Tuesday, November 5, 2019

साहित्य की उपेक्षित नायिका 'गोमती'

अभी हाल ही में *हिमांशु जोशी * का उपन्यास *कगार की आग* पढ़कर खत्म किया. इस उपन्यास का प्रथम संस्करण आज से ४३ वर्ष पूर्व यानि १९७६ में प्रकाशित हुआ था. फ़िलहाल जो मैंने पढ़ा वह इसका ११वां संस्करण (२०१७) है.
१०० पन्नों और २० खंडो का यह उपन्यास एक सिटिंग में पूरा पढने के बाद जब से इसकी कथावस्तु से रूबरू हुआ हूँ, तब से एक बात मुझे व्यक्तिगत रूप से काफी परेशान कर रही है. वह यह कि दलित साहित्य-विमर्श में इस उपन्यास का जिक्र आखिर क्यों नहीं हुआ. अभी तक दलित विमर्श को जितना पढ़ा-समझा है, कहीं इस उपन्यास की सुगबुगाहट भी सुनने को नहीं मिली. मेरी परेशानी मिश्रित जिज्ञासा तब और बढ़ गयी जब महिला साहित्यकारों-आलोचकों या चिंतकों या दलित महिला साहित्यकारों द्वारा भी *कगार की आग* की मुख्य पात्रा *गोमती* का जिक्र नहीं किया गया. इस बात पर खेद किया जाना चाहिए. आखिर *गोमती* समाज के साथ साहित्यिक समाज में आज तलक  उपेक्षिता ही बनी है. 
इस उपन्यास की उपेक्षा के पीछे २ मुख्य कारण  मुझे प्रतीत होते हैं- पहला यह कि गैर दलित साहित्यकार द्वारा रचित होने के कारण दलित विमर्श में इसे स्थान नहीं मिल सका, दूसरा एक पुरुष द्वारा लिखित होने के कारण महिला विमर्श ने इसे स्वीकार नहीं किया या न के बराबर ही किया हो, तो मुझे ज्ञात नहीं. उक्त दोनों कारणों से मुझे बेहद खेद भी है और दुःख भी. एक स्त्री या पहाड़ी स्त्री वो भी दलित समुदाय से ताल्लुक रखने वाली की पीड़ा, दुःख-तकलीफ, जीवन जीने का संघर्ष, अपने ही परिवार से अपने लिए जीवन की भीख मांगने का दर्द, अपने बच्चे और पति के लिए खुद को गैर-मर्द को सोपने का वो शूल एहसास जैसा इस उपन्यास में दिखाया गया है और यही नहीं उपन्यास के अंत में ‘गोमती’ द्वारा जिस प्रकार प्रतिशोध का स्वर मुखर किया जाता है और अपने पति ‘पीरमा’ की हत्या का बदला उसके द्वारा सांकेतिक रूप से लिया जाता है, अन्यत्र देखने को नहीं मिला. 
वैसे भी दलित साहित्य या विमर्श की बात करें तो उत्तराखण्ड जैसे पहाड़ी अंचलों के दलित जीवन से रूबरू कराने वाला साहित्य गौण ही है. उस पर इस उपन्यास का जिक्र न किया जाना बैचेन तो करता ही है. इसलिए ‘कगार की आग’ पर चर्चा करना और भी महत्वपूर्ण और प्रासंगिक हो जाता है. 
इस उपन्यास तक मैं भी शायद कभी नहीं पहुँच पाता यदि यह हमारे बीए तृतीय सेमेस्टर के पाठ्यक्रम में न शामिल होता. उत्तराखण्ड के राज्य विश्वविद्यालय ‘श्रीदेव सुमन उत्तराखण्ड विश्विद्यालय’ बादशाहीथौल टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड के बीए तृतीय सेमेस्टर के हिन्दी विषय के अंतर्गत द्वितीय प्रश्न-पत्र हेतु पाठ्यक्रम में इसे शामिल किया गया है. बाज़ार में सरलता से उपलब्ध न होने और महाविद्यालय के पुस्तकालय में भी उपलब्ध न होने के चलते अविलम्ब  इसे सीधे प्रकाशक (ज्ञानपीठ) से फ़ोन पर बात करके कुल 25 प्रतियाँ छात्रों हेतु मंगा ली गयी. 
