्र में इस प्रकार के दलित साहित्य सम्मेलन आज भी जारी हे। हिन्दी साहित्य की बात करे तो दलित वर्ग में इस प्रकार की जागृति लाने का कार्य वर्तमान दलित साहित्कार कर रहे है। जिनमें ओमप्रकाष वाल्मीकि, डाॅ. धर्मवीर, मोहनदास नैमिषराय, तुलसीराम, जयप्रकाष कर्दम, ष्यौराज सिंह बेचैन आदि प्रमुख है और अगर गैर-दलित साहित्यकारों की बात करे तो उनमें मैनेजर पाण्डेय, राजेन्द्र यादव, प्रो. चमनलाल, राजकुमार सैनी, रजनी तिलक आदि प्रमुख साहित्यकार है। दलित साहित्य के उपरोक्त साहित्यकारों ने दलित वर्ग में एक नई ऊर्जा का संचार किया है।
अतः हम कह सकते है कि दलित साहित्य दलितों के जीवन का दुख का दरिया है और इस दरिया से बाहर निकलनें का मार्ग वे साहित्य के जरिए ढॅंूढ रहे है। डाॅ. षरणकुमार लिम्बाले जी लिखते है कि ‘‘जब तक इस समाज-व्यवस्था में जाति-भेद मौजूद रहेगा तब तक जातीय भेदभाव की आलोचना करने वाला साहित्य सृजन होता रहेगा।17 आज भी समाज में दलितों पर अन्याय, अत्याचार का सिलसिला जारी है। इसीलिए दलित साहित्य का अस्तित्व बना हुआ है। दलित साहित्य का जीवन से सीधा सम्बंध है। दलित साहित्य के महत्व को प्रो. चमनलाल कुछ इस प्रकार लिखते है कि ‘‘दलित समुदाय बृहत्तर समाज का अंग है व बृहत्तर समाज यदि दलित समुदाय के दुःख-सुख से अपरिचित है तो उसे साहित्य या अन्य माध्यमों द्वारा परिचित होना चाहिए और दलितों की मानवीय अस्मिता के प्रति बृहत्तर समाज की संवेदना जागृत होनी चाहिए, जिसमें दलित साहित्य की भूमिका हो सकती है।18 इस वक्तव्य को ध्यान में रखकर यह कहा जा सकता है कि दलित साहित्य के माध्यम से दलित वर्गाे (जो कि आज भी पिछड़े और षोषित है) में अपने प्रति जागृत किया जा सकता है। यही जागृति उनके उद्धार का एक मात्र मार्ग है। अन्त में दलित साहित्य के आवष्कता को वाल्मीकि जी कुछ इस प्रकार व्यक्त करते है ‘‘दलित साहित्य की व्यापकता इसी में है कि अन्याय, अत्याचार, सामाजिक विषमताओं, षोषण, दमन के विरूद्ध एक दीवार की तरह खड़ा हो जाए, बेहतर समाज की परिकल्पना को साकार करने के लिए। तभी उसका सामाजिक दायित्व और वैचारिक प्रतिबद्धता सिद्ध होगी।‘‘19 सभी दलित साहित्यकारों ने अपने लेखन के माध्यम से अपनी दुःख-दर्द-पीड़ा का वाणी देने का कार्य कर रहे है। जब तक पाठक गण इसे गम्भीरता से पढंेगे नहीं तब तक वह दलित साहित्य को सही मायने में नहीं समझ सकेंगे।  वर्तमान हिन्दी साहित्य में दलित साहित्य ने अपना वो मुकाम हासिल कर लिया है कि अब यह साहित्य किसी परिचय का मोहताज नहीं रहा गया है। बल्कि इस दलित साहित्य को कोई पसन्द करे या ना करे, इससे सहमति रखे या ना रखे, हिन्दी साहित्य में ‘दलित साहित्य‘ एक प्रवृत्ति के रूप में वास्तविकता बन चुका है जिसको न तो कभी ठुकराया जा सकता है और ना ही इसे कभी झुठलाया  जा सकता।




सन्दर्भ सूची:ः--
दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र: ओम प्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ-13
डाॅ. रामचन्द्र शर्मा, ‘संक्षिप्त शब्द सागर‘, पृ0 468।
नारायण सुर्वे, के लेख का अंश, ‘हंस‘, ‘अक्षर प्रकाशन‘, ‘नई दिल्ली‘, माह-अक्टूबर, वर्ष-1992, पृ0 23 ।
मित्तरसेन मीत, ‘दलित हर स्तर पर अभी भी उपेक्षित, ‘पाखी, अंक-08, माह-मई, वर्ष-2010, पृ0 15
दलित साहित्य का समाजशास्त्र: डाॅ. हरिनारायण ठाकुर, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ-51
दलित साहित्य वेदना और विद्रोह: डाॅ. शरणकुमार लिंबाले, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ-13-14
दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र: ओम प्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ-15
समाचार-पत्र ‘जनसत्ता‘ रायपुर, दि0- 06.03.11 ओम प्रकाश वाल्मीकि (‘प्रेमचन्द और दलित‘)
आधुनिक साहित्य में दलित विमर्श: देवेन्द्र चैबे, ओरियंट व्लैकस्वाॅन प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ-15
आधुनिक साहित्य में दलित विमर्श: देवेन्द्र चैबे, ओरियंट व्लैकस्वाॅन प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ-53
आधुनिक साहित्य में दलित विमर्श: देवेन्द्र चैबे, ओरियंट व्लैकस्वाॅन प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ-15
दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र: ओम प्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ-14-15
दलित साहित्य का समाजशास्त्र: डाॅ. हरिनारायण ठाकुर, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ-57
दलित साहित्य एक मूल्यांकन: प्रो. चमनलाल, राजपाल प्रकाशन, कश्मीरी गेट नयी दिल्ली, पृष्ठ-15
दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र: ओम प्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ-29
दलित साहित्य वेदना और विद्रोह: डाॅ. शरणकुमार लिंबाले, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ-95
दलित साहित्य वेदना और विद्रोह: डाॅ. शरणकुमार लिंबाले, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ-211
दलित साहित्य एक मूल्यांकन: प्रो. चमनलाल, राजपाल प्रकाशन, कश्मीरी गेट नयी दिल्ली, पृष्ठ-20
दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र: ओम प्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ-20


1 comment:

  1. वहा! बहुत खूब, हिन्दी साहित्य में दलित साहित्य सर्वश्रेष्ठ बना रहे , और आने वाले समय में दलित साहित्य और भी विराट बने ।

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