Thursday, November 14, 2019

आधुनिक भारत में नेहरू-अम्बेडकर की प्रासंगिकता

***हमारे स्वतंत्रता संग्राम के महानायकों गांधी-नेहरू और गांधी-अम्बेडकर के आपसी रिश्तों और वैचारिकता के तुलनात्मक अध्ययन पर बहुत कुछ लिखा पढ़ा गया है।

लेकिन विशेषकर नेहरू और अम्बेडकर के वैचारिक-राजनीतिक सम्बन्धों के विषय में कम ही लिखा-पढा गया है। जबकि भारतीय लोकतंत्र के निर्माण पर दोनों की अमिट छाप है। इन दोनों के अध्ययन के बगैर भारतीय लोकतंत्र व राजनीति को समझ पाना एक दुष्कर कार्य है। नेहरू-अम्बेडकर के आपसी वैचारिकता को समझने के लिए प्रतिमान का तीन साल पुराना अंक जनवरी-जून 2016 में आलोक टण्डन का लेख 'नेहरू और अम्बेडकर भारतीय आधुनिकता के दो चेहरे' पढ़ने का सुवसर मिला। यह लेख तीन खंडों में विभाजित है पहले खण्ड में दोनों महानायकों की  पारिवारिक पृष्ठभूमि के साथ उनके लोकतंत्र, उद्योगीकरण, समाजवाद, सेकुलरवाद, इतिहासदृष्टि, भारतीय संस्कृति, वैज्ञानिक दृष्टि, जातिप्रथा और उसका उन्मूलन व गुटनिरपेक्षता सम्बन्धी विचारों का विस्तारित तुलनात्मक अध्ययन किया गया है। तमाम असमानताएं होने की बावजूद भी दोनों को वैचारिकी आपस में पूरक है।

दूसरे खण्ड में नेहरू-अम्बेडकर के विचारों में समानताओं और भिन्नताओं के विवेचन की विस्तृत व्याख्या की गयी है। इसमें विशेषकर दोनों के धर्म सम्बन्धी पक्ष को दिखाया गया है।
तीसरे खण्ड में भारतीय आधुनिकता के दोनों पहरुओं के आवेदनों का मूल्यांकन किया गया है। जिसमें विस्तार से व्याख्या की गयी है कि स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा ही नेहरू तथा अम्बेडकर के समाज-निर्माण की वैचारिकी के पीछे है।

आज नेहरू जी के 130वें जन्मदिवस पर यह लेख पढ़कर उन्हें समझना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
और एक महत्वपूर्ण बात नेहरू को गाली देने वालो को यह लेख अवश्य पढ़ना चाहिए। वैसे भी किसी भी नायक को यदि सच मे पढ़ा जाये तो उसे गाली देने से पहले वह दो बार सोचेगा।

इसके साथ ही नेहरू को और बेहतरी से समझने के लिए आज के दैनिक जागरण के संपादकीय पृष्ठ पर सुरेंद्र किशोर का लेख 'नेहरू का राष्ट्रधर्म और आज की कांग्रेस' और द हिन्दू में छपा भूपेश बघेल का लेख 'Nehruvian consensus under siege' पर भी नज़र डालना समीचीन होगा।

धन्यवाद


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