यह उपन्यास मेरे लिए तब और महत्वपूर्ण हो जाता है जबकि मैं स्वयं पिछले 5 सालों से उत्तराखण्ड के एक दुर्गम महाविद्यालय में अपनी सेवा दे रहा हूँ. यहाँ के दलित जीवन को बहुत करीब से देखने, समझने का प्रयास करता रहता हूँ. इस उपन्यास को पढ़ने के बाद मेरा जो अनुभव विशेषकर दलित जीवन/लोगों और जातिवाद को लेकर रहा, वो काफी हद तक पुष्ट भी हुआ. 3 घंटे की एक सेटिंग में यह उपन्यास पढ़कर समाप्त किया, इस किताब के पन्ने को पढ़कर भले ही खत्म हो गये हो, परन्तु ‘गोमती’ की पीड़ा ने मन को ऐसा विचलित और छलनी किया है कि शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता. जैसे जैसे पढ़ता गया मन और आँखें भीगते गये. अभी भी ‘गोमती’ का चरित्र से खुद को अलग नहीं कर सका हूँ, क्योंकि आज भी यहाँ न जाने कितनी ही ‘गोमतियाँ’ अपने अस्तित्व को तलाशती भटक रही हैं. 
असल में यह कहानी एक शिल्पकार समाज (दलित) में जन्मी ऐसी महिला के शोषण और प्रताड़ना की कहानी को अभिव्यक्त करती है, जिसको अपने समाज से इतर तो अपमान सहना पड़ा ही, साथ ही दुखद और दुर्भाग्य यह रहा कि ‘गोमती’ को अपने ही परिवार/समाज से ही तिरस्कृत होना पड़ा. जो इस धारणा को भी पुष्ट करता है कि नारी किसी भी समुदाय में क्यों न जन्मी हो उसके  शोषण के पीछे उसके ही परिवार या समाज की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है. 
यह सवाल पहले भी कई बार मन में आया है फिर वो सवाल दोहराता हूँ- सवर्णों द्वारा दलितों-वंचितों-पिछड़ों के शोषण के विरोध में जिस प्रकार प्रतिशोध और आवाज़ बुलन्द हुई है या होती है, ठीक वैसे ही यह प्रतिशोधात्मक स्वर तब क्यों नहीं उठता या उठाया जाता जब किसी दलित का शोषण उसकी ही जाति या समुदाय या परिवार द्वारा किया जाता है? यह विरोधाभास नहीं तो और क्या है? जबकि यह उपन्यास समाज की उस परत को उघाड़ता है जिन पर जानबूझकर पर्दा डालने की कोशिश होती है या हम बचते रहते हैं. इस पर शोध किया ही जाना चाहिए कि दलित जातियों में समाहित आपसी भेदभाव व शोषण का जिक्र मुखरता से क्यों नहीं किया गया. 
इस सन्दर्भ में हमारा ध्यान ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी ‘शवयात्रा’ ने आकृष्ट तो किया पर कुछ दलित ब्राह्मणों ने इस कहानी को लेकर उनको ही कटघरे में खड़ा कर दिया. श्योराज सिंह बैचेन और सूरजपाल चौहान दोनों ने ही अपनी लेखनी के माध्यम से काफी चिन्तन किया है.  फिर भी इस विरोधाभासी तथ्य से कब तक मुंह मोड़ते रहेंगे. खैर 
बाकी समय मिले और पहाड़ी क्षेत्र दलित समुदाय के  जीवन से रूबरू होना चाहते हैं तो इस उपन्यास को पढ़िये. देखिए कि किस तरह पहाड़ पर दलित महिला की स्थिति मैदान से किस प्रकार भिन्न है. 
(IIAS SHIMILA, रात्रि 1 बजे, 02-11-2019)

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